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-Rajeev Kumar (Editor-in-chief)

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Tuesday, May 25, 2021

वीभत्स दुरुपयोग का अपराध (राष्ट्रीय सहारा)


में कोरोना के कहर के कारण मचे हाहाकार और भयावह oश्यों को कोई नकार नहीं सकता। किंतु जिस तरह की दहशत और दुनिया में कोरोना के समक्ष भारत की विफल राष्ट्र की जैसी ह्रदयविदारक तस्वीरें लगातार पेश की जाती रहीं उनसे करोड़ों लोग विस्मित थे। अब पता चल रहा है कि देश और विदेश की अनेक शक्तियां इस महाआपदा को भारत में हाहाकार और विदेशों में दुष्प्रचार के लिए जितना संभव हुआ उपयोग करतीं रहीं। ॥ टूलकिट दुष्प्रचार सामग्रियों के लिए सबसे बड़ा स्रोत होकर अभियान का एक प्रमुख अंग बन गया था।


 इसे लेकर भाजपा और कांग्रेस के बीच जारी द्वंद्व को कुछ समय के लिए छोड़ दीजिए। टूलकिट का निरीक्षण करने के बाद साफ होता है कि इसके माध्यम से कोरोना आपदा को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी‚ केंद्र सरकार‚ भारत‚ महाकुंभ जैसे हिंदुत्व के सांस्कृतिक आयोजनों आदि की विकृत छवि बनाने का षड्यंत्र किया गया और कुछ समय तक इसके सूत्रधार सफल भी रहे। कांग्रेस ने एफआईआर दर्ज करा दिया है‚ जिसमें आरोप लगाया गया है कि टूलकिट भाजपा की साजिश है। 


मामला सर्वोच्च न्यायालय में भी गया है। टूलकिट पर काम करने वालों का मानना है कि यूपीए सरकार के दौरान शशि थरूर जैसे नेताओं ने राजनीति में इसके उपयोग की शुरु आत की। उसके बाद इंडिया अगेंस्ट करप्शन‚ अन्ना अभियान में इसका व्यापक उपयोग हुआ तथा टूलकिट ने आम आदमी पार्टी के सत्ता में आने में प्रमुख भूमिका निभाई। तो यह सबके लिए हथियार बन गया। भारत में केंद्र से लेकर राज्य सरकारें‚ राजनीतिक पाÌटयां और नेताओं तक की आज अपनी सोशल मीडिया टीम है। पाÌटयां करोड़ों खर्च करतीं हैं।


 आईटी सेल के नाम से प्रचारित ये टीमें २४ घंटे सक्रिय रहतीं हैं। ट्विटर‚ फेसबुक‚ व्हाट्सएप‚ यूट्यूब‚ अमेजॉन‚ टेलीग्राम आदि पर ये टीमें अपने अनुसार सामग्रियां झोंकतेे रहते हैं। पश्चिम बंगाल चुनाव में हमने भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच सोशल मीडिया और टूलकिट का राजनीतिक युद्ध देखा। आवश्यक नहीं कि कांग्रेस पार्टी टूलकिट बनाने का औपचारिक निर्देश दे। कांग्रेस की इस समय जो दशा है उसमें स्वयं नेता या कुछ नेताओं के समूह अपने स्तर पर ही राजनीतिक निर्णय ले रहे हैं। 


इससे पार्टी की समस्याएं बढ़तीं हैं। इसके पीछे जो भी हो‚ मानवीय विनाश वाली महाआपदा को कैसे हथियार बनाकर राजनीति की जा सकती है इसका सबसे नीच उदाहरण टूलकिट के प्रायोजकों ने पेश किया है। दुर्भाग्य से सोशल मीडिया पर तो टूलकिट के माध्यम से फैलाया जा रहा झूठ व्यापक रूप से प्रसारित हो ही रहा था मुख्यधारा की मीडिया में पत्रकारों के बड़े वर्ग ने इन सूचनाओं‚ तथ्यों‚ तस्वीरों और विचारों को आगे बढ़ाया। इनमें से ज्यादातर ने जांचने की भी कोशिश नहीं की कि टूलकिट से जो कुछ दिए जा रहे हैं वाकई में सच है भी या नहीं। विदेशी अखबारों में भारत के श्मशानों में जलती चिताओं की ऐसी तस्वीरें छापी गइÈ और उन पर टिप्पणियां ऐसे लिखी गई मानो भारत में कोरोना के कारण केवल मौतें ही हो रही हैं। ‘न्यूयॉर्क टाइम्स' के पहले पृष्ठ पर राजधानी दिल्ली में श्मशान घाट में जलती चिताओं की बड़ी तस्वीरें और रिपोटेÈ जिस ढंग से भारत में सोशल मीडिया और मुख्यधारा की मीडिया में चलती रही अब उसका स्रोत समझ में आ रहा है। 


 लांसेट जैसी विज्ञान की पत्रिका की चीनी मूल की एशिया संपादक ने राजनीतिक लेख लिखकर मोदी के लिए अक्षम्य अपराध तक की बात कही और उसके वेबसाइट पर आते–आते भारत में न केवल सोशल मीडिया बल्कि मुख्यधारा की मीडिया की वेबसाइटों पर उसके अंश नजर आने लगे। ऐसे–ऐसे मनगढंत तथ्य टूलकिट के माध्यम से दिए गए‚ जिनसे साबित होता था कि मोदी सरकार अपनी फासिस्ट नीतियों के अंधेपन में धर्म के नाम पर महाकुंभ का आयोजन होने दे रही है और यह भारत में कोरोना के प्रसार का सबसे बड़ा कारण है। यह भी कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कोरोना के वर्तमान महाआपदा को फैलाने के एकमात्र खलनायक तथा विफलता के नायक हैं‚ न वो ठीक से उपचार का प्रबंधन कर रहे हैं और न बचाव का। विधानसभा चुनावों को लेकर ऐसी छवि बनाई गई जैसे केवल भाजपा चुनाव अभियान चला रही है और यह कोरोना के प्रसार का एक बड़ा कारण बन गया। सोशल मीडिया के माध्यम से उसे विश्व के अनेक देशों व वैश्विक संस्थाओं को भेजा जाता रहा। इन सबसे यह निष्कर्ष तो निकलता है कि गहन योजना द्वारा पूरा चक्र बनाया गया‚ जिसमें अलग–अलग समूहों की भूमिका तय रही होगी‚ अन्यथा इतने व्यवस्थित और आक्रामक तरीके से सब कुछ संचालित होता नहीं रहता। 


 कहा गया कि बाहर से आने वाले सामान उपयुक्त पात्रों तक पहुंच नहीं रहे हैं‚ उनके वितरण का प्रबंधन नहीं है‚ कई दिनों तक वे हवाई अड्डे पर ही पड़े रहते हैं। दुनिया भर की कई संस्थाओं ने भारत को लेकर जिस तरह की नकारात्मक रिपोटेÈ दी उनका स्रोत कौन हो सकता है; यह भी अब समझ में आ रहा है। कोई संस्था कह रहा है कि कोरोना की oष्टि से भारत सबसे असुरक्षित देश है। यह टूलकिट बंद हो चुका है लेकिन इसके फैलाए गए जहर का प्रभाव कायम है। भारत में १८ मई को कोरोना से हुई ४५२९ मौत को ‘न्यूयॉर्क टाइम्स' जैसे अखबार ने विश्व में एक दिन में सर्वाधिक मौत बता दिया। छानबीन करने पर तथ्य यह आया कि अमेरिका में ही १२ फरवरी को एक दिन में ५४६३ लोगों की मौत हुई। दुष्प्रचार में जो सच नहीं है उन्हें सच बनाकर प्रसारित किया गया है। विश्व में कोरोना के १६.५० करोड़ से ज्यादा मामलों में सबसे अधिक ३ करोड़ ८० लाख मामले केवल ३३ करोड़ आबादी वाले अमेरिका के हैं। 


 मरने वाले सबसे ज्यादा छह लाख वहीं के हैं। ब्राजील में मरने वालों की संख्या चार लाख पार गई है। तो भारत कैसे सबसे असुरक्षित देश हो गयाॽ इसी तरह कुछ और सच देखिए। प्रचारित होता रहा कि मोदी सरकार ने कोरोना को खत्म मानकर राज्यों को न आगाह किया ना उनके साथ संवाद बनया। कृषि कानूनों के विरु द्ध जारी आंदोलन को हिंसक बनाने में टूलकिट की भूमिका देश देख चुका था। अब इस टूलकिट ने कराहती मानवता के बीच अपराध किया है। टूलकिट का दुरु पयोग हम सबके लिए चेतावनी होनी चाहिए। विचार करना होगा कि भविष्य में केबल टूलकिट नहीं पूरे सोशल मीडिया में ऐसे दुरुûपयोगों को किस तरह रोका जाएॽ आज मोदी सरकार है कल कोई और सरकार होगी। इसलिए इसे रोका जाए। किसी संवैधानिक संस्था के विरुûद्ध ऐसे अभियान चलाए जा सकते हैं। ॥


सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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Wednesday, May 5, 2021

मोटा दाना–जैविक खाना (राष्ट्रीय सहारा)

भारत की पैरवी पर संयुक्त राष्ट्र ने २०२३ को बाजरे का साल घोषित किया है। बाजरे से बने ‘मुरूक्कू' खिलाकर भारत ने अपना स्वाद तो चढ़ा दिया सब पर लेकिन फिलहाल जो संकट है‚ उससे जूझने का कोई छोटा रास्ता नहीं है हमारे पास। हमें चिकित्सक चाहिए‚ तंत्र में चरित्र चाहिए और संकट की दस्तक सुनकर तुरंत खड़े होने वाले कान चाहिए। एक चिकित्सक जिन्होंने दवा की पर्ची पर पेड़ लगाने की सलाह लिखी‚ एक जिन्होंने बिगड़ते हालात में बेबस तंत्र की नाकामी लिखी। ऐसे अनगिनत जिन्हें जब–जब संवेदनाओं ने कचोटा तब उन्होंने गुहार लगाई‚ समझाइश की‚ नाराजगी जताई। हौसला भी भरपूर दिया। जैविक–जंग के हालात में हमें उस अoश्य को हराना है‚ जो हमारे जैव अंश की उस दीवार को लांघने से कतराता है‚ जिसमें लड़ने का भरपूर माद्दा है। जिन झिल्लियों पर पोषण के पहरेदार हैं‚ वहां विषाणुओं को मात जल्द मिलने का पैगाम होता है। यह हमारी नस्ल को बचाए रखने की कुदरती किलेबंदी है। ॥ ऐसे में हमारी परंपराओं‚ जंगलों‚ जीवों और धरती के साथ हिलमिलकर रहने वाले आदिवासियों की अनदेखी और उन्हें पिछड़ा मानकर ओझल कर देने वाली व्यवस्था अब कह रही है कि जिन्होंने हजारों साल पुराने जिन बीजों और पद्धतियों को सहेजा है‚ वही अच्छे जीवन की तिजोरियां हैं। जीन में छेड़छाड़ कर तैयार संकर बीजों ने‚ रसायनों के छिड़काव ने मिट्टी‚ पानी और फसलों को बेजान करके छोड़ दिया है। उनमें जहर घोल दिया है। किया–धरा हम सबका‚ मगर धकेले गए वो जिन्होंने बिगाड़ में नहीं‚ संभाल में हिस्सा लिया हमेशा। संयुक्त राष्ट्र की जुलाई‚ २०२० में मूलवासियों के हकों को लेकर आई खास रिपोर्ट ने कहा गया कि दुनिया की छह फीसद इस आबादी में डर है‚ उदासी है‚ दुश्वारियां हैं‚ जिन्हें हमने भुला दिया है और धकेल दिया है। जो धकेले नहीं गए थे‚ उन्हें भी अब अंतरात्मा को झकझोर देने वाली महामारी से दो–चार हाथ करने के बाद अपने खाने में कई तब्दीलियां करनी होंगी। पोषण वाले तिरंगे और सतरंगे खाने की पैरवी सरकारी संस्थाएं करती रही हैं। अब इन्हें रोजमर्रा की आदत में शामिल करने का वक्त है। बीमारियों को उलटे पांव लौटा देने की ताकत भी यही है। वनवासियों के अचूक नुस्खों और देसी उपज को बाजार का ठप्पा मिलने लगा है‚ लेकिन इससे उनकी उद्यमिता को कितना उठान मिला है‚ इसका आकलन भी किए जाने की जरूरत है। ॥ जिन मामलों में हमारे यहां दो राय कभी थी ही नहीं वहां दुनिया अब एक राय हो रही है। कोविड महामारी के दौर में लगातार बदलते बयानों के कारण अपनी साख गंवा चुका विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्लूएचओ भी कहने को मजबूर है कि हर देश की अपनी पारंपरिक समझ‚ खान–पान की अच्छी आदतें और जीवन की सक्रियता इस महामारी से बचाए रखेंगी। दोहन की नीति और अनीति की राजनीति के दौर में आखिर गंभीरता से किसे लिया जाए‚ इस दोराहे पर खड़े होकर भी हमें अपने पांव‚ दिल और दिमाग का भरपूर साथ चाहिए अभी। यूं हर पुरानी जानकारी और सारा खान–पान वैज्ञानिकता की कसावट में हो यह जरूरी नहीं। बिना प्रमाण‚ बिना तथ्य कही बातों की काट के लिए गूगल भी है‚ और असल लोग भी। सनातन ज्ञान और आधुनिक विज्ञान एक होकर पुख्ता तौर पर जब तक फैसला नहीं सुनाएंगे‚ तब तक परंपराओं के नाम पर गैर–वैज्ञानिक तीर–तुक्के खारिज नहीं हो पाएंगे। भारत में आज भी विज्ञान का जन–चेतना में पैरना बाकी है। दक्षिण भारत से शुरू हुई ‘पीपल्स साइंस मूवमेंट' जैसी पहल ओझल है। मुख्यधारा के संवाद और लोकभाषाओं की गपशप में समाधान और विज्ञान की बात होती तो जोर से सुनाई भी देती। उत्तराखंड के ‘बीज बचाओ' जैसे ढेरों आंदोलन भी अब याददाश्त से बाहर हैं। युवा पीढ़ी की ऑनलाइन दुनिया में सब खप गया है। जो खोजेगा‚ वो तो फिर भी पा ही जाएगा। यूं जैविक और ताकत वाले खाने के बढ़ते चाव का अंदाज भी यहीं से मिल रहा है। ॥ इकोविया इंटेलिजेंशिया की रिपोर्ट कहती है कि पिछले साल भर में जैविक उत्पादों की मांग बेतहाशा बढ़ी है। फिलहाल बाजार के बूते का नहीं कि इतनी मांग को पूरी भी कर पाए। आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस के जरिए लोगों की खान–पान की पसंद पहचानने वाले एक स्टार्टअप ने जाना कि जैविक और सेहत से भरे खाने के बारे में जानकारी जुटाने में २७ फीसद बढ़ोतरी है। देश की स्थानीय और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को हमारी हाट संस्कृति ने जिंदा रखा था‚ अब उसी का नया कलेवर सामने है। आजकल किसान–बाजार लगने लगे हैं‚ जहां मंडियों और बिचौलियों की मनमानी से बचे रहकर किसान अपनी मेहनत के सीधे–सच्चे दाम पा रहे हैं। रोगों से लड़ने की ताकत वाले फल‚ सब्जियां‚ बीज‚ सबकी पूछ और उनकी पूछताछ बढ़ रही है। वैदिक और आधुनिक ज्ञान को परंपराओं के साथ जोड़ने और किसानों की आय बढ़ाने के लिए काम कर रही महाराष्ट्र की भव्यता फाउंडेशन ने सत्तू और मौरिंगा सहित ढेरों सेहत भरे खानों के नये उत्पाद बनाए हैं‚ जिन्हें युवा और बच्चे भी शौक से खा लें। सूखे इलाकों की खूबियां बढ़ाने के लिए जुटे हुए जोधपुर के केंद्रीय शोध संस्थान ‘काजरी' ने बाजरे के बिस्किट सहित बाजार को भाने वाले ऐसे ढेरों उत्पाद तैयार किए हैं‚ जो सेहत भी दे रहे हैं‚ और स्वाद भी। राजस्थान में  दूध से पनीर‚ घी और आइसक्रीम बन रही है‚ और साबुन‚ उबटन और सजने–संवरने का इतना सामान तैयार हो रहा है कि यदि इन्हें सही प्रचार मिले तो ये सब मिलकर अर्थव्यवस्था को चमकाने में कोई कसर ना छोड़ें। ॥ जब ऑक्सीजन के लिए मारामारी मची है‚ तो ऐसे में खून की कमी यानी हीमोग्लोबिन कम न हो‚ इसकी खबर पूरी रखनी है। बाजरा‚ चना‚ मूंग‚ पत्तेदार सब्जियां‚ सहजन‚ लहसुन‚ खट्टे फल सबके साथ नाता करीब से जोड़े रखना है। खेती के नाते मोटा अनाज और देसी उपज बेशकीमती हो गए हैं। जलवायु संकट का सामना भी ये कर लेते हैं‚ और जैव–विविधता को बरकरार रखने का जरिया भी यही हैं। मोटा दाना–जैविक खाना‚ यह कायदा ही कायम रहेगा अब। जो नहीं समझे हैं‚ उन्हें मल्टीग्रेन‚ स्मार्ट फामिÈग‚ मल्टी क्रॉपिंग के फायदे जान लेने होंगे। भारत अन्न–धान‚ फलों–दालों को बाहर बेच रहा है यानी अपना पेट भरने को तो भरपूर है हमारे पास। अब पोषण सुरक्षा में पूरी ताकत झोंकनी है। कुछ लौटते हुए‚ कुछ आगे बढ़ते हुए ‘पोषणम' को अपनी–अपनी दुनिया का ध्येय बनाकर ही जिंदगी की जंग जीतेंगे हम सब। फिलहाल साथ देना‚ साथ निभाना और अच्छा खाना ही सबसे बड़ा हासिल है।

सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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Saturday, May 1, 2021

टीके का अर्थशास्त्र (राष्ट्रीय सहारा)

दुनिया भर में भारत की छवि को एक हाथी के तौर पर प्रस्तावित किया जाता है‚ अपनी मंथर गति से चलता हुआ हाथी। पर हालात अब ऐसे हैं कि कोरोना की गति तो तूफानी हो गई है और उसके खिलाफ संघर्ष भी मंथर गति से चल रहा है। अभी यह बहस चल रही है कि टीकाकरण का खर्च कौन करेगा‚ मुफ्त होना चाहिए या केंद्र को ही वहन कर लेना चाहिए या राज्यों को भी इसमें हिस्सेदारी निभानी चाहिए। यह आग लगने पर कुआं खोदने जैसा नहीं है‚ यह स्थिति तो आग लग जाने के बाद कुआं खोदने पर चर्चा जैसा है। ऐसा नहीं होना चाहिए। नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने कहा कि केंद्र सरकार चाहे‚ तो वैक्सीन का पूरा खर्च उठा सकती है।


 उनका कहना है कि चालू वित्त वर्ष यानी २०२०–२१ में विकास दर १०.५ फीसदी संभव है। ऐसी स्थिति में टीके पर खर्च को एक तरह से वित्तीय निवेश के तौर पर ही देखा जाना चाहिए। राजीव कुमार की बात को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। कोरोना सिर्फ स्वास्थ्य आपदा नहीं है‚ यह आÌथक आपदा भी है। लोगों ने डर कर घर से बाहर निकलना छोड़ दिया है। होटल‚ पर्यटन‚ शॉपिंगमॉल‚ सारे कारोबार ठप हो गए हैं। लोगों का डर तब जाएगा‚ जब व्यापक टीकाकरण हो जाएगा। टीकाकरण की रफ्तार अभी अपेक्षित स्तर तक नहीं पहुंची है। करीब १३० करोड़ के देश में अभी बीस करोड़ लोग भी टीका–संरक्षित नहीं हुए हैं। एक बड़ी बाधा वित्तीय बाधा है। राज्य सरकारों के पास संसाधनों का संकट है‚ यूं केंद्र के पास भी खुला खजाना नहीं है। पर केंद्र सरकार की संसाधन संग्रह क्षमता राज्य सरकारों के मुकाबले ज्यादा है।


 यह समय ज्यादा अगर मगर का नहीं है। टीकाकरण के लिए संसाधनों का संग्रह किया जाए और तेज गति से टीकाकरण किया जाए‚ शिविर लगाकर किया जाए। घर–घर जाकर किया जाए‚ पर तेज गति से किया जाए। टीका संरक्षित लोग घर से बाहर निकलेंगे‚ रोजगार–धंधा बढ़ेगा और अर्थव्यवस्था में चमक आएगी। राजीव कुमार के सुझाव को गंभीरता से लेकर त्वरित पहलकदमी होनी चाहिए। कोरोना आÌथक आपदा है और उसका अर्थ के स्तर पर मुकाबला जरूरी है। डरे हुए लोग अर्थव्यवस्था को बाधित करते हैं। प्रसन्न और चिंतामुक्त लोग तमाम धंधों को बढ़ाते हैं। यह समय बहुत ही विशिष्ट समय है। विशिष्ट समय में विशिष्ट उपायों की जरूरत होती है। और केंद्र सरकार को त्वरित और व्यापक टीकाकरण की आÌथक बाधाओं को तुरंत दूर करना चाहिए।


सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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गोवा मुक्ति संग्राम के योद्धा, मधु लिमये (राष्ट्रीय सहारा)

मधु लिमये  आधुनिक भारत के विशिष्टतम व्यक्तित्वों में से एक थे जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में महkवपूर्ण भूमिका निभाई और बाद में पुर्तगालियों से गोवा को मुक्त कराकर भारत में शामिल कराने में। वह प्रतिबद्ध समाजवादी‚ प्रतिष्ठित सांसद‚ नागरिक स्वतंत्रता के हिमायती और विपुल लेखक होने के साथ–साथ ऐसे व्यक्ति थे जिनका सारा जीवन देश के गरीब और आम आदमी की भलाई में गुजरा और उनके के लिए वह ताउम्र समÌपत रहे। 


 प्रबुद्ध समाजवादी नेता के रूप में उन्होंने १९४८ से १९८२ तक विभिन्न चरणों और अलग–अलग भूमिकाओं में देश में समाजवादी आंदोलन का नेतृत्व और मार्गदर्शन किया। मधु लिमये का जन्म १ मई‚ १९२२ को महाराष्ट्र के पूना में हुआ था। कम उम्र में ही उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली। अपनी स्कूली शिक्षा के बाद मधु लिमये ने १९३७ में पूना के फर्ग्यूसन कॉलेज में उच्च शिक्षा के लिए दाखिला लिया और तभी से उन्होंने छात्र आंदोलनों में भाग लेना शुरू कर दिया। इसके बाद मधु लिमये एसएम जोशी‚ एनजी गोरे जैसे नेताओं के संपर्क में आए और अपने समकालीनों के साथ–साथ राष्ट्रीय आंदोलन और समाजवादी विचारधारा के प्रति आकÌषत हुए। १९३९ में जब दूसरा विश्व युद्ध छिड़ा तो मधु लिमये ने विश्व युद्ध के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया और अपने युद्धविरोधी भाषणों के लिए अक्टूबर‚ १९४० में गिरफ्तार कर लिए गए। उन्हें एक वर्ष के लिए धुलिया जेल में डाल दिया गया। उन्हें सितम्बर‚ १९४१ में रिहा किया गया। अगस्त‚ १९४२ में जब बंबई में महात्मा गांधी ने ‘भारत छोड़ो' का आह्वान किया तो मधु लिमये वहां मौजूद थे। उसी समय गांधी जी सहित कांग्रेस पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। मधु अपने कुछ सहयोगियों के साथ भूमिगत हो गए। सितम्बर‚ १९४३ में मधु लिमये को एसएम जोशी के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें ‘डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स' के तहत गिरफ्तार किया गया था और जुलाई‚ १९४५ तक वर्ली‚ यरवदा और विसापुर की जेलों में बिना किसी मुकदमे के हिरासत में रखा गया। गोवा मुक्ति संग्राम का अंतिम चरण आज से लगभग ७५ वर्ष पूर्व समाजवादी नेता ड़ॉ. राममनोहर लोहिया द्वारा १८ जून‚ १९४६ को शुरू किया गया था। इसके लगभग पंद्रह वर्ष बाद १८–१९ दिसम्बर‚ १९६१ को गोवा‚ भारत सरकार द्वारा एक सैन्य ऑपरेशन ‘विजय' के जरिए आजाद कराया गया। इस तरह यह वर्ष गोवा मुक्ति संग्राम की शुरुûआत की ७५वीं सालगिरह और गोवा मुक्ति की ६०वीं वर्षगांठ का साल है। गोवा को पुर्तगालियों की गुलामी से निजात दिलाने के लिए १९४६ से १९६१ के बीच अनगिनत हिंदुस्तानियों ने अपनी जान की कुर्बानियां दीं। बहुत सारे लोग बरसों पुर्तगाली जेलों में रहे और उनकी यातनाएं सहीं‚ उनमें से एक वीर सपूत का नाम मधु रामचंद्र लिमये है‚ जिनका आज ९९वां जन्मदिन है। गोवा आज भारत का हिस्सा है तो इसका बड़ा श्रेय ड़ॉ. राममनोहर लोहिया और उनके प्रिय शिष्य मधु लिमये को जाता है। 


 मधु लिमये ने १९५० के दशक में गोवा मुक्ति आंदोलन में भाग लिया‚ जिसे उनके नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने १९४६ में शुरू किया था। उपनिवेशवाद के कट्टर आलोचक मधु लिमये ने १९५५ में एक बड़े सत्याग्रह का नेतृत्व किया और गोवा में प्रवेश किया। पेड़ने में पुर्तगाली पुलिस ने हिंसक रूप से सत्याग्रहियों पर हमला किया‚ जिसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर सत्याग्रहियों को चोटें आइÈ। पुलिस ने मधु लिमये की बेरहमी से पिटाई की। उन्हें पांच महीने तक पुलिस हिरासत में रखा गया था। दिसम्बर‚ १९५५ में पुर्तगाली सैन्य न्यायाधिकरण ने उन्हें १२ साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई। लेकिन मधु लिमये ने न तो कोई बचाव पेश किया और न ही भारी सजा के खिलाफ अपील की। एक बार जब वह गोवा की जेल में थे तो उन्होंने लिखा था कि ‘मैंने महसूस किया है कि गांधी जी ने मेरे जीवन को कितनी गहराई से बदल दिया है‚ उन्होंने मेरे व्यक्तित्व और इच्छाशक्ति को कितनी गहराई से आकार दिया है।' गोवा मुक्ति आंदोलन के दौरान मधु लिमये ने पुर्तगाली कैद में १९ महीने से अधिक का समय बिताया। अपनी इस कैद के दौरान उन्होंने एक जेल डायरी लिखी जिसे उनकी पत्नी चंपा लिमये ने एक पुस्तक ‘गोवा लिबरेशन मूवमेंट एंड मधु लिमये' के रूप में १९९६ में प्रकाशित कराया। अब आईटीएम यूनिवÌसटी‚ ग्वालियर द्वारा उसका दोबारा प्रकाशन किया गया है॥। इस किताब में मधु लिमये द्वारा पुर्तगाली कैद में बिताए गए दिनों का रोजनामचा तो है ही साथ ही अपनी पत्नी और एक साल के बेटे अनिरुûद्ध उर्फ ‘पोपट' को लिखे गए कुछ माÌमक और दिल को छू लेने वाले पत्र भी शामिल हैं। साथ ही‚ अस्सी के दशक में उनके द्वारा गोवा पर लिखे गए दो लंबे लेख और पचास के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा संसद में गोवा पर दिए गए भाषण और बयान भी शामिल किए गए हैं। दिलचस्प बात तो यह है कि अपने इन बयानों में नेहरू जी गोवा में की जाने वाली किसी भी संभावित सैनिक कार्रवाई का विरोध करते हैं‚ और कहते हैं कि ऐसी कार्रवाई अहिंसा और शांति के भारत के सिद्धांत के खिलाफ होगी। अंततः उन्हें भारतीय जनमानस और उन सत्याग्रहियों के दबाव के आगे झुकना पड़ा जो गोवा की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे थे और १८–१९ दिसम्बर‚ १९६१ को गोवा में सैनिक कार्रवाई करनी पड़ी। तब जाकर गोवा पुर्तगालियों की गुलामी से आजाद हुआ। ॥ भारतीय संविधान और संसदीय मामलों के ज्ञाता मधु लिमये १९६४ से १९७९ तक चार बार लोक सभा के लिए चुने गए। मधु लिमये ने जेपी आंदोलन (१९७४–७५) के दौरान और बाद में एकजुट विपक्षी पार्टी (जनता पार्टी) बनाने के प्रयासों में महkवपूर्ण भूमिका निभाई।१९७७ में वह जनता पार्टी के गठन और मोरारजी सरकार के गठन में भी सक्रिय थे। उन्हें मंत्री पद देने का प्रस्ताव भी किया गया था लेकिन उन्होंने इसे सिरे से अस्वीकार कर दिया। बाद में १ मई‚ १९७७ को उनके ५५वें जन्मदिन पर उन्हें जनता पार्टी का महासचिव चुना गया॥। स्वतंत्रता आंदोलन में उनके सराहनीय योगदान और गोवा मुक्ति आंदोलन में उनकी अहम भूमिका के लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सम्मान पेंशन की पेशकश की गई लेकिन उन्होंने इसे विनम्रता के साथ अस्वीकार कर दिया। उन्होंने संसद के पूर्व सदस्यों को दी जाने वाली पेंशन को भी स्वीकार नहीं किया। संक्षिप्त बीमारी के बाद ७२ वर्ष की आयु में ८ जनवरी‚ १९९५ को मधु लिमये का नई दिल्ली में निधन हो गया।


सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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Friday, April 30, 2021

आग लगने पर कुआं खोदना (राष्ट्रीय सहारा)

कोविड–१९ महामारी के बेकाबू होने में अब भी किसी को संदेह हो तो राजधानी दिल्ली में २५ अप्रैल को लगातार पांचवें दिन अस्पतालों में ऑक्सीजन का प्राणघातक संकट बने रहने से यह दूर हो जाना चाहिए। इससे पहले दो दिनों में राजधानी के दो बड़े अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से करीब चालीस मौतों की खबर आ चुकी थी। दर्जनों छोटे और मंझले अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से या ऑक्सीजन की कमी के चलते अस्पतालों से डिस्चार्ज किए गए या भर्ती ही नहीं किए गए मरीजों की मौतों का कोई आंकड़ा तो खैर उपलब्ध नहीं है।


 राजधानी का यह उदाहरण इसलिए नहीं दिया जा रहा है कि ऑक्सीजन का यह संकट राजधानी तक ही सीमित है। भले ही दिल्ली‚ महाराष्ट्र आदि की सरकारों के विपरीत उत्तर प्रदेश‚ हरियाणा‚ मध्य प्रदेश‚ गुजरात आदि राज्यों की सरकारें अपनी पार्टी की केंद्र सरकार को शÌमंदा न करने की चिंता में इस संकट के होने को ही नकारने की कोशिश कर रही हों‚ पर सचाई किसी से छुपी हुई नहीं है कि कोविड की वर्तमान सुनामी में अस्पताल के बैडों‚ वेंटिलेटरों‚ रेमडेसिविर आदि दवाओं की भयावह कमी पड़़ने की ही तरह ऑक्सीजन की भी भारी कमी पड़ गई। कहने की जरूरत नहीं है कि ऑक्सीजन की यह कमी इससे और भी घातक हो जाती है कि कोविड–१९ का संक्रमण गंभीर रोगियों के फेफड़ों पर खास तौर पर हमला करता है और इस संक्रमण से गंभीर रूप से पीडि़तों के लिए ऑक्सीजन ही सबसे महkवपूर्ण जीवनरक्षक है। राज्य सरकारों के खबरों को दबाने तथा संकट को छुपाने के सारे प्रयासों के बावजूद न सिर्फ मध्य प्रदेश जैसे राज्यों से ऑक्सीजन के अभाव में अस्पतालों में मरीजों के दम तोड़़ने की खबरें आ रही हैं‚ बल्कि हरियाणा जैसे राज्यों में भी सरकारों का अपने इलाके में मौजूद ऑक्सीजन प्लांटों से दूसरे राज्यों के लिए ऑक्सीजन की आपूÌत रोकने जैसे कदम उठाना ऑक्सीजन के संकट की गंभीरता का ही सबूत है। इसी तरह‚ उत्तर प्रदेश सरकार का निजी तौर पर ऑक्सीजन सिलेंडर खरीदने पर कड़ी पाबंदियां लगाने जैसी कार्रवाई करना भी राज्य में ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं होने के दावों को झुठलाता है। 


 कहने की जरूरत नहीं है कि ऑक्सीजन के अभाव में देश भर में दम तोड़़ने वाले सैकड़ों लोगों का खून केंद्र सरकार के ही हाथों पर है। इसकी वजह सिर्फ इतनी ही नहीं है कि देश में ऑक्सीजन का वितरण खास तौर पर पिछले साल से राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून के लागू रहते हुए पूरी तरह से केंद्र सरकार के ही अधीन है। चिकित्सकीय ऑक्सीजन की कुल मिलाकर उपलब्धता से लेकर देश के विभिन्न हिस्सों में उसके वितरण तक में अगर कोई समस्याएं हैं‚ तो उसके लिए कोई अनाम ‘सिस्टम' नहीं‚ वर्तमान केंद्र सरकार ही जिम्मेदार है। याद रहे कि यह कोई अचानक आ पड़ी मांग को पूरा करने में विफल आने भर का मामला नहीं है। बेशक‚ यह निÌववाद है कि कोविड–१९ की इस दूसरी लहर में अस्पतालों में भर्ती मरीजों में ऐसे मरीजों का अनुपात उल्लेखनीय रूप से बढ़ा है‚ जिन्हें ऑक्सीजन देने की जरूरत पड़ रही है। और यह तो स्वयंसिद्ध ही है कि महामारी की दूसरी लहर में संक्रमणों का दैनिक आंकड़ा‚ पहली लहर के शीर्ष के स्तर से‚ तीन गुने से भी ज्यादा हो चुका है और इस पंक्तियों के लिखे जाने तक साढ़े तीन लाख की रेखा पार करने ही वाला था। स्वाभाविक रूप से उपचार के लिए ऑक्सीजन की जरूरत कोविड से पहले के दौर के मुकाबले काफी ज्यादा बढ़ गई है।


 लेकिन ऑक्सीजन की मांग में ऐसी बढ़ोतरी न तो किसी भी तरह से अप्रत्याशित है‚ न अचानक आई है। पिछले साल मार्च के आखिर में पूर्ण लॉकडाउन की घोषणा करने के साथ केंद्र सरकार ने कोविड–१९ की चुनौती से निपटने के कदमों के लिए शासन के उच्चाधिकारियों को लेकर जिन ११ एम्पावर्ड ग्रुपों का गठन किया गया था‚ उनमें से एक ग्रुप ने‚ जिसे उठाए जाने वाले कदमों के सिलसिले में निजी क्षेत्र‚ एनजीओ तथा अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ तालमेल करने का जिम्मा दिया गया था‚ १ अप्रैल‚ २०२० को हुई अपनी दूसरी ही बैठक में चिकित्सकीय ऑक्सीजन की कमी होने के संबंध में आगाह कर दिया था। लेकिन मौजूदा संकट गवाह है कि केंद्र सरकार ने जरूरी कदम नहीं उठाए। यह इसके बावजूद था कि चेतावनी जिस समय दी गई थी‚ तब तक देश में कोविड के सिर्फ २‚००० केस थे‚ जबकि सितम्बर के आखिर तक‚ जब देश में कोविड के केस पहली लहर के अपने शीर्ष तक पहुंचे थे‚ चिकित्सकीय ऑक्सीजन का उपयोग ३००० मीट्रिक टन प्रति दिन तक पहुंच चुका था‚ जो कि कोविड के पहले के दौर से तीन गुना ज्यादा था। लेकिन हर जरूरत का समाधान निजी क्षेत्र में ही खोजने वाली केंद्र सरकार को‚ इस मामले में खुद कुछ करने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई क्योंकि तब तक तो चिकित्सकीय ऑक्सीजन के उत्पादन का आंकड़ा‚ खपत के आंकड़े से ठीक–ठाक ज्यादा नजर आ रहा था।


 यहां तक कि स्वास्थ्य संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने भी पिछले अक्टूबर में अपनी बैठक में चिकित्सकीय ऑक्सीजन की ‘उपलब्धता तथा उचित दाम' का मुद्दा उठाया था। सरकार से मांग की थी कि ‘ऑक्सीजन के पर्याप्त उत्पादन को प्रोत्साहित करे ताकि अस्पतालों की मांग के हिसाब से आपूÌत सुनिश्चित की जा सके।' संसदीय कमेटी के चेताने का भी सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा। और तो और जब महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में दूसरी लहर प्रकट भी हो गई‚ तब भी केंद्र सरकार का कोविड पर विजय का खुमार नहीं टूटा। इसी ३० मार्च को बढ़ते संक्रमण से जूझ रही महाराष्ट्र की सरकार ने राज्य में लगी ऑक्सीजन उत्पादन इकाइयों के लिए आदेश जारी कर दिया कि उनके ऑक्सीजन उत्पादन के ८० फीसद का चिकित्सकीय ऑक्सीजन के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा। इसके भी तीन हफ्ते बाद‚ २२ अप्रैल से ही केंद्र सरकार उद्योगों के लिए ऑक्सीजन की आपूÌत रोकने और उसे चिकित्सकीय ऑक्सीजन के रूप में ही उपलब्ध कराने का फैसला कर पाई। लेकिन तब तक तो ऑक्सीजन की कमी से देश के अभिजात अस्पतालों तक का दम घुटना शुरू हो चुका था। 


 अब प्रधानमंत्री ने देश भर में ५५१ सार्वजनिक अस्पतालों में पीएमकेयर फंड़ से ऑक्सीजन संयंत्र लगवाने की घोषणा की है। लेकिन क्या यह आग लगने के बाद कुआं खोदने का ही मामला नहीं हैॽ सवाल यह भी है कि क्या यह कुआं वाकई खुदेगा भीॽ पिछले साल केंद्र सरकार ने करीब डेढ़ सौ जिला चिकित्सालयों में ऑक्सीजन संयंत्र लगवाने का ऐलान किया था और उसके लिए २०० करोड़ का आवंटन भी कर दिया था। लेकिन साल भर में बने कुल ३२ संयंत्र। उम्मीद करनी चाहिए कि प्रधानमंत्री की घोषणा का भी ऐसा ही हश्र नहीं होगा। 

सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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Tuesday, April 27, 2021

उम्मीद रखें‚ सुबह भी होगी (राष्ट्रीय सहारा)


निसंदेह जिस पर विपत्ति आती है उसका दर्द वही जानता है। हम सब महसूस कर सकते हैं‚ लेकिन भुगतना तो उन्हीं को पड़ता है। जिनको भुगतना पड़ रहा है उनके सामने आप चाहे नीति और विचार के जितने वाक्य सुना दें तत्काल उनका मानस उसे ग्रहण करने की स्थिति में नहीं होता। चाहे कितनी बड़ी आपदा हो‚ विनाश का हाहाकार हो‚ चारों ओर मौत का भय व्याप्त हो‚ मनुष्य के नाते हमें भविष्य के लिए आशा की किरण की ही तलाश करनी होती है। अगर हमने उम्मीद खो दी‚ हमारा हौसला पस्त हो गया‚ साहस ने ही जवाब दे दिया तो फिर किसी आपदा पर विजय पाना कठिन हो जाएगा। 


कोरोना की महाआपदा से घिरे देश में मचा कोहराम कोई भी देख सकता है। जिनके अपने या अपनों की चिंताएं जली हैं उनको कहें कि हौसला बनाए रखिए.ये भी दिन गुजर जाएंगे‚ अच्छे दिन आएंगे तो ये बातें उनके गले आसानी से नहीं उतरेंगी‚ बल्कि इस समय शूल की तरह चुभती हुई भी लगेगी। मैंने अपने फेसबुक पोस्ट में लोगों से अपना हौसला बनाए रखने‚ अपनी सुरक्षा करने के साथ दूसरों को भी हौसला देने की अपील की थी। बड़ी संख्या में उत्तर सकारात्मक थे पर कुछ जवाब ऐसे भी थे जिनको हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। किसी ने लिखा कि अगर घर के सदस्य की या रिश्तेदार की चिता जल रही हो तो ये बातें किस काम की। उनके अनुसार एक ही दिन में कई चिताएं जला कर लौटे हैं। ये दिन भी गुजर जाएंगे पर एक मित्र ने लिखा कि पता नहीं तब तक हम जीवित होंगे या नहीं। 


ये दोनों बातें निराशाजनक लग सकती हैं किंतु कोरोना से जिस प्रकार का घटाटोप कायम हुआ है‚ उसमें सामान्य मनुष्य की यह स्वाभाविक दारुûण अभिव्यक्ति है। जिस तरह ऑक्सीजन और औषधियों के लिए देशभर के अस्पतालों में हाहाकार मचा है‚ ऑक्सीजन के अभाव में लोगों के घुट–घुट कर दम तोड़ने के समाचार आ रहे हैं‚ अस्पतालों में मरीज को भर्ती कराने के लिए सौ जुगत करनी पड़ रहीं है; उसमें हर घर मिनट–मिनट डर और आतंक के साए में जी रहा है। मेरे व्हाट्सएप मैसेज के उत्तर में एक जानी–मानी एंकर ने लिखा कि सर‚ हम सब कुछ कर रहे हैं फिर भी हर क्षण इस डर में जी रहे हैं कि पता नहीं क्या होगा‚ बाहर कदम रखने में डर लग रहा है। यह किसी एक व्यक्ति की आवाज नहीं है पूरे देश का अंतर्भाव यही है। मैंने जितने व्हाट्सएप किए; उनमें से ज्यादातर के उत्तर कहीं–न–कहीं अंतर्मन में व्याप्त भय और भविष्य की चिंता से लवरेज थे। कोई कुछ कहे लेकिन इस समय पूरा भारत ऐसे ही घनघोर निराशा में जी रहा है और चिंता का शिकार है। हम सबने अपने जीवन में कई महामारियों का सामना किया है‚ लेकिन एक–एक व्यक्ति को इतने दहशत में जीते कभी नहीं देखा। कोरोना के बारे में चिकित्सकों एवं वैज्ञानिकों के एक बड़े समूह की राय है कि यह इतनी बड़ी बीमारी है नहीं जितनी बड़ी बन या बना दी गई है। किंतु यह अलग से विचार कर विषय है। भारत में डर और निराशा का सामूहिक अंतर्भाव कोरोना की आपदा से बड़ी आपदा है। 


 प्रश्न है ऐसी स्थिति में हमारे सामने रास्ता क्या हैॽ ऐसे मुश्किल वक्त में कोई सरल उत्तर व्यवहारिक रास्ता नहीं हो सकता‚ लेकिन जीवन क्रम की ऐतिहासिक सच्चाई को भी हम नकार नहीं सकते। सृष्टि के आरंभ से मनुष्य ने न जाने कितनी आपदाएं‚ विपत्तियां‚ विनाशलीलाएं देखीं‚ उनका सामना किया और उन सबसे निकलते हुए जीवन अपनी गति से आगे बढ़ती रही। यही पूरी सृष्टि का क्रम रहा है। प्रलय में सब कुछ नष्ट हो जाता है। बावजूद वहां से फिर जीवन की शुरु आत होती ही है। हर प्रलय के बाद नवसृजन यही जीवन का सच है। जो ई·ार में विश्वास करते हैं यानी आस्तिक हैं वे मानते हैं कि हर घटित के पीछे ईश्वरीय महिमा है। इस धारणा से यह उम्मीद भी पैदा होती है कि ईश्वर ने बुरे दिन दिए हैं तो वही अच्छे दिन भी लाएगा। आप ईश्वर पर विश्वास न भी करें तो प्रकृति की गति और उसके नियमों को मानेंगे ही। अगर हर घटना की समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है तो इसमें अच्छी बुरी दोनों प्रकार की घटनाएं शामिल हैं। इस सिद्धांत में ही यह सच अंतÌनहित है कि बुरी घटना की विपरीत प्रतिक्रिया अच्छी ही होगी। तो भौतिकी का यह सिद्धांत भी उम्मीद जगाती है कि निश्चित रूप से निराशा और हताशा के वर्तमान घटाटोप से प्रकृति अपनी प्रतिक्रियाओं द्वारा हमें उबारेगी। षड्दर्शनों के विद्वान आपको इसे ज्यादा बेहतर तरीके से समझा सकेंगे। ॥ हमारे यहां बुजुर्ग धर्म और इतिहास से ऐसी कहानियां बचपन से सुनाते थे‚ विद्यालयों की पाठ पुस्तकों में पढ़ाई जातीं थी‚ जिनमें जीवन पर आइÈ विपत्तियां और उसमें अविचल रह कर जूझने और विजय पाने की प्रेरणा मिलती थी। इस दौर में साहित्य‚ धर्म‚ दर्शन‚ इतिहास‚ समाजशास्त्र आदि विषयों की ओर युवाओं की रुûचि घटी है‚ स्कूली पाठ्यपुस्तकों से भी वैसी कथाएं गायब हैं और इन सबका परिणाम हमारे सामूहिक मनोविज्ञान पर पड़ा है‚ लेकिन जो कुछ हम व्यवहार में भुगतते हैं वह भी हमें सीख देता है। हमारे आसपास ही ऐसे परिवार होंगे या स्वयं हम ही वैसे परिवार से आते होंगे जहां किसी बीमारी या घटना में एक साथ बड़ी संख्या में हमारे प्रियजन चल बसे। ऐसी त्रासदियों के व्यावहारिक और मानसिक संघात से पीडि़त होते हुए भी हम अपने को संभालते और जीवन की गाड़ी को आगे खींचते हैं। यही जीवन है। जब विनाशकारी तूफान आता है तो फसल नष्ट हो जाती हैं.बड़े–बड़े पेड़ भी जड़ों से उखड़ जाते हैं.लगता है पूरी प्रकृति बिखर गई हो लेकिन धरती बंजर नहीं होती। बीज फिर से अंकुरित होते हैं‚ फसल फिलहाल आती हैं‚ वनस्पतियां फिर अठखेलियां करने लगती हैं। मनुष्य अपनी जिजीविषा में फिर फसल लगाने निकलता है और सफल होता है। 


 जीवन क्रम इसी तरह आगे बढ़ता है। प्रकृति और जीवन के ये दोनों पहलू सच हैं। इसका कोई एक पहलू पूरा सच नहीं हो सकता। तूफान और विनाश भी प्रकृति चक्र के अंगभूत घटक हैं तो फिर नये सिरे से बीजों का अंकुरण और पौधों का उगना भी। कोरोना अगर इस चक्र में तूफान है तो यकीन मानिए इसके बाद फिर जीवन की हरियाली लहलहाती दिखेगी। अभी रास्ता यही है कि हम स्वयं और परिजनों को सुरक्षित रखें‚ दूसरों की सुरक्षा को खतरे में ना डालें तथा अपना हौसला बनाए रखते हुए एक–दूसरे की मदद करें व बाकी लोगों की भी हौसलाअफजाई करें।

सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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Saturday, April 24, 2021

उद्योग–कारोबार की नई मुश्किलें (राष्ट्रीय सहारा)


ड़ॉ. जयंतीलाल भंड़ारी

निस्संदेह कोरोना की दूसरी घातक लहर ने देश के औद्योगिक और आÌथक राज्यों में रोजगार और प्रवासी मजदूरों के पलायन की गंभीर चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। कोरोना संक्रमण बढ़ने का जो चिंताजनक परिoश्य दिखाई दे रहा है‚ उससे देश में आÌथक और रोजगार चुनौती और बढ़ेगी। यही कारण है कि हाल ही में गोल्डमैन सैश ने अपनी रिपोर्ट–२०२१ में भारत की आÌथक वृद्धि दर पहले के अनुमान से घटाकर १०.५ फीसदी कर दी है। 


ऐसे में देश भर में कोविड–१९ की नई चुनौतियों के कारण उद्योग–कारोबार और श्रमिकों की बढ़ती चिंताओं के मद्देनजर कुछ विशेष रणनीतिक कदम उठाए जाने जरूरी हैं। सरकार के द्वारा गत वर्ष २०२० में कोविड–१९ की पहली लहर के बीच घोषित की गई वित्तीय मदद एवं ऋण में सहायता जैसे विभिन्न उपाय अब फिर दोहराए जाने होंगे। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश की राज्य सरकारों ने जिस तरह गरीबों के लिए तीन महीने तक मुफ्त राशन देने का ऐलान किया है‚ उसी तरह की व्यवस्था विभिन्न तरह के लॉकडाउन जैसे सख्त कदम उठाने वाले अन्य राज्यों में भी की जानी होगी। इस समय कोरोना से प्रभावित हो रहे उद्योग–कारोबार को राहत देने के लिए वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की पेचिदगियां भी कम की जानी होंगी। सूIम‚ लघु एवं मध्यम उद्योग (एमएसएमई) के लिए नई राहत शीघ्र घोषित की जानी होगी। 


हाल ही में २० अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के नाम संबोधन में राज्यों से अपील की है कि वे श्रमिकों का विश्वास बनाए रखें और श्रमिकों को पलायन करने से रोकें। श्रमिकों के लिए काम और कोरोना वैक्सीन‚ दोनों की व्यवस्था सुनिश्चित करें। ऐसे में लॉकडाउन जैसी कठोर पाबंदी लगाने वाली राज्य सरकारों और नियोक्ताओं के द्वारा श्रमिकों और कर्मचारियों को भरोसेमंद तरीके से उनके कार्यस्थल या आवास पर रु कने की व्यवस्था करनी होगी। लेकिन जो श्रमिक अपने घर लौटना चाहते हैं‚ उन प्रवासी श्रमिकों के लिए उपयुक्त परिवहन व्यवस्था भी सुनिश्चित की जानी होगी। 


 ऐसे में मनरेगा एक बार फिर उन प्रवासी श्रमिकों के लिए जीवन रक्षक बन सकता है‚ जो दूसरी बार गांव लौटेंगे। गांवों में लौटते प्रवासी कामगारों के रोजगार के लिए मनरेगा को प्रभावी बनाया जाना होगा। चालू वित्त वर्ष २०२१–२२ के बजट में मनरेगा की मद पर रखे गए ७३‚००० करोड़ रु पये के आवंटन को बढ़ाया जाना होगा। यह कोई छोटी बात नहीं है कि इस योजना के तहत वित्त वर्ष २०२०–२१ में ११ करोड़ लोगों को काम मिला‚ जो २००६ में योजना लागू होने के बाद सबसे बड़ी संख्या है। इस दौरान करीब ३९० करोड़ कार्यदिवस का सृजन हुआ‚ यह भी मनरेगा लागू होने के बाद सर्वाधिक है। करीब ८३ लाख कामों का सृजन भी मनरेगा के तहत वित्त वर्ष २०२०–२१ में किया गया‚ जो वित्त वर्ष २० की तुलना में ११.२६ प्रतिशत ज्यादा है। यह भी कोई छोटी बात नहीं है कि करीब ७८ लाख परिवारों ने इस योजना के तहत १०० दिन काम पूरा किया‚ जबकि औसत रोजगार ५२ दिन का रहा है। 


 यह भी जरूरी है कि अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए देश में कोरोना वैक्सीन निर्माण पूरी क्षमता से किया जाए और टीकाकरण अभियान सफलतापूर्वक आगे बढ़ाया जाए। कोई एक साल पहले जब देश में कोरोना संक्रमण की पहली लहर शुरू हुई थी‚ तब देश में कोरोना की रोकथाम के लिए कोरोना वैक्सीन से संबंधित शोध और उत्पादन के विचार आने से शुरू हुए थे। लेकिन यह कोई छोटी बात नहीं है कि पिछले एक वर्ष में भारत ने कोविड–१९ टीका विकसित कर लिया। देश में टीके के सबसे कम दाम हैं। १६ जनवरी‚ २०२१ से देश में दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान चल रहा है। टीकाकरण में सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की ‘कोविशील्ड' तथा स्वदेश में विकसित भारत बायोटेक की ‘कोवैक्सीन' का उपयोग किया जा रहा है। कोविड–१९ टीकाकरण के लिए भारत का डिजिटल बुनियादी ढांचा वरदान बन गया है। देश की अर्थव्यवस्था और उद्योग–कारोबार के लिए २० अप्रैल को केंद्र सरकार ने टीका वितरण के जो नये दिशा–निर्देश जारी किए हैं‚ वे भी उपयुक्त रूप से क्रियान्वयन किए जाने होंगे। 


 नये निर्देशों के तहत १ मई से १८ वर्ष से अधिक उम्र के सभी भारतीयों को टीका लगाया जा सकेगा। यह वह वर्ग है‚ जो आÌथक गतिविधियों में सबसे सक्रिय भूमिका निभाता है। इसके साथ–साथ पहले की तरह केंद्र सरकार ४५ वर्ष से अधिक उम्र के लोगों के अलावा स्वास्थ्यकÌमयों और अग्रिम पंक्ति पर काम करने वालों के निःशुल्क टीकाकरण का दायित्व बनाए रखेगी। साथ ही‚ अब देश में बनने वाले कोरोना टीकों में से आधे टीकों पर केंद्र सरकार का अधिकार रहेगा। राज्य सरकारों को यह अधिकार दिया गया है कि वे अपनी उपयुक्तता के अनुरूप कोरोना टीका उत्पादक देशी या विदेशी कंपनियों से टीके की खरीदी तथा अपने प्रदेश में टीका लगाने संबंधी उपयुक्त निर्णय ले सकती हैं। इससे भी सफल हुआ टीकाकरण अभियान उद्योग–कारोबार के लिए लाभप्रद होगा। 


 कोरोना संक्रमण के बढ़ते मामलों के साथ देश के जिन राज्यों में लॉकडाउन जैसी स्थिति है‚ वहां एमएसएमई के लिए एक बार फिर से लोन मोरेटोरियम योजना लागू की जानी लाभप्रद होगी। इन राज्यों में एमएसएमई को उन राज्यों के बिके हुए माल का भुगतान नहीं मिल पा रहा है। ऐसी स्थिति में उन्हें बैंकों के कर्ज चुकाने के लिए अतिरिक्त समय की आवश्यकता होगी। ऐसा नहीं करने पर अधिकतर एमएसएमई के सामने एनपीए श्रेणी में आ जाने का खतरा है। ज्ञातव्य है कि सरकार ने रिटेल लोन लेने वालों समेत एमएसएमई को पिछले वर्ष कोरोना काल में मार्च से अगस्त २०२० के लिए लोन मोरेटोरियम दिया था। करीब ३० फीसद एमएसएमई ने इस लोन मोरेटोरियम का फायदा उठाया था। आरबीआई द्वारा फिर लोन मोरेटोरियम सुनिश्चित किया जाना होगा।


 हम उम्मीद करें कि कोरोना संक्रमण की दूसरी घातक लहर की आÌथक और औद्योगिक चुनौतियों के बीच सभी राज्य सरकारें इस बात को स्वीकार करेंगी कि लॉकडाउन अंतिम विकल्प है। ऐसे में लॉकडाउन की जगह उपयुक्त कठोर पाबंदियां और स्वास्थ्य तथा सुरक्षा मानकों के सख्त प्रतिबंधों से देश के जनजीवन के साथ उद्योग–कारोबार को भी मुश्किलों से बचाया जा सकता है।


सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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Monday, April 19, 2021

आपका धर्म नहीं पूछता (राष्ट्रीय सहारा)

पिछले वर्ष कोरोना ने जब अचानक दस्तक दी तो पूरी दुनिया थम गई थी। सदियों में किसी को कभी ऐसा भयावह अनुभव नहीं हुआ था। तमाम तरह की अटकलें और अफवाहों का बाजार गर्म हो गया। एक दूसरे देशों पर कोरोना फैलाने का आरोप लगने लगे। चीन को सबने निशाना बनाया। पर कुछ तो राज की बात है कोरोना कि दूसरी लहर में। जब भारत की स्वास्थ्य और प्रशासनिक व्यवस्था लगभग अस्त–व्यस्त हो गई है तो चीन में इस दूसरी लहर का कोई असर क्यों नहीं दिखाई दे रहाॽ क्या चीन ने इस महामारी के रोकथाम के लिए अपनी पूरी जनता को टीके लगवा कर सुरक्षित कर लिया हैॽ 


 कोविड की पिछली लहर आने के बाद से ही दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने इसके मूल कारण और उसका तोड़ निकालने की मुहिम छेड़ दी थी। पर भारत में जिस तरह कुछ टीवी चौनलों और राजनैतिक दलों ने कोविड फैलाने के लिए तब्लीगी जमात को जिम्मेदार ठहराया और उसके सदस्यों को शक की नजर से देखा जाने लगा वो बड़ा अटपटा था। प्रशासन भी उनके पीछे पड़ गया। जमात के प्रांतीय अध्यक्ष के खिलाफ गैर जिम्मेदाराना भीड़ जमा करने के आरोप में कई कानूनी नोटिस भी जारी किए गए। दिल्ली के निजामुद्दीन क्षेत्र को छावनी में तब्दील कर दिया गया। यही मान लिया गया कि चीन से निकला यह वायरस सीधे तब्लीगी जमात के कार्यक्रम का हिस्सा बनने के लिए ही आया था। ये बेहद गैर–जिम्मेदाराना रवैया था। माना कि मुसलमानों को लIय करके भाजपा लगातार हिंदुओं को अपने पक्ष में संगठित करने में जुटी है। पर इसका मतलब यह तो नहीं कि जानता के बीच गैरवैज्ञानिक अंधविश्वास फैलाया जाए। 


जो भी हो शासन का काम प्रजा की सुरक्षा करना और समाज में सामंजस्य स्थापित करना होता है। इस तरह के गैर जिम्मेदाराना रवैये से समाज में अशांति और अराजकता तो फैली ही‚ जो ऊर्जा और ध्यान कोरोना के उपचार और प्रबंधन में लगना चाहिए थी वो ऊर्जा इस बेसिरपैर के अभियान में बर्बाद हो गई। हालत जब बेकाबू होने लगे तो सरकार ने कड़े कदम उठाए और लॉकडाउन लगा डाला। उस समय लॉकडाउन का उस तरह लगाना भी किसी के गले नहीं उतरा। सबने महसूस किया कि लॉकडाउन लगाना ही था तो सोच–समझकर व्यावहारिक दृष्टिकोण से लगाना चाहिए था। क्योंकि उस समय देश की स्वास्थ्य सेवाएं इस महामारी का सामना करने के लिए तैयार नहीं थी इसलिए देश भर में काफी अफरा–तफरी फैली‚ जिसका सबसे ज्यादा खामियाजा करोड़ों गरीब मजदूरों को झेलना पड़ा। बेचारे अबोध बच्चों के लेकर सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल कर अपने गांव पहुंचे। लॉकडाउन में सारा ध्यान स्वास्थ्य सेवाओं पर ही केंद्रित रहा‚ जिसकी वजह से धीरे धीरे स्थित नियंत्रण में आती गई। उधर वैज्ञानिकों के गहन शोध के बाद कोरोना की वैक्सीन तैयार कर ली और टीका अभियान भी चालू हो गया‚ जिससे एक बार फिर समाज में एक उम्मीद की किरण जागी। इसलिए सभी देशवासी वही कर रहे थे जो सरकार और प्रधानमंत्री उनसे कह रहे थे। फिर चाहे कोरोना भागने के लिए ताली पीटना हो या थाली बजाना। पूरे देश ने उत्साह से किया। ॥ ये बात दूसरी है कि इसके बावजूद जब करोड़ों का प्रकोप नहीं थमा तो देश में इसका मजाक भी खूब उड़ा। क्योंकि लोगों का कहना था कि इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था‚ लेकिन हाल के कुछ महीनों में जब देश की अर्थव्यवस्था सही रास्ते पर चलने लगी थी तो कोरोना की दूसरी लहर ने फिर से उम्मीद तोड़ दी है। आज हर तरफ से ऐसी सूचनाएं आ रही हैं कि हर दूसरे घर में एक न एक संक्रमित व्यक्ति है। अब ऐसा क्यों हुआॽ इस बार क्या फिर से उस धर्म विशेष के लोगों ने क्या एक और बड़ा जलसा कियाॽ या सभी धर्मों के लोगों ने अपने–अपने धार्मिक कार्यक्रमों में भारी भीड़ जुटा ली और सरकार या मीडिया ने उसे रोका नहींॽ तो क्या फिर अब इन दूसरे धर्मावलम्बियों को कोरोना भी दूसरी लहर के लिए जिम्मेदार ठहराया जाएॽ ये फिर वाहियात बात होगी। कोरोना का किसी धर्म से न पहले कुछ लेनादेना था न आज है। सारा मामला सावधानी बरतने‚ अपने अंदर प्रतिरोधी क्षमता विकसित करने और स्वास्थ्य सेवाओं के कुाल प्रबंधन का है‚ जिसमें कोताही से ये भयावह स्थित पैदा हुई है। इस बार स्थित वाकई बहुत गम्भीर है। लगभग सारे देश से स्वास्थ्य सेवाओं के चरमराने की खबरें आ रही है। 


 संक्रमित लोगों की संख्या दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़ रही है और अस्पतालों में इलाज के लिए जगह नहीं है। आवश्यक दवाओं का स्टॉक काफी स्थानों पर खत्म हो चुका है। नई आपूर्ति में समय लगेगा। श्मशान घाटों तक पर लाइनें लग गई हैं। स्थिति बाद से बदतर होती जा रही है। मेडिकल और पैरा मेडिकल स्टाफ के हाथ पैर फूल रहे हैं। इस अफरा–तफरी के लिए लोग चुनाव आयोग‚ केंद्र व राज्य सरकारों‚ राजनेताओं और धर्म गुरुओं को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं‚ जिन्होंने चुनाव लड़ने या बड़े धार्मिक आयोजन करने के चक्कर में सारी मर्यादाओं को तोड़ दिया। आम जनता में इस बात का भी भारी आक्रोश है कि देश में हुक्मरानों और मतदाताओं के लिए कानून के मापदंड अलग–अलग हैं। जिसके मतों से सरकार बनती है उसे तो मास्क न लगाने पर पीटा जा रहा है या आर्थिक रूप से दंडित किया जा रहा है‚ जबकि हुक्मरान अपने स्वार्थ में सारे नियमों को तोड़ रहे हैं। 


 सोशल मीडिया पर नावæ का एक उदाहरण काफी वायरल हो रहा है। वहां सरकार ने आदेश जारी किया था कि १० से ज्यादा लोग कहीं एकत्र न हों पर वहां की प्रधानमंत्री ने अपने जन्मदिन की दावत में १३ लोगों को आमंत्रित कर लिया। इस पर वहां की पुलिस ने प्रधानमंत्री पर १.७५ लाख रुपये का जुर्माना ठोक दिया‚ यह कहते हुए अगर यह गलती किसी आम आदमी ने की होती तो पुलिस इतना भारी दंड नहीं लगाती‚ लेकिन प्रधानमंत्री ने नियम तोड़ा‚ जिनका अनुसरण देश करता है‚ इसलिए भारी जुर्माना लगाया। प्रधानमंत्री ने अपनी गलती मानी और जुर्माना भर दिया। हम भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बताते हुए नहीं थकते पर क्या ऐसा कभी भारत में हो सकता हैॽ हो सकता तो आज जनता इतनी बदहाली और आतंक में नहीं जी रही होती।


सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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Friday, April 16, 2021

क्या परीक्षाएं संभव हैंॽ (राष्ट्रीय सहारा)

कोरोना के बढ़ते प्रकोप में परीक्षा का सवाल एक बार फिर से उठ खड़ा हुआ है। अप्रैल माह में बोर्ड परीक्षाओं सहित अनेक प्रवेश परीक्षाओं का आयोजन होता है। इन आयोजनों को तात्कालिक रूप से टाला जा रहा है। वर्तमान में इसके अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। इस विकल्प को स्वीकार करने के साथ ही शिक्षक‚ विद्यार्थी और शिक्षा तंत्र से जुड़े लोगों के बीच चर्चा हैं कि बच्चों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए भविष्य में परीक्षाएं हों या न हों। 


 जब हम परीक्षाओं के लिए ‘ना' कहते हैं‚ तो आने वाले वषाç में बिना ‘मार्कशीट' वाले विद्यार्थी किन समस्याओं से जूझेंगे‚ इस सवाल को संज्ञान में नहीं लेते। जब परीक्षा को अनिवार्य मानते हैं‚ तो तात्कालिक आपदा में बच्चों के जोखिम का आकलन नहीं करते। ‘हां' या ‘ना' के बीच हमें परीक्षा की प्रकृति के सापेक्ष उन विकल्पों पर विचार करना है‚ जो सीखने के लिए आकलन में हमारी मदद कर सकें। हमारी शिक्षा व्यवस्था में परीक्षा परिणाम तुलना एवं चयन के आधार बनते हैं। इनमें भी हमारा भरोसा केवल सत्रांत परीक्षा पर होता है। 


इनके आधार पर केवल अगले शिक्षा स्तर में प्रवेश ही नहीं दिया जाता‚ बल्कि ये परीक्षा परिणाम प्रत्येक विद्यार्थी के आने वाले १० से १५ वषाç में बार–बार उसके प्रदर्शन की कसौटी बनकर उपस्थित होते हैं। परीक्षा परिणामों के आधार पर लगभग ५ वषाç के दौरान उत्तीर्ण हुए हमउम्र साथियों के बीच की तुलना‚ विशेष रूप से नौकरी के लिए‚ की जाती है। इन सच्चाइयों के कारण ही सीखने की प्रक्रिया के स्थान पर ‘अंक पत्र' ही हमारे लिए सबसे मूल्यवान बन जाते हैं। यह विश्वास ही परीक्षा की उस प्रक्रिया और संरचना को जन्म देता है‚ जो समस्यामूलक है। आपदाकाल में देखें तो परीक्षा की यही प्रकृति मूल बाधा है। शिक्षा का एक लIय मूल्यों का पोषण करना भी है। 


इसके विपरीत हमारी परीक्षा व्यवस्था मूल्यविहीन अध्यापक‚ विद्यार्थी और अभिभावक की मान्यता पर टिकी है। जिस ढंग से सत्रांत परीक्षाओं का आयोजन होता है‚ उससे पता चलता है कि ये सभी भागीदार ईमानदारी के साथ मूल्यांकन कार्य में सहयोग नहीं करेंगे। नकल करना–करवाना‚ पक्षपात करना‚ अधिक अंक के लिए दबाव बनाने आदि के संशय को दूर करने के लिए हमारा परीक्षा तंत्र खड़ा हुआ है। वैसे तो इस तंत्र में प्रत्येक परीक्षार्थी स्वयं ही प्रश्न पत्र को हल करता है। यह कोई सहभागी कार्य नहीं होता। लेकिन ‘परीक्षार्थी' इतना संदिग्ध होता है कि एक केंद्र पर बड़ी संख्या में एकत्रित होकर वयस्कों सहित कैमरे की निगरानी में वे परीक्षा देते हैं। वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन के लिए शिक्षक मूल्यांकन केंद्रों पर एकत्रित होते हैं। 


 परीक्षा की यह संरचना कोरोनाकाल में सुरक्षा के मानकों एवं व्यवहारों से मेल नहीं खाती। आपदा काल में बच्चों की सुरक्षा के लिए अपरिहार्य है कि वे एक बड़े केंद्र पर सामूहिक रूप से एकत्रित न हों‚ केंद्र तक आने–जाने के लिए कोई यात्रा न करें आदि। परीक्षा की वर्तमान संरचना और तंत्र यह सुनिश्चित नहीं कर पा रहे। आपदा काल में परीक्षा तंत्र की सख्ती और कठोरता ने परीक्षा को तनाव का पर्याय बना दिया है। हर हितचिंतक इस दुविधा में रहा कि परीक्षा हो या न होॽ वर्तमान आपदाकाल में ‘परीक्षा' पर विचार करने की अनिवार्य शर्त है कि हम शिक्षक‚ विद्यार्थी और अभिभावक मूल्यविहीनता के प्रचलित ठप्पे के स्थान पर वायदा करें कि हम ईमानदारी के साथ परीक्षा के भागीदार बनें। आपदा काल में परीक्षा की समस्या का यह पहला समाधान होगा। पुनःश्च हम अपने शिक्षण शास्त्रीयज्ञान‚ प्रौद्योगिकी और नवाचार के माध्यम से परीक्षा की संरचनागत सीमाओं का विकल्प खोज सकते हैं। 


परीक्षा की विश्वसनीयता एवं वैधता को सुनिश्चित करने के लिए बाह्य कसौटियों जैसे–केंद्र पर उपस्थिति की अनिवार्यता‚ मूल्यांकन के लिए शिक्षकों की उपस्थिति आदि की बाधाओं को तोड़ने के लिए विद्यार्थी‚ शिक्षक और अभिभावक की भूमिका में परिवर्तन करना होगा। परीक्षा के संचालन को इतना विकेंद्रित करना होगा कि परीक्षार्थी अपने घर से ही परीक्षा दे सकें। उनके शिक्षक ‘सतत एवं व्यापक मूल्यांकन' के मॉडल द्वारा विद्याÌथयों के प्रदर्शन के वास्तविक आंकड़े उपलब्ध कराएं। इससे बाह्य परीक्षा की आवृत्ति और अवधि‚ दोनों को कम किया जा सकता है। सूचना प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हुए ऑनलाइन परीक्षा का विकल्प भी अपनाया जा सकता है। इस विकल्प के साथ दो चुनौतियां हैं। पहली‚ संसाधनों की उपलब्धता और दूसरी‚ ‘डिजिटल डिवाइड' के प्रभाव से परीक्षा को मुक्त रखना। इसके लिए संसाधनों की उपलब्धता और उनके प्रयोग के प्रति सकारात्मक अभिवृत्ति का विकास करना होगा। लोकवस्तु के रूप में शिक्षा के लिए सूचना प्रौद्योगिकी के संसाधनों को जन–जन तक पहुंचाए बिना यह विकल्प मध्यमवर्गीय परिवार एवं नगरीय केंद्रों तक ही प्रभावी होगा। ‘आपदाकाल में अपरिहार्य खर्च' के रूप में सरकार को इसे वहन करना होगा। 


 इसके साथ–साथ हमें आकलन के तरीकों एवं उपकरणों में विविधता और उनकी समतुल्यता पर भी विचार करना होगा। ध्यान रखना होगा कि दूरदराज के कस्बाई विद्यालयों‚ जो कोरोना के प्रभाव से अपेक्षाकृत सुरक्षित हैं‚ में आकलन और मुंबई‚ दिल्ली और लखनऊ जैसे कोरोना से अति प्रभावित क्षेत्रों के विद्यालयों में आकलन एक समान नहीं हो सकता। इस विषमता के बीच शिक्षक ऐसे कर्ता के रूप में हैं‚ जो हमारी मदद कर सकते हैं। विद्याÌथयों और अभिभावकों के सहयोग से आकलन के स्थानीय और सांदÌभक तरीकों का प्रयोग कर सकते हैं। इसके आधार पर विद्याÌथयों के अंकों या ग्रेडों को निर्धारित कर सकते हैं। इस स्थिति में आकलन में विचलन बहुत अधिक होगा। इसके लिए सांख्यिकीय स्तर पर सापेक्षिक आकलन के लिए नये मापकों का प्रयोग एक उपाय हो सकता है। इस तरीके में आंतरिक मूल्यांकन का हिस्सा बढ़ाते हुए विद्याÌथयों के प्रदर्शन से जुड़े प्रमाणों को एकत्रित किया जा सकता है। ॥ हमें ध्यान रखना होगा कि परीक्षा‚ कोरोना आपदा के दौरान विद्याÌथयों ने जो सीखा है‚ उसका सकारात्मक फीडबैक देने की प्रणाली हो। यह ‘अंतिम फैसला' देने की परीक्षा न होकर उनकी उपलब्धियों और इसके आधार पर मार्गदर्शन की व्यवस्था बने। सत्रांत परीक्षा के ‘शुतुरमुर्ग समाधान' से बाहर ठोस और वैकल्पिक व्यवस्था का प्रयोग करना होगा। इस व्यवस्था में विद्यार्थी केंद्रिकता और सुरक्षित विकल्पों को प्राथमिकता देनी होगी। राज्य का यह प्रयत्न सार्थक हो‚ इसके लिए प्रत्येक विद्यार्थी‚ शिक्षक और अभिभावक की ओर से यह आश्वासन भी होना चाहिए कि वे सुरक्षित और शुचितापूर्ण परीक्षा नवाचारों के भागीदार बनने के लिए सहमत हैं। 

सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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Saturday, April 10, 2021

नाइंसाफी है देर से मिला इंसाफ (राष्ट्रीय सहारा)

इस बात सूरत में बीस साल पहले शिक्षा से जुड़ी एक कांफ्रेंस में जुटे १२३ लोग–जिनमें से पांच लोगों की इस दौरान मौत भी हो चुकी है–जिन्हें प्रतिबंधित सिमी संगठन से जुड़ा बताया गया था‚ उनकी इतने लम्बे वक्फे के बाद हुई बेदाग रिहाई के बारे में कही जा सकती है। समूह में शामिल लोग आल इंडिया माइनॉरिटी एजुकेशन बोर्ड के बैनर तले हुए कांफ्रेंस के लिए देश के दस अलग–अलग राज्यों से लोग एकत्रित थे‚ जिनमें कुछ राजस्थान से आए दो कुलपति‚ चार–पांच प्रोफेसर‚ डॉक्टर‚ इंजीनियर तथा एक रिटायर्ड न्यायाधीश तथा अन्य पेशों से सम्बद्ध पढ़े–लिखे लोग शामिल थे।


 इन लोगों को बेदाग रिहा करते हुए अदालत ने पुलिस पर तीखी टिप्पणी की है कि उसका यह कहना कि यह सभी लोग प्रतिबंधित संगठन ‘सिमी' से जुड़े थे‚ न भरोसा रखने लायक है और न ही संतोषजनक है‚ जिसके चलते सभी अभियुक्तों को संदेह का लाभ देकर बरी किया जाता है।' मालूम हो इन सभी को एक साल से अधिक समय तक ऐसे फर्जी आरोपों के लिए जेल में बंद रहना पड़ा था और अदालती कार्रवाई में शामिल होने के लिए आना पड़ता था। इन १२३ में से एक जियाउद्दीन अंसारी का सवाल गौरतलब है कि ‘अदालत ने हमें सम्मानजनक ढंग से रिहा किया है‚ लेकिन उन लोगों–अफसरों का क्या –जिन्होंने हमें नकली मुकदमों में फंसाया था‚ क्या उन्हें भी दंडित होना पड़ेगा।' 


 अदालत की पुलिस की तीखी टिप्पणी दरअसल हाल के समयों में इसी तरह विभिन्न धाराओं में जेल के पीछे बंद दिशा रवि जैसे अन्य मुकदमों की भी याद दिलाती है‚ जहां पुलिस को अपने कमजोर एवं पूर्वाग्रहों से प्रेरित जांच के लिए लताड़ मिली थी। तय बात है कि सूरत के फर्जी मुकदमे में गिरफ्तार रहे इन लोगों की बेदाग रिहाई न इस किस्म की पहली घटना है और न ही आखिरी। कुछ माह पहले डॉ. कफील खान की हुई बेदाग रिहाई‚ जब उन्हें सात माह के बाद रिहा किया गया‚ दरअसल इसी बात की ताईद करती है कि अगर सरकारें चाहें तो किसी मासूम व्यक्ति के जीवन में कितना कहर बरपा कर सकती है। याद रहे उच्च अदालत के सख्त एवं संतुलित रवैये का बिना यह मुमकिन नहीं थी‚ जिसने डॉ. कफील खान के खिलाफ खड़ी इस केस को ही ‘अवैध' बताया। अगर हम अपने करीब देखें तो ऐसे तमाम लोग मिल सकते हैं‚ जो इसी तरह व्यवस्था के निर्मम हाथों का शिकार हुए‚ मामूली अपराधों में न्याय पाने के लिए उनका लम्बे समय तक जेलों में सड़ते रहना या फर्जी आरोपों के चलते लोगों का अपनी जिंदगी के खूबसूरत वर्षों को जेल की सलाखों के पीछे दफना देना। पता नहीं लोगों को एक युवक आमिर का वह प्रसंग याद है कि नहीं जिसे अपनी जिंदगी के १४ साल ऐसे नकली आरोपों के लिए जेल में गुजारने पड़े थे‚ जिसमें कहीं दूर–दूर तक उसकी संलिप्तता नहीं थी। उस पर आरोप लगाया गया था कि दिल्ली एवं आसपास के इलाकों में हुए १८ बम विस्फोटों में वह शामिल था। यह अलग बात है कि यह आरोप जब अदालत के सामने रखे गए तो एक एक करके अभियोजन पक्ष के मामले खारिज होते गए और आमिर बेदाग रिहा हो गया। 


 यह अलग बात है कि इन चौदह सालों में उसके पिता का इंतकाल हो चुका था और मां की मानसिक हालत ऐसी नहीं थी कि वह बेटे की वापसी की खुशी को महसूस कर सके। आमिर को जिस पीड़ादायी दौर से गुजरना पड़ा‚ जिस तरह संस्थागत भेदभाव का शिकार होना पड़ा‚ पुलिस की साम्प्रदायिक लांछना को झेलना पड़ा‚ यह सब एक किताब में प्रकाशित भी हुआ है। ‘£ेमड एज ए टेररिस्ट (२०१६) शीर्षक से प्रकाशित इस किताब के लिए जानी–मानी पत्रकार एवं नागरिक अधिकार कार्यकर्ता नंदिता हक्सर ने काफी मेहनत की है। क्या यह कहना मुनासिब होगा कि सरकारें जब एक खास किस्म के एजेंडा से भर जाती है और लोगों की शिकायतों के प्रति निÌवकार हो जाती है तो ऐसे ही नजारों से हम बार–बार रूबरू होते रहते हैं। सवाल यह उठता है कि आखिर इस बात को कैसे सुनिश्चित किया जाए कि आने वाले वक्त में सूरत के सम्मेलन से गिरफ्तार १२३ लोगों को या आमिर जैसे लोगों को जिस स्थिति से गुजरना पड़ा था‚ वैसी त्रासदी अन्य किसी निरपराध को न झेलनी पड़े‚ और क्या तरीका हो सकता है कि इन बेगुनाहों को झूठे आरोपों के इस बोझ की साया से–भले ही वह कानूनन मुक्त हो गए हों–कैसे मुक्ति दिलाई जा सकती है॥। शायद सबसे आसान विकल्प है ऐसे लोगों को–जिनके साथ व्यवस्था ने ज्यादती की–आÌथक मुआवजा देना‚ जैसा कि पिछले साल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने किया जब उसने छत्तीसगढ़ सरकार को यह निर्देश दिया कि वह उन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं‚ विदुषियों को मुआवजा प्रदान करें जिन पर वर्ष २०१६ में झूठे एफआईआर दर्ज की गई थी। मालूम हो कि अध्यापकों‚ कार्यकर्ताओं का वह दल–जिसमें प्रोफेसर नंदिनी सुंदर‚ प्रो. अर्चना प्रसाद‚ कामरेड विनीत तिवारी‚ कामरेड संजय पराते आदि शामिल थे–मानवाधिकारों के हनन की घटनाओं की जांच करने वहां गया था। 


 मानवाधिकार आयोग ने कहा कि ‘हमारी यह मुकम्मल राय है कि इन लोगों को इन झूठे एफआईआर के चलते निश्चित ही भारी मानसिक यातना से गुजरना पड़ा‚ जो उनके मानवाधिकार का उल्लंघन था और राज्य सरकार को उन्हें मुआवजा देना ही चाहिए।' लेकिन क्या ऐसा मुआवजा वाकई उन सालों की भरपाई कर सकता है‚ उस व्यक्ति तथा उसके आत्मीयों को झेलनी पड़ती मानसिक पीड़ा को भुला दे सकता है‚ निश्चित ही नहीं! मुआवजे की चर्चा चल रही है और बरबस एक तस्वीर मन की आंखों के सामने घूमती दिखी जो पिछले दिनों वायरल हुई थी। इस तस्वीर में एक अश्वेत व्यक्ति को बेंच पर बैठे दिखाया गया था‚ जिसके बगल में कोई श्वेत आदमी बैठा है और उसे सांत्वना दे रहा है। खबर के मुताबिक श्वेत व्यक्ति ने उसके सामने एक खाली चेकबुक रखा था और कहा था कि वह चाहे जितनी रकम इस पर लिख सकता है‚ मुआवजे के तौर पर। अश्वेत आदमी का जवाब आश्चर्यचकित करने वाला था‚ ‘सर‚ क्या वह रकम मेरी पत्नी और बच्चों को लौटा सकती है‚ जो भयानक गरीबी में गुजर गए जिन दिनों मैं बिना किसी अपराध के जेल में सड़ रहा था।'॥

सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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Tuesday, April 6, 2021

आतंकवादी हैं ये (राष्ट्रीय सहारा)

छत्तीसगढ़ के बीजापुर में माओवादियों ने फिर साबित किया कि आतंकवाद की तरह खून और हिंसा के अलावा उनका कोई मानवीय उद्देश्य नहीं। पूरा देश शहीद और घायल जवानों के साथ है। करीब चार घंटे चली मुठभेड़ में १५ माओवादियों के ढेर होने का मतलब उनको भी बड़ी क्षति हुई है। साफ है कि वे भारी संख्या में घायल भी हुए होंगे। किंतु‚ २२–२३ जवानों का शहीद होना बड़ी क्षति है। ३१ से अधिक घायल जवानों का अस्पताल में इलाज भी चल रहा है। इससे पता चलता है कि माओवादियों ने हमला और मुठभेड़ की सघन तैयारी की थी। 


 जो जानकारी है माओवादियों द्वारा षडयंत्र की पूरी व्यूह रचना से घात लगाकर की गई गोलीबारी में घिरने के बाद भी जवानों ने पूरी वीरता से सामना किया‚ अपने साथियों को लहूलुहान होते देखकर भी हौसला नहीं खोया‚ माओवादियों का घेरा तोड़ते हुए उनको हताहत किया तथा घायल जवानों और शहीदों के शव को घेरे से बाहर भी निकाल लिया। कई बातें सामने आ रहीं हैं। सुरक्षाबलों को जोनागुड़ा की पहाडि़यों पर भारी संख्या में हथियारबंद माओवादियों के होने की जानकारी मिली थी। छत्तीसगढ़ के माओवाद विरोधी अभियान के पुलिस उप महानिरीक्षक ओपी पाल की मानें तो रात में बीजापुर और सुकमा जिले से केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के कोबरा बटालियन‚ डीआरजी और एसटीएफ के संयुक्त दल के दो हजार जवानों को ऑपरेशन के लिए भेजा गया था। माओवादियों ने इनमें ७०० जवानों को तर्रेम इलाके में जोनागुड़ा पहाडि़यों के पास घेरकर तीन ओर से हमला कर दिया। 


 इस घटना के बाद फिर लगता है मानो हमारे पास गुस्से में छटपटाना और मन मसोसना ही विकल्प है। यह प्रश्न निरंतर बना हुआ है कि आखिर कुछ हजार की संख्या वाले हिंसोन्माद से ग्रस्त ये माओवादी कब तक हिंसा की ज्वाला धधकाते रहेंगेॽ ध्यान रखिए माओवादियों ने १७ मार्च को ही शांति वार्ता का प्रस्ताव रखा था। इसके लिए उन्होंने तीन शर्तं रखी थीं–सशस्त्र बल हटें‚ माओवादी संगठनों से प्रतिबंध खत्म हों और जेल में बंद उनके नेताओं को बिना शर्त रिहा किया जाए। एक ओर बातचीत का प्रस्ताव और इसके छठे दिन २३ मार्च को नारायणपुर में बारूदी सुरंग विस्फोट में पांच जवान शहीद हो गए। दोपहर में सिलगेर के जंगल में घात लगाए माओवादियों ने हमला कर दिया था। ऐसे खूनी धोखेबाजों और दुस्साहसों की लंबी श्रृंखला है। साफ है कि इसे अनिश्चितकाल के लिए जारी रहने नहीं दिया जा सकता। यह प्रश्न तो उठता है कि आखिर दो दशकों से ज्यादा की सैन्य– असैन्य कार्रवाइयों के बावजूद उनकी ऐसी शक्तिशाली उपस्थिति क्यों हैॽ निस्संदेह‚ यह हमारी पूरी सुरक्षा व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। यहीं से राजनीतिक इच्छाशक्ति प्रश्नों के घेरे में आती है। पिछले करीब ढाई दशक से केंद्र और माओवाद प्रभावित राज्यों में ऐसी कोई सरकार नहीं रही जिसने इन्हें खतरा न बताया हो। यूपीए सरकार ने आंतरिक सुरक्षा के लिए माओवादियों को सबसे बड़ा खतरा घोषित किया था। केंद्र के सहयोग से अलग–अलग राज्यों में कई सैन्य अभियानों के साथ जन जागरूकता‚ सामाजिक–आÌथक विकास के कार्यक्रम चलाए गए हैं‚ लेकिन समाज विरोधी‚ देश विरोधी‚ हिंसाजीवी माओवादी रक्तबीज की तरह आज भी चुनौती बन कर उपस्थित हैं। हमें यहां दो पहलुओं पर विचार करना होगा। 


 भारत में नेताओं‚ बुद्धिजीवियों‚ पत्रकारों‚ एक्टिविस्टों का एक वर्ग माओवादियों की विचारधारा को लेकर सहानुभूति ही नहीं रखता उनमें से अनेक इनको कई प्रकार से सहयोग करते हैं। राज्य के विरु द्ध हिंसक संघर्ष के लिए वैचारिक खुराक प्रदान करने वाले ऐसे अनेक चेहरे हमारे आपके बीच हैं। इनमें कुछ जेलों में डाले गए हैं‚ कुछ जमानत पर हैं। इनके समानांतर ऐसे भी हैं‚ जिनकी पहचान मुश्किल है। गोष्ठियों‚ सेमिनारों‚ लेखों‚ वक्तव्यों आदि में जंगलों में निवास करने वालों व समाज की निचली पंक्ति वालों की आÌथक–सामाजिक दुर्दशा का एकपक्षीय चित्रण करते हुए ऐसे तर्क सामने रखते हैं‚ जिनका निष्कर्ष यह होता है कि बिना हथियार उठाकर संघर्ष किए इनका निदान संभव नहीं है। अब समय आ गया है जब हमारे आपके जैसे शांति समर्थक आगे आकर सच्चाइयों को सामने रखें। अविकास‚ अल्पविकास‚ असमानता‚ वंचितों‚ वनवासियों का शोषण आदि समस्याओं से कोई इनकार नहीं कर सकता‚ लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। केंद्र और राज्य ऐसे अनेक कल्याणकारी कार्यक्रम चला रहे हैं‚ जो धरातल तक पहुंचे हैं। 


 उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बनाए जा रहे और बने हुए आवास‚ स्वच्छता अभियान के तहत निÌमत शौचालय‚ ज्योति योजनाओं के तहत बिजली की पहुंच‚ सड़क योजनाओं के तहत दूरस्थ गांवों व क्षेत्रों को जोड़ने वाली सड़कों का लगातार विस्तार‚ किसानों के खाते में हर वर्ष ६००० भुगतान‚ वृद्धावस्था व विधवा आदि पेंशन‚ पशुपालन के लिए सब्सिडी जैसे प्रोत्साहन‚ आयुष्मान भारत के तहत स्वास्थ्य सेवा‚ कई प्रकार की इंश्योरेंस व पेंशन योजनाएं को साकार होते कोई भी देख सकता है। हर व्यक्ति की पहुंच तक सस्ता राशन उपलब्ध है। कोई नहीं कहता कि स्थिति शत–प्रतिशत बदल गई है‚ लेकिन बदलाव हुआ है‚ स्थिति बेहतर होने की संभावनाएं पहले से ज्यादा मजबूत हुई हैं तथा पहाड़ों‚ जंगलों पर रहने वालों को भी इसका अहसास हो रहा है। ॥ इसमें जो भी इनका हित चिंतक होगा वो इनको झूठ तथ्यों व गलत तर्कों से भड़का कर हिंसा की ओर मोड़ेगा‚ उसके लिए विचारों की खुराक उत्पन्न कराएगा‚ संसाधनों की व्यवस्था करेगा या फिर जो भी सरकारी‚ गैर सरकारी कार्यक्रम हैं‚ वे सही तरीके से उन तक पहुंचे‚ उनके जीवन में सुखद बदलाव आए इसके लिए काम करेगाॽ साफ है माओवादियों के थिंक टैंक और जानबूझकर भारत में अशांति और अस्थिरता फैलाने का विचार खुराक देने वाले तथा इन सबके लिए संसाधनों की व्यवस्था में लगे लोगों पर चारों तरफ से चोट करने की जरूरत है। निश्चित रूप से इस मार्ग की बाधाएं हमारी राजनीति है। तो यह प्रश्न भी विचारणीय है कि आखिर ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई में राजनीतिक एकता कैसे कायम होॽ 

सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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Saturday, April 3, 2021

कोरोना के साये में ( राष्ट्रीय सहारा)

जयसिंह रावत

महाकुंभ २०२१ के शुरू होने से पहले ही कुंभ नगरी हरिद्वार में एक बार फिर कोविड–१९ के उभार ने नई मुसीबत खड़ी कर दी है। यात्रियों के बोरोकटोक आवागमन से हरिद्वार में हर रोज दस–बीस मामले सामने आ रहे हैं। महाकुंभ के आयोजन से ठीक पहले हरिपुर कलां स्थित एक आश्रम में एक साथ ३२ कोरोना संक्रमित श्रद्धालु सारे पाए गए। देश–विदेश के यत्रियों की अनियंत्रित भीड़ कोरोना लेकर आ भी रही है और यहां से संक्रमण लेजा भी रही है। अतीत में भी कुंभ मेला और महामारियों का चोली दामन का साथ रहा है। १८९१ के कुंभ में फैला हैजा तो यूरोप तक पहुंच गया था। इसी प्रकार कई बार कुंभ में फैली प्लेग की बीमारी भारत के अंतिम गांव माणा तक पहुंच गई थी। 


रॉयल सोसाइटी ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन एण्ड हाइजीन के संस्थापक सर लियोनार्ड रॉजर्स (द कण्डीसन इन्फुलेंयेसिंग द इंसीडेंस एण्ड स्पेड आफ कॉलेरा इन इंडिया) के अनुसार सन् १८९० के दाक में हरिद्वार कुंभ से फैला हैजा पंजाब होते हुए अफगानिस्तान‚ पर्सिया रूस और फिर यूरोप तक पहुंचा था। सन् १८२३ की प्लेग की महामारी में केदारनाथ के रावल और पुजारियों समेत कई लोग मारे गए थे। गढ़वाल में सन् १८५७‚ १८६७ एवं १८७९ की हैजे की महामारियां हरिद्वार कुंभ के बाद ही फैलीं थीं। सन् १८५७ एवं १८७९ का हैजा हरिद्वार से लेकर भारत के अंतिम गांव माणा तक फैल गया था। वाल्टन के गजेटियर के अनुसार हैजे से गढ़वाल में १८९२ में ५‚९४३ मौतें‚ वर्ष १९०३ में ४‚०१७‚ वर्ष १९०६ में ३‚४२९ और १९०८ में १‚७७५ मौतें हुयीं। ॥ कुंभ महापर्व पर करोड़ों सनातन धर्मावलम्बियों की आस्था की डुबकियों के साथ ही महामारियों का भी लम्बा इतिहास है। अकेले हरिद्वार में एक सदी से कम समय में ही केवल हैजा से ही लगभग ८ लाख लोगों की मौत के आंकड़े दर्ज हैं। अतीत में जब तीर्थ यात्री हैजे या प्लेग आदि महामारियों से दम तोड़ देते थे तो उनके सहयात्री उनके शवों को रास्ते में ही सड़ने–गलने के लिए लावारिस छोड़ कर आगे बढ़ जाते थे। अब हालात काफी कुछ बदल तो गए हैं मगर फिर भी कोरोना के मृतकों के शवों के साथ छुआछूत का व्यवहार आज भी कायम है। संकट की इस घड़ी में उत्तराखंड़ सरकार धर्मसंकट में पड़ गई है‚ क्योंकि वह न तो भीड़ को टालने के लिए कठोर निर्णय ले पा रही है और ना ही उसके पास करोड़ों लोगों को कोरोना महामारी के प्रोटोकॉल का पालन कराने का इंतजाम है। सरकार की ओर से नित नये भ्रमित करने वाले बयान आ रहे हैं। सरकार के डर और संकोच का परिणाम है कि कुंभ के आधे से अधिक स्नान पर्व निकलने पर भी सरकार असमंजस की स्थिति से बाहर नहीं निकल सकी। हालांकि शासन का हस्तक्षेप तब भी पंडा समाज और संन्यासियों को गंवारा नहीं था जो कि आज भी नहीं है। कुंभ और महामारियों का चोली दामन का साथ माना जाता रहा है। भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की घुसपैठ के बाद १७८३ के कुंभ के पहले ८ दिनों में ही हैजे से लगभग २० हजार लोगों के मरने का उल्लेख इतिहास में आया है। 


हरिद्वार सहित सहारनपुर जिले में १८०४ में अंग्रेजों का शासन शुरू होने पर कुंभ में भी कानून व्यवस्था और सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए उनका हस्तक्षेप शुरू हुआ। ॥ अंग्रेजों ने शैव और बैरागी आदि संन्यासियों के खूनी टकराव को रोकने के लिए सेना की तैनाती करने के साथ ही कानून व्यवस्था बनाये रखने और महामारियां रोकने के लिए पुलिसिंग शुरू की तो १८६७ के कुंभ का संचालन अखाड़ों के बजाय सैनिटरी विभाग को सौंपा गया। उस समय संक्रामक रोगियों की पहचान के लिए स्थानीय पुलिसकर्मियों को तैनात किया गया। उसके बाद १८८५ के कुंभ में भीड़ को नियंत्रित करने के लिए बैरियर लगाए गए। सन् १८९१ में सारे देश में हैजा फैल गया था। उस समय पहली बार मेले में संक्रमितों को क्वारंटीन करने की व्यवस्था की गई। पहली बार मेले में सार्वजनिक शौचालयों और मल निस्तारण की व्यवस्था की गई। खुले में शौच रोकने के लिए ३३२ पुलिसकर्मी तैनात किए गए थे‚ लेकिन पुलिस की रोकटोक के बावजूद लोग तब भी खुले में शौच करने से बाज नहीं आते थे और उसके १३० साल बाद आज भी स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आया। दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद जब गांधी जी हरिद्वार कुंभ में पहुंचे थे तो उन्होंने भी लोगों के जहां तहां खुले में शौच किए जाने पर दुख प्रकट किया था॥। आर. दास गुप्ता (टाइम ट्रेंड ऑफ कॉलेरा इन इण्डिया–१३ दिसम्बर २०१५) के अनुसार हरिद्वार १८९१ के कुंभ में हैजे से कुल १‚६९‚०१३ यात्री मरे थे। विश्वमॉय पत्ती एवं मार्क हैरिसन ( द सोशल हिस्ट्री ऑफ हेल्थ एण्ड मेडिसिन पद कालोनियल इंडिया) के अनुसार महामारी पर नियंत्रण के लिए नॉर्थ वेस्टर्न प्रोविन्स की सरकार ने मेले पर प्रतिबंन्ध लगा दिया था तथा यात्रियों को मेला क्षेत्र छोड़ने के आदेश दिये जाने के साथ ही रेलवे को हरिद्वार के लिए टिकट जारी न करने को कहा गया था। आर. दास गुप्ता एवं ए.सी. बनर्जी ( नोट ऑन कालेरा इन द यूनाइटेड प्रोविन्सेज) के अनुसार सन् १८७९ से लेकर १९४५ तक हरिद्वार में आयोजित कुंभों और अर्ध कुंभों में हैजे से ७‚९९‚८९४ लोगों की मौतें हुइÈ।


 हरिद्वार कुंभ में हैजा ही नहीं बल्कि चेचक‚ प्लेग और कालाजार जैसी बीमारियां भी बड़ी संख्या में यात्रियों की मौत का कारण बनती रहीं। सन् १८९८ से लेकर १९३२ तक हरिद्वार समेत संयुक्त प्रांत में प्लेग से ३४‚९४२०४ लोग मरे थे। सन् १८६७ से लेकर १८७३ तक कुंभ क्षेत्र सहित सहारनपुर जिले में चेचक से २०‚९४२ लोगों की मौतें हुइÈ। सन् १८९७ के कुंभ के दौरान अप्रैल माह में प्लेग से कई यात्री मरे। यह बीमारी सिंध से यत्रियों के माध्यम से हरिद्वार पहुंची थी। प्लेग के कारण कनखल का सारा कस्बा खाली करा दिया गया था। सन् १८४४ में प्लेग की बीमारी का प्रसार रोकने के लिए कंपनी सरकार ने हरिद्वार में शरणार्थियों के प्रवेश पर रोक लगा दी थी। सन् १८६६ के कुंभ में अखाड़ों और साधु–संतों ने भी सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किया था। उसी दौरा ब्रिटिश हुकूमत ने हरिद्वार में खुले में शौच पर प्रतिबंध लगा दिया था। उसी साल कुंभ मेले के संचालन की जिम्मेदारी स्वास्थ्य विभाग को सौंपी गई थी।

सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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Friday, April 2, 2021

टीकाकरण की मानवीय अहमियत (राष्ट्रीय सहारा)

इन  दिनों देश में कोरोना की दूसरी लहर और कुछ राज्यों में कोरोना के नये डबल म्यूटेंट मिलने से जहां एक ओर लोगों की स्वास्थ्य चिंताएं बढ़ गई है‚ वहीं आÌथक चुनौतियां भी बढ़ गई हैं। देश के कई राज्यों में एक बार फिर से लॉकडाउन और नाइट कर्फ्यू के हालात दिखने लगे हैं। ऐसे में हाल ही में २३ मार्च को केंद्र सरकार ने गंभीर होते कोरोना संक्रमण को नियंत्रित करने के लिए नई रणनीति सुनिश्चित करके नये दिशा–निर्देश जारी किए हैं। 


 गौरतलब है कि एक अप्रैल २०२१ से ४५ की उम्र पार के लोगों को कोरोना टीकाकरण का बड़ा फैसला किया है। इस महkवपूर्ण फैसले से न केवल देश के करोड़ों लोगों की कोरोना चिंताएं कम होंगी‚ वरन देश की विकास दर के सामने खड़ी कोरोना चुनौती भी कम होगी। ज्ञातव्य है कि देश में सभी स्वास्थ्य कर्मी‚ £ंटलाइन वर्कर्स‚ ६० साल से अधिक उम्र के लोग तथा ४५ वर्ष से ज्यादा उम्र के गंभीर बीमारी से ग्रसित लोग टीकाकरण के दायरे में आ चुके हैं। ऐसे लोगों को अब तक कोरोना टीके की करीब ४.८५ करोड़ खुराक दी जा चुकी है। 


 विगत १७ मार्च को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोरोना वायरस संक्रमण में बढ़ोतरी के मद्देनजर राज्यों के मुख्यमंत्रियों से वर्चुअल चर्चा करते हुए कहा कि देश के १६ राज्यों के ७० जिलों में कोरोना संक्रमण के मामलों में १५० फीसद की वृद्धि देखी गई है। आठ राज्यों में कोरोना की दूसरी लहर से नये मामलों में चिंताजनक तेजी दिखाई दे रही है। ये राज्य महाराष्ट्र‚ तमिलनाडु‚ पंजाब‚ मध्य प्रदेश‚ दिल्ली‚ गुजरात‚ कर्नाटक और हरियाणा हैं। निसंदेह तेजी से बढ़ती हुई कोरोना की दूसरी लहर को रोकने के लिए त्वरित और निर्णायक कदम उठाने जाने की जरूरत इसलिए है‚ क्योंकि वर्ष २०२१ में दुनिया के अधिकांश आÌथक एवं वित्तीय संगठनों ने कोरोना संक्रमण के नियंत्रित हो जाने के मद्देनजर भारत की विकास दर में तेजी वृद्धि की संभावना बताई है। हाल ही में ९ मार्च को आÌथक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि नये वित्त वर्ष २०२१–२२ में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर में बड़े इजाफे की संभावना है। कहा गया है कि भारत की जीडीपी में नये वित्त वर्ष में १२.६ फीसद की दर से वृद्धि होगी। इससे भारत विश्व में सबसे तेजी से विकसित होने वाली बड़ी अर्थव्यवस्था का स्थान फिर हासिल कर लेगा। ऐसे में देश में कोरोना की दूसरी लहर से बढ़ते हुए मानवीय और आÌथक खतरों को रोकने और बढ़ती हुई विकास दर को अनुमानों के मुताबिक >ंचाई देने के लिए कोरोना संक्रमण से संबंधित इन तीन बातों पर ध्यान देना होगा। एक‚ भारत को कोरोना वैक्सीन के निर्माण की वैश्विक महाशक्ति बनाया जाए। दो‚ अधिक लोगों का वैक्सीकरण किया जाए और तीन‚ कोरोना वैक्सीन की बर्बादी रुûके॥। वस्तुतः भारत दुनिया के उन चमकते हुए देशों में सबसे आगे है‚ जिन्होंने कोरोना का मुकाबला करने के लिए कोरोना की अधिक दवाइयां बनाई और कोरोना वैक्सीन के निर्माण में >ंचाई प्राप्त की है। यह भी स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि कोविड महामारी से जूझ रहे दुनिया के १५० से अधिक देशों को भारत ने कोरोना से बचाव की अनिवार्य दवाइयां मुहैया कराई है और ७० से अधिक देशों को कोरोना वैक्सीन की आपूÌत की है। भारत में १६ जनवरी से शुरू हुए दुनिया के सबसे बड़े टीकाकरण में ऑक्सफोर्ड–एस्ट्रोजेनेका के साथ मिलकर बनाई गई सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की ‘कोविशील्ड' तथा स्वदेश में विकसित भारत बायोटेक की ‘कोवैक्सीन' का उपयोग टीकाकरण के लिए किया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनिया गुतेरस ने कोरोना टीकाकरण के मद्देनजर भारत को दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बताया है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि विगत १२ मार्च को क्वाड्रीलेटरल सिक्योरिटी डायलॉग (क्वाड) ग्रुप के चार देशों–भारत‚ अमेरिका‚ ऑस्ट्रेलिया और जापान ने वर्चुअल मीटिंग में यह सुनिश्चित किया है कि वर्ष २०२२ के अंत तक एशियाई देशों को दिए जाने वाले कोरोना वैक्सीन के १०० करोड़ डोज का निर्माण भारत में किया जाएगा। ऐसे में निश्चित रूप से भारत कोरोना वैक्सीन निर्माण की महाशक्ति बनाने की डगर पर आगे बढ़ता हुआ दिखाई दे सकेगा। 


यद्यपि इस समय सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा बनाए जा रहे एस्ट्राजेनेको–ऑक्सफोर्ड के टीके कोविशील्ड और भारत बायोटेक के टीके कोवैक्सीन का निर्माण देश में बड़े पैमाने पर हो रहा है‚ लेकिन अब अन्य कंपनियों के कोरोना वैक्सीन भी तेजी से बाजार में आना जरूरी हैं। अब संक्रमण को रोकने के लिए उन लोगों का टीकाकरण करना भी उतना ही महkवपूर्ण है‚ जो संक्रमण के उच्च जोखिम में हैं। उन लोगों की रक्षा करना भी महkवपूर्ण है‚ जिन्हें काम के लिए घरों से बाहर निकलना पड़ता है। ऐसे में खुदरा और ट्रेड जैसे क्षेत्रों में काम कर रहे लोगों की कोरोनावायरस से सुरक्षा जरूरी है। रिटेलरों ओर ट्रेडरों को सार्वजनिक आवाजाही के कारण कोविड–१९ के संक्रमण का खतरा ज्यादा होता है‚ जिसे देखते हुए इस क्षेत्र में काम कर रहे लोगों का £ंटलाइन वर्कर्स की तरह टीकाकरण जरूरी है। इस बात पर भी ध्यान दिया जाना होगा कि भारत में कोरोना टीकाकरण अभियान के तहत ६.५ प्रतिशत खुराक की बरबादी हो रही है‚ जिसके चलते केंद्र सरकार ने राज्यों से टीके के अधिकतम उपयोग को बढ़ावा देने और अपव्यय को कम करने के लिए कहा है। तेलंगाना जैसे कई राज्य राष्ट्रीय औसत से बहुत अधिक खुराक की बरबादी कर रहे हैं। तेलंगाना में १७.५ फीसद खुराक बरबाद हो रही है तो वहीं आंध्र में ११.६ प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में ९.४ प्रतिशत टीकों की बरबादी हो रही है। यद्यपि वर्ष २०२१ की शुरुûआत से ही अर्थव्यवस्था और विकास दर में सुधार दिखाई दे रहा है‚ लेकिन अर्थव्यवस्था को तेजी से गतिशील करने और वर्ष २०२१ में भारत को दुनिया में सबसे तेज विकास दर वाला देश बनाने की वैश्विक आÌथक रिपोर्टों को साकार करने के लिए कोरोना के नये बढ़ते हुए संक्रमण के नियंत्रण पर सर्वोच्च प्राथमिकता से ध्यान देना होगा। ॥ वस्तुतः भारत दुनिया के उन चमकते हुए देशों में सबसे आगे है‚ जिन्होंने कोरोना का मुकाबला करने के लिए कोरोना की अधिक दवाइयां बनाई और कोरोना वैक्सीन के निर्माण में >ंचाई प्राप्त की है। यह भी स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि कोविड महामारी से जूझ रहे दुनिया के १५० से अधिक देशों को भारत ने कोरोना से बचाव की अनिवार्य दवाइयां मुहैया कराई है और ७० से अधिक देशों को कोरोना वैक्सीन की आपूÌत की है।

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Thursday, April 1, 2021

भारत पर चीन के 'वॉटर बम‘! (राष्ट्रीय सहारा)

पिछले दिनों भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने असम में महाबाहु–ब्रह्मपुत्र योजना की शुरुआत की। साथ ही‚ अन्य कई बड़े प्रोजेक्ट्स की आधारशिला भी रखी। असम में कनेक्टिवटी के उद्देश्य से महाबाहु–ब्रह्मपुत्र योजना शुरू की जा रही है। इस योजना के अंतर्गत कई छोटी–बड़ी परियोजनाओं को शामिल किया गया है। इन परियोजनाओं की मदद से रो–पैक्स सेवाओं से तटों के बीच संपर्क बनाने की कोशिश है। साथ ही‚ सड़क मार्ग से यात्रा की दूरी भी कम हो जाएगी। वहीं‚ दूसरी ओर चीन ने तिब्बत के मुहाने‚ जो अरु णाचल प्रदेश से महज ३० किलोमीटर दूर है‚ पर दुनिया का अभी तक सबसे विशालकाय डैम बनाने की घोषणा कर दी है। चीन ने अरु णाचल प्रदेश से सटे तिब्बत के इलाके में ब्रह्मपुत्र नदी पर हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट बनाने की तैयारी भी कर ली है।


 ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाने का चीन का फैसला भारत–चीन के रिश्तों में तनाव की नई वजह बन सकता है। ब्रह्मपुत्र नदी को चीन में यारलंग जैंगबो नदी के नाम से जाना जाता है। यह नदी एलएसी के करीब तिब्बत के इलाकों में बहती है। अरु णाचल प्रदेश में इस नदी को सियांग और असम में ब्रह्मपुत्र नदी के नाम से जाना जाता है। हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट के नाम पर चीन इस नदी पर जो बांध बनाएगा उससे नदी पर पूरी तरह चीन का नियंत्रण हो जाएगा। यह चीन की १४ पंचवर्षीय योजना का हिस्सा है। चीन की इस साजिश से भारत‚ पाकिस्तान‚ भूटान और बांग्लादेश पूरी तरह से प्रभावित होंगे। निरंतर १९५४ से लेकर आज तक हर वर्ष ब्रह्पुत्र नदी की विभीषिका भारत के उत्तर–पूर्वी राज्यों को तबाह करती रही है। हर वर्ष बाढ़ एक मुसीबत बन जाती है। इस डैम के बन जाने के बाद चीन जल संसाधन को आणविक प्रक्षेपास्त्र की तरह प्रयोग कर सकता है। विशेषज्ञों ने इसे वॉटर कैनन का नाम दिया है।


 भारत की नीति अंतरराष्ट्रीय नदी के संदर्भ में दुनिया के सामने एक मानक बनी हुई है। पाकिस्तान के साथ इंडस संधि की प्रशंसा आज भी होती है। उसी तरह २००७ में बांग्लादेश के साथ रिवर संधि दोनों देशों के लिए सुकून का कारण है। वहीं‚ चीन अपने पडोसी देशों के साथ अंतरराष्ट्रीय नदी को एक तुरु प की तरह प्रयोग करता है। अगर जनसंख्या की दृष्टि से देखें तो चीन की आबादी २० फीसदी है जबकि उसके पास स्वच्छ पानी का औसत महज ५ प्रतिशत भी नहीं है। उसके बावजूद दुनिया की महkवपूर्ण नदियों‚ जो तिब्बत के पठार से निकलती हैं‚ पर डैम बनाकर चीन दुनिया को पूरी तरह से तबाह कर देने की मुहिम में है। मेकांग नदी आसिआन देशों के लिए जीवनदायिनी है लेकिन चीन ने अलग–अलग मुहानों पर डैम बना कर नदी को इतना कलुषित कर दिया है कि वह अन्य देशों में पहुंचने पर एक नाले में तब्दील दिखाई देती है। यही हालत चीन ब्रह्मपुत्र के साथ कर रहा है। इसके परिणाम घातक होंगे। चीन भारत के चार महkवपूर्ण राज्यों की कृषि व्यवस्था और जीवन स्तर को खतरे में डाल सकता है‚ अगर यह डैम बनकर तैयार हो गया तो। पहले तो यही कि नदियों के बहाव को रोक लिया जाएगा। 


मालूम हो कि तिब्बत में ब्रह्मपुत्र के साथ ३३ सहायक नदियां उससे मिलती हैं। उसी तरह भारत में अरुणाचल प्रदेश से प्रवेश करने के उपरांत १३ नदियां पुनः उसका अंग बन जाती हैं। अगर चीन इनका इस्तेमाल एक कैनन की तरह करेगा तो बाढ़ का ऐसा आलम बन सकता है जिससे पूरा का पूरा क्षेत्र ही बहाव में विलीन हो जाएगा। अगर चीन ने बहाव को रोक लिया तो कृषि व्यवस्था तबाह होगी। ॥ चीन पहले ही ब्रह्मपुत्र नदी पर कई छोटे–छोटे बांध बना चुका है। चीन के पॉवर कंस्ट्रक्शन कोऑपरेशन के चेयरमैन और पार्टी के सेक्रेटरी यान झियोंग ने कहा है कि ताजा पंचवर्षीय योजना के तहत इस बांध को बनाया जाएगा। यह योजना वर्ष २०२५ तक चलेगी। लोवी इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट में कहा गया है‚ ‘चीन ने तिब्बत के जल पर अपना दावा ठोका है‚ जिससे वह दक्षिण एशिया में बहने वाली सात नदियों सिंधु‚ गंगा‚ ब्रह्मपुत्र‚ इरावडी‚ सलवीन‚ यांगट्जी और मेकांग के पानी को नियंत्रित कर रहा है। ये नदियां पाकिस्तान‚ भारत‚ बांग्लादेश‚ म्यांमार‚ लाओस और वियतनाम में होकर गुजरती हैं।' पिछले कुछ वषाç में ऐसे कम से कम तीन अवसर आ चुके हैं‚ जब चीन ने जान बूझकर ऐसे नाजुक मौकों पर भारत की ओर नदियों का पानी छोड़ा जिसने भारत में भारी तबाही मचाई। जून‚ २००० में अरु णाचल के उस पार तिब्बती क्षेत्र में ब्रह्मपुत्र पर बने एक डैम का हिस्सा अचानक टूट गया जिसने भारतीय क्षेत्र में घुसकर भारी तबाही मचाई थी। उसके बाद जब भारत के केंद्रीय जल शक्ति आयोग ने इससे जुड़े तथ्यों का अध्ययन किया तो पाया गया कि चीनी बांध का टूटना पूर्वनियोजित शरारत थी। रक्षा विशेषज्ञों की चिंता है कि यदि भारत के साथ युद्ध की हालत में या किसी राजनीतिक विवाद में चीन ने ब्रह्मपुत्र पर बनाए गए बांधों के पानी को ‘वॉटर–बम की तरह इस्तेमाल करने का फैसला किया तो भारत के कई सीमावर्ती क्षेत्रों में जान–माल और रक्षा तंत्र के लिए भारी खतरा पैदा हो जाएगा।


 प्रश्न उठता है कि भारत के पास विकल्प क्या हैंॽ भारत चीन को रोक कैसे सकता हैॽ चीन भौगोलिक रूप से ऊपर स्थित है। नदी वहां से नीचे की ओर आती है। भारत ने पडÃोसी देशों के साथ नेकनीयती रखते हुए संधि का अनुपालन किया‚ वहीं चीन किसी भी तरह से अंतरराष्ट्रीय नदियों पर किसी भी देश के साथ कोई संधि नहीं की है अर्थात वह जैसा चाहे वैसा निर्णय ले सकता है। इसलिए मसला मूलतः पावरगेम पर अटक जाता है। भारत हिमालयन ब्लंडर दो बार कर चुका है। पहली बार जब नेहरू ने तिब्बत को चीन का अभिन्न हिस्सा मान लिया। दूसरी बार तब जब अटलबिहारी वाजपेयी ने स्वायत्त तिब्बत को भी चीन का हिस्सा करार दे दिया। और बात भारत के हाथ से निकल गई। समस्या की मूल जड़ तिब्बत को चीन द्वारा हड़पने और भारत की मंजूरी से शुरू होती है। निकट भविष्य में ऐसा प्रतीत नहीं होता कि भारत की तिब्बत नीति में कोई सनसनीखेज परिवर्तन हो पाएगा। दूसरा तरीका क्वाड का है। इसके द्वारा चीन पर दबाव बनाया जा सकता है। भारत इस कोशिश में लगा भी हुआ है। बहरहाल‚ समय बताएगा कि भारत और चीन के बीच में संघर्ष वॉटर कैनन का होगा या आणविक मिसाइल काॽ ॥ प्रो. सतीश कुमार॥

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Saturday, March 27, 2021

सामयिकदांव पर तमिलों का भविष्य (राष्ट्रीय सहारा)

ऐतिहासिक मान्यता रही है कि दक्षिण भारत के तमिलों ने सिंहलियों को पराजित किया था‚ इसीलिए सिंहली तमिलों को लेकर आशंका ग्रस्त रहे हैं और उनकी यह नीति भारत के संदर्भ में सदैव नजर आती है। श्रीलंका में करीब २० लाख तमिल बसते हैं‚ जो कई वषाç से सामाजिक‚ धाÌमक और आÌथक उत्पीड़न सहने को मजबूर है। तमिल बराबरी पाने के संविधानिक अधिकारों के लिए लगातार संघर्षरत है‚ लेकिन भारत की कोई भी पहल श्रीलंका में अब तक वह १३वां संविधान संशोधन अधिनियम लागू करवाने में सफल नहीं हो सकी है‚ जिससे तमिलों के गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए कई तरह के अधिकार मिलने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। 


 भारत के सामने बड़ी चुनौती यह रही है कि वह श्रीलंका की सरकार से उसे लागू करवाएं। इसके विपरीत श्रीलंका ने अपनी राजनीतिक व्यवस्था में सिंहली राष्ट्रवाद की स्थापना कर और भारत विरोधी वैदेशिक ताकतों से संबंध मजबूत करके भारत पर दबाव बढ़ाने की लगातार कोशिश की है‚ जिससे वह तमिलों को लेकर अपने पड़ोसी देश से सौदेबाज़ी कर सके। फिलहाल श्रीलंका अपनी इस नीति में सफल होता दिखाई दे रहा है। दरअसल‚ पिछले महीने भारत यात्रा पर आएं श्रीलंका के विदेश सचिव एडमिरल जयनाथ कोलंबेज ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में भारत का सक्रिय समर्थन मांगते हुए कहा था की भारत उसे मुश्किल वक्त में छोड़ नहीं सकता। अब संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में श्रीलंका पर तमिलों के व्यापक नरसंहार के आरोप का प्रस्ताव पास हुआ तो वोटिंग के दौरान चीन और पाकिस्तान ने प्रस्ताव के विरोध में वोट किया‚ जबकि भारत ने वोटिंग से दूरी बनाए रखते हुए गैरहाजिर रहने का फैसला लिया। 

 यह श्रीलंका की राजनियक विजय रही क्योंकि तमिलों का संबंध सीधे भारत से है और भारत की इस पर खामोशी उसके नियंत्रण और संतुलन की नीति दर्शाती है। हालांकि इसका कोई भी दीर्घकालीन लाभ भारत को मिलता दिखाई नहीं पड़ रहा। श्रीलंका में प्रवासी भारतीयों की समस्या एक प्रमुख राजनीतिक मुद्दा रही है। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में भारत के तमिलनाडु राज्य से गये तमिलों की तादाद अब श्रीलंका में लाखों में है‚ लेकिन मानवधिकारों को लेकर उनकी स्थिति बेहद खराब है। श्रीलंका के जाफना‚ बट्टिकलोवा और त्रिंकोमाली क्षेत्र में लाखों तमिल रहते है जिनका संबंध दक्षिण भारत से है। श्रीलंका के सिंहली नेताओं द्वारा तमिलों के प्रति घृणित नीतियों को बढ़ावा देने से तमिलों का व्यापक उत्पीड़न बढ़ा और इससे इस देश में करीब तीन दशकों तक गृहयुद्ध जैसे हालात रहे। २००९ में श्रीलंका से तमिल पृथकतावादी संगठन लिट्टे के खात्मे के साथ यह तनाव समाप्त हुआ‚ जिसमें हजारों लोगों की जाने गई। इस दौरान श्रीलंका की सेना पर तमिलों के व्यापक जनसंहार के आरोप लगे। वैश्विक दबाव के बाद श्रीलंका ने सिंहलियों और तमिलों में सामंजस्य और एकता स्थापित करने की बात कही लेकिन हालात जस के तस बने हुए हैं। 

 गोटाभाया राजपक्षे की नीतियां तमिल और अन्य अल्पसंख्यक समूहों के प्रति घृणा को बढ़ावा देने वाली है। करीब एक दशक पहले श्रीलंका से तमिल पृथकतावादी संगठन लिट्टे के खात्मे के बाद हजारों तमिलों को श्रीलंका की सेना ने बंदी बनाया था और यह विश्वास भी दिलाया था कि उन्हें वापस उनके घर लौटने दिया जाएगा‚ लेकिन इतने वषाç बाद भी सैकड़ों तमिल परिवार हर दिन अपने प्रियजनों के घर लौटने की बाट जोह रहे हैं और उनके लौट आने की कोई उम्मीद दूर दूर तक नजर नहीं आती। इन तमिलों का संबंध भारत के दक्षिणी राज्य तमिलनाडु से है। इसीलिए भारत सरकार की भूमिका इस संबंध में बेहद महkवपूर्ण और निर्णायक हो सकती है। भारत श्रीलंका की भौगोलिक स्थिति को लेकर सतर्क रहता है और उसकी यह दुविधा वैदेशिक नीति में साफ नजर आती है। श्रीलंका की भू राजनीतिक स्थिति उसका स्वतंत्र अस्तित्व बनाती है‚ लेकिन भारत से उसकी सांस्कृतिक और भौगोलिक निकटता सामरिक oष्टि से ज्यादा असरदार साबित होती है। 

 श्रीलंका भारत से निकटता और निर्भरता से दबाव महसूस करता रहा है और यह भारत के लिए बड़ा संकट है। भारत जहां श्रीलंका की एकता‚ अखंडता और सुरक्षा को लेकर जिम्मेदारी की भूमिका निभाता रहा है वहीं श्रीलंका की सरकारों का व्यवहार बेहद असामान्य और गैर जिम्मेदार रहा है। श्रीलंका में शांति और स्थिरता के लिए भारत की सैन्य‚ सामाजिक और आÌथक मदद के बाद भी तमिल संगठन लिट्टे से निपटने के लिए श्रीलंका ने भारत के प्रतिद्वंद्वी देश पाकिस्तान से हथियार खरीदें। पिछले एक दशक में श्रीलंका के ढांचागत विकास में चीन ने बड़ी भूमिका निभाई है और चीन का इस समय श्रीलंका में बड़ा प्रभाव है। १९६२ के भारत चीन युद्’ के समय श्रीलंका की तटस्थ भूमिका हो या १९७१ के भारत पाकिस्तान युद्ध में पाकिस्तान के लड़ाकू विमानों को तेल भरने के लिए अपने हवाई अड्डे देने की हिमाकत‚ श्रीलंका भारत विरोधी कार्यों को करने से कभी पीछे नहीं हटा है। ॥ श्रीलंका में भारतीय तमिलों के हितों की रक्षा तथा भारत की सामरिक सुरक्षा के लिए अग्रगामी और आक्रामक कूटनीति की जरूरत है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में श्रीलंका के विरु द्’ रखा गया प्रस्ताव श्रीलंका पर दबाव बढ़ाने के लिए बड़ा मौका था‚ जिस पर भारत का कड़ा रु ख श्रीलंका पर मनौवैज्ञानिक दबाव बढ़ा सकता था। कूटनीति के तीन प्रमुख गुण होते है‚ अनुनय‚ समझौता तथा शक्ति की धमकी। भारत श्रीलंका के साथ अनुनय और समझौता सिद्धांत से अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने में असफल रहा है‚ यह समझने की जरूरत है। राजपक्षे बंधु सिंहली हितों‚ अतिराष्ट्रवाद को बढ़ावा देने तथा चीन और पाकिस्तान के साथ संबंध मजबूत करने की नीति पर कायम है। ऐसे में उनसे तमिल और भारतीय हितों के संरक्षण की उम्मीद नहीं की जा सकती।


सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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Friday, March 26, 2021

दिल्ली का अबूझ फैसला (राष्ट्रीय सहारा)

देश की राजधानी दिल्ली की शासन व्यवस्था उप राज्यपाल की कलम से ही चलेगी। केंद्र में सत्तारूढ़ø भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने लंबे समय से चले आ रहे इस विवाद का हल निकाल लिया है। बुधवार को विपक्ष के भारी हंगामे के बीच राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र (संशोधन) विधेयक २०२१ को राज्यसभा की मंजूरी मिलते ही यह तय हो गया कि दिल्ली के बॉस अब उपराज्यपाल ही होंगे। 


विधेयक को लोकसभा २२ मार्च को ही पास कर चुकी थी। विधेयक में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि दिल्ली में सरकार का मतलब उप राज्यपाल है। इसके कानून बनने से दिल्ली सरकार के लिए किसी भी कार्यकारी फैसले से पहले उप राज्यपाल की अनुमति लेना आवश्यक होगा। 


विधेयक का विरोध कर रहे विपक्ष के इसे प्रवर समिति को भेजने की मांग खारिज होने के बाद मतविभाजन में इसके ४५ के मुकाबले ८३ मतों से पारित होते ही विधेयक ने कानून बनने की राह की अंतिम बाधा पार कर ली। विधानसभा चुनावों में एकतरफा जीत हासिल करके दिल्ली में सत्तारूढ़ø अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी की सरकार के लिए यह भारी झटका है। वह पहले दिन से ही अपने अधिकारो को लेकर केंद्र सरकार से भिड़Ãी हुई थी। 


उसका कहना था केंद्र के दखल पर उप राज्यपाल उसे काम नही करने देते। उप राज्यपाल का तर्क था कि सरकार अपनी मनमानी करना चाहती है। मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया जहां पांच जजों की बेंच ने जुलाई २०१८ को संविधान के अनुच्छेद २३९ एए की समीक्षा करते हुए जिसमें दिल्ली को विशेष दर्जा देने का प्रावधान किया गया था‚ यह स्पष्ट कर दिया था कि उप राज्यपाल को सरकार की सलाह और सहयोग से काम करना होगा। विवाद यहां थम जाना चाहिए था लेकिन इसकी परिणति बुधवार को पारित विधेयक के रूप में हुई। आप सहित पूरा विपक्ष केंद्र के इस फैसले के विरोध में है। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इसे लोकतंत्र के लिए दुखद बताया है । 


यद्यपि गृह राज्यमंत्री जी किशन रेड्ड़ी का कहना है कि उप राज्यपाल और दिल्ली सरकार के बीच अधिकारों को लेकर पैदा हुए संदेह और भ्रांतियों को दूर करने के लिए ऐसा किया गया है लेकिन आप का कहना है कि विधानसभा चुनावो में बुरी तरह हारी भाजपा इसके जरिए दिल्ली में पिछले दरवाजे से शासन करना चाहती है।


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महामारी और भारत (राष्ट्रीय सहारा)

पिछले दिनों अमेरिकी शोध संस्थान पिउ रिसर्च सेंटर ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर कोरोना विषाणु महामारी के असर से संबंधित एक शोध रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसमें भारत के विभिन्न आय वर्ग समूहों के परिवारों पर महामारी के प्रभावों का आकलन किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक‚ कोरोना महामारी ने भारतीय परिवारों की जीवन दिशा को नकारात्मक ढंøग से गहरे तक प्रभावित किया है। भारत के मध्य आर्य वर्ग समूह के करीब ३२.२ करोड़़ लोग खिसक कर निचले पायदान पर आ गए। यह अनुमान लगाया गया था कि २०११ से २०१९ के दौरान करीब ५.७ करोड़़ लोगों की आर्थिक स्थिति बेहतर हुई थी और यह वर्ग अपनी आर्थिक प्रगति करके मध्य वर्ग में शामिल हो गया था। इस वर्ग की रोजाना आय करीब १० ड़ॉलर से लेकर २० ड़ॉलर के बीच थी।


 कोरोना महामारी के दौर में प्रति दिन २ ड़ॉलर से कम लोगों की संख्या बढ़øकर ७.५ करोड़़ हो गई यानी ये सभी लोग एक झटके में गरीबी रेखा के नीचे आ गए। ऐसा नहीं है कि महामारी का असर केवल निम्न आय समूह के लोगों पर ही पड़़ा। वास्तव में महामारी ने उच्च आय वर्ग समूह के लोगों को भी प्रभावित किया। पिउ के मुताबिक‚ उच्च आय वाले लोगों की संख्या में भी करीब दस लाख की गिरावट आई है। इसके अलावा‚ उच्च मध्यम आय श्रेणी में ७० लाख‚ मध्य आय श्रेणी में ३.२ करोड़़ और कम आय वाले लोगों की संख्या में करीब ३.५ करोड़़ की गिरावट आई है। 


रिपोर्ट में महामारी का भारत और चीन की अर्थव्यवस्था पर तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक‚ भारत की तुलना में चीन की अर्थव्यवस्था बेहतर है। वहां कोरोना काल में गरीबी का स्तर लगभग पहले जैसा ही रहा और मध्यम आय वाले लोगों की आबादी में सिर्फ एक करोड़़ की गिरावट आई। लेकिन उच्च आय वाले वर्ग में चीन के मुकाबले भारत की स्थिति बेहतर देखी गई।


 भारत में जहां उच्च आय वाले वर्ग में दस लाख की गिरावट आईहै‚ वहीं चीन में यह संख्या करीब तीस लाख थी। उच्च–मध्यम आय श्रेणी में भी भारत से ज्यादा और कम आय वाले लोगों की संख्या में भारत के आसपास ही गिरावट दर्ज की गई। हालांकि कोरोना महामारी के चलते पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पटरी से उतर आईहै‚ लेकिन पिउ रिसर्च सेंटर की मानें तो भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति ज्यादा खराब है। भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कामगारों को सुरक्षा देने के साथ कानूनी संरक्षण की भी जरूरत है।


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कांग्रेस चुप क्योंॽ (राष्ट्रीय सहारा)

महाराष्ट्र में इन दिनों जो चल रहा है‚ उसे पूरा देश देख रहा है। न केवल देख रहा है‚ बल्कि राजनीतिक और प्रशासनिक नैतिकता और शुचिता भी इस पर शमिÈदा हो रही है। इस तरह की घटना देश में कभी नहीं घटी होगी। भारतीय राजनीति और प्रशासनिक व्यवस्था में इस तरह का पल पहले कभी नहीं आया था जब वर्तमान डीजी और एक नामचीन महानगर का पूर्व पुलिस आयुक्त अपने ही गृह मंत्री पर सीधा आरोप लगाए कि उनकी शह पर १०० करोड़ रुûपये प्रति माह अवैध वसूली का लIय रखा गया था। 


परमबीर सिंह ने मुख्यमंत्री के नाम पत्र लिखकर गृह मंत्री के ऊपर आरोप लगाया कि उन्होंने असिस्टेंट पुलिस इंस्पेक्टर सचिन वाझे को बार और रेस्टोरेंट से प्रति माह १०० करोड़ रु पए उगाही करने का लIय दिया था। वाझे फिलहाल मुकेश अंबानी के घर के बाहर विस्फोटक सामग्री रखने के आरोप में एनआईए की हिरासत में है। इस मामले रोज नये–नये पर्दाफाश हो रहे हैं।


 विस्फोटक वाली स्कॉÌपयो कार से मिली धमकी भरी चिट्ठी का राज भी खुल गया है। इस चिट्ठी को खुद वाझे ने ही रखा था। टूटी–फूटी इंग्लिश वाली चिट्ठी को विनायक शिंदे के घर से मिले प्रिंटर से प्रिंट किया गया था‚ जिसकी जांच फोरेंसिक टीम के जरिए की जा रही है। एनआईए ने वाझे के खिलाफ गैर–कानूनी गतिविधियां (निवारण) अधिनियम (यूएपीए) की धाराएं भी लगाई हैं। 


 केंद्रीय गृह मंत्रालय ने २० मार्च को इस मामले की जांच एनआईए को सौंप दी थी। लेकिन एटीएस की जांच भी जारी थी। यह इतना गंभीर मामला है कि पुलिस ही विस्फोटक सामग्री रखती है तथा इस रहस्य को जानने वाले मनसुख हिरेन की हत्या कर देती है‚ यदि विरोधी पक्ष नेता देवेंद्र फड़णवीस इस मुद्दे को मजबूती से नहीं उठाते तो इस मामले को विस्फोटक रखने वाली पुलिस जांच करके खुद को क्लीन चिट दे देती तथा मनसुख हिरेन की हत्या को आत्महत्या बता कर केस बंद कर देती लेकिन यह अन्याय एक जागरूक नेता देवेंद्र फड़णवीस ने होने नहीं दिया। 


 जब परमबीर सिंह पत्र लिखकर इतना गंभीर आरोप लगा रहे हैं‚ और उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया तो सर्वोच्च न्यायालय ने मामले को गंभीर मानते हुए उन्हें उच्च न्यायालय जाने की सलाह दी है‚ तब भी उद्धव ठाकरे सरकार गृह मंत्री देशमुख को बचाने में लगी है। यह राजनीति की बहुत बड़ी विसंगति है‚ जिसकी शिल्पकार कांग्रेस है। 


 यह एकदम साफ बात है कि यह तीन दलों की सरकार है‚ तो तीनों दल मिलकर ही निर्णय लेते होंगे तो वसूली का निर्णय भी मिलकर ही लिया गया होगा। और संभव है कि उस रकम के बंटवारे में ये तीनों दल भी शामिल होंगे। अगर यह निर्णय मिलकर नहीं लिया गया होता तो संजय राठौडÃ की तरह कांग्रेस यहां भी कार्रवाई का दबाव बनाती क्योंकि संजय राठौडÃ के अपराध में कोई गिरोह शामिल नहीं था। यह उनका व्यक्तिगत था तो उस मामले में आधी/अधूरी कार्यवाई की गई। सचिन वाझे प्रकरण में १०० करोड़ रुûपये महीने वसूली का कार्य गिरोह बनाकर किया गया है‚ इसलिए कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है। इसलिए नहीं बोलने को तैयार हैं कि इस १०० करोड़ रुûपये में उनका भी हिस्सा था। कांग्रेस के पास भी गृह राज्य मंत्री का प्रभार है तथा बंटी पाटिल गृह राज्य मंत्री हैं‚ तो सचिन वाझे द्वारा वसूले गए पैसों की बंदरबांट कांग्रेस में भी होती थी यानी कि इसका एक हिस्सा कांग्रेस के आका राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को भी जाता होगा। इसीलिए राहुल गांधी और प्रियंका भी इस मामले में मौन साधे हुए हैं वरना भाजपा–शासित राज्यों में छोटी–सी घटना होने पर राहुल और प्रियंका की बयानबाजी होती है तथा ट्वीट और दौरा होने लगता है। 


 कांग्रेस का १९५७ से लेकर आज तक इतिहास भ्रष्टाचार का काला अध्याय है तथा राजनीति में कांग्रेस को ही भ्रष्टाचार की जननी माना जाता है। अगर महाराष्ट्र के भ्रष्टाचार में कांग्रेस शामिल नहीं होती तो यह वही कांग्रेस है जिसने इंद्र कुमार गुजराल की सरकार केवल इसलिए गिरा दी थी कि १९९८ में आई जस्टिस मिलाप चंद्र जैन आयोग की रिपोर्ट में राजीव गांधी की हत्या में डीएमके के ऊपर संदेह व्यक्त किया गया था। डीएमके उस सरकार में शामिल थी। इसलिए कांग्रेस सरकार से बाहर हो गई। इसी कांग्रेस ने प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की सरकार इसलिए गिरा दी थी कि हरियाणा पुलिस के कुछ लोग राजीव गांधी के घर के बाहर दिखे थे। इससे कांग्रेस को शक हुआ की चंद्रशेखर सरकार राजीव गांधी की जासूसी करवा रही है। जब कांग्रेस केंद्र की सरकार से बाहर हो जा रही थी तो वही कांग्रेस प्रदेश की सत्ता से बाहर क्यों नहीं हो रही। अब बात स्पष्ट हो गई कि कांग्रेस भी इस वसूली की हिस्सेदार है।


 इसीलिए इस मुद्दे पर कांग्रेस बिल्कुल मौन है‚ तो राष्ट्रवादी प्रमुख शरद पवार झूठी जानकारी दे रहे हैं। अनिल देशमुख नागपुर थे‚ अस्पताल में थे‚ इलाज चल रहा था‚ वे होम क्वारंटीन थे‚ उनकी मुलाकात किसी से नहीं हुई इत्यादि‚ इत्यादि। इस झूठ का पूरा पर्दाफाश देवेंद्र फड़णवीस ने किया। इस तरह का जघन्य और महाराष्ट्र को बदनाम करने का कार्य कभी नहीं हुआ जो कार्य महाविकास अघाडÃी सरकार के संरक्षण में किया जा रहा है। इसमें सिर्फ राष्ट्रवादी कांग्रेस ही दोषी नहीं है‚ बल्कि इसमें बड़ा दोष कांग्रेस का भी है‚ और इसीलिए भारतीय जनता को पूरा भरोसा है कि जल्दी ही दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।


सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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Thursday, March 25, 2021

बाजारवाद का खेला जारी (राष्ट्रीय सहारा)

इन दिनों वैसे तो अर्थव्यवस्था के क्षेत्र से आ रही लगभग सभी खबरें निराश करने वाली हैं‚ लेकिन सबसे बुरी खबर यह है कि आम आदमी को महंगाई से राहत मिलने के कोई आसार अभी तो नहीं ही हैं। पेट्रोल‚ डीजल और रसोई गैस के साथ ही अनाज‚ दाल–दलहन‚ चीनी‚ घी‚ तेल‚ तमाम तरह के मसाले‚ फल‚ सब्जी‚ दूध‚ दवाई इत्यादि आवश्यक वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे हैं। अंदेशा यही है कि ये कीमतें आगे और भी बढÃेंगी। ऐसे में आवश्यक वस्तुओं की कीमतों की इस मार को महंगाई कहना उचित या पर्याप्त नहीं है। यह साफ तौर पर बाजार द्वारा सरकार के संरक्षण में जनता के साथ की जा रही लूट–खसौट है। इससे ज्यादा कुछ नहीं है। 


 ऐसा नहीं कि महंगाई का कहर कोई पहली बार टूटा हो। महंगाई पहले भी होती रही है‚ जरूरी चीजों के दाम पहले भी अचानक बढÃते रहे हैं‚ लेकिन थोडेÃ समय बाद फिर नीचे आए हैं। मगर इस समय तो मानो बाजार में आग लगी हुई है। वस्तुओं की लागत और उनके बाजार भाव में कोई संगति नहीं रह गई है। इस मामले में जहां आम आदमी लाचार है और सरकार से आस लगाए हुए है कि वह कुछ करेगी‚ वहीं सरकार सिर्फ विकास और राष्ट्रवाद का बेसुरा राग अलापते हुए जनता को आत्मनिर्भर बनने की नसीहत दे रही है। उसकी नीतियों से महंगाई बढÃती जा रही है और वह खुद भी आए दिन पेट्रोल–डीजल के दाम बढाकर और अपनी इस करनी को देश के आÌथक विकास के लिए जरूरी बताकर आम आदमी के जले पर नमक छिडÃकने का काम कर रही है। 


सरकार की ओर से कीमतों में उछाल के जो भी स्पष्टीकरण दिए गए हैं‚ वे कतई विश्वसनीय नहीं हैं। पिछले साल मानसून कमजोर रहा या पर्याप्त बारिश नहीं हुई‚ ये ऐसे कारण नहीं हैं कि इनका असर सभी चीजों पर एक साथ पडÃे। इसका सबसे बडÃा प्रमाण यह है कि कीमतें इतनी ज्यादा होने के बावजूद बाजार में किसी भी आवश्यक वस्तु का अकाल–अभाव दिखाई नहीं पडÃता। जब आपूÌत कम होती है तो बाजार में चीजें दिखाई नहीं पडÃती हैं और उनकी कालाबाजारी शुरू हो जाती है। अभी न तो जमाखोरी हो रही है‚ और न ही कालाबाजारी। हो रही है तो सिर्फ और सिर्फ बेहिसाब–बेलगाम मुनाफाखोरी। लगता है मानो सरकार या सरकारों ने अपने आपको जनता से काट लिया है। यह हमारे लोकतंत्र का बिल्कुल नया चेहरा है–घोर जननिरपेक्ष और शुद्ध बाजारपरस्त चेहरा। 


 तीन दशक पहले तक जब किसी चीज के दाम असामान्य रूप से बढÃते थे तो सरकारें हस्तक्षेप करती थीं। यह अलग बात है कि इस हस्तक्षेप का कोई खास असर नहीं होता था क्योंकि उस मूल्य वृद्धि की वजह वाकई में उस चीज की दुर्लभता या अपर्याप्त आपूÌत होती थी। यह स्थिति पैदा होती थी उस वस्तु के कम उत्पादन की वजह से। अब तो सरकारों ने औपचारिकता या दिखावे का हस्तक्षेप भी बंद कर दिया है। वे बिल्कुल बेफिक्र हैं–महंगाई का कहर झेल रही जनता को लेकर भी और जनता को लूट रही बाजार की ताकतों को लेकर भी। 


सरकारें महंगाई बढÃने पर उसके लिए जिम्मेदार बाजार के बडÃे खिलाडिÃयों को डराने या उन्हें निरु त्साहित करने के लिए सख्त कदम भले ही न उठाए पर आम तौर पर सख्त बयान तो देती ही हैं‚ लेकिन अब तो ऐसा भी नहीं हो रहा है। अब तो सरकार की ओर से महंगाई को विकास का प्रतीक बताया जाता है‚ और इस पर सवाल उठाने वालों को विकास विरोधी करार दे दिया जाता है। पिछले दिनों खाद्य एवं नागरिक आपूÌत मंत्री के पद पर रहते हुए दिवंगत हुए रामविलास पासवान ने तो अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले यह सलाह भी दे डाली थी कि अरहर की दाल महंगी है‚ तो लोग खेसारी दाल खाना शुरू कर दें। मक्कारी और बेशर्मी की हद तो यह है कि सरकार समर्थक कारोबारी योग गुरू ने तो यह भी नसीहत दे डाली थी कि ज्यादा दाल खाने से मोटापा बढÃता है। इसलिए लोग दाल का सेवन ज्यादा न करें। तो सरकारी पक्ष के मूर्खता और मक्कारी से युक्त ऐसे बयान मुनाफाखोरों को लूट की खुली छूट ही देते हैं। 


 अगर इस महंगाई का कुछ हिस्सा उत्पादकों तक पहुंच रहा होता या अनाज और सब्जी उगाने वाले किसान मालामाल हो रहे होते‚ तब भी कोई बात थी। लेकिन ऐसा भी नहीं हो रहा है। इस अस्वाभाविक महंगाई का लाभ तो बिचौलिए और मुनाफाखोर बडेÃ व्यापारी उठा रहे हैं। अगर सरकार को जनता से जरा भी हमदर्दी या उसकी तकलीफों का जरा भी अहसास हो तो वह अपने खुफिया तंत्र से यह पता लगा सकती है कि कीमतों में उछाल आने की प्रक्रिया कहां से शुरू हो रही है‚ और इसका फायदा किस–किसको मिल रहा है। यह पता लगाने में हफ्ते–दस दिन से ज्यादा का समय नहीं लगता। लेकिन अभी तो कीमतों में बेतहाशा बढÃोतरी की ऐसी कोई व्याख्या या वजह उपलब्ध नहीं है‚ जो समझ में आ सके। ऐसा लगता है कि मानो किसी रहस्यमय शक्ति ने बाजार को अपनी जकडÃन में ले रखा है‚ जिसके आगे आम जनता ही नहीं‚ सरकार और प्रशासन तंत्र भी असहाय और लाचार है।


 सरकार अगर चाहे तो वह इस समय बढÃते दामों पर काबू पाने के लिए दो तरह से हस्तक्षेप कर सकती है। पहला तो यह कि अगर बाजार से छेडÃछाडÃ नहीं करना है तो सरकार खुद ही गेहूं‚ चावल‚ दलहन‚ चीनी आदि वस्तुएं बाजार में भारी मात्रा में उतार कर कीमतों को नीचे लाए। ऐसा करने से उसे कोई नहीं रोक सकता बशर्ते उसमें ऐसा करने की मजबूत इच्छाशक्ति हो। हस्तक्षेप का दूसरा तरीका यह है कि बाजार पर योजनाबद्ध तरीके से अंकुश लगाया जाए। इसके लिए उत्पादन लागत के आधार पर चीजों के दाम तय कर ऐसी सख्त प्रशासनिक व्यवस्था की जाए कि चीजें उन्हीं दामों पर बिकें जो सरकार ने तय किए हैं। जब सरकार कृषि उपज के समर्थन मूल्य तय कर सकती है‚ तो बाजार में बिकने वाली चीजों की अधिकतम कीमतें क्यों नहीं तय कर सकतीॽ॥ लेकिन अभी तो सरकार की ओर से कुछ भी होता नहीं दिख रहा है। जाहिर है कि जन सरोकारी व्यवस्था की लगाम सरकार के हाथ से छूट चुकी है‚ जिसकी वजह से महंगाई का घोडÃा बेकाबू हो सरपट दौडेÃ जा रहा है। सब कुछ बाजार के हवाले है‚ और बाजार की अपने ग्राहक या जनता के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है। यह नग्न बाजारवाद है‚ जिसका बेशर्म परीक्षण किया जा रहा है। सवाल यही है कि अगर सब कुछ बाजार को ही तय करना है‚ तो फिर सरकार के होने का क्या मतलब हैॽ काहे मतलब की सरकारॽ हम जिस समाज में रह रहे हैं‚ उस पर क्या लोकतंत्र का कोई नियम लागू होता हैॽ

सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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Wednesday, March 24, 2021

रक्षक के भक्षक बनने का मामला (राष्ट्रीय सहारा)

 

किसी को कल्पना नहीं रही होगी कि मुकेश अंबानी के घर एंटीलिया के सामने जिलेटिन वाली स्कॉÌपयो मिलने का मामला इतना बड़ा बवंडर पैदा कर सकता है। पहले इसे आतंकवादियों की करतूत माना गया और तिहाड़़ जेल में बंद इंडियन मुजाहिद्दीन के एक आतंकवादी से उसके तार जोड़े गए। अब इस पर कोई बात नहीं कर रहा। पूरा मामला घूम कर मुंबई पुलिस और महाराष्ट्र सरकार के ईर्द–गिर्द सिमट गया है। राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) के हाथ में आते ही मामला जिस ढंग से विस्फोटक बनता जा रहा है‚ वह किसी को भी अचंभित करने के लिए पर्याप्त है॥। मुंबई पुलिस के पूर्व आयुक्त परमबीर सिंह द्वारा मुख्यमंत्री को भेजे गए अपने पत्र में गृह मंत्री अनिल देशमुख पर लगाया गया आरोप‚ कि उन्होंने सचिन वाजे को हर महीने १०० करोड़ वसूली के लिए कहा था‚ असाधारण है। 

 अगर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और महाअघाड़़ी सरकार के रणनीतिकारों ने मान लिया था कि परमबीर को आयुक्त के पद से हटाने तथा पुलिस प्रशासन में कई फेरबदल के बाद मामले की आंच राजनीतिक नेतृत्व तक नहीं पहुंचेगी तो उनकी सोच गलत साबित हो रही है। इतना बड़ा अधिकारी अपने गृह मंत्री पर बिना किसी प्रमाण के ऐसा आरोप नहीं लगा सकता। निस्संदेह परमबीर पर भी प्रश्न खड़ा है कि पुलिस आयुक्त के रूप में उनका कर्त्तव्य क्या थाॽ वास्तव में परमबीर के आरोपों का मूल स्वर यही है कि मंत्री के आदेश पर मुंबई पुलिस का एक महकमा आपराधिक गतिविधियों में ंलिप्त था। इस दौरान अनेक बड़े मामलों को गलत मोड़ दिया गया। पत्र में जैसा विवरण है‚ उसे आसानी से झुठलाया नहीं जा सकता। मसलन‚ वे कह रहे हैं कि देशमुख अपने सरकारी आवास पर सचिन वाजे और कई पुलिस अधिकारियों को बुलाते थे। कायदे से गृह मंत्री के स्तर पर सचिन वाझे जैसे असिस्टेंट पुलिस इंस्पेक्टर स्तर के अधिकारी के साथ बैठक करने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। 

पत्र में करीब १७५० पब और बार का जिक्र है‚ और उनके अनुसार जिसे बताते हुए गृह मंत्री कह रहे हैं कि उनसे प्रति महीना दो से तीन लाख रुûपये लिए जाएं तो ४० करोड़़ के आसपास प्रति महीना इकट्ठा हो जाएगा। एसीपी सोशल सÌवस ब्रांच‚ संजय पाटिल का जिक्र है‚ जिसे उन्होंने घर पर बुलाकर हुक्का पार्लर से वसूली की बात की। देशमुख के निजी सचिव मिस्टर परांडे़ की उपस्थिति का भी जिक्र है। दादरा और नगर हवेली के सांसद मोहन डेलकर की मौत के मामले में गृह मंत्री की ओर से लगातार आत्महत्या के लिए उकसाने का केस दर्ज करने के दबाव तक के अति गंभीर आरोप भी हैं। ॥ परमबीर के आरोपों पर आपका चाहे जो मत हो‚ लेकिन एटीएस की जांच में कोई प्रगति क्यों नहीं हो सकी और एनआईए के आने के बाद क्यों पूरा मामला खुलता जा रहा है‚ इसका जवाब देश को मिल गया है। एनआईए की जांच से इतना तो साफ हो गया है कि पूरे मामले की साजिश पुलिस मुख्यालय तथा सचिन वाजे के घर पर ही रची गई। जांच में मंत्रियों और नेताओं के नाम भी सामने आ जाएं तो आश्चर्य नहीं। मनसुख और उनका परिवार दुर्भाग्यशाली साबित हुए। उनकी स्कॉÌपयो वापस नहीं आएगी। यह मालूम होने के बावजूद उन्होंने वाजे को चाबी थमाई। जिस स्थिति में उनकी मृत्यु हुई उसे आत्महत्या मानना कठिन है। वास्तव में वह इस साजिश के मुख्य गवाह हो सकते थे‚ इसलिए संदेह सच्चाई बनता दिख रहा है कि मनसुख की हत्या कर शव को फेंका गया। पहले से ही लग रहा था कि सचिन वाजे मामले में अकेले नहीं हो सकता। देश के सबसे बड़े उद्योगपति के घर के बाहर जिलेटिन वाली गाड़ी खड़ा कर उसे दबाव में लाने का दुस्साहस छोटा पुलिस अधिकारी नहीं कर सकता। इसलिए परमबीर सिंह की शिकायत‚ बेशक इस समय आरोप है‚ में दम है। वैसे भी वाजे वसूली के मामले में पुलिस सेवा से बाहर हो गया था। उसने पूरी कोशिश की और जब पुनर्बहाली नहीं हुई तो शिवसेना में शामिल हो गया। डेढ़ दशक से ज्यादा समय बाद उद्धव सरकार में पुलिस में उसकी वापसी होती है‚ और वह भी पीआईयू यानी अपराध जांच इकाई में। आप देख लीजिए‚ टीआरपी में हेरफेर के आरोप‚ अर्णब गोस्वामी‚ कंगना रनौत आदि बहुचÌचत मामले उसके हाथ में दिए गए। परमबीर का कहना सही लगता है कि सीधे गृह मंत्री से संबंध होने के कारण वह कई बार उन्हें भी नजरअंदाज करके काम करता था। यह अलग बात है कि पुलिस आयुक्त होकर उन्होंने यह सब क्यों सहन किया। इसका एक और पहलू भी है। चूंकि बड़े से बड़े पुलिस अधिकारी का कॅरियर सरकार के हाथों में होता है‚ इसलिए वह चाहे–अनचाहे गैर–कानूनी और असंवैधानिक आदेशों‚ इच्छाओं‚ कदमों‚ फैसलों का समर्थन करने या उनके अनुसार कार्रवाई करने को मजबूर रहता है। स्वाभिमानी और ईमानदार पुलिस अधिकारी विरोध कर सकता है लेकिन उसे परिणाम भुगतना पड़ सकता है। स्थानांतरित कर दिया जाएगा या उत्पीडि़त किया जाएगा। इसलिए बड़े अधिकारी भी राजनीतिक नेतृत्व के सामने नतमस्तक रहते हैं। ज्यादातर आराम से उनके साथ मिलकर हर तरह का काम करते हुए मनचाहा पद और पदोन्नति पाते हैं। यह हमारी व्यवस्था की त्रासदी है। वास्तव में यह रक्षक के ही भक्षक बन जाने का मामला है। ॥ सोचिए‚ यह कैसी व्यवस्था है‚ जिसमें पुलिस के बड़े अधिकारी स्वीकार रहे हैं कि उनके जानते हुए उनकी पुलिस गुंडों‚ दादाओं‚ अपराधियों की तरह वसूली कर सरकार तक पहुंचा रही है‚ गैर–कानूनी काम कर रही है और वे उसे चुपचाप देखने या सहभागिता करने को विवश हैंॽ निश्चित ही इस विस्फोटक आरोप के राजनीतिक परिणाम होंगे। उद्धव सरकार का इकबाल खत्म मानिए। 

सारे विवादित और बहुचÌचत मामले एवं पुलिस की कार्रवाइयां संदेह के घेरे में आ गए हैं। यह तो संभव नहीं कि पुलिस और मंत्री के बीच इस तरह की दुरभिसंधियों की जानकारी महाअघारी के नेताओं को नहीं हो। पत्र में तो मुख्यमंत्री तक शिकायत पहुंचाने का भी संकेत है। सवाल उठता है कि इतनी वसूली को क्या अकेले देशमुख रख रहे थेॽ कोई अकेले ऐसा नहीं कर सकता। गलत तरीके से मुकदमों और गैर–कानूनी पुलिस कार्रवाइयां अंधेरे में तो हो नहीं रही थीं। दूसरों की भी संलिप्तता निश्चित रूप से है। जो संलिप्त नहीं थे उनने आवाज क्यों नहीं उठाईॽ सच कहें तो महाअघाड़़ी के किसी नेता या मंत्री के लिए इन प्रश्नों का अब वैसा जवाब देना कठिन है‚ जिससे लोग सहमत हो सकें।

 जाहिर है‚ उच्चस्तरीय व्यापक दायरों वाली स्वतंत्र जांच से ही कुछ हद तक सच्चाई सामने आ सकती है। हां‚ महाराष्ट्र में पुलिस प्रशासन के साथ राजनीति में बहुआयामी सफाई की आपातकालीन आवश्यकता एक बार फिर रेखांकित हुई है। यहां भी प्रश्न वही है कि आखिर इसे कैसे और कौन अंजाम देगाॽ॥

सौजन्य - राष्ट्रीय सहारा।

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