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-Rajeev Kumar (Editor-in-chief)

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Tuesday, May 25, 2021

सेवा भाव को प्रमुखता दें अधिकारी (प्रभात खबर)

देश के विभिन्न हिस्सों में कुछ प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों द्वारा आम नागरिकों के साथ की गयीं दुर्व्यवहार की घटनाएं दुर्भाग्यपूर्ण एवं चिंताजनक हैं. इस भयावह आपदा के समय ऐसा रवैया बिल्कुल अस्वीकार्य है. एक प्रशासनिक अधिकारी के रूप में अपने लंबे करियर में और उसके बाद ऐसे आपत्तिजनक व्यवहार के उदाहरण मैंने बहुत कम देखा है.



साल 1960 के बाद से अब तक के अनुभव के आधार पर मैं यह कह रहा हूं. कुछ अधिकारियों ने लोगों के साथ जैसा व्यवहार किया है, वह भारतीय प्रशासनिक सेवा, अन्य अखिल भारतीय सेवाओं और प्रशासन की संरचना की मर्यादा और उद्देश्य के पूरी तरह विरुद्ध है. एक मनुष्य के रूप में भी हमें वैसे आदर्शों का मान रखना रखना चाहिए, जो हमें मनीषियों ने सिखाया है. स्वामी विवेकानंद का कथन है कि दूसरों की सेवा भगवान की असीम सेवा है.



साल 1983 की एक घटना का उदाहरण देना चाहूंगा. एक बेहतरीन अधिकारी होते थे जी बंधोपाध्याय. अब सेवानिवृत्त हैं. उन्होंने एक प्रशिक्षु अधिकारी से पूछा कि वह आइएसएस में क्यों आया है. कुछ बातों के बाद उन्होंने कहा कि यदि तुमने इस सेवा में अधिकारों के लिए आये हो, तो तुम असफल साबित होगे, तुम बेईमान भी हो सकते हो. सिविल सेवा का जो सबसे बड़ा महत्व है, वह सेवा का भाव है और यह अवसर सेवा के लिए ही मिलता है.


मैंने अपने जीवन में अनेक ऐसे लोगों को देखा है कि उनका जीवन सेवा को समर्पित रहा. ऐसे एक अधिकारी होते थे सुधांशु कुमार चक्रवर्ती. उन्हें 14 सौ रूपये वेतन मिलता था, जिसमें से वे अपने खर्च के लिए चार सौ रुपये रखकर शेष राशि गरीब बच्चों की मदद में लगा देते थे. वे कहा करते थे कि गरीब लोग दोनों वक्त खाना नहीं खा पाते हैं, तो उनके सेवक होने के कारण हमें भी दोनों समय खाने का अधिकार नहीं है.


वे चौबीस घंटे में एक ही बार खाना खाते थे और बेहद सादगी से जीवन बिताते थे. सेवा से मुक्त होने के बाद वे 25 साल तक गांवों में रहकर सेवा ही करते रहे. जब तक शासन-प्रशासन में कार्यरत अधिकारियों में सेवा भाव नहीं रहेगा, तब तक ऐसे उत्तरदायित्व की मर्यादा रख पाना मुश्किल है.


छत्तीसगढ़, असम, उत्तर प्रदेश और अन्य जगहों पर कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने जो आचरण प्रदर्शित किया है, वह बेहद गलत है. यह संतोष की बात है कि अपने काम को अच्छी तरह से निभानेवाले कई अधिकारी हमारे पास हैं. महामारी में प्रशासन और पुलिस के कुछ कनीय अधिकारियों व कर्मियों के आचरण से भी क्षोभ हुआ है. हमें यह समझना होगा कि प्रशासनिक संरचना में जब तक मातहत कर्मियों का भरोसा और सहयोग नहीं मिलेगा, अच्छा प्रशासन दे पाना बेहद मुश्किल है.


मातहत कर्मियों को मार्गदर्शन देना और उनको अपने दायित्व को ठीक से निभाने की मनोवृत्ति भरना भी आवश्यक है. यदि हम उन्हें अच्छी तरह काम करने के लिए उत्साहित नहीं करेंगे और लोगों के संपर्क में नहीं रहेंगे, तो हम अपने काम में असफल हो जायेंगे. उल्लेखनीय है कि चाहे प्रशासनिक सेवा हो या अन्य किसी स्तर की सेवा हो, प्रशिक्षण के दौरान संवेदनशील होने, आम लोगों के प्रति सेवा भाव रखने तथा अपने कर्तव्य के समुचित पालन करने से संबंधित बातें अच्छी तरह बतायी और सिखायी जाती हैं. देश के विभिन्न संस्थानों में प्रशिक्षण देने के साथ कई अधिकारियों को विदेश भी भेजा जाता है.


मुझे कुछ महीनों के लिए इंग्लैंड भेजा गया था. बहुत सारे अधिकारी समाज सेवा से भी जुड़े रहे हैं. जो दुर्भाग्यपूर्ण व्यवहार कुछ अधिकारी आज प्रदर्शित कर रहे हैं, उसके लिए प्रशिक्षण को दोष नहीं दिया जा सकता है. यह उनकी कमी और गलती की वजह से हो रहा है. हमें यह हमेशा ध्यान में रखना होगा कि सेवा ही धर्म है.


अधिकारियों के गलत आचरण के बारे में बात करते हुए हमें यह भी याद रखना चाहिए कि राजनीतिक नेतृत्व के स्तर पर भी ह्रास हुआ है. मैंने अपने सेवा काल में 17 मुख्यमंत्रियों को देखा है, जिनमें कुछ बहुत उच्च कोटि के व्यक्ति थे. उनके नेतृत्व में अधिकारी भी अपने दायित्व को बेहतर ढंग से निभाने की कोशिश करते थे. उदाहरण के रूप में कर्पूरी ठाकुर, चंद्रशेखर सिंह, बिंदेश्वरी दूबे जैसे नेताओं को नाम लिया जा सकता है.


आज के संदर्भ में कहें, तो चिकित्सा या अन्य महत्वपूर्ण संसाधनों की बड़ी कमी है. कई राज्यों में अफरातफरी का आलम है. इसमें सुधार के लिए राजनीतिक नेतृत्व और प्रशासनिक अधिकारियों को मिल-जुलकर काम करना चाहिए. इससे लोगों को जरूरी सहायता समय पर पहुंचाने में मदद मिलेगी और साथ ही प्रशासन पर दबाव भी कम होगा. देश के विकास के लिए भी ऐसा किया जाना आवश्यक है.


हालिया घटनाओं को देखते हुए मैं प्रशासनिक सेवा के कार्यरत अधिकारियों से यही निवेदन करना चाहूंगा कि अपने काम को सेवा भाव से निभाने के सुअवसर के रूप में देखें. बहुत कम लोग आइएस, आइपीएस जैसी शीर्ष सेवाओं में आ पाते हैं. इस बात को नहीं भूला जाना चाहिए कि यह एक अप्रतिम अवसर है देश, समाज और लोगों की बेहतरी में योगदान का. हमें राष्ट्र निर्माताओं की सीख और आदर्शों को हमेशा सामने रखना चाहिए. इस आपदा के संकट काल में हमें यह देखना चाहिए कि कैसे हम अधिक-से-अधिक लोगों को मदद और राहत पहुंचा सकें. यही हमारा सौभाग्य होगा.

सौजन्य - प्रभात खबर।

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इस्राइल-फिलिस्तीन संघर्ष और भारत (प्रभात खबर)

By आशुतोष चतुर्वेदी 

 

इस्राइल और फिलिस्तीनी चरमपंथी संगठन हमास ने 11 दिन की लड़ाई के बाद आपसी सहमति से संघर्ष विराम का फैसला कर लिया है. दिलचस्प यह है कि दोनों पक्ष इसे अपनी जीत बता रहे हैं. इस दौरान 240 से अधिक लोग मारे गये, जिनमें ज्यादातर मौतें फिलिस्तीनी इलाके गाजा में हुईं. अमेरिका, मिस्र, कतर और संयुक्त राष्ट्र ने इस्राइल और हमास के बीच मध्यस्थता में अहम भूमिका निभायी.


यह संघर्ष यरुशलम में पिछले लगभग एक महीने के तनाव का नतीजा है. इसकी शुरुआत पूर्वी यरुशलम के एक इलाके से फिलिस्तीनी परिवारों को निकालने की धमकी के बाद शुरू हुई, जिन्हें यहूदी अपना बताते हैं और वहां बसना चाहते हैं. इसको लेकर अरब आबादी वाले इलाकों और यरुशलम की अल-अक्सा मस्जिद के पास प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच झड़पें हुईं. अल-अक्सा मस्जिद मक्का मदीना के बाद मुसलमानों का तीसरा सबसे पवित्र स्थल है. इसके बाद तनाव बढ़ता गया और 10 मई को संघर्ष छिड़ गया.



संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत टीएस तिरुमूर्ति ने अपने देश का नजरिया रखते हुए कहा कि भारत हर तरह की हिंसा की निंदा करता है. भारत फिलिस्तीनियों की जायज मांग का समर्थन करता है और वह दो-राष्ट्र की नीति के जरिये समाधान को लेकर वचनबद्ध है. भारतीय राजदूत ने कहा कि भारत गाजा पट्टी से होनेवाले रॉकेट हमलों की निंदा करता है, साथ ही इस्राइल की कार्रवाई में भी बड़ी संख्या में आम नागरिक मारे गये हैं, जिनमें औरतें और बच्चे भी शामिल हैं, जो बेहद दुखद है.


भारतीय राजदूत ने कहा कि ताजा संघर्ष के बाद इस्राइल और फिलिस्तीनी प्रशासन के बीच बातचीत दोबारा शुरू करने की जरूरत और बढ़ गयी है. यह सच है कि एक समय भारत फिलिस्तीनियों के बहुत करीब रहा है और उसने फिलिस्तीन राष्ट्र के निर्माण संघर्ष में उनका साथ दिया. लेकिन भारत में फिलिस्तीनियों के लिए यह समर्थन लगातार कम होता जा रहा है. वर्ष 2017 में प्रधानमंत्री मोदी ने इस्राइल की यात्रा की. इस्राइल की यात्रा करनेवाले वे पहले भारतीय प्रधानमंत्री थे.


प्रधानमंत्री मोदी की इस्राइल यात्रा एक तरह से भारत की यह सार्वजनिक घोषणा भी थी कि फिलिस्तीन के साथ प्रगाढ़ संबंध पुरानी बात है और इस्राइल के साथ रिश्तों का एक नया अध्याय शुरू हो रहा है. मौजूदा सच यह है कि भारत अब इस्राइल का एक भरोसेमंद साथी है. वह इस्राइल से सैन्य साजो-सामान खरीदनेवाला सबसे बड़ा देश है.


डेयरी, सिंचाई, ऊर्जा और अन्य कई तकनीकी क्षेत्रों में दोनों देशों की साझेदारी है. पिछले दौर के संबंधों पर निगाह डालें, तो भारत ने 15 सितंबर, 1950 को इस्राइल को मान्यता दी थी. अगले साल मुंबई में इस्राइल ने अपना वाणिज्य दूतावास खोल दिया, लेकिन राजनीतिक कारणों से भारत इस्राइल में अपना वाणिज्य दूतावास नहीं खोल पाया. दोनों देशों को एक दूसरे के यहां आधिकारिक तौर पर दूतावास खोलने में लगभग 42 साल लगे.


जहां प्रधानमंत्री मोदी हमेशा से इस्राइल के साथ गहरे रिश्तों के हिमायती रहे हैं, जबकि विदेश मंत्रालय के नीति-निर्माताओं में यह द्वंद्व रहा है कि इस्राइल का कितना साथ दिया जाए. वे आशंकित रहते थे कि इसकी कीमत कहीं मध्य-पूर्व के लगभग 50 मुल्कों की नाराजगी से न उठानी पड़े.


मुझे तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के साथ इस्राइल और फिलिस्तीन क्षेत्र की यात्रा करने और वहां के हालात देखने-समझने का मौका मिला है. हम सड़क के रास्ते फिलिस्तीनी इलाकों में गये और रमल्ला में एक रात बितायी. फिलिस्तीन से इस्राइल की यात्रा के दौरान ऐसे अनेक इलाके पड़ते हैं, जहां बस्तियों का घालमेल है. यहां दोनों समुदाय के घर क्रीम रंग के पत्थरों से बने होते हैं, जिन्हें यरुशलम स्टोन कहा जाता है.


लेकिन इस्राइल से जब फिलिस्तीन इलाकों में जब आप पहुंचते हैं, तो आपको दोनों इलाकों की संपन्नता का अंतर साफ नजर आने लगता है. फिलिस्तीनी इलाके किसी छोटे भारतीय शहर की तरह नजर आते हैं, जबकि इस्राइल के यरुशलम या फिर तेल अवीव एकदम साधन संपन्न किसी पश्चिमी देश के शहर लगते हैं. आंकड़ों के अनुसार फिलिस्तीनी लोगों की प्रति व्यक्ति आय लगभग 3500 डॉलर है, जबकि इस्राइल की प्रति व्यक्ति आय लगभग 43 हजार डॉलर है.


तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के साथ इस्राइल और फिलिस्तीन क्षेत्र की यात्रा की कहानी दिलचस्प है. दरअसल, भारत इसके पहले तक इस्राइल के साथ अपने रिश्तों को दबा-छिपा कर रखता आया था. दूसरी ओर प्रधानमंत्री मोदी का इस्राइल के प्रति झुकाव जगाजाहिर है और वे वहां की यात्रा करना चाहते थे. विदेश मंत्रालय मध्य-पूर्व के देशों की प्रतिक्रिया को लेकर सशंकित था. काफी विमर्श के बाद यह तय हुआ कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी पहले यात्रा करेंगे और इससे प्रतिक्रिया का अंदाजा लगेगा.


लेकिन प्रणब बाबू फिलिस्तीनी लोगों का साथ छोड़ने के पक्ष में नहीं थे. उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि वे इस्राइल जायेंगे, लेकिन साथ ही रमल्ला, फिलिस्तीन इलाके में भी जायेंगे. विदेश मंत्रालय ने काफी माथापच्ची के बाद जॉर्डन, फिलिस्तीन और इस्राइल का कार्यक्रम बनाया. यात्रा में जॉर्डन को भी डाला गया ताकि यात्रा सभी पक्षों की नजर आये.


यह पूरा क्षेत्र अशांत है. लेकिन प्रणब दा तो ठहरे प्रणब दा. उन्होंने एक रात फिलिस्तीन क्षेत्र में गुजारने का कार्यक्रम बनाया था. उनके साथ हम सब पत्रकार भी थे. इस्राइली सीमा क्षेत्र और फिलिस्तीनी क्षेत्र में जगह-जगह सैनिक तैनात नजर आ रहे थे. फिलिस्तीन क्षेत्र में हम लोग फिलिस्तीनी नेता और राष्ट्रपति महमूद अब्बास के मेहमान थे. किसी बड़े देश का राष्ट्राध्यक्ष पहली बार फिलिस्तीनी क्षेत्र में रात गुजार रहा था. हमें बताया गया कि नेता हेलिकॉप्टर से आते हैं और बातचीत कर कुछ घंटों में तुरंत वहां से निकल जाते हैं.


हम लोगों को एक सामान्य से दो मंजिला होटल में ठहराया गया, जिसमें ऊपर की मंजिल में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और उनकी टीम ठहरी हुई थी और नीचे की मंजिल में पत्रकार ठहरे हुए थे. अगले दिन फिलिस्तीन के अल कुद्स विश्वविद्यालय में प्रणब दा को मानद डॉक्टरेट की उपाधि से सम्मानित किया गया.


उसके बाद उनका भाषण था, लेकिन एक फिलिस्तीनी छात्र की इस्राइली सैनिकों की गोलीबारी में मौत के बाद वहां हंगामा हो गया. किसी तरह बचते-बचाते हम लोग यरुशलम (इस्राइल) पहुंचे. यहां संसद में संबोधन समेत अनेक कार्यक्रम थे, जिनमें प्रणब मुखर्जी ने अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करायी. मेरा मानना है कि प्रणब मुखर्जी ने ही एक तरह से प्रधानमंत्री मोदी की इस्राइल यात्रा की नींव रखी थी.

सौजन्य - प्रभात खबर।

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पशु चिकित्सा में सुधार की जरूरत (प्रभात खबर)

By मेनका गांधी 

 

पशु चिकित्सकों का मेडिकल चिकित्सकों जैसा ही सम्मान क्यों नहीं किया जाता है और उन्हें उनके समान क्यों नहीं माना जाता है? जहां एक मानव चिकित्सक को भगवान का संदेशवाहक माना जाता है, वही एक पशु चिकित्सक को केवल सेवा प्रदाता के रूप में जाना जाता है.



जब दोनों चिकित्सा पेशेवर एक ही शपथ लेते हैं- जीवन बचाने, विज्ञान का प्रयोग करने, बीमारी को खत्म करने और रोगियों को पीड़ा से छुटकारा दिलाने की, तो पशु चिकित्सा पेशे के साथ क्या गलत हो गया है कि उन्हें बहुत निचले दर्जे का माना जाता हैं? लॉकडाउन के दौरान जारी प्रारंभिक अधिसूचनाओं ने सभी मेडिकल अस्पतालों और क्लीनिकों को खुला रहने दिया, पर किसी ने भी पशु चिकित्सा प्रैक्टिस को याद नहीं किया, जब तक कि हमने उपयुक्त अधिकारियों के सामने चिंता नहीं जतायी.



जब मानव पर रोग हमला करते हैं, तो डॉक्टर फ्रंटलाइन वारियर्स बन जाते हैं. जब एवियन या स्वाइन फ्लू फैलता है, तो पशु चिकित्सकों को न तो वारियर माना जाता है और न ही फ्रंटलाइन. चुनावों के दौरान भी किसी भी सरकारी चिकित्स को उसके काम से हटाकर कोई चुनाव ड्यूटी नहीं दी जाती है. लेकिन पशु चिकित्सकों को अन्य सरकारी कर्मचारियों की तरह अक्सर कई सप्ताहों के लिए चुनाव ड्यूटी पर लगाया जाता है, भले ही मैंने वर्षों पहले इस पर प्रतिबंध लगवा दिया था.


मैंने हमेशा पशु चिकित्सक समुदाय को सबसे अधिक महत्व दिया है क्योंकि उनके बिना पशु कल्याण संभव नहीं है. भारत में 65 हजार से अधिक पशु चिकित्सक हैं, जिनमें से अधिकतर पशुपालन विभाग द्वारा नियोजित हैं. विभाग का ध्यान और कार्य दूध, अंडे, मांस, फर और किसी भी अन्य पशु उत्पाद का उत्पादन बढ़ाना है, जिससे पैसा कमाया जा सकता है. नैदानिक कार्य सीमित हैं, और उन जानवरों तक सीमित हैं, जो उत्पादक जीवन के भीतर हैं. वे अपने पशु रोगी के साथ किसी जीव के रूप में नहीं, बल्कि ‘संपत्ति’ के रूप में व्यवहार करते हैं. अधिकतर पशु चिकित्सक अवैध पालतू पशु प्रजननकर्ताओं के लिए बिचौलियों के रूप में कार्य करते हैं.


बड़े पैमाने पर व्याप्त नीम हकीमी एक और कारण है जो पशु चिकित्सा पेशे को बदनाम करता है. छह साल की पशु चिकित्सा शिक्षा के साथ आनेवाले ज्ञान के अभाव के साथ वे पेशे के महत्व और सम्मान को कम करते हैं. यदि पशु जीवन को अमूल्य और महत्वपूर्ण माना जाये और सभी पशु चिकित्सा प्रयास रोगी के हित में पीड़ा कम करने की दिशा में हों, तो पशु चिकित्सकों को मेडिकल डॉक्टरों जितना ही सम्मान मिलेगा.


जानवरों, विशेष रूप से पशुधन, को सदियों से संपत्ति के रूप में माना जाता था. यहां तक कि भारतीय दंड संहिता (1860) 50 रुपये से अधिक मूल्य के जानवर को चोट पहुंचाने के लिए अधिक कठोर सजा का प्रावधान करती है, बजाय उसके जिसकी कीमत कम है. निश्चित मूल्य के तौर पर जानवरों के साथ व्यवहार करने का यह पुराना तरीका मानव जाति के विकास के साथ अब अपना महत्व खो रहा है. वर्ष 1960 में पशु क्रूरता निवारण अधिनियम को प्रख्यापित किया गया था, जिसमें इसमें पशु जीवन के साथ मूल्य जोड़े जाने का कोई संकेत नहीं है.


इस अधिनियम में किसी भी जानवर के मालिक या संरक्षक को बाध्य किया जाता है कि वह जानवर को होनेवाले अनावश्यक दर्द और पीड़ा को रोके. इस मामले में जानवर को ’मनुष्य के अलावा कोई भी प्राणी’ के रूप में परिभाषित किया गया है. उच्च नैतिक मानकों का विकास अपरिहार्य भविष्य है और लिंग, नस्ल और प्रजातियों के बीच न्याय का अंतर धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है. पशु चिकित्सकों के लिए इस अंतर को दूर करने का एकमात्र तरीका जानवरों के जीवन को किसी भी और चीज से अधिक महत्व देना है.


इसके संबंध में तीन चीजें होनी चाहिए. भारत में पशु चिकित्सा कॉलेजों को बेहतर होना होगा. वे दुनिया में सबसे खराब हैं और मध्य वर्ग से ऊपर के बहुत कम छात्र उनमें आवेदन करते हैं. वे छात्र विदेश जाते हैं और फिर उन जगहों पर प्रैक्टिस करते हैं, जहां पशु चिकित्सकों का सम्मान किया जाता है.


पशु चिकित्सा कॉलेजों में प्रवेश करनेवाले आमतौर पर शिक्षित होनेवाली पहली पीढ़ी से होते हैं और वे वहां हर तरह की प्रवेश परीक्षा में असफल होने के बाद जाते हैं. शिक्षकों को बेहतर होना चाहिए, मानकों को और अधिक कठोर करना चाहिए और प्रत्येक वर्ष डिग्री नवीकरण के लिए पशु चिकित्सकों का परीक्षण किया जाना चाहिए.


वेटनरी काउंसिल ऑफ इंडिया को अपने काम को गंभीरता से लेना होगा और खराब पशु चिकित्सा व्यवहारों के बारे में शिकायतों पर कार्रवाई करनी होगी. आज तक पशु चिकित्सालयों, चिकित्सा पद्धतियों या चिकित्सकों को नयी सूचनाओं के प्रसार के बारे में कोई दिशा-निर्देश नहीं है.पशु चिकित्सक खुद को कामगार के रूप में देखते हैं और कम काम कर पैसा कमाने के लिए रोजगार बदलते रहते हैं.


सरकार को प्रत्येक जिले में पशु चिकित्सा विभाग से अधिक काम निकालना होगा और इसके लिए अधिक धन आवंटित करना होगा. कोई भी मुख्य पशु चिकित्सा अधिकारी कभी भी फील्ड में नहीं जाता है. किसी भी ग्रामीण पशु चिकित्सालय के पास कोई दवा नहीं होती है. कोई भी पशु चिकित्सक पशु कल्याण कानूनों को नहीं जानता है. समूचे विभाग को गैर-निष्पादनकारी माना जाता है और उसकी वैसी ही इज्जत की जाती है.

सौजन्य - प्रभात खबर।

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आपूर्ति शृंखला बाधित (प्रभात खबर)

महामारी के असर से उबरने की कोशिश में जुटी वैश्विक अर्थव्यवस्था इन-दिनों एक नयी चुनौती का सामना कर रही है. दुनियाभर में कंपनियां अपनी जरूरत से अधिक कच्चे माल और अन्य चीजों की ताबड़तोड़ खरीद कर रही हैं. ऐसे में वस्तुओं की आपूर्ति शृंखला पर बहुत अधिक दबाव बढ़ गया है. इसके अलावा चीजों की कमी भी हो रही है और उनके दाम बेतहाशा बढ़ रहे हैं.

ऐसी स्थिति में वैश्विक अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति की आशंका बढ़ गयी है. यदि जल्दी ही इस अफरातफरी पर काबू नहीं पाया गया, तो महामारी और मंदी से जूझती अर्थव्यवस्था का संकट गहरा हो जायेगा. लोहा, तांबा, गेहूं, सोयाबीन से लेकर प्लास्टिक और कार्डबोर्ड की चीजों की कमी हो गयी है. जानकारों के अनुसार, कंपनियों का मानना है कि कई देशों में महामारी पर नियंत्रण होने की वजह से बाजार में तैयार माल की बढ़ी मांग अगले साल तक बरकरार रहेगी. सो, वे पहले से ही बड़ी मात्रा में भंडारण कर रही हैं. चूंकि इनकी आपूर्ति मांग के अनुरूप नहीं हो पा रही है और यातायात में भी मुश्किलें आ रही हैं, तो कीमतें में बढ़ोतरी भी स्वाभाविक है.

इसका एक सीधा असर तो तैयार माल के थोक और खुदरा दामों पर भी होगा. इसके संकेत भी दिखने लगे हैं. इससे एक दूसरी चिंता यह पैदा हो गयी है कि महंगाई बढ़ने से बाजार में मांग भी घट सकती है. उल्लेखनीय है कि अर्थव्यवस्था के समुचित विकास के लिए उत्पादन, मांग, दाम, रोजगार और आमदनी में संतुलन होना जरूरी है. इस स्थिति के पैदा होने के अनेक कारण हैं. एक तो कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया को अस्त-व्यस्त कर दिया और इसका प्रकोप अभी भी पूरी तरह से थमा नहीं है.


मार्च में स्वेज नहर में एक बड़े जहाज के कई दिनों तक फंसे रहने के चलते सामानों की ढुलाई बड़े पैमाने पर प्रभावित हुई थी. अमेरिका समेत कई देशों में सूखे की वजह से कृषि क्षेत्र पर असर पड़ा. तेल, अन्य खनिजों और धातुओं की कीमतों में बड़े उतार-चढ़ाव देखे गये. अभी भारत में महामारी की दूसरी लहर का कहर जारी है, जिससे बंदरगाहों की गतिविधियां शिथिल हुई हैं. इन कारकों से श्रम और पूंजी की उपलब्धता में अनिश्चितता पैदा हुई है.


मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखने और बाजार में पूंजी मुहैया कराने के लिए ब्याज दरों की समीक्षा का दबाव भी बढ़ रहा है. महामारी से अधिक प्रभावित हर देश को राहत के लिए भी धन मुहैया कराना पड़ा है. भारत के लिए भी यह स्थिति चिंताजनक है. अप्रैल में थोक मुद्रास्फीति लंबे समय में सबसे अधिक रही थी. हालांकि खुदरा मुद्रास्फीति में कुछ कमी आयी है, पर यह मुख्य रूप से खाद्य पदार्थों के दाम घटने का नतीजा है. यदि बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की ताबड़तोड़ खरीद जारी रही, तो महंगाई और बढ़ेगी. चूंकि कुछ महीनों में स्थिति में सुधार की उम्मीद नहीं है, इसलिए इस संबंध में ठोस नीतिगत पहल जरूरी है.

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व्हाट्सएप की हेठी (प्रभात खबर)

इंटरनेट और सोशल मीडिया से जुड़ी कंपनियों की मनमानी रोकने के लिए ठोस कदम उठाने की जरूरत बढ़ती जा रही है. कुछ महीने पहले व्हाट्सएप ने नयी निजता नीति बनायी थी, जिसे स्वीकार करने के बाद ही लोग इस सेवा को इस्तेमाल कर सकते थे. तब इसका दुनियाभर में व्यापक विरोध हुआ था और भारत सरकार ने भी व्हाट्सएप पर दबाव डाला था. इसके बाद व्हाट्सएप ने लोगों को भरोसा दिलाया था कि उनके डाटा और निजता को सुरक्षित रखने के लिए कंपनी प्रतिबद्ध है.


लेकिन एक बार फिर वही बदलाव लागू होने लगे हैं. व्हाट्सएप ने इस संदेश सेवा को इस्तेमाल करनेवाले ऐसे लोगों की सेवाएं सीमित या बंद करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है, जो निजता से जुड़े नये नियमों से सहमत नहीं हैं. इस रवैये पर केंद्रीय सूचना तकनीक मंत्रालय का नाराज होना स्वाभाविक है. सरकार ने बार-बार नये नियमों को वापस लेने का आग्रह किया था, पर व्हाट्सएप ने इन आग्रहों को अनसुना कर दिया.



अब सरकार ने फिर से नोटिस जारी करते हुए कहा है कि यदि सात दिनों के भीतर व्हाट्सएप उचित निर्णय नहीं लेता है, तो उसके खिलाफ कार्रवाई की जायेगी. व्हाट्सएप सोशल मीडिया मंच फेसबुक की सहयोगी कंपनी है. भारत में इन दोनों सेवाओं को करोड़ों लोग इस्तेमाल करते हैं. नये बदलाव के तहत व्हाट्सएप लोगों के कारोबारी संचार को फेसबुक के साथ साझा कर सकती है. यह भारतीय कानूनों और नियमों के प्रावधानों का उल्लंघन है.


तकनीकी पर्यवेक्षकों का मानना है कि ये सूचनाएं व्यावसायिक लाभ के लिए बहुत सारी अन्य कंपनियों के साथ साझा की जायेंगी. उल्लेखनीय है कि इंस्टाग्राम भी फेसबुक की ही एक अन्य सेवा है. साझा करने की जटिल और अपारदर्शी व्यवस्था में लोगों को पता भी नहीं चल सकेगा कि उनके किस डाटा को किसके साथ साझा किया जा रहा है और उसका क्या इस्तेमाल हो रहा है. हालांकि व्हाट्सएप और अन्य तकनीकी कंपनियां निजी सूचनाओं की सुरक्षा का दावा करती हैं, लेकिन बार-बार ऐसे दावे गलत साबित होते रहते हैं.


जैसा कि सरकार की ओर से कहा गया है, नागरिकों के अधिकारों एवं हितों की सुरक्षा की जिम्मेदारी भारत सरकार की है और उसे इस संबंध में समुचित कार्रवाई करनी चाहिए. उल्लेखनीय है कि व्हाट्सएप ने यूरोपीय संघ में विरोध के बाद अपने नियमों को वापस ले लिया है, लेकिन भारत में उसने अदालतों, प्रतिस्पर्द्धा आयोग और सरकार के निर्देशों पर अमल करने में दिलचस्पी नहीं दिखायी है. यदि उसका यह अड़ियल रवैया बरकरार रहता है, तो सरकार को कड़ा रुख अपनाने के लिए बाध्य होना पड़ेगा.


डाटा संग्रहण व सुरक्षा का मामला बेहद संवेदनशील है. इस संबंध में व्यापक कानूनी पहलों की दरकार है. इंटरनेट और स्मार्ट फोन के विस्तार के साथ सोशल मीडिया और ई-कॉमर्स का दायरा भी बढ़ता जा रहा है. ऐसे में अगर नियमन और उसके पालन को लेकर कड़ाई नहीं होगी, तो भविष्य बेहद चुनौतीपूर्ण हो सकता है.

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भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत (प्रभात खबर)

कृष्ण प्रताप सिंह 

 

राजा राममोहन राय को हम भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत और समाज सुधारक के रूप में जानते हैं. सती प्रथा व बाल विवाह समेत पारंपरिक हिंदू धर्म और संस्कृति की अनेक रूढ़ियों के उन्मूलन, महिलाओं के उत्थान और पारिवारिक संपत्ति व विरासत में अधिकार के लिए उन्होंने संभव प्रयत्न किये. उनकी बाबत रवींद्रनाथ टैगोर ने लिखा है- ‘राममोहन राय के युग में भारत में कालरात्रि-सी उतरी हुई थी. लोग भय व आतंक के साये में जी रहे थे. मनुष्यों के बीच भेदभाव बनाये रखने के लिए उन्हें अलग-अलग खानों में बांट दिया गया था. उस कालरात्रि में राममोहन ने अभय-मंत्र का उच्चारण किया और प्रतिबंधों को तोड़ फेंकने की कोशिश की.’



हुगली के राधानगर गांव के एक बंगाली हिंदू परिवार में 22 मई, 1772 को जन्मे राममोहन के पिता रमाकांत राय वैष्णव थे और उनकी माता तारिणी देवी शैव. वेदांत दर्शन की शिक्षाओं व सिद्धांतों से प्रभावित राममोहन के मन में एक समय साधु बनने की इच्छा प्रबल हुई तो वह मां के प्रेम के कारण ही उस दिशा में प्रवृत्त नहीं हो पाये. उनके पिता रमाकांत बंगाल के तत्कालीन नवाब सिराजउद्दौला के राजकाज चलानेवाले अधिकारियों में से एक थे.



वे चाहते थे कि राममोहन की सुचारु व सर्वोत्कृष्ट शिक्षा-दीक्षा के रास्ते में कोई बाधा न आये. उन्होंने उनको फारसी व अरबी की पढ़ाई के लिए पटना भेज दिया और संस्कृत की शिक्षा वाराणसी में दिलायी. शिक्षा पूरी होने के 1803 में अपने डिगबी नाम के एक अंग्रेज मित्र की अनुकंपा से राममोहन ईस्ट इंडिया कंपनी में मुंशी बन गये. इस दौरान उन्होंने कभी भी अपने स्वाभिमान, अस्मिता और निडरता से समझौता नहीं किया.


साल 1808-09 में भागलपुर में तैनाती के समय उन्होंने गवर्नर जनरल लार्ड मिंटो से भागलपुर के अंग्रेज कलेक्टर सर फ्रेडरिक हैमिल्टन द्वारा अपने साथ की गयी बदतमीजी की शिकायत की. वे तभी माने थे जब गवर्नर जनरल ने कलेक्टर को कड़ी फटकार लगाकर उनके किये की माकूल सजा दी थी.


वाकया यों है कि एक दिन जब राममोहन पालकी में सवार होकर गंगाघाट से भागलपुर शहर की ओर जा रहे थे, तो घोड़े पर सैर के लिए निकले कलेक्टर सामने आ गये. पालकी में लगे परदे के कारण राममोहन उनको देख नहीं सके और यथोचित शिष्टाचार से चूक गये. उन दिनों किसी भी भारतीय को किसी अंग्रेज अधिकारी के आगे घोड़े या वाहन पर सवार होकर गुजरने की इजाजत नहीं थी. इस ‘गुस्ताखी’ पर कलेक्टर आग बबूला हो उठे.


राममोहन ने उन्हें यथासंभव सफाई दी. लेकिन वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हुए. राममोहन ने देखा कि विनम्रता काम नहीं आ रही तो हुज्जत पर आमादा कलक्टर के सामने ही फिर से पालकी पर चढ़े और आगे चले गये. कोई और होता तो वह इस मामले को भुला देने में ही भलाई समझता. कलेक्टर से पंगा लेने की हिम्मत तो आज के आजाद भारत में भी बिरले ही कर पाते हैं.


लेकिन राममोहन ने 12 अप्रैल, 1809 को गवर्नर जनरल लार्ड मिंटो को कलेक्टर की करतूत का विस्तृत विवरण देकर लिखा कि किसी अंग्रेज अधिकारी द्वारा, उसकी नाराजगी का कारण जो भी हो, किसी देसी प्रतिष्ठित सज्जन को इस प्रकार बेइज्जत करना असहनीय यातना है. इस प्रकार का दुर्व्यवहार बेलगाम स्वेच्छाचार ही कहा जायेगा.


गवर्नर जनरल ने उनकी शिकायत को गंभीरता से लिया और कलेक्टर से रिपोर्ट तलब की. कलेक्टर ने अपनी रिपोर्ट में राममोहन की शिकायत को झूठी बताया. उस पर एतबार न करके अलग से जांच करायी, जिसके बाद न्यायिक सचिव की मार्फत कलेक्टर को फटकार लगाकर आगाह करवाया कि वे भविष्य में देसी लोगों से बेवजह के वाद-विवाद में न फंसें.


राममोहन को जल्दी ही पता चल गया कि उनकी शिक्षा-दीक्षा की सार्थकता ईस्ट इंडिया कंपनी की मुंशीगिरी करते हुए ऐसी व्यक्तिगत लड़ाइयों में उलझने में नहीं, बल्कि समाज में चारों ओर फैले पक्षपात, भेदभाव व दमन की मानसिकता और उससे पैदा हुई जड़ताओं से लड़ने और उनके पीड़ितों को निजात दिलाने में है.


उन्होंने 1815 में कोलकाता में आत्मीय सभा और 1828 में द्वारिकानाथ टैगोर के साथ मिलकर ब्रह्म समाज की स्थापना की. वर्ष 1829 में उन्होंने अंग्रेजी, बांग्ला और पर्शियन के साथ हिंदी में भी ‘बंगदूत’ नामक पत्र का प्रकाशन किया.


इसी बीच उन्होंने अपनी भाभी के सती होने का जो भयावह वाकया देखा, उससे विचलित होकर 1818 में इस क्रूर प्रथा के विरुद्ध न सिर्फ जागरूकता व संघर्ष की मशाल जलायी, बल्कि उसे तब तक बुझने नहीं दिया जब तक गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक ने सती होने या सती करने को अवैध नहीं घोषित कर दिया. बैटिंक के इस फैसले के लिए राममोहन को 11 वर्षों तक जबरदस्त मुहिम चलानी पड़ी. देश में शैक्षणिक सुधारों के लिए भी उन्होंने संघर्ष किये.


राममोहन नाम के साथ ‘राजा’ शब्द तब जुड़ा जब दिल्ली के तत्कालीन मुगलशासक बादशाह अकबर द्वितीय (1806-1837) ने उन्हें राजा की उपाधि दी. अकबर द्वितीय ने ही 1830 में उन्हें अपना दूत बनाकर इंग्लैंड भेजा. इसके पीछे उनका उद्देश्य इंग्लैंड को भारत में जनकल्याण के कार्यों के लिए राजी करना और जताना था कि बैंटिक के सती होने पर रोक संबंधी फैसले को सकारात्मक रूप में ग्रहण किया गया है. वर्ष 1833 में 27 सितंबर को इंग्लैंड के ब्रिस्टल में ही मेनेंजाइटिस से पीड़ित होने के बाद राममोहन की मुत्यु हो गयी. उनका वहीं अंतिम संस्कार कर दिया गया.

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केंद्र और राज्य मिलकर काम करें (प्रभात खबर)

भारत की सत्ता विविधता में निहित है. सदियों से अनगिनत आक्रमणों तथा आपसी युद्धों ने मिलकर हमारी संघीय नींव बनाने के लिए सांस्कृतिक संयोजनों का मेल बनाया. आपदाएं असुरक्षा और संघर्ष की स्थिति पैदा करती हैं. भारत, जो 17वीं सदी में वैश्विक अर्थव्यवस्था में 24.4 प्रतिशत की हिस्सेदारी के साथ सबसे धनी राष्ट्र था, अब बांग्लादेश से पीछे हो गया है. इस अपमान के अलावा, राष्ट्रीय वातावरण का ह्रास असहिष्णुता और झगड़ालू अराजकता के रूप में हो रहा है.



सर्वसम्मति का स्थान परस्पर विरोध ने ले लिया है. उचित असहमति को टकराव के तौर पर देखा जाता है. राजनीति से लेकर मनोरंजन तक, एक नये लड़ाकू भारतीय का उद्भव हो गया है. वह किसी भी विपरीत आख्यान के लिए एक इंच जगह छोड़ने के लिए तैयार नहीं है. अनर्थकारी कोरोना प्रबंधन के मामले में केंद्र और राज्यों के बीच लगातार कहा-सुनी की व्याख्या इसके अलावा किसी और आधार पर नहीं हो सकती है.



आंकड़ों के अनुसार, दुनिया में कोरोना से होनेवाली हर 12वीं मौत भारत में हो रही है तथा हर सातवां नागरिक संक्रमित है. फिर भी, राजनेता सांख्यिक कुख्याति पर झगड़ रहे हैं तथा एक-दूसरे पर दोषारोपण कर रहे हैं.


भाषा और लहजे से इंगित होता है कि आज का भारत एक एकीकृत राष्ट्र के बजाय 18वीं सदी के सामंती क्षेत्रों का परिसंघ जैसा है. हमारे राजनेता यह नहीं समझ पा रहे हैं कि बंगाल की वेदना असम का उल्लास नहीं है. राजस्थान की समृद्धि हरियाणा की त्रासदी नहीं है. सभी राज्य भारत की संपूर्णता के अविभाज्य अभिन्न अंग हैं. यदि एक का ह्रास होता है, तो दूसरे भी देर-सेबर बीमार होंगे.


इसलिए, मारकर भागने की जगह बैठकर बातचीत होनी चाहिए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्रियों के बीच संकट पर होनेवाली वार्ताएं अब वायरस को हटाने के मंच न होकर आपसी उठापटक का मैदान बन गयी हैं. पिछले सप्ताह ममता बनर्जी ने ऐसी एक बैठक में शामिल होने के बाद प्रधानमंत्री को निशाना बनाया. उन्होंने मुख्यमंत्रियों और जिलाधिकारियों के एक समूह को जमीनी सच्चाई जानने के लिए बुलाया था.


इसमें मुख्यमंत्रियों को भी अपने अनुभव बताने थे. बैठक के बाद वे प्रधानमंत्री पर बरस पड़ीं, ‘यह एकतरफा संवाद नहीं था, एकतरफा अपमान था, एक राष्ट्र, सब अपमान. क्या प्रधानमंत्री में इतना असुरक्षा बोध है कि वे मुख्यमंत्रियों की नहीं सुनना चाहते हैं? वे भयभीत क्यों हैं? अगर वे मुख्यमंत्रियों की नहीं सुनना चाहते हैं, तो उन्हें बुलाते ही क्यों हैं?


उन्होंने कुछ जिलाधिकारियों को बोलने दिया और मुख्यमंत्रियों का अपमान किया.’ इससे पहले झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने ऐसी ही भावनाएं व्यक्त की थीं. उन्होंने कहा था, ‘आज आदरणीय प्रधानमंत्री ने बुलाया था. उन्होंने केवल अपने ‘मन की बात’ की. अरविंद केजरीवाल ने अपने भाषण का सीधा प्रसारण कर दिया, जिसे प्रोटोकॉल के विरुद्ध माना गया. मोदी ने उन्हें डांटा भी था. केवल आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन रेड्डी ने सद्भावना और मेलजोल का निवेदन किया. स्वाभाविक रूप से भाजपा के मुख्यमंत्री वायरस की भयावहता को नजरअंदाज करते हुए निष्ठा या भय के कारण चुप्पी साधे रहे.


वास्तविक सहकारी संघवाद का समय आ गया है, जहां केंद्र अगुवाई करे और राष्ट्रीय मामलों में राज्य भी अपनी बात कह सकें. जैसे केंद्र में सत्तारूढ़ दल को जनादेश मिला है, वैसे ही क्षेत्रीय दलों को भी मिला है. दरअसल, मोदी से बेहतर राज्यों की व्यथा को और कौन समझ सकता है, जिन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में 12 सालों तक कानूनी और राजनीतिक उत्पीड़न का सामना किया था? प्रधानमंत्री बनने के सालभर बाद उन्होंने स्वयं को संघवाद के प्रति प्रतिबद्ध किया था.


साल 2015 में एक सभा में उन्होंने कहा था, “13 साल मुख्यमंत्री और एक साल प्रधानमंत्री रहे मेरे जैसे व्यक्ति के लिए इस मंच का मेरे दिल में विशेष स्थान है. लेकिन इस नये संस्थान को मैं यह महत्व केवल अपनी भावना के आधार पर नहीं दे रहा हूं, बल्कि इसका आधार मेरा गंभीर विश्वास है, जो मेरे अनुभव से पैदा हुआ है, कि राष्ट्रीय विकास में राज्यों को महत्वपूर्ण भूमिका निभाना है. यह उन बड़े आकार और आबादी के देशों के लिए और भी जरूरी है, जहां बहुत अधिक भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक विविधता है.


यह और भी अधिक प्रासंगिक हो जाता है, जब संरचना में संवैधानिक और राजनीतिक तंत्र संघीय हों.” शायद योजना आयोग को भंग करना नीति निर्धारण में संघीय समावेशिता को सुनिश्चित करने का मोदी का तरीका था. उन्होंने 2015 में योजना आयोग की जगह नीति आयोग बना दिया. आधिकारिक घोषणा के अनुसार, नीति आयोग का उद्देश्य ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ के सिद्धांत पर राज्यों को मजबूत बनाने के लिए सहयोग देना था ताकि देश मजबूत हो सके.


व्यवहार में, ऐसा लगता है कि ग्रामीण भारत के खेतों, जंगलों और श्मशानों में सैकड़ों लाशों के साथ इस दृष्टि में निहित भावना का भी अंतिम संस्कार कर दिया गया है. साल 2015 से मोदी ने काउंसिल की आधा दर्जन बैठकें बुलायी हैं, जहां विभिन्न विकास कार्यक्रमों के लिए आम सहमति बनायी जाती है. ऐसी आखिरी बैठक आभासी रूप से फरवरी में हुई थी.


इसमें राज्यों के प्रमुखों, केंद्रीय मंत्रियों, विशेष आमंत्रितों के साथ नीति आयोग के उपाध्यक्ष, सीईओ, सदस्य और शीर्ष अधिकारी शामिल थे, जो देश का प्रशासन चलाते हैं. देश उस समय कोरोना की पहली लहर से उबर रहा था. वह बैठक आगे की कार्य योजना बनाने के लिए बेहतरीन अवसर हो सकती थी क्योंकि तब मुख्यमंत्री राजनीतिक टकराव नहीं चाहते थे. लेकिन नीति आयोग के बाबुओं और अन्यों को न तो आगे के खतरों की चिंता थी और न ही वे इनसे आगाह थे. इसके शीर्षस्थ शायद ही महामारी की रोकथाम में बड़े स्तर पर शामिल थे.


सीढ़ियों पर चढ़ने में माहिर आयोग के सदस्य और अनेक संस्थाओं के प्रमुख नाजुक केंद्र-राज्य संबंधों को क्षीण कर रहे हैं. इनमें से कुछ राज्यों से चर्चा किये बिना वैक्सीन नीति बना रहे हैं, कुछ हर सरकार में बड़े पद पा जाते हैं. ऐसे ही लोगों ने वैक्सीन सर्टिफिकेट पर प्रधानमंत्री की तस्वीर लगाने की सलाह दी होगी.


इनमें से किसी के पास महामारी से निपटने का कोई अनुभव नहीं है. मेडिकल प्रोटोकॉल बनाने, वैक्सीन मंगाने, पाबंदियां लगाने, जीवनरक्षक दवाएं और ऑक्सीजन बांटने आदि में शायद ही राज्यों की राय ली गयी. इन वजहों से महामारी रोकने में देश की प्रतिबद्धता कमजोर हो रही है. रूप बदलते वायरस राक्षस को ट्वीटर की लड़ाइयों और संदेहास्पद टूलकिटों से नहीं, बल्कि उदात्त संघवाद से ही मिटाया जा सकता है.

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टीकों और दवाओं की हो सुलभता (प्रभात खबर)

By डॉ अश्विनी महाजन 

 

हर कोई सोशल मीडिया समेत किसी भी स्रोत से रेमडेसिविर और अन्य दवाएं खोज रहा था. स्थिति तभी नियंत्रण में आ सकी, जब कोरोना वायरस का प्रकोप कम हुआ. इन आवश्यक वस्तुओं के प्रबंधन में न केवल आम आदमी को परेशानी का सामना करना पड़ रहा था, बल्कि प्रभावशाली लोग भी असहाय महसूस कर रहे थे.



पहली कोरोना लहर के दौरान तैयारी में हमने देखा कि पीपीई किट, टेस्टिंग किट, वेंटिलेटर और अन्य उपकरणों की घरेलू आपूर्ति हमारी मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं थी. हमारे उद्यमियों, सरकार और समाज ने इसे चुनौती के रूप में लिया और हम इन वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाने में कामयाब रहे. यह गर्व की बात है कि कुछ ही महीनों में हम अस्पतालों में वेंटिलेटर की उपलब्धता को तिगुना कर सके.



हमने बड़ी संख्या में आवश्यक उपकरणों का निर्यात भी शुरू कर दिया. जब महामारी की पहली लहर घट रही थी, देश ने वैक्सीन का उत्पादन भी शुरू कर दिया और स्थानीय स्तर पर उत्पादित दो टीकों के साथ चरणबद्ध तरीके से टीकाकरण अभियान भी प्रारंभ हो गया. यह कार्यक्रम सही दिशा में जा रहा था और संक्रमण का खतरा कम होने के कारण टीकों की मांग भी कमजोर थी.


लेकिन दूसरी लहर आने के साथ बड़े पैमाने पर संक्रमण होने से मांग अचानक बढ़ गयी, जिससे टीके की अप्रत्याशित कमी हो गयी. अन्य दवाओं के साथ भी ऐसा ही हुआ. रेमडेसिविर इंजेक्शन की भारी मांग को भारतीय निर्माताओं द्वारा पूरा नहीं किया जा सका. कई अन्य दवाएं भारत में उत्पादित नहीं की जाती हैं और वे काफी कम मात्रा में उपलब्ध होने के साथ महंगी भी हैं.


पहली लहर में आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति को समय पर बढ़ाया जा सका था, पर दूसरी लहर में महामारी की गंभीरता के कारण आपूर्ति की कमी को ठीक से प्रबंधित नहीं किया जा सका. फिर भी, अधिकतर घरेलू प्रयासों की मदद से और थोड़े से विदेशी समर्थन के साथ हम ऑक्सीजन की आपूर्ति में सुधार कर सके और वेंटिलेटर, अस्पताल के बिस्तर, कोविड देखभाल केंद्र, उपकरण आदि को प्रबंधित किया जा सका, जिसे हम आत्मनिर्भरता कह सकते हैं.


आक्सीजन की आपूर्ति बढ़ाने को लेकर भी घरेलू स्तर पर प्रयास चल रहे हैं, लेकिन अभी भी बड़ी समस्या वैक्सीन और दवाओं की आपूर्ति है. जहां तक वैक्सीन का सवाल है, सरकारी स्रोतों से आ रही खबरों के अनुसार, हम निकट भविष्य में आपूर्ति में उल्लेखनीय वृद्धि की उम्मीद कर सकते हैं. सरकारी सूत्रों के अनुसार, अगस्त से दिसंबर तक, हम कोविशील्ड का उत्पादन 75 करोड़ खुराक, कोवैक्सिन का 55 करोड़ खुराक, स्पुतनिक का 15.6 खुराक और अन्य 70 करोड़ खुराक यानी कुल मिलाकर यह लगभग 216 करोड़ खुराक का उत्पादन करने में सक्षम होंगे.


कोरोना वैक्सीन में ‘एमआरएनए’ तकनीक के रूप में एक नया विकास हुआ है. अन्य टीकों के विपरीत, जो जैव टीके हैं, यह रसायन आधारित टीका है. दो भारतीय कंपनियों ने सरकार की मदद से देश में इन टीकों के निर्माण के प्रयास शुरू कर दिये हैं. इसके लिए कच्चा माल एक मुद्दा हो सकता है. उम्मीद है कि निकट भविष्य में हम इस वैक्सीन को तैयार कर लेंगे. अभी इसकी लागत अधिक है, जो भविष्य में उत्पादन बढ़ाने के साथ कम हो सकती है.


हमें उत्पादन के पैमाने को बढ़ाने और कीमत को वहनीय स्तर तक लाने के लिए एक व्यावहारिक तंत्र अपनाने की जरूरत है. पिछले कुछ महीनों में सरकार के हस्तक्षेप से रेमडेसिविर की कीमत में कमी आयी है, लेकिन यह अब भी बहुत सस्ती नहीं है और इसकी आपूर्ति अभी भी कम है. कीमत इसलिए भी अधिक है क्योंकि जिन कंपनियों को पेटेंट धारक कंपनी गिलियड से स्वैच्छिक लाइसेंस मिला है, उन्हें भारी रॉयल्टी भी देनी पड़ती है.


यह उल्लेखनीय है कि बांग्लादेश, जो भारत की फार्मास्युटिकल क्षमता से बहुत पीछे है, सरकार द्वारा प्रदत्त अनिवार्य लाइसेंस की सहायता से उत्पादन कर रहा है. अनिवार्य लाइसेंस प्रदान कर इस इंजेक्शन के उत्पादन की अनुमति देने में कोई समस्या नहीं है. कई कोविड दवाओं का निर्माण भारत में नहीं किया जा रहा है और इसलिए उनकी आपूर्ति पूरी तरह से आयात पर निर्भर करती है. मांग में अचानक वृद्धि होने पर आपूर्ति में हमेशा एक समय अंतराल होता है.


इनकी कीमत भी बहुत अधिक है, जो कई लोगों के सामर्थ्य से परे है. सवाल यह है कि इन दवाओं की आपूर्ति कैसे बढ़े. इसका उत्तर अनिवार्य लाइसेंस है. विश्व व्यापार संगठन में ट्रिप्स समझौते में उपलब्ध लचीलेपन के परिणामस्वरूप भारतीय कानूनों में अनिवार्य लाइसेंस के प्रावधान शामिल किये गये थे.


हंगरी, रूस और इजराइल सहित कई देशों ने पहले ही अनिवार्य लाइसेंस जारी कर दिये हैं और वे बहुत कम कीमतों पर दवाओं के निर्माण में सफल रहे हैं. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे फार्मा और एपीआइ उद्योग में अणुओं को विकसित करने की भरपूर तकनीकी क्षमता है और अधिकतर मामलों में हम अनिवार्य लाइसेंस के माध्यम से उत्पादन करने में सक्षम होंगे. हमारी एक कंपनी श्नैटकोश द्वारा अनिवार्य लाइसेंस प्राप्त कर कैंसर की दवा बनाने का उत्कृष्ट उदाहरण हमारे सामने है.


हम उस दवा का उत्पादन बहुत कम कीमत पर कर रहे हैं. कुछ लोग यह भी तर्क देते हैं कि जब वे स्वैच्छिक लाइसेंस देने के इच्छुक हैं, तो फार्मा कंपनियों को नाराज क्यों करें? हमें यह समझना चाहिए कि अनिवार्य लाइसेंस के साथ हम कीमतों को काफी कम कर सकते हैं और यदि आवश्यक हो, तो अन्य विकासशील और यहां तक कि विकसित देशों को दवाएं निर्यात भी कर सकते हैं.


इसके अलावा, अनिवार्य लाइसेंस उन दवाओं के लिए और अधिक आवश्यक हो जाता है, जिनके लिए हम आयात पर पूर्ण निर्भर हैं. भारतीय पेटेंट अधिनियम, 1970 के अनुसार, अनिवार्य लाइसेंस प्रदान करने के लिए एक महत्वपूर्ण शर्त यह है कि दवा का निर्माण भारत में नहीं किया जाता है. अंत में यह कहा जा सकता है कि अनिवार्य लाइसेंस सस्ती दवाओं के लिए एक व्यावहारिक समाधान और आगे का रास्ता हो सकता है.

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जलवायु परिवर्तन और चक्रवात (प्रभात खबर)

 By ज्ञानेंद्र रावत 

 

बीते 14 मई से अरब सागर में उठे ताउते तूफान ने केरल, कर्नाटक के बाद बीते दिवस महाराष्ट्र और अब दीव में भारी तबाही मचायी है. 185 किलोमीटर की गति से चल रही हवाओं से सैकड़ो पेड़ उखड़ गये और सैकड़ो घर क्षतिग्रस्त हो गये. 184 से 186 मिलीमीटर बारिश से जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया. यातायात प्रभावित हुआ, हवाई उड़ाने ठप्प रहीं. सी लिंक को भी यातायात के लिए बंद करना पड़ा. नगरीय रेल सेवा भी बाधित हुई.



अनेक कोविड सेंटर तबाह हो गये. मुंबई, ठाणे, रायगढ़, सिंधुदुर्ग समेत समूचे कोंकण क्षेत्र में भारी बारिश और तेज हवाओं से जनजीवन के साथ संचार सेवायें बाधित हो गयीं. कई नावें डूब गयीं. नाविकों का अभी तक कोई पता नहीं लग सका है. अब यह तूफान गुजरात तक जा पहुंचा है जहां एहतियातन करीब डेढ़ लाख से ज्यादा लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचा दिया गया है. एनडीआरएफ और सेना की टीम हर स्थिति का सामना करने को तैयार हैं.



दरअसल बीते वर्ष मई में आये अम्फान तूफान, जून में आये निसर्ग तूफान और नवंबर में आये निवार तूफान, से भी अधिक भयावह तौकते तूफान है. मौसम विज्ञानियों के अनुसार पश्चिमी विक्षोभ और तेज हवाओं का इसे भयावह बनाने में अहम योगदान है, जिसने सात राज्यों को अपनी चपेट में ले लिया है. ऐसे तूफानों का प्रमुख कारण समुद्र के गर्भ में मौसम की गर्मी से हवा के गर्म होने के चलते कम वायु दाब के क्षेत्र का निर्माण होना है.


ऐसा होने पर गर्म हवा तेजी से ऊपर उठती है जो ऊपर की नमी से मिलकर संघनन से बादल बनाती है. इस वजह से बनी खाली जगह को भरने के लिए नम हवा तेजी से नीचे जाकर ऊपर उठकर आती है. जब हवा तेजी से उस क्षेत्र के चारों तरफ घूमती है, उस दशा में बने घने बादल बिजली के साथ मूसलाधार बारिश करते हैं. जलवायु परिवर्तन ने ऐसी स्थिति को और बढ़ाने में मदद की है.


जलवायु परिवर्तन और इससे पारिस्थितिकी में आये बदलाव के चलते जो अप्रत्याशित घटनाएं सामने आ रही हैं, उसे देखते हुए प्रबल संभावना है कि इस सदी के अंत तक धरती का स्वरूप काफी हद तक बदल जायेगा. इस विनाश के लिए जल, जंगल और जमीन का अति दोहन जिम्मेवार है. बढ़ते तापमान ने इसमें अहम भूमिका निबाही है. वैश्विक तापमान में यदि इसी तरह वृद्धि जारी रही, तो भविष्य में दुनिया में भयानक तूफान आयेंगे.


सूखा और बाढ़ जैसी घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि होगी. जहां तक तूफानों का सवाल है, तो समुद्र के तापमान में वृद्धि होने से स्वाभाविक तौर पर भयंकर तूफान उठते हैं, क्योंकि वह गर्म समुद्र की ऊर्जा को साथ ले लेते हैं. इससे भारी वर्षा होती है. तापमान में वृद्धि यदि इसी गति से जारी रही, तो धरती का एक चौथाई हिस्सा रेगिस्तान में तब्दील हो जायेगा और दुनिया का बीस-तीस फीसदी हिस्सा सूखे का शिकार होगा.


इससे दुनिया के 150 करोड़ लोग सीधे प्रभावित होंगे. इसका सीधा असर खाद्यान्न, प्राकृतिक संसाधन और पेयजल पर पड़ेगा. इसके चलते अधिसंख्य आबादी वाले इलाके खाद्यान्न की समस्या के चलते खाली हो जायेंगे और बहुसंख्य आबादी ठंडे प्रदेशों की ओर कूच करने को बाध्य होगी. जिस तेजी से जमीन अपने गुण खोती चली जा रही है उसे देखते हुए अनुपजाऊ जमीन ढाई गुना से भी अधिक बढ़ जायेगी.


इससे बरसों से सूखे का सामना कर रहे देश के 630 जिलों में से 233 को ज्यादा परेशानी का सामना करना पडे़गा. जिससे बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए खेती के अलावा दूसरे संसाधनों पर निर्भरता बढ़ जायेगी. दुनियाभर की भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति होगी. इससे खाद्यान्न तो प्रभावित होगा ही, अर्थव्यवस्था पर भी भारी प्रतिकूल प्रभाव पडे़गा.


ऐसी स्थिति में जल संकट बढे़गा, बीमारियां बढ़ेंगी, खाद्यान्न उत्पादन में कमी आयेगी, ध्रुवों की बर्फ पिघलेगी जिससे दुनिया के कई देश पानी में डूब जायेंगे. समुद्र का जलस्तर तेजी से बढ़ेगा और समुद्र किनारे बसे नगर-महानगर जलमग्न होंगे व करीब 20 लाख से ज्यादा की तादाद में प्रजातियां सदा के लिए खत्म हो जायेंगी. जीवन के आधार रहे खाद्य पदार्थों के पोषक तत्व कम हो जायेंगे.


ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि और उससे उपजी जलवायु परिवर्तन की समस्या का ही परिणाम है कि आर्कटिक महासागर की बर्फ हर दशक में 13 फीसदी की दर से पिघल रही है, जो अब केवल 3.4 मीटर की ही परत बची है. जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण मौसम के रौद्र रूप ने पूरी दुनिया को तबाही के कगार पर ला खड़ा किया है. तकरीबन डेढ़ लाख से ज्यादा लोग दुनिया में समय से पहले बाढ़, तूफान और प्रदूषण के चलते मौत के मुंह में चले जाते हैं.


बीमारियों से होने वाली मौतों का आंकड़ा भी हर वर्ष तेजी से बढ़ रहा है. कारण, जलवायु परिवर्तन से मनुष्य को उसके अनुरूप ढालने की क्षमता को हम काफी पीछे छोड़ चुके हैं. महासागरों का तापमान उच्चतम स्तर पर है. 150 वर्ष पहले की तुलना में समुद्र अब एक चौथाई अम्लीय है. इससे समुद्री पारिस्थितिकी, जिस पर अरबों लोग निर्भर हैं, पर भीषण खतरा पैदा हो गया है.


वर्तमान की यह स्थिति प्रकृति और मानव के विलगाव की ही परिणति है. जब तक जल, जंगल, जमीन के अति दोहन पर अंकुश नहीं लगेगा, तब तक जलवायु परिवर्तन से उपजी चुनौतियां बढ़ती ही चली जायेंगी और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ संघर्ष अधूरा ही रहेगा.

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आर्थिकी और टीकाकरण (प्रभात खबर)

रोना महामारी की दूसरी लहर के कहर का असर अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है. हालांकि पिछले साल की तरह बड़े पैमाने पर संकुचन की संभावना नहीं है, लेकिन चालू वित्त वर्ष के पूर्ववर्ती आकलनों के अनुरूप बेहतरी की गुंजाइश कुछ कम जरूर हुई है. यह स्पष्ट हो गया है कि व्यापक स्तर पर टीकाकरण के साथ ही अर्थव्यवस्था तेज गति से आगे बढ़ने लगेगी. इस बात को रेखांकित करते हुए प्रख्यात अर्थशास्त्री आशिमा गोयल ने कहा है कि आबादी के बड़े हिस्से को टीके की खुराक मिलने के बाद बाजार में मांग बढ़ेगी, वैश्विक अर्थव्यवस्था में भी सुधार आयेगा और वित्तीय स्थितियां सुगम हो जायेंगी. गोयल रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति की सदस्य भी हैं. उन्होंने यह भी भरोसा जताया है कि दूसरी लहर और उसकी रोकथाम के लिए लगी पाबंदियों का असर चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) तक ही सीमित रहेगा. इसकी वजह यह है कि स्थानीय स्तर पर ही पाबंदियां लगायी जा रही हैं तथा पूरी तरह लॉकडाउन लगने की संभावना नहीं है. उल्लेखनीय है कि पिछले साल अक्टूबर के बाद से इस साल फरवरी तक संक्रमण की दर बहुत कम हो जाने तथा पाबंदियों को हटाने से हमारी अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन बेहतर होने लगा था. तब यह उम्मीद जतायी जा रही थी कि 2021-22 के वित्त वर्ष में आर्थिक वृद्धि की दर दो अंकों में रहेगी.


लेकिन दूसरी लहर की आक्रामकता को देखते हुए अब माना जा रहा है कि यह दर 10 फीसदी से नीचे रह सकती है. भारत समेत दुनिया की सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाएं महामारी से प्रभावित हुई हैं. जिन देशों में संक्रमण पर नियंत्रण पा लिया गया है और टीकाकरण अभियान तेजी से चलाया जा रहा है, वहां आर्थिक और कारोबारी गतिविधियां धीरे-धीरे सामान्य होने लगी हैं. उन उदाहरणों को देखते हुए हमारे देश में भी आर्थिकी के भविष्य को लेकर आश्वस्त हुआ जा सकता है. दीर्घकालिक दृष्टि से देखें, तो भारतीय अर्थव्यवस्था के आधार मजबूत हैं. ऐसे में हमारा ध्यान महामारी को काबू करने पर केंद्रित होना चाहिए. विभिन्न कारणों से कुछ सप्ताह से टीकाकरण अभियान की गति बाधित हुई है,

पर उत्पादन बढ़ाने की कोशिशों तथा दूसरे देशों से टीकों की आमद से जल्दी ही आपूर्ति से जुड़ी मुश्किलें दूर हो सकती हैं. बड़ी आबादी और संसाधनों की कमी को देखते हुए भारत में बहुत कम समय में समूची वयस्क आबादी को टीका मुहैया करा पाना आसान काम नहीं है. बीते एक साल में सरकार ने अर्थव्यवस्था को राहत पहुंचाने के लिए अनेक वित्तीय और कल्याणकारी कार्यक्रमों की शुरुआत की है. ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार देने के साथ गरीब आबादी को खाद्यान्न उपलब्ध कराने के प्रयास भी हो रहे हैं. अब टीकाकरण का दायरा बढ़ाना है, ताकि निकट भविष्य में महामारी के प्रकोप की गुंजाइश कम-से-कम रहे. इसके साथ ही हमें संभावित तीसरी लहर का सामना करने के लिए भी तैयार रहना होगा.

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प्रकृति को समर्पित अद्भुत जीवन (प्रभात खबर)

प्रतिम व्यक्तित्व सुंदरलाल बहुगुणा के निधन से हमने ऐसे एक व्यक्ति को खोया है, जिसे हम अपने बीच में आखिरी गांधी की उपस्थिति के रूप में देख सकते थे. हमने उन्हें जितना भी जाना, आज के दौर में गांधी कहीं देखे या खोजे जा सकते थे, तो बहुगुणा जी ही थे. उनकी कथनी और करनी में कभी भी कोई अंतर नहीं होता था. उनमें न कोई आडंबर था, न ही कोई बनावट थी. जैसे वे बाहर दिखाते थे, वैसे ही वे भीतर भी थे. मेरे साथ वे तीन-चार साल रहे थे मेरे आश्रम में, जहां मैं रहता हूं.



मैंने उनकी सुबहें भी देखी, दोपहर, शामें और रातें भी. मैं जो कहने की कोशिश कर रहा हूं, वह यह है कि जिसे आप सरलता की पराकाष्ठा कह सकते हैं, वह उनमें थी. इसे व्यक्तित्व में आत्मसात करना बहुत कठिन होता है. आज दुनिया में जो सबसे कठिन काम है, वह सरल रहना ही है. यह सरलता ही बहुगुणा जी का व्यक्तित्व और व्यवहार थी. उन्हें कभी किसी भौतिक सुख की चाह कभी भी नहीं रही, बल्कि वे किसी भी तरह की वैसी सुविधा से कतराते थे, जिसके बारे में उन्हें लगता था कि उसकी कोई आवश्यकता नहीं है.



सत्तर के दशक में जो ‘चिपको आंदोलन’ शुरू हुआ, उसकी जो अंतरराष्ट्रीय छाप एवं छवि बनी, उसमें सुंदरलाल बहुगुणा की अहम भूमिका रही. हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि सत्तर के दशक में प्रकृति और पर्यावरण तथा इनसे संबंधित विषयों का कहीं उल्लेख तक नहीं था. बहुगुणा और उनके साथी आंदोलनकारी वे लोग थे, जिन्होंने धरती के लिए इस महत्वपूर्ण मामले को विश्व पटल पर मानवता के समक्ष रखा. इन्हीं प्रयासों के परिणामस्वरूप कृषि दिवस, पर्यावरण दिवस, पृथ्वी दिवस, जैव-विविधता दिवस आदि जैसी अवधारणाएं सामने आयीं.


पर्यावरण को लेकर जो भी गतिविधियां और कोशिशें शुरू हुईं, वे सब उस भावना का प्रभाव थीं कि प्रकृति के प्रति हम सभी को संवेदनशील हो जाना चाहिए. फिर भी, मेरी दृष्टि में बहुगुणा जी का व्यक्तित्व ‘चिपको आंदोलन’ से बहुत ऊपर देखता हूं. टिहरी बांध निर्माण के विरुद्ध आंदोलन हो, शराबबंदी के लिए अभियान हो, टिहरी राज के दौर में जो उनकी सक्रियता रही, ऐसी परिघटनाओं में जब हम उनकी भूमिका को देखते हैं, तो हमें एक बड़ा वैचारिक व्यक्तित्व दिखायी पड़ता है.


आपको मेरी बात से आश्चर्य हो सकता है, लेकिन उनके साथ कोई भी बात आप करें, चाहे वह घर की हो या और कुछ, बहुगुणा जी घुमा-फिराकर वहीं पहुंच जाते थे, जो प्रकृति और पर्यावरण के मामलों से संदर्भित होता था. इस बात को आप उस किसी भी व्यक्ति से जान सकते हैं, जो उनके निकट रहा हो. उनकी सोच और उनके कर्म में प्रकृति, नदियां, वन आदि ही सदैव केंद्र में रहे.


मैंने अपने जीवन में जो भी कुछ काम किया है, उसमें जो धार आयी, वह बहुगुणा जी की समझ की वजह से ही आ सकी. मैं बहुत से सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों से परिचित हूं, लेकिन वे इन सबमें अद्भुत थे. मैंने प्रकृति और पर्यावरण के मुद्दों पर जागृति के लिए तीन बार साइकिल से भारत भ्रमण किया है. मैं जब भी चाहे केरल, तमिलनाडु, बिहार या और कहीं रहा हूं, मैंने किसी भी समूह में जब भी सुंदरलाल बहुगुणा का नाम लिया, तो सभी उनके नाम से परिचित मिले.


इतनी बड़ी पहचान, मैं आपसे कह रहा हूं, इस संदर्भ में किसी और की नहीं देखी है. उनकी शैली यह थी कि वे अपनी पोटली उठाते थे और चल देते थे. वे अपनी पोटली को भी किसी और के कंधे पर नहीं रखने देते थे. वे कहते थे कि अपना श्रम स्वयं करना चाहिए. इन्हीं बातों ने उस व्यक्ति को अनोखा और अद्भुत भी बनाया. हम आम तौर पर दो तरह का व्यक्तित्व रखते हैं- एक समाज के लिए और दूसरा घर के कोने के लिए. उनमें यह बात नहीं थी.


कई मामलों में वे मुझे टोकते भी थे कि ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए. मैंने उनके साथ कभी काम नहीं किया, पर मेरे मन में हमेशा उनके प्रति श्रद्धा रही. अच्छा यही रहता है कि किसी ने ऐसे व्यक्ति के साथ काम नहीं किया हो और वह उसका अनुयायी हो क्योंकि उस व्यक्ति के अपने अनुभव होते हैं तथा वह उस आदर्श के साथ उनको टटोलता है. इससे बेहतर विश्लेषण की स्थिति बनती है. साल 2009 में उनके जन्मदिन पर हमने बिना किसी आडंबर के उनके नाम पर सुंदर वन की स्थापना की.


यह उस जगह है, जहां मेरा आश्रम है. इसका पहला वृक्ष सुंदरलाल बहुगुणा ने ही लगाया था. मैं अपने और अपने संगठन के कर्म में उनके विचारों को हमेशा केंद्र में रखता आया हूं और आगे भी ऐसा ही होगा क्योंकि यही सबसे अच्छा रास्ता है. उन्होंने जो स्थापित किया है. उसे कोई चुनौती नहीं दे सकता है. आज या आनेवाले समय में जब भी चर्चाएं होंगी, आंदोलन होंगे या यात्राएं होंगी, मेरे द्वारा हों या मेरे समकक्ष मित्रों द्वारा हों, हम सब उनके विचारों का वाहक बनेंगे. सुंदरलाल बहुगुणा के लिए घर, परिवार, मित्र या संबंधी नहीं, बल्कि उनका काम ही हमेशा महत्वपूर्ण रहा था.

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इजरायल-फिलीस्तीन का बढ़ता तनाव (प्रभात खबर)

By प्रो पीआर कुमारस्वामी 

 

पश्चिम एशिया में इजरायल और फिलीस्तीनियों के बीच तनाव पिछले कुछ समय से बढ़ता हुआ दिख रहा था. इसी तरह का तनाव फिलीस्तीनी समूहों- फतह और हमास- के बीच तथा फिलीस्तीनियों और व्यापक अरब दुनिया के बीच बढ़ रहा था. माहौल पूरा तनावपूर्ण था. किसी एक पक्ष ने जरा सी कोई हरकत की और मामला यहां तक पहुंच गया.



यदि आप वास्तविकता देखें, तो तमाम मौतों और बर्बादी के बावजूद हमास दस दिन पहले की अपेक्षा आज कहीं अधिक ताकतवर होता दिख रहा है. फिलीस्तीनी आबादी के बीच इसकी लोकप्रियता बनी हुई है. आज फिलीस्तीनी अथॉरिटी बहुत मजबूत नहीं है. हमास 1998 से सक्रिय है, पर आज वह अन्य समूहों की तुलना में इजरायल को कहीं अधिक गंभीर चुनौती देता हुआ दिख रहा है. मेरी राय में वहां अब एक नयी स्थिति पैदा हो रही है.



इजरायल के भीतर यहूदी और अरबी आबादी के बीच पिछले दिनों से जो हिंसक झड़पें हो रही हैं, वह एक नयी परिघटना है. इतने बड़े पैमाने पर ऐसी घटनाएं पहली बार हो रही हैं. पहले एकाध छिटपुट ऐसी वारदातें होती थीं, जो दुनिया के किसी भी समाज में होती हैं. लेकिन इस बार स्वत:स्फूर्त दंगों की कई घटनाएं हुई हैं और हो रही हैं, जिनमें अरबी लोग यहूदियों पर हमले कर रहे हैं और यहूदी समूह अरबों को निशाना बना रहे हैं. यह सब इजरायल के भीतर घटित हो रहा है, जो पहले कभी भी नहीं हुआ था.


यह उस देश के लिए एक खतरनाक स्थिति है. आप अपने दुश्मनों से लड़ सकते हैं, लेकिन अगर आपको अपने ही लोगों से लड़ना पड़ जाए, तो वह एक अलग बात होती है. सो, इजरायल एक बहुत गंभीर घरेलू चुनौती का सामना कर रहा है. विदेश नीति के मोर्चे पर लड़ना अलग बात है, जिसे आप आसानी से लड़ सकते हैं, लेकिन घरेलू चुनौती हमेशा ही मुश्किल होती है.


इजरायल के भीतर हाशिये के कुछ यहूदी और अरबी समूहों के उग्र होने की जो बात कही जा रही है, उससे मैं सहमत नहीं हूं. हिंसा की चुनौती कठिन जरूर है, पर मुझे लगता है कि इस पर नियंत्रण पा लिया जायेगा. यह खतरनाक है क्योंकि यह कुछ ऐसा ही है कि कोई परिवार आपस में ही लड़ने लगे. खबरों के मुताबिक, स्थिति को नियंत्रित करने के प्रयास शुरू हो चुके हैं.


यह एक अहम सवाल है कि क्या हमास और इजरायल के बीच इस समस्या के समाधान के लिए आमने-सामने की बातचीत या किसी समझौते की कितनी गुंजाइश है. मेरी राय में ऐसी किसी भी संभावित स्थिति के लिए हमास को अपनी सोच में बुनियादी बदलाव लाना पड़ेगा. हमास इजरायल के अस्तित्व में बने रहने के अधिकार को स्वीकार नहीं करता है. अब ऐसी स्थिति में इजरायल उससे कैसे और क्या समझौता कर सकता है?


यह समस्या है. अगर हमास यह कहता है कि उसे इजरायल से तमाम असहमतियां हैं, लेकिन वह अतीत की ओर देखने की जगह भविष्य के बारे में सोचने के लिए तैयार है, तो शायद आमने-सामने बैठकर बातचीत करने की गुंजाइश बन सकती है. तभी किसी समझौते की संभावना हो सकती है. यदि हमास यही रट लगाये रहेगा कि वह इजरायल को खत्म कर देगा, तब बात नहीं बन सकती है.


जहां तक इजरायल की आंतरिक राजनीतिक स्थिति का सवाल है, तो गाजा में हो रही कार्रवाई से शायद प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को कुछ फायदा हो जाए, लेकिन उन्हें इससे कोई दीर्घकालीन लाभ होगा, इसमें संदेह है. यदि आप इजरायल के घटनाक्रमों को गहराई से देखें, तो आप पायेंगे कि वहां किसी भी समस्या की अवधि एक सप्ताह की होती है. अगले सप्ताह कोई नयी समस्या आ खड़ी होती है.


ऐसे में भले नेतन्याहू को आज कुछ फायदा होता हुआ दिखायी पड़े, लेकिन यह लंबे समय के लिए कारगर नहीं होगा. इस स्थिति का दूसरा पहलू यह भी है कि इजरायल के भीतर कई लोग पूरे घटनाक्रम की फिर पड़ताल करने की जरूरत समझें. लोगों की एक राय यह हो सकती है कि देश में कई पक्षों को मिलाकर कोई यूनिटी गवर्नमेंट बने, जिसमें भले ही सभी लोग शामिल न हों, पर अधिक-से-अधिक पक्षों को साथ लेकर ऐसी कोई पहल हो.


संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में मौजूदा स्थिति पर भारत ने जो राय रखी है, वह एक स्तर पर सही है. भारतीय राजदूत ने अपने भाषण में कहा है कि भारत द्विराज्य सिद्धांत के तहत समस्या के समाधान का पक्षधर है. इसमें दोनों संभावित देशों- इजरायल व फिलीस्तीन- की सीमाएं निर्धारित नहीं हैं क्योंकि वे तो बातचीत और समझौते के बाद ही तय की जा सकती हैं. भारतीय राय में किसी निर्धारित राजधानी का भी उल्लेख नहीं है. लेकिन यदि मैं भारतीय राजदूत की जगह होता, तो उनसे कम बोलता.


उन्होंने जेरूसलम, शेख जर्राह आदि अनेक मामलों का उल्लेख किया है, जिसकी कोई जरूरत नहीं थी. यह कहना काफी था कि भारत सभी पक्षों से यथास्थिति बनाये रखने और हिंसा रोकने का आग्रह करता है. मैं यह नहीं कह रहा हूं कि राजदूत ने कुछ गलत कहा है, मेरा कहना है कि यह कूटनीति की दृष्टि से ठीक नहीं था. एक कूटनीतिक का उद्देश्य अपने देश के राष्ट्रीय हितों को आगे रखना होता है.


पूर्वी जेरूसलम की चर्चा कर भारतीय प्रतिनिधि ने बिना जरूरत इजरायल को आक्रोशित किया है. फिलीस्तीनी भी इस भाषण से खुश नहीं हैं क्योंकि जो कहा गया है, उससे वे कहीं अधिक की अपेक्षा रखते थे. पर, बुनियादी बातें सही हैं कि भारत बिना सीमाओं और राजधानी का पूर्व निर्धारण किये समस्या का समाधान दो राज्यों के सिद्धांत के तहत चाहता है.


इजरायल-फिलीस्तीन समस्या के स्थायी समाधान की प्रक्रिया में अंतरराष्ट्रीय समुदाय एक हद तक ही अपनी भूमिका निभा सकता है. विभिन्न देश ऐसी परिस्थितियां बनाने में सहायक हो सकते हैं, जिससे स्थिति सुधरे और समझौते के लिए समुचित वातावरण बने. लेकिन दोनों पक्षों आपस में लड़ना है या शांति से आगे की राह तलाशनी है, यह उन्हें ही तय करना है. यह इजरायलियों और फिलीस्तीनियों को ही फैसला करना होगा कि बातचीत से कोई हल निकालना सही है या फिर बमबारी करना है.


इसमें अन्य देशों की भूमिका बहुत सीमित है. यदि वे कुछ ठोस निर्णय लेते हैं, तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय उसे आगे बढ़ाने में मददगार हो सकता है. समस्या सुलझने की दिशा में कोई राह निकल सकती है. उदाहरण के लिए, भारत और पाकिस्तान को ही अपनी समस्याओं को सुलझाना है, कोई तीसरा पक्ष आकर हमारी मुश्किलों को ठीक नहीं कर सकता है. ठीक यही बात पश्चिम एशिया में भी लागू होती है. तीसरा पक्ष सहयोग ही उपलब्ध करा सकता है, वह मध्यस्थता नहीं कर सकता है और न ही समाधान कर सकता है.

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अंधविश्वास की महामारी से भी लड़ाई (प्रभात खबर)

By आशुतोष चतुर्वेदी 

 

पुरानी कहावत है कि नीम हकीम खतरा ए जान यानी नीम हकीम के चक्कर में पड़े, तो जान को खतरा हो सकता है. वैसे सामान्य अवस्था में भी आप किसी भारतीय से किसी रोग का जिक्र भर कर दें, वह तत्काल आपको एलोपैथी से लेकर आयुर्वेद तक इलाज सुझा देगा. पर व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ने तो देश के अधिकांश लोगों को कोरोना विशेषज्ञ बना दिया है.


इससे कोरोना वायरस को नष्ट नहीं किया जा सकता है, बल्कि इससे कई और बीमारियों के फैलने का खतरा है. सोशल मीडिया पर मैसेज वायरल होने के बाद लोग इस उम्मीद में गौशाला जाने लगे थे कि इससे रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जायेगी और संक्रमण नहीं होगा. दुनियाभर के वैज्ञानिक और डॉक्टर बार-बार कोरोना का वैकल्पिक उपचार न करने की चेतावनी दे रहे हैं.



उनका कहना है कि सुरक्षा की झूठी भावना स्वास्थ्य समस्याओं को और जटिल बना सकती है. कोरोना संक्रमण के बचाव और इलाज के लिए जो गाइडलाइन बनी है, उसका पालन करना चाहिए और डॉक्टर की सलाह के अनुसार दवाओं का सेवन करना चाहिए. इसी तरह वैक्सीन को लेकर अनेक भ्रामक सूचनाएं फैलायी जा रही हैं कि इससे कोरोना संक्रमण हो जाता है, जबकि कोरोना से बचाव में वैक्सीन की अहम भूमिका है.



कोरोना संक्रमण से स्थिति अब भी गंभीर है. हर दिन तीन लाख से ज्यादा संक्रमण के नये मामले सामने आ रहे हैं और प्रतिदिन लगभग चार हजार संक्रमितों की जान जा रही है. एक ही बात सुकून देती है कि लोग बड़ी संख्या में ठीक भी हो रहे है. देश में लगभग ढाई करोड़ लोग कोरोना संक्रमित हो चुके हैं और ढाई लाख से अधिक मौतें हो चुकी हैं. गंभीर रूप से संक्रमित मरीज अस्पताल में बेड, ऑक्सीजन और दवाओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं.


कई लोग इलाज के अभाव में जान गवां दे रहे हैं. कोरोना की दूसरी लहर इतनी खतरनाक है कि हर ओर भय का माहौल है. शायद यही वजह है कि लोग बचाव के टोने टोटके आजमा रहे हैं. पर चिंता की बात यह है कि कई मामलों में ये टोटके जीवन पर भारी पड़ जा रहे हैं. सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल है, जिसमें परिवार की महिलाएं ऑक्सीजन पर निर्भर कोरोना के एक मरीज के पास जोर जोर से धार्मिक पाठ कर रही हैं. खबर है कि बाद में उन्होंने मरीज को पाठ सुनाने के लिए मरीज की ऑक्सीजन हटा दी, जिसके कारण उसकी मौत हो गयी.


हाल में महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले की शेवगांव तहसील के एक डॉक्टर ने दावा किया है कि देशी शराब के काढ़े से उन्होंने 50 से ज्यादा मरीजों को स्वस्थ किया है. यह खबर सोशल मीडिया पर वायरल हो गयी. बाद में सरकार को बयान देना पड़ा कि यह दावा पूरी तरह से गलत है और इस पर विश्वास न करें. एक व्हॉट्सऐप मैसेज में कहा जा रहा है कि पुद्दुचेरी के एक छात्र रामू ने कोविड-19 का घरेलू उपचार खोज लिया है और उसे विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वीकृति प्रदान कर दी है.


उसने सिद्ध कर दिया कि एक चाय के कप में चम्मच भरकर काली मिर्च का चूर्ण, दो चम्मच शहद और थोड़ा सा अदरक का रस लगातार पांच दिनों तक लिया जाए, तो कोरोना के प्रभाव को सौ फीसदी समाप्त किया जा सकता है. बीबीसी हिंदी की फैक्ट चेक टीम ने इसकी जांच की और पुद्दुचेरी विश्वविद्यालय के प्रवक्ता बात की, तो उनका कहना था कि ऐसी कोई दवा विश्वविद्यालय के किसी छात्र ने नहीं बनायी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तो ऐसी फेक खबरों के लिए एक अलग सेक्शन बना रखा है.


उसने स्पष्ट किया है कि कोरोना वायरस की अब तक कोई दवा नहीं बनी है और न ही काली मिर्च के खाने में इस्तेमाल करने से कोरोना वायरस से बचा जा सकता है. काली मिर्च आपके खाने को स्वादिष्ट बना सकती है, लेकिन कोरोना वायरस से नहीं बचा सकती है. मध्य प्रदेश के गुना में तो कुछ लोगों ने सूखी नदी में गड्ढे खोदे और उससे निकले पानी को कोरोना की औषधि समझ कर पीने लगे. गुना के जोहरी गांव से बरनी नदी गुजरती है, गर्मियों में उसकी धारा दो-तीन महीने सूख जाती है.


सूखी हुई नदी की सतह पर अगर गड्ढा खोदा जाए, तो उसमें पानी निकलता है. इसी बीच गांव में अफवाह उड़ी कि यह चमत्कारी पानी है और इस पानी को पीने से कोरोना बीमारी ठीक हो जायेगी. अफवाह उड़ते ही गांव के लोग गड्ढा खोदकर पानी पीने लगे. नदी में पहले से ही कुछ गड्ढों में पानी भरा हुआ था. कुछ लोग उन गड्ढों में भरा गंदा पानी भी पीने लगे. इस पानी के पीने से अन्य बीमारियों का खतरा बढ़ गया है. अधिकारियों ने भी लोगों को समझाने की कोशिश की, लेकिन लोग मानने को राजी नहीं हैं.


विशेषज्ञों का कहना है कि 90 फीसदी मरीज घर पर ही साधारण दवाओं से ठीक हो जाते हैं. उन्हें आप ग्लूकोज की पुड़िया दे दें और मंत्र फूंक दें और मरीज अपने आप ठीक हो जायेगा. आप गौर करेंगे, तो पायेंगे कि दरअसल इन्हीं मरीजों को ठीक करने का दावा अपनी औषधियां बेचने वाले कर रहे हैं. वे लोगों का शोषण कर अपनी दवाइयां बेचने में सफल भी हो जा रहे हैं. असली चुनौती 10 फीसदी लोगों के इलाज को लेकर है.


ऐसे गंभीर मरीज केवल और केवल एलोपैथिक दवाओं से ठीक होते हैं. इनके चक्कर में फंसकर कुछ लोग इलाज का महत्वपूर्ण समय गवां देते हैं और अपनी जान दांव पर लगा देते हैं. यह वैज्ञानिक तथ्य है कि एलोपैथी के अलावा अन्य सभी चिकित्सा पद्धतियों की भूमिका केवल शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में है. यह सही है कि कुछ पारंपरिक और घरेलू उपचार कोरोना के लक्षणों में राहत दे सकते हैं, लेकिन वे इस बीमारी का इलाज नहीं हैं. कोरोना संक्रमण से बचने के लिए वैक्सीन लगवाएं, लोगों से एक मीटर की दूरी बनाये रखें और लगातार हाथ धोते रहें.

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कोरोना से जंग में जागरूकता जरूरी (प्रभात खबर)

By अशोक भगत 

 

कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है. वातावरण खौफनाक व दर्दनाक है. सामाजिक ताना बाना पूरी तरह से भयाक्रांत होकर अपने दायित्वों से विमुख होता जा रहा है. नदियों में तैरती लाशें इसका चिंताजनक उदाहरण हैं. सामाजिक संगठन के साथ संरचना व्यक्तिगत मूल्यों और परंपरागत संस्कारों को अक्षुण्ण बनाये रखने में असमर्थ होती दिख रही है. ऐसे में इन शक्तियों द्वारा दृढ़ता से कोरोना की रोकथाम हेतु जागरूकता ही एकमात्र विकल्प है.


ग्रामीण क्षेत्रों में जहां संसाधन का घोर अभाव है, वहां इनकी भूमिका सर्वोपरि सिद्ध हो सकती है. जिस परिस्थिति का सामना देश कर रहा है, उसमें हमें यह समझना होगा कि यह आपदा कुछ अलग किस्म की है. स्वतंत्र भारत ने कई प्रकार की आपदाएं झेली है- भूकंप, बाढ़, सूखा, छोटी-मोटी महामारी, आंधी, सुनामी आदि. वे आपदाएं सीमित समय के लिए थीं, लेकिन वर्तमान आपदा लंबी चलेगी. इसकी प्रकृति अलग है. इसलिए हमें एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका में आगे आना चाहिए और इस आपदा में अपने नेतृत्व पर भरोसा करना चाहिए.



अद्यतन आंकड़ों के अनुसार इस महामारी से देश में प्रति दिन लगभग चार हजार लोगों की मौत हो रही है. अब तक जान गंवाने वालों की संख्या ढ़ाई लाख को पार कर चुकी है. प्रति दिन लाखों लोग संक्रमित हो रहे हैं. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़े में बताया गया है कि अब तक दो करोड़ से ज्यादा लोग संक्रमित हो चुके हैं. इस आपदा में सरकारी प्रबंधन के तौर पर बहुत सारी अनियमितताएं देखने को मिलीं, लेकिन इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि लाख आलोचनाओं के बाद भी अंततः सरकार के द्वारा खड़े किये गये तंत्र ने ही मानवीय मूल्य और जनता के प्रति दायित्व का परिचय दिया है.



जिस प्रकार गैर सरकारी व निजी अस्पतालों ने अपराधिक, गैर कानूनी कृत्य कर लोगों को परेशान किया, वैसे में अगर सरकारी तंत्र नहीं होता, तो काली पूंजी एवं बैंक के लोन से बने निजी अस्पताल पैसे के लालच में लोगों की लाशों तक की बोलियां लगाते और शरीर के अंग गैर-कानूनी तरीके से बाजार में बेच देते. स्वार्थी तत्व आपदा को अवसर के रूप में देखते हैं.


इस संदर्भ में महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘कुदरत सबका पेट भर सकती है, पर किसी एक हवस नही.’ सर्वोदय विचारक दादा धर्माधिकारी कहते हैं, वर्तमान युग में तख्त, तिजोरी और तलवार लोगों की प्रतिष्ठा का मापदंड बन गया है. सरकार को कोसने के साथ ही क्या हम ऐसी सामाजिक शक्ति खड़ी कर सकते हैं, जो नरपिशाच बन गये स्वार्थी तत्वों का सामाजिक बहिष्कार करे?


इस संकट काल में कुछ जिम्मेदार राजनेता लोगों को भड़काने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसे नेता न तो समाज के लिए हितकर हैं और न ही देश के लिए. विप्लव आप किसके खिलाफ करेंगे, जो आपकी सुरक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था में लगे हैं, या फिर सरकार के खिलाफ? वर्तमान स्थिति में यह और खतरनाक साबित होगा. संकट के इस क्षण में जिम्मेदार राजनेताओं को संयम रखना चाहिए और भड़काऊ बयान से बचना चाहिए.


संकट की इस घड़ी में समाज के प्रबुद्ध वर्ग को धैर्य से काम लेने की जरूरत है. कोरोना काल में दो-तीन संगठनों ने बेहद सकारात्मक ढंग से अपने को प्रस्तुत किया है. इस दौर में कुछ धार्मिक व सामाजिक संगठनों ने बढ़िया पहल की है, जो सराहनीय है, लेकिन नाकाफी है. हमारे देश में लाखों की संख्या में गैर-सरकारी संगठन, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, जातीय न्यास पंजीकृत हैं. हर छोटे-बड़े पंथ के अपने संगठन हैं.


हमारे देश में बड़े-बड़े धनाढ्य मंदिर हैं, करोड़ों की संपत्ति वाले खानकाह और दरगाह हैं. अनेक बाबाओं एवं संतों के पास बड़ी संख्या में जन और धन दोनों हैं, लेकिन जिस प्रकार कुछ संगठनों ने इस बीमारी के खिलाफ तत्परता दिखायी है, वैसी तत्परता अन्य संगठनों ने नहीं दिखायी. ऐसे संगठनों को आत्मचिंतन करना चाहिए और हो सके, तो देश व समाज के लिए आगे आकर प्रथम पंक्ति के योद्धा की भूमिका निभानी चाहिए.


आखिर इसका समाधान क्या है? इस बात में विश्वास नहीं है कि स्वास्थ्य सेवा पूर्ण रूप से सरकार के जिम्मे हो, लेकिन निजी तंत्र को लूटने और गुंडागर्दी की खुली छूट किसी कीमत पर नहीं मिलनी चाहिए. इसलिए इस क्षेत्र में सरकार को एक ताकतवर नियामक बनाने की जरूरत है, जो स्वतंत्र हो और आम जनता के प्रति जिम्मेदार हो. दूसरा, सरकार को समय-समय पर स्वास्थ्य व्यवस्था की समीक्षा भी करनी होगी.


अब समय आ गया है कि हमारे देश का हर सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं जातीय संगठन स्वास्थ्य व्यवस्था पर भी ध्यान दे. देश के धार्मिक स्थलों के साथ स्वास्थ्य व्यवस्था को जोड़ने की जरूरत है. कोरोना महामारी से सीख लेकर सरकार को चाहिए कि वह स्वास्थ्य और शिक्षा को पूर्ण रूप से सबको निशुल्क सुलभ कराये.


यदि डॉक्टरी की पढ़ाई में किसी विद्यार्थी को पांच करोड़ रुपये खर्च करने पड़ेंगे, तो वह पहले अपनी पूंजी निकालेगा और उसके लिए वह सभी प्रकार के नैतिक-अनैतिक धंधों में शामिल हो जायेगा. अंत में, कोरोना महामारी के कारण जनता ने व्यक्तिगत, सामाजिक और स्वास्थ्य संबंधी जिस अनुशासन को अंगीकार किया है, उसे सतत बनाये रखने की जरूरत है. इससे हम न केवल वर्तमान संकट से निकलेंगे, अपितु आसन्न महामारियों का सामना करने में भी सक्षम होंगे.

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डिजिटल कौशल जरूरी (प्रभात खबर)

बड़ी संख्या में मौतों के साथ कोरोना महामारी ने अर्थव्यवस्था पर गंभीर चोट की है. संक्रमण की पहली लहर के असर से देश ने उबरना शुरू ही किया था कि दूसरी लहर का कहर टूट पड़ा. इसके थमने में अभी कुछ समय लगेगा और तब तक आर्थिक व कारोबारी गतिविधियों पर विभिन्न पाबंदियों का साया भी बना रहेगा. शहरी अर्थव्यवस्था में गिरावट के संकेत साफ दिखने लगे हैं. आकलन बताते हैं कि अप्रैल में बेरोजगारी दर 10.72 फीसदी के स्तर पर पहुंच गयी.



ऐसे में रोजगार के अवसर पैदा करने, उत्पादकता बढ़ाने और भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें नयी तकनीक से संबंधित कौशल के विकास पर समुचित ध्यान देना होगा. लॉकडाउन और अन्य प्रतिबंधों के कारण बड़ी संख्या में लोग घरों से काम करने, स्वास्थ्य से जुड़ी जानकारियां लेने तथा कई तरह की सेवाओं को मुहैया कराने में डिजिटल तकनीक बेहद उपयोगी व कारगर साबित हुई है.



महामारी से पहले से ही विभिन्न क्षेत्रों में इस तकनीक के इस्तेमाल में बढ़ोतरी हो रही है, लेकिन उसी गति से इससे संबंधित कौशल का विकास नहीं हो रहा है. आकलनों की मानें, तो 50 करोड़ भारतीय इस तकनीक का न केवल उपयोग कर रहे होंगे, बल्कि उनके पास बुनियादी कौशल भी होगा. आबादी के इस हिस्से में सामाजिक और आर्थिक रूप से पीछे रह गये लोग भी बड़ी संख्या में होगे. एक उत्साहवर्द्धक पहलू यह भी है कि इस आंकड़े में 18 से 34 वर्ष उम्र के युवाओं की भी उल्लेखनीय भागीदारी होगी.


डिजिटल तकनीक में फिलहाल जो भागीदारी बढ़ रही है, उसका एक आयाम परिस्थितिजन्य विवशताएं हैं या फिर यह बहुत शुरुआती स्तर पर है. यदि कौशल बढ़ाने के समुचित उपाय किये जाते हैं, तो तकनीक के प्रबंधन से लेकर इस्तेमाल तक बड़ी संख्या में रोजगार के अवसर बनाये जा सकते हैं. इस संबंध में पहले से किये जा रहे सरकारी और निजी क्षेत्र के प्रयासों को गति देने की जरूरत है.


इससे न केवल अर्थव्यवस्था को बड़ा आधार मिलेगा, बल्कि बेरोजगार और कम गुणवत्ता व आमदनी के कामों में लगे युवाओं का भविष्य बेहतर करने में मदद मिलेगी. उल्लेखनीय है कि हमारे कार्य बल में लगे युवाओं का लगभग 47 फीसदी हिस्सा ऐसे कामों में लगा है, जो उसकी क्षमता के अनुरूप नहीं है.


भारत युवाओं का देश है. देश की प्रगति और समृद्धि के आवश्यक है कि युवाओं को रोजगार के बेहतर अवसर मिलें. संचार व सूचना तकनीक इस आवश्यकता को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है. इससे आबादी के बड़े हिस्से को आधुनिक तकनीक की सेवाओं को भी मुहैया कराने में मदद मिलेगी.


निर्माण व उत्पादन से लेकर हर तरह की सेवाओं की गुणवत्ता बढ़ाने तथा उन्हें लोगों तक जल्दी पहुंचाने तक के सिलसिले में डिजिटल तकनीक पर निर्भरता बढ़ती जा रही है. इसे बेहतर जीवन और अर्थव्यवस्था के विकास के साथ मजबूती से जोड़ने के लिए दीर्घकालिक नीतियों की जरूरत है.

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ब्लैक फंगस का खतरा (प्रभात खबर)

महामारी के मौजूदा दौर में यह पुरानी कहावत सही साबित होती दिख रही है कि मुसीबत कभी भी अकेले नहीं आती. सवा साल से चल रहे संक्रमण के सिलसिले से जहां बड़ी तादाद में लोगों की मौत हो रही है और लाखों लोग बीमार पड़ रहे हैं, वहीं हमारी अर्थव्यवस्था भी संकटग्रस्त है. छात्रों की पढ़ाई-लिखाई ठीक से नहीं हो रही है और अन्य बीमारियों से जूझते लोगों को ठीक से उपचार नहीं मिल पा रहा है.


देश का समूचा ध्यान महामारी की रोकथाम पर है. ऐसी स्थिति में ब्लैक फंगस यानी म्युकरमाइकोसिस नाम की एक गंभीर बीमारी का फैलना बेहद चिंताजनक है. हालांकि इसके मरीजों की संख्या अभी कम है, लेकिन अनेक राज्यों में मरीजों के मिलने से स्वास्थ्य तंत्र सचेत हो गया है. कोरोना संक्रमण के दौरान या ठीक होने के बाद यह बीमारी संक्रमित के आंख को निशाना बनाती है.



इसमें आंखों और आसपास की कोशिकाएं सूख जाती हैं, जिससे खून का प्रवाह रुक जाता है. इससे आंख में घाव हो जाता है. कई बार फंगस से ग्रस्त आंख को निकालकर मरीज की जान बचायी जाती है. कुछ मामलों में ब्लैक फंगस का असर दिमाग और फेफड़ों पर भी पड़ता है. इस बीमारी का कारण लकड़ी आदि से निकलनेवाला फंगस है, जो हवा के जरिये रोगी को निशाना बनाता है. विशेषज्ञों के मुताबिक, डायबिटीज और हाई ब्लड प्रेशर के पीड़ित लोग इसका अधिक शिकार होते हैं.


ब्लैक फंगस के बढ़ते मामलों को देखते हुए कोविड अस्पतालों और अन्य स्वास्थ्य केंद्रों में अधिक सतर्कता बरतने की जरूरत है. इस बीमारी के बारे में डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्यकर्मियों के साथ आम लोगों में भी जागरुकता बढ़ाने पर ध्यान दिया जाना चाहिए. फंगस से संक्रमित होने के शुरुआती लक्षण सामने आते ही इसकी सूचना चिकित्सक को दी जानी चाहिए क्योंकि किसी भी तरह की देरी रोगी के लिए खतरनाक हो सकती है.


जानकारों के अनुसार, पहले ऐसे अधिकतर मामले उन लोगों में देखे जाते थे, जो कोरोना संक्रमण से मुक्त हो चुके होते थे, किंतु अब यह संक्रमितों में भी पाया जाने लगा है. वैसे तो कोविड केंद्रों को साफ-सुथरा रखने की कोशिश होती है, लेकिन बड़े पैमाने पर संक्रमण फैलने तथा अस्पतालों में अफरातफरी मचने की वजह से समय-समय पर कूड़ा-कचरा हटाना और स्वच्छता बनाये रखना मुश्किल हो रहा है. इस समस्या पर तुरंत ध्यान दिया जाना चाहिए.


ब्लैक फंगस कितना संक्रामक है, उसके उपचार की क्या पद्धति है और इससे बचाव के लिए क्या उपाय होने चाहिए, ऐसे सवालों पर शोध को बढ़ावा देना भी जरूरी है. ऐसी जानकारियां सभी स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंचायी जानी चाहिए. सरकार द्वारा जारी सलाह पर अमल किया जाना चाहिए. आम तौर पर इसके लक्षण या चेतावनी संकेत कोरोना या मौसमी बुखार जैसे ही हैं, पर इनके बारे में चिकित्सक को स्पष्ट रूप से बताना चाहिए. साफ-सफाई पर अतिरिक्त ध्यान देना चाहिए और निर्देशों का पालन किया जाना चाहिए.

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पेटेंट पर पश्चिमी देशों का अनैतिक रवैया (प्रभात खबर)

By एमके भद्रकुमार 

 

वैक्सीन पेटेंट पर छूट के मसले को मैं आज की स्थिति में उपयोगिता की दृष्टि से देखता हूं. अगर संबंधित बौद्धिक संपदा अधिकार को हटाने का निर्णय हो भी जाता है, तो भारत के संदर्भ में तुरंत इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं होगी. हमारी स्थिति यह है कि हमें वैक्सीन चाहिए. यदि नये सिरे से वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया शुरू की जायेगी, तो इसमें कुछ साल नहीं, तो कई महीने का समय अवश्य लग सकता है. वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया ऐसी नहीं होती, जैसे कोई स्विच ऑन या ऑफ करना है.



मैं यह नहीं कह रहा हूं कि भारत के पास ऐसी क्षमता नहीं है, मेरे कहने का मतलब है कि यदि व्यावहारिक लिहाज से देखा जाये, तो इसमें समय लगेगा क्योंकि प्रक्रिया के अनेक चरण होते हैं. तो, यह सवाल है कि आखिर अभी इसकी उपयोगिता क्या है. यदि पेटेंट में छूट मिल भी जाती है, तो उसके लिए एक समय-सारणी का निर्धारण करना होगा.



विश्व व्यापार संगठन में 190 से अधिक देश हैं. यह देखना भी महत्वपूर्ण होगा कि पेटेंट छूट जैसे संवेदनशील मसले पर फैसला किस रूप में होता है. भारत ने बौद्धिक संपदा अधिकार में छूट देने का जो प्रस्ताव रखा है, उसे 120 देशों का समर्थन प्राप्त है, लेकिन विभिन्न आयामों के हिसाब से यह आंकड़ा 80 के आसपास है. प्रस्ताव के पक्ष में व्यापक समर्थन और सहमति जुटाने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ सकती है.


इसमें बहुत समय लगेगा. इतना ही नहीं, छूट के लिए पेटेंट नियमन के हर प्रावधान, प्रस्ताव और शब्द पर चर्चा होगी. इसका मतलब है कि बातचीत में ही कई महीने गुजर जायेंगे. इसके अंत में ही हम छूट की अपेक्षा कर सकते हैं. यह छूट कोई ऐसी चीज नहीं है कि इसका फैसला अकेले अमेरिका कर सकता है. अमेरिका ने भले ही छूट का समर्थन किया है, पर उसके भीतर ही इस पर सहमति नहीं है. अमेरिका में दवा उद्योग बहुत शक्तिशाली है और पेटेंट का मसला उनके लिए बेहद संवेदनशील है.


राजनीतिक रूप से भी वहां प्रतिरोध होगा. उदाहरण के लिए, अमेरिकी कांग्रेस में छूट के प्रस्ताव को रोकने के लिए कानून बनाने की चर्चा भी चल रही है. राष्ट्रपति जो बाइडेन ने छूट का जो समर्थन किया है, वह मेरी नजर में ऐसी कोशिश है कि वे खुद को इस छूट को रोकनेवाले व्यक्ति के रूप में नहीं दिखना चाहते. अनेक यूरोपीय देश भी इस प्रस्ताव के पक्ष में नहीं हैं.


जर्मनी भी इसे रोकने का प्रयास करेगा. बाइडेन की घोषणा के बाद चांसलर मर्केल ने स्पष्ट कह दिया है कि वे छूट के विरोध में हैं. सो, हमें समझना होगा कि यह पूरा मामला अभी कहीं जाता हुआ नहीं दिख रहा है. अगर छूट मिलती है, तो बहुत अच्छा है. हमें प्रार्थना करनी चाहिए कि ऐसा हो. पर पेटेंट छूट से हमें कोई तुरंत राहत नहीं मिलेगी.


अब हमारे सामने सवाल है कि अभी बेहतर रास्ता क्या है. एक रास्ता तो यह है कि हमें अपने दरवाजे-खिड़कियां खोलकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उपलब्ध अधिक से अधिक टीके हासिल करने का प्रयास करना चाहिए. यह सुझाव विपक्षी दलों ने अपने पत्र में भी दिया है. इसके बाद वैक्सीन का वितरण बड़े पैमाने पर और निशुल्क किया जाना चाहिए ताकि आबादी के अधिकांश हिस्से का टीकाकरण संभव हो सके.


मेरी राय में विपक्षी दलों ने समयबद्ध तरीके से महामारी से जूझने का जो सुझाव दिया है, वह बहुत व्यावहारिक है और उस पर अमल करने की आवश्यकता है. जहां तक पेटेंट का मामला है, तो हमें यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि यह एक बहुत संवेदनशील विषय है. उल्लेखनीय है कि अमेरिका और चीन के बीच जारी मौजूदा तनातनी का यही मुख्य कारण है.


अमेरिका लगातार आरोप लगाता रहता है कि चीन पेटेंट की चोरी करता है. हम इस मौजूदा संदर्भ में बौद्धिक संपदा अधिकारों को पूरी तरह हटाने की बात नहीं कर रहे हैं, हम केवल एक बार एक छूट चाहते हैं. लेकिन पेटेंट व्यवस्था में समझौते नहीं होते. इस बारे में कभी सोचा भी नहीं जाता कि ऐसा कभी होगा भी. इस संबंध में हमें बिल्कुल स्पष्ट रहना चाहिए.


पेटेंट में छूट की वर्तमान मांग कोई फायदा उठाने का मसला नहीं है, यह एक आपातस्थिति में राहत से जुड़ा सवाल है. इसलिए यह लेन-देन से तय होनेवाला मुद्दा नहीं है. हमारे पास वैक्सीन की कमी है और इस महामारी से बचने का एकमात्र रास्ता टीकाकरण है. आबादी के अधिक-से-अधिक हिस्से को वैक्सीन देकर ही कोरोना वायरस के संक्रमण की रोकथाम हो सकती है.


अमेरिका और अन्य कुछ देशों के अनुभव यह इंगित करते हैं कि जितनी अधिक संख्या में लोगों का टीकाकरण होगा, महामारी के प्रसार की गति धीमी होती जायेगी. इसलिए वैक्सीन पेटेंट में छूट की मांग कोई कारोबारी या अन्य तरह का लाभ उठाने के लिए नहीं है, बल्कि लोगों को महामारी से बचाने की कोशिश से प्रेरित है.


दुर्भाग्य से हम एक क्रूर दुनिया में रह रहे हैं. इसके रवैये में कोई बदलाव नहीं आया है. कोरोना महामारी जैसी वैश्विक आपदा की स्थिति में भी, जब लाखों लोगों की मौत हो रही है और करोड़ों लोग संक्रमण की पीड़ा से जूझ रहे हों, एक तरह की सोच पहले जैसी ही बनी हुई है. हम देख रहे हैं कि वैक्सीन का उत्पादन मुख्य रूप से अमेरिका और ब्रिटेन जैसे पश्चिमी देशों में हो रहा है. यहां तैयार टीकों को अन्य देशों में भेजने से रोका जा रहा है. ब्रिटेन कुछ समझौतों के तहत यूरोप में बन रहे टीकों को अपने यहां जमा कर रहा है.


ऐसा नहीं करने पर दंडात्मक प्रावधानों की व्यवस्था है. ऐसे कुछ देश न केवल अपनी जरूरत के हिसाब से टीका जमा कर रहे हैं, बल्कि उसका बड़े पैमाने पर भंडारण भी कर रहे हैं. वे इन टीकों के निर्यात से भी हिचकिचा रहे हैं क्योंकि किसी को नहीं पता है कि इस वायरस का रंग-ढंग भविष्य में क्या हो सकता है.


यदि महामारी आगे भयावह हो जाती है और उसकी रोकथाम के लिए नये टीकों का विकास जरूरी हो जाता है, तो उस स्थिति में कुछ पश्चिमी देश अपने यहां स्थापित क्षमता को किसी तरह प्रभावित नहीं करना चाहते हैं. वे वर्तमान के साथ भविष्य की तैयारियों में भी जुटे हुए हैं. अगर हम इस स्थिति में नैतिकता के पहलू को जोड़ना चाहते हैं, तो निश्चित रूप से इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन देशों का यह रवैया पूरी तरह से अनैतिक और अमानवीय है. वे केवल अपने बारे में सोच रहे हैं, पर यह जीवन का एक सच है.

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गांव से परदेस तक संकट (प्रभात खबर)

By आलोक मेहता 

 

दिल्ली-मुंबई ही नहीं, सुदूर गांवों तक महामारी के संकट से हाहाकार है. मेरे परिजनों व मित्रों के संदेश देश के दूर-दराज हिस्सों के साथ ब्रिटेन, जर्मनी, अमेरिका आदि से भी आ रहे हैं. विदेश में बैठे परिजन तो और अधिक विचलित हैं क्योंकि उन्हें केवल भयानक खबरें मिल रही हैं. हफ्तों से घर में बंद होने से पुरानी बातें भी याद आती हैं. बहुत छोटे से गांव में जन्म हुआ.



फिर शिक्षक पिता जिन गांवों में रहे, वहां अस्पताल, डॉक्टर तो दूर, सड़क तक नहीं थी. इसलिए छह-सात साल तक कोई टीका नहीं लगा. शिक्षक रहते हुए भी रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिसनर का प्रशिक्षण लेकर पिताजी छोटी मोटी बीमारी की दवाइयां देते थे. बारह वर्ष की आयु में उज्जैन आना हो पाया. साठ साल में वे गांव तो बदल गये हैं, लेकिन अब भी देश के अनेक गांवों की हालत कमोबेश वैसी है. इसलिए मुझे लगता है कि इस संकट काल में उन सैकड़ों गांवों में बचाव के लिए अलग अभियान चलाना जरूरी है.



क्षमा करेंगे, इस बार मुझे कुछ निजी बातों की चर्चा कर समस्याओं पर लिखना पड़ रहा है. सरकारों की कमियों, तथा नेताओं के आरोप-प्रत्यारोपों से सभी दुखी होते हैं. कोरोना के परीक्षण और टीकों को लेकर भी घमासान छिड़ गया है. भारत जैसे विशाल देश में डेढ़ सौ करोड़ लोगों को क्या तीन महीने में टीके लगाये जा सकते हैं?


प्रतिपक्ष के प्रमुख नेता राहुल गांधी सरकार की व्यवस्था की कमियों पर आवाज उठायें, इस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती है, लेकिन वे यह भी कहते हैं कि भारत और भारतीयों से अब दुनियाभर में वायरस और फैल जायेगा. ऐसी भयावह निराशाजनक बात तो पाकिस्तान, वायरस का उत्पादक चीन या अमेरिका, यूरोप अथवा विश्व स्वस्थ्य संगठन भी नहीं कर रहा है.


उनकी चिट्ठी और भारत में केवल बर्बादी दिखानेवाले पश्चिमी मीडिया की रिपोर्ट देखकर लंदन से बेटी, कुछ अन्य मित्रों और अमेरिका से रिश्तेदारों के चिंतित फोन आये. उनका सवाल था कि वैसे भी दो साल से भारत नहीं आ पाये और न ही आप आ सके, सरकारें महामारी वाला देश बताकर कड़े प्रतिबंध वर्षों तक लगा देंगी, तो क्या हम कभी मिल सकेंगे? मैंने उन्हें और अपने मन को समझाया- नहीं, ऐसा कभी नहीं होगा. यह तो पूरी दुनिया का संकट है. हम सब मिलकर जल्दी काबू पा लेंगे. अभी तो भारत ही नहीं, विदेशों में भी भारतीय मूल के डॉक्टर लाखों की जान बचा रहे हैं.


राहुल गांधी अकेले नहीं हैं, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तो हर दिन स्वयं ऑक्सीजन खत्म होने का इतना प्रचार किया कि हर आदमी को सांस फूलने की आशंका होने लगी. केंद्र से उनकी लड़ाई अपनी जगह है, लेकिन मुंबई के मित्रों व अधिकारियों से सलाह ले लेते, तो क्या समय रहते इंतजाम नहीं हो सकते थे? मतभेद व विरोध तो राजस्थान, केरल, तमिलनाडु के मुख्यमंत्रियों का भी है, लेकिन क्या उन्होंने देश-विदेश में ऐसा प्रचार कराया?


पश्चिम बंगाल के परिणामों के बाद प्रतिपक्ष को अपना पलड़ा भारी दिख रहा है, लेकिन क्या केंद्र में परिवर्तन के लिए इस महामारी के बीच वे मध्यावधि चुनाव करा सकते हैं? जनता नाराज और दुखी है और रहेगी, तो स्वयं वोट से सत्ता बदलेगी.


प्रधानमंत्री, गृहमंत्री या भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की तरह क्या कांग्रेस या अन्य दलों के मुख्यमंत्री चुनावी प्रचार के लिए बंगाल, असम, केरल नहीं जाते रहे? गलती सबको स्वीकारननी होगी. यदि पूर्वानुमान था, तो गैर भाजपा पार्टियां चुनाव में हिस्सा न लेने का फैसला कर लेतीं, तो भाजपा या उसके सहयोगी अकेले चुनाव लड़कर जीत का प्रमाणपत्र लेकर आ जाते? चुनाव आयोग क्या एकतरफा चुनाव करा देता.


अब भी प्राथमिकता केवल महामारी से मिलकर निपटना क्यों नहीं हो सकती है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से निरंतर बात कर रहे हैं. यदि वे अन्य देशों के शासनाध्यक्षों से बात कर सकते हैं, तो क्या विपक्षी नेताओं से बात करने से इनकार कर देंगे? अदालतों ने भी केंद्र और अन्य सरकारों पर बहुत तीखी टिप्पणियां की है. लोकतंत्र में यही तो सत्ता संतुलन है.


इस संकट में चिकित्साकर्मियों ने जान की परवाह न कर निरंतर सेवा की है. उनकी सराहना के साथ सरकारों अथवा इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने यह सुनिश्चित क्यों नहीं किया कि दूसरों को मौत से बचानेवाले डॉक्टरों व नर्सों को कोरोना से पीड़ित होने पर उसी अस्पताल में अनिवार्य रूप से इलाज मिले. नामी और महंगे अस्पतालों ने अपने डॉक्टरों को ही बिस्तर नहीं दिया. सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा कोई नयी बात नहीं है. इसके लिए नये-पुराने सभी सत्ताधारी जिम्मेदार हैं.


लेकिन पांच सितारा अस्पतालों के प्रबंधन समय रहते क्या ऑक्सीजन प्लांट नहीं लगा सकते थे या उन्हें एक-एक रुपये में जमीन देनेवाली राज्य सरकारें और पानी-बिजली देनेवाले निगम आदेश नहीं दे सकते हैं? ऐसे अस्पताल एक दिन की आमदनी से ऑक्सीजन प्लांट लगा सकते हैं. सेना के जवानों और लाखों लोगों ने दान दिया है, तो ये बड़े अस्पताल क्या केवल महामारी से अरबों रुपयों की कमाई के लिए ही चलते रहेंगे? मैं किसी को दोष नहीं दे रहा, लेकिन संकट में मिलकर चलने और लोगों को मानसिक पीड़ा न देने का अनुरोध ही कर रहा हूं.

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Wednesday, May 5, 2021

इस तबाही की जिम्मेदारी तय हो (प्रभात खबर)

By प्रभु चावला 


राजनीति और नौकरशाही में सत्ता के शीर्ष पर बैठे अधिकतर वीआइपी लोगों को समझ में आ गया है कि कोरोना ने घर पर दस्तक दे दी है. कई मंत्रियों और उनके परिजनों की मौत हुई है. राष्ट्रीय भाग्य के शीर्ष निर्णायक दैवीय निर्णायक के सामने पस्त हो गये हैं. तमाम कोशिशों के बावजूद वीआइपी लोग आइसीयू बिस्तर न मिल पाने के असाधारण अनुभव से गुजर रहे हैं.


वैज्ञानिकों, डॉक्टरों और महामारी विशेषज्ञों की चेतावनी के बावजूद, उनकी आत्मतुष्टि के चलते मौतें हो रही हैं. मौत ने राजनीतिक ओजोन परत में कंकालीय अंगुली से छेद करते हुए यह भयावह संदेश दिया है- मेरे स्पर्श से कोई भी सुरक्षित नहीं है. कोरोना वायरस के मौत के तांडव ने सत्ता के खोखलेपन को उजागर कर दिया है. यह महामारी राजा या रंक- किसी को भी नहीं बख्शती. कोविड-19 एक बड़ी समतामूलक शक्ति सिद्ध हुई है.


दूसरी लहर ने सत्ता प्रतिष्ठान को अवाक कर दिया है, जिसने स्वयं को दंभ और लापरवाही से घेर कर सुरक्षित कर लिया था. देश में करीब चार लाख लोग रोज संक्रमित हो रहे हैं. एक दर्जन से अधिक मुख्यमंत्री, लगभग इतने ही केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल, उपराज्यपाल, और जनप्रतिनिधि वायरस की घातक चपेट में आये हैं. कई न्यायाधीश क्वारंटीन हुए या अस्पताल में भर्ती हुए. दो सौ से अधिक आइएएस, आइपीएस और अन्य आभिजात्य सेवाओं के अधिकारी गंभीर रूप से बीमार हुए.


बिहार के मुख्य सचिव की मृत्यु हुई. दूसरों की जान बचाने के लिए जूझते करीब एक हजार डॉक्टर और नर्स शहीद हो गये. साधु व ज्योतिषियों ने अपने सगे-संबंधियों को खोया. शायद ही कोई प्रसिद्ध और प्रभावशाली परिवार ऐसा होगा, जिस पर वायरस ने हमला न किया हो. सही है कि भारत अकेला देश नहीं हैं, जहां बड़ी संख्या में मौतें हुई हों या लोग संक्रमित हुए हों, लेकिन यह अकेला राष्ट्र है, जिसने अपनी शुरुआती सफलता को महामारी पर अंतिम विजय माना था. जब दूसरे देश भविष्य की तैयारी कर रहे थे और स्वास्थ्य व्यवस्था को बढ़ा रहे थे, भारत कोरोना निर्देशों का उल्लंघन करते हुए चुनाव और धार्मिक आयोजन करा कर उत्सव मनाने लगा.


राजनेता बिना मास्क लगाये और दूरी बरतते बड़ी संख्या में लोगों से मिल रहे थे. सरकारों ने आंकड़ों में हेराफेरी की, असंतोष का दमन किया और पीड़ितों पर आपराधिक मुकदमे दर्ज किये. कानून लागू करनेवाली एजेंसियां लापरवाह रहीं. संक्षेप में, यह एक महामारी की ‘पावड़ी’ हो रही थी, जिसमें बिना जाने-बूझे टीवी पंडित बतकही कर रहे थे और ऊपरी आदेशों का पालन कर रहे थे. फिर, वही हुआ, जो होना था. कर्म का फल सामने है.


जीवन बचाने में हुई इतनी बड़ी चूक की जिम्मेदारी लेने के लिए कोई तैयार नहीं है. जीवन बचाने की जगह छवि बचाने के लिए आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है. पहले चरण में स्थापित कोविड इंतजामों को हटाने की सलाह केंद्र और राज्यों को किसने दी? प्रधानमंत्री ने बिना किसी उचित सूचना के कठोर लॉकडाउन की घोषणा कर दी. इस दौर में अस्पतालों में हजारों बिस्तर जोड़े गये थे.


स्कूलों, होटलों और सरकारी इमारतों को उपचार केंद्रों में बदला गया था. पीपीई किट, वेंटिलेटर आदि सामानों के उत्पादन के लिए विशेष छूट दी गयी थीं. भले ही देश ऐसी बड़ी आपदा के लिए तैयार नहीं था, पर भारतीयों ने, थोड़े समय के लिए सही, एकजुट होकर इसका सामना किया था. उस समय स्थापित सुविधाओं को कायम क्यों नहीं रखा गया और उनका विस्तार क्यों नहीं हुआ? चुनींदा और भरोसेमंद विशेषज्ञों और नौकरशाहों के समूह ने संसाधन, दवाइयों, बिस्तरों आदि की कमी को चिन्हित क्यों नहीं किया, जबकि इस संबंध में लगातार चेतावनियां आ रही थीं?


ये सभी सोये हुए थे. क्या इन्हें भविष्य की मुश्किलों का अनुमान नहीं था? उन्होंने क्यों नहीं बताया कि दिल्ली के लिए ऑक्सीजन हरियाणा से नहीं, ओडिशा से लाना पड़ेगा? लगभग 1.4 अरब आबादी के देश में केवल 550 मेडिकल कॉलेज हैं, जहां एक लाख से कम सीटें हैं. एक अध्ययन के अनुसार, देश के करीब 70 हजार सरकारी व निजी अस्पतालों में 19 लाख बिस्तर हैं, पर केवल 95 हजार आइसीयू बेड और 50 हजार वेंटिलेटर उपलब्ध हुए.


दिल्ली में केवल एक हजार वेंटिलेटर हैं, तो 20 करोड़ आबादी के उत्तर प्रदेश में सात हजार. ऑक्सीजन की कमी पूरा करने के प्रयास पहले क्यों नहीं हुए? इस कृत्रिम अभाव के लिए कौन जिम्मेदार है? सरकारों को उनके विशेषज्ञों ने वैक्सीन क्षमता बढ़ाने की सलाह क्यों नहीं दी? अगर उन्होंने ऐसी सलाह दी थी, तो उसे क्यों नहीं माना गया? भारत दुनिया की ऑक्सीजन फैक्टरी है. वैक्सीन के अरबपति उत्पादक धन और छवि के पीछे पड़े हुए थे और सिद्धांतों को दरकिनार कर मुनाफे के लिए ‘मैत्री’ को भुना रहे थे.


भारत अपने लोगों के लिए उचित मात्रा में वैक्सीन नहीं जुटा सका, जबकि सभी देशों ने पहले से ही अपनी मांग रख दी थी. लेकिन गलतियां करने के विशेषज्ञ देश की जरूरत को नहीं समझ सके. आत्मनिर्भरता तब विडंबना बन गयी, जब अन्य देशों को दस करोड़ खुराक देनेवाला भारत खुद ही दूसरों का मोहताज हो गया. लाखों जिंदगियां तबाह करनेवाली दूसरी लहर के बाद ही शासकों ने वैक्सीन की अतिरिक्त खुराक की मांग रखी.


क्यों नहीं भारत के प्रतिष्ठित और धनी उद्यमों ने पहले ही सरकारी प्रयासों में सहयोग दिया? नेताओं और अन्यों के लिए बुलेटप्रूफ वाहन बनानेवाली कंपनियों ने सरकारी अस्पतालों के लिए एंबुलेंस मुहैया क्यों नहीं कराया? अदार पूनावाला कोविशील्ड वैक्सीन के दाम घटाकर दयावान होने का तमगा क्यों चाहते हैं?


यदि विभिन्न क्षेत्रों के अगुवा अपनी जिम्मेदारी निभाते, तो आज का संकट टाला जा सकता था. शायद ही किसी बड़ी कंपनी ने अपने कर्मचारियों के लिए उदारता से चिकित्सा सहयोग दिया है. नौकरशाही कमजोर और अक्षम इंफ्रास्ट्रक्चर के ढहने का अनुमान नहीं लगा सकी. अब सभी को भुगतना पड़ रहा है. गरीब को बिस्तर नहीं मिल रहा है, तो पैसा व रसूख के बावजूद अमीर को भी भटकना पड़ रहा है.


दुर्भाग्य से, जवाबदेही अपनी प्रासंगिकता और भरोसा खो चुकी है. वर्तमान शासन संरचना में नेतृत्व संवेदनशील पदों पर अफसरों की नियुक्ति तीन आधारों पर करता है- वफादारी, वांछनीयता और योग्यता. ऐसा लगता है कि पहले आधार पर पास होने के बाद अधिकतर अहम सलाहकार ठीक से काम नहीं कर सके हैं और उन्होंने उन लोगों को धोखा दिया है, जिन्होंने उन्हें रक्षक के रूप में चुना था. कुछ लोग भले ही चुनाव जीत लें या दो लाख से अधिक मौतों के ‘सकारात्मक पक्ष’ का दिखावा करें, सच यह है कि मृत्यु घमंड का दंड है.

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Tuesday, May 4, 2021

सामूहिक प्रयास जरूरी (प्रभात खबर)

बीते एक साल से अधिक समय से जारी महामारी का कहर अपने सबसे भयावह दौर में है. पिछले सप्ताह जहां 26 लाख से अधिक लोग संक्रमित हुए, वहीं लगभग 24 हजार लोगों की मौत हो गयी. गंभीर रूप से बीमार लोगों की बहुत बड़ी संख्या को हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था संभाल नहीं पा रही है. इस स्थिति से निपटने के लिए ऑक्सीजन और जरूरी दवाओं का उत्पादन बढ़ाया जा रहा है तथा अस्थायी कोरोना अस्पताल बनाये जा रहे हैं.


अनेक देशों से मदद भी पहुंच रही है. लेकिन संकट इतना बड़ा है कि हमें अपनी कोशिशें भी तेज करनी होंगी. केंद्र और राज्य सरकारों तथा स्थानीय प्रशासन को हर संभव प्रयास करना चाहिए कि ऑक्सीजन या दवाओं की कमी या अस्पताल में बिस्तर न मिल पाने से एक भी व्यक्ति की मौत न हो. देश के अनेक उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी सरकारों को लगातार निर्देश जारी हो रहे हैं. इन निर्देशों का समुचित पालन सुनिश्चित किया जाना चाहिए.


देश के सामने यह एक अभूतपूर्व संकट है, इसलिए इसका सामना भी पूरी ताकत के साथ किया जाना चाहिए. एक तरफ बड़ी संख्या में संक्रमितों के उपचार की चुनौती है, तो दूसरी तरफ कोरोना वायरस का अध्ययन करने और आबादी के बड़े हिस्से को टीका देने का काम भी करना है. महामारी के पहले चरण में ही अर्थव्यवस्था तबाही के कगार पर पहुंच गयी थी, अब फिर एक बार ग्रहण के आसार हैं.

ऐसे में देश के पास उपलब्ध संसाधनों के अधिकाधिक उपयोग से कोरोना संक्रमण की रोकथाम करने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं है. हमने अपनी तैयारियों में पहले ही बहुत देर कर दी है और अब किसी भी तरह का लचर रवैया आत्मघाती होगा. ऐसे में पहली प्राथमिकता अस्पतालों में ऑक्सीजन, दवाओं और वेंटिलेटर की व्यवस्था है. बीते दिनों में अनेक जगहों से ऑक्सीजन की कमी से रोगियों के मरने की खबरें आती रही हैं.

खाली बिस्तर और वेंटिलेटर की तलाश में इस अस्पताल से उस अस्पताल दौड़ते-भागते मरीजों और उनके परिजनों की तस्वीरें दिल दहलानेवाली हैं. यह एक तथ्य है कि आबादी के बहुत बड़े हिस्से को टीके की पूरी खुराक दिये बिना महामारी पर निर्णायक जीत हासिल नहीं की जा सकती है. इसलिए टीकों का उत्पादन बढ़ाने के साथ यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि टीके सस्ते हों और सहूलियत से लगाये जा सकें. सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को वैक्सीन नीति की समीक्षा करने का निर्देश दिया है.

उम्मीद है कि इस संबंध में जल्दी ही कोई ठोस फैसला लिया जायेगा. केंद्र और राज्य सरकारों को जांच, संक्रमण और उपचार से संबंधित आंकड़ों के मामले में पारदर्शिता न बरतने की शिकायतों का गंभीरता से संज्ञान लेना चाहिए. ये आंकड़े केवल दस्तावेजीकरण के लिहाज से ही जरूरी नहीं हैं, बल्कि इन्हें ही आधार बनाकर भविष्य की ऐसी किसी चुनौती का सामना करने की सही तैयारी हो सकती है. आगामी कुछ दिन बेहद अहम हैं.

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