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-Rajeev Kumar (Editor-in-chief)

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Monday, August 9, 2021

भारत को विश्वास आधारित शासन प्रणाली की जरूरत (पत्रिका)

(लेखक नीति अनुसंधान एवं पैरवी संस्था 'कट्स' के महामंत्री हैं )

प्रधानमंत्री ने करगिल दिवस पर 'भारत जोड़ो अभियान' Connect India Campaign का आह्वान किया था। इस आह्वान के दो अर्थ समझ में आते हैं , पहला, सबके बीच विश्वास पैदा करना और दूसरा देश में सबके साथ मिलजुल कर काम करना। हम अपने देश में विश्वास आधारित शासन कैसे स्थापित कर सकते हैं? इस सवाल का उत्तर 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' नारे में दिखाई देता है। इस विचारधारा को हर स्तर पर मजबूत करने की जरूरत है। इस सन्दर्भ में हमें कुछ कदम उठाने की आवश्यकता है।

देश में सामाजिक सद््भाव और संतुलन स्थापित करना सबसे जरूरी है, ताकि प्रत्येक नागरिक शांति से अपना जीवनयापन कर सके। एक सक्रिय उपभोक्ता की तरह वह अर्थव्यवस्था में अपना योगदान दे सके। साथ ही डेटा और सांख्यिकीय प्रणाली को सटीक बनाना भी जरूरी है। चूंकि स्वास्थ्य, शिक्षा और कौशल विकास राज्य की सूची से जुड़े विषय हैं। इसलिए केंद्र सरकार राज्यों को उदारतापूर्वक संसाधन को उपलब्ध कराए। सरकार को जीएसटी परिषद को एक राज्य वित्त मंत्री परिषद में परिवर्तित करना होगा, जिसकी अध्यक्षता पुरानी वैट परिषद की तरह एक राज्य के वित्त मंत्री द्वारा की जाए। इस परिषद के क्षेत्राधिकार में जीएसटी से जुड़े व अन्य वित्तीय मामले होने चाहिए। वित्त आयोग को एक प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री की अध्यक्षता में एक स्थाई निकाय में बदलना होगा, जो बजटीय आवंटन, जवाबदेही आदि को आधिकारिक रूप से संभाले।

हमें प्रशासनिक सुधारों की आवश्यकता है। अभी के प्रशासनिक अधिकारी विकास की मानसिकता के साथ शासन करने में अक्षम हैं । इनमें से अधिकतर को जवाबदेही के विपरीत प्रशिक्षित किया जाता है, जिससे सिस्टम में जवाबदेही की कमी रहती है। रंगे हाथों भष्टाचार व दुर्भावना के मामलों को छोड़कर, गलती करने वालों को शायद ही दण्डित किया जाता है। भ्रष्ट अधिकारी प्रभावी जवाबदेही प्रणाली के अभाव में बहाल ही नहीं, पदोन्नत तक हो जाते हैं। जैसा कि हम 'सम्पूर्ण सरकार' के दृष्टिकोण पर जोर देते हंै। इस दृष्टिकोण को शासन प्रणाली में सम्मिलित करने के लिए पीएमओ और सीएमओ में एक नीति समन्वय इकाई की जरूरत है। इसकी अध्यक्षता एक विख्यात विशेषज्ञ द्वारा होनी चाहिए, ताकि नीति समन्वय में मदद मिल सके और निवेशकों की शिकायतों का समाधान हो सके। भ्रष्टाचार और गैर-समावेशी तरीके से तैयार किए गए कानून हमारे व्यवसाय करने व जीवनयापन में प्रमुख बाधाएं हैं। वास्तव में, 1991 के आर्थिक सुधारों ने हमारी अर्थव्यवस्था को लाइसेंस राज से तो मुक्त कर दिया, लेकिन इंस्पेक्टर राज से नहीं बचा पाए। हम जानते हैं कि संकट की स्थिति भारी परिवर्तन की राह पर ले जाती है।

1991 में आर्थिक सुधार गंभीर वित्तीय समस्याओं के कारण शुरू हुए थे। इन सुधारों ने ज्यादातर नागरिकों को लाभ पहुंचाया है, जिसमें तीस करोड़ से अधिक लोगों को गरीबी से बाहर निकालना शामिल है। अदालतों में बड़ी संख्या में मुकदमे लम्बित हैं। अदालतों का बोझ कम करने के लिए व्यापक न्यायिक सुधारों की आवश्यकता है। साथ ही सतत विकास को मापने के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से अधिक समावेशी संकेतकों को आधार बनाने पर ध्यान देना होगा।

सौजन्य - पत्रिका।
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Tuesday, May 25, 2021

वैक्सीन समानता के लिए हर विकल्प आजमाने का वक्त (पत्रिका)

जी.एस. संधू, (लेखक केंद्रीय वित्त सचिव रह चुके हैं)

भारत में कोरोना की दूसरी लहर के चलते तमाम सरकारें महामारी की भयावहता और इसके विकराल रूप से रूबरू हुई हैं। उन्होंने जान लिया कि इससे निपटने के लिए एकजुट होकर वैश्विक स्तर पर कदम उठाने का वक्त है। इस बीच भारत और अन्य विकासशील देशों को वैक्सीन की आपात आपूर्ति की जरूरत के चलते भारत व द. अफ्रीका की ओर से डब्ल्यूटीओ को भेजे गए उस प्रस्ताव पर अमरीका को रवैया बदलना पड़ा, जिसमें कोरोना संकट के मद्देनजर वैक्सीन व दवाओं के संदर्भ में बौद्धिक संपदा (आइपी) अधिकारों में अस्थायी ढील देने की मांग की गई थी। जर्मनी जैसे देशों की आपत्ति के बावजूद इस प्रस्ताव को मिल रहे समर्थन से इसके जल्द पारित होने की उम्मीद है।

वैक्सीन की उपलब्धता सुनिश्चित करने की दिशा में यह पहला कदम होगा, आगे तकनीक स्थानांतरण और 'ट्रेड सीक्रेट' साझा करने की भी जरूरत होगी। लेकिन यह समय है जब कुछ अन्य विकल्पों पर गौर किया जाना चाहिए। इनमें पहला है - वैक्सीन तैयार करने वाली कंपनी द्वारा वालंटरी (स्वैच्छिक) लाइसेंसिंग। जैसे ऐस्ट्राजेनेका ने सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के साथ कोविशील्ड नाम से एक अरब खुराकें तैयार करने का अनुबंध किया और भारत बायोटेक ने कोवैक्सीन उत्पादन में साझेदारी के लिए अन्य कंपनियों को आमंत्रित किया। इसके लिए तीन फार्मा सार्वजनिक उपक्रमों (पीएसयू) का चयन कर लिया गया है - हैफकिन बायोफार्मास्युटिकल (महाराष्ट्र), इंडियन इम्युनोलॉजिकल्स (हैदराबाद) और भारत इम्युनोलॉजिकल्स एंड बायोलॉजिकल्स (बुलंदशहर)। इसी तरह रूसी प्रत्यक्ष निवेश फंड (आरडीआइएफ) ने छह भारतीय कंपनियों के साथ स्पूतनिक वी वैक्सीन की 85 करोड़ खुराक तैयार करने का करार किया है, जिनकी विश्व भर में आपूर्ति की जाएगी। ऐसे और भी अनुबंधों की जरूरत है।

दूसरा विकल्प सरकार की ओर से अनिवार्य लाइसेंसिंग का हो सकता है। बौद्धिक संपदा अधिकार संबंधी अंतरराष्ट्रीय संधि (टीआरआइपी) के तहत सरकार को अधिकार है कि वह महामारी या स्वास्थ्य आपातकाल में वैक्सीन और अन्य दवाएं बनाने के लिए किसी भी घरेलू कंपनी को अनिवार्य लाइसेंस जारी कर सकती है। हाल ही सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में ऐसी जनहित याचिकाएं दायर की गई हैं जिनमें केंद्र सरकार को वैक्सीन, जीवनरक्षक दवाओं व वेंटिलेटर आदि के निर्माण के लिए अनिवार्य लाइसेंस जारी करने के निर्देश देने की मांग की गई। भारत ने एक ही बार इसका प्रयोग किया है जब नैटको फार्मा को बायर कंपनी की कैंसर रोधी दवा नेक्सावर का जनेरिक वर्जन बनाने के लिए अनिवार्य लाइसेंस दिया गया था। 2005 में बर्ड फ्लू महामारी की आशंका के चलते स्विस कंपनी रोशे की टैमीफ्लू (ओसेल्टामिविर) के लिए भी अनिवार्य लाइसेंस जारी करने पर विचार किया गया था, लेकिन रोशे, भारतीय कंपनियों को सब-लाइसेंस देने पर सहमत हो गई थी।

तीसरा विकल्प टीकों के पुनर्वितरण का है। 18 अरब अमरीकी डॉलर की फंडिंग के ऑपरेशन वार्प स्पीड के जरिए अमरीका ने फाइजर, मॉडर्ना और ऐस्ट्राजेनेका के साथ कोविड-19 वैक्सीन की जबर्दस्त क्षमता विकसित कर ली है। निर्यात पर प्रतिबंध लगा विकसित देश आबादी की जरूरत से दो-तीन गुना वैक्सीन जमा कर रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र समाचार के अनुसार, इसी के चलते अप्रेल 2021 तक 83% वैक्सीन उच्च से मध्यम आय वाले देशों को मिली हैं, जबकि निम्न आय वाले देशों को महज 0.3 प्रतिशत। अप्रेल 2020 में लाई गई कोवैक्स स्कीम भी विकसित देशों के उदासीन रवैये के चलते सार्थक नहीं हो पाई है। यह वक्त महामारियों से निपटने के लिए वैश्विक प्रयासों से एक ऐसा सांचा तैयार करने का है, जो भविष्य में भी उपयोगी साबित हो सकता है।

सौजन्य - पत्रिका।
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भारत को साबित करनी होगी अपनी नेतृत्व क्षमता (पत्रिका)

रामपाल जाट, (राष्ट्रीय अध्यक्ष, किसान महापंचायत)

विश्व में एक संस्कृति की उपज च्यवन ऋषि हैं, दूसरी संस्कृति की उपज बिल गेट्स जैसे धनाढ्य हैं । भारत में उपजी, पनपी, फली-फूली ऋषि-कृषि की संस्कृति से उपजे च्यवन ऋषि ने बुढ़ापे को जवानी में परिवर्तित करने के लिए 'च्यवनप्राश' नामक औषधि का निर्माण किया। इसके उपरांत बिना किसी प्रकार का शुल्क लिए विश्व को समर्पित कर दिया। दूसरी संस्कृति की उपज विश्व के धनाढ्यों ने कोविड-19 के संक्रमण को रोकने के लिए जीवन रक्षक औषधि एवं कोरोना रोधी टीकाकरण को पेटेंट कानून से मुक्त करने के विरोध में झंडा थामा हुआ है। 'बौद्धिक संपदा' ईश्वर प्रदत्त होते हुए भी उसका उपयोग स्वयं के धनोपार्जन के लिए करने की इच्छा ही नहीं रखते, बल्कि वे उसके प्रति गंभीर दुराग्रह भी पाले हुए हैं। अभी कोविड-19 विश्व महामारी के रूप में विभिन्न देशों में कहर ढा रहा है। तालाबंदी जैसे कदमों के कारण सामान्यतया विश्व के सभी कोविड प्रभावित देशों की आर्थिक गतिविधियां भी प्रभावित हो रही हैं।

भारत की ऋषि-कृषि संस्कृति में बुद्धि निजी संपदा मानकर उससे धनार्जन की वृत्ति को अस्वीकार किया गया है। इसी कारण भारत में 'बौद्धिक संपदा अधिकार' से संबंधित पेटेंट के लिए कानून अंग्रेजी शासन में 1852 के पूर्व अस्तित्व में नहीं थे। जब भारत में बौद्धिक संपदा के अधिकार से संबंधित पेटेंट के कानून की धारणा को स्वीकार किया गया, तब भी विश्व के अन्य देशों में बने कानूनों से भारत का कानून श्रेष्ठतर है। जीवन रक्षक औषधियों को मुक्त रखने के साथ ही जिनके लिए कानून बनाया गया, उसकी अवधि विश्व के अन्य देशों की तुलना में कम रखी गई, यथा - विश्व के अधिकतर देशों में इस कानून संरक्षण की अवधि 30 वर्ष थी, तब भी भारत में यह अवधि 20 वर्ष की रखी गई थी। वर्ष 1991 के डंकल प्रस्ताव के गर्भ से उपजे विश्व व्यापार संगठन के वर्ष 1995 में विश्वव्यापी समझौते में इसी बौद्धिक संपदा अधिकार के संरक्षण को धनोपार्जन के उपकरण के रूप में काम में लिया गया।

भारत में वर्ष 1852 से पेटेंट कानून बनने का सिलसिला चला और इस अवधि में जो कानून अभी हैं, उनमें भी भारतीय पेटेंट अधिनियम 1970 संशोधित वर्ष 2003 तक में प्राकृतिक नियमों के प्रत्यक्षत: प्रतिकूल, नैतिकता के विरुद्ध, मानव-पशु-पौधों के जीवन या स्वास्थ्य या पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले औषधीय/ उपचार की प्रक्रिया/ रोग मुक्त करने के लिए या उनके उत्पादों के आर्थिक मूल्य को बढ़ाने के लिए उपचार के लिए सभी प्रकार की प्रक्रिया इस कानून की परिधि से बाहर रखी गई है। 1970 के कानून में वर्ष 1999 में संशोधन लाने के लिए गठित संयुक्त संसदीय समिति ने भी औषधीय, फार्मास्यूटिकल एवं एग्रो केमिकल्स को इन कानूनों की परिधि से बाहर रखने के लिए अनुशंसा दी, वह भी भूतलक्षी प्रभाव से। ये कानून ऋषि-कृषि संस्कृति की छाया से दूर नहीं किए गए।

विश्व व्यापार संगठन के सदस्यों की संख्या 165 है, जिनमें से 100 देश मानवता को बचाने के लिए कोरोना रोधी वैक्सीन एवं अन्य औषधियों को पेटेंट कानून से मुक्त करने की मांग कर चुके हैं। आगामी 8-9 जून को विश्व व्यापार संगठन द्वारा गठित ट्रिप काउंसिल की बैठक है। यह अवसर है कि भारत इस प्रकार के प्रस्ताव को पारित कराने के लिए जी-जान से जुटकर विश्व में अपनी नेतृत्व क्षमता को सिद्ध करे। इस दिशा में अक्टूबर 2020 में भारत तथा दक्षिण अफ्रीका विश्व व्यापार संगठन में संयुक्त प्रस्ताव रख चुके हैं। इसमें विकसित देशों का विरोध बाधा बना हुआ है। खास बात यह है कि इस ट्रिप काउंसिल में इस प्रकार का प्रस्ताव पारित करने के लिए सर्वसम्मति की बाध्यता नहीं है। विश्व व्यापार संगठन के प्रावधानों के अनुसार दो तिहाई बहुमत की ही आवश्यकता है।

सौजन्य - पत्रिका।
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सेहत : कोरोना से बचाव और राहत में होम्योपैथी की उपयोगिता (पत्रिका)

कोरोना वायरस संक्रमण से बचाव और इससे राहत में होम्योपैथिक दवाओं की उपयोगिता और इसके सकारात्मक परिणामों को आम लोगों तक पहुंचाना इस समय की एक बड़ी जरूरत है। मार्च 2020 से ही जब देश कोरोना वायरस संक्रमण की चपेट में था, देश और दुनिया में होम्योपैथिक दवाओं के प्रयोग, उसके लाभ और गुणवत्ता पर शोध और उपचार शुरू कर दिए गए थे। भारत सरकार के आयुष मंत्रालय ने भी एडवाइजरी जारी कर होम्योपैथिक दवाओं के उपयोग का सुझाव दिया था। मुम्बई के जाने-माने विश्वस्तरीय होम्योपैथिक चिकित्सक डॉ. राजन शंकरन, मैं स्वयं और लगभग 12 देशों के जाने-माने शोधकर्ताओं ने गहन अध्ययन के बाद होम्योपैथी की दवा 'कैम्फोरा 1000' को कोविड-19 के दोनों वेरिएंट में रोग प्रतिरोधी एवं इम्यूनिटी बूस्टर दवा के रूप में प्रभावशाली पाया। दिल्ली में मैंने स्वयं लगभग 65,000 आम लोगों को होम्योपैथी की यह दवा वितरित की थी और अध्ययन किया कि छह-आठ महीने में उन्हें कोविड-19 का संक्रमण नहीं हुआ। अपनी इस शोध रिपोर्ट को मैंने दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य विभाग को सौंप दिया है। मेरे साथ दिल्ली सरकार ने चार और चिकित्सकों को इस शोध सलाहकार समिति में रखा था।

कोरोना संक्रमण से बचाव के साथ-साथ इससे राहत में भी होम्योपैथिक दवाएं बेहद उपयोगी साबित हुई हैं। कोरोना संक्रमण के सामान्य लक्षणों में होम्योपैथी की दवा एकोनाइट, आर्सेनिक अल्ब, ब्रायोनिया, जेल्सेमियम, युपेटोरियम पफ, रस टक्स आदि ने बहुत ही अच्छी भूमिका निभाई। संक्रमण की दूसरी तेज लहर में जब ज्यादा लोग मौत के मुंह में जा रहे हैं, होम्योपैथी की दवा वेनेडियम, एल्पीडोस्र्पमा, कार्बो वेज, वेरेट्रम अल्बम, न्यूमोकोकिनम, ओसिलोकासिनम आदि ने कई लोगों की जान बचाने में अहम भूमिका निभाई है। मेरा अनुभव एकदम स्पष्ट है कि एक प्रशिक्षित, ज्ञानवान होम्योपैथ कोरोना वायरस संक्रमण की जटिलताओं से मरीजों को काफी हद राहत दिला सकता है।

कोरोना वायरस संक्रमण में होम्योपैथिक दवाओं के इस्तेमाल के दौरान ध्यान में रखें कि स्वयं उपचार के खतरे भी होते हैं। महज किताबी ज्ञान और वाट्सऐप से प्राप्त भ्रामक जानकारियों के बलबूते पर किया गया कोई भी उपचार खतरनाक और जानलेवा हो सकता है। यदि आप होम्योपैथिक दवाओं पर भरोसा रखते हैं, तो नजदीक के अपने जानकार व योग्य होम्योपैथ से परामर्श लेते रहें। हमारे विशेषज्ञ होम्योपैथिक चिकित्सकों के समूह ने उम्मीद व्यक्त की है कि कोविड-19 की गाइडलाइन का पालन करते हुए होम्योपैथिक दवाओं से कोरोना वायरस संक्रमण को काबू में करने में काफी मदद मिल सकती है।

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करनी होगी बच्चों को बचाने की तैयारी (पत्रिका)

कोरोना की दूसरी लहर अभी थमी नहीं है कि तीसरी लहर की दस्तक सुनाई देने लगी है। राजस्थान की राजधानी जयपुर में इस महीने सात हजार से अधिक बच्चों का कोरोना संक्रमित होना इसी दस्तक की आहट है। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से देश में अब तक तीन लाख से अधिक लोग कोरोना के कारण अपनी जान गंवा चुके हैं। मरने वालों की असली संख्या सरकारी आंकड़ों से कहीं अधिक होगी। कोरोना ने पूरी दुनिया में कहर मचाया हुआ है। अमरीका और यूरोपीय देशों में भी साधन कम पड़ते नजर आए है। निस्संदेह भारत में भी साधनों की कमी है, लेकिन राजनीतिक दल सकारात्मक सुझाव देने की बजाय खामियां निकालने में ही व्यस्त हैं। वैज्ञानिक लम्बे समय से तीसरी लहर में बच्चों के संक्रमित होने की आशंका जता रहे हैं, लेकिन इससे निपटने की तैयारियां बयानों से आगे बढ़ती नजर नहीं आ रहीं।

पत्रिका के जमीनी सर्वे में सामने आया कि जयपुर ही नहीं, समूचे प्रदेश में बच्चों के उपचार की सुविधा के नाम पर कुछ नहीं है। ऐसा बात नहीं है कि ये हालात अकेले राजस्थान में ही हों। पूरे देश के हाल लगभग ऐसे ही होंगे। यह हाल तो लगातार चेतावनियों के बाद है। कल्पना ही की जा सकती है कि तीसरी लहर आई तो हालत क्या होगी? दूसरी लहर ने राज्य सरकारों के दावों की जो पोल खोली, वह सबने देखी है। आइसीयू बेड तो दूर की बात, सामान्य बेड तक के लिए मंत्रियों की सिफारिशें भी काम नहीं आईं। सच्चाई तो यह है कि बेड होते, तो मरीजों को मिलते। राजस्थान की जमीनी हालत भयावह तस्वीर पैदा करने वाली है। कई जिलों में तो शिशु रोग अस्पताल भी नहीं हैं। जहां अस्पताल हैं वहां चिकित्सकों के आधे पद खाली पड़े हैं। तीसरी लहर की चेतावनी के बाद भी तैयारी वैसी नहीं हुई, जैसी होनी चाहिए। बाकी राज्यों से आ रही रिपोर्ट भी यहां से अलग नहीं है, जिससे चिंता होनी स्वाभाविक है।

उम्मीद की जानी चाहिए कि तीसरी लहर से अब सामना न होने पाए, लेकिन बचाव की तैयारियां भी साथ-साथ होनी चाहिए। डॉक्टर एक दिन में तैयार नहीं हो सकते, लेकिन वैकल्पिक व्यवस्था की रूपरेखा पर काम शुरू हो जाना चाहिए। पहली लहर में केंद्र सरकार की तरफ से सभी तथ्यों की जानकारी रोजाना मुहैया कराई जाती थी। राज्यों के साथ समन्वय भी बेहतर था। दूसरे दौर में समन्वय भी कमजोर पड़ा है और अफवाहें भी हावी हैं। कोरोना कितने भी रूप क्यों न बदल ले, लेकिन उसके आगे हाथ तो खड़े नहीं किए जा सकते। देश में फिलहाल कोरोना के मामले घट रहे हैं। इसके बावजूद यह समय बेफिक्री का नहीं, बल्कि तीसरी लहर से जूझने की कारगर रणनीति तैयार करने तथा अपनी कमियों को दूर करने का है।

सौजन्य - पत्रिका।
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विदेश यात्रा की राह में देशी टीके की बाधा (पत्रिका)

कोरोना काल में यह खबर राहत देने वाली है कि जिन देशों में मामले तेजी से घट रहे हैं, वहां अंतरराष्ट्रीय यात्राएं बहाल करने की तैयारियां शुरू हो गई हैं। यह करीब एक साल से अस्त-व्यस्त अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के पटरी पर लौटने का संकेत है। इस सुखद खबर का दुखद पहलू यह है कि कोवैक्सीन की दोनों खुराक ले चुके भारतीय फिलहाल अंतरराष्ट्रीय यात्रा नहीं कर पाएंगे। विभिन्न देशों के नए यात्रा नियमों के मुताबिक वही लोग अंतरराष्ट्रीय यात्रा कर सकते हैं, जो इन देशों की नियामक संस्था से मंजूर वैक्सीन या विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की आपात इस्तेमाल की लिस्ट (ईयूएल) में शामिल वैक्सीन की दोनों खुराक ले चुके हों। डब्ल्यूएचओ की ईयूएल में मॉडर्ना, फाइजर, एस्ट्राजेनेका, जॉनसन एंड जॉनसन, सिनोफार्म आदि के साथ सीरम इंस्टीट्यूट की कोविशील्ड भी है, लेकिन कोवैक्सीन को इसमें जगह नहीं मिली है।

अफसोस की बात है कि कोवैक्सीन की निर्माता कंपनी भारत बायोटेक को जो आवश्यक औपचारिकताएं काफी पहले पूरी कर लेनी चाहिए थीं, अब तक पूरी नहीं की गईं।

डब्ल्यूएचओ ने हाल ही ईयूएल का हवाला देकर अंतरराष्ट्रीय यात्रा के बारे में जानकारी साझा की, तो भारत बायोटेक के साथ-साथ भारत सरकार का ध्यान भी इस तरफ गया। भारत बायोटेक का कहना है कि डब्ल्यूएचओ की ईयूएल में शामिल होने के लिए वह काफी पहले आवेदन कर चुकी है। डब्ल्यूएचओ ने वैक्सीन के बारे में और जानकारी मांगी थी, इसलिए प्रक्रिया अटकी हुई है। बेशक वैक्सीन के उत्पादन को लेकर कंपनी पर अतिरिक्त दबाव है, लेकिन वह मांगी गई जानकारी समय पर देकर ईयूएल में अपनी वैक्सीन की जगह सुनिश्चित कर सकती थी।

बहरहाल, देर आयद-दुरुस्त आयद। भारत सरकार अब भारत बायोटेक के साथ मिलकर इस प्रक्रिया को तेज करने में जुट गई है। विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला सोमवार को भारत बायोटेक के अफसरों के साथ बैठक करने वाले हैं। भारत सरकार की चिंता यह है कि कोरोना के खिलाफ ज्यादा प्रभावी होने के बावजूद देशी कोवैक्सीन को अब तक डब्ल्यूएचओ की ईयूएल में जगह क्यों नहीं मिली। भारत सरकार की कोशिश है कि कोवैक्सीन का नाम जल्द ईयूएल में सुनिश्चित हो जाए, ताकि भारतीय नागरिकों को 'नॉन-वैक्सीनेटेड' बताकर अंतरराष्ट्रीय यात्रा से वंचित नहीं किया जाए। ईयूएल में शामिल होने के बाद दूसरे देशों में कोवैक्सीन के उत्पादन का रास्ता भी खुल सकता है। वैक्सीन पर डब्ल्यूएचओ की प्री-सबमिशन बैठक इसी महीने या जून में हो सकती है। इसमें कंपनी के डोजियर की समीक्षा के बाद वैक्सीन को ईयूएल में शामिल करने पर फैसला होगा। जाहिर है, भारत बायोटेक को काफी जांच-परखकर डोजियर तैयार करना होगा। इसमें किसी भी तरह की कमी-बेशी से कोवैक्सीन को कुछ और समय के लिए डब्ल्यूएचओ की ईयूएल से दूर रखने का मौका नहीं दिया जाना चाहिए।

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Tuesday, May 4, 2021

'ग्रीफ रिएक्शन' में बहुत मददगार है अपनों का सहयोग (पत्रिका)

डॉ. सत्यकांत त्रिवेदी, मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट

कोरोना की दूसरी लहर बहुत तेज है। संक्रमितों की संख्या में अचानक हुई वृद्धि से अपेक्षाकृत मृत्यु दर भी बढ़ी नजर आ रही है। इस बार नौजवान भी इससे प्रभावित हो रहे हैं और काल के गाल में समा रहे हैं। ऐसे सदमे को बर्दाश्त करना आसान नहीं होता। ऐसे में रुदन, खराब सपने आना, चिड़चिड़ाहट, क्षोभ का भाव आना स्वाभाविक है। चिकित्सा की भाषा में इसे 'ग्रीफ रिएक्शन' कहते हैं।

कुछ व्यक्तियों में यह प्रक्रिया जटिल रूप ले सकती है, जिसे मनोचिकित्सा में 'कॉम्प्लीकेटेड ग्रीफ रिएक्शन' कहते हैं। सामान्य 'ग्रीफ' एक समय के बाद कम होती जाती है और व्यक्ति सामान्य रूप से जिंदगी जीने लगता है, लेकिन 'कॉम्प्लीकेटेड ग्रीफ रिएक्शन' में व्यक्ति का सामान्य जीवन बुरी तरीके से प्रभावित होने लगता है और यह काफी लंबे समय तक बनी रहती है। इस अवस्था के लक्षण इस प्रकार हैं - वास्तविकता को स्वीकार न कर पाना, लगातार अपने उसी परिजन के बारे में बातें करना, उसकी चीजों को अलग तरीके से संजोना और तड़प लगातार बने रहना, दूसरों पर अविश्वास करना, अपने जीवन को व्यर्थ समझने लगना, अपनी मृत्यु के बारे में सोचना। जटिल मामलों में मृत परिजन की आवाजें सुनाई देने का भ्रम भी सामने आता है। रक्त संबंधी की मृत्यु, बचपन से नकारात्मक घटनाओं का अनुभव, अति संवेदनशील स्वभाव, पूर्व से ही मानसिक रोग की उपस्थिति में 'ग्रीफ रिएक्शन' के जटिल होने का खतरा बढ़ जाता है ।

ऐसे कठिन समय में परिवार के अन्य सदस्यों और मित्रों के रूप में आपका सहयोग बेहद कारगर सिद्ध हो सकता है । ऐसे व्यक्ति को परिवार के अन्य सदस्यों के साथ बैठने, उनके पसंदीदा कार्य करने एवं कसरत करने के लिए उत्साहित करें। घर में पालतू जानवर भी हमार मानसिक स्वास्थ्य में मददगार साबित होते हैं। फिर भी अगर लक्षण की तीव्रता बढ़े, तो विशेषज्ञ से सलाह जरूर लेनी चाहिए।

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राष्ट्रीय मुद्दों पर स्थानीय को तरजीह बयां कर रहे ये नतीजे (पत्रिका)

संजय कुमार, प्रोफेसर, सीएसडीएस और लोकनीति के सहनिदेशक

दिल्ली, हरियाणा, झारखंड, छत्तीसगढ़ व राजस्थान के पिछले विधानसभा चुनावों के नतीजों ने यही संकेत दिए थे कि मतदाता लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनावों में अलग-अलग मानस के साथ मतदान करता है। हाल के पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों से इस तथ्य को और बल मिलता है, क्योंकि ये नतीजे 2019 के लोकसभा चुनावों के नतीजों से बिल्कुल अलग हैं। कई तथ्य हैं, जिनकी व्याख्या से इन राज्यों के चुनाव परिणामों को समझा जा सकता है।

पहला, सुशासन के अच्छे नतीजे हासिल होते हैं, जिनसे पार्टियां दोबारा सत्ता में वापसी कर पाती हैं। तीन जगह जनता ने पिछली सरकार को ही दोबारा चुना जबकि दो जगह नहीं। स्पष्ट है कि विधानसभा चुनाव राज्य के स्थानीय मुद्दों पर लड़ा जाता है। यह संदेश भी मिलता है कि विधानसभा चुनावों में राज्य स्तरीय नेतृत्व, राष्ट्रीय नेतृत्व की अपेक्षा कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, भले ही राष्ट्रीय नेतृत्व कितना भी सुदृढ़ क्यों न हो। चुनाव नतीजों ने एक बात और साफ कर दी है कि भले ही भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर अन्य पार्टियों से अग्रणी हो, लेकिन अजेय नहीं है। जाहिर है, भाजपा के लिए बड़ी चुनौती क्षेत्रीय दल हैं न कि कांग्रेस। राष्ट्रीय स्तर पर यदि भाजपा का मुकाबला करना है तो इन क्षेत्रीय दलों को एक साथ आना होगा लेकिन सवाल यह है - क्या वे आ सकेंगे?

भाजपा के आक्रामक चुनाव प्रचार के बावजूद पश्चिम बंगाल मेे टीएमसी ने बड़ी जीत हासिल की, तमिलनाडु में द्रमुक व उसके सहयोगी दल भी आसानी से जीत गए। केरल में मेट्रोमैन ई. श्रीधरन को बतौर मुख्यमंत्री उम्मीदवार (अघोषित) चुनाव मैदान में उतारने के बावजूद भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। प.बंगाल में तो कांग्रेस खाता तक नहीं खोल पाई, असम में भी नहीं जीत पाई, और तो और केरल में भी कांग्रेस का गठबंधन यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) हार गया। यूडीएफ की जीत के आसार थे, क्योंकि चार दशक से जनता ने दोबारा किसी पार्टी या गठबंधन को नहीं चुना था।

राज्यों के चुनाव परिणामों से स्पष्ट है कि विधानसभा चुनाव में मतदाता राज्य हित को महत्व देता है जबकि लोकसभा चुनाव में देश के परिप्रेक्ष्य में मतदान करता है। इसलिए एक चुनाव परिणाम को कभी भी अगले चुनाव परिणाम का ***** नहीं माना जा सकता। 2019 में 42 में से 18 सीटें जीतने वाली भाजपा को बंगाल जीतने की उम्मीद थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हालांकि पार्टी पश्चिम बंगाल विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल बनकर उभरी है। दूसरी ओर, केरल में माना जा रहा था कि 2019 के लोकसभा चुनावों में 20 में से 19 सीटें जीतने वाले गठबंधन यूडीएफ की जीत पक्की है, पर ऐसा नहीं हुआ।

सुशासन और राज्य में मजबूत नेतृत्व को तरजीह मिलती ही है। सीएसडीएस द्वारा करवाए गए सर्वे के अनुसार, केरल में जनता पी. विजयन सरकार के कार्यों से खुश थी तो असम व पश्चिम बंगाल में वहां की सरकार के कार्यों से। विजयन और ममता सुदृढ़ नेतृत्व के चलते ही राष्ट्रीय नेतृत्व वाली बड़ी पार्टी को टक्कर दे सके। जाहिर है राज्य स्तरीय नेतृत्व का अधिक महत्व है। हालांकि भाजपा असम में सत्ता में बने रहने में कामयाब रही, पर उसका प्रदर्शन 2016 से बेहतर नहीं रहा, कारण यह कि मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल उतने प्रभावशाली नेता नहीं हैं। तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक हार गई क्योंकि न तो राज्य सरकार का कार्य सराहनीय था और न ही नेतृत्व इतना सुदृढ़ था कि मतदाताओं को आकर्षित कर सके।

इन चुनाव परिणामों के बाद अब कयास लगाए जाने लगे हैं कि ममता बनर्जी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर टक्कर दे सकती हैं। फिलहाल ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी। ममता बनर्जी अपने गृह राज्य में लोकप्रिय हैं, उनकी जीत इसका प्रमाण है लेकिन अन्य नेताओं पर भी यह बात सटीक बैठती है, जैसे ओडिशा में नवीन पटनायक, दिल्ली में अरविंद केजरीवाल, तेलंगाना में चंद्रशेखर राव, ऐसे और भी कई नेता हैं। चूंकि इनमें से कोई भी क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय स्तरीय नहीं है, नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर उभर कर आना किसी भी नेता के लिए आसान नहीं है। मोदी लोकप्रिय राष्ट्रीय पार्टी भाजपा के नेता होने के साथ स्वयं अत्यधिक लोकप्रिय हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या ये सभी नेता एकजुट हो एक संयुक्त मोर्चा बनाकर कोई सर्वमान्य नेता चुन पाएंगे जो मोदी का मुकाबला कर सके। फिलहाल यह इन नेताओं के लिए दूर की कौड़ी है।

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राष्ट्रीय दलों को स्वीकारनी होगी क्षत्रपों की अहमियत (पत्रिका)

के.एस. तोमर

पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु के विधानसभा चुनाव नतीजों से एक प्रबल और स्पष्ट तथ्य उभरा है कि ममता बनर्जी, पी. विजयन, एमके स्टालिन जैसे ताकतवर क्षत्रपों का प्रभुत्व और वर्चस्व विधानसभा चुनावों में जीत का दमखम रखता है। ऐसे में, दो बड़े राष्ट्रीय दलों, भाजपा और कांग्रेस के आलाकमान को जनाधार के लिए राज्यस्तरीय नेताओं को आगे लाना चाहिए, साथ ही सफलता सुनिश्चित करने के लिए बिना आधार वाले एवं अनुभवहीन नेताओं को दिल्ली से थोपने की मौजूदा परम्परा से बचना चाहिए। राजनीतिक विश्लेषकों का विचार है कि पांचों विधानसभा के चुनाव परिणाम अगले वर्ष होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों के लिए पूर्ववर्ती आकलन के रूप में हो सकते हैं। इसके अलावा यह भी कि पीएम नरेन्द्र मोदी जैसे लोकप्रिय नेता भी विधानसभा चुनावों में जीत की गारंटी नहीं हो सकते, और यह भी कि आम चुनाव में परिदृश्य अलग हो सकता है और वह फिर निर्विवाद नेता बनकर उभर सकते हैं यदि विपक्ष विकल्प देने में विफल साबित होता है।

यहां यह भी स्मरणीय है कि पूर्व में आरएसएस ने चुनावी सफलता के लिए मोदी, शाह आदि पर निर्भरता के बारे में भाजपा को आगाह भी किया था, जब तीन राज्यों-राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में पार्टी की हार हुई थी और कांग्रेस विजयी रही थी। आरएसएस दूसरी पार्टी से आए नेताओं और उनके समर्थकों पर भरोसा करने का भी दृढ़ता से विरोध करता रहा है। संघ मानता रहा है कि ऐसे नेताओं की कोई विचारधारा नहीं होती और जब भी उन्हें बेहतर स्थिति अथवा प्रतिद्वंद्वियों से प्रलोभन मिलेगा, वे पाला बदल सकते हैं। आरएसएस ने पश्चिम बंगाल में अपना आधार तैयार करने में चालीस वर्ष लगाए, पर तृणमूल कांग्रेस के ३४ विधायकों के पार्टी छोड़कर आने से वास्तविक और मूल काडर के नेताओं और कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट गया और उन्होंने शायद आधे-अधूरे मन से काम किया। विश्लेषक यह महसूस करते हैं कि क्षेत्रीय नेता जैसे - नवीन पटनायक, अरविंद केजरीवाल, उद्धव ठाकरे, नीतीश कुमार, लालूप्रसाद यादव, प्रकाश सिंह बादल, मुलायम सिंह यादव, मायावती आदि (इनमें से कुछ की जगह युवाओं ने ले ली है) अपने-अपने क्षेत्रों में अब भी लोकप्रिय हैं और भाजपा हो चाहे कांग्रेस, अपने राष्ट्रीय नेताओं की लोकप्रियता के ग्राफ से उन्हें उनकी जगह से बेदखल नहीं कर सकतीं। जरूरत है उन जमीनी नेताओं को ग्रूम कर नेतृत्व सौंपने की, जिन्हें स्वाभाविक तौर पर कार्यकर्ताओं द्वारा स्वीकारा जाता है।

भाजपा ने दलबदल कर आए 34 विधायकों में से १३ को टिकट दिए। इनमें से केवल पांच ही चुनाव जीत सके। यह 'आयाराम गयाराम' के परिदृश्य पर मतदाताओं की प्रतिक्रिया नहीं तो और क्या है। भाजपा, प.बंगाल में पार्टी के स्थानीय चेहरे पर फैसला करने में विफल रही और इसकी कीमत पार्टी को उसी तरह चुकानी पड़ी, जैसे असम में लोकप्रिय नेता तरुण गोगोई के निधन के बाद मुख्यमंत्री पद के चेहरे के अभाव में कांग्रेस को चुकानी पड़ी थी।

विशेषज्ञों का कहना है कि क्षेत्रीय दलों का उदय देश के संघीय ढांचे को मजबूत कर सकता है और ऐसे नेताओं के बीच भरोसा उत्पन्न कर सकता है जो अपने-अपने राज्यों के लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरेंगे। कांग्रेस का अवलोकन करने से स्पष्ट है कि वहां लोकप्रिय और बड़े जनाधार वाले नेताओं को या अपमानित किया गया या उनकी जगह उन 'दोस्तोंÓ ने ले ली जिन्होंने 'यस मैन' तथा जी23 के नेताओं की तरह काम किया। हालांकि इनमें से अधिकांशत: अपने गृहराज्य में ही विधानसभा सीट जीतने का भी सामथ्र्य नहीं रखते।

भाजपा की आक्रामक कोशिश और दक्षिण में पैर जमाने की उम्मीद प्रतिरोधी रणनीति के कारण धराशायी तो हुई ही, साथ ही पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु में बड़े आधार वाले क्षेत्रीय नेता 'हिन्दुत्व की खुराक' को बेअसर करने में कामयाब भी रहे। भाजपा को असम में वापसी और पुड्डुचेरी में कांग्रेस को सत्ताच्युत करने से कुछ सांत्वना मिल सकती है। तमिलनाडु में कांग्रेस को गठबंधन के रूप में सफलता मिली है। उसे अगले वर्ष उत्तर प्रदेश, पंजाब आदि के विधानसभा चुनाव की तैयारी के लिए गंभीर आत्मनिरीक्षण की जरूरत है। टीएमसी के रणनीतिकार प्रशांत किशोर को लगता है कि हर किसी को प्रतिद्वंद्वी की ताकत और कमजोरियों का विश्लेषण करने की जरूरत होती है। उन्होंने यही किया। काउंटर रणनीति बनाई गई और वांछित परिणाम सामने हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक)

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क्यों नहीं रुक रही राजनीतिक हिंसा (पत्रिका)

चुनावी नतीजों के बाद भी पश्चिम बंगाल में उठी हिंसा की लपटों को लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता। चुनाव से पहले हिंसा का तांडव, चुनाव के दौरान मार-काट और अब नतीजों के बाद बदले की भावना में आगजनी और तोड़-फोड़। देश में प. बंगाल की पहचान कई मायने में अलग रही है। व्यापारिक और सांस्कृतिक गतिविधियों के केंद्र के रूप में इस राज्य ने अलग पहचान बनाई है। ऐसे राज्य में इस तरह हिंसा का तांडव समझ से परे है। चुनावी राजनीति के दौरान देश के अलग-अलग राज्यों में छिटपुट हिंसा की खबरें आती हंै, लेकिन प. बंगाल में राजनीतिक हिंसा की लगातार हो रही घटनाएं झकझोरने वाली हैं। प. बंगाल के साथ देश के चार अन्य राज्यों में भी चुनाव हुए। तीन राज्यों में तो एक ही दिन में मतदान सम्पन्न हो गया।

शांति के साथ प्रचार भी हुआ, मतदान भी और नतीजे भी। फिर प. बंगाल में ऐसा खून-खराबा क्यों? इसका जवाब किसी के पास नहीं। वामपंथी दलों की सरकार के दौर में भी प. बंगाल बदले की राजनीति का गवाह रहा है। राज्य में सत्ता बदलने के बावजूद राजनीतिक हिंसा में कमी नहीं आना तमाम राजनीतिक दलों को कठघरे में खड़ा करता है। कार्यकर्ताओं के बीच छिटपुट झड़पें होना अलग बात है, लेकिन प. बंगाल में जिस तरह प्रायोजित हिंसा का दौर चल रहा है, वह चिंताजनक है।

चुनाव आयोग के तमाम प्रयासों के बावजूद राज्य से लगातार शर्मसार करने वाली तस्वीरों का आना हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भी सवाल खड़े करता है। सवाल यह कि राजनीतिक हिंसा को रोकने की दिशा में सरकारें और राजनीतिक दल संवेदनशील क्यों नहीं हैं? ऐसे मुद्दे पर कभी कोई सर्वदलीय बैठक क्यों नहीं होती? हिंसा में शामिल अराजक तत्वों के खिलाफ सख्त कार्रवाई क्यों नहीं होती? राजनीतिक दल आपराधिक गतिविधियों में शामिल कार्यकर्ताओं को आखिर तवज्जो क्यों देते हैं? सब जानते हैं कि लोकतंत्र में हिंसा के दम पर मतदाताओं को अपने बस में नहीं किया जा सकता। बावजूद इसके हिंसा लगातार बढ़ रही है।

देश में अनेक ऐसे राज्य हैं, जहां चुनावी राजनीति सामान्य तरीके से चलती है। होना भी यही चाहिए। लोकतंत्र में सबको अपनी बात रखने का अधिकार है। आश्चर्य तब होता है, जब राजनीतिक दलों का शीर्ष नेतृत्व ऐसे मामलों में राजनीतिक बयानबाजी से ऊपर उठने का साहस नहीं दिखाता। दुनिया के विभिन्न देशों में चुनाव होते हैं, लेकिन एकाध को छोड़कर कहीं ऐसी हिंसा नहीं होती। जरूरत इस बात की है कि राजनीतिक दलों के साथ चुनाव आयोग भी इस मामले में गंभीर बने। बयानों तक सीमित नहीं रहे। हिंसा रोकने के लिए सख्त कानून बनाया जाए।

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Saturday, May 1, 2021

हर समस्या का सीधा-सरल हल थे सोली सोराबजी (पत्रिका)

संजय हेगड़े

सोली सोराबजी वह शख्सियत थे, जिनकी उत्कृष्टता अदालतों तक ही सीमित नहीं थी। मानवाधिकार, अंतरराष्ट्रीय संबंध और जैज संगीत पर भी उनकी मजबूत पकड़ थी। उनके मित्र और जानकारों का एक विशाल समूह था, जिन्हें सदा उनसे स्नेह मिलता रहा। वे जानते थे कि किस काम के लिए किससे बात करनी है और किसके निमित्त करनी है। उन्हें विधि व्यवसाय में प्रतिभा की अच्छी परख थी और जब वे भारत के एटॉर्नी जनरल थे, उन्होंने कई जूनियरों को अपने साथ जोड़ा। मुझे भी थर्ड जज, अरूंधति रॉय अवमानना और नवीं अनुसूची केस (आइ.आर. कोएल्हो) में उनके साथ काम करने का सौभाग्य मिला। उनकी सबसे बड़़ी खूबी यह थी कि वे अदालत में जो रिपोर्ट प्रस्तुत करते, उससे ऐसा लगता था मानो यह उस समस्या विशेष का सीधा, सरल और स्पष्ट समाधान था।

सोली का जन्म 1930 में एक संपन्न पारसी परिवार में हुआ। उन्होंने कानून को अपना कार्य क्षेत्र चुना और 1953 में सर जमशेदजी कांगा के चैम्बर में शामिल हुए। 1970 के बड़े कानूनी मामले सोली और फाली दोनों को सुप्रीम कोर्ट तक ले आए और दिल्ली में उनका नया व्यावसायिक सफर शुरू हुआ। केशवानंद भारती केस में सोली, नानी पालखीवाला के साथ थे, जिस मामले ने देश को 'मूल ढांचे' का सिद्धांत दिया। विभिन्न मामलों के अदालती फैसलों को लेकर लिखे गए सोली के आलेख मूल फैसलों से ज्यादा पढ़े गए। आपातकाल के दिनों में सोली मानवाधिकारों के कड़े पक्षधर बन कर सामने आए और नागरिक स्वतंत्रता संबंधी मामलों में 'प्रो-बोनो' (लोक-कल्याणार्थ) सेवाएं दीं। आपातकाल के विरोध में उन्होंने कई विधि सम्मेलन किए और बॉम्बे बार का नेतृत्व किया।

मोरारजी देसाई सरकार के दौरान सोली सॉलिसिटर जनरल बने। मेनका गांधी पासपोर्ट मामले में उनके कौशल का ही परिणाम था कि संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 को विस्तृत किया गया। 1989-90 में वी.पी. सिंह सरकार के समय वह भारत के एटॉर्नी जनरल बने। 1998-2004 के बीच बतौर अटॉर्नी जनरल अंतिम पारी के दौरान उन्हें सुप्रीम कोर्ट के कई मामलों को कुशलता से सुलझाते देखा गया। इसी दौरान उनके सॉलिसिटर जनरल हरीश साल्वे से मतभेद भी हुए, जो कभी उनके चैम्बर में जूनियर थे। राम जेठमलानी ने कानून मंत्री का पद छोडऩे के लिए सोली, न्यायाधीश ए.एस. आनंद और अरुण जेटली को जिम्मेदार ठहराया। उनके जीवन का ये वह हिस्सा था, जब उनकी ऊर्जा और उत्साह चरम पर थे।

मार्च 2002 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। एटॉर्नी जनरल पद से हटने के बाद भी सोली ने कई अहम संवैधानिक मामलों में पैरवी की। बी.पी. सिंघल केस में पेश की गई उनकी दलीलों के बाद सुप्रीम कोर्ट को आदेश देना पड़ा कि राज्यपालों को बिना किसी ठोस वजह के बर्खास्त नहीं किया जा सकता। सोली कई अंतरराष्ट्रीय पदों पर भी रहे, जैसे 1997 से संयुक्त राष्ट्र के विशेष रैपोर्टर्र और 1998 से संयुक्त राष्ट्र के पक्षपात निरोधक एवं अपसंख्यक संरक्षण उप आयोग के सदस्य। वर्ष 2000 से 2006 के बीच वह हेग की परमानेंट कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन के सदस्य भी रहे।

सोली ने अपने एक आलेख में कहा था-'हम सब भगवान के घर जाने के लिए डिपार्चर लाउंज में अपनी फ्लाइट का इंतजार कर रहे हैं।' शुक्रवार को उनकी फ्लाइट आ गई। अलविदा सोली, आप वहां सुरक्षित लैंड करें।
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)

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गुरु तेग बहादुर प्रकाश पर्व : देश और धर्म की रक्षा के लिए त्याग व संयम की राह दिखाई (पत्रिका)

दत्तात्रेय होसबाले, सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

भारतीय इतिहास में सिखों के नौवें गुरु श्री तेग बहादुर का व्यक्तित्व और कृतित्व एक उज्ज्वल नक्षत्र की तरह दैदीप्यमान है। उनका जन्म वैशाख कृष्ण पंचमी को पिता गुरु हरगोबिन्द तथा माता नानकी के घर में अमृतसर में हुआ था। आप के प्रकाश पर्व को नानकशाही कैलेन्डर के अनुसार 1 मई 2021 को 400 वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। जिस कालखंड में भारत के अधिकांश भू-भाग पर मध्य एशिया के मुगलों ने कब्जा कर रखा था, उस समय जिस परम्परा ने उन्हें चुनौती दी, श्री तेग बहादुर उसी परम्परा के प्रतिनिधि थे। उनका व्यक्तित्व तप, त्याग और साधना का प्रतीक है और उनका कृतित्व शारीरिक और मानसिक शौर्य का अद्भुत उदाहरण। उनकी वाणी एक प्रकार से व्यक्ति निर्माण का सबसे बड़ा प्रयोग है।

नकारात्मक वृत्तियों पर नियंत्रण कर लेने से सामान्य जन धर्म के रास्ते पर चल सकता है। निन्दा-स्तुति, लोभ-मोह, मान-अभिमान के चक्रव्यूह में जो फंसे रहते हैं, वे संकट काल में अविचलित नहीं रह सकते। जीवन में कभी सुख आता है और कभी दु:ख आता है, सामान्य आदमी का व्यवहार उसी के अनुरूप बदलता रहता है। लेकिन सिद्ध पुरुष इन स्थितियों से ऊपर हो जाते हैं। गुरु जी ने इसी साधना को 'उसतति निंदिआ नाहि जिहि कंचन लोह समानि' और 'सुखु दुखु जिह परसै नही लोभु मोहु अभिमानु' (श्लोक मोहला 9वां अंग 1426-आगे) फरमाया है।

गुरु जी ने अपने श्लोकों में फरमाया है - 'भै काहु कउ देत नहि नहि भै मानत आन।' लेकिन मृत्यु का भय तो सबसे बड़ा है। उसी भय से व्यक्ति मतान्तरित होता है, जीवन मूल्यों को त्यागता है और कायर बन जाता है। 'भै मरबे को बिसरत नाहिन तिह चिंता तनु जारा।' गुरु जी अपनी वाणी एवं कार्य से ऐसे समाज की रचना कर रहे थे जो सभी प्रकार की चिंताओं एवं भय से मुक्त होकर धर्म के मार्ग पर चल सके। गुरु जी का सम्पूर्ण जीवन धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के पुरुषार्थ चतुष्टय का सर्वोत्तम उदाहरण है। उन्होंने सफलतापूर्वक अपने परिवार और समाज में उत्कृष्ट मानवीय मूल्यों का संचार किया। धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने प्राणोत्सर्ग कर दिया। उनका दृष्टिकोण संकट काल में भी आशा एवं विश्वास का है। उन्होंने बताया, 'बलु होआ बंधन छुटे सभु किछु होत उपाइ।' गुरु तेग बहादुर के कृतित्व से सचमुच देश में बल का संचार हुआ, बंधन टूट गए और मुक्ति का रास्ता खुला। ब्रज भाषा में रचित उनकी वाणी भारतीय संस्कृति, दर्शन एवं आध्यात्मिकता का मणिकांचन संयोग है।

गुरु जी का निवास आनन्दपुर साहिब मुगलों के अन्याय व अत्याचार के खिलाफ जनसंघर्ष का केंद्र बनकर उभरने लगा। औरंगजेब हिन्दुस्तान को दारुल-इस्लाम बनाना चाहता था। इस क्रूर कृत्य को रोकने का एक ही मार्ग था - कोई महापुरुष देश और धर्म की रक्षा के लिए आत्म बलिदान दे। प्रश्न था - यह बलिदान कौन दे? इसका समाधान गुरु जी के सुपुत्र श्री गोविन्द राय जी ने कर दिया। उन्होंने अपने पिता से कहा, इस समय देश में आपसे बढ़कर महापुरुष कौन है?

औरंगजेब की सेना ने गुरु जी को तीन साथियों समेत कैद कर लिया। सभी को कैद कर दिल्ली लाया गया। वहां उन पर अमानुषिक अत्याचार किए गए। इस्लाम स्वीकार करने के लिए उन पर शिष्यों सहित तरह-तरह के दबाव बनाए गए। धर्म गुरु बनाने व सुख-संपदा के आश्वासन भी दिए गए। लेकिन वे धर्म के मार्ग पर अडिग रहे। दिल्ली के चांदनी चौक में गुरु तेग बहादुर की आंखों के सम्मुख भाई मति दास, भाई दियाला और भाई सती दास को यातनाएं देकर मार डाला गया। मुगल साम्राज्य को शायद लगता था कि अपने साथियों के साथ हुआ यह व्यवहार गुरु जी को भयभीत कर देगा। गुरु जी जानते थे कि अन्याय और अत्याचार से लडऩा ही धर्म है। वे अविचलित रहे। गुरु जी का सिर धड़ से अलग कर दिया गया। उनके इस आत्म बलिदान ने पूरे देश में एक नई चेतना पैदा कर दी। दसवें गुरु श्री गोविन्द सिंह ने अपने पिता के बलिदान पर कहा-

तिलक जंजू राखा प्रभ ताका।
कीनो बड़ो कलू महि साका।
साधनि हेति इति जिनि करी।
सीस दीआ पर सी न उचरी।

आज जब सारा देश गुरु जी के प्रकाश के चार सौ साल पूर्ण होने का पर्व मना रहा है तो उनके बताए रास्ते का अनुसरण ही उनकी वास्तविक पुण्य स्मृति होगी। आज सर्वत्र भोग और भौतिक सुखों की होड़ लगी हुई है। चारों तरफ ईष्र्या-द्वेष, स्वार्थों एवं भेदभाव का बोलबाला है।

गुरु जी ने समाज को त्याग, संयम, शौर्य और बलिदान की राह दिखाई। उन्होंने सृजन, समरसता और मन के विकारों पर विजय पाने की साधना की चर्चा की। उनका प्रभाव ही था कि वे दिल्ली जाते हुए जिस-जिस गांव से गुजरे, वहां के लोग आज भी तम्बाकू जैसे नशों की खेती नहीं करते हैं। कट्टरपंथी एवं मतांध शक्तियां आज पुन: विश्व में सिर उठा रही हैं। मानव जाति परिवर्तनशील नए पड़ाव में प्रवेश कर रही है। ऐसे समय में गुरु जी का पुण्य स्मरण यही है कि उनके मार्ग पर चल कर उस नए भारत का निर्माण करें जिसकी अपनी मिट्टी में उसकी जड़ें सिमटी हों।

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Friday, April 30, 2021

समाज : डिग लाल चना, मोती माल चना.. (पत्रिका)

अनिल पालीवाल

पहली दृष्टि में उपरोक्त शीर्षक बच्चों की स्कूल की कविता की पंक्ति लगती है। यह सच भी है कि यह बच्चों की तुकबंदी ही है। उसके भी आगे इससे जुड़ा किस्सा आज अधिक प्रासंगिक है। चलिए आपको तफसील से बताते हैं। गर्मियां आते ही हमें बचपन की गर्मियों की छुट्टियों की स्वत: ही याद आ जाती है। हर साल दो महीने की ये छुट्टियां मेरे लिए भी एक लंबे इंतजार के बाद आने वाला एक सुखद समय होता था। मेरा गांव मारवाड़ में फलौदी के निकट है। यहां हम उम्र बच्चों के साथ मन पसंद विचरण, खेल-कूद का अवसर मिल जाता था। सबसे ज्यादा उत्साह गांव के देशी खेल खेलने का रहता था। देशी खेलों की पूरी सूची थी। जैसे कबड्डी, गुलाम-लकड़ी लुकनाडाई (छुपन-छुपाई), माल दड़ी आदि-आदि। आज के इस कोविड वाले दौर में मुझे वे खेल खास तौर पर याद आ रहे हैं, जिससे श्वसन तंत्र और फेफड़े मजबूत होते हैं।

बचपन के खेल और आदतों की किसी भी बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। कई खेल फेफड़ों का अभ्यास बढ़ाते हैं, श्वसन पर नियंत्रण रखना सिखाते हैं। ये खेल श्वसन तंत्र व फेफड़ों को मजबूत रखते हैं। ऐसे देशी खेल, गांवों के खेल, पूरे भारत वर्ष में प्रचलित रहे हैं। चाहे वह मरुस्थलीय राजस्थान हो या नदी-पोखर से परिपूर्ण बंगाल। हां, भौगोलिक परिवेश व खेल की जगह उपलब्धता के आधार पर इनका रूप बदल गया। कहीं यह कबड्डी है, कहीं हू-तू-तू, कहीं बूढ़ी बसंती' नाम का खेल है। पानी में सांस रोक कर खेलने के खेल बंगाल, नगालैण्ड आदि में ज्यादा प्रचलित हंै। यों कहें कि बच्चे स्वयं अपने खेल बना लेते हैं। साथ ही पुराना दौर ऐसा भी था, जहां गांव का कोई-कोई नौजवान बच्चों को खेलने के लिए प्रोत्साहित करता था और मार्गदर्शन भी देता था। इसी शृंखला में मुझे 'डिग माल चना, मोती माल चना' की तुकबंदी याद आ जाती है। यह भी सांस रोककर दौडऩे का एक खेल था। एक रेतीले मैदान में जहां कंकड़-कांटे कम हों, रेत पर ही निशान लगा कर गोलाकार मैदान बना लिया जाता था। फिर बच्चों में प्रतियोगिता रहती थी कि एक सांस में सांस रोककर कौन ज्यादा चक्कर लगा लेता है। दौडऩे वाला 'जोर-जोर से डिग माल चना, मोती माल चना' की तुकबंदी बोलता, ताकि सभी का ध्यान रहे कि कहीं उसने बीच में सांस तो नहीं ले ली। इस तरह का खेल निस्संदेह फेफड़ों और श्वसन तंत्र को मजबूत करता है। आज जब कोरोना का दौर चरम पर है, श्वसन तंत्र पर वायरस का हमला हो रहा है। ऐसे में मुझे ऐसे खेल याद आ गए। अब गांव-शहरों में वापस वही दौर लाने की जरूरत है, जिससे बच्चे खेल-कूद कर मजबूत बनें, शहरी क्षेत्र में पार्क-मैदान बनाने हैं। गांवों में खेल-कूद की परंपरा जारी रखनी है। मोबाइल स्क्रीन से दूर होकर बच्चों को धूप में खेलकर विटामिन-डी लेना चाहिए। विटामिन-डी कोविड में उपचार सूची का एक हिस्सा है। इस तरह के खेल-कूद में हिस्सा लेने से श्वसन तंत्र मजबूत होता है।

(लेखक भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी हैं)

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नवाचार : विंगकॉप्टर 198 से एक उड़ान में तीन डिलीवरी (पत्रिका)

डैल्विन ब्राउन, इनोवेशंस रिपोर्टर, फाइनेंशियल सेक्शन

ड्रोन डिलीवरी को वास्तविकता के करीब लाने में जर्मन ड्रोन निर्माता और सेवाप्रदाता विंगकॉप्टर ने कदम बढ़ाए हैं। कंपनी ने मंगलवार को ऐसा डिलीवरी ड्रोन विंगकॉप्टर 198 लांच किया है जो एक ही उड़ान में तीन अलग-अलग डिलीवरी कर सकता है। करीब 4.5 फुट की लंबाई वाले इस विंगकॉप्टर 198 का विंगस्पैन 5.8 फुट का है। इसे टिल्ट-रोटर सिस्टम के जरिए बनाया गया है, जिससे यह हेलिकॉप्टर की तरह लम्बवत उतर सकता है। यह हवाईजहाज की तरह फिक्स्ड-विंग पोजीशन की तरह उड़ान भरता है, जरूरत पडऩे पर हवा में एक ही जगह चक्कर काट सकता है।

ड्रोन में फ्लाइट कंट्रोलर के साथ बातचीत करने के लिए वायरलैस नेटवर्क का उपयोग किया गया है। किसी अवरोध से बचने के लिए इसमें ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस सिस्टम और सेंसर फिट हैं। डिलीवरी ड्रोन में नीचे की ओर कैमरे लगे हैं, ताकि नीचे उतरने के लिए सुरक्षित स्थान तलाशा जा सके और पार्सल या बंडल को कुछ ही सेकंड में जमीन पर गिराया जा सके। इतना ही नहीं, विंगकॉप्टर ने ऐसा सॉफ्टवेयर भी विकसित किया है, जिसके जरिए एक फ्लाइट कंट्रोलर दस ड्रोन तक की निगरानी कर सकता है। विंगकॉप्टर 198 एक बार चार्ज हो जाने के बाद 47 मील से अधिक दूरी तय कर सकता है और 13 पाउंड तक का भार ले जाने में सक्षम है। इसके रूप में बदलाव कर तीन छोटे बंडल, मध्यम आकार के दो बॉक्स या एक बड़ा बॉक्स ले जाया जा सकता है। हल्के वजन के साथ यह 68 मील तक जा सकता है और इसकी अधिकतम गति प्रति घंटा 93 मील है। विंगकॉप्टर के सीईओ टॉम प्लमर कहते हैं कि उनके स्टार्टअप ने अपनी पहली सौ यूनिट्स के लिए रजिस्ट्रेशन शुरू कर दिया है। विंगकॉप्टर को अभी फेडरल एविएशन एडमिनिस्ट्रेशन से मंजूरी नहीं मिली है।

द वॉशिंगटन पोस्ट

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गोवा मुक्ति संग्राम : पुर्तगालियों से इस तरह से मुक्त हुआ था गोवा (पत्रिका)

कुर्बान अली, वरिष्ठ पत्रकार

गोवा मुक्ति संग्राम का अंतिम चरण आज से लगभग 75 वर्ष पूर्व समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने 18 जून 1946 को शुरू किया था। इसके लगभग पंद्रह वर्ष बाद 18-19 दिसंबर 1961 को भारत सरकार नेसैन्य ऑपरेशन 'विजय' के जरिए गोवा को आजाद कराया था। इस तरह यह वर्ष गोवा मुक्ति संग्राम के शुरुआत की 75वीं सालगिरह और गोवा मुक्ति की 60वीं वर्षगांठ का साल है। गोवा को पुर्तगालियों की ग़ुलामी से निजात दिलाने के लिए 1946 से लेकर 1961 के बीच अनगिनत हिन्दुस्तानियों ने कुर्बानियां दीं। बहुत सारे लोग बरसों पुर्तगाली जेलों में रहे और उनकी यातनाएं सहन कीं। उनमें से एक वीर सपूत का नाम मधु रामचंद्र लिमये हैं, जिनका १ मई को 99वां जन्मदिन है। दिवंगत मधु लिमये आधुनिक भारत के उन विशिष्टतम व्यक्तित्वों में से एक थे, जिन्होंने पहले राष्ट्रीय आंदोलन और स्वतंत्रता आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। बाद में पुर्तगालियों से गोवा को मुक्त कराकर भारत में शामिल कराने में अहम भूमिका अदा की। गोवा आज भारत का हिस्सा है, तो इसमें डॉ. राम मनोहर लोहिया और उनके शिष्य मधु लिमये का भी प्रमुख योगदान है।

मधु लिमये का जन्म 1 मई 1922 को महाराष्ट्र के पूना में हुआ था। कम उम्र में ही उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली थी। अपनी स्कूली शिक्षा के बाद, मधु लिमये ने 1937 में पूना के फग्र्युसन कॉलेज में उच्च शिक्षा के लिए दाखिला लिया और तभी से उन्होंने छात्र आंदोलनों में भाग लेना शुरू कर दिया। इसके बाद वह राष्ट्रीय आंदोलन और समाजवादी विचारधारा के प्रति आकर्षित हुए। 1950 के दशक में गोवा मुक्ति आंदोलन में भाग लिया, जिसे उनके नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया ने 1946 में शुरू किया था। उपनिवेशवाद के कट्टर आलोचक मधु लिमये ने जुलाई 1955 में एक बड़े सत्याग्रह का नेतृत्व किया और गोवा में प्रवेश किया। पुर्तगाली पुलिस ने सत्याग्रहियों पर हमला किया। पुलिस ने मधु लिमये की भी बेरहमी से पिटाई की। उन्हें पांच महीने तक पुलिस हिरासत में रखा गया था। दिसंबर 1955 में पुर्तगाली सैन्य न्यायाधिकरण ने उन्हें कठोर कारावास की सजा सुनाई, लेकिन मधु लिमये ने न तो कोई बचाव पेश किया और न ही अपील की। जब वे गोवा की जेल में थे तो उन्होंने लिखा था कि 'मैंने महसूस किया है कि गांधीजी ने मेरे जीवन को कितनी गहराई से बदल दिया है। उन्होंने मेरे व्यक्तित्व और इच्छा शक्ति को कितनी गहराई से आकार दिया है।'

पुर्तगाली हिरासत से छूटने के बाद भी मधु लिमये ने गोवा की मुक्तिके लिए जनता को एकजुट करना जारी रखा, विभिन्न वर्गों से समर्थन मांगा तथा भारत सरकार से इस दिशा में ठोस कदम उठाने के लिए आग्रह किया। जन सत्याग्रह के बाद भारत सरकार गोवा में सैन्य कार्रवाई करने के लिए मजबूर हुई। इस तरह गोवा पुर्तगाली शासन से मुक्त हुआ। दिसंबर 1961 में गोवा आजाद हो भारत का अभिन्न अंग बना।

गोवा मुक्ति आंदोलन के दौरान मधु लिमये ने पुर्तगाली कैद में 19 माह से अधिक का समय बिताया। इस कैद के दौरान उन्होंने एक जेल डायरी लिखी, जिसे उनकी पत्नी श्रीमती चंपा लिमये ने एक पुस्तक 'गोवा लिबरेशन मूवमेंट एंड मधु लिमये' के रूप में 1996 में प्रकाशित किया। मधु लिमये एक प्रतिष्ठित स्वतंत्रता सेनानी के साथ-साथ प्रतिबद्ध समाजवादी के रूप में भी हमेशा याद किए जाएंगे। उन्होंने निस्वार्थ और बलिदान की भावना के साथ देश की सेवा की। संक्षिप्त बीमारी के बाद 72 वर्ष की आयु में 8 जनवरी 1995 को मधु लिमये का नई दिल्ली में निधन हो गया। उनके निधन से देश ने एक सच्चे देशभक्त, राष्ट्रवादी, प्रसिद्ध विचारक, समाजवादी नेता और एक प्रतिष्ठित जनप्रतिनिधि को खो दिया।

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Tuesday, April 27, 2021

कोविड की दूसरी लहर : अमरीका का अनुभव बन सकता है मददगार (पत्रिका)

आशीष के. झा

दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत अब कोरोना का एपिसेंटर (केंद्रबिन्दु) बनने के साथ ही बड़ा संकट झेल रहा है। अस्पताल कोविड मरीजों से पूरी तरह भरे हुए हैं। राजधानी दिल्ली के अस्पतालों में भी ऑक्सीजन की भारी कमी है। आधिकारिक रूप से, हर दिन लगभग दो हजार लोगों की मौत हो रही है। ज्यादातर विशेषज्ञों का अनुमान है कि वास्तविक रूप से मृतकों की संख्या पांच से दस गुना ज्यादा हो सकती है। निकट भविष्य में यदि ऐसे ही हालात रहे, तो दक्षिण एशिया और विश्वपर इसका ज्यादा असर पड़ेगा। दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र अमरीका, इस महामारी से बचाव में वैश्विक सहयोगी बना है। यहां तीन चीजें महत्त्वपूर्ण हैं, जो अमरीका कर सकता है और उसे करनी भी चाहिए। पहला, सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा मामले में अमरीका भारत का सहयोग करे।

मरीजों की बढ़ती संख्या को देखते हुए टेस्टिंग के लिए भारत का बुनियादी ढांचा पर्याप्त नहीं है। कोविड काल में अमरीका ने अपनी परीक्षण क्षमता को अच्छी तरह से बढ़ाया है। अब उसके पास ज्यादा टेस्टिंग किट हैं, ऐसे में वह इन किट को आसानी से भारत भेज सकता है। अमरीका, भारत के साथ मिलकर रणनीति बना सकता है कि कैसे और कहां इन किट का इस्तेमाल करना है। कोरोना से संक्रमित लोगों की वायरस के तेज गति से फैलाव में बड़ी भूमिका होती है। टेस्टिंग के दौरान कोरोना के लक्षणों का पता लगने पर महामारी को नियंत्रित करना मुश्किल और चुनौतीपूर्ण हो जाता है। भारत के पास टेस्टिंग की सीमित क्षमता है। भारत प्रारम्भिक स्तर पर, उन लोगों का सैंपल टेस्ट कर रहा है, जो काफी पहले से वायरस को दूसरों में फैला चुके हैं। ऐसे में महामारी को नियंत्रित करने में सैंपल टेस्ट कम ही असरकारी साबित हुआ है।

टेस्टिंग के अलावा, भारत के लिए अपने अगली पंक्ति के डॉक्टर और मेडिकल स्टाफ को उच्च गुणवत्ता वाले पीपीई (पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट्स) और आम आबादी को उच्च गुणवत्ता वाले मास्क उपलब्ध कराना लाभकारी होगा। अमरीका ने कोरोना के खिलाफ जंग में अपनी पूरी क्षमता का प्रदर्शन किया है। अपने अनुभवों से लाभ लेते हुए वह भारत को उच्च गुणवत्ता वाले मास्क भेजने के लिए अमरीकी निर्माताओं के साथ मिलकर काम कर सकता है।

दूसरी बात, कोविड-19 के मरीजों के इलाज में भारत की क्षमताओं को सहारा देना होगा। भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था ध्वस्त होने के कगार पर है। कई अस्पतालों में पहले से ही बेड एवं जीवनरक्षक प्रणालियां नहीं हैं और हालात के बेहतर होने से पहले ही ज्यादा बदतर होने की आशंका है। फील्ड अस्पताल तैयार करने, मरीजों की शिफ्टिंग आदि के लिए अमरीका को भारत के साथ मिलकर गंभीरता से काम करना चाहिए। बेड के अलावा भारत को तत्काल ऑक्सीजन की आपूर्ति किए जाने की भी जरूरत है। भारत सरकार ने हाल में पचास हजार मीट्रिक टन लिक्विड ऑक्सीजन खरीदने की घोषणा की है। आबादी और मरीजों की बढ़ती संख्या को देखते हुए यह पर्याप्त नहीं है। अमरीका के पास उत्पादन क्षमता है। वह ज्यादा ऑक्सीजन की आपूर्ति करने में भारत की मदद कर सकता है।

भारत जरूरी दवाओं की कमी से तो जूझ ही रहा है, साथ ही उन मरीजों के लिए भी दवाओं की कमी हैं, जो वेंटिलेटर पर हैं। कोविड इलाज में काम आने वाली रेमडेसिविर दवा की कम आपूर्ति है और कमी भी है। सौभाग्य से, कई गंभीर बीमारियों में काम आने वाली दवा डेक्सामेथासोन भारत में व्यापक रूप से उपलब्ध है, लेकिन भारत में नकली और घटिया दवाओं के जाल को देखते हुए, अमरीका उच्च गुणवत्ता वाली डेक्सामेथासोन की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करने में मदद कर सकता है। अमरीका के पास मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज का पर्याप्त भंडार है, जिसका इस्तेमाल किया जाना है। ये उपचार बीमारी की प्रारम्भिक अवस्था में काफी कारगर हैं। ऐसे में फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन को भारतीय ड्रग नियामकों के साथ मिलकर काम करना चाहिए कि कैसे भारत में उसका सबसे अच्छा उपयोग किया सके।

अंतिम रूप से, भारत की वैक्सीन आपूर्ति बढ़ानी होगी। बाइडन प्रशासन को भारत और अन्य देशों को वैक्सीन की आपूर्ति में कोई कोताही नहीं बरतनी चाहिए। भारत हर रोज बीस से तीस लाख टीकाकरण कर रहा है। वैसे तो यह अमरीका के लगभग बराबर है, पर भारत की चार गुना ज्यादा आबादी को देखते हुए अपर्याप्त है। भारत अभी तक अपनी आबादी का केवल दस फीसदी ही वैक्सीनेशन कर सका है। कुछ अनुमानों के अनुसार, एस्ट्राजेनेका वैक्सीन की कम से कम 30 मिलियन खुराक को अमरीका में अभी तक काम में नहीं लिया गया है। इसके पीछे कारण है- एफडीए ने इसका अभी तक अनुमोदन नहीं किया है। अमरीका में इसके घरेलू उपयोग की सम्भावना भी नहीं है। अब हमें इसे भारत को भेज देना चाहिए। हमें योजना बनानी चाहिए, ताकि फाइजर, मॉडर्ना और जॉनसन एंड जॉनसन विदेशों में अपनी वैक्सीन की ज्यादा आपूर्ति कर सकें।

भारत संकट में है। महामारी में भारत की मदद करने में अमरीका के रणनीतिक हित भी हैं। ऐसा करने का यह सही समय भी है। यह अमरीका ही है, जिसके पास भारत में फैली विनाशकारी दूसरी लहर को हराने की क्षमता, संसाधन और तकनीकी जानकारी है। जितनी तेजी से अमरीका सहयोग का हाथ बढ़ाएगा, ज्यादा से ज्यादा जिंदगियों को बचाने में कामयाबी मिलेगी। संकट के समय अमरीकी लोकतंत्र को आगे आना चाहिए, जिसकी अब दुनिया को जरूरत है। अमरीका के लिए यह बेहतर होगा और वह पृथ्वी को सुरक्षित स्थान बनाने में भी अपनी भूमिका निभाए।

(लेखक स्वास्थ्य नीति शोधकर्ता और ब्राउन यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के डीन हैं)

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जलवायु परिवर्तन : बाइडन के सकारात्मक नजरिए से बदला माहौल (पत्रिका)

एन.के. सोमानी,

पृथ्वी दिवस के मौके पर आयोजित जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन में दुनिया के शीर्ष नेताओं ने जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों पर गहनता से विचार-विर्मश किया। सम्मेलन में अमरीका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने साल 2030 तक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन 30 फीसदी तक घटाने की घोषणा की है। बाइडन ने दुनिया के अन्य नेताओं से भी आग्रह किया कि वे अपने-अपने देशों में गैसों के उत्सर्जन को रोकने का प्रयास करें, ताकि जलवायु परिर्वतन की त्रासदी से बचाया जा सके। अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन की पहल पर बुलाए गए शिखर सम्मेलन में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि देश के विकास की चुनौतियों के बावजूद हमने स्वच्छ ऊर्जा, प्रभाविता और जैव विविधता को लेकर कई साहसिक कदम उठाए हैं। भारत का कार्बन उत्सर्जन आज भी वैश्विक औसत से 60 फीसदी कम है। वर्चुअल प्लेटफार्म पर आयोजित शिखर बैठक में भारत के प्रधानमंत्री के अलावा रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन, जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा, ब्राजील के राष्ट्रपति जायर बोलसनारो, कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो, इजरायल के प्रधानमंत्री बैंजामिन नेतन्याहू, तथा सऊदी अरब के किंग शाह सलमान सहित दुनिया के 40 से अधिक देशों के शीर्ष नेता उपस्थित हुए।

शिखर बैठक में जो बाइडन ने 2030 तक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन 30 फीसदी तक घटाने का एलान कर यह साबित कर दिया है कि वे पेरिस समझौते में अमरीका की वापसी के लिए प्रतिबद्ध हैं। दरअसल, बाइडन ने अपने कार्यकाल के पहले दिन पेरिस समझौते में अमरीका की वापसी की घोषणा की थी।

पृथ्वी को जलवायु परिवर्तन के खतरे से बचाने और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को निश्चित सीमा तक बनाए रखने के उद्देश्य को लेकर सन् 1992 में रियो-डी-जेनेरियो में पृथ्वी सम्मेलन के अवसर पर पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में दी यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कंवेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज नामक एक अंतरराष्ट्रीय संधि की गई। इस संधि का उद्देश्य तेज गति से बढ़ रहे वैश्विक तापमान में कमी लाने के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना था। अक्टूबर 2016 तक 191 देश इस समझौते पर हस्ताक्षर कर चुके थे। अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सिंतबर 2016 में इस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। भारत ने भी इस पर हस्ताक्षर कर इसके प्रावधानों को स्वीकार किया था। गौरतलब है कि 4 नवंबर 2016 को पेरिस जलवायु समझौता औपचारिक रूप से अस्तित्व में आ गया था। साल 2017 में ट्रंप ने समझौते से हटने की घोषणा कर दी थी।

कोई संदेह नहीं कि अगर अमरीका फिर समझौते में शामिल हो जाता है, तो कार्बन-डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में कमी आएगी, क्योंकि दुनिया के कुल कार्बन उत्सर्जन में करीब 15 फीसदी हिस्सेदारी अकेले अमरीका की है। ऐसे में अगर अमरीका समझौते में वापस लौटता है, तो इससे जलवायु संकट कम करने में मदद मिलेगी।
(लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं)

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राजनीतिक फायदे का मंच न बने महामारी (पत्रिका)

संकट की इस घड़ी में भी हम एक देश की तरह व्यवहार करते नजर क्यों नहीं आ रहे? सवाल जितना कठिन है, जवाब तलाशना शायद उससे भी कठिन। जब देश में रोजाना 30-50 हजार कोरोना के केस सामने आ रहे थे, तो हर राज्य एक गाइडलाइन के तहत कोरोना से मुकाबला कर रहा था। कोरोना का पहला दौर कमजोर क्या पड़ा, तमाम बंदिशें एक बार में ही धाराशायी हो गईं। सबको पता था कि कोरोना की दूसरी-तीसरी लहर आ सकती है, लेकिन तैयारी कहीं नजर नहीं आई। क्रिकेट मैच भी होने लगे, चुनावी रैलियां भी और कुंभ स्नान भी। नतीजा सबके सामने है। पिछले साल सितंबर में कोरोना के एक लाख के लगभग मामले सामने आए, तो हाहाकार मच गया था। अब साढ़े तीन लाख मामले एक दिन में आ रहे हैं, लेकिन उतनी चिंता नहीं।

अब तो वैक्सीन पर भी राजनीति हो रही है और ऑक्सीजन की सप्लाई पर भी। 18 से 45 साल की आयु के लोगों को वैक्सीन कौन लगवाए, इसको लेकर भी राजनीति हुई। लॉकडाउन लगाना जरूरी है या नहीं, इसे लेकर भी बवाल मच गया। देश की अदालतों को भी इसमें दखल देना पड़ा। कोरोना ने देश के सभी राजनीतिक दलों की कथनी और करनी को एक बार फिर उजागर कर दिया। देश को कोरोना के खिलाफ अभी लंबी लड़ाई लडऩी है, लेकिन हालात क्या हैं? हर राज्य अपनी-अपनी डफली पर अपना-अपना राग अलाप रहा है। कहीं लॉकडाउन है, तो कहीं नाइट कफ्र्यू से काम चलाया जा रहा है। इस तरह के आचरण से क्या हम कोरोना को परास्त कर पाएंगे? शायद नहीं! राजनीतिक दल दूसरे देशों में भी हैं। राजनीति भी करते हैं, लेकिन हमारी तरह नहीं। कोरोना महामारी भी अगर राजनीतिक फायदे का मंच बनने लगे, तो इसके लिए दोषी सब हैं। महामारी अभी गई नहीं है। देश में अभी वैक्सीन की दस फीसदी डोज भी पूरी तरह से नहीं लगी हैं। वैक्सीन अभियान लंबा चलने वाला है। कोरोना की कितनी लहर अभी बाकी हैं, कोई नहीं जानता। ऐसे में सबका कत्र्तव्य बनता है कि वह राजनीति से ऊपर उठकर महामारी से मुकाबला करे।

देश के उद्योगपतियों, सामाजिक संगठनों और अन्य संस्थाओं को एक मंच पर लाकर रणनीति बननी चाहिए। दूसरे देशों से भी बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। केंद्र सरकार को भी पहले वाली भूमिका में आना चाहिए। राज्यों से नियमित संपर्क में रहकर आगे की रणनीति पर काम करना चाहिए। समय-समय पर सर्वदलीय बैठक भी बुलाए। संकट के इस दौर में विचारों का आदान-प्रदान बंद नहीं होना चाहिए। सरकारें और राजनेता आज जो भी कर रहे हैं, इतिहास में सब दर्ज होगा। भविष्य में इसका आकलन भी होगा कि किसने क्या किया और क्या नहीं।

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नालायक बेटे (पत्रिका)

- गुलाब कोठारी

सुना है हमारा देश ज्ञान में कभी जगद्गुरु था। वैदिक ज्ञान चरम पर था। संस्कृत, आयुर्वेद तथा ज्योतिष जैसे विषयों में पारंगत था। फिर आज अंग्रेजी का गुलाम क्यों हो गया? क्यों हमारा ज्ञान आज हमारे ही काम नहीं आ रहा? क्यों नए-नए चाणक्य और आर्यभट्ट पैदा नहीं हो रहे? विश्वविद्यालयों की तो भरमार है, गोल्ड मैडल भी खूब बंटते हैं, राष्ट्रीय स्तर के सम्मान झोलियों में भरे जा रहे हैं और कोई देश को कुछ दे नहीं जाता। माटी के प्रति अहसान भी चुकाने से गए।

संस्कृत के विद्वानों की लम्बी कतार है। केवल अध्यापन और कर्मकाण्ड। शास्त्रों को २१वीं सदी की पीढ़ी को पढ़ाने लायक नहीं बना पाए। संस्कृत, देववाणी के नाम पर रुढि़ बनकर रह गई। प्राचीन ज्ञान से आज पूरा देश अनभिज्ञ होता जा रहा है, हिन्दी तथा भारतीय भाषाओं में इसे उपलब्ध ही नहीं करा पाए। अंग्रेजी शैली का अध्यापन, परीक्षा क्रम, शोध छात्रों को शून्य में धकेलता जा रहा है। क्या इन्हीं छात्र/छात्राओं के बूते विश्व गुरु बनने के सपने देखते हैं? गूढ़ रहस्य तो शिक्षकों ने भी भुला दिए। यही हाल ज्योतिष और आयुर्वेदिक शास्त्रों का है। इन्होंने तो देश की नाक कटवा दी। ज्योतिष आत्मा (ज्योति) का शास्त्र है। आयुर्वेद आयु का। दोनों ही तत्त्व हमको सूर्य से प्राप्त होते हैं। पेट भरने के साधन बनकर रह गए।

सबसे ज्यादा धिक्कारने का विषय तो है आयुर्वेद। कहां भगवान् धन्वन्तरि को पूजते हैं, कहां देव-चिकित्सक अश्विनी कुमारों के गुणगान होते हैं और कोरोना जैसी भीषण महामारी में स्वयं का और परिवारों का इलाज भी अस्पतालों में (आयुर्वेदिक नहीं) करवा रहे हैं। देश का गौरव दफन कर दिया। केन्द्र में भी और राज्यों में भी आयुर्वेद के विभाग हैं, मंत्रालय हैं। देशभर में विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों की शृंखला है। देश पिछले एक वर्ष से कोरोना से युद्ध में फंसा है। किसी कोने से आवाज नहीं आई कि आयुर्वेद के पास कोरोना का पुख्ता इलाज है। पिछले एक साल में कोई शोध भी नहीं हुआ। कितने देशों ने टीकों की खोज कर डाली। हमारे वैद्य समुदाय के विद्वान अपने ललाट पर कलंक के टीके लगवा रहे हैं। होना तो यह चाहिए था कि भारत, विश्वपटल पर आयुर्वेद के अनेकों विकल्प रखता। शर्मसार है यह देश आज।

सारे देश में अस्पताल मरीजों से अटे पड़े हैं। श्मशान लाशों से भरने लगे हैं। सरकारी अस्पतालों में न दवा, न डॉक्टर, न पलंग, न टीका। सरकारें क्यों नहीं आयुर्वेद के काउण्टर खोलती। उनको भी बजट क्यों नहीं देती-सेवा करने का। धन्धा वे भी करके दे देंगे। उनका आत्म विश्वास जागेगा। आज सरकारी अफसरों का नजरिया भी उनके प्रति विश्वसनीय नहीं है। किसी बड़े अफसर को किसी भी वैद्य के घर जाना पड़े तो बिखरी जड़ी-बूटियों को देखकर बिना इलाज ही लौट जाए। शिक्षा ने जैसे क्लर्क पैदा कर दिए, वैसी ही गुलामी की मानसिकता हर क्षेत्र में भर दी। अंग्रेजी ही श्रेष्ठ है। स्वतंत्रता से पहले भी, आज भी।

आश्चर्य भी है कि खुद सरकार को अपने मंत्रालयों और विश्वविद्यालयों पर भरोसा नहीं। सरकार का वरदहस्त होने से डॉक्टर भी जमीन से ऊपर उठ गए। आयुर्वेद को शत्रु मानने लग गए। आज आप किसी डॉक्टर से आयुर्वेद की बात करके देख लें। किसी मंत्री को इलाज कराते देख सकें तो बताना। एक तरह के ग्लैमर, व्यापारिक दृष्टिकोण ने मेडिकल साइन्स के नाम पर क्या नहीं किया। लेकिन इसकी सारी जिम्मेदारी तो आयुर्वेद के चिकित्सकों और मंत्रालयों की ही है। वे देशवासियों के स्वास्थ्य की रक्षा स्वदेशी ज्ञान से नहीं कर सके। जो विभाग जनता पर भार बन जाए क्यों ना उसे बंद कर देना चाहिए।

सच पूछो तो कोरोना ने इनको भी सबक ही सिखाया है। इनके पैरों के नीचे जमीन ही नहीं है। ये सब रातों-रात धनवान बन जाना चाहते हैं। सारे नए वैद्य, एलोपैथी पढऩा चाहते हैं, दवाइयां घोटना नहीं चाहते, रोगी को तुरन्त ठीक करना चाहते हैं-डॉक्टर की तरह। भले ही घर पर दवाई उम्रभर देते रहें। शानदार अस्पताल-स्टाफ हों। देखो, हमारी शिक्षा देश को पराए ज्ञान की बैसाखियों पर चलते रहना सिखा रही है। प्रकृति से व्यक्ति का सम्बन्ध विच्छेद कर रही है। शिक्षा का ही यह दोष भी है आज आपातकाल में भी हमारा वैद्य विदेशी सहायता को आते देखकर सन्तुष्ट है। स्वतंत्र शरीर के रहते हुए भी हम मानसिक रूप से परतंत्र हैं। जब आत्मा सो जाए, तब प्रलय को स्वीकार कर लेना चाहिए।

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Saturday, April 24, 2021

विश्व पशु चिकित्सा दिवस : 'कोविड-19 महामारी में पशु चिकित्सक की भूमिका' इस वर्ष की थीम (पत्रिका)

प्रो. विष्णु शर्मा

मूक प्राणी की वेदना को समझ कर उसका निदान करना, ऐसी अनूठी विद्या है, जिसमें कौशल, संवेदना व विज्ञान का अद्भुत समावेश है। महात्मा गांधी ने सत्य ही कहा है कि 'किसी भी राष्ट्र की महानता का मूल्यांकन इस तथ्य से किया जा सकता है कि वहां पशुओं से कैसा व्यवहार किया जाता है।'

'कोविड-19 महामारी में पशु चिकित्सक की भूमिका' शीर्षक से 24 अप्रेल, 2021 को विश्व पशु चिकित्सा दिवस मनाया जा रहा है व पूरी दुनिया में पशु चिकित्सा का बदलते परिदृश्य में विश्लेषण किया जा रहा है जिससे भविष्य में मानव, पशु एवं वातावरण को एक समग्र ईकाई के रूप में देखते हुए नीतियों को तैयार किया जा सके व ऐसी आपदाओं की रोकथाम की जा सके।

संयुक्त राष्ट्र के मिलेनियम डवलपमेंट उद्देश्य व अब सस्टेनबल डवलपमेंट उद्देश्यों में ज्ञान और विज्ञान की उपयोगिता पर बल दिए जाने का ही परिणाम है कि आज विश्व के विभिन्न देशों में पशु चिकित्सा सेवाओं की गुणवत्ता व क्षमता जैसे दूरगामी चरणों व नीतियों का विकास किया जा रहा है।

हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्यक्ष ने कहा कि कोरोना वायरस अंतिम महामारी नहीं है। मानव स्वास्थ्य को सुदृढ़ करने के उपाय व्यर्थ हो जाएंगे यदि हमने पशु कल्याण व जलवायु परिवर्तन पर ध्यान नहीं दिया। वैश्विक संगठनों का 'वन हेल्थ इनिशिएटिव' इसी अवधारणा को बल प्रदान करता है कि मानव, पशु व वातावरण तीनों घटक मिलकर ही स्वास्थ्य की पूर्णता को परिभाषित करते हैं।

जैविक पशुपालन विकास का महत्त्वपूर्ण स्तंभ है कि पशुओं के उपचार की उन वैकल्पिक पद्धतियों का विकास किया जाए व उपयोग में लिया जाए जिससे पशुओं के दूध आदि अन्य उत्पादों में दवा, कृमिनाशी व अन्य हानिकारक कारकों का अंश कम से कम रहे या नहीं रहे। देश को निश्चित ही स्वच्छ खाद्य शृंखला में अग्रणी भूमिका निभानी होगी।

विश्व पशु स्वास्थ्य संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण संगठन साझा रूप से इस प्रकार की कार्य योजना तैयार कर रहे हैं जिससे विभिन्न सदस्य राष्ट्रों को संवेदित किया जा सके कि भविष्य की आपदा से मुकाबला विभिन्न घटकों के सामूहिक क्षमता विकास से ही संभव है और पशु स्वास्थ्य व चिकित्सा सेवाएं इसमें अहम भूमिका निभाएंगी। मानव स्वास्थ्य के लिए पशुधन स्वास्थ्य व खाद्य सुरक्षा जैसे विषय इस सदी में अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्ध होंगे।
लेखक राजस्थान पशु चिकित्सा और पशु विज्ञान विश्वविद्यालय, बीकानेर के कुलपति हैं)
(सह-लेखिका : प्रो. संजीता शर्मा)

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