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-Rajeev Kumar (Editor-in-chief)

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Monday, August 9, 2021

समझौते की सरहद (जनसत्ता)

लद्दाख के गोगरा में पिछले पंद्रह महीनों से तनातनी के माहौल में एक-दूसरे के आमने-सामने खड़ी भारत और चीन की सेनाओं का अब अपनी-अपनी जगहों पर लौट आना एक महत्त्वपूर्ण घटना है। दोनों देशों के उच्च अधिकारियों के बीच बारहवें दौर की हुई बातचीत के बाद इस पर सहमति बनी। यह बातचीत और घटनाक्रम इसलिए अधिक महत्त्वपूर्ण है कि न सिर्फ दोनों देशों ने अपनी सेनाएं वापस बुला ली हैं, बल्कि उस इलाके में बनाए सभी अस्थायी निर्माण भी हटा लिए गए हैं।

दोनों में सहमति बनी है कि वे वास्तविक नियंत्रण रेखा का अतिक्रमण नहीं करेंगे। पिछले छह महीनों में दोनों देशों के बीच यह दूसरा कदम है, जब उन्होंने अपनी सेनाओं को पीछे लौटने को कहा। फरवरी में पैंगोंग त्सो झील के दोनों छोरों पर से इसी तरह तनातनी समाप्त की गई थी। हालांकि अब भी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर कम से कम चार जगहों पर दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने हैं। उनमें देपसांग और हॉट स्प्रिंग को ज्यादा संवेदनशील माना जाता है। चीन ने उन क्षेत्रों से अपनी सेना हटाने से मना कर दिया है। मगर गोगरा से सेना हटाने के ताजा फैसले से उम्मीद बनी है कि उन बिंदुओं पर भी सकारात्मक नतीजे सामने आएंगे।

पिछले साल गलवान घाटी में दोनों देशों के सैनिकों में हिंसक झड़प होने की वजह से तनाव काफी बढ़ गया था। उसमें दोनों तरफ के कई सैनिक मारे भी गए थे, जिसे लेकर स्वाभाविक ही दोनों देशों के बीच रोष बढ़ गया था। खासकर भारत सरकार पर दबाव बनना शुरू हो गया था कि वह अपना नरम रवैया छोड़ कर चीन के साथ कड़ाई से पेश आए। चीन ने भी उस इलाके में अत्याधुनिक हथियारों से लैस अपने सैनिकों की संख्या बढ़ानी शुरू कर दी थी।

वह भारत के हिस्से वाले क्षेत्र में काफी अंदर तक घुस आया था। मगर इस तनातनी को दूर करने के मकसद से दोनों देशों के सैन्य अधिकारियों के बीच बातचीत का सिलसिला बना हुअ था। राजनीतिक स्तर पर भी इसे सुलझाने के प्रयास जारी रहे। उसी का नतीजा था कि फरवरी में लद्दाख क्षेत्र में चीन ने अपने कदम वापस खींचे थे। अभी देपसांग और हॉट स्प्रिंग को लेकर बातचीत का सिलसिला बना हुआ है। उम्मीद की जा रही है कि वहां भी तनाव का वातावरण समाप्त करने में कामयाबी मिलेगी।

दरअसल, आज के समय में देशों की ताकत उनकी अर्थव्यवस्थाओं से आंकी जाती है। अब कोई भी देश युद्ध नहीं चाहता और न उसके लिए किसी भी रूप में ऐसा कदम उठाना लाभकारी साबित हो सकता है। यह बात चीन भी समझता है। मगर वह अपनी विस्तारवादी नीति का लोभ नहीं छोड़ पाता। वह दुनिया के बाजारों पर कब्जा करने के लिए भी उनकी सीमाओं पर तनाव पैदा करके उन्हें अपनी छतरी के नीचे लाने की कोशिश करता है।

भारत के पड़ोसी सार्क देशों में से ज्यादातर के साथ वह ऐसा कर चुका है। पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका उसके चंगुल में फंस चुके हैं। भारत से उसकी खुन्नस इस बात को लेकर भी है कि यह तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था है और इसका झुकाव पिछले कुछ सालों से अमेरिका की तरफ बढ़ा है। यों भी भारत के साथ लगती उसकी लंबी सीमा का बड़ा हिस्सा अस्पष्ट है, इसलिए उसकी सेना अक्सर भारत वाले हिस्से में चली आती है। पर चीन का मकसद इस तरह भारत पर धौंस जमाना भी रहता है। मगर भारत के सामने अब, न तो आर्थिक स्तर पर और न सामरिक स्तर पर, उसकी धौंस बर्दाश्त करने की कोई विवशता नहीं है।

सौजन्य - जनसत्ता।

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हौसले को सलाम (जनसत्ता)

इस बार के ओलंपिक में भारतीय खिलाड़ियों का प्रदर्शन वास्तव में देश के लिए गर्व का विषय है। तीरंदाजी, निशानेबाजी और कुश्ती की एक प्रतिस्पर्धा में पदक चूक जाने के बावजूद इस बार सभी क्षेत्रों में खिलाड़ियों ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। एक स्वर्ण, दो रजत और चार कांस्य के साथ कुल सात पदक उन्होंने देश के नाम किए। एथलेटिक और हॉकी में बरसों का सपना पूरा हुआ। एथलेटिक में सौ से अधिक सालों बाद पदक आया, वह भी स्वर्ण। हॉकी में इकतालीस साल बाद पदक आया। जिन स्पर्धाओं में कोई पदक नहीं आ पाया, उनमें भी खिलाड़ियों ने अपने कौशल का झंडा गाड़ा।

कई खिलाड़ी सेमी फाइनल दौर में पहुंच कर पदक से चूके। महिला हॉकी टीम बेशक कोई पदक नहीं जीत सकी, पर पूरी दुनिया की नजर उस पर लगी रही और वह मजबूत दावेदार मानी जा रही थी। सेमी फाइनल में खेलते हुए उसने अपना बेहतरीन प्रदर्शन किया। इसी तरह गोल्फ में अदिति अशोक और कुश्ती में दीपक पूनिया आखिरी क्षणों में मात खा गए। मगर स्वाभाविक ही सबसे अधिक खुशी लोगों को भाला फेंक स्पर्धा में नीरज चोपड़ा के स्वर्ण पदक जीतने से हुई। एथलेटिक में करीब सौ साल बाद भारत को यह पदक हासिल हुआ है।


एथलेटिक वर्ग में मिल्खा सिंह और पीटी उषा ने कई अंतरराष्ट्रीय कीर्तिमान स्थापित किए थे, पर ओलंपिक में वे पदक से चूक गए थे। मिल्खा सिंह का तो सपना था कि कोई भारतीय खिलाड़ी ओलंपिक पदक लाए। अब जाकर उनका यह सपना पूरा हुआ है। पेरिस ओलंपिक में एथलेटिक वर्ग में भारत को जो दो पदक मिले थे, उसे जीतने वाले खिलाड़ी अंग्रेज थे। इस तरह इस वर्ग में यह स्वतंत्र भारत का पहला पदक है। नीरज चोपड़ा को पिछले तीन सालों से ओलंपिक पदक का दावेदार माना जा रहा था।

1996 में जूनियर विश्व चैंपियनशिप में उन्होंने जिस तरह अपना कौशल दिखाया और स्वर्ण पदक हासिल किया, उसके बाद से ही इतिहास रचने की उम्मीदें उनसे जुड़ गई थीं। उसके बाद लगातार उनका प्रदर्शन बेहतरीन बना रहा। 2018 के एशियाई और राष्ट्रमंडल खेलों में भी उन्होंने स्वर्ण पदक हासिल किए थे। अच्छी बात यह थी कि उनका प्रदर्शन लगातार बेहतर होता रहा। इस तरह ओलंपिक में उनके पदक लाने को लेकर कई लोगों को उम्मीद बनी हुई थी। पर शायद किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि वे स्वर्ण पदक हासिल कर लेंगे। इसे उन्होंने अपने जज्बे और आत्मविश्वास से कर दिखाया। निश्चय ही उनकी जीत से भारत के दूसरे खिलाड़ियों का हौसला और आत्मविश्वास बढ़ा है।

हालांकि ओलंपिक खेलों पर हमेशा लोगों की नजर रहती है, पर इस बार के तोक्यो ओलंपिक को लेकर कुछ अधिक उत्साह दिखा, तो इसीलिए कि इसमें हमारे खिलाड़ियों का प्रदर्शन उम्मीद जगाने वाला था। छोटी-छोटी जगहों पर भी लोग भारतीय खिलाड़ियों की स्पर्धाओं पर नजर गड़ाए हुए थे। इससे निस्संदेह खिलाड़ियों का मनोबल भी बढ़ा है। मगर इन पदकों की चमक में एक बार फिर खिलाड़ियों और खेलों के प्रोत्साहन को लेकर कुछ सवाल गाढ़े हुए हैं। पदक लाने वाले या मामूली अंतर से चूक गए ज्यादातर खिलाड़ी बहुत साधारण परिवारों के हैं। उन्हें इस मुकाम तक पहुंचने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा है। जीत के बाद जिस तरह उन्होंने अपने संघर्ष बयान किए, उससे एक बार फिर जाहिर हो गया कि अगर सरकारी स्तर पर खेलों को उचित समर्थन और प्रोत्साहन मिले, तो इस तरह के और कीर्तिमान बन सकते हैं।

सौजन्य - जनसत्ता।
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Tuesday, May 25, 2021

दमन के सहारे (जनसत्ता)

सही है कि समूचे देश में महामारी की जो चिंताजनक स्थिति है, उसमें इस पर काबू पाने के लिए जरूरी इंतजाम करना सरकार की प्राथमिकता है। इसके लिए अलग-अलग राज्यों में लागू पूर्णबंदी का मतलब सार्वजनिक गतिविधियों को कम करना है, ताकि संक्रमण पर काबू पाया जा सके। लेकिन क्या इस क्रम में पुलिस और प्रशासन को यह भी अधिकार दे दिया गया है कि वे आम नागरिकों के खिलाफ जैसे चाहें हिंसक तरीके से पेश आएं?

देश के अलग-अलग राज्यों से जिस तरह की खबरें वीडियो सहित आ रही हैं, उनसे तो यही लगता है कि पुलिस और प्रशासन से जुड़े कर्मियों और अधिकारियों ने पूर्णबंदी लागू करने के निर्देशों को अपने अधिकारों के बेलगाम प्रयोग का मौका मान लिया है। वरना क्या वजह है कि एक युवक दवा लाने घर से बाहर निकलता है और उसे जिलाधिकारी जैसे जिम्मेदार पद पर काम करने वाला व्यक्ति बिना किसी उचित आधार के न केवल खुद थप्पड़ मारता है, बल्कि पुलिसकर्मियों से उसे पिटवाता है? इस तरह के व्यवहार को सरकारी सेवकों के आचरण की किस परिभाषा के तहत देखा जाएगा?

गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ के सूरजपुर इलाके में जिलाधिकारी के ऐसे बर्ताव का वीडियो जब वायरल हुआ तब राज्य के मुख्यमंत्री ने उसके खिलाफ कार्रवाई की। लेकिन विडंबना है कि इस तरह की औपचारिक कार्रवाइयां भी निचले से लेकर उच्च पदों पर बैठे सरकारी सेवकों के व्यवहार को मानवीय और मर्यादित नहीं बना पा रही है। छत्तीसगढ़ की घटना के समांतर राजस्थान के बारां जिले में जिलाधिकारी ने एक कोरोना योद्धा को थप्पड़ मारा। मध्य प्रदेश के शाजापुर में एक महिला प्रशासनिक अधिकारी ने भी एक युवक के साथ ऐसा ही बर्ताव किया। जब उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों का यह तौर-तरीका है तो ड्यूटी पर तैनात निचले स्तर के कर्मचारियों या फिर पुलिसकर्मियों के व्यवहार का अंदाजा भर लगाया जा सकता है।

उत्तर प्रदेश के उन्नाव में सत्रह साल के एक युवक को कुछ पुलिसकर्मियों ने इसलिए पीट-पीट कर मार डाला कि वह पूर्णबंदी के दौरान अपने घर के सामने ठेले पर सब्जी बेच रहा था। देश के अन्य हिस्सों से भी ऐसे वीडियो सामने आए हैं, जिनमें पुलिसकर्मी सब्जी बेचने वालों का ठेला उलटते या उन्हें मारते-पीटते दिख रहे हैं। बंगलुरु में कोई लक्षण नहीं होने के बावजूद जबरन कोरोना जांच कराने के लिए एक युवक को ड्यूटी पर तैनात स्वास्थ्यकर्मियों ने बुरी तरह मारा-पीटा।

सवाल है कि पूर्णबंदी के दौरान ड्यटी पर तैनात कुछ उच्चाधिकारियों, पुलिसकर्मियों या स्वास्थ्यकर्मियों का जैसा व्यवहार सामने आ रहा है, क्या ऐसा करने का दबाव सरकार की ओर से है? सरकार सुर्खियों में आए ऐसे मामलों में आधे-अधूरे तरीके से कार्रवाई करती है, लेकिन जो घटनाएं प्रकाश में नहीं आ पातीं, वे दमन का हथियार बनती हैं। सही है कि पूर्णबंदी के दौरान लोगों को गैरजरूरी काम से बाहर निकलने पर मनाही है। आमतौर पर लोग ऐसा कर भी रहे हैं, क्योंकि संक्रमण का डर सबके भीतर है।

ऐसे में क्या पुलिस-प्रशासन को खुद ही यह नहीं समझना चाहिए कि जब सब कुछ बंद है तो बाहर निकला व्यक्ति किसी बेहद जरूरी काम से ही निकला होगा? दवा, किराने का सामान और सब्जियां अनिवार्य वस्तुओं की श्रेणी में आती हैं। लेकिन ऐसी चीजें खरीदने-बेचने वालों के खिलाफ इस तरह की बेरहमी कैसे उचित है? पूर्णबंदी की वजह से पहले ही करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी चली गई है। ऐसे में क्या सरकार और पुलिस-प्रशासन को अपना व्यवहार और नजरिया मानावीय बनाने की जरूरत नहीं है? महामारी के खिलाफ जो भी लड़ाई चल रही है, क्या उसका मकसद आम लोगों की जिंदगी बचाना नहीं है?

सौजन्य - जनसत्ता।
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नक्सली मंसूबे (जनसत्ता)

महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में हुई ताजा नक्सली मुठभेड़ से एक बार फिर यह सवाल गाढ़ा हुआ है कि तमाम प्रयासों के बावजूद आखिर सरकारें इस समस्या से पार पाने में क्यों विफल साबित होती हैं। गनीमत है कि इस हमले में सुरक्षाबलों को कोई नुकसान नहीं हुआ। तेरह नक्सली मारे गए। इसे वहां की पुलिस अपनी बड़ी उपलब्धि मान रही है। दो साल पहले उसी इलाके में नक्सलियों ने पंद्रह पुलिसकर्मियों को घात लगा कर मार डाला था।

यह मुठभेड़ ऐसे समय में हुई जब राज्य के गृहमंत्री उस इलाके के दौरे पर थे। नक्सली ऐसे अवसरों की तलाश करते रहते हैं, जब सुरक्षाबलों पर हमला करके वे सरकारों को चुनौती दे सकें। पिछले ही महीने छत्तीसगढ़ के सुकमा में नक्सलियों ने सुरक्षाबलों पर हमला करके भारी नुकसान पहुंचाया था। तब भी उनकी रणनीतियों से पार पाने के उपायों पर जोर दिया गया था। जब भी ऐसे नक्सली हमले होते हैं, तो सरकारें अपनी कमजोरियों को दुरुस्त करने और नक्सलियों के मंसूबे तोड़ने के व्यावहारिक तरीके अपनाने का संकल्प करती हैं, पर वे विफल ही देखी जाती हैं। सुकमा की घटना के बाद शहीद सुरक्षाबलों को श्रद्धांजलि अर्पित करने केंद्रीय गृहमंत्री भी गए थे। तब भी उम्मीद की गई थी कि इस समस्या से पार पाने के लिए किसी नई रणनीति पर विचार होगा।


कई जगह सरकारें खनिज और कल-कारखानों के लिए आदिवासी इलाकों की जमीन जबरन अधिग्रहीत करने का प्रयास भी करती देखी गई हैं। इससे उनमें स्वाभाविक रूप से असंतोष पनपा है। हालांकि आदिवासियों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने, उनके शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि के लिए योजनाएं चलाने और उनमें पनपी नाराजगी को दूर करने के भी प्रयास हुए हैं, मगर उन पर नक्सलियों का प्रभाव ही गहरा नजर आता है।


दरअसल, नक्सलियों की ताकत जंगलों के भीतर और पिछड़े इलाकों में रहने वाले लोग ही हैं, जिनसे उन्हें सहयोग मिलता है। सरकारें जब तक स्थानीय लोगों का विश्वास हासिल नहीं करतीं, तब तक नक्सलियों की ताकत कम कर पाना संभव नहीं है। इसके लिए अनेक बार प्रयास हुए, पर सफलता नहीं मिली तो उसमें कहीं न कहीं सरकारी रणनीति की कमजोरी है। जब तक अत्याधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से नक्सली साजिशों का पता लगाने और उनके संसाधनों को खत्म करने का तंत्र मजबूत नहीं होता, तब तक नक्सलियों पर काबू पाना मुश्किल ही रहेगा। नक्सली भी अब जंगलों में कई तरह के धंधे चलाने लगे हैं, उन्होंने जगह-जगह अपना साम्राज्य बना लिया है। उस साम्राज्य को तोड़ने के लिए स्थानीय लोगों का समर्थन जरूरी है। जब तक सरकारें इस दिशा में नए ढंग से रणनीति नहीं बनातीं, नक्सलियों के मंसूबे शायद ही कमजोर हों।

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चिंता टीकों की (जनसत्ता)

टीकाकरण की धीमी रफ्तार गंभीर चिंता की बात है। महामारी पर काबू पाने के लिए जांच, इलाज और संपर्कों का पता लगाने से भी ज्यादा टीकाकरण को सबसे महत्त्वपूर्ण उपाय माना गया। लेकिन इस काम में ही सबसे ज्यादा मुश्किलें आ रही हैं। समय से टीकों की आपूर्ति नहीं होने से कई राज्यों को अपने यहां टीकाकरण केंद्र बंद करने को मजबूर होना पड़ रहा है। कई राज्यों के स्वास्थ्य मंत्री टीकों के लिए गुहार लगा रहे हैं। यह बिल्कुल वैसी स्थिति बन गई है जैसे पिछले दिनों ऑक्सीजन संकट के दौरान देखने को मिली थी। गौरतलब है कि महामारी जिस प्रकृति की है, उसे देखते हुए जल्द से जल्द सबको टीके चाहिए। हालांकि केंद्र सरकार के दावों में कहीं कोई कमी नहीं है। सरकार लगातार कह रही है कि टीके पर्याप्त हैं, राज्यों को पर्याप्त आपूर्ति हो रही है और इसी साल के अंत तक देश की बड़ी आबादी का टीकाकरण कर दिया जाएगा। अगर ऐसा है तो फिर क्यों राज्यों को टीकाकरण केंद्र बंद करने पड़ रहे हैं? अगर राज्यों के पास टीका ही नहीं होगा और सिर्फ दो-तीन दिन के भंडार पर यह अभियान चलेगा तो कैसे टीकाकरण का लक्ष्य पूरा होगा, यह समझ से परे है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि टीकाकरण अभियान को लेकर कई संकटों से दो-चार होना पड़ रहा है। इसके लिए पूरे तौर पर केंद्र सरकार ही जिम्मेदार दिखती है। देश में टीकाकरण की नीति और उस पर अमल तक के मामले में आए दिन जिस तरह के फैसले देखने को मिल रहे हैं, उससे लगता है कि इस मिशन की तैयारियों में भारी खामियां रहीं। टीका निर्माता कंपनियों की कमी, उनका रुख, उत्पादन क्षमता, कीमत को लेकर मोलभाव के हालात जैसे तमाम कारण हैं जो इस अभियान में बाधा बने। टीकों की खरीद और मोलभाव को लेकर राज्यों को अलग जूझना पड़ रहा है। जबकि पिछले एक साल से सरकार को यह पता था कि आने वाले वक्त देश में बड़ा टीका अभियान चलाना पड़ेगा। लेकिन टीका आ जाने के बाद भी सरकार देश की जरूरत के मुताबिक इनका उत्पादन सुनिश्चित नहीं कर पाई।


अब आनन-फानन में विदेशी टीकों को मंजूरी देनी पड़ रही है। लेकिन इन टीकों को भी आने में अभी वक्त लगेगा। देशी कंपनियों का उत्पादन बढ़ने में भी दो-तीन महीने लग जाएंगे। लेकिन तब तक क्या होगा? इधर, अठारह से चवालीस साल के वयस्कों के लिए भी मांग अचानक बढ़ गई। इसका नतीजा यह हुआ कि अब न तो वयस्कों को ही टीके लग पा रहे हैं और न ही चवालीस साल से ऊपर वालों के टीकाकरण का काम तरीके से चल रहा है। लोग रोजाना कतारों में धक्के खा रहे हैं। जिसे टीके की पहली खुराक लग गई है, उसे दूसरी के लिए चक्कर लगाने पड़ रहे हैं। यह स्थिति एक लचर और लापरवाह व्यवस्था का परिचायक है। जाहिर है, आकलन के हर स्तर पर हम कमजोर रहे। क्या ऐसे में साल के अंत तक टीकाकरण का लक्ष्य हासिल हो पाएगा?

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सरोकार का जीवन (जनसत्ता)

यह दुनिया इसलिए खूबसूरत है कि चारों तरफ दिखने वाले छोटे-छोटे निजी हितों और चिंताओं के दायरे में सिमटे लोगों के साथ चलने वाले समाज में अक्सर ऐसा भी कोई उठ खड़ा होता है, जो अपनी जिंदगी को समाज और संसार के कल्याण के लिए झोंक देता है। सुंदरलाल बहुगुणा एक उसी प्रकृति के शख्स थे, जिन्होंने अमूमन हर बार ठीक वक्त पर दुनिया के भविष्य के लिहाज से असली मसलों की पहचान की और उनके हल के लिए अपनी सीमा में सब कुछ किया। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जिस उम्र में किसी बच्चे के पढ़ने-लिखने या खेलने-कूदने से उसका परिवार और समाज खुश होता है, उस दौर में उन्होंने राजनीति की दुनिया में अपने कदम रख दिए। उत्तराखंड के टिहरी में नौ जनवरी, 1927 को जन्मे सुंदरलाल बहुगुणा ने महज तेरह साल की उम्र में गांधीजी की प्रेरणा से यह तय कर लिया कि कैसे अहिंसा के रास्ते पर चल कर देश और समाज की समस्याओं का हल करना है। उनकी खास बात यह थी कि उन्होंने मनुष्य और समाज की समस्याओं की असली जड़ों की पहचान की। खासतौर पर समाज के कमजोर तबकों और पर्यावरण के सवाल पर, जहां बहुत सारे लोग पीछे हट जाते हैं, सुंदरलाल बहुगुणा ने इन सवालों को चुनौती की तरह लिया।

अपनी राजनीतिक सक्रियता के शुरुआती दौर में ही उन्होंने दलितों से भेदभाव से लेकर शराब की संस्कृति के खिलाफ मोर्चा खोला, बालिकाओं को शिक्षा दिलाने के लिए ठोस दखल दिया। संभवत: अपने मूल लक्ष्यों की ओर बढ़ने के रास्ते में राजनीति उन्हें अपने अनुकूल नहीं लग रही थी, इसलिए बाद में उन्होंने खुद को समाज और पर्यावरण के सवालों से जूझने के लिए समर्पित कर दिया। 1970 के दशक में उन्होंने पेड़ बचाने के लिए जिस अभियान की शुरुआत की थी, उसकी अहमियत से आज दुनिया वाकिफ है। यह वही दौर था जब एक तरफ प्रदूषण बढ़ने को लेकर चिंता जताई जा रही थी और दूसरी ओर पेड़ों को काटे जाने का खेल भी चल रहा था। सुंदरलाल बहुगुणा ने इसका तीखा विरोध किया। लेकिन उनके विरोध का जो तरीका था, वह आज इतिहास में दर्ज एक सुनहरा अध्याय बन चुका है।

पेड़ों को बचाने के लिए शुरू हुए ‘चिपको आंदोलन’ को उन्होंने जो विस्तार दिया या ‘हिमालय के रक्षक’ के तौर पर पांच हजार किलोमीटर की पदयात्रा की, वह पर्यावरण के क्षेत्र में उनके अप्रतिम योगदान का उदाहरण है। विकास के नाम पर टिहरी जैसे बांधों के खतरों को लेकर उन्होंने अपने आंदोलन के दौरान जिस तरह की चेतावनियां दी थीं, वे पहाड़ी इलाकों में होने वाली हर उथल-पुथल के वक्त अपना महत्त्व बताती रही हैं।


यों गांधीजी की प्रेरणा से खुद को खड़ा करने वाले व्यक्ति की स्वाभाविक बनावट और बुनावट को बिना किसी अतिरिक्त मेहनत के समझा जा सकता है। ऐसा व्यक्ति निश्चित रूप से अपनी व्यक्तिगत चिंताओं की चारदिवारी से बाहर निकल चुका होता है और उसकी फिक्र में संसार का हित शामिल होता है। इस लिहाज से देखें तो सुंदरलाल बहुगुणा ने अपने आसपास की बदलती आबोहवा और भावी दुनिया पर पड़ने वाले उसके असर के मद्देनजर अपने जीवन का जो संघर्ष चुना, वह बेशक उन्हें महान शख्सियतों की श्रेणी में ला खड़ा करता है।


धरती, पहाड़ और पर्यावरण का जीवन बचाने की उनकी लड़ाई के पीछे दरअसल मनुष्य को बचाने की ही भूख थी। उन्होंने ‘धरती की पुकार’ सहित कई किताबें लिखीं थी और उन्हें पर्यावरण के क्षेत्र में योगदान के लिए कई बेहद अहम पुरस्कारों से नवाजा गया। मगर जब व्यक्ति खुद को दुनिया के हित के लिए अर्पित कर देता है तब वह शायद सभी पुरस्कारों से श्रेष्ठ हो जाता है।

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संकट भीतर तक (जनसत्ता)

गांवों में महामारी से हालात बिगड़ रहे हैं। शहरों के बाद गांवों में संक्रमण फैलना ज्यादा चिंता की बात है। ग्रामीण इलाकों में देश की दो तिहाई आबादी रहती है। यह देश का वह इलाका है जहां बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर लगभग कुछ नहीं है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा किनारे जिस बड़ी संख्या में दफन और बहते शव मिले, उससे पता चलता है कि गांवों में महामारी से किस तरह लोग मर रहे हैं। अगर ये मौतें महामारी से नहीं हो रहीं तो सवाल है फिर कैसे इतने लोग मरे? पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ। महामारी से निपटने में सरकारों की लाचारी उजागर हो चुकी है। वरना इलाहाबाद हाई कोर्ट को यह कहने को क्यों मजबूर होना पड़ता कि उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाएं राम भरोसे हैं! जाहिर है, बड़ी अदालतों की हालात पर नजर है। सरकारों के कामकाज की संस्कृति और आमजन के प्रति लापरवाह रवैए की हकीकत भी मालूम है। ऐसा सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही नहीं, बिहार, गुजरात, मध्यप्रेदश आदि राज्यों में कमोबेश एक जैसे हालात हैं। बहरहाल कुछ भी हो, अब केंद्र और राज्यों के सामने सबसे बड़ी चुनौती ग्रामीण इलाकों में संक्रमण को फैलने से रोकने की है।

गांवों में महामारी से निपटने को लेकर प्रधानमंत्री ने पिछले दिनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों, जिलाधिकारियों और चिकित्साकर्मियों से बात की। जाहिर है, अब केंद्र सरकार भी हालात को लेकर चिंतित तो है ही। अभी सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि गांव-गांव तक चिकित्साकर्मियों की पहुंच ही नहीं है। ग्रामीण इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों का आधा-अधूरा ढांचा तो है, लेकिन महामारी से निपटने की सुविधाएं बिल्कुल भी नहीं हैं। बेशक यह इंतजाम रातों-रात संभव नहीं हो पाता। महामारी को आए पूरा एक साल से ज्यादा हो गया है। अगर सरकारों का ध्यान गांवों पर भी होता तो एक साल का वक्त कम नहीं था। इसीलिए इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सरकार को कसा है। ऐसा नहीं है कि अभी भी गांवों में चिकित्सा सुविधाएं पहुंचाना कोई मुश्किल काम है। लेकिन इसके लिए जो इच्छाशक्ति सरकारों में दिखनी चाहिए, उसका अभाव है। प्रधानंमत्री ने तो गांवों में भी टेलीमेडिसिन सेवा पहुंचाने पर जोर दिया है। इसमें संदेह नहीं कि अगर गांवों और तहसीलों में टेलीमेडिसीन सेवा का पुख्ता नेटवर्क बन जाए तो संक्रमण से निपटना आसान हो जाएगा। लेकिन यह हो कैसे, यह बड़ा सवाल है। होना होता तो अब तक राज्यों ने कोई तो पहल की होती!

गांवों में महामारी के फैलाव को रोकने के लिए एक साथ कई मोर्चे खोलने की दरकार है। इसीलिए विशेषज्ञ बार-बार ग्रामीण इलाकों के लिए कारगर रणनीति बनाने पर जोर दे रहे हैं। इसमें संसाधनों के साथ ही हर गांव में चिकित्साकर्मियों की पहुंच बनाना जरूरी है, ताकि हर व्यक्ति की जांच हो सके। कम गंभीर मरीज या बिना लक्षण वाले मरीजों की पहचान कर उन्हें दूसरी जगहों पर जाने से रोका जा सके। वरना इलाज के लिए ग्रामीणों ने शहरों की ओर रुख करना शुरू कर दिया तो संक्रमण रुकने के बजाय और फैलेगा।

प्रधानमंत्री ने तो जिलाधिकारियों को सुझाव दिया है कि वे अपने स्तर ही आंकड़ों की निगरानी और विश्लेषण करें और हालात के मुताबिक रणनीति बना कर स्थिति संभालें। इस पर ईमानदारी से काम हो तो यह तरीका कारगर सिद्ध हो सकता है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत में कृषि क्षेत्र गांवों पर ही निर्भर है। महामारी कृषि अर्थव्यवस्था को चौपट कर सकती है। इसलिए अगर गांवों के हालात काबू नहीं आए तो देश और बड़े संकट में फंस जाएगा।

सौजन्य - जनसत्ता।
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युद्ध के मुहाने (जनसत्ता)

इसमें कोई शक नहीं कि इजराइल और फिलस्तीन के बीच विवाद करीब सात दशक पुराना है, लेकिन पिछले कुछ दिनों से उस समूचे इलाके में जिस तरह का संघर्ष चल रहा है, उसने विश्व समुदाय की चिंता बढ़ा दी है। हाल ही में अल-अक्सा मस्जिद में नमाज पढ़ने आए फिलस्तीनियों और इजराइली सैनिकों के बीच झड़प के बाद भड़की हिंसा ने अब जो शक्ल अख्तियार कर ली है, अगर उसे तुरंत नहीं रोका गया तो शायद यह आधुनिक दौर के एक त्रासद टकराव के तौर पर दर्ज होने जा रहा है। सवाल है कि इस संघर्ष को रोकेगा कौन? कहने को संयुक्त राष्ट्र के जिम्मे दुनिया भर में किसी भी वजह से होने वाले ऐसे युद्धों को रोकने का दायित्व है। लेकिन यह किसी से छिपा नहीं है कि या तो वह महज औपचारिक प्रतिक्रिया जाहिर कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेने वाली संस्था के तौर पर सिमट कर रहा गया है या फिर उस पर अमेरिका जैसे ताकतवर देशों का प्रभाव काम करता है। अब अगर अमेरिका खुद परोक्ष रूप से इजराइल के पक्ष में खड़ा है, तब ऐसे में हल या फिर कम से कम तात्कालिक तौर पर वहां फैली व्यापक हिंसा पर रोक लगने की उम्मीद कहां से आएगी!

गौरतलब है कि अल-अक्सा मस्जिद पर भड़की हिंसा के बाद इजराइली सैनिकों के हमले में अब तकरीबन सवा दो सौ फिलस्तीनियों की जान जा चुकी है, जिसमें पांच दर्जन से ज्यादा बच्चे थे। दूसरी ओर, हमास के हमले में इजराइल में बारह लोगों की मौत हुई। संघर्ष या टकराव की बुनियाद में जो कारण है, उस पर बात करना अब शायद इजराइल को अपने पक्ष में या फिर सुविधाजनक नहीं लगता है, दूसरी ओर हमास को समस्या के हल का अकेला रास्ता हिंसक टकराव लगता है। सच यह है कि फिलस्तीन के एक हिस्से में एक देश के रूप में अस्तित्व में आने के बाद से अब तक इजराइल ने खुद को सैन्य मोर्चे पर इतना ताकतवर बना लिया है कि युद्ध में उसका सामना करना अकेले हमास के बूते संभव नहीं है।

दूसरी ओर, फिलस्तीन के पास स्थायी सेना तक नहीं है और ईरान जैसे कुछ देशों के सहयोग से हमास ही इजराइल के खिलाफ जंग लड़ता है। समस्या यह है कि हमास को अंतरराष्ट्रीय पटल पर कोई वैध हैसियत हासिल नहीं है और उसे एक आतंकवादी समूह के तौर पर देखा जाता है। यही वजह है कि हमास से संघर्ष के मसले पर इजराइल को अमेरिका या दुनिया के कई देशों का औपचारिक समर्थन मिल जाता है।

युद्ध के मोर्चे पर इजराइल के पक्ष में एकतरफा तस्वीर और अमूमन हर बार के टकराव में फिलस्तीनी जान-माल की व्यापक हानि के बावजूद न तो संयुक्त राष्ट्र को दखल देकर समस्या का स्थायी हल निकालने की जरूरत नहीं लगती है, न दुनिया के दूसरे ताकतवर और विकसित देश फिलस्तीन के पक्ष में कोई ठोस हस्तक्षेप कर पाते हैं। यही वजह है कि हर युद्ध और छोटे-मोटे टकराव के मौके पर इजराइल को अपना विस्तार करने का मौका मिल जाता है, वहीं फिलस्तीन का भौगोलिक क्षेत्र भी सिकुड़ता जा रहा है।

अमूमन हर मौके पर मानवाधिकारों की दलील पर दूसरे देशों में दखल देने वाले ताकतवर देश भी इजराइल-फिलस्तीन टकराव में बच्चों समेत भारी तादाद में लोगों के मारे जाने पर अनदेखी करने का रवैया अख्तियार कर लेते हैं। सवाल है कि जो संयुक्त राष्ट्र और वैश्विक समुदाय दुनिया के कई देशों के आंतरिक मामलों में दखल देने के लिए उतावला रहता है, उसे इजराइल की स्थापना के समय उसके और फिलस्तीन के बीच तय हुई वास्तविक सीमा रेखा के मद्देनजर कोई ठोस हल निकालने की जरूरत क्यों नहीं लग रही है!

सौजन्य - जनसत्ता।
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आपदा के वक्त (जनसत्ता)

आपदा के वक्त अपेक्षा की जाती है कि लोग अपने राजनीतिक स्वार्थ, जाति-धर्म-वर्ग-वर्ण जैसे संकीर्ण दायरों से ऊपर उठ कर एक-दूसरे का सहयोग करें, विपत्ति से पार पाने के रास्ते तलाश करें, मगर राजनीतिक दलों को वह भी एक सियासी अवसर के रूप में नजर आता है, तो इसे विडंबना के सिवा और क्या कह सकते हैं। इस वक्त जब पूरा देश कोरोना संक्रमण को रोकने, संक्रमितों को जरूरी उपचार और सुविधाएं उपलब्ध कराने, इस संक्रमण से पैदा दूसरे कुप्रभावों को रोकने, टीकाकरण अभियान को व्यापक बनाने के उपायों पर विचार कर रहा है, कुछ राजनीतिक दलों को इसमें दिखने वाली कमियों के बहाने सत्ता पक्ष पर हमला बोलने का अवसर मिल गया है। सत्ता में असंतुष्ट कुछ राजनेता भी इस बहाने अपनी खुन्नस निकालते देखे जा रहे हैं। सत्ता पक्ष भी पलटवार करते हुए विपक्षी दलों से निपटने में उलझा नजर आता है।

अब एक नया ‘टूलकिट’ प्रकरण विवाद का विषय बन गया, जिसे लेकर सत्तारूढ़ भाजपा ने विपक्षी कांग्रेस पर आरोप लगाया कि वह इस टूलकिट के जरिए प्रधानमंत्री की छवि खराब करने का प्रयास कर रही है। इस पर कांग्रेस भी हमलावर हुई और उसने इस प्रकरण को भाजपा की ही कारस्तानी करार दिया। इसे लेकर दोनों गुत्थमगुत्था हैं। इस कोरोना समय में जब स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण आम लोगों का हाल बेहाल है, तब राजनीतिक स्वार्थों का टकराव एक तरह से असल मुद्दे से ध्यान भटकाने की कोशिश ही कही जाएगी। केंद्र ने टीकाकरण उत्सव की घोषणा की, तो गैरभाजपा शासित राज्यों ने टीके की कमी का मुद्दा उछाल दिया।

इस पर कई दिन तक बहसें चलती रहीं। यहां तक कि टीके की कमी का पोस्टर छाप कर दिल्ली के कुछ इलाकों में चस्पां कर दिया गया। फिर आक्सीजन की कमी को राजनीतिक रंग दे दिया गया। सत्ता पक्ष ने भी आक्सीजन उपलब्ध कराने वाले विपक्षी नेताओं और पोस्टर चिपकाने वालों के खिलाफ कार्रवाई करके बेवजह किरकिरी बटोरी। यह मामला कुछ शांत हुआ तो दिल्ली के मुख्यमंत्री ने कोरोना के सिंगापुर स्वरूप और बच्चों के खतरे की आशंका को लेकर ट्वीट करके केंद्र सरकार से टकराव का नया मुद्दा पैदा कर लिया। अब उस बयान से अंतरराष्ट्रीय संबंधों में दरार का बायस बताया जा रहा है। उधर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मुद्दा बनाया है कि प्रधानमंत्री ने कोरोना को लेकर बुलाई बैठक में उन्हें बोलने का अवसर नहीं दिया।

हमारे देश में कुछ लोगों को राजनीतिक नोकझोंक से आनंद मिलता है, इसलिए उन्हें इन गैरजरूरी बयानबाजियों और हरकतों से तोष मिला भी होगा, पर असल समस्या के समाधान की दिशा में इनसे कोई लाभ मिला हो, कहा नहीं जा सकता। ऐसे बयानों और आरोप-प्रत्यारोपों से कुछ देर के लिए आम लोगों का ध्यान भटकाने में जरूर कुछ कामयाबी मिल जाती है। तो क्या राजनीतिक दल अपनी जिम्मेदारियों से मुंह फेरने और नाकामियों पर परदा डालने के लिए ऐसा करते हैं? कायदे से सबको साथ मिल कर इस भयावह आपदा से पार पाने के उपायों पर काम करना चाहिए, एक-दूसरे पर दोषारोपण करके या अपनी छवि चमकाने की कोशिश में बयानबाजी नहीं।

ऐसे समय में जब गांवों में लोग इलाज के अभाव में दम तोड़ रहे हैं, अनेक स्वयंसेवी संगठन और नागरिक संगठन, धर्मादा संस्थाएं लोगों की मदद के लिए सराहनीय काम कर रही हैं, तब राजनीतिक दल और सरकारें उनके कंधे से कंधा मिला कर काम करने के बजाय सियासी स्वार्थ के चलते आपस में उलझी नजर आ रही हैं, तो इसे कोई अच्छी बात नहीं माना जाना चाहिए।

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Wednesday, May 5, 2021

खेल बनाम खिलवाड़ (जनसत्ता)

इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि समूची दुनिया और खासतौर पर हमारा देश एक ओर महामारी की मार से तबाह है और इसे रोकने के लिए सब कुछ बंद करने की मजबूरी सामने है और दूसरी ओर इंडियन प्रीमियर लीग यानी आइपीएल जैसा आयोजन निर्बाध तरीके से जारी था। जबकि हर ओर संक्रमण फैलने के खतरे को लेकर लोगों को सचेत किया जा रहा था और इसके दायरे से आइपीएल में हिस्सा लेने वाले खिलाड़ी या इस आयोजन में लगे दूसरे कर्मचारी और बाकी लोग पूरी तरह आजाद नहीं थे।

हवाला इस बात का दिया जा रहा था कि इस आयोजन के संचालन के लिए बायो बबल यानी जैव सुरक्षित वातावरण तैयार किया गया है, जिससे संक्रमण फैलने का खतरा नहीं होगा। मगर अब पिछले कुछ दिनों के दौरान कई टीमों के कुछ खिलड़ियों के विषाणु के संक्रमण की चपेट में आने की खबर ने बायो बबल के बावजूद संक्रमण फैलने की आशंकाओं को सच साबित कर दिया। जाहिर है, आयोजकों के सामने आइपीएल-2021 को अनिश्चितकाल तक स्थगित करने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं बचा। गौरतलब है कि सबसे पहले कोलकाता नाइट राइडर्स के दो खिलाड़ी संक्रमित हो गए, फिर दिल्ली कैपिटल्स की पूरी टीम को एकांतवास में डाल दिया गया और उसके बाद चेन्नई सुपर किंग्स के तीन सदस्य भी कोरोना की चपेट में आ गए।

सवाल है कि क्या आइपीएल के संचालन में लगे लोग देश-दुनिया की खबरों से इतने अनजान थे कि उन्हें इस खतरे का अहसास नहीं था! संक्रमण से बचाव के लिए जिस बायो बबल नामक सुरक्षा घेरे का हवाला दिया जा रहा था, अगर वह सचमुच इतना कारगर था तो अचानक ही कई टीमों के खिलाड़ी संक्रमण के शिकार कैसे हो गए? कैसे यह मान लिया गया कि जो विषाणु बिना किसी भेदभाव के चारों ओर कहर बरपा रहा है, उससे आइपीएल में हिस्सा ले रहे खिलाड़ी और वहां मौजूद सभी कर्मचारी और कामगार सिर्फ बायो बबल के भरोसे बचे रहेंगे?

अब खिलाड़ियों के संक्रमित होने के बाद इसकी जिम्मेदारी किसके सिर पर डाली जाएगी? शर्मनाक यह भी है कि देश में एक ओर तीन लाख से ज्यादा लोग हर रोज संक्रमित हो रहे हैं, आॅक्सीजन जैसे बुनियादी संसाधनों के अभाव और अव्यवस्था के चलते रोजाना सैकड़ों लोगों की जान जा रही है, चारों ओर मातम और खौफ का माहौल है और ऐसे में आइपीइएल के आयोजकों और उसमें शामिल होने वाले लोगों को मनोरंजन और खिलवाड़ में मशगूल होना ज्यादा पसंद आया! क्या यह एक तरह से संवेदनहीनता का चरम नहीं है कि बहुत सारे लोग इलाज का खर्च नहीं उठा पाने या फिर समय पर आॅक्सीजन या दूसरी दवाएं नहीं मिल पाने की वजह से मर रहे हैं और ऐसे समय में आइपीएल में अथाह धन बहाया जा रहा है!
देश में ऐसे तमाम लोग हैं जो सामर्थ्य से बाहर जाकर भी पीड़ितों की मदद कर रहे हैं, दूसरे देश भी सहायता के हाथ बढ़ा रहे हैं।

तो क्या आइपीएल के आयोजकों को मौजूदा संकट में सरकार और जनता के बीच मददगार बन कर नहीं खड़ा होना चाहिए था? लेकिन एक अमूर्त सुरक्षा का दावा करके खिलाड़ियों तक को संक्रमण के जोखिम में धकेल दिया गया। हालांकि खुद खिलाड़ियों को भी इस संकट के दौर में अपने विवेक और नैतिकता की आवाज सुननी चाहिए थी। सही है कि दुख और संकट का सामना धीरज और साहस के साथ किया जाना चाहिए और इसकी वजह से दुनिया रुक नहीं सकती। लेकिन जब आसपास पीड़ा और चिंता बिखरी पड़ी हो और उसका सामना करने की कोशिश हो रही हो, तो वैसे समय में मनोरंजन का आयोजन मानवीयता और संवेदना के साथ खिलवाड़ ही कहा जाएगा।

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"फिर वही हालत (जनसत्ता)

कोरोना ने रोजी-रोटी पर फिर से कहर बरपाना शुरू कर दिया है। आंशिक बंदी और सख्त प्रतिबंधों की वजह से पिछले महीने पचहत्तर लाख से ज्यादा लोगों का रोजगार चला गया। देश जिस तरह के भंवर में घिर गया है, उससे जल्दी ही बाहर आने के आसार दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे। जाहिर है, रोजगार की यह तस्वीर दिनोंदिन और डरावनी होगी। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआइई) का ताजा आकलन भी अर्थव्यवस्था और रोजगार के मुद्दे पर चिंता बढ़ाने वाला है। बेरोजगारी दर चार महीने के उच्चतम स्तर यानी आठ फीसद तक पहुंच गई है।

यह आर्थिकी पर आने वाले गहरे संकट का भी संकेत है। इससे छोटे और मझोले उद्योगों की हालत का भी पता चलता है। हालांकि भारत के लिए यह सिलसिला अब नया नहीं है। पिछले साल अप्रैल से ही ऐसे ही हालात देखने को मिल रहे हैं। गौरतलब है कि पिछले साल अप्रैल में बिना किसी तैयारी के की गई पूर्णबंदी ने करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी छीन ली थी। मजदूर घर लौटने को मजबूर हो गए थे। इस बार भी अप्रैल के महीने में ही लाखों लोग काम-धंधे से हाथ धो बैठे। आखिर ये कहां जाएंगे, क्या करेंगे, कैसे आजीविका चलाएंगे, इन सवालों के जवाब किसी के पास नहीं है।

कोरोना से निपटने के लिए इस बार केंद्र सरकार ने पाबंदियां लगाने का अधिकार राज्यों को दे दिया। अब राज्य अपने यहां जरूरत के हिसाब से कड़े प्रतिबंध लगा रहे हैं। देश के पंद्रह राज्यों में संक्रमण से स्थिति गंभीर है। महाराष्ट्र सरकार ने महीने भर से जैसी पाबंदियां लगाई हैं, वे पूर्णबंदी से कम नहीं हैं। ऐसे में उद्योग-धंधे तो चौपट होंगे ही। यह संकट असंगठित क्षेत्र के सामने कहीं ज्यादा गहरा है। अब मुश्किल उस तबके की ज्यादा बढ़ गई है जो छोटे-मोटे काम करके रोज कमाता खाता है।

दिहाड़ी मजदूर, रेहड़ी पटरी वाले, मिस्त्री, रिक्शा, आॅटो, टैक्सी चलाने वाले, चाय की गुमटी, छोटे रेस्टोरेंट, ढाबे और ऐसे ही अन्य कामों में लगे करोड़ों इसमें आते हैं। बंदी की वजह से ये लोग एकदम खाली हैं। देश में छोटे और मझोले उद्योगों की तादाद छह करोड़ चौंतीस लाख है। इनमें करीब बारह करोड़ लोग काम करते हैं और रोजमर्रा के इस्तेमाल वाला सामान तैयार करते हैं। लाखों मजदूर तो सामान ढोने जैसे काम से ही गुजारा चलाते हैं। ऐसे में सख्त प्रतिबंध और आंशिक बंदी उद्योगों और इनमें काम करने वालों के लिए काल साबित होने लगी है।

छोटे उद्योगों की हालत दयनीय है। ये कर्ज में डूबे हैं। कच्चा माल महंगा हो गया है। मांग घट रही है और इसका सीधा असर उत्पादन पर पड़ रहा है। नतीजतन फिर से प्रतिबंधों के कारण कई उद्योग ठप होने की कगार पर हैं। कोरोना के हालात बिगड़ते देख एक फिर सख्त पूर्णबंदी की आशंका जताई जा रही है। अगर ऐसा हुआ तो तय है कि कामंधंधे और चौपट हो जाएंगे। याद किया जाना चाहिए कि पिछले साल पूर्णबंदी लगाते समय प्रधानमंत्री ने उद्योगों से कामगारों को नहीं निकालने और वेतन नहीं काटने की अपील की थी।

लेकिन हुआ था इसका उल्टा। ज्यादातर नियोक्ताओं ने कामगार भी बाहर कर दिए थे और वेतन कटौती भी की। तब कोई बचाने नहीं आया। उस पूर्णबंदी का अनुभव सभी के लिए बेहद कटु रहा। यही वजह है कि उद्योग अब बंदी के पक्ष में नहीं हैं। ठीक साल भर बाद फिर वैसे ही नौबत आ गई है। ऐसे में अब ज्यादा बड़ा खतरा यह है कि बंदी जैसे कदम कहीं भुखमरी जैसे हालात पैदा न कर दें।

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सामुदायिक प्रयास से संकट का सामना (जनसत्ता)

युसूफ अख्तर

देश में महामारी से हालात इतने बदतर हो गए हैं कि इससे निपटने के उपलब्ध सारे संसाधन नाकाफी साबित हो रहे हैं। स्वास्थ्य क्षेत्र पर भारी दबाव है। आॅक्सीजन और इसके उत्पादन से जुड़े उपकरणों, दवाइयों, बचाव के किट व अन्य जरूरी सामान दूसरे देश भारत को दे रहे हैं। जाहिर है, स्वास्थ्य क्षेत्र अचानक आए दबाव से लड़खड़ा गया है। ऐसे में चिकित्सकों, नर्सों और अन्य चिकित्साकर्मियों की भारी कमी का सामना भी करना पड़ रहा है। हालांकि हालात से निपटने के लिए सरकार ने सारे मोर्चे खोल दिए हैं। सेना की मेडिकल कोर में सेवाएं दे चुके सेवानिवृत्त चिकित्साकर्मियों की मदद भी ली जा रही है। यह स्थिति भारत के साथ ही नहीं, दुनिया के ज्यादातर पीड़ित देशों के साथ देखने को मिली है।

विशेषज्ञों का मानना है कि मई के मध्य तक हालात और विकराल रूप धारण कर सकते हैं। संक्रमितों की संख्या सात लाख रोजाना तक भी जा सकती है। जाहिर है, ऐसे में अस्पतालों की हालत क्या होगी, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। देश के ज्यादातर अस्पताल कोरोना मरीजों से अटे पड़े हैं। लोगों के लिए बड़े स्तर पर कामचलाऊ अस्पतालों का निर्माण किया जा रहा है। चिकित्साकर्मी चौबीसों घंटे जुटे हैं। ऐसे में इतना तो साफ है कि इस संकट से मुक्ति आसान नहीं है। जिस तरह के हालात हैं, उसमें अब बड़े पैमाने पर जनसहयोग की जरूरत है। जब इस तरह की आपदाएं आती हैं और हालात बेकाबू हो जाते हैं तो उससे निपटने में समाज की ही भूमिका ज्यादा बड़ी हो जाती है।

हालांकि सरकारें काम करती हैं, लेकिन एक बनी-बनाई व्यवस्था के तहत। फिर विकासशील देशों में सरकारों की कार्यसंस्कृति विकसित देशों की तरह दक्ष नहीं होती। ज्यादातर विकासशील देशों की व्यवस्था में नौकरशाही हावी रहती है, जो लीक से हटने में खतरे देखती है, अपने आकाओं को वक्त पर सही सलाह देने में हिचकती है। इस कारण इन देशों में आबादी की जरूरतों के हिसाब से संसाधनों का विकास नहीं हो पाता। आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबी और अभाव में रहने को मजबूर होता है। ये स्थितियां तब पनपती हैं जब सरकारें जनसरोकार वाली नहीं होतीं, नागरिकों के हित उनकी प्राथमिकता नहीं होते। यह सब हाल में हमने महसूस भी किया। वरना क्या कारण है कि आजादी के साढ़े सात दशक बाद भी भारत का स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र इतनी बदतर हालत में है कि देश के तमाम अस्पतालों में लोग सिर्फ आॅक्सीजन के अभाव में दम तोड़ रहे हैं।

इतिहास और अनुभव बताता है कि ऐसी महामारी के समय में लोगों को संकट से उबारने में संगठित समुदायिक प्रयास कारगर साबित होते हैं। भारत जैसे विशालकाय देश में पूरी तरह से सरकारों पर आश्रित नहीं रहा जा सकता। ऐसे में इस पर विचार करना जरूरी हो जाता है कि ऐसे संगठित सामुदायिक प्रयास किस प्रकार लोगों की मदद में सहायक हो सकते हैं और उन्हें कैसे सफल बनाया जा सकता है। यह सही है कि बड़े पैमाने पर महामारी से निपट पाना भारत सहित दुनिया भर की सरकारों के लिए काफी मुश्किलों भरा रहा है।

संक्रमण के प्रसार को रोकने, जांच करने, संक्रमितों के संपर्क में आए लोगों का पता लगा कर उन्हें अलग रखने और अस्पतालों में लोगों के इलाज से लेकर इसके बाद आने वाली सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां कम कठिन नहीं हैं। ऐसे में कोविड-19 प्रबंधन में एक व्यापक सहयोगी दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है, जिसमें महामारी के प्रबंधन के लिए सरकार के प्रयासों का समर्थन करने के लिए सामान्य नागरिकों एवं नागरिक समाज संगठनों की भागीदारी जरूरी हो जाती है। अगर इतिहास पर गौर करें, तो विपत्ति के समय नागरिक समाज ने स्थिति की बारीकी से निगरानी करके, सरकार की सहायता करने और सबसे कमजोर सामाजिक समूहों तक पहुंचने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस मामले में लोगों ने अपने स्तर सामुदायिक प्रयासों के जरिए पोलियो, खसरा-रूबेला और चेचक जैसी बीमारियों के प्रबंधन और उन्मूलन में सरकारों की सहायता की और उन अंतरालों को भरने में मदद की जहां सरकारें नहीं पहुंच सकती थीं।

बांग्लादेश में लगभग दो सौ गैर-सरकारी संगठन सरकार के साथ मिल कर लोगों को चिकित्सा और भोजन सहायता के लिए आर्थिक सहायता प्रदान कर रहे हैं। वे बेहद गरीब और पिछड़े लोगों में जाकर उन्हें स्वच्छता किट बांट रहे हैं और महामारी के बारे में जागरूकता फैला रहे हैं। सत्तर के दशक में भारत को अपने नागरिक संगठनों की सहायता के माध्यम से चेचक के उन्मूलन के लिए तैयार किया गया था।

तब डब्ल्यूएचओ द्वारा प्रशिक्षित हजारों स्वास्थ्य कार्यकर्ता और एक लाख सामुदायिक कार्यकर्ता देश में घर-घर गए दस करोड़ घरों, छह लाख गांवों और ढाई हजार से ज्यादा शहरों में सेवाएं दीं। वर्ष 1977 में जब भारत से ये घातक बीमारी समाप्त हो गई तब उनके अथक श्रम का फल सामने आया। इन पूर्व घटनाओं से सबक लेकर आज के हालात में हम ऐसे ही स्वयंसेवी समूहों की मदद ले सकते हैं जो लोगों को घर-घर जाकर हाथ धोने, मास्क लगाने, सुरक्षित दूरी के बारे में तो जागरूक करे ही, साथ ही लोगों की जांच और टीकाकरण जैसे बड़े अभियान को भी ऐसे प्रशिक्षित कार्यकतार्ओं के माध्यम से तेज किया जा सकता है।

सामुदायिक पहल और सहायता महामारी प्रबंधन की कुंजी है। सार्वजनिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के सामुदायिक प्रयास के प्रयोग के काफी सफल देखे गए हैं। हाल के संकट में एक सोसाइटी के लोगों ने अपने सामूहिक प्रयासों से आकस्मिक चिकित्सा के लिए सीमित बिस्तरों वाला आइसीयू बना लिया। मंदिरों, मस्जिद और गुरद्वारों के प्रबंधन ने अस्थायी कोविड अस्पताल बना कर लोगों की मदद की पहल की है, ताकि लोग अस्पताल के संकट से बचें और अस्पताल भी लोगों की भीड़ से बचें। ऐसे सामुदायिक प्रयास महामारी से निपटने में सरकार की बड़ी मदद कर सकते हैं।

कोरोना महामारी से उत्पन्न चुनौतियों दो तरह की हैं। पहली तो बेहद आकस्मिक है जिसमें लोगों की जान बचाने के लिए परस्पर सहयोग से जीवन-रक्षक चिकित्सा का सामान जैसे आॅक्सीजन सिलेंडर, दवाइयां और अस्पताल के बिस्तर उपलब्ध कराने जैसे इंतजाम करना। दूसरी चुनौती उन लोगों को भी मदद देकर पटरी पर लाने की है जो महामारी संकट से उत्पन्न हालात के कारण आजीविका नहीं चला पा रहे हैं। बड़ी आबादी ऐसे लोगों की है जो दिहाड़ी मजदूरी करके पेट भरती है। ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिए संगठनात्मक तरीके से तकनीक का इस्तेमाल किया जा सकता है।

कई शहरों में ऐसे डेटाबेस और वेबपोर्टल बनाए गए हैं जो तत्काल इस बात की जानकारी देते हैं कि कोरोना के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवाई-इंजेक्शन या आॅक्सीजन किस जगह पर उपलब्ध है या कौन से अस्पताल में अभी बिस्तर उपलब्ध है। ऐसे वेब पोर्टल कुछ तो सरकारी एजेंसियों द्वारा बनाये गए थे, लेकिन ज्यादातर ये लोगों के खुद के सामूहिक प्रयासों से ही बनाए गए। इसी प्रकार से राजस्थान के एक गांव में वहां की एक स्वयंसेवी संस्था ने पिछले साल पूर्णबंदी लगने के बाद से विस्थापित होने वाले मजदूरों के परिवारों के लिए नियमित स्वास्थ्य जांच और उनको रोजमर्रा के लिए राशन पहुंचाने का काम किया। कई महिला स्वयंसेवी समूहों ने आचार-पापड़ बनाने से लेकर अन्य सहकारी कुटीर उद्योगों की स्थापना की और लोगों को रोजगार भी दिया।

हालांकि इस भय और अनिश्चितता के माहौल में भविष्य में हमारे सामान्य जीवन का लौटना मुश्किल दिख रहा है। लेकिन एक बात जो विश्वास के साथ कही जा सकती है, वह यह है कि हमारे समाज के सामूहिक प्रयास ही आशा की किरण हैं। अगर हम महामारी पर विजय प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें सरकारी प्रयासों के साथ-साथ इन्हें भी जारी रखना होगा।

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Tuesday, May 4, 2021

हद लाचारी की (जनसत्ता)

अस्पतालों को आॅक्सीजन नहीं मिल पाने का मसला गंभीर है। सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाई कोर्ट की सख्ती से भी हालात सुधरे नहीं हैं। रविवार को दिल्ली के बतरा अस्पताल में बारह कोरोना संक्रमितों की मौत हो गई। गुड़गांव के एक अस्पताल में भी छह लोग आॅक्सीजन की कमी से मर गए। बात सिर्फ दिल्ली तक ही सीमित नहीं है। कर्नाटक के चामराजनगर के जिला अस्पताल में चौबीस लोगों के मरने की खबर है। इन मौतों का कारण भी आॅक्सीजन न होना बताया गया है। और ऐसी खबरें राजस्थान, मध्य प्रदेश सहित दूसरे राज्यों से भी आ रही हैं। पर दिल्ली का मामला सुर्खियों में इसलिए है कि यह देश की राजधानी है।

ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि जब यहां कोरोना मरीज सिर्फ इसलिए मर रहे हैं कि अस्पतालों में बिस्तर, आॅक्सीजन और दवाइयां नहीं हैं तो और जगह क्या हाल होगा! अब कोई संशय नहीं बचा कि सरकारों ने हाथ खड़े कर दिए हैं। ऊपर से हैरत यह है कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने सोमवार को भी देश में पर्याप्त चिकित्सा आॅक्सीजन का दावा किया। पिछले एक हफ्ते में आॅक्सीजन उत्पादन में वृद्धि की बात कही। और फिर भी लोग आॅक्सीजन के अभाव में दम तोड़ रहे हों तो इसका दोषी किसे ठहराया जाए?

दिल्ली में पर्याप्त आॅक्सीजन की व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार को पहले ही चेता चुका है। इससे पहले दिल्ली हाई कोर्ट ने भी इस मसले कड़ी टिपप्णियां की थीं। अदालत ने केंद्र को चेतावनी दी थी कि अगर समय पर आॅक्सीजन का बंदोबस्त नहीं किया तो उसे अवमानना का सामना करना पड़ेगा। लेकिन इससे ज्यादा हैरत की बात क्या होगी कि केंद्र ने अदालत से इस आदेश को वापस ले लेने को कहा। सरकार की दलील थी कि अवमानना से अधिकारियों का मनोबल गिरेगा। व्यवस्था को दुरुस्त करने से ज्यादा चिंता केंद्र सरकार को अपने अधिकारियों के मनोबल की सताने लगी है।

अपनी नाकामियों का इस तरह से बचाव करना सरकार के लिए शर्म की बात होनी चाहिए। सरकारों का ऐसा रवैया बताता है कि उनके लिए लोगों की जान की कोई कीमत नहीं है। पिछले चार-पांच दिनों में सिर्फ इतनी ही प्रगति हुई है कि अदालतों की फटकार के बाद केंद्र ने आॅक्सीजन उत्पादन बढ़ाने की दिशा में कदम बढ़ाया। राज्यों से रेल टैंकरों के जरिए आॅक्सीजन अस्पतालों तक पहुंचाने की कवायद शुरू हुई। लेकिन यह सब तब देखने को मिला जब बड़ी अदालतों ने मोर्चा संभाला। अगर सरकारों में जरा भी जिम्मेदारी का भाव होता तो हालात बिगड़ने से पहले ही मोर्चा संभाल लेतीं और बड़ी संख्या में लोगों की जान सिर्फ इसलिए नहीं जाती कि आॅक्सीजन नहीं मिली।

अभी दिल्ली के अस्पतालों में आॅक्सीजन आपूर्ति सामान्य नहीं हो पाई है। इससे हालात किस तरह चरमरा गए हैं, यह खुल कर उजागर हो चुका है। आॅक्सीजन की कमी से अस्पतालों ने गंभीर मरीजों तक को भर्ती करना बंद कर दिया है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि आखिर मरीज जाएंगे कहां। क्या सड़कों पर पड़े दम तोड़ते रहेंगे? संक्रमण फैलाव की रफ्तार को देख कर लगता नहीं कि इससे जल्दी छुटकारा मिल जाएगा। और अब तो विशेषज्ञ तीसरी लहर का बात भी कह रहे हैं। जाहिर है, आने वाले वक्त में आॅक्सीजन की भारी जरूरत पड़ेगी। संभवत इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से आॅक्सीजन का अतिरिक्त भंडार भी तैयार रखने को कहा है। यह राज्यों को अब तक आबंटत कोटे के अलावा होगा। अगर अब भी सरकारें नहीं चेतीं तो महामारी से इतर संकट भी खड़े हो सकते हैं।

सौजन्य - जनसत्ता।
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इलाज का हक (जनसत्ता)

हाल में ऐसी कई खबरें आर्इं कि कोरोना से संक्रमित मरीजों को अस्पताल भर्ती करने से मना कर दिया गया। कभी किसी मरीज के दूसरे राज्य का निवासी होने को आधार बताया गया तो कहीं किसी और वजह से इनकार कर दिया गया। सवाल है कि संक्रमण की चपेट में आने के बाद बीमार हुए व्यक्ति को ऐसी वजहों से क्या किसी अस्पताल में इलाज करने से मना किया जा सकता है! यह न केवल तकनीकी आधार पर पूरी तरह गलत है, बल्कि एक बेहद अमानवीय रुख है। अगर कहीं ऐसे मामले सामने आए हैं तो अस्पतालों और उनके प्रबंधनों को इस मसले पर ठहर कर सोचना चाहिए। लेकिन ऐसी खबरें बताती हैं कि कागज पर दर्ज नियम-कायदों के बरक्स इस बीमारी की जद में आए लोगों को जमीनी स्तर पर कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।

अलग-अलग जगहों पर भिन्न कारण बता कर इलाज की गुहार लगाते मरीजों और उनके परिजनों को अस्पताल में दाखिल नहीं होने दिया गया। इसलिए यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या मरीजों को भर्ती करने की स्थितियों के संबंध में एक राष्ट्र्ीय नीति बनाई जा सकती है! दरअसल, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के कुछ अस्पतालों में कोविड-19 संक्रमित मरीजों को भर्ती करने के लिए स्थानीय पते का प्रमाण मांगने से संबंधित कुछ खबरें आर्इं तो सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले पर स्वत: संज्ञान लिया। अदालत ने केंद्र सरकार से इसके लिए एक समान और राष्ट्रीय नीति बनाने के बारे में जानकारी मांगी और कहा कि अस्पतालों द्वारा मरीजों को दाखिले के लिए किसी स्थानीय पते की मांग नहीं की जाए।

यों किसी भी बीमारी के इलाज के मामले में मरीज से अनिवार्य तौर पर स्थानीय पते की मांग करने को सही नहीं कहा जा सकता। मगर यह विचित्र है कि जिस दौर में देश महामारी के संकट से गुजर रहा है और हर तरफ लोग एक बड़ी त्रासदी का सामना कर रहे हैं, वैसे में अस्पताल संक्रमण की चपेट में आए किसी व्यक्ति का इलाज करने के लिए उससे स्थानीय पते की मांग करें! गौरतलब है कि एक व्यक्ति को नोएडा के अस्पताल में भर्ती करने से इसलिए इनकार कर दिया गया कि उसके आधार कार्ड पर मुंबई का पता था। कुछ अस्पताल अपने यहां भर्ती करने के लिए कोविन ऐप पर पंजीकरण पर जोर देते हैं। इसी तरह दिल्ली में अस्पताल में भर्ती होने के लिए एसडीएम के हस्ताक्षर वाले आदेश की जरूरत बताए जाने की खबरें आर्इं।

यह शायद अलग से दर्ज करने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए कि चिकित्सा सुविधाओं को हासिल करना देश के नागरिकों का एक मौलिक अधिकार है। लेकिन क्या अलग-अलग राज्यों में सरकारें, नौकरशाही या कोई अस्पताल अपनी सुविधा से इस अधिकार को खारिज कर सकते हैं? यह खबर अपने आप में अमानवीय है कि गुजरात के एक अस्पताल के बाहर इलाज के अभाव में दो मरीजों की मौत हो गई, क्योंकि उन्हें ‘108’ एंबुलेंस सेवा से नहीं, बल्कि निजी वाहन में लाया गया था और उन्हें अस्पताल में भर्ती करने से इनकार कर दिया गया था।

अब तक यही माना जाता रहा है कि किसी को भी चिकित्सा सहायता से सिर्फ इसलिए वंचित नहीं किया जा सकता कि उसके पास अपने स्थानीय होने के निवास का प्रमाण नहीं है। नियमों के तहत और मानवीयता के नाते भी मरीज का यह अधिकार है कि जरूरत के मुताबिक वह किसी जगह इलाज कराए। लेकिन अगर कहीं अस्पतालों की ओर से निजी स्तर पर तो कहीं नई व्यवस्था के तहत मरीजों के अधिकारों का हनन हो रहा है या फिर अमानवीय रुख दर्शाया जा रहा है तो इस पर तत्काल रोक की जरूरत है।

सौजन्य - जनसत्ता।
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Monday, May 3, 2021

जनादेश के मायने (जनसत्ता)

पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी के चुनाव नतीजों ने साबित कर दिया कि लालच, पैसे, झूठे वादों, ताकत या धमका कर सत्ता हासिल नहीं की जा सकती। सत्ता में वही आ पाएगा जिसे जनता चाहेगी। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी तीसरी बार सरकार बनाएंगी। वैसे तो चुनाव चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में थे, लेकिन निगाहें सबकी बंगाल के नतीजों पर ही थीं। साल भर से राज्य में जिस तरह से चुनावी तैयारियां चल रही थीं, उससे इस राज्य की राजनीतिक अहमियत का पता चलता है।

गौरतलब है कि बंगाल की सत्ता हासिल करने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने सारे संसाधन झोंक डाले। लेकिन उस हिसाब के नतीजे नहीं आए। बंगाल की जनता ने कांग्रेस और वामदलों को भी लगभग शून्य कर दिया। किसके वोट किधर गए या ध्रुवीकरण के गणित ने कैसे काम किया, इन सवालों में अब ज्यादा उलझने की जरूरत नहीं है। लेकिन अगर तीसरी बार जनता ने ममता बनर्जी को सत्ता सौंपी है तो निश्चित ही उसके ठोस कारण हैं।

तृणमूल की इस बार की जीत ने ममता के लिए राट्रीय राजनीति के दरवाजे खोल दिए हैं। भविष्य में वे विपक्ष का बड़ा चेहरा बन सकती हैं। इस जीत का यह संदेश गया है कि ममता बनर्जी के दस साल के शासन को लेकर राज्य में कोई सत्ता विरोधी कारक नहीं रहा। इसे भी देखना चाहिए कि आम जनता, खासतौर से गरीब तबके से ममता का सीधा जुड़ाव रहा। उनकी छवि शानो-शौकत वाली नहीं रही। वे जमीन से जुड़ी और एक जुझारू नेता मानी जाती हैं।

शहरों और गांवों दोनों पर उनकी पकड़ है। उनकी चुनावी रणनीति पांच सितारा होटलों में नहीं बल्कि जमीनी हालात के बीच बनी दिखाई दी। चुनावों से पहले तृणमूल कांग्रेस के सांसदों, विधायकों को तोड़ने का भाजपा ने जो अभियान चलाया, उसके नीहितार्थ समझने में भी बंगाल की जनता को देर नहीं लगी। लगता है, प्रचार के दौरान ममता बनर्जी के लिए जिस तरह के शब्दों और व्यंग्य वाणों का इस्तेमाल होता रहा, उससे राज्य की जनता ने बड़े अपमान के रूप में लिया। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो बंगाल में भाजपा के सत्ता में आने पर एंटी रोमियो स्क्वाड बनाने तक की बात कह दी थी। संभव है, इस बात से युवा मतदाता भी बिदके होंगे। भ्रष्टाचार, कट मनी, अल्पसंख्यक, एनआरसी जैसे मुद्दे बिल्कुल नहीं चले।

ममता बनर्जी की चुनौतियां अब कहीं ज्यादा बड़ी हैं। राज्य में उनके सामने विपक्ष के रूप में भाजपा होगी। इतना ही नहीं, दूसरे राज्यों की तरह बंगाल में भी कोरोना से हालात बदतर हो रहे हैं। ऐसे में सरकार और विपक्ष का सारा जोर मिल कर महामारी से निपटने पर होना चाहिए, न राजनीति करने पर। वरना जिस तरह का टकराव दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार में देखने को मिल रहा है, वैसी स्थिति बंगाल में बनते देर नहीं लगेगी। देखा जाए तो विधानसभा चुनावों के ये नतीजे केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बन कर उभरे हैं।

असम के अलावा कहीं भाजपा को बड़ी कामयाबी नहीं मिली। पुडुचेरी में वह गठबंधन कर सरकार बनाएगी। बंगाल में सौ का आंकड़ा भी नहीं छू पाना बता रहा है कि सिर्फ केंद्र की ताकत के बल पर क्षेत्रीय दलों को नहीं हराया जा सकता। अगले साल पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव हैं। बंगाल के नतीजों ने पार्टी को जो झटका दिया है, वह एक सबक है। यह सबक हर जीतने और सरकार बनाने वाले दल के लिए भी है।

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फिर वही संकट (जनसत्ता)

कोरोना का असर अर्थव्यवस्था पर एक बार फिर दिखने लगा है। पिछले साल जब संकट की शुरूआत हुई थी, तब भी वक्त यही था। इस साल की पहली तिमाही के आंकड़े आने में तो चार महीने लगेंगे, लेकिन हालात के संकेत गंभीर हैं। पिछले साल हड़बड़ी में की गई अड़सठ दिन की पूर्णबंदी से अर्थव्यवस्था अभी उबर भी नहीं पाई कि फिर से आंशिक बंदी और प्रतिबंधों ने कारोबारियों में खौफ पैदा कर दिया। इस बार संकट कही ज्यादा गहरा है।

संक्रमण जिस रफ्तार से बढ़ रहा है, जल्द ही पांच लाख रोजाना का आंकड़ा छू जाएगा। सरकारें एकदम लाचार हैं। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों के कहने के बावजूद अस्पतालों में आॅक्सीजन आपूर्ति सुचारू नहीं हो पा रही है। ऐसे में लोगों को मरने से कौन बचा सकता है? इसलिए यह सवाल उठना लाजिमी है कि जो सरकार नागरिकों को आॅक्सीजन और दवाइयां मुहैया करवा पाने में नाकाम साबित हो रही हो, वह अर्थव्यवस्था को कैसे बचा पाएगी?

कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिस पर दूसरी लहर का असर नहीं दिख हो रहा हो। सबसे ज्यादा दुर्गति तो असंगठित क्षेत्र के उद्योगों और कामगारों की हो रही है। अर्थव्यवस्था में असंगठित क्षेत्र की भूमिका सबसे बड़ी है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में इसका भारी योगदान रहता है। सबसे ज्यादा श्रम बल भी इसी क्षेत्र में लगा है। ऐसे में पूर्णबंदी, आंशिक बंदी, कारोबार बंद रखने के प्रतिबंध अर्थव्यवस्था को फिर से गर्त में धकेल देंगे। गौरतलब है कि महाराष्ट्र में जिस तरह की सख्त पाबंदियां लगी हैं, वे पूर्णबंदी से कम नहीं हैं। राज्य के कई शहरों में बाजारों के खुलने का वक्त सीमित कर दिया गया है। मंडियां कुछ घंटे के लिए खुल रही हैं।

इसका असर यह हुआ है कि जो लाखों लोग दिहाड़ी मजदूरी या अन्य छोटा-मोटा काम कर गुजारा चला रहे थे, वे अब खाली हाथ हैं। उनके काम-धंधे चौपट हैं। मुंबई और दूसरे औद्योगिक शहरों से बड़ी संख्या में एक बार फिर कामगारों के लौटने का सिलसिला चल पड़ा है। ऐसा हाल सिर्फ महाराष्ट्र ही नहीं, कमोबेश सभी राज्यों का है। मसलन दिल्ली में दो हफ्ते से बंदी जारी है और बंदी की घोषणा होते ही कामगार लौटने लगे थे।

देश के बड़े थोक बाजार, व्यापारिक प्रतिष्ठान बंद होने से हजारों करोड़ रुपए रोजाना का नुकसान होता है। फिर हर कारोबार एक दूसरे से किसी न किसी रूप से जुड़ा है और करोड़ों लोग इनमें काम करते हैं। छोटे उद्योग तो कच्चे माल से लेकर उत्पादन और आपूर्ति-विपणन तक में दूसरों पर निर्भर होते हैं। इसलिए जब बाजार बंद होंगे, लोग निकलेंगे नहीं तो कैसे तो माल बिकेगा और कैसे नगदी प्रवाह जारी रहेगा। यह पिछले एक साल में हम भुगत भी चुके हैं।

इधर, वित्त मंत्रालय भरोसा दिलाता रहा है कि दूसरी लहर का आर्थिक गतिविधियों पर असर ज्यादा नहीं पड़ेगा। लेकिन जिस व्यापक स्तर पर कारोबारी गतिविधियों में ठहराव देखने को मिल रहा है, उससे आने वाले दिनों में अर्थव्यवस्था पर मार पड़ना लाजिमी है। मुद्दा यह है कि आबादी का बड़ा हिस्सा जो होटल, पर्यटन, खानपान, थोक और खुदरा कारोबार, आपूर्ति, मनोरंजन, परिवहन सेवा, सेवा क्षेत्र आदि से जुड़ा है, वह कैसे बंदी को झेल पाएगा।

काम बंद होने पर कंपनियां वेतन देने में हाथ खड़े कर देती हैं। निर्माण क्षेत्र और जमीन जायदाद कारोबार की हालत छिपी नहीं है। निर्माण कार्य ठप पड़ने से मजदूर बेरोजगार हैं। इससे सीमेंट, इस्पात और लोहा जैसे क्षेत्रों में भी उत्पादन प्रभावित हो रहा है। वाहन उद्योग भी रफ्तार नहीं पकड़ पा रहा है। यह तस्वीर पिछले साल के हालात की याद दिलाने लगी है। अगर एक बार फिर से लंबी बंदी झेलनी पड़ गई तो अर्थव्यवस्था को पिछले साल जून की हालत में जाते देर नहीं लगेगी।

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Saturday, May 1, 2021

निगरानी का दायरा (जनसत्ता)

महामारी से निपटने के तौर-तरीकों को लेकर केंद्र सरकार के रवैए पर सुप्रीम कोर्ट ने गहरी नाराजगी जताई। अदालत ने कहा कि ऑक्सीजन के बिना लोग दम तोड़ रहे हैं। एक-एक सिलेंडर के लिए लंबी कतारें लग रही हैं। लोग रो रहे हैं। जबकि केंद्र सरकार लगातार ऑक्सीजन की कमी नहीं होने का दावा कर रही है। लेकिन हालात हकीकत को बयां करने के लिए काफी हैं। अदालत ने यहां तक कहा कि यह वक्त सियासत का नहीं है। यह समय लोगों की जान बचाने का है। अदालतों की चिंता वाजिब है। लोग गुहार लगाएं भी तो किसके सामने?

गौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत ने तेईस अप्रैल को मामले का स्वत: संज्ञान लिया था। ऑक्सीजन की कमी पर दिल्ली हाई कोर्ट भी केंद्र और दिल्ली सरकार को जरूरी निर्देश दे चुका है। लेकिन हैरत की बात है कि बड़ी अदालतों की इतनी सक्रियता और सतत निगरानी के बावजूद हालात जस के तस हैं। रत्ती भर फर्क नहीं पड़ा। ऑक्सीजन का संकट बना हुआ है। और इसलिए दिल्ली हाई कोर्ट ने गुरुवार को केंद्र सरकार से पूछा कि आखिर क्यों नहीं अस्पतालों को ऑक्सीजन की आपूर्ति हो पा रही है। पर सरकारों के पास ऐसे सवालों का कोई ठोस जवाब नहीं है, बल्कि केंद्र और राज्य ऑक्सीजन की कमी और आपूर्ति के मुद्दे पर एक दूसरे पर ठीकरा फोड़ने में लगे हैं।

ऑक्सीजन संकट के मुद्दे पर केंद्र और राज्यों खासतौर से दिल्ली सरकार के बीच टकराव विचलित करने वाला है। हजारों लोगों की मौतों के बाद भी सरकारें संवेदनहीनता दिखा रही हैं। सरकारों का ऐसा निष्ठुर रवैया सरकारी कार्य-संस्कृति की झलक देता है। वरना क्या कारण है कि हफ्ते भर के भीतर ऑक्सीजन आपूर्ति का सिलसिला नहीं बन पाया। दिल्ली सरकार कह रही है कि केंद्र जरूरत से काफी कम ऑक्सीजन दे रहा है, जबकि केंद्र कह रहा है कि दिल्ली सरकार टैंकरों का बंदोबस्त नहीं कर पा रही। बहुत संभव है कि इसीलिए सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि इस मुद्दे पर सियासत न हो।


टैंकरों के इंतजाम में दिल्ली सरकार को अगर समस्या आ भी रही है तो मदद के लिए केंद्र को आगे आना चाहिए। ऑक्सीजन आंवटन के मुद्दे पर पर भी हाई कोर्ट ने केंद्र से पूछा कि आखिर दिल्ली को उसकी मांग के मुताबिक ऑक्सीजन क्यों नहीं मिल रही। जबकि महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश को मांग से ज्यादा ऑक्सीजन आवंटित कर दी गई। अगर अदालत केंद्र से ऐसे सवाल पूछ रही है तो निश्चित रूप से उसे कहीं उसके फैसले में कुछ तो गलत लग रहा है!


टीकों के अलग-अलग दाम को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट ने सवाल पूछे हैं। कंपनियों ने जिस तरह से मोलभाव की नौबत खड़ी कर दी, उसे कहीं से उचित नहीं कहा जा सकता। राज्यों को अलग दाम पर और केंद्र को उससे भी सस्ता टीका देने की बात है। सर्वोच्च अदालत को यह खटका है। टीके के दाम से लेकर टीकाकरण अभियान को लेकर फैसले हड़बड़ी में हुए लगते हैं।

वरना राज्य क्यों एक मई से अठारह साल से उपर के लोगों को टीका लगाने के मामले में हाथ खड़े कर देते? क्यों अदालत को यह कहना पड़ा कि राज्यों को टीके मुहैया कराने का फैसला कंपनियों पर नहीं छोड़ा जा सकता, यह केंद्र के नियंत्रण में होना चाहिए? अदालत का यह सवाल भी तार्किक ही है कि केंद्र्र सरकार सारे टीके क्यों नहीं खरीद रही। टीका निर्माताओं को खुली छूट देना उनकी मनमानी को बढ़ावा देना होगा। अदालत ने सभी लोगों को मुफ्त में टीका लगाने के बारे में भी विचार करने को कहा है। बेशक इस वक्त सरकारें लाचारी की हालत में हैं। ऐसे में अदालतें सरकारों को जिम्मेदारी का भान करवा रही हैं।

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अभिव्यक्ति के हक में (जनसत्ता)

संकट में पड़े लोगों को सहायता पहुंचाना सरकारों की जिम्मेदारी होती है। इस क्रम में यह देखना जरूरी नहीं होता कि किसी प्रभावित व्यक्ति ने मदद की मांग की है या नहीं। लेकिन कई बार संकट का दायरा बड़ा होता है और लोगों के सामने सरकार से मदद मिलने का इंतजार करने के बजाय उससे अपने स्तर पर निपटना प्राथमिक चुनौती होती है। कभी ऐसा भी हो सकता है कि सरकारी व्यवस्था में लापरवाही, कोताही या फिर कमी की वजह से संकट गहरा जाता है।

ऐसी स्थिति में एक सभ्य समाज में अपने आप मानवीय आधार पर एक दूसरे की मदद का एक असंगठित तंत्र काम करना शुरू कर देता है और हर संवेदनशील व्यक्ति अपनी सीमा में किसी जरूरतमंद की मदद करता है या जरूरी सूचनाएं पहुंचाता है। किसी भी समाज में इस तरह मदद की भावना को लोगों के संवेदनशील और मानवीय मूल्यों के प्रति जागरूक होने के तौर पर देखा जाना चाहिए। विडंबना यह है कि कई बार सरकारें इस तरह की गतिविधियों को खुद को कठघरे में खड़ा करने के तौर पर देखने लगती हैं। सवाल है कि जो काम करना सरकार की जिम्मेदारी है, उसमें नाकाम होने पर शर्मिंदगी महसूस करने के बजाय वह उल्टे एक दूसरे की मदद करने वाली जनता पर शिकंजा कसना क्यों शुरू कर देती है!

शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने इसी रवैए पर तीखा सवाल उठाया कि कोई भी राज्य कोविड-19 के बारे में सूचनाओं के प्रसार पर शिकंजा नहीं कस सकता है और इंटरनेट पर मदद की गुहार लगा रहे नागरिकों को यह सोच कर चुप नहीं कराया जा सकता कि वे गलत शिकायत कर रहे हैं। अदालत ने यहां तक कहा कि सोशल मीडिया पर लोगों से मदद के आह्वान सहित सूचना के स्वतंत्र प्रवाह को रोकने के किसी भी प्रयास को न्यायालय की अवमानना माना जाएगा।


शीर्ष अदालत का यह फैसला हाल ही में उत्तर प्रदेश प्रशासन के उस फैसले के संदर्भ में आया है, जिसमें कहा गया कि सोशल मीडिया पर महामारी के संबंध में कोई झूठी खबर फैलाने के आरोप में राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत मुकदमा चलाया जाएगा। एक खबर के मुताबिक उत्तर प्रदेश में एक व्यक्ति ने अपने अठासी वर्षीय बीमार दादा को ऑक्सीजन मुहैया कराने के लिए सोशल मीडिया पर मदद मांगी थी और पुलिस ने डर फैलाने का आरोप लगा कर उसके खिलाफ महामारी अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया।


उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मदन बी लोकुर ने एक व्याख्यान में इस पर ठीक ही सवाल उठाया कि इस तरह मदद मांगने वाला व्यक्ति क्या कोई अपराध कर रहा है! उन्होंने कहा कि दरअसल ये तरीके और साधन हैं, जिनके जरिए बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में कटौती की जा रही है। दरअसल, पिछले कुछ दिनों से कोरोना संक्रमितों के इलाज के लिए अस्पतालों में बिस्तरों और ऑक्सीजन की कमी एक बड़ी समस्या बनी हुई है।

जाहिर है, यह स्थिति सरकार और समूचे स्वास्थ्य तंत्र के चरमरा जाने की वजह से आई है। ऐसे में लोग सोशल मीडिया के जरिए बीमारी की वजह से संकट में पड़े लोगों के लिए ऑक्सीजन या बिस्तर मुहैया कराने के लिए मदद की गुहार लगा रहे हैं और सूचना सार्वजनिक होने पर उन्हें सहायता मिल भी रही है। लेकिन इससे यह भी जाहिर हो रहा था कि सरकार की व्यवस्था में कमी है। और शायद उत्तर प्रदेश सरकार को यही बात खल गई। अफसोस की बात यह है कि आम लोगों की जिस पहलकदमी से सरकार को स्वास्थ्य सेवाओं में कमियों में सुधार की कोशिशें शुरू करनी चाहिए थी, नागरिकों की जागरूकता और संवेदनशीलता की तारीफ करनी चाहिए थी, उसने ऐसी सूचनाएं जारी करने वालों पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया।

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Friday, April 30, 2021

दबदबे की रणनीति (जनसत्ता)

अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने हिंद प्रशांत क्षेत्र में सैन्य दबदबा बनाए रखने का इरादा जाहिर कर दिया है। उनके इस फैसले में चीन को लेकर बढ़ती चिंताओं की झलक साफ दिख रही है। अगर अमेरिका अपने से काफी दूर समुद्री भूभाग पर सैन्य मजबूती के साथ बने रहने की ठाने हुए है तो इसके पीछे उसकी दूरगामी नीतियां भी हैं।

वह दूर की सोच कर चल रहा होगा। वरना कोई देश क्यों दूसरे महाद्वीपों में अपना सैन्य जमावड़ा बढ़ाएगा? जैसा कि बाइडेन ने अमेरिकी कांग्रेस को बताया है कि वे चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को अपने इरादों के बारे में बता चुके हैं। हिंद प्रशांत क्षेत्र में स्थिति मजबूत बनाने के पीछे मकसद किसी संघर्ष का नहीं, बल्कि शक्ति संतुलन बनाए रखना है। दरअसल, चीन की विस्तारवादी नीतियों से अमेरिका की नींद उड़ी हुई है। दक्षिण चीन सागर से लेकर हिंद महासागर और जापान से लगते प्रशांत महासागर में कहीं चीन अपना बर्चस्व न कायम कर ले, इसीलिए अमेरिका उसे साधने में लगा है।

लंबे समय से अमेरिका और चीन के बीच रिश्तों में जिस तरह का तनाव देखने को मिल रहा है, वह मामूली नहीं है। अगर आज अमेरिका अपने सामने सबसे बड़ी चुनौती के रूप में किसी को खड़ा देख रहा है तो वह चीन ही है। दुनिया के बाजारों से लेकर महासागरों तक को अपने कब्जे में लेने के लिए दोनों देशों में प्रतिस्पर्धा का अंतहीन सिलसिला चल रहा है। व्यापार युद्ध अभी थमा नहीं है। दुनिया के बाजार पर आधिपत्य के लिए दोनों देश एक दूसरे को पछाड़ने वाली व्यापार नीतियों पर चल रहे हैं। दुनिया जिस महामारी की मार झेल रही है, अमेरिका को उसके पीछे भी चीन का हाथ लग रहा है। पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तो बाकयदा इसकी जांच से लेकर जासूसी जैसे कदम तक उठाए थे। गौरतलब है कि अंतरिक्ष में भी चीन दुनिया की बड़ी ताकत बन चुका है। अब तो वह अपना अंतरिक्ष स्टेशन भी अलग से बनाने जा रहा है। इसके अलावा रूस और पाकिस्तान जैसे देशों के साथ चीन के मजबूत रिश्ते अमेरिका के लिए भारी पड़ रहे हैं। जाहिर है, वैश्विक राजनीति में भी अमेरिका चीन की बढ़ती ताकत को पचा नहीं पा रहा।

यह याद रखा जाना चाहिए कि हिंद प्रशांत क्षेत्र दुनिया का समुद्री कारोबार का सबसे महत्त्वपूर्ण रास्ता भी है। यह सामरिक लिहाज से भी संवेदनशील है। दक्षिण चीन सागर में तो चीन ने अपने सैन्य अड्डे तक बना रखे हैं। वियतनाम, फिलीपीन जैसे देशों की समुद्री सीमा पर अतिक्रमण की घटनाएं किसी से छिपी नहीं हैं। जापान के साथ सेनकाकू प्रायद्वीप को लेकर टकराव बना हुआ है। ताइवान को लेकर भी चीन और अमेरिका के बीच अप्रिय स्थितियां देखने को मिलती रही हैं।

साफ है कि हर तरह से चीन अमेरिका के लिए बड़ी मुश्किल बन रहा है। ऐसे में चीन की घेरेबंदी के लिए हिंद प्रशांत क्षेत्र में अपनी सैन्य मौजूदगी बनाना अमेरिका की जरूरत भी है। आॅस्ट्रेलिया, भारत और जापान को साथ लेकर अमेरिका ने जो क्वाड संगठन खड़ा किया है, उसके मूल में भी यही रणनीति है। गौरलतब है कि चीन ने वर्ष 2027 तक अपनी सैन्य ताकत को अमेरिका के बराबर लाने का लक्ष्य रखा है। चीन अमेरिकी विदेश नीति का एक संवेदनशील मुद्दा बन चुका है। अमेरिका में राजनेताओं से लेकर उद्योगपति तक चीन के खिलाफ सख्त नीतियों और कदमों की मांग कर रहे हैं। ऐसे में अमेरिका और चीन किस तरह का संतुलन बना कर आगे बढ़ते हैं, इस पर सारी दुनिया की नजर रहेगी।

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अभाव का टीका (जनसत्ता)

देश में महामारी की तस्वीर जिस कदर बिगड़ती जा रही है, उससे साफ है कि इसमें जितनी भूमिका संक्रमण के फैलाव की है, उससे ज्यादा यह स्थिति इससे निपटने में प्रबंधन के स्तर पर मौजूद कमियों की वजह से आई है। एक ओर जांच का दायरा ज्यों-ज्यों फैल रहा है, वैसे-वैसे यह उभर कर सामने आ रहा है कि विषाणु के पांव किस हद तक फैल रहे हैं, तो दूसरी ओर अस्पतालों में बुनियादी संसाधनों तक के अभाव से लेकर अव्यवस्था की वजह से काफी लोगों की मौत हो रही है। ऐसे में कोरोना की रोकथाम के लिए आॅक्सीजन और दवाइयों के समांतर सबसे कारगर उपाय टीकाकरण को माना जा रहा है। हालांकि अलग-अलग आयु वर्ग के लोगों को टीका लगाए जाने की शुरुआत हो चुकी है और उसके बाद से अब तक चौदह करोड़ से ज्यादा लोगों का टीकाकरण किया जा चुका है। संसाधनों के अभाव के बीच यह एक संतोषजनक उपलब्धि है। लेकिन यह भी सच है कि आबादी के अनुपात में अभी सबको टीका उपलब्ध करा पाना इतना आसान काम नहीं है।

महामारी की गंभीरता के मद्देनजर पिछले दिनों यह घोषणा तो कर दी गई कि अब एक मई से अठारह से पैंतालीस साल उम्र तक के लोग टीका लगवा सकेंगे, लेकिन इससे पहले यह सुनिश्चित करने की जरूरत शायद नहीं समझी गई कि आबादी के इतने बड़े हिस्से के लिए टीकों की उपलब्धता कितनी है। अब हालत यह है कि महाराष्ट्र, दिल्ली, राजस्थान, छत्तीसगढ़, असम आदि राज्यों में निर्धारित तारीख से इस आयु वर्ग के लोगों के लिए टीकाकरण की शुरुआत कर पाना संभव नहीं है। कई अन्य राज्यों में भी टीकों की पर्याप्त खुराक उपलब्ध नहीं होने की वजह से यह कार्यक्रम अधर में लटकता दिख रहा है।

दरअसल, आबादी के इतने बड़े हिस्से को अचानक ही आसानी से टीका लगाना एक व्यापक और जटिल काम है। पहले साठ और फिर पैंतालीस वर्ष से ऊपर के लोगों को टीका लगाने का कार्यक्रम अभी चल ही रहा था और उसमें भी अभी बहुत सारे जरूरतमंद टीके का इंतजार कर रहे थे। इस बीच अठारह से पैंतालीस साल के आयु वर्ग के लिए टीकाकरण की घोषणा हो गई।

यह ध्यान रखने की जरूरत है कि अन्य आयु वर्गों की अपेक्षा अठारह से पैंतालीस साल के आयु वर्ग की आबादी काफी बड़ी है और सबको टीके मुहैया करा पाना इसकी उपलब्धता पर ही निर्भर है। यों देश भर में और अलग-अलग राज्यों की जरूरत के मुताबिक टीका तैयार करने के लिए विभिन्न कंपनियों को कहा गया है, मगर यह काम इतना बारीक और जटिल है कि इसे हड़बड़ी में मांग आधारित कार्यक्रम के फार्मूले के तहत पूरा नहीं किया जा सकता है। टीकों का सुरक्षित होना सबसे बड़ी शर्त है। देश या विदेश में स्थित जिन कंपनियों को इजाजत मिली है, उनसे टीका प्राप्त होने में वक्त लगना स्वाभाविक है।

मौजूदा स्थिति को देखते हुए यही लगता है कि जब तक सबके लिए इसकी उपलब्धता सुनिश्चित नहीं हो जाती है, तब तक इस कार्यक्रम की सफलता आसान नहीं होगी। फिर यह भी देखना होगा कि सरकारी तंत्र के नियंत्रण में यह काम पूरा कर पाना कितना संभव होगा या फिर इसमें निजी क्षेत्र को कुछ और छूट दी जाएगी। यह सवाल भी उठ सकता है कि क्या खुले बाजार में टीके उपलब्ध करा कर इस कार्यक्रम में केंंद्रित बोझ को कुछ कम किया जा सकता है! देश इस महामारी की त्रासदी से बाहर निकलेगा, लेकिन फिलहाल जरूरत इस बात की है कि टीके के सुलभ होने तक महामारी से बचाव के लिए निर्धारित नियम-कायदों का पूरी तरह पालन किया जाए, ताकि संक्रमण को काबू में किया जा सके।

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