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-Rajeev Kumar (Editor-in-chief)

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Wednesday, September 14, 2022

भारतीय ​शिक्षा व्यवस्थाकी बढ़ती जटिलताएं (बिजनेस स्टैंडर्ड)

अजित बालकृष्णन 

 भारतीय ​शिक्षा व्यवस्था वि​भिन्न प्रकार की जटिलताओं से दो-चार है। शैक्ष​णिक संस्थानों में दा​खिले की प्रतिस्पर्धा, ट्यूशन का बढ़ता चलन और कृत्रिम मेधा के इस्तेमाल के बारे में बता रहे हैं अजित बालकृष्णन


अगर आप चाहते हैं कि वरिष्ठ ​शिक्षाविदों का समूह एक दूसरे पर ​चीखे-चिल्लाए तो इसके लिए उनके सामने एक सवाल रख देना काफी है: क्या आप चाहते हैं कि एक 10 वर्ष के बच्चे को साइकिल चलाना सिखाने के पहले उसे भौतिकी में गति के नियमों का पूरा ज्ञान हो? ऐसे सवाल प्रतीकात्मक होते हैं और अक्सर ​शैक्ष​णिक नीति निर्माण के केंद्र में ऐसी ही बहस होती हैं: ‘क्या आपको नहीं लगता कि हमें बच्चों को रचनात्मक कथा लेखन सिखाने के पहले मिल्टन और शेक्सपियर का प्रमुख काम पढ़ाना चाहिए?’ ‘क्या आपको नहीं लगता कि हमें बच्चों को पाइथन प्रोग्रामिंग सिखाने के पहले उन्हें शब्दों के अर्थ निकालना समझाना चाहिए?’


मुझे लगता है कि ऐसी बहसों का होना बहुत जरूरी है। भारत की उच्च ​शिक्षा व्यवस्था मोटे तौर पर ​ब्रिटिश युग में तैयार की गई और इसलिए इसमें बुनियादी रूप से ज्ञान को कौशल से श्रेष्ठ मानने पर ब्रिटिशों का जोर भी हमें विरासत में मिला। ऐसे में सर्वा​धिक बुद्धिमान और योग्य बच्चे जिनमें परीक्षा में अ​धिक अंक पाने की काबिलियत होती है, वे इंजीनियरिंग कॉलेजों तथा ऐसे ही अन्य तकनीकी करियर में शामिल हो जाते हैं और जिन बच्चों को ऐसी परीक्षाओं में कम अंक मिलते हैं लेकिन वे ऐसे ही तकनीकी पाठ्यक्रमों में दा​खिला लेना चाहते हैं वे पॉलिटेक्नीक या व्यावसायिक पाठ्यक्रमों आदि में दा​खिला ले लेते हैं।


ऐेसे में आश्चर्य नहीं कि व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के माध्यम से पढ़ाई करने वाले बच्चों को नियमित विश्वविद्यालयों के स्नातक पाठ्यक्रमों में पढ़ाई करने वालों की तुलना में कमतर माना जाता है। मैंने अक्सर देखा है कि जब भी मैं अपने मित्रों को बताता हूं कि जर्मनी में चीजें एकदम अलग हैं तो उनके चेहरे पर असमंजस के भाव होते हैं। जर्मनी में 19 से 24 आयुवर्ग के 75 प्र​तिशत लोग औपचारिक रूप से व्यावसायिक प्र​शिक्षण लेते हैं जबकि भारत में यह आंकड़ा केवल पांच फीसदी है। भारत में एक और दिलचस्प कारक है जिसे मैं भी समझ नहीं पाया हूं: ट्यूशन क्लासेस की केंद्रीय भूमिका। फिर चाहे यह स्कूल के स्तर पर हो या किसी तरह के पाठ्यक्रम में प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए।


स्कूल के स्तर पर तथा कॉलेज के स्तर पर ट्यूशन पढ़ाने वाले ​शिक्षकों को मनोवांछित संस्थान में दा​खिले की दृ​ष्टि से तथा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने के लिहाज से बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। ऐसी निजी ट्यूशन कक्षाएं लगभग हर जगह होती हैं और शहरी और ग्रामीण स्कूलों तथा सरकारी, सरकारी सहायता प्राप्त तथा निजी स्कूलों में बहुत मामूली अंतर है। यहां तक कि प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चे भी ट्यूशन लेते हैं।


द​क्षिण भारत के राज्यों में इसका प्रतिशत कम है जबकि पूर्वी राज्यों में दोतिहाई या उससे अ​धिक स्कूली बच्चे ट्यूशन पढ़ते हैं। अ​धिकांश मामलों में ये बच्चे रोज ट्यूशन पढ़ते हैं। शोधकर्ताओं ने यह पता लगाने के कई प्रयास किए कि आ​खिर ट्यूशन को लेकर इतना आकर्षण क्यों है तो पता चला कि आमतौर पर खराब ​शिक्षण को इसकी वजह माना जाता है लेकिन इसकी सबसे आम वजह यह है कि चूंकि बाकी बच्चे ट्यूशन पढ़ रहे हैं इसलिए लोग अपने बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना चाहते हैं। भारत में यह आम मान्यता है कि परीक्षाओं में अच्छे अंक पाने के लिए निजी ट्यूशन जरूरी है।


क्या ट्यूशन में आपको कौशल या ज्ञान सिखाया जाता है? जहां तक मैं कह सकता हूं, ट्यूशन आपको पूछे जाने वाले संभावित सवालों के बारे में अनुमान लगाने में मदद करते हैं और आपको उनके उचित जवाब देने का प्र​शिक्षण देते हैं। वास्तविक प्रश्न है: क्या इससे ज्ञान हासिल होता है?


ज्यादा दिक्कतदेह बात यह है कि पिछले दशक में स्टार्टअप और वेंचर कैपिटल निवेश को लेकर बढ़े उत्साह के बीच ऐसे निवेश का बड़ा हिस्सा तथाक​थित एडटेक क्षेत्र में गया। इस क्षेत्र में जहां ज्यादातर कंपनियां ऑनलाइन ​शिक्षा को सरल ढंग से पेश करने की बात करती हैं, वहीं मूलरूप से ये परीक्षाओं की तैयारी कराने पर केंद्रित हैं। ऐसी स्टार्टअप को जो भारी भरकम मूल्यांकन हासिल हो रहा है उसे देखते हुए ऐसा लगता है मानो भारत में बच्चों के माता-पिता रुचि लेकर अपनी मेहनत की बचत को बच्चों के लिए ऐसी स्टार्टअप में लगा रहे हैं।


परंतु भारत में हम राजस्थान के कोटा जैसे संस्थानों पर नजर भी नहीं डालते जहां हर वक्त कम से कम एक लाख बच्चों को आईआईटी की प्रवेश परीक्षा निकालने की तैयारी कराई जाती है। करीब 10 लाख बच्चे इस परीक्षा में उतरते हैं और 10,000 सफल होते हैं। या देश भर में मौजूदा कोचिंग कक्षाएं जहां करीब पांच लाख बच्चे सिविल सेवा परीक्षाओं के 1,000 पदों की तैयारी करते हैं। या​ फिर नैशनल लॉ स्कूल की साझा प्रवेश परीक्षा जिसमें 75,000 से अ​धिक आवेदक 7,500 सीटों के लिए आवेदन करते हैं।


अच्छी हैसियत वाले लोग अपने बच्चों को इस तरह की प्रतिस्पर्धा से बचा लेते हैं और 25 लाख रुपये से अ​धिक शुल्क देकर उन्हें निजी विश्वविद्यालयों में दाखिल कराते हैं या फिर चार साल की पढ़ाई के लिए एक करोड़ रुपये से अ​धिक खर्च करके उन्हें विदेश भेज देते हैं।


हाल ही में चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने निजी और मुनाफा कमाने वाले कारोबारों को केजी से लेकर कक्षा नौ तक ऑनलाइन और ऑफलाइन ट्यूशन पढ़ाने से रोक दिया। इन नए दिशानिर्देशों में साफ कहा गया है कि प्राथमिक से माध्यमिक स्तर तक ऑफलाइन या ऑनलाइन ट्यूशन देने वाली सभी कंपनियों को खुद को गैर लाभकारी संस्था के रूप में पुनर्गठित करना होगा। दिशानिर्देश ऐसे कारोबारों को सप्ताहांत, अवकाश के दिन तथा गर्मियों और सर्दियों की छुट्टी में भी कक्षाएं आयोजित करने से रोकते हैं। यानी सभी तरह की पढ़ाई सप्ताहांत पर या सीमित घंटों के लिए होगी।


ऐसी बहसों के साये में एक संभावित चौंकाने वाली बात शायद कृत्रिम मेधा आधारित अलगोरिद्म की तलाश हो सकती है। दुनिया भर में शोध पर हो रही फंडिंग का करीब 80 फीसदी हिस्सा इसी क्षेत्र में जा रहा है। शुरुआती नतीजों के तौर पर कॉल सेंटरों में सभी इंसानी परिचालकों के स्थान चैटबॉट लेने लगे हैं। आप कल्पना कर सकते हैं कि अगले दो से पांच वर्ष में भारत की विशालकाय कॉल सेंटर अर्थव्यवस्था की क्या ​स्थिति होगी? इसके अलावा इस दिशा में भी काम चल रहा है कि इस समय जो काम अ​धिवक्ताओं, न्यायाधीशों और चिकित्सकों द्वारा किया जा रहा है उसका 90 प्रतिशत हिस्सा चैटबॉट को सौंपा जा सके। ध्यान रहे भारत के मध्य वर्ग में बड़ा हिस्सा ये काम करता है। 


भविष्य में इन सबके एक साथ होने से कैसी तस्वीर बनेगी? ट्यूशन कक्षाओं की बढ़ती अर्थव्यवस्था, देश के शीर्ष पेशेवर विश्वविद्यालयों में दा​खिले के लिए भारी प्रतिस्पर्धा, देश के निजी विश्वविद्यालयों में अनापशनाप शुल्क और कृत्रिम मेधा की बढ़ती भूमिका के जरिये विशेषज्ञ पेशेवरों को बेदखल किए जाने जैसी घटनाएं देखने को मिलेंगी। 


(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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Thursday, October 21, 2021

ईंधन कीमतों में हो सुधार (बिजनेस स्टैंडर्ड)

केंद्र सरकार द्वारा एयर इंडिया के संपूर्ण निजीकरण को मंजूरी दिए जाने से इस बात की आशा काफी बढ़ गई कि भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (बीपीसीएल) का विनिवेश भी प्रभावी ढंग से और योजना के मुताबिक इस वित्त वर्ष के समाप्त होने के पहले हो जाएगा। इसके बावजूद ईंधन अर्थव्यवस्था के प्रबंधन के व्यापक प्रश्न हैं जिन्हें फिलहाल पूछा जाना चाहिए। सबसे बड़ा सवाल पेट्रोल, डीजल और तरल पेट्रोलियम गैस अथवा एलपीजी की कीमतों के प्रबंधन से जुड़ा है। तथ्य यह है कि हाल केे वर्षों में जहां इन कीमतों को तकनीकी तौर पर नियंत्रण मुक्त किया गया है, वहीं इसी अवधि में राजनीतिक तौर पर संवेदनशील मौकों मसलन अहम विधानसभा चुनाव आदि के समय कीमतों में बदलाव को स्थगित भी रखा गया। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि तीन सरकारी तेल विपणन कंपनियों को पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को लेकर केंद्र सरकार से निर्देश मिलते हैं। यद्यपि कीमतों पर नियंत्रण की व्यवस्था पहले ही समाप्त हो चुकी है और कंपनियां पंप पर अपने स्तर पर कीमत तय करती हैं।

एक तथ्य यह भी है कि बीपीसीएल के लिए सफल बोली लगाने वाला बोलीकर्ता अधिकतम मुनाफे के हिसाब से कीमत तय करना चाहेगा और उसका यह सोचना सही होगा कि सरकारी नीतियां ईंधन के व्यापक बाजार को दो सरकारी तेल विपणन कंपनियों की ओर सीमित नहीं करेंगी। फिलहाल कच्चे तेल की कीमतों में वैश्विक तेजी और उच्च घरेलू करों के कारण 'अंडर रिकवरी' (पेट्रोलियम पदार्थों की बिक्री पर होने वाला नुकसान) दोबारा पैदा हो गई है। तेल विपणन कंपनियों को न केवल प्रति लीटर बिकने वाले पेट्रोल और डीजल पर अंडर रिकवरी का प्रबंधन करना पड़ रहा है बल्कि उन्हें खुदरा बाजार में बिकने वाले हर गैस सिलिंडर पर भी 100 रुपये का नुकसान सहन करना पड़ रहा है। यह व्यवस्था बीपीसीएल के विनिवेश के बाद जारी नहीं रहने दी जा सकती। यदि मुनाफे की चाह में बीपीसीएल प्रति लीटर कीमत को वाणिज्यिक हकीकतों के अनुरूप रखती है तो उसे सरकारी कंपनियों के समक्ष मुश्किल का सामना करना होगा क्योंकि वे कीमत के मामले में सरकार से निर्देश लेंगी जिससे जाहिर तौर पर बाजार में अस्थिरता आएगी। एलपीजी का बाजार और भी दिक्कतदेह है क्योंकि सरकार का जोर कीमतों को तयशुदा स्तर पर रखने पर है। सरकार को अभी सरकारी तेल विपणन कंपनियों को वह राशि भी लौटानी है जो उन्होंने प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत गंवाई। यह राशि करीब 3,000-4,000 करोड़ रुपये है।


सच यह है कि एक ओर तो सरकार ने कीमत पर नियंत्रण के कुछ तत्त्व बरकरार रखने का प्रयास किया है तो वहीं दूसरी ओर उसने ईंधन कर के माध्यम से राजस्व की कमी की भरपाई करने का भी प्रयास किया है। इसमें दो राय नहीं कि कार्बन पर उच्च कर लगाना अच्छी बात है लेकिन इसे तार्किक होना चाहिए तथा समूची अर्थव्यवस्था पर प्रभावी होना चाहिए। इसे केवल राजकोषीय वजहों से लगाना उचित नहीं। प्रभावी ढंग से देखें तो सरकार ने केवल उपभोक्ताओं को नहीं बल्कि राजनीतिक वजहों से मध्यवर्ती कंपनियों का भी दोहन किया है। ईंधन कीमतों को तार्किक बनाना काफी समय से लंबित है। यह कैसे होगा इसके बारे में पहले से पर्याप्त जानकारी है: वैश्विक ईंधन कीमतों का उपभोक्ताओं तक सीधा पारेषण होने दिया जाए, तेल विपणन कंपनियां बहुत कम मार्जिन पर प्रतिस्पर्धा करें, एक निरंतरता भरा ईंधन कर हो जिसमें कार्बन की कीमत शामिल हो और जिसे केंद्र और राज्य साझा करें, तथा पेट्रोल, डीजल और एलपीजी की ऊंची कीमतों से सर्वाधिक प्रभावित वर्ग के लिए केंद्रीय बजट से परे प्रत्यक्ष सब्सिडी की व्यवस्था हो। बीपीसीएल का विनिवेश इन दीर्घकाल से लंबित कर और कीमत सुधार को प्रस्तुत करने का सही अवसर है।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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Monday, August 9, 2021

सामान्य दर व्यवस्था की तरफ लौटने का पहला संकेत! (बिजनेस स्टैंडर्ड)

तमाल बंद्योपाध्याय  

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) की पिछले सप्ताह शुक्रवार को समाप्त हुई तीन दिवसीय बैठक के नतीजे पर किसी को आश्चर्य नहीं हो रहा है। एमपीसी की बैठक के बाद जारी वक्तव्य में कहा गया कि घरेलू एवं वैश्विक आर्थिक हालात और वित्तीय परिस्थितियों सहित भविष्य को ध्यान में रखते हुए नीतिगत दरें सर्वसम्मति से अपरिवर्तित रखने का निर्णय लिया गया है। वक्तव्य में यह भी कहा गया कि केंद्रीय बैंक आर्थिक वृद्धि दर मजबूत होने और आवश्यकता महसूस होने तक उदार रवैया जारी रखेगा। एमपीसी के छह में केवल एक सदस्य ने वक्तव्य में इस्तेमाल की हुई शब्दावली पर आपत्ति जताई। हालांकि तमाम मिलती-जुलती बातों के बावजूद नीतिगत दरों पर हुई यह बैठक जून से थोड़ी अलग नजर आती है।


अब केंद्रीय बैंक देश की वृद्धि दर को लेकर अधिक विश्वास से भरा लग रहा है और बढ़ती महंगाई दर पर भी यह स्पष्टï रूप से पहले से अधिक सतर्क हो गया है। वास्तव में आरबीआई ने चालू वित्त वर्ष के लिए महंगाई दर का अनुमान बढ़ा दिया है। आरबीआई ने 14 दिन की अवधि वाली वैरिएबल रेट रिवर्स रीपो (वीआरआरआर) नीलामी का आकार भी 2 लाख करोड़ रुपये से बढ़ाकर 4 लाख करोड़ रुपये कर दिया है। इस तरह, महंगाई दर को लेकर आरबीआई के रुख और वीआरआरआर के तहत नीलामी का आकार दोगुना करने से कई लोगों को यह लगने लगा है कि केंद्रीय बैंक ने सामान्य नीतिगत दर व्यवस्था की तरफ लौटने का संकेत दे दिया है। इसी वजह से 10 वर्ष की अवधि के बॉन्ड पर प्रतिफल 6.205 प्रतिशत से 4 आधार अंक बढ़कर 6.24 प्रतिशत हो गया। आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास ने जोर देकर कहा कि नीलामी का आकार बढ़ाए जाने को सामान्य नीतिगत दर व्यवस्था की तरफ बढऩे के संकेत के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। दास ने कहा कि यह केवल नकदी प्रबंधन का एक उपाय है। 


वित्तीय प्रणाली में इस समय नकदी 11 लाख करोड़ रुपये के सर्वकालिक स्तर पर पहुंच गई है। सरकारी प्रतिभूति खरीद कार्यक्रम (जी-सैप) और दूसरी तिमाही में अल्प अवधि के ट्रेजरी बिल भुनाए जाने से नकदी की उपलब्धता लगातार बढ़ती रहेगी। कोविड-19 महामारी के दौरान आरबीआई ने वीआरआरआर किनारे कर दिया था मगर जनवरी में दोबारा इसकी शुरुआत हुई थी। अब आरबीआई ने सितंबर के दूसरे पखवाड़े तक चरणबद्ध तरीके से इसका आकार बढ़ाकर 4 लाख करोड़ रुपये करने का निर्णय लिया है। वीआरआरआर नियत दर दैनिक रिवर्स रीपो प्रणाली (फिक्स्ड रेट डेयली रिवर्स रीपो विंडो) के समानांतर है जहां बैंकों को आरबीआई के अपनी अधिशेष रकम रखने पर 3.35 प्रतिशत ब्याज मिलता है। आरबीआई आर्थिक वृद्धि को लेकर पहले से अधिक उत्साहित नजर आ रहा है। उसके वक्तव्य में कहा गया है कि कोविड महामारी की दूसरी लहर कमजोर पडऩे के बाद देश में आर्थिक गतिविधियों में तेजी आनी शुरू हो गई है।


केंद्रीय बैंक ने यह भी कहा कि निवेश की मांग भले नहीं बढ़ी है लेकिन क्षमता इस्तेमाल बढऩे, इस्पात की बढ़ती खपत और पूंजीगत वस्तुओं के पहले से अधिक आयात से सुधार में तेजी आनी चाहिए। आरबीआई ने वित्त वर्ष 2021-22 के लिए आर्थिक वृद्धि दर का अनुमान 9.5 प्रतिशत पर अपरिवर्तित रखा है। वित्त वर्ष 2023 की पहली तिमाही में वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर 17.2 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है। 


केंद्रीय बैंक ने कहा कि आर्थिक गतिविधियां धीरे-धीरे शुरू होने और मॉनसून सक्रिय होने से अर्थव्यवस्था में सुधार आएगा। दास ने कहा कि  सरकार ने जो कदम उठाए हैं उनसे भी अर्थव्यवस्था को मौजूदा संकट से तेजी से बाहर निकलने में मदद मिलेगी। मौद्रिक नीति की घोषणा के बाद दास ने कहा कि आर्थिक वृद्धि दर तेज करने के लिए आरबीआई कोई भी उपाय करने को तैयार है। उन्होंने यह भी कहा कि इस समय नीतिगत मोर्चे पर अधिक हलचल देश की आर्थिक वृद्धि की रफ्तार को सुस्त कर सकती है।


दुनिया के कई केंद्रीय बैंकों के प्रमुखों की तर्ज पर आरबीआई गवर्नर ने भी कहा है कि आपूर्ति संबंधी दिक्कतों के कारण महंगाई तेजी अस्थायी है। मगर बढ़ती महंगाई को देखते हुए आरबीआई ने चालू वित्त वर्ष के लिए महंगाई का अनुमान 5.1 प्रतिशत से बढ़ाकर 5.7 प्रतिशत कर दिया गया है। वित्त वर्ष 2023 की पहली तिमाही में आरबीआई ने महंगाई दर 5.1 प्रतिशत रहने की बात कही है।


एमपीसी महंगाई दर 4 प्रतिशत (2 प्रतिशत कम या अधिक) तक सीमित रखने का प्रयास करती है। इसमें कोई शक नहीं कि एमपीसी महंगाई से उत्पन्न होने वाली चुनौतियों से पूरी तरह अवगत है। दूसरी तरफ एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत भी दिखने लगे हैं। अगर महंगाई बढ़ती रही और आर्थिक रफ्तार तेज होती गई तो आरबीआई के पास समय से पहले उदार रवैया धीरे-धीरे समाप्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा। अगर आरबीआई दिसंबर 2022 से ऐसा नहीं कर सकता तो फरवरी 2023 से उसे ऐसा करना ही पड़ेगा। 


एमपीसी की बैठक के बाद जारी नीतिगत वक्तव्य में कहा गया है कि एमपीसी महंगाई नियंत्रण में रखने की अपनी जिम्मेदारी से पूरी तरह वाकिफ है और आर्थिक वृद्धि मजबूत होने और संभावनाएं बेहतर होते ही यह आवश्यक कदम उठाना शुरू कर देगा। फिलहाल तो आरबीआई ने अपना रख साफ कर दिया है कि अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए वह कोई भी कदम उठाने से पीछे नहीं हटेगा। 


(लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड के सलाहकार संपादक, लेखक और जन स्मॉल फाइनैंस बैंक के वरिष्ठï सलाहकार हैं।)

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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भारतीय हॉकी के सितारे और सामाजिक हकीकत (बिजनेस स्टैंडर्ड)

शेखर गुप्ता  

जिस दिन भारतीय महिला हॉकी टीम टोक्यो ओलिंपिक के सेमीफाइनल में अर्जेंटीना से हारी, दो व्यक्ति सुर्खियों में आए क्योंकि उन्होंने ओलिंपिक की सबसे खतरनाक फॉरवर्ड खिलाडिय़ों में गिनी जा रही वंदना कटारिया के घर के पास 'जश्न' मनाया जो दरअसल एक शर्मिंदा करने वाली हरकत थी। वंदना ने दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ अहम मुकाबले में टीम की ओर से पहली हैट्रिक (एक मैच में तीन गोल) भी लगाई थी। इस जीत के साथ भारत अंतिम चार में पहुंचा था।


यह खराब 'जश्न' किस बात का था? क्योंकि ये व्यक्ति उच्च जाति के थे और वंदना एक दलित परिवार की हैं। स्थानीय मीडिया रिपोर्टों के अनुसार दोनों पुरुषों की समस्या यह थी कि महिला हॉकी टीम में कई दलित हैं। इसे राष्ट्रीय शर्म कहना और दोषी लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग करना उचित है, हालांकि वंदना के भाई के हवाले से कहा गया है कि पुलिस थाने के अधिकारी उनकी शिकायतों पर ध्यान नहीं दे रहे थे। हालांकि मैं इससे प्रेरणा लेकर एक जोखिम भरे क्षेत्र में प्रवेश कर रहा हूं और सवाल करना चाहता हूं कि आखिर क्रिकेट समेत अन्य खेलों से इतर हॉकी में ऐसा क्या है जो भारत की जाति, जातीयता, भौगोलिक और धार्मिकता आधारित विविधता को इतने बेहतर ढंग से पेश करती है।


मैं इसे जोखिम भरा क्षेत्र क्यों कहता हूं? पहली बात, इसलिए क्योंकि उच्च जाति जिसका तमाम बहसों और सोशल मीडिया पर दबदबा है उसे 'जाति' जैसे पिछड़े मुद्दों पर चर्चा करना पसंद नहीं क्योंकि ये भारत को 'पीछे' ले जाती हैं। जब भी कोई व्यक्ति क्रिकेट में पारंपरिक उच्च जातियों के दबदबे की बात करता है तो लोगों की नाराजगी देखते ही बनती है। प्रतिक्रिया इतनी तीव्र होती है कि हम एक साधारण बात कहने में भी घबराते हैं और वह यह कि भारतीय क्रिकेट में समावेशन बढऩे के साथ इसका स्तर भी सुधरा है। या एक सवाल कर सकते हैं कि अगर भारतीय क्रिकेट क्रांति तेज गेंदबाजों की बदौलत उभरी है तो और उसके पास बड़ी तादाद में तेज गेंदबाज हैं तो ये प्रतिभाएं कहां से आई हैं? यदि इससे किसी के सवर्ण गौरव को ठेस पहुंचती है तो मैं क्षमा चाहता हूं लेकिन भारतीय क्रिकेट में समावेशन बढऩे के बाद यह अधिक प्रतिभासंपन्न, आक्रामक, ऊर्जावान और सफल बनी है। इसके लिए टीम और बीसीसीआई नेतृत्व को श्रेय दिया जाना चाहिए कि वहां सही मायनों में प्रतिभा का मान किया गया।


दूसरी ओर हॉकी में कुछ तो है जिसने हमेशा इस खेल को उपेक्षित रखा: अल्पसंख्यक, आदिवासी, गौण समझे जाने वाले वर्ग और जातियां इसमें प्रमुखता से दिखती हैं। हम समाजशास्त्र की बात नहीं कर सकते लेकिन इतिहास और तथ्यों की कर सकते हैं। अतीत में मुस्लिम और सिख, एंग्लो इंडियन, पूर्वी और मध्य भारत के मैदानों के वंचित आदिवासी वर्ग, मणिपुरी, कोदावा आदि दशकों तक हॉकी में अपनी प्रतिभा का हुनर बिखेरते रहे हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह तथा अन्य लोगों की इस बात के लिए आलोचना किउन्होंने याद दिलाया कि ओलिंपिक में कांस्य पदक जीतने वाली भारतीय पुरुष हॉकी टीम के आठ सदस्य उनके राज्य के हैं। उन्होंने सिख नहीं कहा लेकिन हमें याद रखना होगा।


हम तथ्यों और इतिहास पर भरोसा करेंगे। भारत ने पहली बार 1928 में एम्सटर्डम ओलिंपिक में हॉकी में भाग लिया था। ध्यान चंद टीम में थे लेकिन टीम के कप्तान का आधिकारिक नाम था जयपाल सिंह। उनका पूरा नाम है जयपाल सिंह मुंडा। आपको महानायक बिरसा मुंडा याद हैं? देश का पहला ओलिंपिक स्वर्णपदक एक ऐसे व्यक्ति के नेतृत्व में आया जो झारखंड के गरीब आदिवासी परिवार से था। मुझे नहीं लगता कि देश का कोई अन्य बड़ा खेल ऐसा दावा कर सकता है।


यह एक समृद्ध परंपरा की शुरुआत थी जहां पूर्वी-मध्य क्षेत्र का आदिवासी भारत निरंतर हॉकी की प्रतिभाएं देता रहा है। इसमें कुछ बेहतरीन बचाव करने वाले खिलाड़ी शामिल हैं। मौजूदा महिला टीम में दीप ग्रेस एक्का और सलीमा टेटे और पुरुष टीम में वीरेंद्र लाकड़ा और अमित रोहिदास इसका उदाहरण हैं। इनमें सलीमा स्ट्राइकर जबकि बाकी सभी डिफेंडर हैं। यदि ये पर्याप्त नहीं तो अतीत के माइकल किंडो और दिलीप टिर्र्की जैसे डिफेंडरों को याद कीजिए। 


इस परंपरा को आदिवासी क्षेत्रों में बनी कुछ बेहतरीन अकादमियों ने बढ़ावा दिया है। झारखंड के खूंटी और ओडिशा में सुंदरगढ़ और उसके आसपास ऐसी कई अकादमी हैं। जयपाल सिंह ने भारत को पहला ओलिंपिक स्वर्ण दिलाने अलावा अन्य महत्त्वपूर्ण काम किए। बचपन में ही एक ब्रिटिश पादरी परिवार ने उन्हें अपनी छत्रछाया में ले लिया था। उन्हें अध्ययन के लिए ऑक्सफर्ड भेजा गया जहां उन्होंने काफी अच्छा प्रदर्शन किया। परंतु उन्होंने आईसीएस बनकर जीवन बिताने के बजाय भारत के लिए खेलना और काम करना चुना। वह आदिवासियों के प्रतिनिधि के रूप में संविधान सभा में थे और भारतीयों को वैध रूप से शराब पीने पर हर घूंट के साथ उनका शुक्रिया अदा करना चाहिए क्योंकि उन्होंने हमें देशव्यापी शराबबंदी के आसन्न संकट से बचाया था। उस गांधीवादी माहौल में संविधान सभा का मन शराबबंदी का था लेकिन उन्होंने जोर देकर कहा कि शराब पीना हम आदिवासियों की परंपरा है, आप उस पर प्रतिबंध लगाने वाले कौन होते हैं?


हॉकी की बात करें तो पहली टीम में आठ एंग्लो इंडियन थे। गोलकीपर रिचर्ड एलन नागपुर में जन्मे और ओक ग्रोव मसूरी तथा सेंट जोसेफ नैनीताल में पढ़े थे। उन्होंने पूरी प्रतियोगिता में एक गोल नहीं होने दिया। यदि मैं यहां-वहां राह से भटक रहा हूं तो इसलिए कि मैं बताना चाहता हूं कि केवल क्रिकेट नहीं बल्कि सभी खेलों का इतिहास दिलचस्प किस्सों से भरा रहा है। बाकी खिलाडिय़ों की बात करें तो तीन मुस्लिम, एक सिख, युवा ध्यान चंद और झारखंड का एक आदिवासी कप्तान टीम का हिस्सा थे। बाद के ओलिंपिक में मुस्लिमों और सिखों की तादाद में इजाफा हुआ। इसीलिए विभाजन ने देश की हॉकी को झटका दिया। ढेर सारी प्रतिभाएं पाकिस्तान चली गईं और सन 1960 के ओलिंपिक में उसने भारत को स्वर्ण जीतने से रोक दिया।


चूंकि विभाजन के घाव हरे थे इसलिए पाकिस्तान हमारा नया प्रमुख प्रतिद्वंद्वी बन गया, उसके साथ जंग भी होती रहीं। सन 1970 के आरंभ तक देश की राष्ट्रीय टीम में ज्यादा मुसलमान नहीं थे। भोपाल के शानदार स्ट्राइकर इनाम-उर-रहमान का कुख्यात मामला भी हुआ जिन्हें 1968 के मैक्सिको ओलिंपिक में ले जाया गया लेकिन उन पर भरोसा नहीं जताया गया। पाकिस्तान के खिलाफ तो कतई नहीं।


 


बाद में कई मुस्लिम हॉकी सितारे सामने आए। मोहम्मद शाहिद और जफर इकबाल ने भारत की कप्तानी की। सबसे चर्चित नाम है डिफेंडर असलम शेर खान का। भारत ने सन 1975 में कुआलालंपुर में इकलौता विश्व कप जीता था। सेमीफाइनल में मलेशिया के खिलाफ भारत एक गोल से पीछे था और खेल समाप्त होने में चंद मिनट बचे थे। कई पेनल्टी कॉर्नर भी मिल रहे थे लेकिन सुरजीत सिंह और माइकल किंडो उन्हें गोल में नहीं बदल पा रहे थे।


65वें मिनट में एक पेनल्टी कॉर्नर मिला (तब खेल 70 मिनट का होता था) जो आखिरी उम्मीद था। तीन बार (1948, 1952 और 1956) के ओलिंपिक चैंपियन कोच बलबीर सिंह सीनियर ने असलम को जीवन मरण का यह शॉट लेने बेंच से बुलाया। अगर आपको वह फुटेज मिले तो देखिए कैसे युवा असलम मैदान में आते हैं अपने गले से ताबीज निकालकर चूमते हैं और बराबरी का गोल दाग देते हैं। मैच अतिरिक्त समय में गया और स्ट्राइकर हरचरण सिंह जीत दिला दी। हम जानते हैं कि असलम शेर खान बाद में सांसद बने। आजादी के बाद उन्होंने ही मुस्लिमों के लिए भारतीय हॉकी के दरवाजे खोले। आप 1975 के विश्व कप के बाद की राष्ट्रीय हॉकी टीम खोजिए और आप पाएंगे कि यह रुझान मजबूत होता गया। हर भारतीय टीम चाहे महिला हो या पुरुष, उसमें विविधता निखरकर दिखती है। मणिपुर के मैती समुदाय की आबादी बमुश्किल 10 लाख है। टोक्यो में नीलकांत शर्मा और सुशीला चानू के रूप में पुरुष और महिला टीमों में उनकी भागीदारी देखने को मिली। हालिया अतीत को याद करें तो थोइबा सिंह, कोठाजीत चिंगलेनसाना और नीलकमल सिंह याद आते हैं। क्या क्रिकेट टीम में पूर्वोत्तर का कोई खिलाड़ी देखा है आपने?


आखिर सैकड़ों वर्षों से हॉकी वंचितों का खेल क्यों बना हुआ है? मुझसे मत पूछिए। मैं केवल हकीकत बता सकता हूं और याद दिला सकता हूं कि भारतीय क्रिकेट के उभार में समावेशन का योगदान है। यहां जाति और श्रेष्ठता की बेतुकी बहस बंद होनी चाहिए। मेरी बात उच्च जातियों के खिलाफ नहीं है। उनमें काबिलियत है लेकिन देश तो तभी समृद्ध होगा जब हम तमाम सामाजिक हिस्सों की प्रतिभाओं तक पहुंचेंगे। 

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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अनिश्चित प्रदर्शन (बिजनेस स्टैंडर्ड)

वर्ष 2021-22 की अप्रैल-जून तिमाही के कॉर्पोरेट नतीजों को पिछले वर्ष की समान अवधि के कम आधार प्रभाव का लाभ मिला। ऐसे भी संकेत हैं कि वैश्विक स्तर पर औद्योगिक धातुओं में सुधार और तेजी ने भी इन्हें बेहतर बनाने में मदद की है। परंतु ऋण सुधार और खपत भी एकदम स्थिर है। 894 सूचीबद्ध कंपनियों ने सालाना आधार पर 38 फीसदी की वृद्धि हासिल की और इसका आंकड़ा 17 लाख करोड़ रुपये रहा। परिचालन मुनाफा 23.6 फीसदी बढ़कर 5.04 लाख करोड़ रुपये रहा जबकि कर पश्चात लाभ 166.5 फीसदी बढ़कर 1.53 लाख करोड़ रुपये हो गया। अप्रत्याशित वस्तुओं के समायोजन के बाद मुनाफा 120 फीसदी बढ़ा। वित्तीय लागत में 10 फीसदी की कमी आई है। कॉर्पोरेट कर संग्रह 56.7 फीसदी बढ़ा और कर्मचारियों से संबंधित खर्चे 15 फीसदी बढ़े जबकि बिजली/ईंधन की लागत 48 फीसदी बढ़ी।


बैंक, गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों और रिफाइनरी जैसे अस्थिर क्षेत्रों को निकाल दिया जाए तो शेष 775 कंपनियों की परिचालन आय में 49 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। इनका परिचालन मुनाफा 88 फीसदी और अप्रत्याशित वस्तुओं के समायोजन के बाद होने वाला लाभ 292 फीसदी बढ़ा। रिफाइनरों और तेल विपणन कंपनियों के रिफाइनिंग मार्जिन में कमी आई क्योंकि कच्चे तेल के दाम बढ़े हैं। नमूने में शामिल 31 बैंकों की परिचालन आय 2.7 फीसदी कम हुई जबकि कर पश्चात लाभ 39 फीसदी बढ़ा है। ऐसा इसलिए हुआ कि ब्याज लागत 10 फीसदी कम हुई और शुल्क आधारित आय में 24 फीसदी बढ़ोतरी हुई। कृषि अर्थव्यवस्था जो एक वर्ष पहले बहुत अच्छी स्थिति में थी, वह स्थिर है लेकिन शक्कर में चक्रीय गिरावट आ सकती है। कृषि-रसायनों, उर्वरकों और ट्रैक्टरों में वृद्धि हल्की हुई है। दैनिक उपयोग वाली उपभोक्ता वस्तुओं का मुनाफा जो अद्र्ध शहरी खपत पर निर्भर करता है, वह भी राजस्व वृद्धि में 17 फीसदी और कर पश्चात लाभ में 8 फीसदी वृद्धि के साथ स्थिर है।


वाहन और वाहन कलपुर्जा उद्योग की स्थिति सबसे खराब रही। वाहन कलपुर्जा क्षेत्र में समीक्षाधीन 35 कंपनियों के राजस्व में 140 फीसदी इजाफा हुआ जबकि समेकित कर पश्चात लाभ 522 करोड़ रुपये रहा जबकि सालाना आधार पर उसे 804 करोड़ रुपये का घाटा हुआ था। सात में से छह बड़ी वाहन निर्माता कंपनियों ने 129 फीसदी राजस्व विस्तार हासिल किया जबकि कर पश्चात लाभ 2,203 करोड़ रुपये रहा। इन्हें सालाना आधार पर 108 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। सातवीं कंपनी टाटा मोटर्स को 4,451 करोड़ रुपये का घाटा हुआ। कास्टिंग और फोर्जिंग क्षेत्र के राजस्व में 188 फीसदी का विस्तार हुआ और यह क्षेत्र घाटे से मुनाफे में आ गया। पूंजीगत वस्तु क्षेत्र में भी बदलाव आया और इसका राजस्व 51 फीसदी बढ़ा। औद्योगिक रसायन उद्योग का प्रदर्शन भी ऐसा ही रहा। कागज, पैकेजिंग और पेंट उद्योग सभी को आधार प्रभाव का लाभ मिला। सीमेंट, निर्माण, अधोसंरचना और लॉजिस्टिक्स का राजस्व बढ़ा और बेहतर मुनाफे के साथ अनुमान भी बेहतर हुआ। 


निर्यात आधारित क्षेत्रों मसलन आईटी और औषधि क्षेत्र का प्रदर्शन ठीक रहा। आईटी उद्योग के कर पश्चात लाभ में 27 फीसदी सुधार हुआ और उसका राजस्व 18 फीसदी बढ़ा। औषधि क्षेत्र के कर पश्चात लाभ में 48 फीसदी इजाफा हुआ और राजस्व 19 फीसदी बढ़ा। वस्त्र क्षेत्र का राजस्व 134 फीसदी बढ़ा और वह घाटे से मुनाफे में आ गया। धातु और खनिज क्षेत्र में तेजी की खबरें हैं। 35 स्टील कंपनियों का समेकित मुनाफा 11,604 करोड़ रुपये रहा जबकि सालाना आधार पर यह घाटे में था। इनका राजस्व 131 फीसदी बढ़ा। गैर लौह धातुओं का राजस्व 65 फीसदी जबकि कर पश्चात लाभ 680 फीसदी बढ़ा। खनन कंपनियों के राजस्व में 80 फीसदी इजाफा हुआ जबकि कर पश्चात लाभ 325 फीसदी बढ़ा। एक वर्ष पहले के लॉकडाउन के आधार प्रभाव को देखें तो यह प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं है और दूसरी लहर का असर नकारात्मक रहा। यदि एक और लहर आई तो कमजोरी बढ़ेगी।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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Tuesday, May 25, 2021

कंपनियों के लिए भविष्य की राह ( बिजनेस स्टैंडर्ड)

अजय शाह  

यह सही है कि हमारे आसपास स्वास्थ्य संबंधी आपदा आई हुई है लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर जो निराशा जताई जा रही है वह अतिरंजित है। टीकाकरण धीमी गति से हो रहा है लेकिन बीमारी का पूर्वानुभव भी लोगों का बचाव कर रहा है। निर्यात में भी सुधार हो रहा है। डॉलर के संदर्भ में वह महामारी के पहले के स्तर से ज्यादा हो चुका है। कंपनियों के निर्णयकर्ताओं की बात करें तो उनके लिए बेहतरी की राह टीकाकरण और निर्यात से निकलती है।

देश इन दिनों जिस त्रासदी से गुजर रहा है उसे लेकर काफी निराशा का माहौल है। इसके अलावा एक विचार यह भी है कि टीकाकरण ही हालात सामान्य करने की दिशा में इकलौता कदम है इसलिए जिन देशों ने टीकाकरण में प्रगति कर ली है वे दूसरे देशों की तुलना में जल्दी बेहतर स्थिति में आएंगे। इसे एक ऐसी स्थिति के रूप में देखा जा रहा है जहां राज्य की क्षमता (अधिक क्षमता यानी अधिक टीकाकरण) और आर्थिक नतीजों (टीकाकरण से हालात सामान्य होते हैं) में सीधा संबंध है।


यह परिदृश्य भारत को लेकर अतिरिक्त निराशा क्यों पैदा करता है इसकी दो वजह हैं। पहली समस्या है बीमारी के नियंत्रण को टीकाकरण के समकक्ष मानना। परंतु बीमारी के अनुभव से बचाव भी उत्पन्न होता है। प्रतिरोधक क्षमता हासिल करने के दो तरीके हैं: टीके या वायरस के माध्यम से। देश में बहुत बड़ी आबादी ऐसी है जो बीमारी के कारण प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर रही है।


हाल के महीनों में बीमारी बहुत तेजी से फैली है। इसके अलावा टीकाकरण का नीतिगत ढांचा भी बेहतर हो रहा है।


आयात किया जा रहा है और कई राज्य सरकारों ने टीके खरीदने के लिए निविदाएं आमंत्रित की हैं। कई स्थानों पर निजी क्षेत्र में भी टीकाकरण आरंभ है। इन सब में केंद्र सरकार की क्षमता के पूरक के रूप में काफी ऊर्जा लगेगी। इसका लाभ प्रति दिन टीकाकृत होने वाले लोगों की तादाद में इजाफे के रूप में भी नजर आएगा।


वर्तमान की बात करें तो वुहान के मूल वायरस और उससे निपटने के लिए बना एस्ट्राजेनेका का टीका फिलहाल भारत में काफी हद तक सफल नजर आ रहा है। संभव है कि यह प्रतिरोधक क्षमता हमेशा नहीं रहे। वायरस के नए स्वरूप इसे भेद सकते हैं। वायरस का दक्षिण अफ्रीकी स्वरूप एस्ट्राजेनेका टीके के खिलाफ अधिक घातक है। भविष्य में ऐसे बदलते स्वरूप वाले वायरस के लिए बूस्टर खुराक की आवश्यकता हो सकती है। जब भी ऐसा होता है तो हर संस्थान, शहर और राज्य की संस्थागत क्षमता बहुत मायने रखेगी।


शक्ति का दूसरा स्रोत निर्यात मांग में निहित है। फिलहाल भारत में बढ़ी हुई मांग के लिए पर्याप्त राजकोषीय गुंजाइश नहीं है। निजी क्षेत्र का निवेश सन 2007 या 2011 (आकलन के आधार पर) की तुलना में न्यूनतम स्तर पर है। आम परिवारों की खपत भी महामारी, आय से जुड़ी अनिश्चितता और ऋण तक आसान पहुंच नहीं होने के कारण प्रभावित हुई है। महामारी का प्रभाव कम होने के बाद इसमें सुधार होगा। परंतु निर्यात मांग के क्षेत्र में अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन पहले ही बेहतर है।


स्वास्थ्य नीति और राजकोषीय नीति के मोर्चे पर अधिकांश विकसित देशों का प्रदर्शन भारत से बेहतर है। बेहतर स्वास्थ्य नीति के कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षमताएं बीमारी को नियंत्रित रखने में कामयाब रही हैं और टीकाकरण की बेहतर व्यवस्था के कारण आबादी के बड़े हिस्से का टीकाकरण किया जा चुका है। परिपक्व बाजार वाले देशों की राजकोषीय नीति दशकों से मजबूत रही है, यानी वहां सरकारों के पास यह अवसर था कि वे जरूरत पडऩे पर घाटे में विस्तार होने दें। इसकी बुनियाद उन देशोंं ने रखी जिन्होंने दशकों तक मजबूत आर्थिक विचार अपनाया यानी वित्तीय दबाव नहीं अपनाया, दुनिया भर से ऋण लिया, बॉन्ड और करेंसी डेरिवेटिव में आकर्षक कीमत निर्धारण होने दिया, सामान्य दिनों में अधिशेष की स्थिति बनाए रखी, वृहद आर्थिक आंकड़ों को मजबूत रखा और सार्वजनिक ऋण प्रबंधन एजेंसियों से काम लिया। यही वजह है कि कई देश राजकोषीय घाटा बढ़ाकर अपनी खपत मजबूत करने में कामयाब रहे। भारत ऐसा करने की स्थिति में नहीं है। अमेरिका में राजकोषीय प्रोत्साहन दूसरे विश्वयुद्ध की तुलना मेंं भी कहीं बड़ा है।


इस वैश्विक सुधार ने भारत के निर्यात को बल दिया है। अमेरिका में दिसंबर 2020 से मार्च 2021 के बीच हुआ वस्तु आयात महामारी के पहले के स्तर से 4.1 फीसदी अधिक था। इन चार महीनोंं में अमेरिका का भारत से होने वाला आयात 9 फीसदी बढ़ा जबकि चीन से होने वाला आयात 8.2 फीसदी बढ़ा। विशुद्ध मूल्य में देखें तो भारतीय वस्तुओं को अमेरिका को होने वाला निर्यात 5.1 अरब डॉलर मासिक हो गया जबकि महामारी के पहले यह 4.7 अरब डॉलर मासिक था।


भारत के कुल गैर पेट्रोलियम निर्यात की बात करेंं तो जनवरी से अप्रैल 2021 तक यह 26.3 अरब डॉलर मासिक रहा जो महामारी के पहले के 23.4 अरब डॉलर प्रति माह डालर से 12.5 फीसदी अधिक था। सेवा निर्यात का प्रदर्शन भी अच्छा रहा। वर्तमान में भारत के लिए निर्यात क्षेत्र काफी विशिष्टता लिए हुए है। आंकड़ों की बात करें तो वे महामारी के पहले की तुलना में काफी बेहतर स्थिति में है। फिलहाल वैश्वीकरण से भारत का संबंध आर्थिक दृष्टि से काफी अहम है और यह घरेलू कठिनाइयों के समक्ष काफी विविधता पैदा करता है।


जब भी निर्यात का ऑर्डर आता है तो कच्चा माल खरीदा जाता है (जो अक्सर आयात किया जाता है) और उत्पादन होता है। इसके बाद विनिर्मित वस्तु का निर्यात किया जाता है। परिणामस्वरूप जब निर्यात में तेजी आती है तो आयात में होने वाली वृद्धि अक्सर निर्यात वृद्धि से अधिक होती है। आज हमें भारत में ऐसा ही देखने को मिल रहा है और आयात महामारी के पहले की तुलना में 21.4 फीसदी अधिक है। सामान्य तौर पर हम यह नहीं पता कर पाएंगे कि आयात में यह तेजी घरेलू मांग के दम पर है या निर्यात से जुड़े कच्चे माल की बदौलत लेकिन मौजूदा हालात में घरेलू मांग काफी कमजोर है।


भारतीय कंपनियों के नीतिगत विचार के लिए इस दलील के दो निहितार्थ हैं: पहला, हर कंपनी को अपने कर्मचारियों और उनके परिजन का टीकाकरण कराने के प्रयास करने चाहिए। उन्हें अपने ग्राहकों के टीकाकरण के लिए भी कोशिश करनी चाहिए और वायरस के उन प्रारूपों पर नजर रखनी चाहिए जिनके लिए बूस्टर डोज की आवश्यकता होगी। दूसरा, अब वक्त आ गया है कि हम निर्यात बाजार को लेकर प्राथमिकता तैयार करें।

(लेखक स्वतंत्र विश्लेषक हैं)

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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कोविड महामारी के असर से लड़खड़ाया सिनेमा कारोबार ( बिजनेस स्टैंडर्ड)

वनिता कोहली-खांडेकर 

पिछले पखवाड़े ईद का त्योहार बहुत बुरे समय में आया। देश महामारी से जूझ रहा है और हमारे चारों तरफ इतना दुख और कष्ट फैला हुआ है कि जश्न मनाने जैसा कोई भाव ही नहीं आता। सलमान खान अभिनीत फिल्म राधे ऐसे ही माहौल में रिलीज हुई। महामारी खत्म होने का इंतजार करने के बाद आखिरकार फिल्म को ओटीटी ज़ी 5 पर रिलीज किया गया। आश्चर्य नहीं कि दर्शकों और आलोचकों ने इसकी जमकर आलोचना की। शायद फिल्म बुरी है लेकिन ओटीटी पर रिलीज करने से इसकी हालत और बिगड़ गई। राधे जैसी फिल्म ईद के सप्ताहांत पर रिलीज होकर खूब भीड़ बटोरती है।

यह पुराने जमाने की सिंगल स्क्रीन फिल्मों जैसी है जहां दर्शक खूब शोरशराबा करते हैं। जब आप इसे 249 रुपये में ऐसे दर्शकों को बेचते हैं जिनकी पसंद नेटफ्लिक्स और एमेजॉन प्राइम वीडियो ने बदल दी है तो इसका नाकाम होना तय है। परंतु चूंकि यह सलमान खान की फिल्म है इसलिए इसे बड़ी तादाद में दर्शक मिलेंगे और विदेशों में रिलीज, टेलीविजन अधिकारों तथा ज़ी के साथ हुए सौदे से यह न केवल लागत वसूल करेगी बल्कि पैसे भी कमाएगी। परंतु इसकी कमजोर रिलीज में न केवल देश का मिजाज बल्कि फिल्म उद्योग की कमजोरी भी रेखांकित होती है। गत वर्ष देश के सिनेमा राजस्व का दोतिहाई हिस्सा गंवाना पड़ा। महामारी के कारण सन 2019 के 19,100 करोड़ रुपये से घटकर यह 7,200 करोड़ रुपये रह गया। महामारी के कारण थिएटर सबसे पहले बंद हुए और सबसे बाद में खुले। टिकट बिक्री घटकर 40 करोड़ रुपये रह गई जो 2019 की तुलना में एक तिहाई से भी कम थी। इस आंकड़े में भी ज्यादातर पहली तिमाही से है जब लॉकडाउन नहीं लगा था। सात लाख लोगों को रोजगार देने वाले इस उद्योग के काम करने वाले लाखों दैनिक श्रमिकों का काम छूट गया। फिक्की-ईवाई की रिपोर्ट के अनुसार 1,000 से 1,500 सिंगल स्क्रीन थिएटर बंद हुए। मल्टीप्लेक्स भी अच्छी स्थिति में नहीं हैं। सिनेमाघर खुले ही थे कि दूसरी लहर ने तबाही मचा दी। अमेरिका के रीगल और एएमसी की तरह अगर भारत में भी कुछ मल्टीप्लेक्स शृंखला बंद होती हैं तो आश्चर्य नहीं।


पूरे भारत का टीकाकरण होने में कम से कम एक वर्ष लगेगा। केवल तभी सिनेमाघर पूरी तरह खुल सकेंगे। इस पूरी प्रक्रिया में वे ही सबसे अहम हैं। बिना सिनेमा घरों के भारतीय सिनेमा दोबारा खड़ा नहीं हो सकता। सन 2019 में भारतीय फिल्मों की 19,100 करोड़ रुपये की आय में 60 फीसदी भारतीय थिएटरों से आई।


किसी फिल्म को थिएटर में कैसी शुरुआत मिलती है, इससे ही तय होता है कि टीवी, ओटीटी और विदेशों में उसकी कैसी कमाई होगी। सन 2019 एक अच्छा वर्ष था और उस वर्ष प्रसारकों ने फिल्म अधिकारों के लिए 2,200 करोड़ रुपये खर्च किए जो कुल कारोबार का 12 फीसदी था। प्रसारक नेटवर्क को इससे 7,700 करोड़ रुपये का विज्ञापन राजस्व मिला। परंतु प्रसारक टीवी को यह कमाई तभी होती है जब फिल्म का प्रदर्शन थिएटर में अच्छा हो। ये दोनों माध्यम आम जनता से संबद्घ हैं। अगर थिएटर पूरी तरह नहीं खुले तो यह पूरी व्यवस्था काम नहीं करेगी। डिजिटल या ओटीटी माध्यम 60 फीसदी कारोबार की जगह नहीं ले सकते। ध्यान रहे गत वर्ष फिल्मों का डिजिटल राजस्व दोगुना हो गया लेकिन कारोबार फिर भी 60 फीसदी कम रहा। ऐसा लगता है कि लोग भी थिएटरों में वापस जाना चाहते हैं।  मास्टर (तमिल), ड्रैकुला सर या चीनी (बांग्ला), जाठी रत्नालू (तेलुगू), कर्णन (तमिल), द प्रीस्ट (मलयालम) आदि फिल्मों ने सन 2020 में और 2021 के आरंभ में बॉक्स ऑफिस में अच्छा प्रदर्शन किया। सवाल यह है कि अगर तेलुगू, तमिल या मलयालम फिल्मों का प्रदर्शन अच्छा है तो राधे को पहले क्यों नहीं रिलीज किया गया? क्योंकि हिंदी रिलीज पूरे देश में होती है। यह जरूरी होता है कि कई राज्यों में फिल्म रिलीज हो। कुल राजस्व का 40-50 फीसदी हिस्सा केवल दिल्ली और मुंबई से आता है। विदेशों से भी बहुत राजस्व मिलता है। जबकि तमिल फिल्म केवल तमिलनाडु में और तेलुगू फिल्म तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में रिलीज होती है। प्रोड्यूसर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के अध्यक्ष सिद्धार्थ राय कपूर कहते हैं कि ये फिल्में केवल राज्य विशेष में चलती हैं। ऐसे में हिंदी ही फिल्म राजस्व का सबसे बड़ा हिस्सा लाती है। जब तक महामारी समाप्त नहीं होती बड़े पैमाने पर हिंदी रिलीज मुश्किल है। दुनिया भर में अवेंजर्स, मिशन इंपॉसिबल या बॉन्ड शृंखला की फिल्मों में यह ताकत है कि वे दर्शकों को सिनेमाहॉल में खींच सकें। यह बात भारत के लिए भी सही है। बाहुबली (तेलुगू, तमिल), केजीएफ (कन्नड़), वार (हिंदी) या सोरारी पोत्रु (तमिल) जैसी फिल्मों के लिए दर्शक थिएटर जाएंगे जबकि सीयू सून अथवा जोजी (मलयालम) अथवा रामप्रसाद की तेरहवीं (हिंदी) जैसी फिल्में ओटीटी मंच के लिए हैं।


यानी टीकाकरण के अलावा थिएटरों में बड़ी और शानदार फिल्मों की जरूरत होगी ताकि हालात सामान्य हो सकें। ऐसा होता नहीं दिखता। धर्मा प्रोडक्शन के सीईओ अपूर्व मेहता कहते हैं, 'फिल्म अनुबंध का कारोबार है। इसमें कई लोग लंबे समय तक एक साथ काम करते हैं और सावधानी बरतनी होती है। हम इस माहौल में 200-300 करोड़ रुपये की फिल्म की योजना नहीं बना सकते। यही कारण है कि हम ऐसी फिल्में बना रहे हैं जिनका बजट कम हो।'यानी कारोबारी एक दुष्चक्र में फंस गया है जो तभी समाप्त होगा जब शूटिंग और बाहरी शेड्यूल शुरू हो। ऐसा शायद 2022 के अंत में या 2023 में हो। अभी कुछ कहना मुश्किल है कि तब हालात कैसे होंगे। बात केवल बड़े सितारों की नहीं है। यह हजारों लेखकों, तकनीशियनों, सहायक कलाकारों, स्टूडियो में काम करने वालों की भी बात है। हालांकि औद्योगिक संगठन और व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास जारी हैं लेकिन हिंदी, मलयालम, तमिल, बांग्ला आदि अनेक क्षेत्रों के सिनेमा से जुड़े लोग अपना पेशा बदल चुके हैं। कारोबार शायद समाप्त न हो लेकिन संभव है यह अपने पुराने दिनों की छाया भर रह जाए। शेष भारत की तरह उसे भी पुरानी रंगत पाने में कई वर्ष लगेंगे।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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सार्वजनिक अभियान जरूरी ( बिजनेस स्टैंडर्ड)

देश भर में तेजी से फैल चुकी कोविड-19 की दूसरी लहर को नियंत्रित करने में टीका लगवाने को लेकर हिचकिचाहट और कोविड की रोकथाम के लिए जरूरी व्यवहार की अनुपस्थिति बड़ी समस्या बनकर उभरे हैं। खासतौर पर देश के ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में यह दिक्कत ज्यादा गंभीर है।


विभिन्न जिलों के स्थानीय स्वास्थ्यकर्मी बता रहे हैं कि लोग दुष्प्रभावों की आशंका के चलते टीका लगवाने से बच रहे हैं। ऐसा आंशिक रूप से इसलिए हुआ क्योंकि सरकार ने शुरुआत में टीकों को लेकर पूरी पारदर्शिता नहीं बरती। दूसरी ओर, मास्क लगाने और शारीरिक दूरी को लेकर ग्रामीण इलाकों में कोई सावधानी नहीं बरती गई। इस बात ने भी महामारी के प्रसार में काफी योगदान किया। चूंकि ये सारी बातें जनवरी में टीकाकरण की शुरुआत के पहले से ज्ञात थीं इसलिए अगर समय रहते टीकों की सुरक्षा और अहमियत को लेकर जागरूकता अभियान चलाया जाता तो बेहतर होता।


हालांकि सरकार ने इसे लेकर कुछ पोस्टर जारी किए हैं और टेलीविजन चैनलों पर कुछ संदेश नजर आने लगे हैं लेकिन इसके बजाय गंभीर अभियान की आवश्यकता है। स्वास्थ्य मंत्री ने यह चर्चा भी की कि कैसे व्यापक टीकाकरण कार्यक्रम की मदद से देश ने चेचक (शीतला) और पोलियो का उन्मूलन कर दिया। यह संदर्भ एकदम उचित था क्योंकि दोनों ही अवसरों पर टीकाकरण को लेकर जबरदस्त जागरूकता अभियान चलाये गए और इन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के साथ-साथ देश के कुछ सबसे बड़े उपक्रमों के साथ मिलकर चलाया और इसमें हजारों की तादाद में स्वास्थ्यकर्मी शामिल रहे। चेचक और पोलियो कार्यक्रमों के बचे हुए पोस्टर इस बात की पुष्टि करते हैं कि कैसे चेचक के लिए शीतला माता जैसी अलंकृत भाषा वाले संदेश का इस्तेमाल पोस्टरों पर किया गया और सिगरेट के पैकेट पर छपी चेतावनी जैसे संदेश दिए गए कि टीकाकरण नहीं करवाने के क्या खतरे हो सकते हैं।


विडंबना यह है कि आज हमारे देश के पास सन 1970 के दशक की तुलना में बहुत ज्यादा मीडिया और संसाधन हैं जिनकी मदद से संदेश को सहजता से प्रसारित किया जा सकता है। उन दिनों तो प्रचार का पूरा दायित्व सरकारी रेडियो चैनलों पर था। इसके अलावा संदेश दीवारों पर लगाए जाते तथा पोस्टर चिपकाए जाते। चेचक के किसी मामले की सूचना स्थानीय स्वास्थ्य केंद्र को देने पर 100 रुपये का इनाम था। यह तरीका मामलों की पड़ताल में अत्यंत प्रभावी साबित हुआ। आज दूरदर्शन और सोशल मीडिया की पहुंच बहुत व्यापक है और चार दशक पहले की तुलना में आज देश के दूरदराज इलाकों में संदेश पहुंचाना आसान है। देश में विज्ञापन जगत से जुड़ी प्रतिभाओं की भी कोई कमी नहीं है। ऐसे में विश्वसनीय सेलिब्रिटी मसलन विराट कोहली, अमिताभ बच्चन, रजनीकांत, पीवी सिंधू या आलिया भट्ट आदि की मदद से स्थानीय भाषाओं में देशव्यापी प्रचार अभियान चलाया जा सकता है। यदि चुनाव के समय राजनीतिक संदेश मोबाइल रिंगटोन से दिए जा सकते हैं तो उनका इस्तेमाल लोगों को मास्क पहनने के लिए प्रेरित करने में भी किया जा सकता है जैसा कि शुरुआती दिनों में कुछ राज्य सरकारों ने किया भी। टीकाकरण के प्रचार के लिए भी यह तरीका अपनाया जा सकता है।


उस दौर की तरह अब भी पंचायतों और स्थानीय स्वास्थ्य कर्मियों तथा दूरदराज इलाकों में स्थापित निजी और सार्वजनिक उपक्रमों की मदद से मजबूती से काम किया जा सकता है। ऐसे शिक्षण कार्यक्रमों पर होने वाले व्यय को कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व में शामिल किया जाना चाहिए यह अधिक मददगार साबित होगा। सरकार अगर विदेशों में अपना नजरिया प्रस्तुत करने के लिए टेलीविजन चैनल शुरू करने के बजाय तत्काल संदेश प्रसारित करने के काम में लगे तो उसे अधिक लाभ होगा। देश की अंतरराष्ट्रीय छवि को सशक्त टीकाकरण से अधिक लाभ होगा, बजाय कि टेलीविजन पर होने वाली बहसों के।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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2024 के आम चुनाव में मोदी की चुनौती? ( बिजनेस स्टैंडर्ड)

शेखर गुप्ता 

गत सप्ताह जब यह आलेख लिखा गया तब राजनीतिक महत्त्व वाली दो अहम घटनाओं की वर्षगांठ थी। उनमें से एक है नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल के दो वर्ष पूरा होना और दूसरी है राजीव गांधी की हत्या के 30 वर्ष पूरे होना। यह अच्छा अवसर है कि दो बड़े राजनीतिक दलों भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस के 2024 की गर्मियों तक के भविष्य पर नजर डाली जाए। हम अतीत को परे रखेंगे। म्युचुअल फंड निवेश की तरह राजनीति में भी अतीत हमेशा भविष्य का सबसे बेहतर मार्गदर्शक नहीं होता।


दोनों विरोधी दलों का भविष्य आपस में संबद्ध है। हम जानते हैं कि राजीव गांधी की हत्या के बाद तीसरे दशक में उनकी पार्टी राष्ट्रीय राजनीति में बहुत पीछे छूट गई है। सन 2014 और 2019 दोनों आम चुनावों में उसे भाजपा के सामने 90 फीसदी सीटों पर हार का सामना करना पड़ा। वर्ष 2014 में अनुपात 88:12 और 2019 में 92:8 का था। ऐसे में यह सवाल बनता है कि आखिर भाजपा के भविष्य का आकलन करते हुए कांग्रेस की तकदीर की बात भी क्यों करें? इसलिए क्योंकि 92-8 से पराजित होने के बावजूद कांग्रेस ही भाजपा की सबसे करीबी पार्टी थी। दूसरी बात यह कि मोदी और शाह के अधीन भाजपा को कुल मिलाकर 38 फीसदी मत मिले जबकि कांग्रेस को 20 फीसदी यानी भाजपा के करीब आधे।


देश में कोईअन्य दल दो अंकों में सीट नहीं पा सका। या फिर कहें तो राजग सहयोगियों समेत किन्हीं अन्य तीन दलों ने मिलकर भी दो अंकों में सीट नहीं हासिल कीं। इसके अतिरिक्त यदि आप सभी गैर कांग्रेसी विपक्षी दलों के मत प्रतिशत को मिला दें यानी द्रमुक, राकांपा, राजद जैसे एक फीसदी से अधिक मत प्रतिशत वाले दलों के मत प्रतिशत को तो भी वह 20 तक नहीं पहुंचता। वर्ष 2014 और 2019 के बीच कांग्रेस अपने 20 फीसदी मत बचाने में कामयाब रही। जबकि अन्य सभी गैर भाजपा दलों की हिस्सेदारी घटी।


भले ही कांग्रेस कितनी भी खराब हालत में हो लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के मुकाबले वही है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह को देखिए। वे जानते हैं कि कांग्रेस को हल्के में नहीं ले सकते। यही कारण है कि जिन राज्यों में कांग्रेस मायने नहीं रखती (पश्चिम बंगाल) या जहां भाजपा की स्थिति अच्छी नहीं (केरल और तमिलनाडु), वहां भी वे कांग्रेस और गांधी परिवार पर हमले करते हैं। राहुल गांधी को लगातार पप्पू ठहराने का अभियान चलता है या सोनिया गांधी के विदेशी मूल का प्रश्न उठाया जाता है। यही वजह है कि कांग्रेस के दलबदलुओं को साथ लिया जाता है और असंतुष्टों के साथ दोस्ताना जताया जाता है और उनके लिए आंसू तक बहाए जाते हैं। राज्य सभा में गुलाम नबी आजाद की विदाई याद कीजिए।


मोदी और शाह तीन बातें जानते हैं:


* राष्ट्रीय स्तर पर केवल कांग्रेस उन्हें चुनौती दे सकती है।


* कांग्रेस को अपना मत प्रतिशत भाजपा से अधिक करने की आवश्यकता नहीं है। यदि वह 20 से बढ़कर 25 प्रतिशत हो जाए तो राष्ट्रीय राजनीति बदल जाएगी। भाजपा-राजग की सरकार तब भी रहेगी लेकिन गठबंधन की अहमियत बढ़ेगी। मोदी-शाह के सामने चुनौतियां होंगी। तब संवैधानिक संस्थाएं ऐसी कमजोर न होंगी।


* इसके लिए गांधी परिवार अहम है। केवल वही कांग्रेस को एकजुट रख सकता है इसलिए उस पर जमकर हमले जरूरी हैं।


मेरा कहना यह नहीं है कि गांधी परिवार इसे नहीं समझता। वे शायद मोदी-शाह की भाजपा को हल्के में इसलिए लेते हैं क्योंकि वे उनके प्रति अवमानना का भाव रखते हैं और शायद यह स्वीकारना नहीं चाहते कि वे इतने बड़े अंतर से क्यों जीत रहे हैं। कांग्रेस के इस विचार में तीन कमियां हैं:


* उसे लगता है कि नरेंद्र मोदी का उदय अस्थायी घटना है और मतदाताओं का विवेक जल्दी लौटेगा। वर्ष 2019 में कांग्रेस पुलवामा के कारण चूक गई लेकिन अब महामारी और आर्थिक पराभव भाजपा की पराजय की वजह बनेंगी।


* भाजपा की सबसे कमजोर कड़ी हैं आरएसएस और उसकी विचारधारा। विचारधारा अमूर्त होती है जबकि व्यक्ति वास्तविक होते हैं। कांग्रेस अपने सीमित हथियार आरएसएस, गोमूत्र, सावरकर और गोलवलकर पर खर्च कर रही है। भाजपा खुद को नेहरू-गांधी परिवार तक सीमित रखती है और अक्सर वर्तमान और पुराने कांग्रेसी नेताओं के बारे में अच्छी बातें कहती है।


* कांग्रेस का भविष्य धुर वामपंथ में हैं। यही वजह है कि वह वाम मोर्चे से हाथ मिला रही है। पार्टी को केरल में पराजय मिली। यदि उसने बंगाल में ममता के साथ हाथ मिला लिया होता तो पश्चिम बंगाल में तो उसे कुछ सीटों पर जीत मिलती ही, केरल में वाम मोर्चे के खिलाफ जीत की संभावना बेहतर होती। शून्य से तो कुछ भी बेहतर होता। परंतु यह कांग्रेस युवा वामपंथियों वाली है। सबूत के लिए देखिए कि उनका सोशल मीडिया कौन और कैसे संभालता है।


ममता बनर्जी और उनकी तृणमूल कांग्रेस का समय चल रहा है। वह मोदी-शाह के आलोचकों की नायिका हैं। लेकिन राजनीति में जीत की आयु हार से छोटी होती है। मेरे प्रबुद्घ सहयोगी और द प्रिंट के राजनीतिक संपादक डीके सिंह बताते हैं कि 2024 के आम चुनाव तक 16 राज्यों में चुनाव होंगे। अगले वर्ष सात राज्यों में चुनाव होंगे: उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में फरवरी-मार्च 2022 के बीच चुनाव होंगे। गुजरात और हिमाचल प्रदेश में अक्टूबर-दिसंबर 2022 के बीच चुनाव होंगे। सन 2023 में नौ राज्यों में चुनाव होगा। उस वर्ष फरवरी में मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा में चुनाव होंगे। मई में कर्नाटक में और दिसंबर में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के साथ मिजोरम में चुनाव होगा। उत्तर प्रदेश को छोड़कर इन सभी राज्यों में भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस ही होगी। इन चुनावों में थोड़ी भी कामयाबी पार्टी में नई जान फूंक सकती है और उसे 2024 के लिए नई ऊर्जा दे सकती है। जबकि हार उसे तोड़ सकती है। कहना आसान है कि कांग्रेस अपने समर्थकों को नीचा दिखा रही है। जैसा कि ओम प्रकाश चौटाला ने एनडीटीवी के 'वाक द टॉक' कार्यक्रम में मुझसे कहा था, 'ये धरम-करम या तीर्थयात्रा नहीं है। ये सत्ता के लिए है।'


यह कहना बेमानी है कि काश गांधी परिवार अलग होकर पार्टी को नए नेतृत्व के हवाले कर दे या कम से कम राहुल को जाना चाहिए। परंतु ऐसा नहीं होने वाला।


कांग्रेस के बारे में सच वो है जो मोदी और शाह तो मानते हैं लेकिन कई कांग्रेस समर्थक नहीं मानते। वह यह कि बिना गांधी परिवार के कांग्रेस का अस्तित्व नहीं रहेगा। आज वे 20 फीसदी से अधिक मत नहीं जुटा पा रहे लेकिन उन्होंने पार्टी को एकजुट रखा है। भाजपा को आरएसएस से ताकत मिलती है। आप उसे पसंद करें या नहीं लेकिन वह एक संस्थान है जबकि कांग्रेस एक परिवार पर आधारित है।


राजनीति कभी एक घोड़े वाली घुड़दौड़ नहीं होती। क्या मोदी की तीसरी बार सत्ता पाने की कोशिश अधिक चुनौतियों भरी होगी? यह चुनौती कौन और कैसे देगा?


अतीत में कई तीसरा, चौथा, धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील मोर्चे आजमाए जा चुके हैं। वे नाकाम रहे या भविष्य के लिए गलत नजीर बने। हम सन 1967 के संयुक्त विधायक दल से कई महागठबंधनों और वीपी सिंह के जनमोर्चा और संयुक्त मोर्चा तक इसके उदाहरण देख सकते हैं जहां आए दिन प्रधानमंत्री बदलते थे।


इसके उलट दलील भी दी जा सकती है। क्षेत्रीय नेताओं ने सन 2004 में वाजपेयी जैसे मजबूत नेता को हराने में मदद की थी। वे विपक्ष को अतिरिक्त मत भी दिला सकते हैं। 2019 में राजग के 44 फीसदी की तुलना में संप्रग को 26 फीसदी मत मिले। यदि और साझेदार होते यह बढ़कर 32 से 36 फीसदी हो जाता तो?


कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के पास एक और विकल्प है। एक ऐसी कंपनी के बारे में सोचिए जिसके पासब्रांड और पुराने ग्राहक दोनो हैं लेकिन वह नए प्रतिद्वंद्वियों से मार खा रही है। वह क्या करेगी? शायद बाहर से नया सीईओ लाएगी। कांग्रेस में ऐसा नहीं होगा लेकिन लेकिन कांग्रेस समर्थित बड़े विपक्षी गठबंधन में बाहरी नेता हो सकता है। कांग्रेस अपने 20 फीसदी मतदाताओं की मदद से सहायक सिद्घ हो सकती है।


यदि ऐसा विचार उभरता है तो ममता बनर्जी और उनके जैसे अन्य नेता आगे आ सकते हैं। कांग्रेस को राज करने वाली पार्टी होने का मोह छोडऩा होगा। यह कष्टप्रद होगा लेकिन असंभव नहीं होगा। न ही यह उन लोगों की कल्पना है जो चाहते हैं कि गांधी परिवार दूर रहे।

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जड़ी-बूटियों की पैदावार को प्रोत्साहन देने की जरूरत ( बिजनेस स्टैंडर्ड)

सुरिंदर सूद 

औषधि एवं सुगंध वाले पौधों के साथ ही जड़ी-बूटियों की वाणिज्यिक उपज भी भारतीय कृषि की एक आकर्षक शाखा के तौर पर उभर रही है। पारंपरिक स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र को आपूर्ति के लिए अमूमन जड़ी-बूटियों को जंगलों से इक_ा किया जाता रहा है। फार्मा उद्योग एवं सौंदर्य प्रसाधन क्षेत्र को भी ये जड़ी-बूटियां जंगलों से ही इक_ा कर भेजी जाती रही हैं। लेकिन इन औषधीय पौधों का प्राकृतिक आवास काफी हद तक अतिक्रमण का शिकार हो चुका है। यानी परंपरागत तरीकों से इन जड़ी-बूटियों की आपूर्ति घरेलू एवं निर्यात बाजार की मांग के अनुरूप नहीं की जा सकती है। लिहाजा उनकी वाणिज्यिक खेती का ही तरीका बच जाता है।


खास तरह की यह खेती काफी हद तक मांग पर आधारित है और खुद सरकार भी राष्ट्रीय आयुष मिशन जैसे अभियानों के जरिये इसे प्रोत्साहन दे रही है। आयुष मिशन के तहत आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध एवं होम्योपैथी चिकित्सा पद्धतियों को बढ़ावा देने का लक्ष्य रखा गया है। इन चारों इलाज पद्धतियों को ही संक्षिप्त रूप से 'आयुष' का कूटनाम दिया गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का अनुमान है कि दुनिया की करीब दो-तिहाई आबादी अब भी आंशिक या पूर्ण रूप से इलाज की इन पारंपरिक पद्धतियों पर ही आश्रित है। पारंपरिक दवाओं के साथ आधुनिक दवाओं के लिए भी करीब 80 फीसदी कच्चा माल इन जड़ी-बूटियों से ही आता है। जड़ी-बूटी वाले औषधीय उत्पादों का सालाना कारोबार घरेलू बाजार में करीब 8,000-9,000 करोड़ रुपये और निर्यात बाजार में करीब 1,000 करोड़ रुपये रहने का अनुमान है। इस साल इन आंकड़ों में खासी उछाल आती हुई दिख रही है। इसका कारण यह है कि कोविड-19 महामारी के दौरान प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मददगार बताई जा रही इन  औषधियों की मांग बहुत तेजी से बढ़ी है। देसी काढ़ा जैसे औषधीय मिश्रण में इस्तेमाल होने वाली तुलसी, दालचीनी, सूखी अदरक एवं काली मिर्च की इन दिनों पुरजोर मांग है।


आयुष मंत्रालय ने कोविड से हल्के स्तर पर पीडि़त लोगों के इलाज में मददगार दवा आयुष-64 एवं सिद्ध उत्पाद कबासुर कुडिनीर के वितरण के लिए हाल ही में देशव्यापी अभियान हाल ही में शुरू किया है। मंत्रालय ने भारतीय चिकित्सा एवं अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के साथ मिलकर आयुष-64 दवा के क्लिनिकल परीक्षण कई जगहों पर करवाए हैं। इसी तरह कबासुर कुडिनीर का परीक्षण केंद्रीय सिद्ध अनुसंधान परिषद ने किया है।


हरियाणा सरकार ने आयुर्वेदिक विशेषज्ञों से सलाह की 24 घंटे वाली टेली-कॉन्फ्रेंसिंग सेवा भी शुरू की है ताकि कोविड-19 संक्रमितों को अस्पताल ले जाने की नौबत न आए। कई स्वैच्छिक संगठन भी योग एवं स्वदेशी चिकित्सा पद्धतियों के बारे में ऐसी ही परामर्श सेवाएं मुहैया करा रहे हैं। इनका मकसद यही है कि कोविड-19 संक्रमण को शुरुआती दौर में ही संभाल लिया जाए। कई होम्योपैथी डॉक्टर भी इस जानलेवा बीमारी के लक्षणों के इलाज में सफलता मिलने का दावा कर रहे हैं। कोविड की निरोधक दवाओं के तौर पर आर्सेनिक एल्ब, इन्फ्लुएंजियम एवं कैम्फर जैसी कुछ होम्योपैथी दवाओं की मांग हाल में खूब बढ़ी है। भारत इस लिहाज से खुशकिस्मत है कि यहां चिकित्सकीय गुणों से युक्त एवं सुगंध वाले पौधों की काफी विविधता मौजूद है। इसके 15 कृषि-जलवायु क्षेत्रों में 17,000-18,000 पौधे पाए जाते हैं। इनमें से करीब 7,000 पौधों में बीमारियों का इलाज करने की क्षमता एवं अन्य वाणिज्यिक गुण पाए जाते हैं। लेकिन विडंबना ही है कि फिलहाल 960 से अधिक जड़ी-बूटियों का कारोबार नहीं हो पा रहा है। असल में, सिर्फ 178 पौधे ही साल भर में 100 टन से अधिक मात्रा में इस्तेमाल किए जाते हैं। इन औषधीय पौधों की मांग नहीं बल्कि कम उपलब्धता ही इनमें से कई पौधों के कम उपयोग के लिए आंशिक तौर पर जिम्मेदार है। इस बात को ध्यान में रखते हुए सरकार ने इन जड़ी-बूटियों की आपूर्ति बढ़ाने के लिए उन्हें प्रोत्साहन देना शुरू किया है। इसके लिए आयुष मिशन के तहत करीब 140 औषधीय पौधों को चिह्नित किया गया है। कच्चे माल के तौर पर इन जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल करने वाले उद्योगों को इनकी खेती के प्रायोजन की अनुमति भी दे दी गई है। इसमें उद्योग कंपनियां उत्पादकों के साथ उपज खरीद का करार करती हैं। जड़ी-बूटियों की विशिष्ट खेती हमें राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़, अरुणाचल प्रदेश और समूचे हिमालयी क्षेत्र में देखने को मिल रही है।


कर्नाटक इस लिहाज से खास है कि इसकी व्यापक प्राकृतिक विरासत में 2,500 से भी अधिक चिकित्सकीय एवं सुगंधित पौधे पाए जाते हैं। अश्वगंधा, चंदन, लेमन ग्रास, चमेली, सिट्रोनेला एवं रजनीगंधा के अलावा कर्नाटक की जलवायु तुलसी, एलोवेरा, गुग्गल, श्रीफल (बेल) एवं स्टेविया (मीठी तुलसी) के लिए भी खासी अनुकूल है। भारत का हर्बल सौंदर्य उत्पाद उद्योग वर्ष 2017 से ही करीब 19 फीसदी की दर से वृद्धि कर रहा है और देश में औषधीय गुणों वाले पौधों की उपज बढ़ाने में इसकी भी अहम भूमिका रही है। भारत फूलों एवं दूसरे पादप स्रोतों की मदद से सुगंधित द्रव्य एवं इत्र बनाने में अग्रणी रहा है। सदियों पहले बनाए गए ये इत्र अब भी मांग में हैं और घरेलू एवं वैश्विक परफ्यूम ब्रांडों से मिलने वाली प्रतिस्पद्र्धा के बावजूद इनकी मांग कायम है। विज्ञापन एजेंसियां भी ऑर्गेनिक सौंदर्य एवं त्वचा देखभाल वाले उत्पादों के पक्ष में राय बनाने में मददगार साबित हो रही हैं।


जड़ी-बूटियों की प्राथमिक मार्केटिंग काफी हद तक असंगठित ही होती है जिसमें न कोई नियमन है और न ही वह पारदर्शी होता है। स्थानीय स्तर पर लगने वाले हाट-बाजारों में उनकी खरीद-फरोख्त होती है और वहां बिचौलियों का दबदबा होता है। छोटे उत्पादकों एवं आदिवासी संग्राहकों का शोषण खूब होता है। इन गलत चीजों को दुरुस्त करने की जरूरत है ताकि जड़ी-बूटियों की खेती का तीव्र विकास हो सके। स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र एवं अन्य उद्योग भी एक हद तक इन पर आश्रित हैं।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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तार्किक हों दरें ( बिजनेस स्टैंडर्ड)

कुछ महीनों के मजबूत प्रदर्शन के बाद मई में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के एक बार फिर दबाव में आने की आशंका है। ऐसा अप्रैल महीने में आर्थिक गतिविधियों में आई कमी की वजह से हो सकता है। महामारी की दूसरी लहर ने जो तबाही मचाई है उसे ई-वे बिल में भारी गिरावट में पहले ही महसूस किया जा सकता है। माना जा रहा है कि शुक्रवार को जीएसटी परिषद की बैठक में राजस्व की चुनौतियां ही चर्चा के केंद्र में होंगी। राज्य सरकारें महामारी से निपटने में सबसे अग्रिम पंक्ति में हैं और राहत प्रदान कर रही हैं। अब उन्हें टीकाकरण कार्यक्रम पर भी व्यय करना होगा। कम आधार से राजस्व में गिरावट और व्यय में इजाफा राज्यों के लिए राजकोषीय प्रबंधन को और मुश्किल बना देगा। राज्य संभावित कमी को लेकर चिंता जता रहे हैं और भरपाई के ढांचे का नए सिरे से आकलन करना होगा।

राजस्व से जुड़ी समग्र चिंताओं और संग्रह में कमी की भरपाई के अलावा कई अन्य मसले हैं जिन पर परिषद विचार कर सकती है। उदाहरण के लिए व्युतक्रम शुल्क ढांचे (जहां विनिर्मित वस्तु पर निर्यात शुल्क कच्चे माल से कम हो) का मसला काफी समय से लंबित है और यह राजस्व को प्रभावित कर रहा है। पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाने की मांग भी काफी समय से की जा रही है। इससे उपयोगकर्ताओं को इनपुट क्रेडिट की सुविधा मिलेगी। बहरहाल, फिलहाल पेट्रोल और डीजल को जीएसटी के दायरे में लाना संभव नहीं होगा क्योंकि ऐसा करने से करों में काफी कमी आएगी और राजकोषीय संतुलन प्रभावित होगा। केंद्र और राज्य सरकारें पेट्रोलियम उत्पादों से हासिल होने वाले कर पर बहुत हद तक निर्भर करती हैं। इन्हें जीएसटी के दायरे में लाना और राजस्व क्षति की भरपाई के लिए उपकर लगाना कारगर नहीं होगा क्योंकि इससे कर ढांचा जटिल हो जाएगा। ऐसे में पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी ढांचे में शामिल करने के प्रस्ताव पर विचार करने के पहले इन बातों का आकलन कर लेना चाहिए।


परंतु परिषद को जिस सबसे अहम मसले पर विचार करना चाहिए वह है दरों को तार्किक बनाना। हाल के महीनों में राजस्व में सुधार हुआ क्योंकि अनुपालन बेहतर हुआ है। हालांकि यह एक अच्छा कदम है लेकिन राजनीतिक कारणों के चलते इससे दरों में अनावश्यक कमी की भरपाई नहीं हो सकेगी। जैसा कि पंद्रहवें वित्त आयोग ने अपनी रिपोर्ट में रेखांकित किया है और वह है विशुद्ध क्षतिपूर्ति उपकर। सन 2019-20 में जीएसटी संग्रह सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का बमुश्किल 5.1 फीसदी था। यह जीएसटी में समाहित करों से हासिल होने वाले राजस्व की तुलना में काफी कम था क्योंकि 2016-17 में ही वह जीडीपी के 6.3 फीसदी के बराबर था। ऐसे में मौजूदा दर राजस्व निरपेक्ष नहीं है। भारतीय रिजर्व बैंक ने 2019 में एक अध्ययन में बताया था कि जीएसटी के लिए प्रभावी औसत दर 11.6 थी जबकि क्रियान्वयन के समय वह 14.4 फीसदी थी। यह अपरिपक्वकर समायोजन की वजह से हुआ। राजस्व निरपेक्षता का मसला तत्काल हल किया जाना चाहिए क्योंकि यह जीडीपी के एक फीसदी के बराबर कर संग्रह को प्रभावित कर रही है।


कोविड-19 महामारी ने सरकार की वित्तीय स्थिति को तगड़ा नुकसान पहुंचाया है और देश का सार्वजनिक ऋण जीडीपी के 90 फीसदी तक पहुंच गया है। यदि अर्थव्यवस्था जल्दी पटरी पर नहीं आती तो यह अनुपात और बिगड़ सकता है। कर्ज और घाटे के स्तर को देखते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को राजकोषीय दबाव कम करने के रास्ते तलाशने होंगे। परिषद को राजस्व संग्रह में कमी की भरपाई के लिए ऋण से परे सोचना चाहिए और जीएसटी व्यवस्था की ढांचागत कमियों को दूर करना चाहिए।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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Thursday, May 20, 2021

कोरोना महामारी और इससे उपजी थकान (अमर उजाला)

मोनिका शर्मा  

महामारी से उपजी थकान को पैंडेमिक फटीग कहा जाता है। तन-मन को थकाने वाली यह स्थिति तब आती है, जब लोग महामारी से बचाव के उपायों को अपनाते हुए थक जाते हैं। यह थकान बीते एक वर्ष में अचानक भय, भ्रम और हर पल की सतर्कता के चलते पैदा हुई है। दरअसल, मौजूदा हालात में महामारी से उपजी थकावट को समझना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि कोरोना से लड़ाई अभी जारी है। संकट अभी टला नहीं है। इस समय आम लोगों को अपनी पूरी ऊर्जा जुटाकर दिशा-निर्देशों का पालन करना होगा। वैश्विक संकट की इस मुसीबत से पार पाने तक इस थकान को मन की ऊर्जा से हराना आवश्यक है।

कोरोना के नए स्ट्रेन से भयावह होते हालात के बीच महामारी से उपजी थकान हर किसी के लिए अलग तरह का अनुभव ला रही है। उम्र, लिंग और यहां तक कि जिम्मेदारियों के मुताबिक यह थकान लोगों पर अलग-अलग असर डाल रही है। लेकिन बेचैनी, चिड़चिड़ापन, निराशाजनक सोच और  काम पर ध्यान न दे पाने जैसी कठिनाइयां आम हैं। अपने दोस्तों, सहपाठियों और हमउम्र साथियों से दूर होकर युवा और बच्चे अकेलेपन का एहसास कर रहे हैं, तो वरिष्ठजन सामाजिक जुड़ाव की कमी और मेल-मिलाप की दूरी से अवसाद और व्यग्रता के शिकार हो रहे हैं। ऐसे हालात बच्चों और बड़ों, दोनों के मन को थकाने वाले हैं। साथ ही इस तकलीफदेह दौर में आर्थिक मोर्चे पर डटे कामकाजी लोग अपनी नौकरी के मामले में अनिश्चितता और फिक्र से थक रहे हैं, तो गृहिणियों की हद दर्जे तक बढ़ी व्यस्तता उनके मन को थका रही है। ऐसे में यह समझना जरूरी है कि महामारी जन्य थकान हमें किस तरह से प्रभावित कर रही है। इसके बाद हालात समझकर ऐसी राहें तलाशने की जरूरत है, जो इस ठहरे हुए समय में भी मन-जीवन को गतिमान रख सके, अकेलेपन और अवसाद से बचाकर ऊर्जा को सही दिशा में लगाए।



पिछले साल विश्व स्वास्थ्य संगठन के यूरोपीय क्षेत्रीय निदेशक ने यूरोप के देशों को महामारी जन्य थकान के बारे में चेतावनी दी थी। तब कुछ मामलों में इसके 60 प्रतिशत से अधिक तक पहुंचने का अनुमान जताया गया था। एक सर्वेक्षण में कनाडा के 31 प्रतिशत लोगों ने माना कि वे कोरोना वायरस और लॉकडाउन से थक गए हैं, जबकि 28 प्रतिशत लोगों ने खुद को घबराहट का शिकार बताया था। इस थकावट के चलते ही पूरी दुनिया में लॉकडाउन हटने के बाद  लोग बड़ी संख्या में बाहर निकलने लगे थे। भारत में भी यही हुआ है। इसीलिए अब इस गलती से सबक लेकर संक्रमण से और सतर्क होकर जूझना होगा। 


कोविड-19 से जूझते हुए सोशल आइसोलेशन के चलते सभी ने कुछ हद तक भटकाव, अलगाव और अनिश्चितता का अनुभव किया है। कुछ लोग संक्रमण से उबरने के बाद भी समस्याओं का शिकार हुए, तो कई परिवारों ने अपने करीबियों को खो दिया है। साथ ही, पढ़ाई, रोजगार और आम दिनचर्या में आए बदलावों ने हमें बहुत-सी चीजों से दूर कर दिया है। जिंदगी जीने का रंग-ढंग बदल गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि कोरोना आपदा के चलते लोग फोमो (फियर ऑफ मिसिंग आउट) के भाव से भी जूझ रहे हैं। यह सही है इन दिनों जिंदगी से बहुत कुछ छूट रहा है, लेकिन अगर जिंदगी सहेज ली, तो समझिए फिर कुछ नहीं छूटा। याद रहे कि बेहतरी की उम्मीद हमेशा कायम रहती है। तकलीफदेह समय में एक दूसरे का साथ देने और संकट से निकलने का साहस सदा ही मददगार होता है। यही वजह है कि सुस्ती और ठहराव के इन हालात में भी सकारात्मक रहते हुए अच्छे समय का इंतजार करने की सोच ही सहायक होगी।


हम पहली बार ऐसी विरोधाभासी स्थिति में जी रहे हैं, जब करने को कुछ नहीं, पर ऊर्जा भी रीत रही है। जिंदगी ठहर गई है, पर जिम्मेदारियों की भागमभाग भी कायम है। आपसी मेलजोल बंद है, पर साथ देने और साथ बने रहने की दरकार भी कम नहीं। ऐसे में हम इन संकटकालीन परिस्थितियों को अच्छे से समझ कर थकान से बचने की राह निकालनी होगी। इस विपत्ति काल में ऐसी समझ भरा सकारात्मक और उम्मीद भरा रास्ता ही जीवन को सहेजने और स्वस्थ रहने का सार्थक मार्ग बन सकता है।

सौजन्य - अमर उजाला।

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सिटीबैंक भारत में उपभोक्ता कारोबार से क्यों बाहर? (बिजनेस स्टैंडर्ड)

तमाल बंद्योपाध्याय 

कई वर्ष पहले मैं बैंकिंग जगत की खबरें लाया करता था। उस दौरान भारत में सिटीबैंक एनए के तत्कालीन कारोबार प्रमुख सुजित बनर्जी ने भारत में कारोबार को लेकर मुझसे अपने बैंक की रणनीति का जिक्र किया था। बनर्जी ने कहा था कि सिटी बैंक कुछ ऊंचे वर्ग के ग्राहकों तक सीमित नहीं रह कर अपने साथ अधिक से अधिक उपभोक्ताओं को जोडऩा चाहता है। वे सिटी को बड़े शहरों के बाद छोटे शहरों तक ले जाना चाहते थे। 


अमेरिका के 'चार बड़े बैंकों' में एक सिटी बैंक 119 वर्षों से भारत में कारोबार कर रहा है। अब वह भारत में अपना उपभोक्ता कारोबार (कंज्यूमर बैंकिंग) समेट रहा है। अमेरिका के बाद राजस्व और मुनाफा के लिहाज से भारत सिटी के लिए शीर्ष पांच बाजारों में शामिल है। वह भारत में अपना उपभोक्ता बैंकिंग कारोबार-क्रेडिट कार्ड, आवास ऋण, व्यक्तिगत ऋण , जमा एवं परिसंपत्ति प्रबंधन कारोबार-बंद कर देगा। भारत में यह बैंक 35 शाखाओं और 525 एटीएम के जरिये परिचालन करता है। भारत उन 13 बाजारों में शामिल है जहां से सिटीबैंक निकलना चाहता है। अमेरिका, हॉन्ग कॉन्ग, सिंगापुर, संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और ब्रिटेन में भी सिटीबैंक इस कारोबार में बना रहेगा। सिटीबैंक की नई मुख्य कार्याधिकारी जेन फ्रेजर ने एक रणनीतिक एवं बड़ा कारोबारी निर्णय लिया है। जहां तक भारत की बात है तो उनके इस निर्णय का यहां बैंक के प्रदर्शन से कोई संबंध नहीं दिखता है। दरअसल इस फैसले के पीछे अमेरिकी फेडरल रिजर्व और ऑफिस ऑफ द कंट्रोलर ऑफ करेंसी (ओसीसी) की नाराजगी संभवत: एक बड़ी वजह रही है। ओसीसी एक संघीय एजेंसी है जो राष्ट्रीय बैंकों से संबंधित कानूनों के क्रियान्वयन पर नजर रखती है। फेडरल रिजर्व और ओसीसी एंटरप्राइज-वाइड रिस्क मैनेजमेंट, अनुपालन जोखिम प्रबंधन, डेटा संचालन और आंतरिक नियंत्रण पर सिटीबैंक के रवैये से नाराज रहा है। अक्टूबर 2020 में ओसीसी ने जोखिम प्रबंधन प्रभावी ढंग से नहीं करने के लिए सिटीग्रुप पर 40 करोड़ डॉलर का जुर्माना भी लगाया था। बैंक को नए अधिग्रहणों के लिए पूर्व अनुमति लेने का फरमान सुना दिया गया। 


ओसीसी ने यह धमकी भी दे डाली कि अगर बैंक संचालन से जुड़ी खामियां दूर नहीं कर पाया तो वरिष्ठ प्रबंधन में वह बदलाव कर सकता है। दूसरी तरफ, फेडरल रिजर्व ने बैंक को एक चेतावनी पत्र जारी कर उसे कथित तौर पर नियामकीय दृष्टिï से अनुचित गतिविधियों से दूर रहने के लिए कहा। इसके अलावा निवेशक भी स्टॉक एक्सचेंजों पर सिटी के प्रदर्शन से खफा रहे हैं। बैंक का शेयर तथाकथित बुक वैल्यू से नीचे कारोबार करता रहा है और अपने प्रतिस्पद्र्धियों की तुलना में यह काफी फिसड्डी साबित हो रहा है। फ्रेजर ने मार्च में सिटीबैंक की कमान संभाली है। प्रश्न यह है कि उन्हें मुख्य रूप से सिटी के कॉर्पोरेट कारोबार पर या उपभोक्ता बैंकिंग पर ध्यान देना चाहिए? उपभोक्ता बैंकिंग अब एक वैश्विक कारोबार नहीं रह गया है। कॉर्पोरेट कारोबार में सिटी अधिक मजबूत स्थिति में दिखता है। उपभोक्ता बैंकिंग कारोबार प्रतिस्पद्र्धा और चुनौतियों से भरपूर है और इसमें वजूद बनाए रखने के लिए निरंतर निवेश करने और नई तकनीक आजमाने की जरूरत पड़ती है।


प्रतिस्पद्र्धा कितनी बड़ी भूमिका निभा सकता है इसका अंदाजा भारत में सिटीबैंक के क्रेडिट कार्ड कारोबार से लगाया जा सकता है। 2012 में 21 प्रतिशत बाजार हिस्सेदारी के  साथ सिटीबैंक भारत में क्रेडिट कार्ड जारी करने वाला दूसरा सबसे बड़ा बैंक था। क्रेडिट कार्ड खंड में इसके कार्ड पर व्यय पूरे क्रेडिट कार्ड कारोबार के औसत से दोगुना था। ई-कॉमर्स खंड में क्रेडिट कार्ड से होने वाली खरीदारी में इसकी हिस्सेदारी 30 प्रतिशत थी। वर्ष 2020 आते-आते क्रेडिट कार्ड खंड में इसकी हिस्सेदारी कम होकर करीब 6 प्रतिशत रह गई। इसके कार्ड से औसत व्यय क्रेडिट कार्ड खंड के औसत से अधिक रहने के बावजूद यह छठे स्थान पर आ गया। अगस्त 2020 में भारत में सिटीबैंक के 29 लाख खुदरा ग्राहक थे, जिनमें 12 लाख बैंक खाते और 22 लाख क्रेडिट कार्ड खाते थे। कई विश्लेषकों का मानना है कि सिटीबैंक को उपभोक्ता कारोबार बेचने से करीब 2.5 अरब डॉलर तक मिल सकते हैं। आखिर सिटी बैंक का उपभोक्ता कारोबार कौन खरीदेगा? कुछ बड़े निजी भारतीय बैंक जरूर सामने आएंगे। कुछ बड़े विदेशी बैंक भी इस सौदे पर विचार कर सकते हैं, खासकर वे भारतीय कारोबार या भारत सहित कुछ देशों में उपभोक्ता कारोबार खरीदने में दिलचस्पी दिखा सकते हैं। बड़ी देसी गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) भी इस होड़ में शामिल हो सकती हैं। 


अगर कोई भारत के निजी क्षेत्र का कोई बैंक इसे खरीदता है तो बिक्री की प्रक्रिया जल्द पूरी हो जाएगी लेकिन विदेशी बैंक या एनबीएफसी के साथ सौदा होता है तो मामला लंबा खिंच सकता है। विदेशी बैंक के मामले में विभिन्न देशों में नियामकीय अनुमति की जरूरत होगी, वहीं अगर कोई एनबीएफसी आगे आती है तो उसे सबसे पहले बैंकिंग लाइसेंस लेना होगा क्योंकि सिटी के उपभोक्ता कारोबार में खुदरा जमा रकम भी होगी। 


सिटीबैंक भारत में अपने कुल राजस्व का दो तिहाई हिस्सा संस्थागत कारोबार से अर्जित करता है। भारत में बहुराष्ट्रीय निगमों के कारोबार में सिटीबैंक की हिस्सेदारी 30 प्रतिशत है। सिटीकॉर्प इंडिया के चार केंद्र विभिन्न देशों में अमेरिका के इस बैंक के परिचालन में मदद करती है। इन चार केंद्रों के साथ कम से कम 19,000 कर्मचारी काम करते हैं। ये सभी कर्मचारी इसके साथ बने रहेंगे। अब नियामक और निवेशकों का गुस्सा झेलने के बाद फ्रेजर कारोबारी रणनीति बदल रही हैं और उपभोक्ता कारोबार से बाहर निकल रही हैं। दुनिया के 13 बाजारों में सिटी के प्रमुखों को इस काम को अंजाम देना होगा। सिटीबैंक के बहीखाते में कॉर्पोरेट बैंकिंग की हिस्सेदारी 60 प्रतिशत से कुछ अधिक है लेकिन मुनाफे में यह 75 प्रतिशत योगदान देता है। हां, खुदरा ग्राहकों के लिए सिटीबैंक नदारद रहेगा। 


(लेखक बिजनेस स्टैंडर्ड के सलाहकार संपादक, लेखक एवं जन स्मॉल फाइनैंस बैंक लिमिटेड में वरिष्ठï सलाहकार हैं।)



सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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चालू वित्त वर्ष के लिए वृद्धि दर का अनुमान (बिजनेस स्टैंडर्ड)

शंकर आचार्य 

लगभग एक साल पहले मैंने अनुमान लगाया था कि वित्त वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही में देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) सालाना आधार पर 25 प्रतिशत तक फिसल जाएगा। मैंने जब यह अनुमान व्यक्त किया था तो उस समय भारत में कोविड-19 को दस्तक दिए तीन महीने हो चुके थे और देशव्यापी लॉकडाउन लगे सात हफ्ते हो गए थे। मैंने पूरे वित्त वर्ष के लिए जीडीपी में 11-14 प्रतिशत की गिरावट आने का अंदेशा जताया था। ताज्जुब की बात यह थी कि उस समय भी सरकार, अंतरराष्ट्रीय संगठन जैसे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ), विश्व बैंक, अग्रणी निवेश बैंक और क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां वर्ष 2020-21 में जीडीपी वृद्धि दर सकारात्मक रहने की उम्मीद जता रहे थे। आखिर, 2020-21 की पहली तिमाही में जीडीपी 24 प्रतिशत फिसल गया। हालांकि लॉकडाउन हटने के बाद दूसरी और तीसरी तिमाही में अर्थव्यवस्था ने तेज रफ्तार पकड़ी और पूरे वित्त वर्ष के लिए जीडीपी वृद्धि दर में गिरावट 8 प्रतिशत तक सिमट कर रह गई। फिर भी, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में आई यह सबसे बड़ी गिरावट थी।


इस समय देश कोविड-19 महामारी की तथाकथित दूसरी लहर की चपेट में है। देश की अर्थव्यवस्था को नए वित्त वर्ष में प्रवेश किए छह हफ्ते बीत चुके हैं। आखिरकार, इन परिस्थितियों के बीच आर्थिक अनुमान के बारे में क्या कयास लगाए जा सकते हैं? इस समय भी चालू वित्त वर्ष में जीडीपी वृद्धि दर 9-12 प्रतिशत रहने की बात कही जा रही है। हालांकि पिछले वित्त वर्ष का न्यून आधार प्रभाव इसकी प्रमुख वजह रहेगी। फरवरी 2021 में बिज़नेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित एक आलेख में भी मैंने लगभग इतनी ही यानी 10-12 प्रतिशत तेजी रहने का अनुमान जताया था। अब दो महीने बाद पुराने अनुमान यथार्थ कम और आशावादी अधिक प्रतीत हो रहे हैं। मार्च और अप्रैल के आधिकारिक आंकड़े त्रासदी के असर से हमें आगाह करा रहे हैं। इन दो महीनों में रोजाना संक्रमण और मौत के आंकड़े क्रमश: 4 लाख और 4,000 से अधिक रहे हैं। हालांकि कई विशेषज्ञों के अनुसार वास्तविक आंकड़े इनसे काफी अधिक हो सकते हैं। महामारी की गंभीरता से स्वास्थ्य ढांचा बुरी तरह चरमरा गया है और सुस्त टीकाकरण कार्यक्रम ने आग में घी डालने का काम किया है। बढ़ते संक्रमण के बीच देश के कई राज्यों में लॉकडाउन और कफ्र्यू लग रहे हैं, खासकर देश के आर्थिक रूप से सर्वाधिक उत्पादक राज्यों जैसे दिल्ली, महाराष्टï्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में हालात सबसे अधिक बिगड़े हैं। 2020 में मार्च में देशव्यापी लॉकडाउन के असर को देखते हुए केंद्र सरकार राजनीतिक एवं स्वास्थ्य क्षेत्रों से आ रहे दबाव के बावजूद राष्ट्रीय लॉकडाउन लगाने से परहेज कर रही है।


तेजी से बढ़ती कोविड-19 महामारी और देश के विभिन्न राज्यों में लॉकडाउन का असर अप्रैल के आर्थिक आंकड़ों पर दिख चुका है। नए वाहनों का पंजीयन पिछले नौ महीनों के निचले स्तर पर आ गया है। खुदरा स्टोर एवं वर्कप्लेस से संबंधित गूगल आंकड़े भी तेज गिरावट का संकेत दे रहे हैं। बिजली उत्पादन और ईंधन की मांग भी कम हो गई है। जून 2020 से कुल रोजगार दर अब भी सबसे निचले स्तर पर है। सीएमआईई आंकड़ों के अनुसार अप्रैल में 70 लाख से अधिक लोग अपने रोजगार से हाथ धो चुके हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम का लाभ उठाने वाले परिवारों की संख्या अप्रैल में एक वर्ष पहले की तुलना में करीब 80 प्रतिशत तक बढ़ गई। देश में आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों पर दबाव लगातार बढ़ रहा है। इससे पहले वे 2020 में पहले ही आर्थिक दंश झेल चुके हैं। 


महामारी की दूसरी लहर नियंत्रण से लगभग बाहर होने और विभिन्न राज्यों में लॉकडाउन और कफ्र्यू जारी रहने के बीच वित्त वर्ष 2021-22 के लिए आर्थिक वृद्धि दर के बारे में अनुमान लगाना काफी मुश्किल है। आर्थिक वृद्धि दर की दशा एवं दिशा आपूर्ति पाबंदियों, स्वास्थ्य एवं व्यावसायिक जोखिमों को लेकर आर्थिक जगत की धारणा, खपत, निवेश, शुद्ध सरकारी व्यय और शुद्ध निर्यात के आंकड़ों के आपसी संबंधों पर निर्भर करेगी। फिलहाल इन सभी को लेकर अनिश्चितता की स्थिति है। आर्थिक वृद्धि दर का कोई अनुमान व्यक्त करना जोखिम भरा है, लेकिन थोड़ी हिम्मत जुटाकर कुछ अंदाजा जरूर लगाया जा सकता है। चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर 2020-21 की पहली तिमाही की तुलना में 15-20 प्रतिशत (सालाना आधार पर) अधिक रह सकती है। इससे पहले पहली तिमाही में 25-30 प्रतिशत तेजी आने का अनुमान व्यक्त किया गया था। मुझे लगता है कि पिछले वर्ष तीसरी एवं चौथी तिमाही की वृद्धि दर की तुलना में यह 5 से 10 प्रतिशत कम रहेगी। ऐसे में जब अगस्त के अंत में राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) पहली तिमाही के आंकड़े जारी करेगा तो सरकार और इसके बाहर कई लोग खुश हो सकते हैं। हालांकि 2020-21 की अंतिम तिमाही में दर्ज आर्थिक गतिविधियों की तुलना में यह एक बड़ी गिरावट की ओर इशारा करेगा। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि 2021-22 की पहली तिमाही में जीडीपी वित्त वर्ष 2019-20 की तुलना में काफी कम रह सकती है।


महामारी की दशा-दिशा, टीकाकरण कार्यक्रम से जुड़ी अनिश्चितताएं, वायरस के नए स्वरूप के आने की आशंका, सभी स्तर पर सरकार की नीतिगत पहल और वैश्विक राजनीतिक एवं आर्थिक घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2021-22 के लिए अनुमान लगाना काफी जोखिम भरा है। हालांकि इन सब बातों के बीच अगर 2021-22 में आर्थिक वृद्धि दर 6-8 प्रतिशत से अधिक रही तो यह मेरे लिए आश्चर्य की बात होगी। 


सर्वाधिक तेजी से उभरने वाली अर्थव्यवस्था जैसी सुर्खियां एक बार फिर इस्तेमाल में आ सकती हैं, लेकिन इन आंकड़ों से परिलक्षित होने वाली वास्तविकताओं से किसी को अनभिज्ञ नहीं रहना चाहिए। इसका मतलब होगा कि 2021-22 में वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर 2019-20 में दर्ज आंकड़ों से कम ही रहेगी। इतना ही नहीं, महामारी से पूर्व उत्पादन एवं वृद्धि की तुलना में भारत कम से कम 10-12 प्रतिशत अभिवृद्धि से हमेशा के लिए हाथ धो चुका होगा। चूंकि, महामारी और लॉकडाउन से समाज और अर्थव्यवस्था पर गहरा असर होगा इसलिए मध्यम अवधि में भारत की संभावित वृद्धि दर्ज करने की क्षमता महामारी से पूर्व के वर्षों में दर्ज आंकड़ों से निश्चित तौर पर कम होगी। अब प्रश्न है कि ऊपर जताए अनुमान से बेहतर परिणाम दर्ज करने के लिए किस तरह की नीति की आवश्यकता होगी? 


सबसे पहले तो कोविड-19 से बचाव के लिए टीकाकरण अभियान तेज करना होगा। यह दुख की बात है कि टीका उत्पादन, इनका वितरण और इन्हें लगाने की रफ्तार तेजी से आगे नहीं बढ़ पाई है। अगर टीकाकरण अभियान तेजी से चल रहा होता तो दूसरी लहर कमजोर रहती और देश को इतनी बड़ी त्रासदी का सामना नहीं करना पड़ता। ऐसे में टीकाकरण कार्यक्रम तेजी से आगे बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया जा सकता है। स्वास्थ्य, लोगों के जीवन, उनकी आजीविका और समग्र आर्थिक गतिविधियों पर इसका काफी सकारात्मक असर हो सकता है। पिछले वर्ष राजकोषीय घाटा की चिंता किए बिना और नकदी डालने में सरकार ने कोताही नहीं की थी लेकिन इस बार इस मोर्चे पर काफी कम गुंजाइश दिख रही है और सरकार अगर हाथ खोलती है तो वित्तीय स्थायित्व, कर्ज चुकाने की क्षमता और ऊंची महंगाई दर के मोर्चे पर गंभीर चुनौतियां पैदा हो सकती हैं।


(लेखक इक्रियर के मानद प्राध्यापक हैं और भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रह चुके हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)


सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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मानव व्यवहार और सामाजिक संदर्भ (बिजनेस स्टैंडर्ड)

आर गोपालकृष्णन 


कॉर्पोरेट जगत हो या फिर सार्वजनिक जीवन, गलतियां तो होंगी। ऐसे में आपदा बन सकने वाली किसी गलती के बाद उठाया गया आपका कदम काफी अहम होता है। हो सकता है कि आपको यह अहसास ही न हो कि आपने कोई गलती की है लेकिन दूसरे लोग आपको सामाजिक संदर्भ के आईने में देखते हैं। न्यूरेमबर्ग के आरोपी ने अपनी गलती नहीं मानी लेकिन पूरी दुनिया ने दुखदायी हरकत के आधार पर ही उसे परखा।


कंपनियों में भी कुछ शर्मनाक नाकामियां घटती हैं। कई दशक पहले जब मैं पहली बार निदेशक बना था तो अपने मातहत की वित्तीय गड़बडिय़ां पता लगा पाने में नाकाम रहा था। इससे मेरे करियर को नुकसान पहुंचने के साथ मेरी कंपनी की प्रतिष्ठा भी धूमिल हो सकती थी। लेकिन मेरी किस्मत अच्छी थी कि मैंने अपने मुख्य कार्याधिकारी एवं मुख्य वित्तीय अधिकारी से मदद मांग ली और उन्हें मेरी स्थिति का अंदाजा हो गया। अगले कुछ महीनों में हमने इस मामले को निपटा दिया लेकिन मैं अपने वरिष्ठ सहकर्मों के बीच खुद को अपमानित महसूस करता रहा। इतना जरूर है कि मैंने खुद को ज्यादा शर्मसार होने से बचा लिया।


जब 2001 के आसपास टाटा फाइनैंस में गड़बड़ी का पता चला तो खुद रतन टाटा ने ही इस मामले को उठाया। उन्होंने फौरन गलती मानी और मेरे सहकर्मी इशात हुसैन को बचाव कार्य में जुटने को कह दिया। इन अनुभवों ने मुझे इस बारे में सोचने को मजबूर किया है कि एक नेता को उस समय क्या करना चाहिए जब उसे अपने अधीन हो रही बड़ी गलती का पता चले।


स्विस मूल की अमेरिकी विद्वान डॉ इलिजाबेथ कब्लर रॉस ने जीवन के खतरे से जूझ रहे और मरणासन्न मरीजों के बरताव में पांच चरणों वाला एक पैटर्न होने की बात कही। पहला, बीमारी की चपेट में आने को नकारना। दूसरा, इस बात को लेकर गुस्सा होना कि आखिर मुझे ही यह बीमारी क्यों हुई? तीसरा, वार्तालाप में दूसरों पर दोष मढऩा और वैकल्पिक चिकित्सा उपायों के बारे में अंतहीन चर्चा करना। चौथा, सभी वैकल्पिक उपायों के नाकाम होने की आशंका देख अवसाद की स्थिति। पांचवां एवं अंतिम, बीमारी को मन से स्वीकार कर उसके इलाज की दिशा में सकारात्मक कदम बढ़ाना। कूटबद्ध तरीके से इसे 'डंडा' का नाम दिया गया है। अफसोस की बात यह है कि गंभीर प्रयास करने के पहले ही शुरुआती चार चरणों में मरीज का काफी वक्त खराब हो जाता है।


अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के हब्बल स्पेस टेलीस्कोप के साथ भी 1990 में हुआ हादसा कई सबक देता है। एक किताब आने के बाद आला दर्जे की तकनीकी टीम को यह पता चला कि हब्बल टेलीस्कोप को एक दोषपूर्ण आईने के साथ लॉन्च कर दिया गया है। करीब 1.7 अरब डॉलर की भारी लागत वाली इस परियोजना पर सबकी नजर टिकी थी लिहाजा मीडिया में भी खूब आलोचना हुई और मामले की जांच शुरू हो गई। पता चला कि गलती आईने का खाका बनाने में प्रयुक्त नल करेक्टर के समायोजन में थी। आश्चर्य की बात है कि आईने की यह गड़बड़ी पर्किन एमर संयंत्र में किए गए वेंडर परीक्षणों में भी नजर आई थी। समीक्षा बोर्ड ने इस पर अचरज जताया कि परियोजना की चतुर तकनीकी टीम ने इन खामियों पर पहले जोर क्यों नहीं दिया?


उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि अत्यधिक दबाव वाले कार्यक्रम एवं बजट दबावों के चलते हर किसी का ध्यान तेजी से आगे बढऩे पर ही लगा था। अपने ठेकेदारों पर नासा का शिकंजा काफी ज्यादा रहा है। अगर वेंडर नतीजों को तर्कसंगत नहीं बता पाते तो फिर वे गलती की भी रिपोर्ट नहीं दे सकते थे। ठेकेदार अक्सर लगने वाली लताड़ से आजिज आ चुके थे। यही कारण है कि टेलीस्कोप में आईने को समायोजित करने से जुड़ी एक छोटी गलती हजारों समर्पित लोगों की मेहनत एवं उपलब्धियों पर भारी पड़ी। लेकिन इस मामले में जो आगे हुआ, वह एक बड़ा सबक लेकर आया। समीक्षा बोर्ड ने इसे नेतृत्व की असफलता माना, न कि एक तकनीकी नाकामी।


एक नेता के तौर पर नासा के खगोल-भौतिकी निदेशक चाल्र्स पेलेरिन ने अपनी जिम्मेदारी स्वीकार की और नासा से हट गए। फिर वह एक बिज़नेस स्कूल से जुड़ गए और इस सवाल पर शोध करने लगे कि प्रबंधन में सामाजिक संदर्भ किस तरह एक घटक होता है? पेलेरिन और कुछ अन्य विद्वानों ने एक टीम निर्माण प्रक्रिया विकसित की जो टीम के सदस्यों को एक-दूसरे को समझने एवं सामाजिक संदर्भ परखने में मदद करती है। लोगों के परिपक्व समूह संस्कृति एवं टीम परिवेश के प्रभाव को समझते हैं और इन नरम संकेतकों को मापने एवं इन पर नजर रखने के तरीके ईजाद करते हैं। ये संकेतक नवाचार समेत हर चीज को प्रभावित करते हैं।


हब्बल टेलीस्कोप जैसे हादसे सार्वजनिक जीवन में भी घटित होते हैं। हो सकता है कि उनके सामाजिक संदर्भ अलग हों लेकिन संदर्भ की भूमिका बहुत बड़ी होती है।


माइकल लुइस की किताब 'द प्रीमनिशन' कोविड महामारी से निपटने के ट्रंप प्रशासन के तौर-तरीकों का विवरण देती है। अमेरिका में संचारी रोग विभाग के निदेशक रॉबर्ट रेडफील्ड जैसे राष्ट्रपति-नामित शख्स को नए प्रशासन में हटा दिया जाना आसान है लेकिन संक्रामक रोग संस्थान के निदेशक एंटनी फाउची जैसे सक्षम लोक सेवक को हटा पाना मुश्किल है। वहीं भारत में इसका ठीक उलटा है। संवैधानिक रूप से  नियुक्त किसी शख्स (मसलन, मुख्य निर्वाचन आयुक्त या नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक) को हटा पाना मुश्किल है लेकिन एक लोक सेवक के खिलाफ कदम उठाना आसान है। यही कारण है कि भारत के अफसरशाह एवं वैज्ञानिक भी छोटे पालतू कुत्ते (लैपडॉग) ही साबित होते हैं।


कई संकट तकनीकी होने के बजाय नेतृत्व की नाकामी की उपज होते हैं। नेता एक एजेंडा पर इतनी शिद्दत से काम करते हैं कि वे अपनी टीम के सामाजिक संदर्भों का हिस्सा ही नहीं बन पाते हैं। सहज विनम्रता एवं संवेदना की एक खुराक अपमान के भाव को दूर कर सकती है। फिर अनुचित कोविड बर्ताव का एक नेतृत्व प्रदर्शन भी देखने को मिला है। बेपरवाह एवं सोचे-समझे अद्र्ध-सत्य पेश किए गए। मीडिया, अदालतों, नेताओं, अफसरशाहों, वैज्ञानिकों एवं अर्थशास्त्रियों की त्वरित टिप्पणियों ने जनमत के घड़े को मथ दिया।


नेतृत्व की असफलता को तो सतही तौर पर भी नहीं स्वीकार किया गया है। उद्देश्यपूर्ण कार्रवाई की रफ्तार सुस्त एवं अव्यवस्थित रही है। कोविड महामारी की भयावहता का स्तर अप्रत्याशित रूप से बहुत ज्यादा रहा है लेकिन टीकाकरण कार्यक्रम को लगातार नजरअंदाज किया जाना 'टीका उत्सव' जैसे आयोजन से काफी अलग है। हालांकि बदनाम एवं उपेक्षित नागरिक समाज समूहों के तौर पर गैर-सरकारी संगठनों और धार्मिक-सामुदायिक-सांस्कृतिक संगठनों की प्रतिक्रिया काफी शानदार रही है।


तमाम राय इस पर आधारित है कि कोविड की दूसरी लहर में मची तबाही क्या प्रकृति की अनिश्चितता, नियोजन की नाकामी या सिर्फ हेकड़ी दिखाने की वजह से हुई है? हालांकि नेता अगर विनम्रता से अपनी गलती मान लें तो मौजूदा कदमों को भी कम सख्त माने जाने का मौका हो सकता है। वैसे मुझे मालूम है कि महामारी का दंश झेल रहे तमाम परिवार ऐसा नहीं कहेंगे।

(लेखक कॉर्पोरेट सलाहकार हैं। वह टाटा संस के निदेशक एवं हिंदुस्तान यूनिलीवर के वाइस- चेयरमैन रह चुके हैं)



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श्रम-रोजगार -आर्थिक सुधार पर घट रही मांग की लटकती तलवार (बिजनेस स्टैंडर्ड)

महेश व्यास

कोविड-19 संक्रमण से उत्पन्न भविष्य की अनिश्चितताओं ने उपभोक्ताओं का उत्साह ठंडा कर दिया है। उपभोक्ता नजरिया एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक संकेत होता है, जो हमें यह बताता है कि लोग अपनी वित्तीय स्थिति और देश की अर्थव्यवस्था के बारे में क्या सोचते हैं। इस महामारी से बचाव के टीके उपलब्ध होने के महीनों बाद भी जीवन एवं आजीविका के समक्ष गंभीर चुनौतियां खड़ी हैं। स्वास्थ्य व्यवस्था की बिगड़ी सेहत और सरकार एवं प्रशासन की विफलताओं ने मुश्किल हालात पैदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। महामारी से लोग असमय काल के ग्रास बन रहे हैं और मरणोपरांत भी उनके शवों को सम्मान नसीब नहीं हो रहा है। महामारी की गिरफ्त में आकर देश में परिवारों की आय भी कम या खत्म हो गई है। भविष्य को लेकर उपभोक्ताओं का उत्साह एवं नजरिया दोनों कमजोर हो गए हैं। आर्थिक सुधार को गति देने के लिए मांग और खपत अति महत्त्वपूर्ण होते हैं।

उपभोक्ताओं की धारणा परिलक्षित करने वाला सूचकांक 16 मई को समाप्त हुए सप्ताह में 1.5 प्रतिशत तक लुढ़क गया। यह लगातार पांचवां सप्ताह रहा जब उपभोक्ता धारणा कमजोर रही। 11 अप्रैल को समाप्त हुए सप्ताह से इस सूचकांक में गिरावट का सिलसिला शुरू हुआ था और तब से यह 8.3 प्रतिशत तक फिसल गया है। मार्च के अंतिम सप्ताह से यह 9.1 प्रतिशत तक लुढ़क चुका है। पारिवारिक आय में कमी और भविष्य को लेकर निराशा का भाव इस गिरावट का मुख्य कारण रहे हैं।


16 मई को समाप्त हुए सप्ताह में केवल 3.1 प्रतिशत परिवारों ने कहा कि उनकी आय एक वर्ष पूर्व की तुलना में बढ़ी है। जो परिवार यह कह रहे हैं कि एक वर्ष पहले की तुलना में उनकी आय बढ़ी, उनका अनुपात 21 मार्च को समाप्त हुए सप्ताह से लगातार कम हो रहा है। लगभग उसी दौरान जिन परिवारों ने कहा था कि एक वर्ष पहले की तुलना में उनकी आय कम हुई है, उनका अनुपात बढ़ता जा रहा है। एक वर्ष पहले की तुलना में 55.5 प्रतिशत परिवारों की आय कम हो गई है। शेष 41.5 प्रतिशत लोगों का कहना है कि उनकी पारिवारिक आय नहीं बढ़ी है। करीब 97 प्रतिशत भारतीय परिवारों की वास्तविक आय ंकम हुई है।


पिछले कुछ सप्ताहों से श्रम बाजार में भी तनाव महसूस किया जा रहा है। श्रम भागीदारी दर कम हुई है और बेरोजगारी दर भी बढ़ी है। अप्रैल 2021 में बेरोजगारी दर बढ़ी थी और उपभोक्ताओं के उत्साह में कमी आई थी और मई में भी ऐसी परिस्थितियां बनती नजर आ रही हैं। 16 मई को समाप्त सप्ताह में बेरोजगारी दर 14.5 प्रतिशत तक पहुंच गई। पिछले एक वर्ष में यह सबसे ऊंची बेरोजगारी दर है। वर्ष 2020-21 में औसत बेरोजगारी दर 8.8 प्रतिशत थी। अप्रैल 2021 में यह 8 प्रतिशत थी। मई 2021 में यह दो अंकों में पहुंच सकती है।


पिछले एक वर्ष के दौरान श्रम बाजारों के व्यवहार और उपभोक्ता  धारणा में दिखा अंतर अप्रैल-जून 2020 के दौरान अर्थव्यवस्था में आई तेज गिरावट के बाद आर्थिक सुधार की गति एवं प्रकृति की ओर इशारा करता है। अप्रैल और मई 2020 के दौरान देशव्यापी लॉकडाउन लगाने से श्रम बाजार और उपभोक्ताओं का उत्साह धराशायी हो गए थे। श्रम भागीदारी में तेज गिरावट आई और बेरोजगारी दर दो महीनों में 20 प्रतिशत से अधिक हो गई। रोजगार दर अप्रैल में 27 प्रतिशत फिसल गई। अप्रैल में उपभोक्ताओं का उत्साह 43 प्रतिशत फिसल गया और मई 2020 में इसमें और 9 प्रतिशत कमी आ गई।


मई में रोजगार की स्थिति में 11 प्रतिशत सुधार हुआ। वर्ष 2020-21 में रोजगार की स्थिति सुधरती गई, लेकिन इसकी रफ्तार हरेक महीने काफी सुस्त होती चली गई। अप्रैल 2021 में रोजगार की स्थिति कोविड-19 महामारी से पूर्व की स्थिति के करीब पहुंच गई थी, लेकिन यह तब भी कम ही थी। रोजगार में लगी आबादी 39.08 करोड़ के साथ वर्ष 2019-20 के औसत से 4.4 प्रतिशत कम थी। अप्रैल 2020 में रोजगार के आंकड़े 2019-20 के मानक सूचकांक से 31 प्रतिशत कम थे।


उसके बाद रोजगार की स्थिति में शुरू हुआ सुधार का असर उपभोक्ताओं की धारणा पर नहीं दिख रहा है। अप्रैल 2021 में उपभोक्ताओं का उत्साह 2019-20 की तुलना में करीब 49 प्रतिशत कम था। अप्रैल 2020 में यह 2019-20 के औसत से करीब 49 प्रतिशत कम था। शुरुआती गिरावट के बाद उपभोक्ताओं की धारणा लगातार कमजोर बनी हुई है।


बिजली उत्पादन, रेल माल ढुलाई, जीएसटी संग्रह, इस्पात उत्पादन, दोपहिया उत्पादन संकेत दे रहे हैं कि कोविड-19 महामारी, लॉकडाउन और यातायात पर पाबंदी का असर पीछे छूट चुका है और देश की अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ रही है। सितंबर 2020 तक बिजली उत्पादन पूरी तरह सुधर चुका था। अगस्त 2020 तक रेलमार्ग से होने वाली माल ढुलाई भी पूरी गति पकड़ चुकी थी। सितंबर 2020 तक जीएसटी संग्रह भी बढऩे लगा था। अगस्त 2020 तक तैयार इस्पात और दोपहिया वाहनों के उत्पादन के आंकड़े भी सुधरने लगे थे।


यातायात पर पाबंदी समाप्त होने या इसमें ढील दिए जाने के बाद सितंबर तक अर्थव्यवस्था में आपूर्ति पक्ष में सुधार शुरू हो गया था। हालांकि अर्थव्यवस्था उस अनुपात में रोजगार नहीं दे पाई और न ही परिवारों की आय पहले जैसी बढ़ी। दिसंबर 2020 तक परिवारों की आय 2019-20 के औसत की तुलना में मोटे तौर पर 6.7 प्रतिशत कम थी। भारतीय परिवार आर्थिक रूप से पिछड़ते जा रहे हैं। आपूर्ति पक्ष कम से कम बड़े संगठित क्षेत्रों में सुधर चुका है लेकिन मांग लगातार कमजोर बनी हुई है। अगर पारिवारिक आय कम हो रही है और भविष्य को लेकर उनके मन में अनिश्चितता का भाव है तो वे उत्साहित होकर खर्च करने से शर्तिया परहेज करेंगे। इसका नतीजा यह होगा कि मांग से जुड़ी दिक्कतें सुधार की राह में गंभीर चुनौती पेश करेंगी।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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सुधारों का परिणाम (बिजनेस स्टैंडर्ड)

रबी की फसल के समस्यारहित विपणन के कारण अधिकांश फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर रिकॉर्ड खरीद हुई है और इसे सरकार और किसानों के बीच तीन कृषि सुधार कानूनों को लेकर बने गतिरोध से अलग करके नहीं देखा जा सकता। सबसे अधिक ध्यान देने वाली बात यह है कि सर्वोच्च न्यायालय की ओर से नए कानूनों पर फिलहाल रोक लगाए जाने के बावजूद कुछ अहम सुधारवादी कदमों का सफलतापूर्वक क्रियान्वयन किया जा सका। बिचौलियों (आढ़तियों) को किनारे करना और प्रत्यक्ष नकदी स्थानांतरण के तहत किसानों को उपज का सीधा भुगतान करना इसके अहम उदाहरण हैं। केंद्र ने भूमि क्षेत्र में लंबे समय से लंबित कुछ सुधारों को लागू करने की दिशा में भी अनुकूल माहौल बनाया है। इसमें भू रिकॉर्ड में सुधार और जमीन पट्टे पर देने को कानूनी रूप प्रदान करना अहम है।

आश्चर्य नहीं कि पहले जहां किसानों ने इन उपायों का विरोध किया था, वहीं अब उन्होंने इन पर नरम रुख दिखाया है। किसान अपनी उपज का समय पर और पूरा भुगतान पाकर प्रसन्न हैं। पंजाब और हरियाणा में जहां उनकी ओर से आढ़तिये ही लेनदेन करते थे, वहां ऐसा शायद ही होता था। आढ़तिये अपना कमीशन काटने तथा अन्य समायोजन के बाद किसानों को पैसा देने में पूरा समय लेते थे। भुगतान व्यवस्था को लेकर किसानों की संतुष्टि और एमएसपी आधारित सरकारी खरीद व्यवस्था के जारी न रहने को लेकर भय कम होने को विश्लेषक दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे पांच महीने पुराने आंदोलन के कमजोर पडऩे से जोड़ रहे हैं। प्रदर्शन स्थलों पर लोगों की तादाद बहुत कम हो चुकी है। आश्चर्य नहीं कि राजनीतिक संबद्धता वाले किसान संगठन अब 26 मई को दिल्ली में एक बड़ा प्रदर्शन करना चाहते हैं।


सरकार ने एक नवाचारी अनाज खरीद पोर्टल की शुरुआत की जिसने उसे आढ़तियों का मुकाबला करने में सक्षम बनाया। आढ़तिये पारंपरिक रूप से किसानों की ओर से अनाज की खरीद बिक्री करते आए हैं। इससे किसानों को अपनी उपज सीधे अपनी पसंद की एजेंसी को बेचने और प्रत्यक्ष भुगतान हासिल करने की सुविधा मिली है। इस वर्ष इस पोर्टल का इस्तेमाल किसानों को सीधा भुगतान करने के लिए किया गया। परंतु इसके इस्तेमाल का विस्तार करके आढ़तियों को किसी भी समय कृषि व्यापार से पूरी तरह बाहर किया जा सकता है। दूसरी ओर, भूमि संबंधी सुधारों की जरूरत केंद्र सरकार के उस कार्यकारी आदेश से उपजी जिसमें किसानों से कहा गया कि वे इस बात का प्रमाण दें कि  उनके पास उस जमीन पर खेती का अधिकार है जिसकी फसल वे सरकारी खरीद के लिए दे रहे हैं। फिलहाल छह महीने के लिए स्थगित इस मांग से पंजाब के अधिकांश किसानों को समस्या होना तय है क्योंकि वे मौखिक सौदेबाजी के जरिये जमीन खेती के लिए पट्टे पर देते हैं। ऐसे में राज्य सरकार को या तो जमीन के स्वामित्व का स्पष्ट उल्लेेख करना होगा या जमीन पट्टे पर लेने की व्यवस्था को कानूनी रूप देना होगा ताकि भूमि स्वामियों और बटाईदारों दोनों के हितों की रक्षा की जा सके।


ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार ने किसानों को यह संदेश दे दिया है कि प्रस्तावित सुधार उनके लाभ के लिए हैं। इसके साथ ही उसने नए कानूनों को निरस्त करने की मांग कर रहे प्रदर्शनकारियों को यह संदेश भी दिया है कि उसके पास सुधारों को लागू करने के अन्य रास्ते मौजूद हैं। ऐसे में बेहतर यही होगा कि साझा स्वीकार्यता वाला रास्ता निकाला जाए ताकि मौजूदा गतिरोध समाप्त हो सके। सरकार को एक कदम आगे बढ़ाकर नाराज किसानों का भरोसा हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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Wednesday, May 19, 2021

कोविड-19 की दूसरी लहर और मोदी का भारत (बिजनेस स्टैंडर्ड)

कनिका दत्ता 

हिंदू मध्य वर्गीय भारत का एक बड़ा तबका जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुखर भक्त्त हुआ करता था, वह अचानक तीक्ष्ण आलोचकों में तब्दील हो गया है। इस मोह भंग का बतौर प्रधानमंत्री उनके अब तक के कार्यकाल से कोई संबंध नहीं है। जब आर्थिक वृद्धि बुरी स्थिति में पहुंची, बेरोजगारी ने नई ऊंचाइयां तय कीं, सन 2014 और 2019 के बीच जब समाज में धु्रवीकरण अप्रत्याशित रूप से बढ़ा तब भी उनका मोहभंग नहीं हुआ। सन 2020 में जब अत्यंत कठोर देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान लाखों प्रवासी श्रमिक पैदल अपने घरों को लौट रहे थे तब भी मोदी की लोकप्रियता प्रभावित नहीं हुई। जो कुछ हुआ उससे उनके समर्थक प्रभावित नहीं हुए। 


मौजूदा मोहभंग की वजह है मौजूदा झटका जो देश के तमाम अन्य लोगों के साथ जोशीले बहुसंख्यक शहरियों को भी झेलना पड़ रहा है। अब त्रासदी उनके घर भी आ रही है। कोविड-19 की दूसरी लहर में उन्हें भी अपने परिजन, मित्र और सहकर्मी गंवाने पड़ रहे हैं। उन्हें भी अस्पताल में बिस्तरों, ऑक्सीजन, दवाओं की कमी का सामना करना पड़ रहा है और विश्राम स्थलों में अंतिम संस्कार के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ रही है। 


कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई में कमजोर पडऩे के साथ ही मोदी का रसूख भी गायब होता नजर आ रहा है। अब मुख्यधारा का मीडिया और सरकार द्वारा प्रताडि़त तबका दोनों जमकर सरकार की आलोचना कर रहे हैं। ऐसा तब हो रहा है जबकि यह सरकार अपने आलोचकों को खामोश करने के लिए कुख्यात है। सरकार के सहयोगी रहे एक मीडिया चैनल के कुछ कर्मचारी जिन्होंने पहले कभी पूर्वग्रह से ग्रस्त कवरेज को लेकर सवाल नहीं किया, उन्होंने अब चैनल के एंकरों को एक पत्र लिखकर शिकायत की है कि लीपापोती की जा रही है। सेंट्रल विस्टा के निर्माण को आज ऐसे देखा जा रहा है जैसे मोदी नीरो के समान लोगों के कष्टï की अनदेखी कर रहे हों। 


हकीकत तो यह है कि स्वास्थ्य सेवा ढांचा जिस प्रकार चरमराया हुआ है वह तो घटित होना ही था फिर चाहे सत्ता में मोदी होते या कोई और होता। प्रति 10,000 आबादी पर पांच बिस्तरों का अनुपात दुनिया में सबसे खराब अनुपात में से एक है। यह मोदी द्वारा सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को निजी क्षेत्र के लिए त्याग देने से काफी पहले से ऐसा ही है। अब तक इस निजीकरण को लेकर चिंताएं उदार मीडिया तक सीमित थीं लेकिन जो हालात बने हैं उनमें पूरी दुनिया की निगाह भारत में स्वास्थ्य की स्थिति पर है। 


कुंभ मेले का आयोजन रद्द करके लाखों जोशीले हिंदुओं की नाराजगी मोल लेने के लिए किसी भी वैचारिकी वाले सत्ता प्रतिष्ठान को असाधारण साहस की जरूरत पड़ती। लेकिन बात यह है कि अगर कोई यह जुआ खेल सकता था तो वह मोदी ही हैं। उनके तमाम गलत कदमों के बावजूद उनकी लोकप्रियता न केवल बरकरार रही बल्कि बढ़ी है। यही कारण है कि उनका कुंभ मेला रद्द करने में देरी करना समझ में नहीं आता। क्या उन्हें अपने समर्थकों पर संदेह है? या फिर उन्हें लगता है कि बहुत स्थायी और गहराई लिए नहीं है।


उदारवादी सोच वाला कोई व्यक्ति यह भी पूछ सकता है कि कथित रूप से इतना शानदार प्रशासक होने और सफाई को लेकर इतना चिंतित रहने के बावजूद गत वर्ष कोविड-19 के आगमन के तत्काल बाद स्वास्थ्य क्षेत्र के बुनियादी ढांचे की समस्या का तत्काल निराकरण करने का प्रयास क्यों नहीं किया? इस क्षेत्र में अगर सार्वजनिक चिकित्सालय और स्वास्थ्य ढांचा बनाने का प्रयास किया जाता तो इसका वैसा ही असर होता जैसा कि हमें सड़क और राजमार्ग निर्माण में देखने को मिला है। परंतु तब तक तो मोदी कोरोना वायरस पर जीत की घोषणा भी कर चुके थे और लोगों ने उन पर यकीन किया। हरिद्वार में भारी भीड़ स्नान कर रही थी और चुनावी रैलियोंं में भी ऐसा ही दृश्य देखने को मिल रहा था। दूसरी लहर जो पहली लहर की तुलना में कई गुना अधिक संक्रामक थी, उसके बारे में मिल रही शुरुआती चेतावनियों की अनदेखी कर स्टेडियम का नाम बदलने और चुनाव जीतने में ऊर्जा लगाई गई। 


मोदी की प्राथमिकताएं हमेशा से अप्रत्यक्ष रही हैं। किसी भी राजनेता के लिए अर्थव्यवस्था में मंदी और बढ़ती बेरोजगारी प्राथमिकता होती। खासतौर पर तब जबकि ये दोनों नोटबंदी जैसे उसी नेता के प्रयोग से उत्पन्न हुई हों। परंतु इन पर ध्यान देने के बजाय मोदी ने जीएसटी पेश कर दिया जिसने छोटे और मझोले उपक्रमों को बहुत बड़ा झटका दिया। राज्यों को गोकुशी करने वाले कसाई खाने बंद करने के आदेश ने मुस्लिम पशुपालन कारोबार और मांस तथा चमड़ा उद्योग में काम करने वाले लोगों की आजीविका को संकट में डाल दिया। गरीब परिवारों को गैस सिलिंडर का वितरण और जन धन खाते जैसी योजनाएं चुनावी लाभ से प्रेरित थीं और ये मोटे तौर पर अमेरिका के सब प्राइम संकट जैसी साबित हुईं जहां अमेरिकी बैंकों ने गरीब और मध्य वर्गीय अमेरिकियों को ऋण दिया जो वे चुका नहीं सके।


मोदी की सत्ता में वापसी के बाद भी वही सिलसिला जारी रहा। अर्थव्यवस्था डूब रही थी लेकिन वह मंदिर बनाने, अपने लिए नया आवास बनाने, बिना जनता को बताये जम्मू कश्मीर का दर्जा बदलने और अत्यंत कठोर लॉकडाउन लगाने में व्यस्त रहे। उन्होंने नागरिकता कानून में संशोधन किया ताकि अधिक से अधिक मुस्लिमों को बाहर रखा जा सके। उनकी सरकार ने किसानों से विमर्श किए बिना कृषि कानून पारित किए। जब महामारी ने हमला किया तो उन्होंने देश से थाली बजाने, बिजली बंद करने और दीये जलाने को कहा। अब वह किसी तरह बचे रहने के लिए पिछली सरकार की उस ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का सहारा ले रहे हैं जिसकी वे आलोचना करते थे। यह ऐसे नेता की तस्वीर नहीं है जो देश की बेहतरी के लिए चिंतित हो। उनका शासन व्यक्तिगत और राजनीतिक एजेंडा पूरा करने वाला है।


सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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दायित्व के निर्वहन से पीछे नहीं हटे सरकार (बिजनेस स्टैंडर्ड)

श्याम सरन 

भारत इस समय भीषण त्रासदी से गुजर रहा है। कोविड-19 महामारी से देश शवों के ढेर पर खड़ा है और अनगिनत परिवारों की दुनिया उजड़ गई है। इस महामारी ने यह बात भी उजागर कर दी है कि हमारा देश किस तरह अपने नागरिकों को न्यूनतम बुनियादी सुविधाएं देने में विफल रहा है और लोग स्वास्थ्य एवं जीने के अधिकार से वंचित रखे गए हैं। एक लोकतंत्र के तौर पर भारत अपने नागरिकों के लिए स्वाभिमान की जिंदगी सुनिश्चित करने में विफल साबित हुआ है और हालत इतनी खराब है कि मरने के बाद भी लोगों के शवों को उचित सम्मान नहीं मिल पा रहा है।


इस गहरे संकट के दौर में देश के नागरिक भगवान भरोसे छोड़ दिए गए हैं। बस आपसी भाईचारे, नागरिक समाज की सहानुभूति, सामुदायिक स्तर पर हो रहे प्रयासों और कुछ लोगों के नेक कर्मों की बदौलत वे कोविड-19 महामारी से जूझ रहे हैं। देश के संघीय ढांचे में पहले ही दरार पड़ गई थी और इस महामारी में दरार और चौड़ी हो गई है। आखिरकार, आपदा प्रबंधन में राज्यों से समन्वय करने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की बनती है। जैसे ही केंद्र को लगा कि वह कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर से निपटने में विफल हो गया है उसने तपाक से राज्यों पर दोषारोपण करना शुरू कर दिया। 


आरोप-प्रत्यारोप की हवा जोर-जोर से बह रही है। केंद्र सरकार के एक वरिष्ठï मंत्री ने मौजूदा संकट से पल्ला झाड़ लिया और दावा कर डाला कि राज्य सरकारों को दूसरी लहर के प्रति पहले ही आगाह कर दिया गया था और उन्हें इसकी रोकथाम के आवश्यक उपाय करने के लिए कह दिया गया था। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस कथन का जिक्र करना किसी ने जरूरी नहीं समझा जो उन्होंने 28 जनवरी को विश्व आर्थिक मंच के सम्मेलन में कहा था।


प्रधानमंत्री के उस कथन का निहितार्थ यह था कि भारत कोविड-19 महामारी को मात देने में सफल रहा है और इससे निपटने में अब दुनिया का नेतृत्व करने के लिए तैयार है। भारत का वह दावा भी खोखला साबित हुआ है जिसमें उसने कहा था कि वह दुनिया में गरीब से लेकर अमीर देशों को टीके मुहैया करा रहा है। नौबत यह आ गई है कि 'दुनिया का दवाखाना' होने का दावा करने वाला भारत स्वयं दूसरे देशों से दवाएं और टीके मांग रहा है। देश के नागरिक लॉकडाउन के कारण अपने घरों में बंद हैं लेकिन सरकार सेंट्रल विस्टा परियोजना को आवश्यक सेवा बताकर नैतिकता से संबंध तोड़ रही है।


कोविड-19 महामारी से जान गंवा चुके लोगों की जलती चिताओं के बीच नए संसद भवन और प्रधानमंत्री के लिए भव्य आवास बनाने की परियोजना जारी रहने को एक विडंबना ही कहा जा सकता है। लोकतंत्र में जवाबदेही एक बुनियादी चीज है लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार का दूर तक इससे कोई लेना देना नहीं है। मैं इस बात की चर्चा पहले भी कर चुका हूं कि मौजूदा नेतृत्व किस तरह लोगों का ध्यान भटकाने में सफल रहा है। यह कार्य सांप्रदायिक धु्रवीकरण और राज्य सरकारों पर दोषारोपण करने से लेकर किसी बाहरी ताकत की साजिश बताने तक जैसे कई रूपों में हो रहा है। हालांकि देश जिस त्रासदी और संकट से जूझ रहा है उसमें लोगों का ध्यान भटकाना असंभव है।


चारों तरफ के हालात चीख-चीख कर सच्चाई बता रहे हैं। क्या सब कुछ नियंत्रण में होने का दावा कर और विदेशी, खासकर पश्चिमी मीडिया में हो रही आलोचनाओं का त्वरित जवाब देकर एक देश के तौर पर हम अपनी विफलता छुपा सकते हैं? या फिर देश में सरकार के आलोचक दुनिया को नुक्ताचीनी करने का मौका दे रहे हैं, इसलिए उन्हें क्या नहीं रोका जाना चाहिए? इन बातों में उलझकर भारत अपने हित नहीं साध सकता है। हम अपनी कमजोरी स्वीकार कर ही दूर कर सकते हैं। वर्तमान परिस्थितियों में शासन व्यवस्था में कमियां पूरी तरह उजागर हो गई हैं और यह अब किसी से छुप नही सकतीं। हमें इस बात से विचलित नहीं होना चाहिए कि विदेशी समाचार माध्यमों में भारत की कैसी तस्वीर पेश हो रही है, बल्कि हमारा सारा ध्यान अपनी हताश जनता को राहत और सुविधाएं देने पर होना चाहिए। देश और सरकार की छवि सुधारने का काम तो बाद में भी चलता रहेगा। 


किन खास बिंदुओं पर ध्यान देने की जरूरत?


सबसे पहले सरकार एवं प्रशासन को अपनी अति महत्त्वपूर्ण और स्वाभाविक जिम्मेदारियों के निर्वहन को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए। इनमें नागरिकों को सुरक्षा मुहैया कराना और उन्हें स्वास्थ्य एवं शिक्षा के अधिकार देना शामिल हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर सरकारें इन दायित्वों का निर्वाह करने में असफल रही हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था में निजी सुरक्षा, निजी शिक्षा और निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र सर्वाधिक तेजी से आगे बढ़ रहे हैं और मुनाफा बटोर रहे हैं। सरकार अपनी जिम्मेदारियों के तहत ये सेवाएं सुचारु रूप से लोगों को देने में विफल रही है। मौजूदा हालात में इन क्षेत्रों को निजी क्षेत्र को थमाने के बजाय इन सेवाओं की आपूर्ति के ढांचे में सुधार की जरूरत आन पड़ी है। ये सेवाएं सार्वजनिक हित से जुड़ी हुई हैं और इसे सुनिश्चित करना सरकार का परम कत्र्तव्य है। जब सार्वजनिक हितों को प्राथमिकता दी जाती है तो परिणाम सकारात्मक होते हैं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं, जिन्होंने सार्वजनिक हितों को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाई है। 


दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया साक्ष्यों पर आधारित होनी चाहिए और इनके स्वतंत्र एवं आलोचनात्मक आकलन की भी गुंजाइश रखी जानी चाहिए। मुख्य नीतिगत निर्णय व्यापक एवं विश्वसनीय आंकड़ों पर आधारित होना चाहिए। तकनीक की मदद से आवश्यक आंकड़े जुटाना अब पूरी तरह संभव है। संभाव्यता तय करने के लिए सबसे पहले प्रायोगिक परियोजनाएं सतर्कतापूर्वक तैयार की जानी चाहिए। जन जागरूकता पैदा करना परियोजना नियोजन का अवश्य हिस्सा होना चाहिए। भविष्य के लिए सबक लेने के लिए परियोजना के क्रियान्वयन के बाद स्वतंत्र आकलन की व्यवस्था होनी चाहिए।


तीसरी अहम बात यह है कि भारत को एक ऐसी अर्थव्यवस्था नहीं तैयार करनी चाहिए जिसमें बाजार और आर्थिक तंत्र का बेजा फायदा उठाने की खुली छूट होती है। उद्यमशीलता और निवेशकों को आकर्षित करने के लिए आवश्यक ढांचा तैयार करने की बेहद जरूरत है। नियंत्रण एवं नियमन स्थापित करने से पहले सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इनके सफल एवं प्रभावी क्रियान्वयन के लिए इसके पास पर्याप्त तंत्र मौजूद हैं। ऐसी नीतियां लागू करने में विफल रहने से ही अर्थव्यवस्था में अवैध तरीके से आय अर्जित करने की बीमारी फैलती है। अगर रकम लोगों को अवैध तरीके से आसानी से मिल जाए तो कोई पूंजी लगाने और फिर आय अर्जित करने का जोखिम क्यों लेगा? भारत में यह व्यवस्था बीमारी की तरफ फैली है और इसी का नतीजा है कि इस महामारी के बीच हमें ऑक्सीजन, अस्पतालों में बिस्तर और अति आवश्यक दवाओं की कमी से जूझना पड़ रहा है। 


अंत में, ज्ञान, विशेषज्ञता और वृत्ति दक्षता का कोई दूसरा विकल्प नहीं है। हमने विशेषज्ञों की चेतावनी की अनदेखी कर एक भीषण गलती की है। हमने एक ऐसा माहौल तैयार कर दिया है जिसमें पेशेवरों की भूमिका किसी एक राजनीतिक विचारधारा पर मुहर लगाने तक सीमित रह गई है। पंडित नेहरू ने जिस वैज्ञानिक धारणा की बात की थी उसे बढ़ावा देने के बजाय हमने इनकी राह में रुकावट पैदा कर दी है। नेहरू ने जिस सोच और बौद्धिक पूंजी तैयार करने में अहम भूमिका निभाई थी हमारा देश अब भी उनसे लाभान्वित हो रहा है। हालांकि अगर हमनें इनमें नयापन नहीं लाया और समय के साथ इनमें मूल्य वद्र्धन नहीं किया तो वांछित लाभ नहीं मिल पाएंगे। 


(लेखक पूर्व विदेश सचिव और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च से जुड़े हैं।)


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चीन की वैज्ञानिक शक्ति (बिजनेस स्टैंडर्ड)

बीते 10 दिन में चीन ने दो बार अपनी तकनीकी क्षमताओं का प्रभावशाली प्रदर्शन किया है। उसने एक नए अंतरिक्ष केंद्र को कक्षा में स्थापित किया और एक रोवर को मंगल ग्रह पर उतारा है। अंतरिक्ष केंद्र के मॉड्यूल को लेकर गए लॉन्ग मार्च 5 रॉकेट को अनियंत्रित ढंग से गिरने देकर उसने अंतरराष्ट्रीय मानकों के प्रति अपनी अवमानना भी जाहिर की। शानदार वैज्ञानिक उपलब्धियां और अंतरराष्ट्रीय मत की अवमानना करना चीन की विशेषता रही है। वह दुनिया के साथ ऐसा ही बरताव करता है। माओत्से तुंग के चीन का नेतृत्व करने के समय से अब तक काफी बदलाव आ चुका है। परंतु चीन ने लगातार वैज्ञानिक क्षमताएं हासिल करने का सिलसिला जारी रखा। सन 1960 के दशक में उसने परमाणु हथियार बनाए और अब वह जेनेटिक इंजीनियरिंग से लेकर, उच्चस्तरीय भौतिकी, क्वांटम कंप्यूटिंग और संचार, कृत्रिम मेधा तथा तंत्रिका विज्ञान जैसे विविध क्षेत्रों में अग्रणी बना हुआ है। इन क्षेत्रों में अहम उपलब्धियों के गहरे निहितार्थ हैं। चीन में होने वाला नवाचार भविष्य को आकार देने वाला साबित हो सकता है। यकीनन जेनेटिक शोध और कृत्रिम मेधा के क्षेत्र मेंं होने वाली नई खोज मानव होने के बारे में हमारी नैतिक समझ को तब्दील कर सकती हैं। 


चीन को गैरकानूनी ढंग से बौद्धिक संपदा हथियाने में भी कभी कोई समस्या नहीं हुई या फिर उसने अपनी रेयर अर्थ पॉलिसी (मूल्यवान धातुओं से संबंधित) के माध्यम से जबरन तकनीक हस्तांतरण जैसे कदम भी उठाए। परंतु सांस्कृतिक क्रांति की शिक्षा विरोधी भयावहता से निजात पाने के बाद चीन ने उत्कृष्ट वैज्ञानिक और तकनीकी संस्थान भी स्थापित किए। तंग श्याओफिंग के कार्यकाल में विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग और गणितीय (एसटीईएम) क्षमताओं पर जमकर काम हुआ। तंग श्याओफिंग ने बाजार साम्यवाद की स्थापना की जहां पार्टी प्रभारी रहेगी, वह संसाधनों पर नियंत्रण करेगी लेकिन संपत्ति निर्माण को बढ़ावा दिया जाएगा। ऐसे में उपरोक्त चारोंं विषयों के ज्ञान का वाणिज्यीकरण हो सकता था। यह तरीका सोवियत मॉडल से बेहतर था जहां वाणिज्यिक अवसरों की अनदेखी की जाती। 


सन 1990 के मध्य तक चीन विनिर्माण का गढ़ बन गया था। उसने श्रम की उपलब्धता की बदौलत वस्तु निर्यात का एक बड़ा बाजार तैयार किया। उसने संबंधित बौद्धिक संपदा भी हासिल की। जहां तकनीक स्थानांतरित नहीं हो सकी वहां हैकरों ने संवेदनशील सामग्री जुटाई। चीन में जमकर शोध भी होता रहा। चीन ने ऐसे युद्धपोत और लड़ाकू विमान बनाए हैं जो दुश्मन से छिप सकते हैं। वह कक्षा में मौजूद उपग्रह को नष्ट कर सकता है। वह लाखों स्मार्ट फोन बनाता है, बंदरगाह बनाता है, दूरसंचार नेटवर्क तैयार करता है, सड़क और पावर सिस्टम तैयार करता है। 


वहां शोध और विकास एक बहुकोणीय व्यवस्था से उत्पन्न होता है। चीन की वैज्ञानिक अकादमी 120 से अधिक ऐसे संस्थानों की निगरानी करती है जहां वैज्ञानिक शोध होते हैं। वहां विभिन्न मंत्रालयों के अधीन भी शोध संस्थान हैं। ऐसे विश्वविद्यालय भी हैं जहां औद्योगिक संस्थानों के साथ सहयोग को बढ़ावा दिया जाता है और वे अपने शोध भी करते हैं। अनुमानों के मुताबिक कंपनी आधारित  शोध विकास का 80 फीसदी हिस्सा एसटीईएम में निवेश किया जाता है। रक्षा शोध एवं विकास प्रतिष्ठान अन्य क्षेत्रों से मदद लेता है और चीन की सेना भी बाहरी शोध को वित्तीय मदद देती है। 


इस पूरी प्रक्रिया में मुनाफा भी होता है और यह चीन के नीति निर्माताओं की वैचारिक अनिवार्यताओं के भी अनुकूल है। चीन केवल ऐसी महाशक्ति नहीं है जो एसटीईएम विषयों में अपनी ताकत दिखाए। वह अपने नागरिकों की निगरानी करने के मामले में भी बेहद कड़ाई बरतता है। यह बात अन्य वैज्ञानिक प्रगति वाले देशों के उलट है जो बौद्धिक संपदा और मानवाधिकार के मसलों पर बस जबानी जमाखर्च करते हैं। क्या एक अधिनायकवादी शासन में जो एक खास तरह के विचारों पर प्रतिबंध लगाता हो, वहां एसटीईएम संबंधी शोध फलफूल सकता है? चीन का भविष्य और भविष्य की दुनिया इस सवाल के जवाब पर निर्भर करेंगे।


सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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