टी. एन. नाइनन
देश की विनिर्माण गाथा की विफलता को लेकर नीति निर्माता चिंतित हैं। आत्मनिर्भर भारत जैसी पहल इसकी अप्रत्यक्ष स्वीकारोक्ति है क्योंकि यह मान लिया गया है कि बिना व्यापारिक और शुल्क संबंधी संरक्षण के देश, विनिर्माण क्षेत्र के विकास में सक्षम नहीं है। एक बार इस दिशा में बढऩे के बाद कारोबारी लॉबियां नीतियों को और अधिक संरक्षणवादी बनाने का दबाव बनाने लगेंगी। यह हो भी रहा है। उत्पादन से संबंधित प्रोत्साहन कार्यक्रम के अधीन आने वाली कंपनियां और अधिक केंद्रित लक्ष्यों की मांग कर रही हैं और कह रही हैं कि अधिक तादाद में क्षेत्रों को संरक्षण कार्यक्रम में शामिल किया जाए।
शायद अब यह स्वीकार करने का वक्त आ गया है कि भारत पूर्वी एशियाई देशों की निर्यात आधारित विनिर्माण गाथा को दोहराने नहीं जा रहा। वह शायद बांग्लादेश जैसा प्रदर्शन भी नहीं कर पाए। जैसा कि सन 2012 से हमारा आधिकारिक लक्ष्य भी है, यदि देश विनिर्माण को जीडीपी के बढ़े घटक के रूप में तैयार करता है तो यह घरेलू बाजार पर आधारित होगा और इसकी लागत भी अधिक होगी। वह लागत घरेलू उपभोक्ताओं को वहन करनी होगी जबकि अर्थव्यवस्था प्रमुख कारोबारी समूहों से बाहर रहेगा और निर्यात के मोर्चे पर नुकसान उठाएगा।
इसकी भरपाई सेवा क्षेत्र से होगी। दुनिया भर में सेवा व्यापार तीसरा सबसे बड़ा व्यापार है। भारत में यह अनुपात लगभग दोगुना यानी 60 प्रतिशत है। यदि श्रम निर्यात के कारण देश में आने वाले धन को शामिल किया जाए तो यह शायद और अधिक होगा। यह पूंजी की आवक के बजाय सेवा निर्यात से होने वाली आय है। बीते पांच वर्ष में देश के निर्यात में पारंपरिक सेवा निर्यात की भी अहम हिस्सेदारी रही है। वाणिज्यिक निर्यात की हिस्सेदारी आधी से कम रह गई है। भारत जैसी विकास अवस्था वाली अर्थव्यवस्था के लिए यह अत्यंत विशिष्ट बात होगी। इससे रुपया भी उस स्तर तक बढ़ेगा जहां विनिर्माण निर्यात बहुत महंगा हो जाएगा।
यह पसंद आए या नहीं लेकिन सेवा क्षेत्र मूल्यवद्र्धन का वह क्षेत्र है जिसके सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी तुलनात्मक लाभ तथा अन्य कौशल का लाभ उठाना होगा। देश में स्थित उपक्रम चाहे वे देसी हों या विदेशी उन्हें उनकी तकनीकी सेवा संबंधी विशेषज्ञता के कारण न केवल वैश्विक अर्थव्यवस्था का सेवा केंद्र बनाना होगा बल्कि नए क्षेत्रों मसलन कृत्रिम मेधा और डेटा आदि के रचनात्मक क्षेत्र में भी विशेषज्ञता हासिल करनी होगी। हमें चिप निर्माण के बजाय चिप डिजाइन करना होगा। इस क्षेत्र में अभी ताइवान, अमेरिका और कोरिया का एकाधिकार है। इसी तरह हमें विमान इंजन बनाने के बजाय उसका डिजाइन तैयार करना होगा।
भारत पहले ही उपभोक्ताओं के डिजिटलीकरण की तेज गति के साथ दुनिया को अपनी क्षमता दिखा चुका है। मैकिंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट ने इसका उल्लेख सबसे बड़े और तेज बढऩे वालों में किया। प्रति मोबाइल उपभोक्ता औसत डेटा खपत भी चीन से अधिक और कोरिया के समान है। यह जियो जैसी कंपनियों के कारण संभव हुआ क्योंकि उन्होंने सस्ता डेटा दिया। इसके अलावा कम लागत पर तत्काल भुगतान का बुनियादी ढांचा तैयार हुआ और देश में खुदरा डिजिटल भुगतान सालाना 50 प्रतिशत की दर से बढ़ा। वस्तु एवं सेवा कर व्यवस्था में जहां एक मंच पर एक करोड़ से अधिक उद्यम मौजूद हैं, उसे तकनीकी क्षमता मुहैया कराई गई। 1.2 अरब लोगों के पंजीयन के साथ डिजिटल पहचान व्यवस्था कायम की गई। सरकारी योजनाओं का प्रत्यक्ष लाभ दिलाने के लिए सॉफ्टवेयर पैकेज तैयार किया गया। इन मंचों का इस्तेमाल करके कई कारोबार खड़े किए गए। देश में बड़ी तादाद में यूनिकॉर्न (स्टार्टअप जिनका कारोबार 100 करोड़ डॉलर से अधिक हो) होने की यह भी एक वजह है। मूल्यांकन में उछाल अभी शुरू ही हुआ है क्योंकि निवेशक पैसा लगा रहे हैं। औद्योगिक संगठन नैसकॉम का कहना है कि डिजिटल अर्थव्यवस्था 10 लाख करोड़ डॉलर तक पहुंच सकती है। उसका कहना है कि हर पांचवीं स्टार्टअप वैज्ञानिक या अभियांत्रिकी संबंधी चुनौतियों के हल पर केंद्रित है और यह सबसे तेज विकसित होने वाला हिस्सा है। बड़े उद्यमों को डेटा विश्लेषण मुहैया कराया जा रहा है और पहली स्टार्ट अप विदेशी बाजारों में प्रवेश कर चुकी है। उत्पादकता में व्यापक सुधार हो सकता है। यदि समुचित विपणन नीतियां तैयार की गईं तो कृषि क्षेत्र की आय में भी सुधार हो सकता है। बिचौलियों की कीमत पर उत्पादक का मूल्यवर्धन करके ऐसा किया जा सकता है।
इस मॉडल पर बनी अर्थव्यवस्था में कुशल-अकुशल कर्मियों की तुलना में पेशेवर कामगार बढ़ेंगे। इससे कम शिक्षित तबके को नुकसान होगा क्योंकि उसका जीवन अनिश्चित होगा। संपत्ति अधिक संकेंद्रित होगी। वित्त मंत्री के लिए अंतिम स्तर पर वित्तीय हस्तांतरण अपरिहार्य हो जाएगा। यदि शीर्ष पर संकेंद्रित संपत्ति पर कर नहीं लगाया गया तो यह फंडिंग मुश्किल होगी।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।