बलबीर पुंज
आज सरकार और किसान संगठनों के बीच 11वें दौर का संवाद होगा। क्या दोनों पक्ष किसी समझौते पर पहुंचेंगे? पिछली वार्ता तो विफल हो गई, पर समझौते के बीज अंकुरित होते दिखाई दिए। जहां आंदोलनकारी किसान तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने की मांग पर अड़े हैं, वहीं सरकार उन पर बल प्रयोग करने से बच रही है। सरकार इन कानूनों के जरिये कृषि क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन लाने हेतु कटिबद्ध दिख रही थी। किंतु लोकतंत्र में दृढ़-निश्चयी अल्पसंख्यक वर्ग कैसे एक अच्छी पहल को अवरुद्ध कर सकता है, कृषि कानून संबंधित घटनाक्रम इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। पिछले दो दशकों से कृषि क्षेत्र की विकासहीनता और किसान आत्महत्याओं से राजनीतिक दल चिंतित हैं। इसी पृष्ठभूमि में सत्तारूढ़ भाजपा ने पिछले लोकसभा चुनाव के घोषणापत्र में 2022-23 तक किसान की आय दोगुना करने का वादा किया था। इसके लिए सरकार ने जहां 23 कृषि उत्पादों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दिया, वहीं पीएम-किसान योजना के जरिये सात किस्तों में 1.26 लाख करोड़ रुपये भी 11.5 करोड़ किसानों के खातों में सीधे पहुंचाया। फिर भी हजारों किसान पिछले डेढ़ महीने से दिल्ली सीमा पर धरना दे रहे हैं।
पंजाब-हरियाणा की भूमि उर्वरा है, तो किसान मेहनती। भारत को भूख से मुक्ति दिलाने में इन दोनों प्रदेशों का योगदान अतुलनीय है। पंजाब नई सदी के पहले दशक तक अधिकांश मापदंडों पर शीर्ष पर बना रहा। पर 2018-19 आते-आते वह 13वें स्थान पर खिसक गया। इस गिरावट और वर्तमान किसान आंदोलन में गहरा संबंध है। किसान संकट का बड़ा कारण भूमि का असमान वितरण भी है। देश में 2.2 प्रतिशत बड़े किसानों के पास देश की कुल कृषि-भूमि का 24.6 प्रतिशत हिस्सा है।
पंजाब-हरियाणा में 36.3 प्रतिशत कृषि-भूमि पर 3.7 प्रतिशत किसानों का स्वामित्व है। पंजाब की कुल जनसंख्या में 32 प्रतिशत दलितों के पास तीन प्रतिशत कृषि-भूमि है। पंजाब की 99 प्रतिशत कृषि भूमि सिंचाई संसाधनों से युक्त है। स्वाभाविक है कि वहां कृषि-उत्पादन लागत कम है। वहां राज्य सरकार किसानों को सालाना 8,275 करोड़ रुपये की मुफ्त बिजली, तो केंद्र सरकार खाद पर पांच हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी देती है। पंजाब में 10 लाख से अधिक किसान हैं, जो देश के कुल 14.6 करोड़ किसानों का एक छोटा अंश है। यानी पंजाब के हर किसान को औसतन सालाना 1.28 लाख रुपये की सब्सिडी मिलती है। उन्हें सस्ती दरों पर ऋण और प्रधानमंत्री किसान योजना से अनुदान भी मिलता है।
पंजाब-हरियाणा में 1,97,000 ऐसे किसान हैं, जिनके पास औसतन 6.3 हेक्टेयर भूमि है। कृषि नीति का सर्वाधिक लाभ इन्हें ही मिल रहा है, क्योंकि इनके पास सरकार को एमएसपी दर पर बेचने लायक सर्वाधिक कृषि उत्पाद है। एमएसपी का लाभ उठाने वाले किसानों की संख्या देश में मात्र छह प्रतिशत है। इनमें से अधिकांश आढ़त का काम करते हैं, जो छोटे-मझोले किसानों से उनकी फसल अन्य सुविधाओं के साथ सस्ती दरों पर खरीदकर सरकार को एमएसपी पर बेच देते हैं। ये अपने एक खाते से दूसरे खाते में आय दिखाकर आयकर में छूट प्राप्त करते हैं। इस विकृति का नतीजा यह हुआ कि कृषि क्षेत्र में फसलों का ढांचा असंतुलित हो गया, भूजल स्तर गिरा, जैव-विविधता क्षतिग्रस्त हुई और रासायनिक खादों से भूमि की उर्वरता नष्ट हो गई। आज सरकार के पास जरूरत से करीब तीन गुना अधिक अन्न भंडार है। भंडारण हेतु व्यवस्था सीमित होने से अनाज सड़ जाता है, भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है या चूहों का भोजन बन जाता है। इनका निर्यात संभव नहीं, क्योंकि एमएसपी की दर से खरीदे अन्न का मूल्य वैश्विक कीमतों से अधिक होता है।
यदि किसानों को संकट से बाहर निकालना है, तो पुरानी व्यवस्था बदलनी होगी। धरना दे रहे लोग नि:संदेह किसान हैं, पर वे कृषकों में एक खास वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह संघर्ष वास्तव में यथास्थितिवाद के लाभार्थियों और समयोचित परिवर्तन के बीच है।
(-लेखक पूर्व राज्यसभा सांसद और भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।)
सौजन्य - अमर उजाला।
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