Please Help Sampadkiya Team in maintaining this website

इस वेबसाइट को जारी रखने में यथायोग्य मदद करें -

-Rajeev Kumar (Editor-in-chief)

Showing posts with label Navbharat Times. Show all posts
Showing posts with label Navbharat Times. Show all posts

Monday, August 9, 2021

1922 चौरी-चौरा कांड: इतिहास में अविस्मरणीय काकोरी (नवभारत टाइम्स)

फरवरी, 1922 में चौरी-चौरा कांड के बाद गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेने के बाद राष्ट्रीय आंदोलन विराम के दौर से गुजर रहा था। सृजनात्मक कार्य तो हो रहे थे, पर भावनाओं का उद्दाम प्रवाह कहीं दबा हुआ था। ऐसे हालात में कुछ क्रांतिकारी संगठन गुप्त रूप से अंग्रेजों से लगातार मोर्चा ले रहे थे। ऐसा ही एक संगठन था, हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन, जिसका गठन 1924 में कानपुर में उत्तर प्रदेश तथा बंगाल के कुछ क्रांतिकारियों द्वारा किया गया। इस संगठन ने अपना घोषणापत्र द रिवोल्यूशनरी के नाम से देश के सभी प्रमुख स्थानों पर वितरित किया। आजादी का आंदोलन चलाने के लिए क्रांतिकारियों को धन की जरूरत पड़ती थी। इसी उद्देश्य से संगठन द्वारा रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में एक-दो राजनीतिक डकैतियां डाली गई। इन डकैतियों से अपेक्षानुरूप धन तो नहीं मिला, अलबत्ता एक-एक व्यक्ति जरूर मारा गया। यह तय किया गया कि अब इस तरह की डकैतियां नहीं डाली जाएंगी, मात्र सरकारी धन ही लूटा जाएगा।



काकोरी सरकारी धन को लूटने की पहली बड़ी वारदात थी। आठ अगस्त, 1925 को शाहजहांपुर में बिस्मिल के घर पर क्रांतिकारियों की एक गुप्त बैठक हुई, जिसमें 08 डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन में डकैती डालने की योजना बनी, क्योंकि इसमें सरकारी खजाना लाया जा रहा था। तय किया गया कि लखनऊ से करीब पच्चीस किलोमीटर पहले पड़ने वाले स्थान काकोरी में ट्रेन डकैती डाली जाए। नेतृत्व बिस्मिल का था और इस योजना को फलीभूत करने के लिए 10 क्रांतिकारियों को शामिल किया गया, जिनमें अशफाक उल्ला खां, मुरारी शर्मा, बनवारी लाल, राजेंद्र लाहिड़ी, शचींद्रनाथ बख्शी, केशव चक्रवर्ती (छद्म नाम), चंद्रशेखर आजाद, मन्मथनाथ गुप्त एवं मुकुंदी लाल शामिल थे।



इन क्रांतिकारियों के पास जर्मनी मेड चार माउजर और कुछ पिस्तौलें थीं। पूर्व योजना के अनुसार नौ अगस्त को ये इस ट्रेन में शाहजहांपुर से सवार हुए। जैसे ही पैसेंजर ट्रेन काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुककर आगे बढ़ी, क्रांतिकारियों ने चेन खींचकर ट्रेन रोक दी। गार्ड रूम में सरकारी खजाना रखा था। क्रांतिकारी दल ने गार्ड रूम में पहुंचकर सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। पहले तो इसे खोलने की कोशिश की गई, पर इसमें नाकामी मिलने पर अशफाक उल्ला ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ा दिया और स्वयं हथौड़े से बक्सा तोड़ने में जुट गए। इधर अशफाक हथौड़े से बक्सा तोड़ रहे थे, दूसरी ओर मन्मथनाथ गुप्त ने उत्सुकतावश माउजर का ट्रिगर दबा दिया। इधर बक्से का ताला टूटा, उधर माउजर से गोली चल गई और एक मुसाफिर मारा गया। खजाना लूटकर ये क्रांतिकारी फरार हो गए।


ब्रिटिश हुकूमत ने इस डकैती को बहुत गंभीरता से लिया और स्कॉटलैंड पुलिस को इसकी जांच करने की जिम्मेदारी दी। जांच दल का नेतृत्व सीआईडी इंस्पेक्टर तसद्दुक हुसैन कर रहे थे। पुलिस दल को छान-बीन के दौरान घटना स्थल से एक चादर मिली, जो क्रांतिकारी जल्दबाजी में वहीं छोड़ आए थे। पुलिस ने चादर के निशानों से पता लगा लिया कि यह चादर शाहजहांपुर के किसी व्यक्ति की है। पूछताछ में पता चला कि चादर बनारसी लाल की है, जो बिस्मिल के साझेदार थे। पुलिस ने बनारसी लाल से मिलकर काकोरी कांड की बहुत-सी जानकारियां प्राप्त कर ली, फिर अलग-अलग स्थानों से इस घटना में शामिल चालीस लोगों को शक के आधार पर गिरफ्तार किया। चंद्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा, केशव चक्रवर्ती, अशफाक उल्ला खां व शचींद्रनाथ बख्शी फरार थे।


गिरफ्तारियों ने क्रांतिकारियों को रातोंरात लोकप्रिय बना दिया। इन पर लखनऊ में मुकदमा चला। क्रांतिकारियों ने ट्रायल के दौरान मेरा रंग दे बसंती चोला और सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है समवेत स्वर में गाकर राष्ट्रीय जोश को नया उभार दे दिया। काकोरी कांड का ऐतिहासिक मुकदमा लगभग 10 महीने तक लखनऊ की अदालत रिंग थियेटर में चला। आजकल इस भवन में लखनऊ का प्रधान डाकघर है। छह अप्रैल, 1927 को इस मुकदमे का फैसला हुआ। रामप्रसाद बिस्मिल, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह और अशफाक उल्ला खां को फांसी, योगेश चंद्र चटर्जी, मुकंदीलाल जी, गोविंद चरण कार, राजकुमार सिंह, रामकृष्ण खत्री को 10-10 साल की, विष्णुशरण दुब्लिश और सुरेश चंद्र भट्टाचार्य को सात साल की और भूपेंद्रनाथ, रामदुलारे त्रिवेदी व प्रेमकिशन खन्ना को पांच-पांच साल की सजा हुई। बाद में अशफाक उल्ला खां को दिल्ली से और शचींद्रनाथ बख्शी को भागलपुर से पुलिस ने गिरफ्तार किया। उन दोनों को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।


भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में काकोरी कांड इसलिए अविस्मरणीय रहेगा कि जब देश चौरी चौरा घटना के बाद ‘संघर्ष के बाद विराम' के दौर से गुजर रहा था, देशवासियों की छटपटाहट को बाहर निकालने का रास्ता नहीं दिख रहा था, तब हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़े इन क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी हुकूमत के सामने चुनौती रखी थी। काकोरी कांड ने देश में नई चेतना का संचार किया था।


(-भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी।) 


सौजन्य - नवभारत टाइम्स।

Share:

महामारी: सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था को विकास के पथ पर लाया जा सकता है वापस (नवभारत टाइम्स)

पी. चिदंबरम

 

ऐसा लगता है कि महामारी हमारे साथ कुछ और समय तक रहेगी। स्वास्थ्य सुरक्षा के ढांचे पर दबाव बढ़ेगा, लोग संक्रमित होंगे, मौतें भी होंगी और परिवार तबाह होंगे। एक ही बचाव है और वह है टीका। वयस्क आबादी के टीकाकरण के मामले में जी-20 के अन्य देशों की तुलना में भारत का प्रदर्शन सबसे खराब है। 95-100 करोड़ के लक्ष्य की तुलना में अभी सिर्फ 10,81,27,846 लोगों को ही टीके की दोनों खुराक मिल सकी है।



सांत्वना की बात यही है कि आर्थिक नुकसान की भरपाई हो सकती है। बंद कारोबार फिर से खुल सकते हैं; खो गई नौकरियां वापस आ सकती हैं; घटे वेतन की बहाली हो सकती है; खर्च हो चुकी बचतों का निर्माण फिर से हो सकता है; बढ़ता कर्ज रुक सकता है; कर्ज में लिए गए धन का भुगतान हो सकता है; और कमजोर पड़ गया विश्वास लौट सकता है। सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था को विकास के पथ पर वापस लाया जा सकता है।



सीखने की कमी

जीवन, भौतिक अस्तित्व से कहीं अधिक बड़ा है। जीवन का अर्थ है गरिमा के साथ जीना। ऐसी कई कमियां हैं, जो मनुष्य से उसकी गरिमा छीन सकती हैं। इनमें अधूरी शिक्षा शामिल है। यह सामान्य-सी बात है कि एक स्कूली शिक्षा प्राप्त व्यक्ति के पास एक अनपढ़ व्यक्ति की तुलना में गरिमा के साथ जीवन जीने का बेहतर मौका होगा। और समुचित कॉलेज शिक्षा प्राप्त व्यक्ति के पास उससे भी बेहतर मौका होगा। अच्छी शिक्षा की बुनियाद स्कूल में पड़ती है। साक्षरता और अंक ज्ञान आधारशिलाएं हैं।


भारत में आज स्कूली शिक्षा की दशा कैसी है? सीखने की कमी, एक मान्य सच्चाई है और स्कूली शिक्षा को आंकने का एक महत्वपूर्ण पैमाना भी। जरा पूछकर देखिए कि पांचवीं कक्षा के कितने बच्चे दूसरी कक्षा की किताबें पढ़ सकते हैं? स्कूली शिक्षा से संबंधित वार्षिक सर्वेक्षण (असर), 2018 के मुताबिक सिर्फ 50.3 फीसदी। बच्चे जब सातवीं कक्षा में पहुंचते हैं, तब दूसरी कक्षा की किताबें पढ़ने वालों का हिस्सा बढ़कर 73 फीसदी हो जाता है। सीखने की कमी की यह भयावहता हथौड़े की तरह चोट करेगी। 


गहराई में जाने की जरूरत है। यदि हम सीखने की कमी को लैंगिक, शहरी/ग्रामीण, धर्म, जाति, आर्थिक वर्ग, अभिभावक की शिक्षा और पेशा तथा निजी/सरकारी स्कूल के आधार पर आंकते हैं, तो सामाजिक-आर्थिक सीढ़ी में नीचे की ओर बढ़ने से कमी का आकार और बढ़ जाएगा।


किसी गांव में अनुसूचित जाति (एससी) या अनुसूचित जनजाति (एसटी) या अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के खेती या मजदूरी से जुड़े कम शिक्षित, कम आय वाले अभिभावक के घर जन्म लेने वाला और सरकारी स्कूल में पढ़ने वाला कोई बच्चा किसी शहर के किसी निजी स्कूल में पढ़ने वाले ऐसे किसी बच्चे से काफी पीछे होता है, जिसके अभिभावक उच्च शिक्षित, ऊंची आय वाले हों और किसी 'अगड़ी' जाति से ताल्लुक रखते हों। यह जग जाहिर सच्चाई है, जिसकी पुष्टि अब असर और इसी तरह के अन्य अध्ययनों ने भी कर दी है।


एक क्रूर मजाक

ऊपर बताई गई बातें भारत में महामारी के आने और 25 मार्च, 2020 को लागू किए गए पहले लॉकडाउन से पहले की हैं। उस दिन स्कूल बंद हो गए और सोलह महीने बाद अधिकांश राज्यों में अब तक बंद हैं। इस अवधि के दौरान, हमने बहुप्रचारित ऑनलाइन शिक्षा, आंतरिक मूल्यांकन, अगली कक्षा में स्वतः प्रोन्नति और यहां तक कि दसवीं और बारहवीं कक्षा के बच्चों को बिना परीक्षा के उत्तीर्ण होते देखा। यह मानते हुए कि इनमें से कई कदम अपरिहार्य थे, लेकिन क्या इसका इतना प्रचार आवश्यक था?


आईआईटी, दिल्ली की प्रोफेसर रीतिका खेड़ा ने यूनेस्को और यूनिसेफ के संयुक्त बयान का उद्धरण दिया, 'स्कूल सबसे आखिर में बंद होने चाहिए और सबसे पहले खुलने चाहिए', और भयावह आंकड़े बताए : सिर्फ छह फीसदी ग्रामीण घरों में और सिर्फ 25 फीसदी शहरी घरों में कंप्यूटर हैं; सिर्फ 17 फीसदी ग्रामीण क्षेत्रों और सिर्फ 42 फीसदी शहरी क्षेत्रों में इंटरनेट सुविधाएं हैं; और बड़ी संख्या में परिवारों के पास स्मार्टफोन नहीं हैं।


2020/2021 के भारत में ऑनलाइन लर्निंग को लेकर शेखी बघारना भारत के बच्चों के साथ एक क्रूर मजाक है।


जूरी बनकर आकलन करें

भारत में औसत बच्चा कमियों के साथ शुरुआत करता है। और यदि उसे 16 महीने या उससे अधिक समय तक सीखने को न मिले, तो कल्पना की जा सकती है कि पिछड़ापन किस तेजी से होगा? केंद्र और राज्य, दोनों की सरकारें बेबसी से खड़ी हैं। एक राष्ट्र के रूप में, हमने अपने बच्चों को विफल कर दिया है और आने वाली आपदा को कम करने के लिए रास्ता खोजने का कोई प्रयास नहीं किया है।


स्कूल फिर से खुलने चाहिए। उससे पहले बच्चों का टीकाकरण हो। हर चीज चाहे वह अर्थव्यवस्था हो, शिक्षा हो, सामाजिक व्यवहार या त्योहार को सुचारु करने की बात है, तो उसका एक ही इलाज है और वह टीकाकरण। जब तक हम भारत के सारे लोगों का टीकाकरण नहीं कर देते, हम चालू-बंद होते रहेंगे और कहीं नहीं पहुंचेंगे।


अफसोस की बात है कि टीकाकरण की रफ्तार न केवल निर्धारित कार्यक्रम से पीछे है, बल्कि बेहद पक्षपाती भी है। 17 मई को पांच सौ से अधिक जाने माने विद्वानों, शिक्षकों और चिंतित नागरिकों ने प्रधानमंत्री को टीकाकरण में उभर रहे भेदभाव के बारे में लिखा था : शहर (30.3 फीसदी) और ग्रामीण (13 फीसदी) के बीच; पुरुष (53 फीसदी) और महिलाओं (46 फीसदी) के बीच; और गरीब राज्यों (बिहार में 1.75 फीसदी) और अमीर राज्यों (दिल्ली 7.5 फीसदी) के बीच।


महामारी अप्रत्याशित है और यह किसी भी सरकार को प्रभावित कर सकती है। सरकार जो खुद को राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत खुद को सबकी प्राधिकारी मानती है और जिसने पिछले 16 महीनों में सारे फैसले लिए हैं, उसका आकलन नतीजों के आधार पर किया जाना चाहिए; क्या उसने संक्रमण को फैलने से रोका, क्या उसने मौतों की संख्या कम की और क्या उसने खुद के द्वारा घोषित दिसंबर, 2021 के आखिर तक भारत की सभी वयस्क आबादी के पूर्ण टीकाकरण के लक्ष्य को पूरा किया? इस बीच, क्या उसने भारत के बच्चों के बारे में विचार किया? आप खुद जूरी बनकर आकलन करें।

सौजन्य - नवभारत टाइम्स।

Share:

Tuesday, May 25, 2021

गारंटी तो गारंटी है ( नवभारत टाइम्स)

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि लोन न चुकाने वाली कंपनियों के मामले में इन्सॉल्वेंसी ऐंड बैंकरप्सी कोड (आईबीसी) की प्रक्रिया शुरू होने का मतलब यह नहीं है कि ये कंपनियां और लोन के पर्सनल गारंटर देनदारी की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि कोर्ट ने ऐसे मामलों में पर्सनल गारंटरों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने का रास्ता भी साफ कर दिया। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले से संबंधित 75 याचिकाएं थीं, जो अलग-अलग हाईकोर्ट में दायर की गई थीं। पिछले साल ये सारे मामले सुप्रीम कोर्ट में हस्तांतरित किए गए थे। यह फैसला इस मायने में भी अहम माना जा रहा है कि इससे 2016 में लाई गई


दीवाला और दिवालियापन संहिता यानी आईबीसी पर ठीक से अमल की राह में आ रही सबसे बड़ी बाधा के हटने की उम्मीद बन गई है। बैंकों के बैड लोन की गंभीर होती समस्या के मद्देनजर डिफॉल्टर कंपनियों से बकाया वसूली के लिए आईबीसी लाया गया था, जो व्यवहार में ज्यादा फायदेमंद साबित नहीं हो रहा था।


दिक्कत यह है कि इससे लोन देने वाली वित्तीय कंपनियों और बैंकों का फंसा हुआ पूरा पैसा वापस नहीं मिल पा रहा था। आईबीसी के तहत लोन पर पर्सनल गारंटी देने वाले प्रमोटरों के खिलाफ कार्रवाई रोकने के लिए संबंधित पक्ष कोर्ट चले गए। उनका कहना था कि बैंकों को ऐसा करने का अधिकार नहीं है। इसी सिलसिले में आईबीसी के संबंधित प्रावधानों को चुनौती मिली थी। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले ने कानून के इस पहलू पर कोई दुविधा नहीं रहने दी, जो एक अच्छी बात है। फैसले का एक संभावित नतीजा तो यह माना जा रहा है कि इसके बाद बैंकों और अन्य देनदार एजेंसियों के लिए अपना पैसा वसूलना आसान हो जाएगा। इस फैसले का एक नतीजा यह भी होगा कि विभिन्न कंपनियों के शीर्ष पदों पर बैठे लोग कंपनी के लिए लोन सुनिश्चित करने के प्रयास करते हुए अपनी भूमिका को लेकर ज्यादा गंभीर होंगे। किसी जोखिम वाले प्रॉजेक्ट के लिए लोन लेने में अब सिर्फ कंपनी की साख और बैंकों का पैसा ही दांव पर नहीं होगा, जोखिम के दायरे में वे खुद भी होंगे।


जाहिर है, इस आधार पर अपने देश में बैंक और इंडस्ट्री के बीच ज्यादा भरोसेमंद रिश्ता बनने की संभावना भी बन रही है। लेकिन ऐसा नहीं कि फैसले में सब कुछ अच्छा ही देखा जा रहा है। एक हलके में यह खटका भी बना हुआ है कि कहीं इस फैसले के बाद कंपनियों के शीर्ष नेतृत्व के लिए फैसला करना ज्यादा मुश्किल न हो जाए। ऐसा हुआ तो रिस्क लेकर आगे बढ़ने का इंडस्ट्री का जज्बा प्रभावित हो सकता है। बहरहाल, कोई भी रास्ता मुश्किलों से खाली नहीं होता। उम्मीद की जाए कि बैंक और इंडस्ट्री दोनों ही इस फैसले की हद को समझते हुए आगे बढ़ेंगे।

सौजन्य -  नवभारत टाइम्स। 

Share:

कोरोना के बीच ब्लैक फंगस ( नवभारत टाइम्स)

कोरोना की दूसरी लहर से अभी हम पार भी नहीं पा सके हैं कि ब्लैक फंगस (म्यूकरमाइकोसिस) के रूप में एक नई चुनौती अपने घातक रूप मे सामने आ गई। हालांकि यह कोई नई बीमारी नहीं है, लेकिन नए हालात में यह इतनी तेजी से और इतने बड़े पैमाने पर फैली कि इसे काबू करना कठिन हो गया। महाराष्ट्र के कुछ जिलों से शुरुआत हुई, और देखते-देखते कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, बिहार, हरियाणा जैसे तमाम प्रांतों से इसके नए-नए मामले सामने आने लगे। चूंकि इसमें मृत्यु दर अधिक है, इसलिए भी इसे लेकर लोगों में खौफ ज्यादा है। शुक्रवार को खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे देश के लिए गंभीर चुनौती बताया। इससे पहले गुरुवार को ही केंद्र सरकार राज्यों से कह चुकी थी कि इसे महामारी घोषित करने में देर न करें। हालात की गंभीरता को देखते हुए राज्यों ने केंद्र की इस सलाह पर अमल भी शुरू कर दिया। दस राज्यों में ब्लैक फंगस महामारी घोषित की जा चुकी है। इससे फायदा यह होता है कि संबंधित राज्य में इसके जितने भी कन्फर्म या संदिग्ध मामले आते हैं उनके बारे में पूरी सूचना नियमित रूप से स्वास्थ्य विभाग और संबंधित एकीकृत कमान तक पहुंचाई जाती रहती है।


दूसरे शब्दों में, इससे निपटने के प्रयासों को समायोजित और समन्वित करना आसान हो जाता है। यह नई महामारी कोरोना की कोख से निकली हुई इसलिए भी लग रही है कि आज की तारीख में इसके तकरीबन सभी मामले कोरोना का इलाज करा रहे या इससे उबर चुके लोगों में ही दिख रहे हैं। हालांकि सचाई यह है कि इसका कोरोना से सीधे तौर पर कोई नाता नहीं है। चूंकि ब्लैक फंगस का शिकार होने में इम्यून सिस्टम का कमजोर होना अक्सर निर्णायक भूमिका निभाता है और कोरोना से संक्रमित लोगों की प्रतिरोधक शक्ति कई कारणों से कमजोर पड़ चुकी होती है, इसलिए वे इसके ज्यादा शिकार हो रहे हैं।


मगर पूरे देश में कोरोना और ब्लैक फंगस के प्रसार का जो खतरा हमारे सामने है, उसके मद्देनजर अच्छा यही होगा कि कम से कम आम लोगों के स्तर पर इन दोनों चुनौतियों को अलग-अलग न माना जाए। दोनों में ही समानता यह है कि इसके उपचार की कठिन प्रक्रिया में पड़ने से कहीं बेहतर और आसान है इससे बचाव के उपाय करना और उसे सतर्कता से जारी रखना। दूरी बरतते हुए और मास्क, सैनिटाइजर वगैरह का समझदारी से इस्तेमाल करते हुए जहां लोग कोरोना से बचे रह सकते हैं, वहीं शुगर लेवल को कंट्रोल रखने, साफ-सफाई पर ज्यादा ध्यान देने और शरीर की प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने वाले उपाय करते रहने जैसी सावधानियों की बदौलत ब्लैक फंगस को भी दूर रख सकते हैं। यह समझना जरूरी है कि इन दोनों ही चुनौतियों से निपटने में सबसे महत्वपूर्ण और कारगर भूमिका सामान्य लोगों की ही रहने वाली है।

सौजन्य -  नवभारत टाइम्स। 

Share:

तूफान से तबाही ( नवभारत टाइम्स)

तूफान ने ऐसे समय दस्तक दी, जब देश कोरोना की दूसरी लहर से जूझ रहा है। सरकारी तंत्र का बड़ा हिस्सा जी जान से उसमें लगा था। तूफान ने देश के एक बड़े हिस्से में उस काम को तात्कालिक तौर पर रोकने को मजबूर कर दिया। मुंबई में बांद्रा-कुर्ला कॉम्प्लेक्स स्थित सबसे बड़ा वैक्सिनेशन सेंटर कई दिन पहले ही बंद कर देना पड़ा।

 

चक्रवाती तूफान तौकते ने कमजोर पड़ने से पहले देश के पश्चिमी तट पर स्थित केरल, कर्नाटक, गोवा, महाराष्ट्र और खासकर गुजरात में भारी तबाही मचाई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार को गुजरात के तूफान पीड़ित इलाकों का हवाई दौरा करके खुद नुकसान का जायजा लिया। हालांकि पहले से जानकारी मिल जाने के कारण बचाव की काफी कुछ तैयारी कर ली गई थी। इस वजह से हताहतों की संख्या वैसी भयावह नहीं रही जैसी ऐसे तूफानों में आम तौर पर होती है। लेकिन बात समंदर के अंदर की करें तो आसपास के इलाकों में जहाजों के फंसने की वजह से बड़ी संख्या में यात्रियों की जान खतरे में पड़ी। नौसेना और तटरक्षक दलों की सामयिक कार्रवाई की बदौलत उनमें से ज्यादातर को बचा लिया गया, लेकिन अब भी बहुत सारे लोग लापता हैं। यह देखा जाना चाहिए कि जब तूफान की सूचना पहले से उपलब्ध थी तो ये जहाज इतनी बड़ी संख्या में यात्रियों को लिए सागर में फंसे क्यों रह गए। क्या समय से इन्हें सुरक्षित तटों पर पहुंचाने या इनके यात्रियों को पहले ही निकाल लाने की कोई व्यवस्था नहीं हो सकती थी? यह सबक आगे की चुनौतियों से निपटने में हमारी मदद करेगा।


यह भी सच है कि ऐसे भीषण तूफानों से बचाव की व्यवस्था एक सीमा तक ही की जा सकती है। विभिन्न राज्यों में तटवर्ती इलाकों से लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहले ही पहुंचा दिया गया था, मगर बड़ी संख्या में जो पेड़ गिरे, घरों की छतें उड़ीं, होटलों-मकानों के शीशे टूटे, खिड़की-दरवाजे उखड़े, सड़कों पर रखे लोहे के बैरिकेड्स गिरे, बिजली के खंभे टूटे और खासकर खेतों में खड़ी फसलें उजड़ीं- उन सबसे बचने का कोई उपाय नहीं था। इन तमाम नुकसानों का आकलन किया जा रहा है। लेकिन जो बात इस तूफान को ज्यादा खतरनाक बना रही है वह है इसकी टाइमिंग। तूफान ने ऐसे समय दस्तक दी, जब देश कोरोना की दूसरी लहर से जूझ रहा है। सरकारी तंत्र का बड़ा हिस्सा जी जान से उसमें लगा था। तूफान ने देश के एक बड़े हिस्से में उस काम को तात्कालिक तौर पर रोकने को मजबूर कर दिया। मुंबई में बांद्रा-कुर्ला कॉम्प्लेक्स स्थित सबसे बड़ा वैक्सिनेशन सेंटर कई दिन पहले ही बंद कर देना पड़ा। कई जगहों से कोरोना मरीजों को भी सुरक्षित स्थानों पर शिफ्ट करना पड़ा। तूफान के चलते कई इलाकों में बिजली सप्लाई पर भी असर पड़ा है। यह देखना होगा कि गंभीर हालत में पड़े मरीजों के इलाज में इस वजह से कोई बाधा न आए। पहले ही ऑक्सिजन, दवा और इलाज की कमी ने मरीजों और उनके परिजनों का बुरा हाल कर रखा है। तौकते का एक संदेश यह भी है कि जलवायु परिवर्तन और गर्म समुद्री लहरों जैसे कारकों के चलते हमें ऐसे और तूफानों का सामना करने को तैयार रहना पड़ेगा।

सौजन्य -  नवभारत टाइम्स। 

Share:

वैक्सीन में कितना अंतर हो ( नवभारत टाइम्स)

सरकार शुरू से कह रही है कि फैसला विशेषज्ञों की टीम ने ब्रिटेन में मिल रहे इनपुट के आधार पर किया है। इसका देश में टीकों की मौजूदा कमी से कोई लेना-देना नहीं है। उलझन इस बात से भी बढ़ी कि सरकार के दावे के बाद ब्रिटेन में वैक्सीन के दो डोजों के बीच का अंतर 12 हफ्ते से घटाकर 8 हफ्ते कर दिया गया। इसके बाद भारत सरकार ने कहा कि जो भी रिसर्च इनपुट आ रहे हैं, उन पर उसके विशेषज्ञों की टीम नजर बनाए हुए है।

 

भारत में कोरोना वैक्सीन कोविशील्ड के दो डोज के बीच अंतर को बढ़ाकर 12 से 16 सप्ताह किए जाने के फैसले पर सवाल-जवाब का सिलसिला थम नहीं रहा है। इस बीच, अस्पतालों और टीका केंद्रों पर दूसरा डोज लेने वालों की बेकरार भीड़ कम होने की उम्मीद भी तत्काल पूरी होती नहीं दिख रही। लोगों के भारी संख्या में अस्पताल पहुंचने और वहां से बैरंग लौटाए जाने की खबरें आ ही रही हैं। इनमें से कइयों को लगता है कि सरकार ने टीकों की कमी के चलते यह फैसला किया है। हालांकि सरकार शुरू से कह रही है कि फैसला विशेषज्ञों की टीम ने ब्रिटेन में मिल रहे इनपुट के आधार पर किया है। इसका देश में टीकों की मौजूदा कमी से कोई लेना-देना नहीं है। उलझन इस बात से भी बढ़ी कि सरकार के दावे के बाद ब्रिटेन में वैक्सीन के दो डोजों के बीच का अंतर 12 हफ्ते से घटाकर 8 हफ्ते कर दिया गया। इसके बाद भारत सरकार ने कहा कि जो भी रिसर्च इनपुट आ रहे हैं, उन पर उसके विशेषज्ञों की टीम नजर बनाए हुए है। जब भी जरूरत होगी, फैसले में बदलाव किया जाएगा। लेकिन फिलहाल उसमें किसी परिवर्तन की जरूरत नहीं है।


देखा जाए तो यह सच भी है कि ब्रिटिश सरकार का ताजा फैसला भारत में विकसित हो रहे वायरस म्यूटेंट से बचाव की रणनीति का हिस्सा है। वह जल्द से जल्द अधिक से अधिक लोगों को दोनों डोज देकर उन्हें वैक्सीन के सुरक्षा घेरे में लाना चाहती है। इस रणनीति में कुछ गलत नहीं है, लेकिन इसके आधार पर यह नहीं माना जा सकता कि दो डोजों के बीच अंतर घटाना वैक्सीन के प्रभाव को कम या ज्यादा करता है। जानकारों के मुताबिक ब्रिटेन में भी ऐसा कोई डेटा नहीं है, जो यह बताता हो कि डोज का अंतर कम करने से वैक्सीन का असर बढ़ता है। बहरहाल, ये तर्क-वितर्क लोगों के बीच फैले असमंजस को कम नहीं कर पा रहे। हमारे विशेषज्ञों द्वारा रिसर्च इनपुट के आधार पर लिए गए फैसलों को पर इस तरह की स्थिति बनना ठीक नहीं है। इन फैसलों में इतनी पारदर्शिता होनी चाहिए कि किसी तरह के भ्रम या संदेह के लिए कोई गुंजाइश न रहे।


मौजूदा मामले में भी सरकार ने जिस नैशनल टेक्निकल अडवाइजरी ग्रुप (इम्यूनाइजेशन) की सिफारिश पर डोजों के बीच का अंतर बढ़ाने का फैसला किया है, उससे जुड़े विशेषज्ञों को चाहिए कि अपने निष्कर्ष का आधार और निष्कर्ष तक पहुंचने की प्रक्रिया सार्वजनिक करें। इससे उन संदेहों को दूर करने में मदद मिलेगी, जो सरकारी दावों के बावजूद लोगों के मन से नहीं मिट पा रहे। आखिर महामारी के खिलाफ यह जंग हम विज्ञान के सहारे ही लड़ने और जीतने वाले हैं और साइंस की गाड़ी पारदर्शिता, विश्वसनीयता के दो पहियों पर ही आगे बढ़ती है।

सौजन्य -  नवभारत टाइम्स। 

Share:

गांवों में फैला कोरोना ( नवभारत टाइम्स)

गांवों में तेजी से बढ़ाने होंगे इंतजाम

जहां एक ओर बुरी तरह प्रभावित राज्यों और बड़े शहरों में कोरोना संक्रमण की स्थिति में हल्का सुधार दिखने से राहत महसूस की जा रही है, वहीं दूसरी ओर महामारी के गांवों में तेजी से फैलने के संकेत दिख रहे हैं। बिहार, यूपी के जिलों में गंगा और यमुना में सौ से ज्यादा लाशें बहती पाई गई हैं। इस मामले की जांच हो रही है। पता किया जा रहा है कि ये शव आखिर कहां के हैं और इन लोगों की मौत के वास्तविक कारण क्या हैं। लेकिन ऐसी अटकलें लग रही हैं कि कोरोना फैलने से गांवों में मृतकों का अंतिम संस्कार करना संभव नहीं हो पा रहा और शव नदियों में बहाए जा रहे हैं। गांवों में बड़े पैमाने पर टेस्ट की सुविधा नहीं है, लेकिन जितने भी टेस्ट हो रहे हैं, उनमें पॉजिटिव नतीजों का ज्यादा अनुपात बताता है कि संक्रमण स्तर काफी बढ़ा हुआ है। ऐसे में यह संभावना मजबूत हो जाती है कि ग्रामीण क्षेत्रों के बहुत सारे मामले कोरोना के रूप में चिह्वित नहीं हो पाते होंगे।


फिर भी, जो मामले पकड़ में आ रहे हैं, उनके आंकड़े इतना तो स्पष्ट कर ही देते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में हालात काफी तेजी से बिगड़े हैं। उदाहरण के लिए 9 अप्रैल से 9 मई के बीच विभिन्न राज्यों में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों की बदली स्थिति पर नजर डाली जा सकती है। बिहार में 9 अप्रैल को कोरोना संक्रमण के मामले शहरी क्षेत्रों में 47 फीसदी और ग्रामीण क्षेत्रों में 53 फीसदी थे। एक महीने बाद 9 मई को शहरी क्षेत्रों के मामले जहां 24 फीसदी पर आ गए, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में ये बढ़कर 76 फीसदी पर पहुंच गए। यूपी में 9 अप्रैल को ग्रामीण क्षेत्रों का अनुपात 49 फीसदी था, जो 9 मई को बढ़कर 65 फीसदी हो गया था। महाराष्ट्र (32 से 56), छत्तीसगढ़ (56 से 89),आंध्रप्रदेश (53 से 72) जैसे अन्य राज्य भी इसी स्थिति की ओर संकेत करते हैं। यह स्थिति ज्यादा गंभीर इसलिए है कि एक तो ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच कम है, दूसरे वहां लोगों का एक-दूसरे से दूरी बरतना भी सहज नहीं है।


ऐसे में एकमात्र उपाय यही बच जाता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकाधिक स्वास्थ्य केंद्र खोलकर लोगों में जागरूकता लाने, टेस्ट की संख्या बढ़ाने आइसोलेशन सेंटर खोलने और चिकित्सा सुविधाएं मुहैया कराने का काम तत्काल युद्ध स्तर पर शुरू कर दिया जाए। वैक्सीन को लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में झिझक और कई गलतफमियां भी हैं। इन्हें दूर करने के लिए सरकार को जरूरी अभियान चलाना चाहिए और इन इलाकों में टीकाकरण की रफ्तार में तेजी लानी चाहिए। तभी महामारी को हराने की ओर हम एक बड़ा कदम बढ़ा पाएंगे।

सौजन्य -  नवभारत टाइम्स। 

Share:

केंद्र ही खरीदे टीका ( नवभारत टाइम्स)

केंद्र ने हाल में इसके लिए कई कदम उठाए हैं। उसे अब एक कदम और आगे बढ़कर टीके की खरीद का जिम्मा अपने हाथों में लेना चाहिए। इससे वित्तीय संसाधनों की बचत होगी और राज्यों के लिए टीकाकरण अभियान में तेजी लाने का रास्ता भी साफ होगा।

 

दिल्ली सरकार ने कोवैक्सीन की कमी की बात कहते हुए 18-44 साल आयुवर्ग के लिए चल रहे 100 टीकाकरण केंद्र बंद कर दिए हैं। उधर, महाराष्ट्र ने भी 18-44 साल आयुवर्ग के लिए टीकाकरण रोक दिया है। इस वर्ग के लिए उसके पास 10 लाख खुराक थी, जिनका इस्तेमाल वह 45 साल से अधिक उम्र वालों को दूसरी खुराक देने में करेगा। इस आयु वर्ग में टीके की कमी का सामना करीब-करीब सभी राज्य कर रहे हैं। जरा गौर करिए, 1 मई से 12 मई तक 18-44 साल की आयु वालों को टीके की कुल 34.66 लाख डोज मिली हैं, जबकि जरूरत 1.20 अरब की है।

20 हज़ार से ज्यादा लोग अभी क्या कर रहे हैं? जान लीजिए

इस आयु वर्ग में 6.25 लाख डोज के साथ महाराष्ट्र सबसे आगे है। इसके बाद राजस्थान, दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों का नंबर आता है। लेकिन यह संख्या इतनी कम है कि इससे कोरोना की दूसरी लहर को रोकने में मदद नहीं मिलने वाली और इसकी वजह टीके की कमी है। सचाई यह भी है कि आज कोरोना के अधिक मरीज इसी आयु वर्ग के हैं। इसे देखते हुए टीकाकरण की रफ्तार में तुरंत तेजी लाने की जरूरत है।


इसका उपाय घरेलू कंपनियों के साथ अंतरराष्ट्रीय बाजार से टीका खरीदना हो सकता है। कई राज्यों ने इसकी पहल की है। उन्होंने ग्लोबल टेंडर दिए हैं। लेकिन यहां भी राज्य कंपनियों से अलग-अलग बातचीत कर रहे हैं। अगर वे मिलकर मोलभाव करें तो इसकी लागत कम आएगी। साथ ही, राज्यों को एक कीमत पर टीका मिल सकेगा। 12 विपक्षी दलों ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अपील की है कि अंतरराष्ट्रीय और घरेलू बाजार से टीके की खरीद केंद्र सरकार करे। दिल्ली सरकार ने भी 100 टीकाकरण केंद्र बंद करने के ऐलान के साथ कहा कि टीका दिलाने की जिम्मेदारी केंद्र की है। वैसे, मोदी सरकार का कहना है कि पहले राज्यों ने ही वैक्सीन खरीदने को लेकर स्वायत्तता की मांग की थी। इस आरोप-प्रत्यारोप को रहने दें तो इस सचाई से कोई इनकार नहीं कर सकता कि देश आज टीके की जबरदस्त किल्लत से गुजर रहा है, जिसे तत्काल दूर करने की जरूरत है।

केंद्र ने हाल में इसके लिए कई कदम उठाए हैं। उसे अब एक कदम और आगे बढ़कर टीके की खरीद का जिम्मा अपने हाथों में लेना चाहिए। इससे वित्तीय संसाधनों की बचत होगी और राज्यों के लिए टीकाकरण अभियान में तेजी लाने का रास्ता भी साफ होगा। साथ ही, केंद्र को राज्यों के बीच टीके का बंटवारा भी इस तरह से करना होगा कि 18-44 साल आयुवर्ग के टीकाकरण को लेकर विषमता न पैदा हो। अभी ऐसी ही स्थिति दिख रही है। 18-44 आयुवर्ग में 85 फीसदी टीके सिर्फ सात राज्यों में लगे हैं। केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में इस विषमता को रोकने का वादा किया था, उसे अपना वादा पूरा करना चाहिए।

सौजन्य -  नवभारत टाइम्स। 

Share:

Wednesday, May 5, 2021

वैक्सीन मैन का दुख (नवभारत टाइम्स)

पूनावाला की कंपनी ने अब तक जितनी वैक्सीन बनाई है, उसका ज्यादातर हिस्सा उसने भारत सरकार को दिया है। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय करार तोड़कर हमारी मदद की है, जिसके लिए उनकी कंपनी को लीगल नोटिस तक मिल चुका है। हमें इसके लिए पूनावाला का शुक्रगुजार होना चाहिए। इसके साथ अगर उन्हें भारत में कोई परेशानी हो रही है तो उसे दूर करने की कोशिश करनी चाहिए।


लंदन के अखबार फाइनैंशल टाइम्स को दिए इंटरव्यू में सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया के अदार पूनावाला ने कहा है कि भारत में आने वाले कुछ महीनों तक टीके की कमी बनी रह सकती है। अभी वह हर महीने 6-7 करोड़ खुराक तैयार कर रही है, जबकि जुलाई से 10 करोड़ खुराक बनाने लगेगी। इससे कोरोना की दूसरी लहर के बीच वैक्सीन की कमी से जूझ रहे भारत को जरूर राहत मिलेगी। इस इंटरव्यू में पूनावाला ने इसके साथ कई गंभीर आरोप भी लगाए हैं। उन्होंने कहा है कि उन्हें भारत में बेवजह परेशान किया गया। इससे पहले 'द टाइम्स ऑफ लंदन' को दिए इंटरव्यू में पूनावाला ने कहा था कि वैक्सीन की सप्लाई को लेकर भारत में नेता और बिजनस लीडर्स उन्हें धमकी दे रहे हैं। सच पूछिए तो इस समस्या की जड़ शुरुआत में भारत सरकार की ओर से कंपनी को बड़ा ऑर्डर न देना रहा, जिसकी तरफ पूनावाला ने भी इशारा किया है। सरकार को लग रहा था कि भारत ने कोरोना महामारी से जंग जीत ली है और यहां इसकी दूसरी लहर दस्तक नहीं देगी। लेकिन दूसरी लहर न सिर्फ आई बल्कि बेकाबू हो गई है और पिछले शुक्रवार को तो नए मरीजों की संख्या 4 लाख पार कर गई, जो वैश्विक रेकॉर्ड है।


इसके बाद सरकार ने सीरम इंस्टिट्यूट को वैक्सीन के लिए पेशगी के तौर पर 3,000 करोड़ रुपये दिए, जिसका इस्तेमाल कंपनी अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए कर रही है। केंद्र ने इसके साथ वैक्सीन की सप्लाई बढ़ाने के लिए और भी कदम उठाए हैं, जिनका असर जल्द ही दिखने लगेगा। लेकिन इन सबके बीच पूनावाला को लेकर जो विवाद हुआ है, वह अफसोसनाक है। अगर देश में आज 16 करोड़ यानी 12 फीसदी लोगों को वैक्सीन की पहली खुराक मिल चुकी है तो उसमें कोवैक्सीन बनाने वाली भारत बायोटेक के साथ दुनिया की सबसे बड़ी वैक्सीन कंपनी सीरम का बड़ा योगदान रहा है। पूनावाला की कंपनी ने अब तक जितनी वैक्सीन बनाई है, उसका ज्यादातर हिस्सा उसने भारत सरकार को दिया है। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय करार तोड़कर हमारी मदद की है, जिसके लिए उनकी कंपनी को लीगल नोटिस तक मिल चुका है। हमें इसके लिए पूनावाला का शुक्रगुजार होना चाहिए। इसके साथ अगर उन्हें भारत में कोई परेशानी हो रही है तो उसे दूर करने की कोशिश करनी चाहिए। उन्हें यह अहसास दिलाना चाहिए कि वह यहां असुरक्षित नहीं हैं। केंद्र सरकार को उनसे बात करनी चाहिए। वह सुनिश्चित करे कि नेता और बिजनस लीडर्स उन पर बेवजह वैक्सीन के लिए दबाव न बनाएं। उनकी कंपनी इस मुश्किल घड़ी में हमारे लिए राष्ट्रीय रत्न की तरह है। उन्हें इसके मुताबिक सम्मान मिलना चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि अगर हम महामारी से जंग जीतेंगे तो उसमें पूनावाला और उनकी कंपनी का अहम योगदान होगा।

सौजन्य - नवभारत टाइम्स।

Share:

Saturday, May 1, 2021

हम होंगे कामयाब (नवभारत टाइम्स)

कोरोना की दूसरी लहर के बीच अमेरिकी मदद की पहली खेप शुक्रवार को दिल्ली पहुंच गई। भारत इन दिनों जिस तरह के हालात से जूझ रहा है, उसे देखते हुए दुनिया के तमाम देश मदद के लिए आगे आए हैं। अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस, साउथ कोरिया, सिंगापुर समेत 40 से अधिक देशों की ओर से सहायता सामग्री या तो देश में पहुंच चुकी है या पहुंचने की प्रक्रिया में है। अमेरिका ने जरूरी दवाएं, एस्ट्राजेनेका-ऑक्सफर्ड की वैक्सीन यानी कोविशील्ड और इसे बनाने के लिए कच्चा माल भी भिजवाया है।


यों तो भारत की मदद का फैसला लेने में अमेरिकी प्रशासन की शुरुआती हिचक से कुछ सवाल खड़े होने लगे थे, लेकिन राष्ट्रपति जो बाइडेन ने सही समय पर सटीक फैसला करके उन्हें जड़ें जमाने का मौका नहीं दिया। जिन देशों ने भारत की ओर मदद का हाथ बढ़ाया है, उनसे सरकार ने मेडिकल ऑक्सिजन, रेमडेसेवियर जैसी दवाएं मांगी हैं ताकि कोविड से गंभीर रूप से बीमार लोगों का इलाज किया जा सके। विदेश सचिव हर्ष श्रृंगला ने बताया है कि इन देशों को हमने अपनी जरूरतें बता दी हैं। इस बारे में उच्चस्तर पर बातचीत चल रही है। महामारी से जंग में सरकारों के साथ कई देशों के आम लोग भी भारतीयों का हौसला बढ़ा रहे हैं।


वे इसके लिए सोशल मीडिया पर संदेश दे रहे हैं और अपनी सरकारों से हर संभव तरीके से भारत की मदद करने का आग्रह कर रहे हैं। भारत ने भी 'वैक्सीन मैत्री' के तहत नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, म्यांमार, अफगानिस्तान, श्रीलंका, मालदीव, मॉरिशस जैसे देशों को न सिर्फ टीके की सप्लाई की बल्कि वह डब्ल्यूएचओ की कोवैक्स इनीशिएटिव में भी योगदान कर रहा है। कोवैक्स नाम की पहल खासतौर पर वैसे विकासशील और गरीब देशों को वैक्सीन दिलाने के लिए शुरू की गई है, जिनके पास अपना टीका नहीं है। इसलिए आज दुनिया भर से भारतीयों की मदद के लिए जो हाथ आगे बढ़ रहे हैं, उसमें कुछ भूमिका निश्चित रूप से भारत के उन कार्यों से बने सद्भाव की भी है।


इस मुश्किल घड़ी में जिस तरह से कई देश मदद के लिए आगे आए हैं, उससे पता चलता है कि दुनिया भले अलग-अलग देशों की सरहदों में बंटी हो, लेकिन इंसानियत का धागा सबको इतनी मजबूती से जोड़ता है कि किसी भी संकट की घड़ी में सारी सरहदें छोटी पड़ जाती हैं। इसके साथ ही हमें यह भी याद रखना होगा कि कोरोना एक वैश्विक महामारी है। जब तक दुनिया में कहीं भी इससे लोग पीड़ित रहेंगे, तब तक हम इसके खिलाफ जंग नहीं जीत पाएंगे। इसलिए हमें इससे मिलकर लड़ना होगा। तभी हम सदी में एक बार आने वाली ऐसी आपदा को हरा पाएंगे।


सौजन्य - नवभारत टाइम्स।

Share:

Friday, April 30, 2021

निजी अस्पतालों की सुनी जाए ( नवभारत टाइम्स)

सरकार के टीकाकरण अभियान का तीसरा चरण 1 मई से शुरू हो रहा है, जिसके लिए बुधवार से रजिस्ट्रेशन शुरू हो गया। इस चरण में 18 से 44 साल के लोगों को भी वैक्सीन लगाई जाएगी। इससे पहले 45 साल और उससे अधिक आयु वालों को टीका लगाया जा रहा था। इसके साथ मई से वैक्सीन पॉलिसी में कुछ और बदलाव हुए हैं। इनमें से एक यह है कि राज्यों और निजी अस्पतालों को खुद कंपनियों से वैक्सीन खरीदने को कहा गया है। अभी तक केंद्र इन कंपनियों से वैक्सीन खरीदकर राज्यों को देता रहा है और उनसे यह निजी अस्पतालों को मिलती है। अब इन अस्पतालों ने केंद्र से अपील की है कि कम से कम तीन महीने के लिए कंपनियों से खरीदकर वही उन्हें वैक्सीन दे। इसकी दो वजहें हैं। एक तो घरेलू कंपनियां कह रही हैं कि उन्हें वैक्सीन के लिए कुछ समय तक इंतजार करना पड़ेगा। वे पहले वादे के मुताबिक इसकी सप्लाई केंद्र और राज्य सरकारों को करेंगी। इसके बाद निजी अस्पतालों का नंबर आएगा। निजी अस्पतालों ने फाइजर, मॉडर्ना और जॉनसन एंड जॉनसन जैसी बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों से भी वैक्सीन खरीदने के लिए बात की है, लेकिन उनकी दिलचस्पी सीधे सरकार को इसकी बिक्री करने में है। यानी वहां से भी उन्हें तुरंत वैक्सीन नहीं मिलेगी।


दूसरी दिक्कत सप्लाई चेन यानी घरेलू वैक्सीन कंपनियों से निजी अस्पतालों तक इन्हें पहुंचाने को लेकर है। कंपनियों ने कहा है कि वे वैक्सीन अपनी कोल्ड चेन तक पहुंचा देंगी और वहां से अस्पतालों को इसे लेकर जाना होगा। अस्पतालों के पास अभी कोल्ड चेन और ट्रांसपोर्टेशन की व्यवस्था नहीं है। इसे तैयार करने में उन्हें कुछ महीने लग जाएंगे। इसलिए उन्होंने केंद्र से मौजूदा व्यवस्था को जारी रखने की अपील की है। निजी अस्पताल इस सिलसिले में राज्य सरकारों से भी बात करने वाले हैं। एक मसला यह भी है कि केंद्र ने उनसे बची हुई वैक्सीन वापस करने को कहा है। इसका मतलब यह है कि 1 मई से टीकाकरण अभियान का बड़ा दौर शुरू होने पर निजी अस्पताल उसमें सहयोग नहीं कर पाएंगे, जबकि कोरोना की दूसरी लहर को देखते हुए तेजी से वैक्सिनेशन की जरूरत है। इसलिए केंद्र सरकार को उनकी इस मांग पर गौर करना चाहिए। अगर अभी की व्यवस्था के हिसाब से वैक्सीन की सप्लाई जारी रखी गई तो उससे छोटे अस्पताल भी इस अभियान में सहयोग दे पाएंगे क्योंकि उनके लिए सीधे कंपनियों से टीका खरीदना संभव नहीं होगा। न ही वे नई पॉलिसी के मुताबिक कोल्ड चेन और लॉजिस्टिक्स पर पैसा खर्च करने की स्थिति में हैं। सरकार को इस बारे में भी सोचना चाहिए क्योंकि इनकी मदद से दूरदराज के इलाकों में भी टीकाकरण अभियान में तेजी लाने में मदद मिलेगी। उम्मीद है कि नई वैक्सीन पॉलिसी को कामयाब बनाने के लिए इन मुश्किलों को दूर करने की पहल की जाएगी।

सौजन्य -  नवभारत टाइम्स।

Share:

लोकल लॉकडाउन ही लगे ( नवभारत टाइम्स)

इसमें कोई शक नहीं कि लॉकडाउन मजबूरी का विकल्प है। लेकिन देश के बड़े हिस्से में महामारी की जो स्थिति है, उसमें लॉकडाउन जैसा कड़ा और अप्रिय कदम उठाना अनिवार्य होता जा रहा है। इससे पहले कि देशव्यापी लॉकडाउन के हालात बन जाएं, सर्वाधिक प्रभावित इलाकों की पहचान कर वहां इस वायरस की चेन तोड़ना जरूरी है ताकि अन्य क्षेत्र इसकी चपेट में आने से बच सकें।

 

कोरोना की दूसरी लहर से देशभर में जो इलाके सबसे अधिक प्रभावित हैं, सिर्फ वहां लॉकडाउन लगाने का विचार व्यावहारिक तकाजों के मुताबिक ही है। पिछले साल के देशव्यापी लॉकडाउन के तल्ख अनुभवों को देखते हुए केंद्र सरकार ने इस बार लॉकडाउन का फैसला राज्य सरकारों पर छोड़ा है। राज्य अलग-अलग हिस्सों में संक्रमण की स्थिति और आर्थिक गतिविधियों की अनिवार्यता संबंधी दोनों पहलुओं पर गौर करते हुए यह फैसला कर रहे हैं कि कहां किस तरह की पाबंदियां लगनी चाहिए। मगर धीरे-धीरे यह भी महसूस किया जा रहा है कि यह फैसला पूरी तरह राज्य सरकारों पर छोड़ना मुनासिब नहीं है। राष्ट्रीय स्तर पर बेहतर तालमेल के साथ चला जाए तो अपेक्षाकृत कम समय में बेहतर नतीजे हासिल किए जा सकते हैं। इसी सोच के तहत स्वास्थ्य विभाग ने देश भर में ऐसे 150 जिलों की पहचान की है, जहां पॉजिटिविटी रेट 15 फीसदी से ऊपर पाई गई है। स्वास्थ्य मंत्रालय का सुझाव है कि इन जिलों में आवश्यक सेवाओं को छोड़कर सख्त लॉकडाउन लागू किया जाए। यों तो इस संबंध में अंतिम फैसला संबंधित राज्य सरकारों से विचार-विमर्श के बाद लिया जाना है, लेकिन हालात जिस तेजी से बिगड़ते जा रहे हैं उसके मद्देनजर इस फैसले पर अमल में देर नहीं की जानी चाहिए।


इसमें कोई शक नहीं कि लॉकडाउन मजबूरी का विकल्प है। लेकिन देश के बड़े हिस्से में महामारी की जो स्थिति है, उसमें लॉकडाउन जैसा कड़ा और अप्रिय कदम उठाना अनिवार्य होता जा रहा है। इससे पहले कि देशव्यापी लॉकडाउन के हालात बन जाएं, सर्वाधिक प्रभावित इलाकों की पहचान कर वहां इस वायरस की चेन तोड़ना जरूरी है ताकि अन्य क्षेत्र इसकी चपेट में आने से बच सकें। यह स्पष्ट है कि इस संक्रमण को नियंत्रित करने के दो ही तरीके हैं। एक, भीड़ इकट्ठी न होने पाए और सामाजिक दूरी बनाए रखी जाए और दो, अधिक से अधिक लोगों को वैक्सीन के सुरक्षा घेरे में लाया जाए। वैक्सीन का उत्पादन बढ़ाने की तमाम कोशिशों के बीच भी यह स्पष्ट हो गया है कि 18 साल से ऊपर के लोगों को बड़े पैमाने पर टीके की जद में लाने का काम अगले महीने के दूसरे-तीसरे सप्ताह तक ही शुरू हो पाएगा। तब तक संक्रमण को यथासंभव रोके रखने का यही उपाय हो सकता है कि जिन इलाकों में वायरस के सबसे ज्यादा फैलने की आशंका हो, वहां सख्त लॉकडाउन घोषित किया जाए और देश के बाकी इलाकों में सावधानी के साथ आर्थिक गतिविधियां चलने दी जाएं ताकि महामारी और अर्थव्यवस्था दोनों मोर्चों पर स्थिति संभली रहे। जरूरी यह भी है कि टीके उपलब्ध हो जाने के बाद जब जोर-शोर से वैक्सिनेशन ड्राइव शुरू की जाए, तब भी इन 150 जिलों को प्राथमिकता में रखा जाए ताकि लॉकडाउन की सख्ती से मिला फायदा हाथ से निकल न जाए।

सौजन्य -  नवभारत टाइम्स।

Share:

Tuesday, April 27, 2021

ऑक्सिजन कहां खो गई (नवभारत टाइम्स)

अस्पताल ने पहले ऑक्सिजन की कमी की ओर ध्यान दिलाया था, लेकिन अब उसने यह बताया है कि इन मरीजों की मौत ऑक्सिजन की कमी के कारण नहीं हुई। मामला जो भी हो, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि अस्पतालों में ऑक्सिजन की कमी इस वक्त का सबसे बड़ा संकट है।


देशभर में इतने लोग प्राणवायु के लिए छटपटा रहे हों, ऐसा दृश्य पहले कभी नहीं देखा गया। लोग सिलिंडर लेकर लाइनों में खड़े हैं, अस्पतालों में कोहराम मचा है और डॉक्टर रो रहे हैं। दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में जब एक दिन में 25 मरीजों की मौत की खबर आई तो लगा यह इंतिहा है। अस्पताल ने पहले ऑक्सिजन की कमी की ओर ध्यान दिलाया था, लेकिन अब उसने यह बताया है कि इन मरीजों की मौत ऑक्सिजन की कमी के कारण नहीं हुई। मामला जो भी हो, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि अस्पतालों में ऑक्सिजन की कमी इस वक्त का सबसे बड़ा संकट है। कई अस्पताल नए मरीजों को एडमिट करना तो दूर, अपने यहां पहले से भर्ती पेशंट्स को भी कहीं और जाने की सलाह दे रहे हैं, जहां उन्हें ऑक्सिजन और अन्य जरूरी चीजें उपलब्ध हों। देश के अलग-अलग हिस्सों से ऐसी खबरें आ रही हैं। लाचारी की इस त्रासद तस्वीर के पीछे हैरत में डालने वाला तथ्य यह है कि यह स्थिति अप्रत्याशित नहीं है।


बात का अंदाजा था और एक बार नहीं बल्कि दो बार यह बात शासन के संज्ञान में लाई गई थी कि देश में मेडिकल ऑक्सिजन की कमी हो सकती है। मीडिया में आई खबरों के मुताबिक पहली बार अप्रैल 2020 में यानी ठीक एक साल पहले ऑफिसरों के एक एम्पावर्ड ग्रुप की बैठक में यह बात उठाई गई थी। उस बैठक में अन्य महत्वपूर्ण पदाधिकारियों के अलावा नीति आयोग के सीईओ भी मौजूद थे, जो बैठक का नेतृत्व कर रहे थे। इसके बाद, स्वास्थ्य से जुड़े मामलों की संसदीय स्थायी समिति ने भी मेडिकल ऑक्सिजन की उपलब्धता को लेकर आगाह किया था और सरकार से कहा था कि वह ऑक्सिजन के पर्याप्त उत्पादन को प्रोत्साहित करे ताकि अस्पतालों में इसकी मांग के अनुरूप सप्लाई सुनिश्चित की जा सके। स्थायी समिति की यह रिपोर्ट अक्टूबर 2020 में राज्यसभा सभापति को पेश की गई। गौर करने की बात है कि ऑफिसरों के एम्पावर्ड ग्रुप की मीटिंग में जब यह बात कही गई थी, तब राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन लागू हुए एक सप्ताह ही हुआ था और पूरे देश में एक्टिव केसों की संख्या 2000 से कुछ ही ऊपर थी। जाहिर है, जरूरी इंतजाम करने के लिए सरकार के पास वक्त की कमी नहीं थी। बावजूद इसके, आज देश का यह हाल है और यह बताता है कि हमारा तंत्र किस कदर उदासीन हो चुका है।

सौजन्य - नवभारत टाइम्स।

Share:

कोविशील्डः समय रहते खुली अक्ल (नवभारत टाइम्स)

आखिरकार अमेरिका को समझ में आ गया कि कोविड महामारी से जंग में टीकों की कितनी अहमियत है। उसने आश्वासन दिया है कि कोविशील्ड वैक्सीन बनाने में जो खास चीजें जरूरी होती हैं, उन्हें वह भारत को फौरन मुहैया कराएगा। इनके निर्यात पर अमेरिका ने रोक लगा दी थी। कोविड वैक्सीन के मामले में इस साल जनवरी में अमेरिका ने 1950 की कोरिया वॉर के दिनों का एक कानून लागू कर दिया। उस कानून का मकसद था युद्ध में काम आनेवाले साजोसामान की आपूर्ति की दिक्कतें दूर करना। बाद के दिनों में नेशनल इमर्जेंसी की हालत में भी यह कानून लागू करने की मंजूरी दी गई। जो बाइडेन के नेतृत्व में अमेरिका ने इसे लागू कर दिया कोविड वैक्सीन के मामले में। टीके बनाने में काम आने वाली करीब 37 चीजों का निर्यात रोक दिया गया ताकि अमेरिका में फाइजर, बायोएनटेक और जॉनसन एंड जॉनसन जैसी कंपनियों के टीके जोरशोर से बनाए जा सकें। ये खास चीजें यूरोप की कंपनियां भी बनाती हैं, लेकिन वे बड़ी सप्लायर नहीं हैं। लिहाजा भारत और यूरोप में टीके बना रही कंपनियां दिक्कत में फंस गईं। कोविशील्ड बनाने वाली सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के सीईओ अदार पूनावाला ने निर्यात खोलने की गुहार लगाई बाइडेन से, तो कोवैक्सीन बना रही भारत बायोटेक के सीएमडी डॉ कृष्णा एल्ला ने भी चिंता जताई। अपील विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी की और कहा कि भारत दुनिया की मदद करता है तो अब दुनिया को भारत की मदद करनी चाहिए। यहां तक कि खुद बाइडेन की डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर से भी रोक के खिलाफ आवाज उठने लगी। यूरोप की कंपनियां तो रोक के खिलाफ वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन चली गईं।



आखिर में भारत और अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बातचीत से राह निकली। अमेरिका ने तय किया है कि कोविशील्ड बनाने में काम आने वाली चीजों की आपूर्ति भारत को जल्द की जाएगी। दूसरे जीवन रक्षक उपकरण भी भेजेगा अमेरिका। अमेरिका पहले ही करोड़ों डोज के लिए कंपनियों से करार कर चुका है। एस्ट्राजेनेका के टीके के दो करोड़ डोज उसके पास पड़े हुए हैं। ऐसे में कच्चे माल का निर्यात रोकने का फैसला कहीं से भी जायज नहीं था। खैर, जो बाइडेन को याद आ गया कि महामारी के शुरुआती दौर में भारत ने अमेरिका की मदद की थी। उन्होंने ट्वीट किया कि जरूरत के वक्त अब मदद करने की बारी अमेरिका की है। अमेरिका को यह भी याद आया होगा कि सीरम केवल भारत के लिए कोविशील्ड नहीं बना रही। उसका एक बड़ा हिस्सा दूसरे देशों के काम आएगा। वैक्सीन डिप्लोमैसी के मोर्चे पर भी अमेरिका की भद पिट रही थी। अच्छा है कि अमेरिका ने समय रहते यह बात समझ ली कि महामारी से जंग अकेले-अकेले नहीं, मिलकर लड़नी होगी क्योंकि एक भी व्यक्ति असुरक्षित रह गया तो कोई भी सुरक्षित नहीं रहेगा। लेकिन अभी यह अधूरा कदम है। सिर्फ कोविशील्ड नहीं, सभी वैक्सीनों के कच्चे माल की आपूर्ति सुनिश्चित की जानी चाहिए।

सौजन्य - नवभारत टाइम्स।

Share:

Sunday, April 25, 2021

ऑक्सिजन कहां खो गई (नवभारत टाइम्स)

अस्पताल ने पहले ऑक्सिजन की कमी की ओर ध्यान दिलाया था, लेकिन अब उसने यह बताया है कि इन मरीजों की मौत ऑक्सिजन की कमी के कारण नहीं हुई। मामला जो भी हो, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि अस्पतालों में ऑक्सिजन की कमी इस वक्त का सबसे बड़ा संकट है।


देशभर में इतने लोग प्राणवायु के लिए छटपटा रहे हों, ऐसा दृश्य पहले कभी नहीं देखा गया। लोग सिलिंडर लेकर लाइनों में खड़े हैं, अस्पतालों में कोहराम मचा है और डॉक्टर रो रहे हैं। दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में जब एक दिन में 25 मरीजों की मौत की खबर आई तो लगा यह इंतिहा है। अस्पताल ने पहले ऑक्सिजन की कमी की ओर ध्यान दिलाया था, लेकिन अब उसने यह बताया है कि इन मरीजों की मौत ऑक्सिजन की कमी के कारण नहीं हुई। मामला जो भी हो, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि अस्पतालों में ऑक्सिजन की कमी इस वक्त का सबसे बड़ा संकट है। कई अस्पताल नए मरीजों को एडमिट करना तो दूर, अपने यहां पहले से भर्ती पेशंट्स को भी कहीं और जाने की सलाह दे रहे हैं, जहां उन्हें ऑक्सिजन और अन्य जरूरी चीजें उपलब्ध हों। देश के अलग-अलग हिस्सों से ऐसी खबरें आ रही हैं। लाचारी की इस त्रासद तस्वीर के पीछे हैरत में डालने वाला तथ्य यह है कि यह स्थिति अप्रत्याशित नहीं है।


बात का अंदाजा था और एक बार नहीं बल्कि दो बार यह बात शासन के संज्ञान में लाई गई थी कि देश में मेडिकल ऑक्सिजन की कमी हो सकती है। मीडिया में आई खबरों के मुताबिक पहली बार अप्रैल 2020 में यानी ठीक एक साल पहले ऑफिसरों के एक एम्पावर्ड ग्रुप की बैठक में यह बात उठाई गई थी। उस बैठक में अन्य महत्वपूर्ण पदाधिकारियों के अलावा नीति आयोग के सीईओ भी मौजूद थे, जो बैठक का नेतृत्व कर रहे थे। इसके बाद, स्वास्थ्य से जुड़े मामलों की संसदीय स्थायी समिति ने भी मेडिकल ऑक्सिजन की उपलब्धता को लेकर आगाह किया था और सरकार से कहा था कि वह ऑक्सिजन के पर्याप्त उत्पादन को प्रोत्साहित करे ताकि अस्पतालों में इसकी मांग के अनुरूप सप्लाई सुनिश्चित की जा सके। स्थायी समिति की यह रिपोर्ट अक्टूबर 2020 में राज्यसभा सभापति को पेश की गई। गौर करने की बात है कि ऑफिसरों के एम्पावर्ड ग्रुप की मीटिंग में जब यह बात कही गई थी, तब राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन लागू हुए एक सप्ताह ही हुआ था और पूरे देश में एक्टिव केसों की संख्या 2000 से कुछ ही ऊपर थी। जाहिर है, जरूरी इंतजाम करने के लिए सरकार के पास वक्त की कमी नहीं थी। बावजूद इसके, आज देश का यह हाल है और यह बताता है कि हमारा तंत्र किस कदर उदासीन हो चुका है।

सौजन्य - नवभारत टाइम्स।

Share:

Friday, April 23, 2021

वैक्सीन पर उलझन (नवभारत टाइम्स)

देश में कंपनियां जितनी वैक्सीन बनाएंगी, उनमें से आधा केंद्र लेगा। बाकी बचे हिस्से से राज्यों और निजी अस्पतालों को सप्लाई की जाएगी। कोरोना की दूसरी लहर को देखते हुए ये अच्छे कदम हैं। लेकिन इन्हें लेकर कुछ उलझनें और सवाल भी हैं। पहला सवाल तो यही है कि क्या इतने व्यापक स्तर पर टीकाकरण अभियान के लिए हमारे पास वैक्सीन है?

 

सरकार ने 1 मई से 18 साल से अधिक उम्र वालों के लिए वैक्सिनेशन शुरू करने का ऐलान किया है। इससे टीकाकरण अभियान के चौथे चरण में 60 करोड़ नए लोग वैक्सीन लगवा पाएंगे। इससे पहले के तीन चरणों में केंद्र ने 30 करोड़ लोगों को वैक्सीन लगवाने के लिए योग्य करार दिया था। इसके साथ केंद्र ने राज्यों और निजी अस्पतालों को भी कंपनियों से सीधे टीका खरीदने की इजाजत दी है। देश में कंपनियां जितनी वैक्सीन बनाएंगी, उनमें से आधा केंद्र लेगा। बाकी बचे हिस्से से राज्यों और निजी अस्पतालों को सप्लाई की जाएगी। कोरोना की दूसरी लहर को देखते हुए ये अच्छे कदम हैं। लेकिन इन्हें लेकर कुछ उलझनें और सवाल भी हैं। पहला सवाल तो यही है कि क्या इतने व्यापक स्तर पर टीकाकरण अभियान के लिए हमारे पास वैक्सीन है?अभी तक देश में लोगों को वैक्सीन के 13 करोड़ से अधिक डोज दिए गए हैं, जिनमें से 11.1 करोड़ को दूसरा डोज नहीं लगा है। ऐसे में एक अनुमान के मुताबिक, 1 मई के बाद सभी योग्य लोगों के वैक्सिनेशन के लिए 1.2 अरब डोज की जरूरत पड़ सकती है। अभी तक लग रहा है कि जून से देश में हर महीने 20 करोड़ डोज आने लगेंगे। उससे पहले खुले बाजार के लिए बहुत अतिरिक्त सप्लाई नहीं हो पाएगी। ऐसे में 1 मई से वैक्सिनेशन सेंटरों पर जो भारी भीड़ उमड़ेगी, उनमें से ज्यादातर को निराश वापस लौटना पड़ सकता है।


दूसरे, जून के बाद वैक्सीन की सप्लाई में अच्छी बढ़ोतरी के बाद भी लंबे समय तक मांग की तुलना में इसकी आपूर्ति कम बनी रहेगी। दूसरा सवाल यह है कि कंपनियों के पास राज्यों से वैक्सीन की जो मांग आएगी, वे किस आधार पर पूरा करेंगी? सीमित सप्लाई के बीच हर राज्य चाहेगा कि उसे अधिक से अधिक वैक्सीन मिले। अच्छा तो यही होगा कि टीके की आपूर्ति जोखिम के स्तर को देखते हुए की जाए। जहां खतरा अधिक हो, उसे अधिक सप्लाई मिले। और इसके लिए केंद्र के स्तर पर ही पहल होनी चाहिए। केंद्र ने निजी अस्पतालों को भी कंपनियों से सीधे वैक्सीन खरीदने का अधिकार दिया है। अभी सीरम ने केंद्र की नई नीति के मुताबिक कोविशील्ड की खातिर राज्यों के लिए 400 रुपये और निजी अस्पतालों के लिए 600 रुपये की कीमत तय की है। अगर इसे आधार मानें तो लगता है कि राज्यों की तुलना में निजी अस्पतालों के लिए टीका महंगा होगा। इसका यह भी मतलब है कि निजी अस्पतालों को अधिक टीका बेचने से उनका मुनाफा भी बढ़ेगा। ऐसे में क्या राज्यों को टीका बेचने में कंपनियों की दिलचस्पी घट नहीं सकती है? एक और बात यह है कि कंपनियों से बड़े निजी अस्पताल तो वैक्सीन खरीद पाएंगे, लेकिन इस देश में बड़ी संख्या में छोटे अस्पताल भी हैं, उन्हें इसकी सप्लाई कैसे मिलेगी? इन उलझनों को दूर करने के लिए केंद्रीय स्तर पर पहल होनी चाहिए। यह काम नेशनल टास्क फोर्स के जिम्मे किया जा सकता है।

सौजन्य - नवभारत टाइम्स।

Share:

Thursday, April 22, 2021

अपने ही जाल में फंसे इमरान (नवभारत टाइम्स)

पाकिस्तान सरकार और खुद प्रधानमंत्री इमरान खान भी फ्रांसीसी राजदूत को वापस भेजे जाने के प्रस्ताव से सहमत नहीं हैं। पिछले दिनों उन्होंने टीवी पर प्रसारित एक संबोधन में कहा था कि फ्रांसीसी राजदूत को वापस भेजने का मतलब होगा पूरे यूरोपियन यूनियन (ईयू) से रिश्ते खत्म होना।

 

अपनी गलत प्राथमिकताओं और समझौतापरस्त नीतियों के चलते पाकिस्तान की इमरान खान सरकार ऐसी स्थिति में फंस गई है कि उससे न आगे बढ़ते बन रहा है और न पीछे हटते। एक सप्ताह पहले जिस तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान (टीएलपी) को आतंकी संगठन बताते हुए इमरान सरकार ने बैन किया था, उसी के आगे घुटने टेकते हुए उसने यह स्वीकार कर लिया है कि संसद की दो दिवसीय बैठक बुलाकर उसमें फ्रांसीसी राजदूत को वापस भेजने का प्रस्ताव पेश किया जाएगा। ध्यान रहे, पाकिस्तान सरकार और खुद प्रधानमंत्री इमरान खान भी फ्रांसीसी राजदूत को वापस भेजे जाने के प्रस्ताव से सहमत नहीं हैं। पिछले दिनों उन्होंने टीवी पर प्रसारित एक संबोधन में कहा था कि फ्रांसीसी राजदूत को वापस भेजने का मतलब होगा पूरे यूरोपियन यूनियन (ईयू) से रिश्ते खत्म होना। चूंकि पाकिस्तान के टेक्सटाइल एक्सपोर्ट का 50 फीसदी यूरोप को जाता है, इसलिए ईयू से रिश्ते खत्म होने का मतलब होगा देश के टेक्सटाइल एक्सपोर्ट का आधा हिस्सा गायब हो जाना। मगर इमरान खान की ये समझदारी की बातें


टीएलपी के जुनूनी समर्थकों को समझ में नहीं आनी थीं, ना आईं। उन्होंने अपना कथित आंदोलन तेज कर दिया और देश में जगह-जगह आंदोलनकारियों की पुलिस से मुठभेड़ शुरू हो गई। चार पुलिसकर्मी मारे गए और बड़ी संख्या में घायल हुए। यही नहीं करीब दर्जन भर वरिष्ठ पुलिस अधिकारी बंधक भी बना लिए गए।


नतीजा यह कि अपने ही देश में पाकिस्तान सरकार ऐसी लाचार हो गई कि उसे इस प्रतिबंधित आतंकी संगठन के साथ बातचीत करके बाकायदा समझौता करना पड़ा। इस पूरे प्रकरण का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि अपने देश और सरकार को इस अपमानजनक स्थिति में पहुंचाने के लिए अगर कोई एक व्यक्ति सबसे ज्यादा जिम्मेदार है तो वह हैं खुद प्रधानमंत्री इमरान खान। फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रों ने अगर मोहम्मद साहब के कार्टून छापने को अपने देश के अंदर अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ा मसला बताया था, तो यह उनके देश और संविधान के दायरे में आने वाली बात थी। अन्य देशों की तरह पाकिस्तान के भी धार्मिक कट्टरपंथी संगठनों ने इस पर प्रतिक्रिया दी भी तो बतौर प्रधानमंत्री इमरान खान को उससे दूरी बनाए रखनी चाहिए थी। मगर उन्होंने इसे इस्लामी जगत में अपना कद ऊंचा करने के एक मौके के रूप में देखा और भुनाने में जुट गए। इसी का परिणाम है कि देश के अंदर कट्टरपंथियों की हिम्मत और ताकत इस कदर बढ़ गई कि उन्होंने सरकार को घुटने पर ला दिया। मामला भले पाकिस्तान का हो, सबक इसमें हर देश और समाज के लिए है। धार्मिक कट्टरंपथ को अगर आपने किसी भी रूप में बढ़ावा देना शुरू किया तो फिर यह सिलसिला आसानी से नहीं थमता। आखिरकार उसकी कीमत पूरे समाज को चुकानी पड़ती है।

सौजन्य - नवभारत टाइम्स।

Share:

Wednesday, April 21, 2021

कोरोना वैक्सीनः सभी वयस्कों के लिए (नवभारत टाइम्स)

एक मई से शुरू हो रहे टीकाकरण अभियान के तीसरे फेज में किए गए बदलाव बेहद अहम हैं। ये बदलाव महामारी की दिनोदिन गंभीर होती चुनौती के मद्देनजर इस अभियान को व्यापक रूप देने में खास तौर पर मददगार होंगे। 18 वर्ष की उम्र से ऊपर के सभी लोगों को टीकाकरण के दायरे में लाना इसलिए भी आवश्यक था क्योंकि कोरोना की इस दूसरी लहर की चपेट में आने वालों में अच्छी खासी तादाद युवाओं की है। वैक्सीनेशन के पहले दोनों फेज में क्रमश: फ्रंटलाइन वॉरियर्स और 60 तथा 45 साल से ऊपर के लोगों को प्राथमिकता देने के पीछे कहीं न कहीं यह सोच भी थी कि युवा या तो संक्रमण की चपेट में आएंगे ही नहीं या आए भी तो उनका शरीर अपेक्षाकृत आसानी से वायरस के हमले को झेल जाएगा। मगर वायरस के नए वैरिएंट्स जिस तरह से युवाओं को निशाना बना रहे हैं उसे देखते हुए यह तर्क अब कारगर नहीं रह गया है। दूसरी बात यह कि इस दूसरी लहर के भयावह रूप लेने से कुछ पहले से ही देखा जा रहा था कि 45 साल से ऊपर की आबादी का जो हिस्सा घर से काम करते हुए खुद को सेफ मान रहा था, उसमें वैक्सीन को लेकर एक हिचक थी। दूसरी तरफ युवा आबादी का बड़ा हिस्सा जिसे काम-कामकाज के सिलसिले में या अन्य वजहों से बाहर निकलना पड़ रहा था, वैक्सीन लेकर निश्चिंत होना चाहता था, लेकिन उसकी वैक्सीन तक पहुंच नहीं बन पा रही थी। नई नीति इन दोनों असंगतियों को दूर करेगी।

टीका वितरण की प्रक्रिया में लाया गया लचीलापन भी स्वागत योग्य है। अब टीका उत्पादन का आधा हिस्सा ही केंद्र सरकार के पास जाएगा। बाकी आधे हिस्से में राज्य सरकारों तथा प्राइवेट हॉस्पिटलों को अपनी जरूरतों के अनुरूप सीधी खरीदारी करने का अधिकार होगा। ये और ऐसे अन्य बदलाव देश में टीकों की उपलब्धता को तो आसान बनाएंगे ही, आम जरूरतमंद लोगों की उस तक पहुंच भी सुनिश्चित करेंगे। हालांकि कुछ अस्पष्टताएं अभी बनी हुई हैं। उदाहरण के लिए यह तो कह दिया गया है कि कुल उत्पादित टीके का आधा हिस्सा केंद्र सरकार को मिलेगा, और बाकी का आधा हिस्सा पूर्वघोषित कीमत पर राज्यों तथा प्राइवेट हॉस्पिटलों आदि को बेचा जा सकेगा। लेकिन जब कीमत एक ही होगी तो राज्य सरकारों और प्राइवेट पार्टियों की खरीद का प्रतिशत कैसे तय होगा? कहीं ऐसा न हो जाए कि प्राइवेट पार्टियां बड़ा हिस्सा खरीद लें और राज्य सरकारों को अपने अस्पतालों में गरीब व जरूरतमंद आबादी को देने के लिए टीका कम पड़ने लग जाए। उम्मीद की जानी चाहिए कि ऐसे अस्पष्ट पहलुओं पर भी केंद्र सरकार की गाइडलाइन समय से आ जाएगी और तीसरे फेज में टीकाकरण अभियान इतना व्यापक रूप ले सकेगा कि वायरस की चुनौती छोटी पड़ती चली जाएगी।

सौजन्य - नवभारत टाइम्स।

Share:

Tuesday, April 20, 2021

कोरोना के बीच किल्लत (नवभारत टाइम्स)

अफसोस की बात यह है कि इस कठिन समय में जमाखोर भी सक्रिय हो गए हैं।. कई जगहों से रेमडेसिविर ब्लैक में कई गुना ज्यादा कीमत पर बेचे जाने की खबरें मिल रही हैं। इन पर रोक लगाने की कोशिशें फलित नहीं हुई हैं। आईसीयू बेड की कमी से निपटने के भी प्रयास हुए हैं, लेकिन वे काफी नहीं।


कोरोना की दूसरी लहर देश भर में जैसा भयावह रूप लेती जा रही है, वह अच्छा संकेत नहीं है। मरीजों की बेतहाशा बढ़ती संख्या के बीच अस्पतालों में आईसीयू बेड, ऑक्सिजन सिलिंडर और रेमडेसिविर दवा की भारी कमी की खबरें कई राज्यों से आ रही हैं। दिल्ली सरकार ने तो आधिकारिक तौर पर इन सबकी कमी की बात मानी है। कई राज्यों से ऐसी अपुष्ट रिपोर्टें आ रही हैं। मध्य प्रदेश के शहडोल में ऑक्सिजन की कमी से छह लोगों की मौत की खबर है। हालांकि सरकार इन मौतों के कारणों की जांच करवा रही है, इसलिए अभी पक्के तौर पर यह नहीं माना जा सकता कि मौत ऑक्सिजन की कमी के चलते हुई है। बहरहाल, ऑक्सिजन की कमी एक बड़ी समस्या है जिसे दूर करने की कोशिश में तमाम सरकारें लगी हुई हैं। रेलवे ने खास तौर पर ऑक्सिजन एक्सप्रेस चलाने की घोषणा की है ताकि कम से कम सप्लाई लाइन बाधित होने की वजह से अस्पतालों में ऑक्सिजन की कमी न होने दी जाए। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसी समस्या के मद्देनजर राज्य में दस नए ऑक्सिजन प्लांट जल्द से जल्द लगवाने का आदेश दिया है।



जाहिर है, इससे फौरी तौर पर ऑक्सिजन की कमी दूर करने में कोई मदद शायद ही मिले, लेकिन कोरोना का जो रूप दिख रहा है, उसमें यह चुनौती इतनी जल्दी नहीं दूर होने वाली। ऐसे में थोड़ा आगे की सोच कर फैसला लेना समझदारी का कदम ही कहलाएगा। अफसोस की बात यह है कि इस कठिन समय में जमाखोर भी सक्रिय हो गए हैं।. कई जगहों से रेमडेसिविर ब्लैक में कई गुना ज्यादा कीमत पर बेचे जाने की खबरें मिल रही हैं। इन पर रोक लगाने की कोशिशें फलित नहीं हुई हैं। आईसीयू बेड की कमी से निपटने के भी प्रयास हुए हैं, लेकिन वे काफी नहीं। ऐसे संकटपूर्ण हालात में जहां आवश्यक कदमों में असामान्य तेजी लाने की जरूरत होती है, वहीं शांति, समझदारी और संयम बरतने की आवश्यकता भी बढ़ जाती है। एक भी गैरजरूरी या गलत कदम परिस्थिति की जटिलता को कई गुना बढ़ा सकता है। सबसे ज्यादा जरूरी है यह याद रखना कि सरकार की ताकत का इस्तेमाल कहां होना चाहिए और कहां नहीं। आवश्यक दवाओं की जमाखोरी और कालाबाजारी करने वाले तत्वों पर सख्ती से रोक पहली जरूरत है। सरकार उस मोर्चे पर पूरी कड़ाई बरते। लॉकडाउन जैसे कदमों से त्रस्त लोगों की तकलीफ समझी जाए, जहां तक हो सके उनकी मदद करने की कोशिश हो। लेकिन सरकार के लिए सबसे बड़ा और कठिन मोर्चा है मरीजों के लिए आवश्यक संसाधन जुटाने का। इलाज के काम में पूरे देश का समूचा स्वास्थ्य ढांचा जुटा ही हुआ है। इसमें सीधा दखल देने से बचते हुए सरकार इस ढांचे से तालमेल बनाए रखते हुए उसकी जरूरतें पूरी करने और उसे आवश्यक सुविधाएं मुहैया कराने पर ध्यान दे तो सब मिल-जुलकर इस कठिन चुनौती से भी पार पा लेंगे।

सौजन्य - नवभारत टाइम्स।

Share:

Friday, April 16, 2021

रैलियां बंद हों (नवभारत टाइम्स)

पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और असम में विशाल चुनावी रैलियां हुईं और बाकी राज्यों की तरह पिछले 15 दिनों में वहां भी कोरोना के एक्टिव मामलों में 100 से 500 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। बंगाल जहां 8 चरणों में 29 अप्रैल तक मतदान हो रहा है, वहां 30 मार्च को कोरोना के 628 नए मरीजों का पता चला था, जो 13 अप्रैल को 4,817 तक पहुंच गया।


देश में कोरोना के नए मरीजों की संख्या 2 लाख रोजाना के रेकॉर्ड लेवल तक पहुंच गई है। 10 रोज पहले ही यह संख्या 1 लाख तक पहुंची थी। यह अभूतपूर्व तेजी है, लेकिन दुख की बात यह है कि इसे रोकने के लिए जो किया जा सकता था, वह भी नहीं हो रहा। खासतौर पर राजनीतिक दलों का रवैया अफसोसनाक है। पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और असम में विशाल चुनावी रैलियां हुईं और बाकी राज्यों की तरह पिछले 15 दिनों में वहां भी कोरोना के एक्टिव मामलों में 100 से 500 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। बंगाल जहां 8 चरणों में 29 अप्रैल तक मतदान हो रहा है, वहां 30 मार्च को कोरोना के 628 नए मरीजों का पता चला था, जो 13 अप्रैल को 4,817 तक पहुंच गया। तमिलनाडु, केरल और असम में भी कोरोना के नए मरीजों की संख्या में कई गुना की बढ़ोतरी हुई है। पांच में से चार राज्यों में चुनाव हो चुके हैं, सिर्फ बंगाल में चार चरणों का मतदान बाकी है। अभी तक सिर्फ सीपीएम के नेतृत्व वाले लेफ्ट फ्रंट ने कहा है कि वह आगे से कोई बड़ी रैली नहीं करेगा।


इस बीच, पश्चिम बंगाल के मुख्य चुनाव अधिकारी ने शुक्रवार को एक सर्वदलीय बैठक बुलाई है, जिसमें वह महामारी के दौर में चुनाव प्रचार को लेकर अपने दिशानिर्देश दोहराएंगे। वह बाकी के चरणों के चुनाव के लिए वर्चुअल रैलियों को प्रोत्साहित करेंगे। अच्छा हो कि राजनीतिक दल खुद ही पहल करके राजनीतिक रैलियां बंद कर दें, चाहे वे छोटी हों या बड़ी। वे वर्चुअल माध्यमों से चुनाव प्रचार करें। यह उनका दायित्व है और नैतिक जिम्मेदारी भी। वैसे भी जनता से उन्हें जो भी कहना था, वे कह चुके हैं। उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव ने भी कोरोना संक्रमण के लिहाज से बड़ी चुनौती पेश की है, जहां गुरुवार को पहले चरण का मतदान हुआ। राज्य के स्वास्थ्य मंत्री जय प्रताप सिंह खुद कह रहे हैं कि पंचायत चुनाव और दूसरे राज्यों से कृषि मजदूरों के लौटने से स्थिति बिगड़ी है। 14 अप्रैल को यहां डेली केसों की संख्या 20 हजार पार कर गई, जो कि राज्य के लिए एक रेकॉर्ड है। पंचायत चुनाव के अभी तीन चरण बाकी हैं। अच्छा होता, अगर इन चुनावों को टाल दिया जाता।


एक और सुपर-स्प्रेडर इवेंट हरिद्वार में चल रहा कुंभ है। बुधवार को वहां तीसरा शाही स्नान था, जिसमें 14 लाख लोग शामिल हुए। यह संख्या अपने आप में इतनी बड़ी है कि इससे महामारी और बेलगाम हो सकती है। 10 अप्रैल के बाद से कुंभ में 1,278 लोग कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं। इनमें 18 संत भी शामिल हैं। इस पर उत्तराखंड सरकार का रुख हैरान करने वाला है। मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत कह रहे हैं कि यहां गंगा मां की कृपा है, इसलिए कोरोना नहीं फैलेगा। सत्ता में बैठे लोगों को स्थिति की गंभीरता को देखते हुए ऐसी बातों से बचना चाहिए। महामारी की दूसरी लहर की मार कम करने के लिए बहुत कुछ किया जा सकता है, अच्छा हो कि सरकारें, चुनाव आयोग, राजनीतिक दल और आम लोग उस पर अमल करें।

सौजन्य - नवभारत टाइम्स।

Share:
Copyright © संपादकीय : Editorials- For IAS, PCS, Banking, Railway, SSC and Other Exams | Powered by Blogger Design by ronangelo | Blogger Theme by NewBloggerThemes.com