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-Rajeev Kumar (Editor-in-chief)

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Wednesday, May 5, 2021

शिक्षित, लेकिन कमजोर होता समाज (हिन्दुस्तान)

विजय कुमार चौधरी, शिक्षा एवं संसदीय कार्य मंत्री, बिहार

शिक्षा का इतिहास मानव समाज एवं सभ्यता के विकास के इतिहास का सहचर रहा है। उसी तरह शुरू से ही शिक्षा एवं समाज का नाता धर्म से भी रहा है। सभी धर्मों में शिक्षा को सर्वोत्कृष्ट स्थान दिया गया है। गीता  में कहा गया है  न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते अर्थात इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र अन्य कुछ भी नहीं है। ज्ञान का अभिप्राय विद्या से है और विद्या सीधे रूप से शिक्षा से जुड़ी है। इस्लाम के संस्थापक हजरत मुहम्मद ने कहा था, ‘मां की गोद से लहद तक ( यानी जन्म से मृत्यु तक) इल्म हासिल करो।’ ईसाई मिशनरियों द्वारा पूरी दुनिया में शिक्षण संस्थान स्थापित कर शिक्षा के साथ धर्म-प्रचार का कार्य जगजाहिर है। शिक्षा को मानव समाज के विकास की धुरी माना गया है। विकास के सभी प्रयासों का लक्ष्य मनुष्य के जीवन स्तर में सुधार होता है और समाज के किसी भी क्षेत्र में विकास की रीढ़ शिक्षा ही होती है। इसके अलावा, शिक्षा के प्रत्यय पर प्राचीन काल से ही चिंतकों व विचारकों ने अलग-अलग विचार रखे हैं तथा अपने ढंग से इसे परिभाषित करने के प्रयास किए हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में महात्मा गांधी ने शिक्षा की सबसे उपयुक्त परिभाषा देते हुए कहा था, शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक और मनुष्य के मन, शरीर और आत्मा के उच्चतम विकास से है। गांधी धर्म-मर्मज्ञ के साथ-साथ समाज सुधारक भी थे। उनके अनुसार, बच्चे के शारीरिक विकास के लिए जैसे मां का दूध जरूरी है, उसी तरह मनुष्य की भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिए शिक्षा आवश्यक है। वे साक्षरता और शिक्षा को बिल्कुल अलग मानते थे। उनके अनुसार, साक्षरता न तो शिक्षा का अंत है और न प्रारंभ। यह केवल मनुष्य को शिक्षित बनाने का एक साधन है। उन्होंने शिक्षा से मनुष्य के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास एवं चरित्र निर्माण का तात्पर्य दिया।


आज की हाईटेक दुनिया में किसी भी शक्तिशाली अर्थव्यवस्था के लिए शिक्षा को पूर्वापेक्षित माना गया है। राष्ट्रीय एवं वैश्विक विमर्श में शिक्षा को सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति की बुनियाद माना गया है। यूनेस्को, विश्व बैंक, एशियन डेवलपमेंट बैंक आदि द्वारा मिलकर गठित वल्र्ड एजुकेशन फोरम पूरी दुनिया में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए अध्ययन एवं योजना बनाने का काम करता है। इसके द्वारा शिक्षा सभी के लिए (एजुकेशन फॉर ऑल) का नारा दिया गया एवं इस हेतु संगठित रूप से अभियान चलाया गया। इन सबके साथ भारत में शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने वाला कानून बना एवं केंद्र तथा बिहार सहित अन्य राज्य सरकारों ने शिक्षा के सार्वजनीकरण पर जोर दिया। अभियान चलाकर यह सुनिश्चत करने की कोशिश की गई कि कोई भी स्कूल जाने की उम्र वाला बच्चा स्कूल से बाहर न छूटे। इसमें कोई शक नहीं कि ये सारे प्रयास बहुत हद तक सफल रहे हैं, जिसके कारण ग्रामीण इलाकों में भी साक्षरता दर बढ़ी है। हालांकि, कोरोना के बढ़ते संक्रमण के दौर में शिक्षा-व्यवस्था ही सबसे अधिक प्रभावित हो रही है। इस मुकाम पर पहुंचकर हम यह सोचने को विवश हैं कि जो कुछ भी हो रहा है, वह सिर्फ साक्षरता है या लोग वास्तविक अर्थों में शिक्षित हो रहे हैं। उनके अनुसार शिक्षा का मकसद तो चरित्र-निर्माण व गुणवत्तापूर्ण जीवन है और मनुष्य के गुणवत्तापूर्ण जीवन की कल्पना सामाजिक परिवेश से अलग नहीं की जा सकती है। हमारी मान्यता रही है कि व्यक्ति और समाज में अन्योन्याश्रय संबंध है। फिर शिक्षा तो इन दोनों के रिश्ते को मजबूत करने वाली होनी चाहिए, परंतु इसके विपरीत कभी-कभी शिक्षित व्यक्ति समाज से अपने को अलग-थलग महसूस कराने लगता है। ऐसी शिक्षा अपूर्ण ही मानी जाएगी, क्योंकि यह समाज के ताने-बाने को जर्जर बनाती है। लोक प्रचलन में आज यह मान्यता जड़ पकड़ रही है कि समाज में जिसके पास अधिक साधन होंगे, वही अधिक प्रतिष्ठा का हकदार होगा। दूसरी तरफ, सफलता व उपलब्धियों की खुशी में अधिक सूझबूझ से सामाजिकता निभाने की भावना व परंपरा कमजोर पड़ती जा रही है। सामाजिकता और नैतिकता के बिना गुणवत्तापूर्ण जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है।


वर्तमान व सामाजिक मान्यता में शिक्षा प्रणाली चरित्र निर्माण एवं राष्ट्र निर्माण की जगह शिक्षित व्यक्ति की सफलता का पैमाना उसके धनोपार्जन की क्षमता से जोड़ दी गई है। जितनी मोटी आमदनी होती है, वह व्यक्ति सफलता की सीढ़ी पर उतना ही ऊंचा दिखता है। ऐसी प्रथा चल पड़ी है कि शिक्षा को अंधाधुंध धनोपार्जन का जरिया मान लिया गया है। धनोपार्जन के एक सूत्री कार्यक्रम के तहत व्यक्ति समाज की बात तो दूर, परिवार की चिंता भूल जाता है। तेज गति से अधिक से अधिक कमाने की होड़ में सामाजिकता पिछड़ती चली जा रही है। समाज एवं इंसान आगे बढ़ता दिख रहा है, लेकिन सामाजिकता और इंसानियत पिछड़ती जा रही है। सोच और मकसद दूषित हो जाने से शिक्षा के मूल अभिप्राय का क्षरण हो रहा है व सामाजिकता भौतिकता के आगे घुटने टेक रही है। यहां चौंकाने वाली बात समाज द्वारा इस प्रवृत्ति की सहज स्वीकार्यता है। जिस सोच के तहत समाज के बुनियाद पर आघात हो रहा है व इसके स्वरूप को विकृत किया जा रहा है, उसके प्रति समाज गाफिल दिखता है। समय आ गया है, समाज की संरचना को क्षत-विक्षत करने वाली इस मानसिकता से हमें बाहर निकलना पड़ेगा। अनुचित धनोपार्जन तभी तक बुरा लगता है, जब तक हमें मौका नहीं मिलता। स्वयं इससे लाभान्वित होने की स्थिति में सारे आदर्श धरे रह जाते हैं। शिक्षा के उद्देश्य को पवित्र रखने के लिए इस दोहरी मानसिकता से समाज को बाहर निकलना होगा। शिक्षा को प्रभावी एवं उपयोगी बनाने के लिए पहल करना सरकार का दायित्व तो है ही, साथ-साथ समाज की भी अहम भूमिका है। सामाजिकता, नैतिकता एवं राष्ट्रीयता के मूल्यों का विद्यालयी पाठ्यक्रम के साथ पारिवारिक एवं सामाजिक मान्यताओं में समाहृत करना होगा। समाज को अपने मूल्य-प्रणाली (वैल्यू सिस्टम) में अपेक्षित परिवर्तन लाना होगा। अधिकतम धनोपार्जन करने वाले को सफलतम मानने की मानसिकता छोड़नी होगी। यह समझना होगा कि हमारी सफलताओं और उपलब्धियों में समाज तथा सरकार की भी अपनी भूमिका रहती है। शिक्षित मनुष्य को देखना होगा कि वह समाज के लिए क्या कर रहा है? शिक्षित व्यक्ति को अपनी अलग पहचान बनाने की प्रवृत्ति छोड़कर समाज में अपनी उपयोगिता व प्रासंगिकता बनानी होगी। अपने सार्वजनिक योगदान व चारित्रिक धवलता को सामाजिक प्रतिष्ठा की कसौटी बनानी होगी। तभी हम एक मजबूत समाज और दीर्घकालिक सभ्यता का निर्माण कर सकते हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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Tuesday, May 4, 2021

विशेषज्ञों की सलाह (बिजनेस स्टैंडर्ड)

हम एक महामारी से गुजर रहे हैं और ऐसे में यह बेहद जरूरी है कि देश की निर्वाचित सरकार श्रेष्ठ वैज्ञानिक सलाहों को बेहद ध्यानपूर्वक सुने। यह साफ है कि केंद्र सरकार हाल के महीनों में ऐसा करने में नाकाम रही है और उसे आगे चलकर अपनी गलती सुधार लेनी चाहिए। समाचार एजेंसी रॉयटर्स के मुताबिक महामारी पर निगरानी रख रही सरकार के वैज्ञानिकों की समिति, इंडियन सार्स-सीओवी-2 जेनेटिक्स कन्सॉर्शियम अथवा इन्साकॉग ने मार्च के आरंभ में ही सरकार को वायरस के नए स्वरूप बी.1617 के बारे में जानकारी दे दी थी। वायरस के इस स्वरूप को अधिक संक्रामक माना जा रहा है और यह प्रतिरोधक क्षमता को धता बता सकता है। यानी दोबारा संक्रमण की आशंका अधिक है। इन्साकॉग में 10 राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के वैज्ञानिक शामिल हैं। उन्होंने मार्च के आरंभ में स्वास्थ्य मंत्रालय से कहा था कि वायरस के नए स्वरूप के कारण देश में संक्रमण तेजी से फैल सकता है।

यह पता नहीं है कि सरकार ने इस सूचना के बाद क्या किया। दुख की बात है कि यह सूचना सही साबित हुई। देश में जांच नमूनों की जीनोम सीक्वेंसिंग अपूर्ण है लेकिन आंकड़े बताते हैं कि मुंबई और दिल्ली में बी.1617 ब्रिटेन के संक्रामक बी.117 स्वरूप के साथ पाया गया जो मूल वायरस से 40 से अधिक प्रतिशत अधिक संक्रामक है। शारीरिक दूरी के कड़े मानकों के अभाव में वायरस खूब फैला और देश के बड़े हिस्से में स्वास्थ्य ढांचा चरमरा गया। सरकार द्वारा अपने ही वैज्ञानिकों की बात नहीं सुनने का यह नतीजा निकला।


देश में दूसरी लहर के लिए बंद जगहों पर भीड़भाड़ एक बड़ी वजह है। काफी संभव है कि खुली जगहों पर भी अधिक लोगों का एकत्रित होना वायरस के तेज प्रसार की वजह बन सकता है। वैज्ञानिकों द्वारा मार्च के आरंभ में चेतावनी जारी करने के बावजूद देश के अधिकांश हिस्सों में धार्मिक त्योहार, राजनीतिक रैलियां, विवाह आदि तब तक चलते रहे जब तक मामले बहुत अधिक बढ़ नहीं गए और मौत के मामलों की अनदेखी संभव नहीं रह गई। उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश सरकार ने विदिशा जिला अस्पताल में कुंभ से वापस आने वालों की जांच में बड़े पैमाने पर संक्रमण मिलने के बाद सभी जिलाधिकारियों से कहा कि वे कुंभ से लौटने वालों को तलाश कर क्वारंटीन करें। सरकार को पुरानी गलतियों से सबक लेना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भविष्य में नियमों और प्रतिबंधों को लागू करने में विशेषज्ञों की राय तथा वैज्ञानिक प्रमाणों को तवज्जो दी जाए।


यकीनन अब सरकार की भविष्य की नीतियों को लेकर वैज्ञानिकों की राय के बारे में सवाल किए जाएंगे। जानकारी के मुताबिक प्रधानमंत्री को सलाह देने वाले कोविड-19 कार्य बल समेत कई विशेषज्ञ सामुदायिक प्रसार और ग्रामीण क्षेत्रों में वायरस का प्रसार रोकने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन पर जोर दे रहे हैं। देश के बाहर के विशेषज्ञ मसलन अमेरिका के एंटनी फाउची आदि भी यही सलाह दे रहे हैं।


कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआईआई) ने भी वायरस का प्रसार रोकने के लिए उच्चतम और देशव्यापी स्तर पर अधिकतम जरूरी कदम उठाने की मांग की है, भले ही इसके लिए आर्थिक गतिविधियों को सीमित करना पड़े। सीआईआई ने सरकार से कहा है कि वह इस विषय पर देसी-विदेशी विशेषज्ञों की राय सुने। कई अन्य लोगों की दलील है कि ये निर्णय राज्य या जिला प्रशासन पर छोड़ दिए जाने चाहिए। यकीनन गत वर्ष जैसा देशव्यापी लॉकडाउन गरीब भारतीयों पर गंभीर असर डालेगा। बहरहाल जरूरी यह है कि ऐसे नीतिगत निर्णय ठोस वैज्ञानिक और विशेषज्ञ समूहों की राय लेकर लिए जाएं।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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नतीजों से शक्तिशाली हुए क्षत्रप (हिन्दुस्तान)

आरती आर जेरथ, वरिष्ठ पत्रकार 

विधानसभा चुनावों के नतीजों को अगर देखें, तो खासतौर पर ममता बनर्जी की जीत स्तब्धकारी है। उन्हें क्या खूब जनादेश मिला है, जब विपक्ष के कद्दावर नेता लगभग रोज ही ममता बनर्जी को निशाना बनाने में लगे थे। तमाम कोशिशों के बावजूद ममता बनर्जी की सीटों की संख्या घटने के बजाय पिछली बार की तुलना में बढ़ गई है। तमाम विपक्षी नेताओं में अगर आप देखते हैं कि ममता बनर्जी सबसे बड़ी भाजपा विरोधी और प्रधानमंत्री की सबसे मुखर आलोचक रही हैं। ममता बनर्जी ने पूरा चुनाव अभियान नरेंद्र मोदी के खिलाफ चलाया है। अभियान के दौरान ही उन्होंने सभी विपक्षी नेताओं को चिट्ठी लिखी थी कि हमें लोकतंत्र को बचाने के लिए एक नेशनल फ्रंट बनाना चाहिए। आने वाले समय में ममता बनर्जी का यह एक बड़ा एजेंडा होगा कि केंद्र सरकार के विरोध के लिए क्षेत्रीय दलों का एक फ्रंट बनाएं। यह फ्रंट चुनाव के लिए तो नहीं होगा, लेकिन जिस तरह से केंद्र सरकार सारी शक्तियों का केंद्रीकरण कर रही है, राज्यों को उपेक्षा महसूस हो रही है, इन विषयों पर ममता बनर्जी बाकी पार्टियों को लेकर नरेंद्र मोदी के खिलाफ खूब लड़ेंगी और इसमें उन्हें तमिलनाडु के द्रमुक नेता एम के स्टालिन और केरल के नेता पी विजयन का साथ मिलेगा। ये दोनों नेता भी अपने-अपने राज्य में बहुत तगड़े जनादेश से जीतकर आए हैं। ये भी संघवाद पर बहुत मजबूती से विश्वास करने वाले नेता हैं। 


कुल मिलाकर, कोरोना ने जिस तरह से नरेंद्र मोदी की छवि को धक्का पहुंचाया है और जिस तरह से उनकी देश और विदेश की प्रेस में आलोचना हो रही है। ज्यादातर लोग कह रहे हैं कि यह सब पूरा केंद्र सरकार का कुप्रबंधन था, जिसके कारण लोग जान गंवा रहे हैं। अगर सरकार थोड़ा सतर्क रहती और विशेषज्ञों की बात सुन लेती, तो इतना बुरा हाल न होता। अब लड़ाई यहीं से शुरू होगी। आगे आने वाले महीनों में यह बढ़ेगी। विपक्ष का आरोप है कि कोरोना के समय केंद्र सरकार ने वैक्सीन, ऑक्सीजन, लॉकडाउन जैसे फैसलों को पूरी तरह से केंद्रीकृत कर दिया था। पूरा कोरोना प्रबंधन दिल्ली से चल रहा था। आज ज्यादातर विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्य यही तो बोल रहे हैं कि हमें वैक्सीन नहीं मिल रही, दवाओं का अभाव है, ऑक्सीजन की कमी है। महाराष्ट्र तो एक ऐसा राज्य है, जो पहले से ही केंद्र सरकार से लड़ रहा है। अगर आप देखें, तो मुझे लगता है, क्षेत्रीय नेताओं का एक समूह बनेगा, जो चुनौती देगा। मुद्दों के आधार पर चुनौती दी जाएगी और आज सबसे बड़ा मुद्दा कोरोना महामारी है। 


दूसरी ओर, कांग्रेस का तो सफाया हो गया है, कोई भी कांग्रेस की तरफ देख नहीं रहा है। कांग्रेस की अपनी राजनीति है, अपनी सोच है, जो क्षेत्रीय पार्टियों से अलग है। क्षेत्रीय दलों के लिए रास्ता अब आसान हो गया है, कांग्रेस उनकी राह में कोई अड़चन नहीं डाल सकती। अन्य मुख्यमंत्री जैसे ओडिशा में नवीन पटनायक, आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी और तेलंगाना में चंद्रशेखर राव अब तक लगभग चुप थे, लेकिन अब कोरोना की वजह से कुछ-कुछ उनकी आवाज भी निकल रही है। ये लोग भी ममता के साथ जुड़ने की कोशिश करेंगे। अब देखना है, उत्तर प्रदेश में क्या होता है। छह महीने में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव की तैयारी शुरू हो जाएगी। यहां विपक्षी दलों के पास कानून-व्यवस्था एक बड़ा मुद्दा है। दूसरा कोरोना जिस तरह फैल रहा है, लोग जिस तरह जान गंवा रहे हैं, यह बड़ा मुद्दा है। तीसरा मुद्दा है, कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहा आंदोलन। उत्तर प्रदेश में केंद्र सरकार के खिलाफ विपक्ष अगर एकजुट हो गया, तो उसकी आवाज बहुत बढ़ जाएगी। मुख्य बात यही होगी कि क्षेत्रीय पार्टियां केंद्रीकरण का विरोध करेंगी। किसी भी तरह की मनमानी के खिलाफ आवाज उठाएंगी। मांग उठेगी कि केंद्र सरकार को संघवाद पर आना ही पड़ेगा। हमारा संविधान संघीय ढांचे की गारंटी देता है। चुनावी नतीजों से वन इंडिया, वन पीपुल, वन लंग्वेज के नारे को चोट लगी है। दक्षिण के राज्यों में भाजपा की कोशिशें लगभग नाकाम रही हैं। इन राज्यों में क्षेत्रीय पहचान, भाषा और संस्कृति का महत्व ज्यादा है। यह समझना पड़ेगा कि वन इंडिया का जो सपना है, एक भाषा, एक रहन-सहन रखना, यह नहीं चलेगा। यही आवाज केरल, तमिलनाडु और बंगाल से मुखरता से उठी है। खासकर बंगाल जहां भाजपा ने बहुत जोर लगा दिया, फिर भी लोगों ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। 


दूसरी बात, ममता बनर्जी के खिलाफ हर जगह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा तो काम नहीं कर सकता, वह तो प्रधानमंत्री हैं। तमिलनाडु में भाजपा के पास क्या चेहरा है? केरल में क्या चेहरा है, श्रीधरन, जो 85 साल के हो चुके हैं? चुनावों ने साफ कर दिया है कि विविधता में एकता का सबक भाजपा को सीखना ही पड़ेगा। हमारे यहां अलग-अलग संस्कृति है, सबको एक धारा में डालना बहुत ही मुश्किल है, ऐसा हो नहीं सकता। जहां केरल में वामपंथियों की जीत की बात है, तो यह चुनाव वाम ने नहीं जीता है। जीत का पूरा श्रेय विजयन के प्रशासन को जाता है। वहां जीत विचारधारा की नहीं, कामकाज की हुई है। बाढ़ आई थी, कोरोना फैला है, इसे जिस तरह से विजयन ने संभाला है, उसे लोगों ने सराहा है। केरल में एक और महत्वपूर्ण बात हुई है कि ईसाई वोट वामपंथियों को गया है। यह वोट हमेशा कांग्रेस की ओर जाता था। इस समुदाय ने भी बेहतर प्रशासन देखकर ही विजयन के पक्ष में वोट किया है। उधर, तमिलनाडु में कमल हासन जैसे अभिनेता चुनाव हार गए हैं। लगता है, तमिलनाडु में फिल्म स्टार की राजनीति का जमाना खत्म हो गया, अब नई राजनीति चलेगी। देखने वाली बात होगी कि स्टालिन के समय किस तरह की राजनीति शुरू होती है। स्टालिन पुरानी द्रविड़ मुद्रा में नहीं हैं। तमिलनाडु में जो हुआ है, वह अपेक्षित ही था, दस साल से अन्नाद्रमुक शासन में थी। जयललिता भी मैदान में नहीं थीं, स्टालिन को फायदा हुआ। बहरहाल, लोगों का ज्यादा ध्यान बंगाल पर लगा रहेगा। जहां ममता बनर्जी के सामने हिंसा का मामला होगा और ‘कट मनी’ का भी। दोनों कमियों को किसी तरह से संभालना पड़ेगा। भाजपा अब बड़ी विपक्षी है, तीन से 75 सीट पर आ गई है, लेफ्ट और कांग्रेस साफ है। ममता बनर्जी के सामने चुनौती अब पहले से बड़ी है। उन्हें केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चा बनाने के साथ ही शासन अच्छे से चलाकर दिखाना होगा। 

    (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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Monday, May 3, 2021

सियासी बिसात पर कोई बड़ा बदलाव नहीं (हिन्दुस्तान)

 प्रभाकर मणि तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार 

हाल में जिन पांच राज्यों और केंद्रशासित प्रदेश में चुनाव हुए, उनमें भाजपा की प्राथमिकता सूची में दो राज्य - पश्चिम बंगाल और असम क्रमश: पहले और दूसरे नंबर पर थे। असम में उसके सामने जहां अपनी सरकार बचाने की चुनौती थी, वहीं पड़ोसी पश्चिम बंगाल में वह दस साल से सरकार चला रही तृणमूल कांग्रेस को पराजित कर सत्ता हासिल करने के लक्ष्य और दावे के साथ मैदान में उतरी थी। असम में विपक्षी गठबंधन की ओर से मिलने वाली चुनौतियों की वजह से उसकी सरकार दांव पर थी, तो बंगाल में वह ममता बनर्जी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती और सत्ता की प्रमुख दावेदार के तौर पर उभरी थी। असम की चुनौती तो पार्टी ने पार कर ली है और बहुमत के साथ अपनी सरकार बचा ली है। ऐसा करते हुए उसने लगातार दूसरी बार सत्ता में आने वाली पहली गैर-कांग्रेसी सरकार होने का रिकॉर्ड भी अपने नाम कर लिया है, लेकिन इस जीत की खुशी भी बंगाल चुनाव में उसकी पराजय का गम कम नहीं कर सकती। यह भी तय है कि बंगाल के चुनावी नतीजों का असर दूरगामी होगा। अब इस जीत के बाद वर्ष 2024 में ममता विपक्ष का चेहरा बन सकती हैं।

भाजपा के पास न जमीनी नेता थे और न ही बहुमत के लिए जरूरी मजबूत संगठन। यही वजह है कि उसे करीब आधी सीटों पर दूसरे दलों से आने वाले नेताओं को मैदान में उतारना पड़ा। नतीजों से साफ है कि वोटरों ने ऐसे ज्यादातर दलबदलुओं को नकार दिया है। टिकट न मिलने से निराश कार्यकर्ताओं ने भी चुनाव अभियान में बेमन से काम किया। अब नतीजा सामने है। ममता की कद-काठी का कोई नेता नहीं होने का नुकसान भी पार्टी को हुआ। भाजपा ने जिस बड़े पैमाने पर धार्मिक ध्रुवीकरण शुरू किया था, उसका खामियाजा भी उसे भुगतना पड़ा है। ममता बनर्जी की हैट्रिक में भाजपा की ऐसी रणनीतिक गलतियों की अहम भूमिका रही। इसके साथ ही, रैलियों में दीदी-ओ-दीदी कहते हुए ममता का मजाक उड़ाने का वोटरों पर प्रतिकूल असर पड़ा लगता है। केंद्र की ओर से चुनाव के मौके पर सीबीआई, ईडी और आयकर जैसी केंद्रीय एजेंसियों के कथित राजनीतिक इस्तेमाल को भी ममता बनर्जी ने असरदार मुद्दा बनाया। अपनी हार के लिए भाजपा अब चुनावी धांधली का बहाना नहीं कर सकती। हालांकि, वर्ष 2016 की तीन सीटों से यहां तक पहुंचना और राज्य की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरने की उपलब्धि भी कम नहीं है। लेकिन जब मंजिल दो सौ के पार हो और लक्ष्य सत्ता का सिंहासन हो, तो यह उपलब्धि कोई मायने नहीं रखती। अब नतीजों के बाद पार्टी में स्थानीय स्तर पर केंद्रीय नेताओं के खिलाफ असंतोष खदबदाने लगा है।

पड़ोसी असम में विपक्षी गठबंधन की ओर से सत्तारूढ़ भाजपा गठबंधन को कड़ी चुनौती मिल रही थी। वहां खासकर पूर्वोत्तर के चाणक्य कहे जाने वाले भाजपा नेता और असम सरकार के वित्त मंत्री हिमंत बिस्वा सरमा की वजह से पार्टी की राह आसान हो गई। यह उनकी रणनीति का ही नतीजा था कि जिस नेशनल रजिस्टर फॉर सिटीजंस (एनआरसी) और नागरिकता कानून (सीएए) का असम में सबसे ज्यादा विरोध हुआ था, वहीं यह दोनों मुद्दे हाशिए पर चले गए।आखिर असम में भाजपा की राह आसान कैसे हुई? दरअसल, राज्य की करीब 45 सीटों पर चाय बागान मजदूरों के वोट निर्णायक हैं। नतीजों से पता चलता है कि चाय मजदूरों का समर्थन भगवा खेमे को ही मिला है। इसके अलावा कांग्रेस के बदरुद्दीन अजमल की पार्टी के साथ हाथ मिलाने की वजह से राज्य में वोटरों का जबरदस्त ध्रुवीकरण देखने को मिला। भाजपा ने जिस तरह पड़ोसी देश से होने वाली घुसपैठ को अपना सबसे प्रमुख मुद्दा बनाया था और सत्ता में आने पर लव जिहाद केखिलाफ कानून बनाने की बात कही थी, उससे हिंदी वोटरों को एकजुट करने में सहायता मिली है। खासकर हिंदू बहुल इलाकों में उसकी जीत से यह बात शीशे की तरह साफ है। दूसरी ओर, कांग्रेस को इस बार चाय बागान मजदूरों का समर्थन मिलने की उम्मीद थी, इसी वजह से राहुल गांधी और प्रियंका गांधी जैसे नेता अक्सर चाय बागानों का दौरा करते देखे गए, लेकिन पर्याप्त सफलता नहीं मिली। अजमल का साथ होने की वजह से विपक्षी गठबंधन को अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में कामयाबी जरूर मिली, लेकिन वह पर्याप्त नहीं थी। यही वजह है कि सत्ता में वापसी का कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन का सपना पूरा नहीं हो सका। इस चुनाव में पार्टी को तरुण गोगोई जैसे नेता की कमी भी काफी खली।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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Saturday, May 1, 2021

फिर काम-धंधे पर न लगें ताले (हिन्दुस्तान)

आलोक जोशी, वरिष्ठ पत्रकार

लाख कोशिशों के बावजूद देश के हालात फिर वहीं पहुंच गए हैं, जहां नहीं पहुंचने थे। केंद्र और राज्य सरकारों ने हरचंद कोशिश कर ली। हाईकोर्ट की फटकार की भी परवाह नहीं की। सुप्रीम कोर्ट जाकर अपने लिए खास मंजूरी ले आए कि लॉकडाउन न लगाना पडे़। लेकिन आखिरकार उन्हें भी लॉकडाउन ही आखिरी रास्ता दिख रहा है। महाराष्ट्र ने कड़ाई बरती, तो फायदा भी दिख रहा है। अप्रैल के आखिरी दस दिनों में सिर्फ मुंबई में कोरोना पॉजिटिव मामलों में 40 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। जहां 20 अप्रैल को शहर में 7,192 मामले सामने आए, वहीं 29 अप्रैल तक यह गिनती गिरकर 4,174 पहुंच चुकी थी। 21 अप्रैल से सरकार ने राज्य में लगभग लॉकडाउन जैसे नियम लागू कर दिए थे, उसी का यह नतीजा है और अब ये सारी पाबंदियां 15 मई तक बढ़ाई जा रही हैं। 

21 अप्रैल को महाराष्ट्र सरकार ने यह फैसला किया, इसकी भी वजह थी। 21 मार्च से पहले 39 दिनों में राज्य में कोरोना के रोजाना नए मामलों की गिनती 2,415 से बढ़कर 23,610 तक पहुंच चुकी थी। यही वह वक्त था, जब भारत में एक दिन में तीन लाख से ऊपर नए कोरोना मरीज सामने आने लगे थे। कोरोना के पहले और दूसरे दौर को भी मिला लें, तब भी किसी एक दिन में यह दुनिया के किसी भी देश का सबसे बड़ा आंकड़ा था। ऐसे में, सरकारों का घबराना स्वाभाविक था और लॉकडाउन की याद आना भी। सीएमआईई की ताजा रिपोर्ट बताती है कि पिछले साल भर में 98 लाख लोगों की नौकरी गई है। 2020-21 के दौरान देश में कुल 8.59 करोड़ लोग किसी न किसी तरह की नौकरी में लगे थे। और इस साल मार्च तक यह गिनती घटकर सिर्फ 7.62 करोड़ रह गई है। और अब कोरोना का दूसरा झटका और उसके साथ जगह-जगह लॉकडाउन या लॉकडाउन से मिलते-जुलते नियम-कायदे रोजगार के लिए दोबारा नया खतरा खड़ा कर रहे हैं। 

मुंबई और दिल्ली में लॉकडाउन की चर्चा होने के साथ ही रेलवे और बस स्टेशनों पर फिर भीड़ उमड़ पड़ी और बहुत बड़ी संख्या में फिर गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली और पंजाब से लोग उत्तर प्रदेश और बिहार के अपने गांवों या कस्बों के लिए निकल आए हैं। शहरों में बीमारी के असर और फैलने पर तो इन पाबंदियों से रोक लगेगी, लेकिन इस चक्कर में लाखों की रोजी-रोटी एक बार फिर दांव पर लग गई है। और साथ में दूसरे खतरे भी खड़े हो रहे हैं। सबसे बड़ा डर फिर वही है, जो पिछले साल बेबुनियाद साबित हुआ। शहरों से जाने वाले लोग अपने साथ बीमारी भी गांवों में पहुंचा देंगे। यह डर इस बार ज्यादा गहरा है, क्योंकि इस बार गांवों में पहले जैसी चौकसी नहीं दिख रही है। बाहर से आने वाले बहुत से लोग बिना क्वारंटीन या आइसोलेशन की कवायद से गुजरे सीधे अपने-अपने घर तक पहुंच गए हैं और काम में भी जुट गए हैं। दूसरी तरफ, चुनाव प्रचार और धार्मिक आयोजनों के फेर में बहुत से गांवों तक कोरोना का प्रकोप पहुंच चुका है। शहरों के मुकाबले गांवों में जांच भी बहुत कम है और इलाज के साधन भी। इसलिए यह पता लगना भी आसान नहीं कि किस गांव में कब कौन कोरोना पॉजिटिव निकलता है, और पता चल भी जाए, तो इलाज मिलना और मुश्किल। संकट इस बात से और गहरा जाता है कि हमारी अर्थव्यवस्था अभी तक पिछले साल के लॉकडाउन के असर से पूरी तरह निकल नहीं पाई है। अब अगर दोबारा वैसे ही हालात बन गए, तो फिर झटका गंभीर होगा। हालांकि, अभी तक तमाम अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों और ब्रोकरेजेज ने भारत की जीडीपी में बढ़त के अनुमान या तो बरकरार रखे हैं या उनमें सुधार किया है। लेकिन साथ ही उनमें से ज्यादातर चेता चुके थे कि कोरोना की दूसरी लहर का असर इसमें शामिल नहीं है और अगर दोबारा लॉकडाउन की नौबत आई, तो हालात बिगड़ सकते हैं। रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड ऐंड पूअर्स ने चेतावनी दी है कि कोरोना की दूसरी लहर से फिर कारोबार में अड़चन का खतरा है और इसकी वजह से भारत की आर्थिक तरक्की को गंभीर नुकसान हो सकता है और इसकी वजह से एजेंसी भारत की तरक्की का अपना अनुमान घटाने पर मजबूर हो सकती है। एसऐंडपी ने इस साल भारत की जीडीपी में 11 प्रतिशत बढ़त का अनुमान दिया हुआ है, लेकिन उसका कहना है कि रोजाना तीन लाख से ज्यादा मामले आने से देश की स्वास्थ्य सुविधाओं पर भारी दबाव पड़ रहा है, ऐसा ही चला, तो आर्थिक सुधार मुश्किल में पड़ सकते हैं। यूं ही देश में औद्योगिक उत्पादन की हालत ठीक नहीं है और लंबे दौर के हिसाब से यहां जीडीपी के 10 प्रतिशत तक का नुकसान हो सकता है।  

उधर दिग्गज ब्रोकरेज फर्म यूबीएस  ने जो कहा है, वह शेयर बाजार के लिए खतरे की घंटी हो सकता है। उसका कहना है कि अगर कोरोना का संकट जल्दी नहीं टला, तो विदेशी निवेशक भारत के बाजार से बड़े पैमाने पर पैसा निकाल सकते हैं। पिछले कुछ दिनों में ही एफपीआई यानी विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने करीब दो अरब डॉलर का माल बेचा है। यूबीएस का कहना है कि ऐसे ही हालात रहे, तो जल्दी ही तीन-चार अरब डॉलर की बिकवाली और देखने को मिल सकती है। पिछले साल इन विदेशी निवेशकों ने भारतीय शेयर बाजार में 39 अरब डॉलर लगाए हैं, जो एक रिकॉर्ड था। बाजार में पिछले साल आई धुआंधार तेजी की एक वजह यह पैसा भी था। अगर यह पैसा निकलता है, तो फिर तेजी का टिके रहना भी मुश्किल होगा। यूबीएस  के एक रिसर्च नोट में कहा गया है कि भारत में कोरोना के मामलों की बढ़ती गिनती से विदेशी निवेशक व्याकुल हो रहे हैं और घबराहट में पैसा निकाल सकते हैं। लेकिन शेयर बाजार से ज्यादा बड़ी फिक्र है कि हमारे शहरों के बाजार खुले रहेंगे या नहीं। अगर वहां ताले लग गए, तो फिर काफी कुछ बिगड़ सकता है और इस वक्त खतरा यही है कि कोरोना को रोकने के दूसरे सारे रास्ते नाकाम होने पर सरकारें फिर एक बार लॉकडाउन का ही सहारा लेती नजर आ रही हैं। अभी तक सभी जानकार इसके खिलाफ राय देते रहे हैं और सरकारें भी पूरी कोशिश में रहीं कि लॉकडाउन न लगाना पड़े। अर्थशास्त्री भी मान रहे हैं कि कोरोना की दूसरी लहर ज्यादा खतरनाक होने के बावजूद अर्थव्यवस्था पर उसका असर शायद काफी कम रह सकता है, क्योंकि लॉकडाउन नहीं लगा है। मगर अब जो नए हालात दिख रहे हैं, उसमें भारतीय अर्थव्यवस्था कब तक और कितनी बची रहेगी, कहना मुश्किल है। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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Friday, April 30, 2021

जांच से टीके तक चुनौतियां (हिन्दुस्तान)

जुगल किशोर, वरिष्ठ जन-स्वास्थ्य विशेषज्ञ

जब संक्रमण तेजी से फैल जाए और उसके भी आंतरिक कारण हों, तब जिस भी व्यक्ति को खांसी, जुकाम और बुखार हो, तो बहुत आशंका है कि उसे कोरोना संक्रमण होगा। ऐसे लक्षण वाले सभी लोगों को आरटीपीसीआर जांच कराने की जरूरत नहीं है। इससे हम जांच पर पड़ रहे अनावश्यक भार को कम कर सकते हैं। कम से कम लोग जांच कराएंगे, तो जरूरी व गंभीर लोगों की जांच में तेजी आएगी। अब यह संख्या दिखाना कदापि आवश्यक नहीं है कि हमारे कितने लोग संक्रमित हो गए, अभी इलाज करने की ज्यादा जरूरत है। 

मिसाल के लिए, जब स्वाइन फ्लू आया था, तो उसके खत्म होने का कारण ही यही था कि हमने जांच को बंद कर दिया था, जांच हम उन्हीं की करते थे, जहां जरूरी हो जाता था, तो इससे बीमारी अपने आप कम हुई। स्वाभाविक है, जैसे-जैसे संक्रमण के मामले बढ़ते हैं, वैसे-वैसे लोगों के बीच तनाव भी बढ़ता है। अब यह मानकर चलना चाहिए कि काफी लोग संक्रमित हो गए हैं और अब जो लोग ऐसे लक्षणों के साथ आएंगे, वो कोरोना पीड़ित ही होंगे। लक्षण आते ही घर में ही क्वारंटीन रहते हुए अपना इलाज शुरू कर देना चाहिए। जांच कराने की भागदौड़ी से बचना चाहिए। इस मोर्चे पर भी आईसीएमआर काम कर रहा है कि कोई ऐसी व्यवस्था बनाई जाए, ताकि जहां आवश्यक हो, वहीं अस्पताल का सहारा लिया जाए। इसके मापदंड तय किए जा रहे हैं, एक अल्गोरिदम बनाने की कोशिश हो रही है, जिसे सिंड्रोमिक अप्रोच भी कहते हैं। यह इसलिए जरूरी है, ताकि केवल लक्षण के आधार पर इलाज हो सके। साथ ही, यह जरूरी नहीं कि हम मरीज को भर्ती करने के लिए आरटीपीसीआर का इंतजार करें। रेपिड टेस्ट की रिपोर्ट आधे घंटे से भी कम समय में मिल जाती है। तत्काल मरीज का इलाज शुरू करें और उसी दौरान आरटीपीसीआर भी कर लें। इधर, आईसीएमआर ने आरटीपीसीआर सहित छह जांचों को मंजूरी दी है। अभी रिपोर्ट आने में देरी हो रही है, लेकिन आरटीपीसीआर जांच की जो साइकिल है, वह चलती है, तो तीन से चार घंटे लगते हैं। आप कितनी भी जल्दी करें, लैब पास में हो, तो भी चार-पांच घंटे तो रिपोर्ट आने में लग ही जाते हैं। हमारे देश में बहुत सारे ऐसे जिले हैं, जहां आरटीपीसीआर सुविधा उपलब्ध नहीं है। सैंपल को दूसरे जिलों में भेजा जाता है, तो उसमें और समय लगता है। इस वजह से देर होती है। हर जगह लैब खोलना भी आसान नहीं होता। लैब की गुणवत्ता जरूरी है, उसे स्थापित करने की एक पूरी प्रक्रिया है। लैब सुविधा अगर बिना गुणवत्ता वाली जगह पर होगी, तो गलत रिपोर्ट आएगी। लैब में अनेक तरह के रसायन होते हैं, उनका रखरखाव भी महत्वपूर्ण होता है। कितने तापमान पर रखना है, कहां रखना है, लैब को पूरे मापदंड पर खरा उतरना चाहिए। ऐसा नहीं हो सकता कि लैब आप कहीं भी खोल दें और जांच शुरू हो जाए। अच्छी लैब वही है, जो तय मापदंडों को खरी उतरती हो। 

पिछले वर्ष जांच की जो स्थिति थी, उसमें काफी सुधार आया है, लेकिन अभी की जरूरत के हिसाब से देखें, तो पर्याप्त नहीं है। जांच की सुविधा को रातों-रात खड़ा नहीं किया जा सकता। इसलिए अभी पूरा जोर ज्यादा से ज्यादा लोगों के इलाज पर होना चाहिए। आपदा प्रबंधन का यही श्रेष्ठ तरीका है। जो जांच व इलाज के संसाधन हैं, उन्हें बहुत ढंग से उपयोग में लाने की जरूरत है, ताकि कम से कम संसाधन में ज्यादा से ज्यादा लोगों को राहत मिले। जांच और इलाज के साथ ही, टीकाकरण भी तेज करने की जरूरत है। एक मई से 18 साल से ज्यादा उम्र के लोगों को भी टीका लगने की शुरुआत हो जाएगी। कुछ राज्यों ने टीके की किल्लत पहले ही बता दी है। केंद्र सरकार ने टीका संग्रहण में जो कामयाबी हासिल की थी, उससे थोड़ी मदद मिल पाएगी, लेकिन केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों से कहा है कि वे अपने स्तर पर ही मान्यताप्राप्त वैक्सीन जुटाने के प्रयास करें। यह तरीका ठीक है, लेकिन दिक्कत क्रियान्वयन में है। वैक्सीन को लगाने में है। अव्वल, तो जब हम किसी भीड़ भरी जगह पर जाते हैं, तो वहां संक्रमण का खतरा ज्यादा होता है। यह बात हो रही है कि लोग जब टीका लेने अस्पताल जाते हैं और वहां भीड़ रहती है, तो वे खुद को खतरे में डालते हैं। ऐसे में, बहुत जरूरी है कि टीका केंद्रों का हम विकेंद्रीकरण करें। अब टीका केंद्रों को अस्पतालों से अलग करने की भी मांग हो रही है। अभी तक टीकाकरण का कोई ऐसा खतरा सामने नहीं आया है कि टीका लेने के बाद अस्पताल की जरूरत पड़े। टीका केंद्रों को अस्पताल से कुछ दूर रखा जा सकता है। एक बात यह भी ध्यान रखने की है कि अस्पताल में काम करने वाले जो स्वास्थ्यकर्मी हैं, उन्हें टीकाकरण केंद्रों पर बड़े पैमाने पर नहीं भेजा जा सकता। स्वास्थ्यकर्मियों की वैसे ही कमी है, अगर उन्हें अस्पतालों से बाहर तैनात कर दिया जाए, तो अस्पतालों में मरीजों का इलाज मुश्किल हो जाएगा। ऐसे मेडिकल स्टाफ को टीकाकरण में लगाना होगा, जो छोटे या ऐसे केंद्रों पर पदस्थ हैं, जहां मरीजों को भर्ती नहीं किया गया है। अस्पतालों पर दबाव बढ़ाना ठीक नहीं है, उनके दबाव को साझा करने की जरूरत है। बेशक, एक मई से टीका लेने वालों की भीड़ उमड़ सकती है, तो टीका केंद्रों के विकेंद्रीकरण से भीड़ को रोका जा सकता है। 

टीके के अभाव को दूर करने के लिए भी सरकार ने प्रयास तेज किए हैं। विदेश से वैक्सीन का आयात होना है, साथ ही, देश में उत्पादन बढ़ाने की कोशिशें जारी हैं। कच्चा माल मिलते ही स्वदेशी कंपनियां ज्यादा से ज्यादा टीके बनाने की क्षमता रखती हैं। हमें यह देखना होगा कि एक तरह की आबादी में अलग-अलग तरह के टीके का उपयोग उतना अच्छा नहीं होगा। एक तरह का टीका हम ज्यादा से ज्यादा लोगों को लगाएं, तो बेहतर है। राज्यों को टीकों की संख्या को लेकर विचलित नहीं होना चाहिए। टीकों की उपलब्धता के हिसाब से ही अभियान चलाने की जरूरत है। राज्यों को अपने उपलब्ध संसाधनों और स्वास्थ्यकर्मियों की सीमित संख्या को देखते हुए अपनी योजना बनानी पड़ेगी। एक और बात आज महत्व की है। अगर किसी को शक है कि उसे संक्रमण हो चुका है, तो वह तत्काल टीका न ले। डॉक्टर भी यही सलाह दे रहे हैं कि कोरोना संक्रमित हुए लोगों को कम से कम तीन महीने तक टीका नहीं लेना चाहिए और पूरी सावधानी से रहना चाहिए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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इलाज के मोर्चे पर हम कैसे जीतेंगे (हिन्दुस्तान)

गगनदीप कंग, प्रोफेसर, क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज, वेल्लोर  

भारत में ट्विटर एक हताशा भरी जगह है। बेड, ऑक्सीजन के स्रोत, रेमडेसिविर और प्लाज्मा के लिए अनुरोध से ट्विटर भरा पड़ा है। यहां तक कि वॉलंटियर भी संदेशों का प्रसार कर रहे हैं और मदद के लिए संघर्ष कर रहे हैं। टोसिलिजुमैब और इटोलिजूमैब जैसे कठिन उच्चारण वाले शब्द लोगों की बातचीत और मैसेज में सुनने को मिल रहे हैं और परिवार या दोस्त की देखभाल के लिए आवश्यक चीजें जुटाने में असमर्थ होने की वजह से लोग निराशा और अपराधबोध से ग्रस्त हो रहे हैं। हम एक ऐसी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के साथ संघर्ष कर रहे हैं, जो बेहतर हालात में भी पहुंच और गुणवत्ता के लिहाज से असमानता से भरी है। मौसमी बीमारियों में वृद्धि होती है, तो उसके लिए भी अस्पतालों में सीमित क्षमता है। प्रशिक्षित और योग्य स्टाफ कम हैं, खासकर संक्रामक रोगों और गंभीर रोगियों की देखभाल के संदर्भ में, और स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था अस्त-व्यस्त है। किसी भी समय, और खासकर अभी की स्थिति में साक्ष्य-आधारित चिकित्सा, या ‘सही समय पर सही मरीज की सही देखभाल’ जरूरी है।

भारतीय चिकित्सा समुदाय और स्वास्थ्य निति निर्माताओं के रूप में हमने इस महामारी के समय अच्छा काम नहीं किया है। चिकित्सा की भारतीय प्रणालियों में सदियों से अर्जित ज्ञान का भी हमने अनादर किया है। हमने हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन जैसी दवाओं के मामले में विशेषज्ञों की राय को ताक पर रख दिया, जबकि आंकड़ों से यह बात सामने आ रही थी कि इसने काम नहीं किया है। पिछले हफ्ते राष्ट्रीय कोविड-19 टास्क फोर्स के दिशा-निर्देशों में हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन और बुडेसोनाइड के इस्तेमाल को समतुल्य माना गया है और अनुशंसा की गई है कि ये दवाएं ‘काम कर सकती हैं’। बुडेसोनाइड का कम से कम ओपन लेवल स्टोइक परीक्षण ने समर्थन किया है और दिखाया है कि इससे अस्पताल में दाखिल होने की जरूरत कम पड़ती है और ठीक होने में कम समय लगता है। साक्ष्य आधारित चिकित्सा के लिए आजीवन सीखने व चिकित्सा बिरादरी तथा मरीजों की निरंतर शिक्षा की जरूरत होती है। एक नई संक्रामक बीमारी के लिए, जहां हमें इस बात की कम जानकारी है कि उसमें नुकसान कैसे होता है और इसे कैसे संभालना है, वैसी हालत में पुरानी और नई दवाओं तथा चिकित्सा प्रबंधन उपायों का परीक्षण करके साक्ष्य पैदा करने पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है।

महामारी के दौरान शुरू में हम चीन से आने वाली जानकारी पर बहुत अधिक निर्भर थे, जहां यह दिखाई दिया कि हमें तुरंत और गहन वेंटिलेटर की आवश्यकता है, और तब एंटी-वायरल तथा अन्य दवाओं के लिए कई परीक्षणों का समर्थन किया गया था। गहन देखभाल विशेषज्ञों के अनुभवों के माध्यम से अब हम जानते हैं कि कई मरीजों को ऑक्सीजन मास्क, हाई-फ्लो नेजल कैन्यल या नॉन-इनवेसिव वेंटिलेशन की मदद से जहां तक संभव हो सके, वेंटिलेटर से दूर रखा जा सकता है।  हालांकि, जब विशिष्ट दवाओं की बात आती है, तो सही मरीज के लिए सही समय पर सही दवा काम करती है और वह दवा साक्ष्यों पर निर्भर होनी चाहिए। और यह भी कि साक्ष्य क्लिनिकल परीक्षणों के माध्यम से निर्मित किए जाएं, न कि  लोगों की राय पर निर्भर हों। यह जानने के लिए कि दवाओं की आवश्यकता कब होती है, यह समझना महत्वपूर्ण है कि रोग कैसे पैदा और विकसित होता है। प्रारंभिक चरण में, बीमारी मुख्य रूप से सार्स-कोव-2 की प्रतिकृति द्वारा संचालित होती है। बाद में, खासकर जब संक्रमण नियंत्रित नहीं हो पाता है और लक्षण गंभीर होने लगते हैं, तब यह बीमारी सार्स-कोव-2 के प्रति अनियंत्रित प्रतिरक्षा और उत्तेजक प्रतिक्रिया से संचालित होती प्रतीत होती है, जिसकी परिणति उत्तकों की क्षति के रूप में होती है। सामान्य रूप से इस समझ के आधार पर, बीमारी के दौरान शुरुआती अवस्था में किसी भी एंटीवायरल उपचार का सबसे जल्दी असर होता, जबकि इम्यूनोसप्रेसिव/एंटी-इंफ्लेमेटरी उपचार की जरूरत कोविड-19 के बाद की अवस्थाओं में पड़ती है।

बीमारी के प्रारंभिक चरण में बुडेसोनाइड (अस्थमा के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक स्टेरॉयड) और गंभीर बीमारी वाले अस्पताल में भर्ती मरीजों में डेक्सामेथासोन के इस्तेमाल के परीक्षणों के सकारात्मक आंकड़ों से यह प्रतीत होता है कि रोग को बढ़ने से रोकने में स्टेरॉयड महत्वपूर्ण हैं। जहां तक रेमडेसिविर की बात है, तो गंभीर बीमारी पर कोई प्रभाव नहीं दिखा, लेकिन कुछ परीक्षणों में दिखा कि जो मरीज ऑक्सीजन की जरूरत वाली अवस्था में थे और जिन्हें हाई-फ्लो ऑक्सीजन या नॉन-इनवेसिव वेंटिलेशन की जरूरत नहीं थी, रेमडेसिविर ने अवधि कम करने और मृत्यु को रोकने में कुछ फायदा पहुंचाया। इससे यह रेखांकित होता है कि यह दवा सभी मरीजों के लिए नहीं है, बल्कि उपचार के एक विशेष चरण में एक छोटे से वर्ग के लिए है।

इसी तरह टोसिलिजुमैब के लिए भी (स्टेरॉयड सहित अन्य चिकित्साओं के संयोजन के साथ) साक्ष्य-आधारित अनुशंसाएं मरीजों के एक छोटे-से वर्ग तक सीमित हैं, जिनमें बीमारी तेजी से बढ़ रही हो और जिन्हें या तो हाई-फ्लो ऑक्सीजन की आवश्यकता है या नॉन-इनवेसिव वेंटिलेशन की। प्लाज्मा थेरेपी के लिए, जैसा कि इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च समर्थित प्लासीड ट्रायल में दिखाया गया है, इसका कोई सबूत नहीं है कि दाताओं के किसी भी समूह से लिया गया प्लाज्मा मददगार साबित हो रहा है। और वर्तमान में इसकी अनुशंसा भी नहीं की जा रही है। स्पष्ट जवाब बड़े क्लिनिकल परीक्षणों से मिलते हैं। भारत की क्लिनिकल ट्रायल रजिस्ट्री में हमारे पास 400 से अधिक पंजीकृत अध्ययन हैं, जिनमें से ज्यादातर छोटे अध्ययन हैं, जो भविष्य की प्रैक्टिस के बारे में जानकारी नहीं प्रदान करेंगे। लोग शिद्दत से उन दवाओं को ढूंढ़ रहे हैं, जिनकी जरूरत नहीं है! यह सुनिश्चित करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है कि सभी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता उपचार के बारे में बताने के लिए साक्ष्यों का उपयोग करें। पेशेवर संगठन, अनुसंधान समूह, नियामक और नीति निर्माताओं को यह सुनिश्चित करने में बड़ी भूमिका निभानी चाहिए कि उपचार का उपयोग जरूरत के मुताबिक किया जाए, न कि झूठी उम्मीद पैदा करने के लिए।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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Thursday, April 29, 2021

दूसरी बड़ी लहर से दो-दो हाथ (हिन्दुस्तान)

आर सुकुमार, एडिटर इन चीफ, हिन्दुस्तान टाइम्स

भारत में कोरोना वायरस महामारी से होने वाली मौतों का आधिकारिक आंकड़ा दो लाख से पार चला गया है। चूंकि यहां सामान्य तौर पर होने वाली मौतों की नियमित जानकारी रखने की कोई व्यवस्था नहीं है, इसके लिए लंबी समयावधि की आवश्यकता होती है, ताकि देखा जा सके कि साल में कितनी मौतें सामान्य रूप से होती हैं। ऐसे में, कोरोना से होने वाली मौतों को सटीक ढंग से सामान्य मौतों से अलग कर पाना मुश्किल है। 

इसका अकेला तरीका यह है कि कुछ अन्य मानकों का सहारा लिया जाए। जैसे फिलहाल चर्चा में बने हुए कुछ मॉडल मौतों की संख्या कम दर्ज कराए जाने को एक हकीकत मानकर चल रहे हैं। इस लिहाज से दो मान्यताओं के आधार पर तय करना अच्छा रहेगा। एक यह कि कोविड-19 में संक्रमण से होने वाली मौतों की दर, यानी संक्रमित हुए लोगों में मरने वालों का अनुपात, और दूसरा है, दर्ज हुए मामलों के साथ न दर्ज कराए गए या पकड़ में ही न आए संक्रमण के मामलों का अनुपात। इनमें दूसरे वाला अनुपात 10, 15 या 20, 25 का भी हो सकता है। और पहला अनुपात वायरल संक्रमणों के बारे में हमारी सामान्य जानकारी के अनुसार, 0.1 प्रतिशत (हाथ रोककर) हो सकता है। यह मैं पाठकों पर छोड़ता हूं कि वे इस गणित को कैसे समझते हैं, क्योंकि यह एक काल्पनिक कसरत है। हालांकि, यह हिन्दुस्तान टाइम्स और अन्य मीडिया समूहों की जमीनी रिपोर्टिंग से भी जाहिर है कि हर राज्य में आधिकारिक रूप से दर्ज की गई मौतों (जो राज्यों के स्वास्थ्य विभागों से मिली जानकारियों के आधार पर हिन्दुस्तान टाइम्स के डैशबोर्ड पर नजर आती हैं) और हर रोज कोविड-19 संक्रमितों के दाह-संस्कार और दफनाने के रूप में जाहिर होने वाली मृत्यु संख्या में भारी अंतर है। संक्रमण अध्ययन के ज्यादातर मॉडल्स का मानना है कि मई के तीसरे हफ्ते तक नए मामलों का बढ़ना रुक जाएगा, लेकिन अभी से इस पर कुछ कहना मुश्किल है। ज्यादातर राज्यों में पॉजिटिविटी रेट (जांच के दौरान पाए गए संक्रमितों का प्रतिशत) उस स्तर पर है, जहां से इसका तेजी से कम होना असंभव प्रतीत होता है (या फिर अगर ऐसा हुआ, तो इससे आंकड़ों की हेराफेरी या कमी का संदेह ही मजबूत होगा), और कुछ राज्यों (मुख्य रूप से महाराष्ट्र) में तो भारत में कोरोना महामारी की पहली लहर के दौरान भी पॉजिटिविटी रेट का ग्राफ तुलनात्मक रूप से बहुत ऊंचा था। इन कुछ जमीनी उदाहरणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि देश में कुछ सकारात्मक अनुमानों के बावजूद आने वाले दिनों में कोरोना संक्रमण के मामलों और उससे होने वाली मौतों का बढ़ना जारी रह सकता है। 

आम बातचीत से पता चलता है कि ऑक्सीजन और वेंटिलेटर की कमी के कारण भी कुछ मौतें हुई हैं, और ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि देश के कई हिस्सों में अधिक संख्या में संक्रमण के मामले सामने आने से हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था पर बहुत भार पड़ गया है। इसका यह भी मतलब है कि एक बार अगर कोविड रोगियों की सेवा में जुटे अस्पतालों में चिकित्सकीय ऑक्सीजन की आपूर्ति और वितरण सुचारु हो जाए (जिसके प्रयास शुरू हो गए हैं और सप्ताह के अंत तक इसके पूरा होने के संकेत हैं), तो मौतों की संख्या भी घटनी शुरू हो जाएगी। हम साफ देख रहे हैं कि कोरोना की दूसरी लहर से लड़ने में ऑक्सीजन की कमी एक प्रमुख अड़चन के रूप में हमारे सामने आई है- और यहां यह याद रखना जरूरी है कि देश को कोरोना की तीसरी लहर के लिए भी तैयार रहना है, जिसका किसी न किसी बिन्दु पर उभरना तय है। कोरोना के टीके भी संक्रमण की दूसरी लहर को तोड़ने और तीसरी लहर की प्रचंडता को कम करने में बहुत मददगार हुए हैं, लेकिन इन टीकों की आपूर्ति और लोगों तक उपलब्धता के बारे में बहुत कम जानकारी है। भारतीय बाजार में उपलब्ध कोरोना के टीकों की खुराक को लेकर स्पष्टता नहीं है। केंद्र सरकार, राज्य सरकार और निजी खरीदारों के स्तर पर भी स्थिति साफ नहीं है। भारत की दो बड़ी घरेलू वैक्सीन उत्पादक कंपनियों, सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक की निर्यात संबंधी संविदाओं के बाद देश में इनकी आपूर्ति किस तरह या कितनी होगी, ठीक से कहा नहीं जा सकता। इस बारे में भी कोई स्पष्टता नहीं है कि रूस निर्मित वैक्सीन स्पुतनिक वी की कितनी खुराक भारत में उपलब्ध होगी (कितनी आयात की जाएगी और कितनी भारत में बनाई जाएगी)। 

लोगों के बीच जो भी सीमित जानकारी उपलब्ध है, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत को जितने कोरोना टीकों की आवश्यकता है, उतने की आपूर्ति संभव नहीं हो पाएगी। अब जबकि मई की पहली तारीख से भारत में टीकाकरण का तीसरा चरण शुरू होने वाला है, तब भी यह पता नहीं चल पा रहा है कि जिन राज्यों ने वैक्सीन के लिए ऑर्डर दिए हैं, उन्हें वैक्सीन की खुराक कब तक मिल पाएगी। हमें इनकी उपलब्धता और समय के बारे में जानकारी की सख्त आवश्यकता है। और हमें वैक्सीन की व्यवस्था को लेकर ऐसीनिश्चित रणनीति बनानी होगी कि इसकी पूर्ण या दोनों खुराक के बजाय पहली खुराक को प्राथमिकता दी जाए, ताकि इस महामारी से ज्यादा से ज्यादा लोगों को बचाया जा सके। (खासकर कोविशील्ड वैक्सीन, जो 90 प्रतिशत लोगों को दी गई है)। अगर अगले छह हफ्तों तक ऐसा संभव हो पाए, तो भारत इस दूसरी लहर को तोड़ सकता है और तीसरी के लिए खुद को तैयार कर सकता है।

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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Wednesday, April 28, 2021

दूसरी बड़ी लहर से दो-दो हाथ (हिन्दुस्तान)

आर सुकुमार, एडिटर इन चीफ, हिन्दुस्तान टाइम्स  

भारत में कोरोना वायरस महामारी से होने वाली मौतों का आधिकारिक आंकड़ा दो लाख से पार चला गया है। चूंकि यहां सामान्य तौर पर होने वाली मौतों की नियमित जानकारी रखने की कोई व्यवस्था नहीं है, इसके लिए लंबी समयावधि की आवश्यकता होती है, ताकि देखा जा सके कि साल में कितनी मौतें सामान्य रूप से होती हैं। ऐसे में, कोरोना से होने वाली मौतों को सटीक ढंग से सामान्य मौतों से अलग कर पाना मुश्किल है। 

इसका अकेला तरीका यह है कि कुछ अन्य मानकों का सहारा लिया जाए। जैसे फिलहाल चर्चा में बने हुए कुछ मॉडल मौतों की संख्या कम दर्ज कराए जाने को एक हकीकत मानकर चल रहे हैं। इस लिहाज से दो मान्यताओं के आधार पर तय करना अच्छा रहेगा। एक यह कि कोविड-19 में संक्रमण से होने वाली मौतों की दर, यानी संक्रमित हुए लोगों में मरने वालों का अनुपात, और दूसरा है, दर्ज हुए मामलों के साथ न दर्ज कराए गए या पकड़ में ही न आए संक्रमण के मामलों का अनुपात। इनमें दूसरे वाला अनुपात 10, 15 या 20, 25 का भी हो सकता है। और पहला अनुपात वायरल संक्रमणों के बारे में हमारी सामान्य जानकारी के अनुसार, 0.1 प्रतिशत (हाथ रोककर) हो सकता है। यह मैं पाठकों पर छोड़ता हूं कि वे इस गणित को कैसे समझते हैं, क्योंकि यह एक काल्पनिक कसरत है। हालांकि, यह हिन्दुस्तान टाइम्स और अन्य मीडिया समूहों की जमीनी रिपोर्टिंग से भी जाहिर है कि हर राज्य में आधिकारिक रूप से दर्ज की गई मौतों (जो राज्यों के स्वास्थ्य विभागों से मिली जानकारियों के आधार पर हिन्दुस्तान टाइम्स के डैशबोर्ड पर नजर आती हैं) और हर रोज कोविड-19 संक्रमितों के दाह-संस्कार और दफनाने के रूप में जाहिर होने वाली मृत्यु संख्या में भारी अंतर है। संक्रमण अध्ययन के ज्यादातर मॉडल्स का मानना है कि मई के तीसरे हफ्ते तक नए मामलों का बढ़ना रुक जाएगा, लेकिन अभी से इस पर कुछ कहना मुश्किल है। ज्यादातर राज्यों में पॉजिटिविटी रेट (जांच के दौरान पाए गए संक्रमितों का प्रतिशत) उस स्तर पर है, जहां से इसका तेजी से कम होना असंभव प्रतीत होता है (या फिर अगर ऐसा हुआ, तो इससे आंकड़ों की हेराफेरी या कमी का संदेह ही मजबूत होगा), और कुछ राज्यों (मुख्य रूप से महाराष्ट्र) में तो भारत में कोरोना महामारी की पहली लहर के दौरान भी पॉजिटिविटी रेट का ग्राफ तुलनात्मक रूप से बहुत ऊंचा था। इन कुछ जमीनी उदाहरणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि देश में कुछ सकारात्मक अनुमानों के बावजूद आने वाले दिनों में कोरोना संक्रमण के मामलों और उससे होने वाली मौतों का बढ़ना जारी रह सकता है। 

आम बातचीत से पता चलता है कि ऑक्सीजन और वेंटिलेटर की कमी के कारण भी कुछ मौतें हुई हैं, और ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि देश के कई हिस्सों में अधिक संख्या में संक्रमण के मामले सामने आने से हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था पर बहुत भार पड़ गया है। इसका यह भी मतलब है कि एक बार अगर कोविड रोगियों की सेवा में जुटे अस्पतालों में चिकित्सकीय ऑक्सीजन की आपूर्ति और वितरण सुचारु हो जाए (जिसके प्रयास शुरू हो गए हैं और सप्ताह के अंत तक इसके पूरा होने के संकेत हैं), तो मौतों की संख्या भी घटनी शुरू हो जाएगी। हम साफ देख रहे हैं कि कोरोना की दूसरी लहर से लड़ने में ऑक्सीजन की कमी एक प्रमुख अड़चन के रूप में हमारे सामने आई है- और यहां यह याद रखना जरूरी है कि देश को कोरोना की तीसरी लहर के लिए भी तैयार रहना है, जिसका किसी न किसी बिन्दु पर उभरना तय है। कोरोना के टीके भी संक्रमण की दूसरी लहर को तोड़ने और तीसरी लहर की प्रचंडता को कम करने में बहुत मददगार हुए हैं, लेकिन इन टीकों की आपूर्ति और लोगों तक उपलब्धता के बारे में बहुत कम जानकारी है। भारतीय बाजार में उपलब्ध कोरोना के टीकों की खुराक को लेकर स्पष्टता नहीं है। केंद्र सरकार, राज्य सरकार और निजी खरीदारों के स्तर पर भी स्थिति साफ नहीं है। भारत की दो बड़ी घरेलू वैक्सीन उत्पादक कंपनियों, सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक की निर्यात संबंधी संविदाओं के बाद देश में इनकी आपूर्ति किस तरह या कितनी होगी, ठीक से कहा नहीं जा सकता। इस बारे में भी कोई स्पष्टता नहीं है कि रूस निर्मित वैक्सीन स्पुतनिक वी की कितनी खुराक भारत में उपलब्ध होगी (कितनी आयात की जाएगी और कितनी भारत में बनाई जाएगी)। 

लोगों के बीच जो भी सीमित जानकारी उपलब्ध है, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत को जितने कोरोना टीकों की आवश्यकता है, उतने की आपूर्ति संभव नहीं हो पाएगी। अब जबकि मई की पहली तारीख से भारत में टीकाकरण का तीसरा चरण शुरू होने वाला है, तब भी यह पता नहीं चल पा रहा है कि जिन राज्यों ने वैक्सीन के लिए ऑर्डर दिए हैं, उन्हें वैक्सीन की खुराक कब तक मिल पाएगी। हमें इनकी उपलब्धता और समय के बारे में जानकारी की सख्त आवश्यकता है। और हमें वैक्सीन की व्यवस्था को लेकर ऐसीनिश्चित रणनीति बनानी होगी कि इसकी पूर्ण या दोनों खुराक के बजाय पहली खुराक को प्राथमिकता दी जाए, ताकि इस महामारी से ज्यादा से ज्यादा लोगों को बचाया जा सके। (खासकर कोविशील्ड वैक्सीन, जो 90 प्रतिशत लोगों को दी गई है)। अगर अगले छह हफ्तों तक ऐसा संभव हो पाए, तो भारत इस दूसरी लहर को तोड़ सकता है और तीसरी के लिए खुद को तैयार कर सकता है।

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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Monday, April 26, 2021

हमें इलाज पाने का कितना हक (हिन्दुस्तान)

हरबंश दीक्षित, सदस्य, उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग, प्रयागराज


महामारी से निपटने के मामले में सरकारी तंत्र पर अदालत के आक्रोश को समझा जा सकता है। दरअसल, यह आम लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं देने की अपेक्षा की अभिव्यक्ति है। अदालतें पहले भी इस तरह की पहल करती रही हैं और बहुत सकारात्मक परिणाम भी आए हैं। तकरीबन 32 वर्ष पहले 1989 में परमानन्द कटारा देश की स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में एक युगान्तकारी परिवर्तन के माध्यम बने थे। उनकी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वास्थ्य सुविधाओं को पाने के अधिकार को जीवन के मूल अधिकार का अभिन्न भाग मानते हुए सरकार तथा निजी चिकित्सकों को निर्देशित किया था कि आपात परिस्थिति में आने वाले हर मरीज को चिकित्सा देना उनकी जिम्मेदारी है। शुरुआत एक खबर से हुई थी, जो दुर्घटनाग्रस्त स्कूटर चालक की मौत के बारे में थी। सड़क पर स्कूटर सवार को किसी कार ने टक्कर मार दी थी। उसे लेकर एक व्यक्ति नजदीक के अस्पताल में गया। अस्पताल ने घायल का इलाज करने से इन्कार कर दिया, क्योंकि डॉक्टर के मुताबिक वह मेडिको लीगल मामला था। उसे दूसरे अस्पताल ले जाने को कहा गया, जो 20 किलोमीटर दूर था। वहां पहुंचते घायल व्यक्ति दम तोड़ चुका था।

परमानन्द कटारा का मामला कई प्रकार से अभूतपूर्व था। लोकहित के मामलों में आमतौर पर इस तरह के आदेश केवल केंद्र सरकार और राज्य सरकार या सरकारी कर्मचारियों के लिए दिए जाते हैं। लेकिन इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों के माध्यम से सभी मेडिकल कॉलेजों और निजी नर्सिंग होम और चिकित्सकों तक को इस आदेश की प्रति देने और उसका पालन सुनिश्चित करने को कहा। न्यायालय ने कहा कि यदि घायल व्यक्ति को जरूरी चिकित्सकीय सुविधाएं उपलब्ध न हो सकें, तो अनुच्छेद 21 का जीवन का अधिकार बेमानी है। इसलिए सरकार और सभी चिकित्सकों की यह जिम्मेदारी है कि आपात परिस्थितियों में पहुंचने वाले हर मरीज को चिकित्सा उपलब्ध कराएं। 

संविधान के अनुच्छेद 21 के अलावा संविधान में दूसरे भी कई ऐसे उपबंध हैं, जिनमें सरकार को आम लोगों के स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी दी गई है। अनुच्छेद 39(ई) में राज्यों को कामगारों के समूचित स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया है। यह राज्य की जिम्मेदारी तय करता है कि वह काम करने और मातृत्व की सुविधाएं सुनिश्चित करे और अनुच्छेद 47 भी आम लोगों के स्वास्थ्य का स्तर बेहतर करने के लिए आवश्यक प्रयास करता है। इतना ही नहीं, हमारे संविधान की अनुसूची 11 की प्रविष्टि 23 तथा अनुच्छेद 343जी के अंतर्गत पंचायतों और स्थानीय निकायों की भी जिम्मेदारी तय  है कि वे अपने क्षेत्र में स्वास्थ्य सुविधाओं को सुनिश्चित करें। पारंपरिक सोच यह है कि राज्य के नीति निर्देशक तत्व मूल अधिकार से इस मामले में अलग होते हैं कि वे निर्देश मात्र होते हैं और उन्हें अदालतों के माध्यम से लागू नहीं किया जा सकता, किंतु अदालतों ने आगे बढ़कर उन्हें मूल अधिकारों की तरह लागू किया है। 

कोविड महामारी के मामलों में पहले भी अदालतों ने कई बार आवश्यक दिशा-निर्देश जारी किए हैं। पिछले वर्ष जब देशभर के अस्पतालों से बदइंतजामी की शिकायत मिल रही थी, तब अदालत ने उनका स्वत: संज्ञान लिया। समाचार पत्रों में छपी खबर के आधार पर इसकी जांच कराने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 12 तथा 19 जून 2020 को व्यापक दिशा-निर्देश जारी किए, जिसमें कोविड जांच बढ़ाने तथा सभी अस्पतालों में सीसीटीवी कैमरे लगाए जाने का आदेश शामिल था। अदालत ने एक उच्चस्तरीय समिति भी गठित की, ताकि उसके दिशा-निर्देशों की पालना सुनिश्चित हो सके। 

कोविड महामारी एक आपात स्थिति है। इससे निपटने में सरकारों की सफलता और असफलता पर विवाद हो सकता है, किंतु उनकी नीयत पर संदेह नहीं किया जा सकता। मानव की सबसे बड़ी ताकत यह है कि वह हर आपदा से कुछ न कुछ सीखता है। मौजूदा महामारी से निपटने में अदालतों की भूमिका की जितनी प्रशंसा की जाए, उतनी कम है, किंतु उनकी अपनी एक सीमा होती है। हर छोटे-छोटे मामलों को जानने का न तो अदालतों के पास कोई तंत्र होता है और न ही वे उसे जमीनी स्तर पर लागू कर सकती हैं। इसके लिए मौजूदा कानूनी ढांचे की कमियों को भी दूर करना जरूरी है। स्वास्थ्य सुविधाएं पाने के अधिकार को हमारे संविधान में अलग से मूल अधिकार का दर्जा नहीं दिया गया है। इसके कारण ऐसे अधिकार का उपयोग करने में कई तकनीकी दिक्कतें आती हैं। कोविड महामारी ने हमें पहली सीख यह दी है कि स्वास्थ्य सुविधाओं को पाने का अधिकार मूल अधिकार के अध्याय में शामिल हो। दूसरा यह कि मूल अधिकारों के लाभ को निचले स्तर तक पहुंचाने के लिए यह जरूरी है कि पूरे देश की स्वास्थ्य सुविधाओं के नियमन के लिए व्यापक कानूनी ढांचा हो। इसमें केंद्र और राज्य सरकारों के समन्वय तथा एकजुट होकर काम करने की जरूरत होगी। इसमें एक बाधा है। संविधान में स्वास्थ्य सुविधाओं तथा अस्पताल के संबंध में कानून बनाने का अधिकार राज्यों के पास है। शायद ही कोई ऐसा राज्य होगा, जिसके पास स्वास्थ्य सेवाओं से संबंधित कानूनी ढांचा उपलब्ध होगा।  कानूनी ढांचे की इस कमी का नुकसान यह है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया और उसे लागू करने में बिखराव है। 

तदर्थ जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकारें निर्णय ले रही हैं, जिसके कारण जब अचानक कोई दूसरी समस्या आ जाती है, तो पहले की कार्यवाही ठंडे बस्ते में चली जाती है। राज्यों के बीच कई विषयों पर मतभेद भी हैं, इसलिए भी कहीं-कहीं एकजुटता का अभाव नजर आता है। इस कमी को दूर करने के लिए यह जरूरी है कि संविधान में संशोधन करके स्वास्थ्य सुविधाएं तथा अस्पताल जैसे विषय को राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में लाया जाए। केंद्र द्वारा इस विषय पर व्यापक कानून बनाया जाए, जिसमें सरकारी तंत्र और निजी अस्पतालों का नियमन हो और उनकी जवाबदेही तय हो। ऐसे में, यदि स्थानीय स्तर पर कोई चूक होती है, तो नोडल अधिकारी उसे दूर कर लेगा। अस्पताल के कर्मचारियों की लापरवाही से होने वाले नुकसान के मामलों में न्याय आसान हो जाएगा। न्याय के लिए उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय जाना सबके वश की बात नहीं है। दूसरे यह कि पीड़ित के अधिकार और अस्पतालों या सरकार के कर्तव्यों का स्पष्ट निर्धारण न होने के कारण न्याय पाना तकरीबन असंभव जैसा होता है। स्पष्ट कानूनी ढांचे से लोगों को निचली अदालतों से ही न्याय मिल सकेगा और लापरवाह कर्मचारियों के लिए चेतावनी भी होगी। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं) 


सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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पृथ्वी के लिए चाहिए नया नजरिया (हिन्दुस्तान)

सुनीता नारायण, पर्यावरणविद और महानिदेशक, सीएसई 

पर्यावरण-संबंधी चुनौतियों पर चर्चा करने के लिए सन 1972 में दुनिया भर के नेतागण स्टॉकहोम में एकत्र हुए थे। तब चिंताएं स्थानीय पर्यावरण को लेकर थीं। जलवायु परिवर्तन या फिर छीज रहे ओजोन परत पर उस बैठक में कोई बात नहीं की गई थी। ये सभी मसले बाद के वर्षों में शामिल किए गए हैं। सन 1972 में तो सिर्फ जहरीले होते पर्यावरण को तवज्जो मिली थी, क्योंकि पानी और हवा दूषित हो चले थे। यहां बेशक कोई यह कह सकता है कि पिछले पांच दशकों में काफी कुछ बदल गया है। मगर असलियत में हालात जस के तस हैं। या यूं कहें कि स्थिति गंभीर ही बनती जा रही है। पृथ्वी के तमाम घटकों का दूषित हो जाना, आज भी चिंता की एक बड़ी वजह है। कुछ देशों ने हालात संभालने के लिए स्थानीय स्तर पर कई कदम जरूर उठाए हैं, लेकिन वैश्विक पर्यावरण में उनका उत्सर्जन बदस्तूर जारी है। अब तो जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को रोकना हमारे बस से बाहर की बात हो चली है, और वक्त पल-पल रेत की मानिंद हमारे हाथों से फिसल रहा है। यही कारण है कि हम आज दुनिया को काफी तेजी से असमान होते देख रहे हैं। यहां गरीबों व वंचितों की तादाद बढ़ती जा रही है, और जलवायु परिवर्तन के जोखिम गरीबों के घर ही नहीं, अमीरों के दरवाजे भी खटखटा रहे हैं। इसीलिए पुरानी रवायतों को विदा करने का वक्त आ गया है। साझा भविष्य के लिए हमें न सिर्फ अपनी कार्यशैली, बल्कि अपना नजरिया भी बदलना होगा।

अगले साल हम स्टॉकहोम सम्मेलन की 50वीं वर्षगांठ मनाएंगे। इसके ‘कन्वेंशन’ को अब अलग रूप देना होगा। इसमें महज समस्या की चर्चा न हो, बल्कि समाधान के रास्ते भी बताए जाएं। इसीलिए हमें उपभोग और उत्पादन पर गंभीर चर्चा करने की जरूरत है। इसे हम और नजरंदाज नहीं कर सकते। यह बहस-मुबाहिसों में ज्वलंत मसला है। हम ओजोन, जलवायु और जैव-विविधता से लेकर मरुस्थलीकरण व जहरीले कचरे के बारे में तमाम तरह के समझौते करके वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने की जब वकालत करते हैं, तब एकमात्र तथ्य यही समझ में आता है कि तमाम देशों ने अपनी सीमा से कहीं अधिक पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया है। वैश्विकता में और एक-दूसरे की मदद करते हुए हमें आगे बढ़ना था, क्योंकि हम ऐसी दुनिया में रहते हैं, जहां सभी देश एक-दूसरे पर निर्भर हैं। मगर इस दरम्यान तो हमने एक अन्य मुक्त व्यापार समझौता किया, आर्थिक वैश्वीकरण समझौता। हम दरअसल, यह समझ ही नहीं पाए कि ये दोनों फ्रेमवर्क (पारिस्थितिकी और आर्थिक वैश्वीकरण) एक-दूसरे के प्रतिकूल हैं। लिहाजा, अब हमें एक ऐसा आर्थिक मॉडल बनाना होगा, जिसमें श्रम मूल्य और पर्यावरण, दोनों को बराबर तवज्जो मिले। हमने वहां-वहां उत्पादन बढ़ाए हैं, जहां लागत सस्ती है। उत्पादन बढ़ाने का हमारा एकमात्र मकसद यही है कि हमारे भंडार भरे रहें। इससे उत्पाद कहीं ज्यादा सस्ता और सुलभ भी हो जाता है। सभी देश विकास के इसी मॉडल को अपना रहे हैं। हर कोई वैश्विक कारखानों का हिस्सा बनना चाहता है, जहां हरसंभव सस्ते दामों में उत्पादन संभव है। दुनिया का गरीब से गरीब देश भी यही चाहता है कि वह जल्द से जल्द संपन्न बन जाए, और उत्पादों का अधिकाधिक उत्पादन व खपत करे। मगर इसकी कीमत पर्यावरण सुरक्षा के उपायों की अनदेखी और श्रम की बदहाली के रूप में चुकाई जाती है।

कोविड-19 महामारी ने इस ‘अनियंत्रित विकास-यात्रा’ को रोक दिया है। यह ऐसी यात्रा रही है, जिसमें कम लागत में अधिक से अधिक उत्पादन और उनके हरसंभव उपभोग पर जोर दिया जाता है। लेकिन जैसा कि पृथ्वी खुद अपने नियम तय करती है और उसके पास चीजों को अलग तरीके से करने का विकल्प होता है। कोविड-19 भी हमें यही संदेश देता प्रतीत हुआ है। इसके कुछ सबक हमें कतई नहीं भूलने चाहिए। पहला, हमें श्रम, विशेषकर प्रवासी श्रमिकों का मोल समझना होगा। उद्योग जगत के लिए आज यह कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। हमने देखा है कि पिछले साल अपने देश में किस तरह से गांवों की ओर श्रमिकों की वापसी हुई। आज भी जब दिल्ली में कफ्र्यू की घोषणा की गई, तब देशव्यापी लॉकडाउन की आशंका में कामगारों की फौज गांवों की ओर निकल पड़ी है। हालांकि, यह संकट भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में है। इससे उत्पादन खासा प्रभावित होता है। इसी कारण पिछले साल जब संक्रमण के हालात संभलते दिखे, तब कंपनियां अपने श्रमिकों को वापस बुलाने के लिए उनकी चिरौरी करती दिखीं। श्रमिकों को अच्छा वेतन और बेहतर कामकाजी माहौल देने की आवश्यकता है। दूसरा सबक, हम आज नीले आसमान और स्वस्थ फेफड़े की कीमत समझने लगे हैं। लॉकडाउन के दरम्यान प्रदूषण का स्तर सुधर गया था। इसे हमें लगातार महत्व देना होगा। साफ-सुथरी आबोहवा के लिए यदि हम निवेश करते हैं, तो निश्चय ही उत्पादन में भी वृद्धि होगी। तीसरा, भूमि-कृषि-जल प्रणालियों में निवेश के मूल्य को हमें समझना होगा। जो लोग अपने गांवों में वापस जाते हैं, उन्हें वहां आजीविका की जरूरत भी होती है। हमें अब ऐसा भविष्य बनाना होगा, जिसमें खाद्य-उत्पादन तंत्र टिकाऊ, प्रकृति के अनुकूल और सेहत के माकूल हों। चौथा सबक, हम ऐसे दौर में जी रहे हैं, जिसमें ‘वर्क फ्रॉम होम’ यानी घर से कामकाज सामान्य हो गया है। इस तरह की व्यवस्था आगे भी बनानी होगी, ताकि सुदूर इलाकों से कामकाज हो सके, यात्रा का तनाव कम हो और खुद को मजबूत करने के लिए हम देश-दुनिया से तालमेल बिठा सकें। पांचवां, तमाम सरकारें अपनी-अपनी आर्थिक मुश्कलों से लड़ रही हैं। इसलिए उन्हें अधिक से अधिक खर्च करने और कम से कम बर्बादी की तरफ ध्यान देना होगा। उन्हें ऐसी आर्थिकी अपनानी होगी, जिसमें कचरे से भी संसाधन तैयार किए जा सकें। ये तमाम उपाय उत्पादन और उपभोग के हमारे तरीके को बदलने की क्षमता रखते हैं। इसलिए, आज कोरोना की दूसरी लहर के बीच जब हम पृथ्वी दिवस मना रहे हैं, तब हमें यही संकल्प लेना होगा कि इंसानी गतिविधियां पर्यावरण को दुष्प्रभावित न कर सकें। अब इस पर विचार-विमर्श  करने का वक्त नहीं रहा। जरूरत युद्धस्तर पर काम करने की है।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)


सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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Saturday, April 24, 2021

देश को तत्काल चाहिए ऑक्सीजन (हिन्दुस्तान)

संघमित्रा शील आचार्य, प्रोफेसर, जेएनयू

विशेषज्ञ पिछले कई वर्षों से स्वास्थ्य के लिए बजट बढ़ाने का सुझाव दे रहे हैं। यह अच्छी सलाह सरकार के बहरे कानों पर पड़ती रही है! आज हम विशेषज्ञों की सलाह के प्रति शिथिलता दिखाने के नतीजे भुगत रहे हैं। हम स्वास्थ्य क्षेत्र की उपेक्षा के परिणामों का सामना कर रहे हैं। कुछ लोग निश्चित रूप से विशेषज्ञों की सलाह का लाभ भी उठा रहे हैं। भारत पिछले कुछ हफ्ते से रोजाना संक्रमण में तेज उछाल का सामना कर रहा है। देश में 21 अप्रैल, 2021 को लगभग तीन लाख मामले सामने  आए हैं और दो हजार से अधिक मौतें हुई हैं। आंकड़े  2020 में महामारी फैलने के बाद सबसे ऊंचे स्तर पर दर्ज किए जा रहे हैं। 

पिछले एक सप्ताह में कई ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनमें अस्पतालों में ऑक्सीजन की उपलब्धता न होने के कारण कोरोना प्रभावित व्यक्ति अपनी जान गंवा बैठे। दिल्ली, यूपी, महाराष्ट्र, गुजरात जैसे राज्यों ने ऑक्सीजन की कमी की सूचना दी है। एक राज्य द्वारा दूसरे पर राजनीतिक रूप से आरोप भी लगाए जा रहे हैं कि ऑक्सीजन की लूट हो रही है और उसके परिवहन को रोका जा रहा है। जब आपूर्ति सुनिश्चित करने की आवश्यकता है, तब जिन लोगों को हमने चुना है, वे ध्यान भटकाने के लिए एक अनावश्यक बहस को तेज करने में व्यस्त हैं। आज ऑक्सीजन की कमी के चलते कोविड से होने वाली मौतें वास्तविक मुद्दा हैं। यह समझना महत्वपूर्ण है कि क्या यह वास्तव में ऑक्सीजन की कमी है? क्या चालू वित्त वर्ष के दौरान उत्पादन कम हुआ है या निर्यात अधिक हुआ है? वाणिज्य विभाग के आंकड़ों से पता चलता है कि देश ने वित्त वर्ष 2020-21 के दौरान वर्ष 2015 की तुलना में ऑक्सीजन का दोगुनी मात्रा में निर्यात किया है। यह निर्यात चिकित्सा सेवा और औद्योगिक, दोनों ही तरह के उपयोगों के  लिए किया गया है। 

वित्त वर्ष 2019-20 के दौरान 4,502 मीट्रिक टन की तुलना में अप्रैल 2020 से जनवरी 2021 के बीच 9,000 मीट्रिक टन से अधिक ऑक्सीजन का निर्यात किया गया। जाहिर है, कोरोना के कारण दुनिया में तरल चिकित्सकीय ऑक्सीजन की मांग पिछले साल ही बहुत बढ़ गई थी। उत्पादन भी खूब बढ़ा है। मार्च-मई 2020 के दौरान 2,800 मीट्रिक टन ऑक्सीजन का प्रतिदिन उत्पादन हो रहा था। हालांकि, मौजूदा लहर के दौरान प्रतिदिन मांग 5,000 टन तक पहुंच गई है। उल्लेखनीय है कि अब भारत में प्रतिदिन 7,000 मीट्रिक टन से अधिक तरल ऑक्सीजन का उत्पादन होता है, जो 5,000 टन की चिकित्सा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त है। इसलिए कमी उत्पादन की वजह से नहीं है। असमान आपूर्ति और परिवहन की वजह से ही अनेक राज्य अपनी आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर पा रहे। अन्य सभी संसाधनों की तरह ही ऑक्सीजन की कमी का कारण असमान वितरण में निहित है। जिन राज्यों में कोरोना मामले बढ़े हैं, वे राज्य ऑक्सीजन की कमी का सामना कर रहे हैं। ऑक्सीजन उत्पादन स्थलों और मांग स्थलों के बीच की दूरी के कारण संकट पैदा हुआ है। महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्य, जहां कोरोना मामले काफी अधिक हैं, वहां ऑक्सीजन की मांग भी बहुत दर्ज हो रही है। इन राज्यों में सुधार ऑक्सीजन टैंकरों और समय से उनकी आपूर्ति पर टिका है। गुजरात में अपनी मांग को पूरा करने जितनी उत्पादन-क्षमता है, जबकि महाराष्ट्र में अभी हो रहे उत्पादन से कहीं अधिक मांग है। वर्तमान में तरल ऑक्सीजन के परिवहन के लिए जरूरी क्रायोजेनिक टैंकर भी पूरे नहीं हैं, क्योंकि कई अस्पताल एक ही समय में ऑक्सीजन की कमी का सामना कर रहे हैं। सभी गंभीर रोगियों के जीवन को बचाने के लिए चिकित्सा सेवाओं पर दबाव है और इसलिए एक ही समय में सभी को ऑक्सीजन प्रदान करना अपरिहार्य हो गया है। ऑक्सीजन सबको चाहिए, किसी को भी प्राथमिकता नहीं दी जा सकती। इसलिए जरूरत है ऐसे वाहनों को तैयार करने की, जो तरल ऑक्सीजन को ले जा सकते हों, क्योंकि निर्धारित क्रायोजेनिक टैंकरों के निर्माण में 4-5 महीने तक लग सकते हैं। इसलिए ऐसे वाहनों के निर्माण की योजना को दूसरे चरण में शुरू किया जा सकता है।

कुछ राज्यों में संक्रमण के मामले बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं। क्रायोजेनिक ट्रक के निर्माण के लिए प्रतीक्षा करने से मकसद पूरा नहीं हो सकता। ऐसे वाहनों का निर्माण बाद में भी कभी हो सकता है। संकट के इस समय में ट्रेनों का इस्तेमाल किया जा सकता है, ताकि जरूरतमंद राज्यों की कमी को पूरा किया जा सके। आज के समय में अस्पतालों को तनाव से राहत देने के लिए ऑक्सीजन का आयात भी संभव है। सरकार ने 50,000 मीट्रिक टन ऑक्सीजन आयात करने का निर्णय लिया है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अनुसार, उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए देश भर में सार्वजनिक अस्पतालों में 162 ऑक्सीजन संयंत्रों की स्थापना को भी मंजूरी दी गई है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, वर्तमान में चिकित्सकीय ऑक्सीजन की खपत कुल उत्पादन क्षमता का केवल 54 प्रतिशत है, 12 अप्रैल 2021 तक। अब ऑक्सीजन के आयात के साथ-साथ मौजूदा उत्पादन क्षमता को बढ़ाने से मांग पूरी होने की संभावना है। यहां एक बैकअप के रूप में औद्योगिक ऑक्सीजन को रखना चाहिए। अब हमें ऑक्सीजन की मांग में वर्तमान और संभावित उछाल को देखते हुए ही ऑक्सीजन उत्पादन संयंत्रों की स्थापना करनी पड़ेगी। संयंत्र की जगह को बहुत विवेकपूर्ण ढंग से तय करना महत्वपूर्ण है। आने वाले कुछ सप्ताहों में रोजाना आ रहे संक्रमित मामलों को कम करने की जरूरत है। यह बहुत जरूरी है कि कम से कम लोगों को संक्रमण हो, ताकि मरीजों के दबाव में आई स्वास्थ्य व्यवस्था को खुद को तैयार करने के लिए वक्त मिल जाए। यदि संक्रमण की शृंखला जल्द नहीं टूटती है और मामलों में वृद्धि जारी रहती है, तो भारत गंभीर ऑक्सीजन संकट में फंस सकता है। वैसी स्थिति न बने, यह कोशिश सरकार को युद्ध स्तर पर करनी चाहिए। संक्रमित मरीजों के परिजनों को किसी भी अस्पताल से उस चीज के लिए कतई लौटाया न जाए,  जिसका मूल पदार्थ प्रकृति द्वारा बिना लागत उपलब्ध है। 

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)


सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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Friday, April 23, 2021

अपने नेताओं से पूछना शुरू कीजिए (हिन्दुस्तान)

चंद्रकांत लहारिया, जन नीति और स्वास्थ्य तंत्र विशेषज्ञ

कोरोना की इस दूसरी लहर में देश के लगभग सभी जिलों की स्वास्थ्य सेवाएं चरमरा गई हैं। महामारी से निपटने के लिए जिन-जिन चीजों की दरकार होती है, उन सबमें कमी दिख रही है। फिर चाहे वे डॉक्टर हों, बेड, वेंटिलेटर, आईसीयू, दवाएं या फिर ऑक्सीजन। दुखद है कि अंतिम संस्कार के लिए भी लोगों को कतारों में खड़ा होना पड़ रहा है। हालांकि, यह भी सच है कि खास परिस्थितियों में मरीजों की संख्या में अप्रत्याशित बढ़ोतरी होने से स्वास्थ्य सेवाओं पर बोझ बढ़ना स्वाभाविक है। 

बहरहाल, पिछले एक वर्ष में चिकित्सा और स्वास्थ्यकर्मियों को हमने नायक की तरह सम्मानित किया, पर देश के विभिन्न हिस्सों से उनके साथ दुव्र्यवहार, धमकी, हमले और मार-पीट की भी खबरें आईं। करीब दो हफ्ते पहले ही सोशल मीडिया पर एक बडे़ सरकारी अस्पताल के सीनियर डॉक्टर का वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें उनके साथ सार्वजनिक तौर पर दुव्र्यवहार किया गया था। यह एक बड़े राज्य की राजधानी की घटना है। पता चला, जो लोग डॉक्टर से अभद्रता कर रहे थे, वे निर्वाचित जन-प्रतिनिधि थे, जबकि डॉक्टर पिछले एक साल से कोरोना के नोडल ऑफिसर। इस घटना के बाद उनके इस्तीफे और फिर से पदस्थापना की भी खबर आई।

साफ है, यह महामारी हर मोर्चे पर देश के स्वास्थ्य तंत्र की परीक्षा ले रही है, और अपने गिरेबान में झांकने को कह रही है। हमें यह समझना होगा कि डॉक्टर व अन्य तमाम स्वास्थ्यकर्मी स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने के माध्यम भर हैं। अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं तो निर्वाचित सरकारों के नीतिगत फैसलों और उन नीतियों पर प्रशासनिक मशीनरी व स्वास्थ्य क्षेत्र के प्रबंधकों के संजीदा अमल पर निर्भर करती हैं। विभिन्न स्तरों पर चुने गए प्रतिनिधि व सरकारें ही हैं, जो हर परिस्थिति में बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के लिए जवाबदेह हैं। मगर असल में अग्रिम मोर्चे पर तैनात स्वास्थ्यकर्मी (डॉक्टर और नर्स) ही लोगों के गुस्से का निशाना बनते हैं। स्पष्ट है, विपरीत परिस्थितियों में भी अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं तत्कालीन सरकार द्वारा लिए गए नीतिगत फैसलों और निचले तंत्र द्वारा उनके अमल पर निर्भर करती हैं। इसीलिए, चुने हुए जन-प्रतिनिधियों की भूमिका काफी अहम हो जाती है। स्वास्थ्य सुविधाएं तैयार करने संबंधी फैसले लेने (या नहीं लेने) के लिए वही उत्तरदायी हैं। वित्तीय संसाधनों को आवंटित करने उनका फैसला ही अस्पतालों या स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करता है। स्वास्थ्य कर्मियों की नियुक्ति और उनकी मौजूदगी भी सरकार की नीतियां तय करती हैं। इसलिए, किसी जिले, राज्य या देश में स्वास्थ्य सेवाएं कितनी अच्छी या बुरी हैं, यह अमूमन चुने हुए नेता और सरकारों की जवाबदेही है।

मगर अपने देश में सरकार स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का बहुत कम हिस्सा, यानी सिर्फ 1.2 फीसदी (दुनिया में सबसे कम) खर्च करती है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017 कहती है कि राज्य सरकारों को स्वास्थ्य क्षेत्र पर अपने बजट का आठ फीसदी खर्च करना चाहिए, मगर वे आज भी औसतन पांच प्रतिशत खर्च करती हैं। दुखद यह है कि 2001-02 से लेकर 2015-16 के बीच इसमें सिर्फ आधा फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। यह उदाहरण भर है कि स्वास्थ्य पर राज्य सरकारों के वायदे किस कदर अधूरे हैं। स्वास्थ्य सेवाओं में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी और लोगों का अपनी जेब से स्वास्थ्य-खर्च दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है, जो स्वास्थ्य में निवेश के सरकार के इरादों को बेपरदा करता है। देश के ज्यादातर राज्यों में चुने हुए नेताओं की सर्वोच्च प्राथमिकता में स्वास्थ्य नहीं है। पिछले कई वर्षों से यही प्रतीत होता रहा है कि सरकारों ने सेहत को लोगों की व्यक्तिगत जिम्मेदारी मान ली है। दिक्कत की बात यह है कि विपक्ष भी इस पर सवाल नहीं उठाता। यह मुद्दा जनादेश निर्धारित करने वाला कारक नहीं माना जाता। कोविड-19 के इस चरम में ही विधानसभा व पंचायतों के चुनाव हो रहे हैं, मगर स्वास्थ्य कोई मुद्दा नहीं है, जबकि इन चुनावों से लोगों की जान खतरे में डाली जा रही है। सवाल यह है कि अगर महामारी के समय भी स्वास्थ्य मुद्दा नहीं बनता, तो फिर भला कब यह चुनावी एजेंडा बनेगा? बहरहाल, कोरोना की इस दूसरी लहर ने मजबूत स्वास्थ्य सेवाओं के महत्व को उजागर किया है। अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं का एक मापक यह है कि 3,000 से 10,000 की आबादी पर कम से कम एक डॉक्टर और नर्स के साथ बेहतर प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं लोगों को मिलें। मगर अपने यहां ग्रामीण इलाकों में यह सुविधा 25,000 की आबादी पर और शहरों में 50,000 की आबादी पर उपलब्ध है। इसका यह भी अर्थ है कि भारत आज जिन स्वास्थ्य चुनौतियों का मुकाबला कर रहा है, उसकी एक वजह यह है कि पिछले सात दशकों में स्वास्थ्य सेवाओं पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। संविधान के मुताबिक, स्वास्थ्य राज्य का विषय है। यानी, स्वास्थ्य सेवाओं की ज्यादातर जिम्मेदारी राज्यों पर है। मगर इसका यह मतलब नहीं कि केंद्र सरकार इसके लिए जवाबदेह नहीं है। विशेषकर, स्वास्थ्य आपातकाल, महामारी जैसी परिस्थितियों में उसे ज्यादा जिम्मेदार बनाया गया है। देश का 74वां संविधान संशोधन कहता है कि नगर निगम और नगर पालिका जैसे स्थानीय शहरी निकायों का यह कर्तव्य है कि वे शहरी क्षेत्र में प्राथमिक व सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराएं। देखा जाए, तो स्वास्थ्य विभिन्न स्तरों पर हर निर्वाचित सदस्य की जिम्मेदारी है, फिर चाहे वे पंचायत प्रतिनिधि हों, पार्षद, विधायक या फिर सांसद। साफ है, देश के स्वास्थ्य तंत्र और सेवाओं को तुरंत मजबूत करने की जरूरत है, और यह तभी संभव होगा, जब लोग अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों से यह पूछना शुरू करेंगे कि आखिर किस तरह उन्होंने अपने क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारा है? हमें आज से ही यह पूछना शुरू कर देना चाहिए। आप अपने पार्षद से यह पूछें कि क्या हर 10,000 की आबादी पर वार्ड में स्वास्थ्य सुविधाएं मौजूद हैं? विधायक, सांसद जैसे हर चुने हुए प्रतिनिधि से भी यही सवाल करें। इसी तरह से आप बतौर जिम्मेदार नागरिक देश के स्वास्थ्य तंत्र और इसकी सेवाओं को मजबूत बनाने में अपना योगदान दे सकते हैं। और, इसी तरह से भारत भी भविष्य में महामारियों से निपटने के लिए तैयार हो सकता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।


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Thursday, April 22, 2021

पृथ्वी के लिए चाहिए नया नजरिया (हिन्दुस्तान)

सुनीता नारायण, पर्यावरणविद और महानिदेशक, सीएसई  

पर्यावरण-संबंधी चुनौतियों पर चर्चा करने के लिए सन 1972 में दुनिया भर के नेतागण स्टॉकहोम में एकत्र हुए थे। तब चिंताएं स्थानीय पर्यावरण को लेकर थीं। जलवायु परिवर्तन या फिर छीज रहे ओजोन परत पर उस बैठक में कोई बात नहीं की गई थी। ये सभी मसले बाद के वर्षों में शामिल किए गए हैं। सन 1972 में तो सिर्फ जहरीले होते पर्यावरण को तवज्जो मिली थी, क्योंकि पानी और हवा दूषित हो चले थे। यहां बेशक कोई यह कह सकता है कि पिछले पांच दशकों में काफी कुछ बदल गया है। मगर असलियत में हालात जस के तस हैं। या यूं कहें कि स्थिति गंभीर ही बनती जा रही है। पृथ्वी के तमाम घटकों का दूषित हो जाना, आज भी चिंता की एक बड़ी वजह है। कुछ देशों ने हालात संभालने के लिए स्थानीय स्तर पर कई कदम जरूर उठाए हैं, लेकिन वैश्विक पर्यावरण में उनका उत्सर्जन बदस्तूर जारी है। अब तो जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को रोकना हमारे बस से बाहर की बात हो चली है, और वक्त पल-पल रेत की मानिंद हमारे हाथों से फिसल रहा है। यही कारण है कि हम आज दुनिया को काफी तेजी से असमान होते देख रहे हैं। यहां गरीबों व वंचितों की तादाद बढ़ती जा रही है, और जलवायु परिवर्तन के जोखिम गरीबों के घर ही नहीं, अमीरों के दरवाजे भी खटखटा रहे हैं। इसीलिए पुरानी रवायतों को विदा करने का वक्त आ गया है। साझा भविष्य के लिए हमें न सिर्फ अपनी कार्यशैली, बल्कि अपना नजरिया भी बदलना होगा।

अगले साल हम स्टॉकहोम सम्मेलन की 50वीं वर्षगांठ मनाएंगे। इसके ‘कन्वेंशन’ को अब अलग रूप देना होगा। इसमें महज समस्या की चर्चा न हो, बल्कि समाधान के रास्ते भी बताए जाएं। इसीलिए हमें उपभोग और उत्पादन पर गंभीर चर्चा करने की जरूरत है। इसे हम और नजरंदाज नहीं कर सकते। यह बहस-मुबाहिसों में ज्वलंत मसला है। हम ओजोन, जलवायु और जैव-विविधता से लेकर मरुस्थलीकरण व जहरीले कचरे के बारे में तमाम तरह के समझौते करके वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने की जब वकालत करते हैं, तब एकमात्र तथ्य यही समझ में आता है कि तमाम देशों ने अपनी सीमा से कहीं अधिक पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया है। वैश्विकता में और एक-दूसरे की मदद करते हुए हमें आगे बढ़ना था, क्योंकि हम ऐसी दुनिया में रहते हैं, जहां सभी देश एक-दूसरे पर निर्भर हैं। मगर इस दरम्यान तो हमने एक अन्य मुक्त व्यापार समझौता किया, आर्थिक वैश्वीकरण समझौता। हम दरअसल, यह समझ ही नहीं पाए कि ये दोनों फ्रेमवर्क (पारिस्थितिकी और आर्थिक वैश्वीकरण) एक-दूसरे के प्रतिकूल हैं। लिहाजा, अब हमें एक ऐसा आर्थिक मॉडल बनाना होगा, जिसमें श्रम मूल्य और पर्यावरण, दोनों को बराबर तवज्जो मिले। हमने वहां-वहां उत्पादन बढ़ाए हैं, जहां लागत सस्ती है। उत्पादन बढ़ाने का हमारा एकमात्र मकसद यही है कि हमारे भंडार भरे रहें। इससे उत्पाद कहीं ज्यादा सस्ता और सुलभ भी हो जाता है। सभी देश विकास के इसी मॉडल को अपना रहे हैं। हर कोई वैश्विक कारखानों का हिस्सा बनना चाहता है, जहां हरसंभव सस्ते दामों में उत्पादन संभव है। दुनिया का गरीब से गरीब देश भी यही चाहता है कि वह जल्द से जल्द संपन्न बन जाए, और उत्पादों का अधिकाधिक उत्पादन व खपत करे। मगर इसकी कीमत पर्यावरण सुरक्षा के उपायों की अनदेखी और श्रम की बदहाली के रूप में चुकाई जाती है।

कोविड-19 महामारी ने इस ‘अनियंत्रित विकास-यात्रा’ को रोक दिया है। यह ऐसी यात्रा रही है, जिसमें कम लागत में अधिक से अधिक उत्पादन और उनके हरसंभव उपभोग पर जोर दिया जाता है। लेकिन जैसा कि पृथ्वी खुद अपने नियम तय करती है और उसके पास चीजों को अलग तरीके से करने का विकल्प होता है। कोविड-19 भी हमें यही संदेश देता प्रतीत हुआ है। इसके कुछ सबक हमें कतई नहीं भूलने चाहिए। पहला, हमें श्रम, विशेषकर प्रवासी श्रमिकों का मोल समझना होगा। उद्योग जगत के लिए आज यह कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। हमने देखा है कि पिछले साल अपने देश में किस तरह से गांवों की ओर श्रमिकों की वापसी हुई। आज भी जब दिल्ली में कफ्र्यू की घोषणा की गई, तब देशव्यापी लॉकडाउन की आशंका में कामगारों की फौज गांवों की ओर निकल पड़ी है। हालांकि, यह संकट भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में है। इससे उत्पादन खासा प्रभावित होता है। इसी कारण पिछले साल जब संक्रमण के हालात संभलते दिखे, तब कंपनियां अपने श्रमिकों को वापस बुलाने के लिए उनकी चिरौरी करती दिखीं। श्रमिकों को अच्छा वेतन और बेहतर कामकाजी माहौल देने की आवश्यकता है। दूसरा सबक, हम आज नीले आसमान और स्वस्थ फेफड़े की कीमत समझने लगे हैं। लॉकडाउन के दरम्यान प्रदूषण का स्तर सुधर गया था। इसे हमें लगातार महत्व देना होगा। साफ-सुथरी आबोहवा के लिए यदि हम निवेश करते हैं, तो निश्चय ही उत्पादन में भी वृद्धि होगी। तीसरा, भूमि-कृषि-जल प्रणालियों में निवेश के मूल्य को हमें समझना होगा। जो लोग अपने गांवों में वापस जाते हैं, उन्हें वहां आजीविका की जरूरत भी होती है। हमें अब ऐसा भविष्य बनाना होगा, जिसमें खाद्य-उत्पादन तंत्र टिकाऊ, प्रकृति के अनुकूल और सेहत के माकूल हों। चौथा सबक, हम ऐसे दौर में जी रहे हैं, जिसमें ‘वर्क फ्रॉम होम’ यानी घर से कामकाज सामान्य हो गया है। इस तरह की व्यवस्था आगे भी बनानी होगी, ताकि सुदूर इलाकों से कामकाज हो सके, यात्रा का तनाव कम हो और खुद को मजबूत करने के लिए हम देश-दुनिया से तालमेल बिठा सकें। पांचवां, तमाम सरकारें अपनी-अपनी आर्थिक मुश्कलों से लड़ रही हैं। इसलिए उन्हें अधिक से अधिक खर्च करने और कम से कम बर्बादी की तरफ ध्यान देना होगा। उन्हें ऐसी आर्थिकी अपनानी होगी, जिसमें कचरे से भी संसाधन तैयार किए जा सकें। ये तमाम उपाय उत्पादन और उपभोग के हमारे तरीके को बदलने की क्षमता रखते हैं। इसलिए, आज कोरोना की दूसरी लहर के बीच जब हम पृथ्वी दिवस मना रहे हैं, तब हमें यही संकल्प लेना होगा कि इंसानी गतिविधियां पर्यावरण को दुष्प्रभावित न कर सकें। अब इस पर विचार-विमर्श  करने का वक्त नहीं रहा। जरूरत युद्धस्तर पर काम करने की है।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।


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Wednesday, April 21, 2021

कठिन इम्तिहान से गुजरता नेतृत्व (हिन्दुस्तान)

राजीव दासगुप्ता, प्रोफेसर (कम्यूनिटी हेल्थ), जेएनयू 

ऐसा लगता है कि स्वास्थ्यकर्मियों सहित अग्रिम मोर्चे पर तैनात तमाम कोरोना योद्धाओं को सर्वप्रथम टीका लगाने की रणनीति उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकी है। 16 जनवरी से शुरू हुए टीकाकरण अभियान में शुरुआती एक महीने स्वास्थ्यकर्मियों को टीका लेना था, और उसके बाद अग्रिम मोर्चे के अन्य कर्मचारियों को। मगर ताजा आंकडे़ बताते हैं कि करीब तीन करोड़ ऐसे योद्धाओं में से 2.36 करोड़ ने अपना पंजीयन कराया और 47 फीसदी ने ही टीके की दोनों खुराकें लीं। पंजीकृत लोगों में से करीब 38 फीसदी (91 लाख) लोगों ने सिर्फ एक खुराक ली। इसका एक अर्थ यह भी है कि 15 फीसदी ‘फ्रंटलाइन वर्कर्स’ ने टीका नहीं लिया। इसके तीन निहितार्थ हैं, जो चिंताजनक हैं। पहला, अग्रिम मोर्चे पर तैनात करीब आधे कर्मचारियों में कोविड-संक्रमण का खतरा ज्यादा है, क्योंकि उन्होंने या तो टीका नहीं लिया है अथवा महज एक खुराक ली है। दूसरा, मौजूदा दूसरी लहर से लड़ने के लिए यही कार्यबल तैनात है, और यदि ये बीमार पड़ते हैं, तो कोरोना के खिलाफ हमारी लड़ाई काफी प्रभावित हो सकती है। और तीसरा, यह समझ से परे है कि जिन लोगों से उम्मीद की जाती है कि वे कोरोना के खतरे व बचाव को लेकर दूसरों को जागरूक करेंगे, उनमें टीके को लेकर आखिर इतनी झिझक क्यों है? इसीलिए ऐसे लोगों का टीका न लेना, टीकाकरण अभियान को चोट पहुंचा सकता है।

इन योद्धाओं का वैक्सीन पर विश्वास दरअसल, टीके की प्रभावशीलता और सुरक्षा पर लोगों का भरोसा बढ़ाता। स्वास्थ्य सेवाओं और स्वास्थ्यकर्मियों की विश्वसनीयता और क्षमता पर भी इसका असर पड़ता और यह नीति-नियंताओं को वैक्सीन को लेकर फैसले लेने को प्रेरित करता। टीके को लेकर आत्ममुग्धता वहीं है, जहां बीमारी के खतरे को लेकर सवाल कम हैं और टीकाकरण को आवश्यक बचाव उपाय नहीं माना जाता। यहां टीकाकरण की सुविधा भी एक महत्वपूर्ण कारक है, क्योंकि 19 अप्रैल को लिए गए फैसले के मुताबिक, 1 मई से देश के सभी वयस्क कोरोना का टीका ले सकते हैं। अभी यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि कोरोना की दूसरी लहर कब तक चलेगी और संक्रमण व मौत के मामले में यह कितनी ‘बड़ी’ साबित होगी। इन्फ्लूएंजा महामारी का इतिहास और अमेरिका में कोविड-19 के ट्रेंड को यदि देखें, तो यही कहा जा सकता है कि भारत में चल रही दूसरी लहर संक्रमण और मौत के मामले में पिछले साल की पहली लहर से बीस साबित होगी। वायरस के नए ‘वैरिएंट’ (विशेषकर ब्रिटेन वैरिएंट) और इसके ‘डबल म्यूटेट’ के कारण इसका प्रसार इतना अधिक हो गया है। हमें अपनी स्वास्थ्य सेवाओं को इसी आधार पर दुरुस्त करना होगा।

मीडिया रिपोर्टें बता रही हैं कि देश के तमाम हिस्सों में अव्वल तो स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं हैं और जहां हैं, वहां मरीजों का दबाव काफी ज्यादा है। विशेषकर महानगरों और शहरों में अस्पताल पूरी तरह से भर गए हैं। किसी महामारी के प्रबंधन में यह सबसे महत्वपूर्ण तत्व माना जाता है, और इस स्थिति से तत्काल पार पाने की जरूरत है। बेशक केंद्र व राज्य सरकारें पिछले एक साल से (जब से महामारी आई है) स्वास्थ्य सेवाओं को ठीक करने में जुटी हुई हैं, लेकिन संक्रमण जब अचानक से तेज उछाल आया, तो तमाम व्यवस्थाएं ढहती नजर आईं। आज अस्पतालों में बेड की कमी हो गई है, ऑक्सीजन की पर्याप्त आपूर्ति नहीं हो रही है और जरूरी दवाओं को टोटा पड़ता जा रहा है। चूंकि सरकारें फिर से मुस्तैद हो गई हैं, इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि आपूर्ति-शृंखला को ठीक कर लिया जाएगा। रोगियों की बढ़ती संख्या को देखकर अस्थाई अस्पताल भी बनाए जा रहे हैं। यहां पर विशेषकर उन मरीजों को जगह दी जा रही है, जिन्हें विशेष देखभाल की जरूरत है।

कोरोना की इस लड़ाई में जरूरी है कि पर्याप्त संख्या में कुशल व प्रशिक्षित मानव संसाधन हमारे पास उपलब्ध हों। इस मोर्चे पर तीन तरफा चुनौतियों से हम मुकाबिल हैं। पिछले साल सरकार ने स्वास्थ्य और गैर-स्वास्थ्य कर्मचारियों (विभिन्न विभागों से बुलाए गए कर्मी) को मिलाकर एक समग्र प्रयास शुरू किया था। मगर जब मामले कम आने लगे, तो गैर-स्वास्थ्य कर्मचारियों को उनके मूल विभागों में वापस भेज दिया गया। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी था, क्योंकि सरकारी व सामाजिक क्षेत्र की तमाम सेवाएं फिर से शुरू हो गई थीं। फिर, स्वास्थ्यकर्मी गैर-कोविड मरीजों पर भी ध्यान देने लगे, क्योंकि सर्जरी जैसे मामलों में ‘बैकलॉग’ काफी ज्यादा हो गया है। स्वास्थ्यकर्मियों को टीकाकरण अभियान भी आगे बढ़ाना है। इन सबके कारण ‘टेस्टिंग ऐंड ट्रीटिंग’ (जांच और इलाज) जैसी अनिवार्य सेवाओं में मानव संसाधन की कमी दिखने लगी है। साफ है, हमें तमाम राज्यों तक अपने संसाधनों का विस्तार करना होगा। कुछ हफ्तों तक यह दूसरी लहर चल सकती है। इसमें संक्रमण के बहुत मामले सामने आ सकते हैं। फिलहाल सक्रिय मरीजों की संख्या 20 लाख को पार कर चुकी है। ऐसे में, आने वाले दिनों में नए रोगियों और ठीक होने वाले मरीजों की संख्या में अंतर और बढ़ जाएगा। लिहाजा, यह सही वक्त है कि सशस्त्र बलों को मैदान में उतारा जाए और उनकी क्षमता का भरपूर इस्तेमाल किया जाए। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ने अस्पताल बनाकर इस काम में अपना योगदान देना शुरू कर दिया है। आपदा के दौरान हमें उन्हें मोर्चे पर लगाना ही चाहिए, साथ-साथ पिछले साल की तरह राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम को भी लागू कर देना चाहिए।

महामारी के इस दूसरे साल में जीवन और आजीविका की रक्षा पर सरकार को बराबर तवज्जो देनी होगी। कुछ मामलों में, लॉकडाउन या अन्य प्रतिबंधों को लेकर राज्य और अदालतों का रुख एक-दूसरे से अलग है। लेकिन हमें अस्पतालों की क्षमता देखकर और तेज संक्रमण को रोकने के लिए लॉकडाउन जैसे कदम उठाने चाहिए। छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र जैसे राज्यों का यहां उदाहरण दिया जा सकता है, जहां पर संक्रमण दर बढ़कर 25-30 फीसदी तक हो गई है। रही बात टीकाकरण की, तो अगले 10 दिनों बाद बेशक इसमें एक नई ऊर्जा आएगी, लेकिन मौजूदा संकट का यह कोई तुरंत समाधान नहीं कर सकता। ऐसे में, भारतीय नेतृत्व के लिए यह वाकई कठिन परीक्षा की घड़ी है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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Tuesday, April 20, 2021

दूसरी लहर से मुकाबले का माद्दा (हिन्दुस्तान)

विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारी 

राज्य के सामने अक्सर बहुत बडे़ संकट आते रहते हैं और कई बार तो ये उसके अस्तित्व को ही चुनौती देते से लगते हैं। युद्ध और महामारी, दो ऐसे ही अवसर हैं, जब किसी राज्य को बडे़ खतरे का एहसास हो सकता है और यही समय है, जब इस बात का भी निर्णय होता है कि उसके अंदर मजबूती से जमीन में पैर गड़ाकर विपरीत व कठिन परिस्थितियों से लड़ने का कितना माद्दा है। ऐसा ही एक इम्तिहान द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नवनिर्मित राष्ट्र-राज्य सोवियत संघ के समक्ष आया था, जब स्टालिन ने अलग-अलग जातीय समूहों में बंटे समाज को एक देशभक्त युद्ध मशीनरी में तब्दील कर दिया था। यही चुनौती भारत के समक्ष भी कोरोना की पहली लहर के बाद आई, जब हम एक राष्ट्र के रूप में खुद को साबित कर सकते थे और महामारी के अगले हमले के लिए सुसज्जित हो सकते थे। देखना होगा कि भारत और उसकी संस्थाएं कोरोना की दूसरी लहर आने तक इस कसौटी पर कितनी खरी उतरीं? यह जांचना इसलिए भी आवश्यक है कि दूसरी लहर अप्रत्याशित नहीं थी और उसकी भविष्यवाणी लगातार की जा रही थी।

महामारी की दूसरी लहर पहली से ज्यादा विकट है। पहली का दम रोजाना लाख संक्रमण पहुंचते-पहुंचते टूट गया, पर दूसरे दौर में ढाई लाख पार करने के बाद भी उसकी गति धीमी नहीं पड़ रही है। दोनों लहरों के बीच आठ-नौ महीने का अंतर है और विशेषज्ञों ने पहले से इसकी चेतावनी दे रखी थी। फ्लू के पिछले अनुभव भी यही बताते हैं। फिर ऐसा क्यों हुआ कि टेस्टिंग, एंबुलेंस, अस्पतालों में बेड, जीवन रक्षक दवाओं, वैक्सीनेशन, ऑक्सीजन और यहां तक दुर्भाग्य से मरीज के न बच पाने की स्थिति में श्मशान घाट तक, हर क्षेत्र में अभाव ही अभाव था? क्या एक राष्ट्र-राज्य के रूप में इतनी बड़ी चुनौती का सामना करने में हम विफल रहे? बहुत से प्रश्न हैं, जो हमें परेशान कर सकते हैं, क्या साल भर में हम अपनी आधारभूत संरचना दोगुनी नहीं कर सकते थे कि नई लहर आने पर असहाय से देखते रहने पर मजबूर न हो जाते? क्या कुंभ मेला और चुनाव मनुष्य के जीवन से ज्यादा जरूरी हैं? बहुत से प्रश्न हैं, जिनके सरलीकृत उत्तर नहीं दिए जा सकते। यदि हम एक प्रौढ़ समाज हैं, तो हमें इन प्रश्नों से बिल्कुल बचना नहीं चाहिए और ईमानदारी से इनसे जूझने की कोशिश करनी चाहिए। मैंने इस मुश्किल समय में भारत राज्य की विभिन्न संस्थाओं के प्रदर्शन को समझने की कोशिश की है और मेरी अब तक की समझ बनी कि उनका प्रदर्शन मिला-जुला सा ही है। पिछली लहर के मुकाबले चिकित्साकर्मियों के सुरक्षा परिधान या पीपीई की स्थिति बेहतर है, इसलिए वे मरीजों के करीब जाने में कम परहेज कर रहे हैं। एंबुलेंस की उपलब्धता भी पहले से अधिक है, पर उनकी लूट भी अधिक है। महानगरों में औसतन मरीजों को एक ट्रिप का छह से 10 हजार रुपये तक भुगतान करना पड़ रहा है। अस्पतालों में बिस्तर खासतौर से आईसीयू में मुश्किल से मिल पा रहे हैं। सिफारिश और पैरवी में यकीन रखने वाला हमारा राष्ट्रीय चरित्र पूरी तरह से मुखर है। इसी तरह, जरूरी दवाओं और ऑक्सीजन में कालाबाजारी भी जारी है। कुल मिलाकर, आप कह सकते हैं कि यदि राज्य अपनी आधारभूत संरचना में अपेक्षित सुधार कर पाया होता, तो उससे जुड़ी संस्थाओं का प्रदर्शन कहीं बेहतर रहा होता। 

पुलिस आपातकाल में किसी भी राज्य की सबसे दृश्यमान भुजा होती है। मेरी दिलचस्पी महामारी के दौर में उसकी बनती-बिगड़ती छवि को समझने में अधिक है, इसलिए मैं ध्यान से अखबारों और चैनलों को स्कैन करता रहता हूं। मेरी समझ है कि इस बार उसका प्रदर्शन कहीं बेहतर है। एक बड़ा कारण तो शायद यह है कि पिछले बार के खराब ‘ऑप्टिक्स’ से सबक लेते हुए राज्य ने प्रवासियों को उनके रोजगार वाले शहरों में जबरदस्ती रोकने की कोशिश नहीं की। उसे समझ आ गया कि खाने, पीने या रहने की व्यवस्था करने में असमर्थ लोगों के लिए यदि उसने ट्रेनें या सड़क यातायात  जबरिया बंद करने की कोशिश की, तो गरीब-गुरबा पिछले साल की तरह पैदल ही अपने गंतव्य की तरफ निकल पड़ेंगे। पिछली बार वे निकले, तो उन्हें रोकने का काम स्वाभाविक ही पुलिस को करना पड़ा। वह जितना अमानवीय निर्णय था, उतना ही अमानवीय इसे लागू कराने का तरीका साबित हुआ। सारी छीछालेदर पुलिस की हुई। इस बार न तो पलायन को रोकने का प्रयास हुआ और न ही अतिरिक्त उत्साह में कफ्र्यू लगाए गए, लिहाजा बहुत सी अप्रिय स्थितियों से पुलिस बच गई। पिछली बार की ही तरह इस बार भी कई मानवीय करुणा और मदद के लिए बढ़े हाथों की गाथाएं पढ़ने-सुनने को मिलीं। पिछली लहर में मीडिया ने उन्हें प्रचारित किया था, इसलिए स्वाभाविक है, इस बार बहुत सारे पुलिसकर्मी उनसे प्रेरित हुए हों। कुल मिलाकर, अभी तक तो एक संस्था के रूप में पुलिस का प्रदर्शन ठीक-ठाक ही लग रहा है। महामारी जैसी विपदा हमें कुछ दीर्घकालीन सीखें भी दे सकती है। मसलन, यदि पुलिस प्रशिक्षण में कुछ बुनियादी परिवर्तन हो सकें, तो इस तरह की किसी अगली आपदा में वे बेहतर भूमिका निभा सकेंगे। जिस तरह हमने प्रकृति के साथ छेड़छाड़ कर रखी है, उसके नतीजे में हमें हर दशक ऐसी आपदाओं की प्रतीक्षा करनी चाहिए। नए प्रशिक्षण कार्यक्रमों के जरिए पुलिसकर्मियों को समझाना होगा कि 1860 के दशक में जब वे खड़े किए गए थे, तब चुनौतियां बिल्कुल भिन्न थीं। आज सिर्फ चोरी, डकैती या हत्या उनकी चिंता नहीं हो सकती। सामान्य समय और मुश्किल वक्तों की पोलिसिंग की अपेक्षाएं व प्रदर्शन भिन्न होंगे। वैसे तो यह स्वास्थ्य सेवाओं जैसे दूसरे क्षेत्रों के लिए भी जरूरी है, लेकिन पुलिस बल के लिए यह सोच इसलिए अधिक महत्वपूर्ण है कि उसमें सेवा काल में थोडे़-थोड़े अंतराल पर प्रशिक्षण की अवधारणा पहले से मौजूद है। महामारी के दौरान मरीजों की शिनाख्त से लेकर उन्हें अस्पताल पहुंचाने तक में उसका रोल हो सकता है। रास्ते में जीवन रक्षक उपायों के लिए उन्हें प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। एक अपराधी और बीमार मनुष्य के व्यवहार में जमीन-आसमान का फर्क होता है और स्वाभाविक ही है कि उसकी अपेक्षाएं भी भिन्न होंगी। एक औसत पुलिसकर्मी को अपने व्यवहार में बड़े परिवर्तनों के लिए तैयार होना चाहिए। इसके लिए नए तरह के प्रशिक्षण कार्यक्रमों की जरूरत होगी। कोरोना की इन दोनों लहरों से प्राप्त अनुभवों को प्रशिक्षण के पाठ्यक्रम में शरीक किया जाना चाहिए। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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Monday, April 19, 2021

निजी कंपनियों की बड़ी जिम्मेदारी (हिन्दुस्तान)

अरुण मायरा, पूर्व सदस्य, योजना आयोग  

भारत को आने वाले दिनों में एक बड़ा काम करना है। उसे अपनी अर्थव्यवस्था ‘फिर से बेहतर’ बनानी है, जो कोविड महामारी के पहले भी अच्छी तरह काम नहीं कर रही थी। देश में न तो पर्याप्त रोजगार पैदा हो रहे थे, और न कामगारों व किसानों की आमदनी बढ़ रही थी। लोगों को भी अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिल पा रही थीं। बेशक, सरकार के हाथ तंग हैं, पर उसे ऐसे रास्ते खोजने होंगे कि सार्वजनिक सेवाओं के लिए पैसों की कमी न होने पाए। पूंजी जुटाने के लिए ही सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों (पीएसई) का निजीकरण किया जा रहा है, और ऐसी निजी कंपनियां खोजी जा रही हैं, जो इनको अधिक कुशलता से चला सकें।

पिछले महीने अमेरिका के प्रतिभूति और विनिमय आयोग (एसईसी) ने यह कहा कि ईएसजी (पर्यावरण, सामाजिक व शासकीय) संकेतकों के मुताबिक तमाम सूचीबद्ध कंपनियों को अब अपने सर्वांगीण प्रदर्शन की जानकारी साझा करनी होगी, यानी यह बताना होगा कि पर्यावरण और सामाजिक हालात पर उनके कारोबार का क्या प्रभाव पड़ रहा है। सिर्फ आर्थिक लेखा-जोखा (राजस्व-वृद्धि, लाभ व शेयरधारक मूल्य) से वे अपनी जिम्मेदारियों से नहीं बच सकतीं। सभी उद्यमों को इस मामले में पारदर्शी होना ही चाहिए कि वे समाज के लिए क्या कर रहे हैं? एसईसी समझ गया है कि कंपनियों के व्यापक सार्वजनिक उद्देश्यों को आधिकारिक जामा पहनाने का वक्त आ गया है। ‘कुल शेयर धारक रिटर्न’ अब कंपनी की सेहत का अच्छा मापक नहीं है, और न ही सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी)अर्थव्यवस्था का।

अगर इस महामारी ने वैश्विक समस्याएं हल करने वालों को कोई सबक सिखाया है, तो वह यह कि लॉकडाउन और वैक्सीन जैसे सख्त उपायों के दुष्प्रभावों से सावधान रहने की जरूरत है। ये समस्या का जितना समाधान नहीं करते, उससे अधिक तंत्र की सेहत बिगाड़ देते हैं। इसीलिए, केंद्र सरकार अर्थव्यवस्था के लिए वैसी दवा न ढूंढ़े, जिसके दुष्प्रभाव हमें पहले से पता हैं।

भले ही, निजीकरण से सरकार को जरूरी पैसे मिल सकते हैं, पर इसकी रूपरेखा और सीमा को दुरुस्त किए बिना ऐसा करना अर्थव्यवस्था व समाज को कई रूपों में नुकसान पहुंचाएगा। निजीकरण दवा का ऐसा ‘हाई डोज’ है, जिसका इस्तेमाल मार्गरेट थैचर ने ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के लिए किया था, पर राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा को इससे बाहर रखा गया था। निजी स्वास्थ्य सेवा जैसी दवा की लत तो अमेरिका को है, जिसकी गड़बड़ियां लंबे समय से जगजाहिर हैं और कोविड महामारी के दौरान यह कहीं अधिक गहरी होती दिखीं। अपने यहां कई सार्वजनिक उपक्रमों की सेहत ठीक करनी होगी, और निजी उद्यमों की सार्वजनिक जवाबदेही में सुधार लाना होगा। इसके लिए एक बेहतर व्यवस्था बनाना आवश्यक है। मसलन, उद्यम ऐसे होने चाहिए, जो अपने तमाम संसाधनों का कुशलतापूर्वक इस्तेमाल करें और सार्वजनिक जरूरतों के मुताबिक बेहतर प्रदर्शन भी करें। इसकी रूपरेखा बनाई भी गई है। करीब 10 साल पहले जिम्मेदार उद्यमियों ने भारतीय कंपनियों के लिए ‘नेशनल वॉलंटरी गाइडलाइन्स’ (स्वैच्छिक राष्ट्रीय कार्ययोजना) बनाई थी। लगभग उसी समय, दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी सार्वजनिक उद्यमों के प्रशासनिक कामकाज में सुधार के लिए ‘एगेनफिकेशन’ (सरकारी दखलंदाजी से मुक्त अद्र्ध-सरकारी संस्था) की सिफारिश की थी। वित्तीय और सामाजिक क्षेत्रों से भी ‘सामाजिक उद्यमों’ की नई अवधारणाएं उभर रही हैं। ऐसे में, हमें सार्वजनिक कंपनियों को निजी हाथों में सौंपने से पहले इन नई अवधारणाओं पर गौर करना चाहिए। सार्वजनिक उद्देश्यों को पूरा करने वाली पेशेवर कंपनियां तीन स्तंभों पर टिकी होनी चाहिए। पहला, उद्देश्यों में पारदर्शिता। उद्यम चाहे सरकारी हों या निजी, उनका एकमात्र मकसद लाभ कमाना और निवेशकों की संपत्ति को बढ़ाना नहीं हो सकता। लक्ष्य व उसकी रूपरेखा साफ-साफ परिभाषित होनी चाहिए और कंपनियों व उनके कर्ता-धर्ताओं के प्रदर्शन को परखने का अधिकार जनता को मिलना चाहिए।

दूसरा, कंपनी के प्रबंधकों को इतनी आजादी होनी चाहिए कि लक्ष्य को पाने का वे सर्वोत्तम रास्ता खोज सकें। इसमें नौकरशाहों का दखल न हो। हां, एक स्वतंत्र बोर्ड द्वारा इनकी निगरानी की जा सकती है। और तीसरा स्तंभ है, सामाजिक मूल्यों के मुताबिक उन सीमाओं का निर्धारण करना, जिनके भीतर बोर्ड अपनी स्वतंत्रता का इस्तेमाल कर सके। आर्थिक फैसलों व मानव संसाधन के प्रबंधन के लिए भी व्यापक दिशा-निर्देश जरूरी हैं। निजी कंपनियों को अपने आर्थिक फैसले समझदारी से लेने होंगे। हालांकि, आर्थिक उदारीकरण के कारण एग्जीक्यूटिव पे (कार्यकारी स्तर के अधिकारियों के वेतन-भत्ते) पर नियंत्रण किया जाता रहा है। इसने पिछले 30 वर्षों में निजी कंपनियों के सीईओ (या अन्य शीर्ष अधिकारी) व कामगारों की आय की खाई दस गुना से अधिक बढ़ा दी है। बेशक, शीर्ष अधिकारियों के पास ज्यादा जिम्मेदारी होती है और किसी कंपनी के समग्र प्रदर्शन में वे कहीं ज्यादा योगदान दे सकते हैं। मगर यह समझ से परे है कि पिछले तीन दशकों में उन्होंने भला कैसे कंपनी के हित में दस गुना अधिक मूल्य जोड़ना शुरू किया है। वित्तीय नियंत्रकों द्वारा संचालित कंपनियां बहुत दिनों तक काम की नहीं रहतीं, हालांकि उनसे अल्पकालिक फायदा हो सकता है। इन दिनों देश की अर्थव्यवस्था मुख्यत: केंद्रीय बैंकों और वित्त मंत्रालयों द्वारा चलाई जा रही है, जिसमें धन व वित्त का प्रबंधन आर्थिक सिद्धांतों के मुताबिक होता है। वित्तीय प्रबंधन से कतई इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन कंपनियों व देशों के प्रबंधकों का यही अंतिम लक्ष्य नहीं होना चाहिए। सभी निजी कंपनियां अपने लाभ के लिए सार्वजनिक संसाधनों का उपयोग करती हैं, जबकि उनको इसके लिए जवाबदेह नहीं बनाया जा सकता। जैसे, भारत की सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों का उल्लेखनीय आर्थिक प्रदर्शन सरकार द्वारा वित्त-पोषित शैक्षणिक संस्थानों के कारण हुआ था, जहां से उन्हें उच्च गुणवत्ता के संसाधन बहुत कम लागत में मिल गए थे। लिहाजा हमें इन नैतिक सवालों का जवाब ढूंढ़ना ही होगा कि 21वीं सदी में खरे उतरने वाले उद्यमों की रूपरेखा क्या हो? किसके लिए हमारे कथित पूंजी-निर्माता (यानी कारोबारी) धन पैदा करते हैं? इस पूंजी को बनाने में वे किन संसाधनों का इस्तेमाल करते हैं? और इसका कितना हिस्सा वे समाज को लौटाते हैं (और कब), और कितना हमारी अर्थव्यवस्था के कैशियर होने के नाते वे अपने पास रखते हैं?

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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Saturday, April 17, 2021

ताकि शिक्षा का स्तर गिरने न लगे (हिन्दुस्तान)

हरिवंश चतुर्वेदी, डायरेक्टर, बिमटेक 


कोरोना की मार से कोई भी क्षेत्र बच नहीं पाएगा। भारत की उच्च शिक्षा इससे अभी तक उबर नहीं पाई है। अब सामने फिर संकट खड़ा हो गया है। सीबीएसई द्वारा 12वीं की परीक्षाओं को स्थगित करने और 10वीं की परीक्षाओं को निरस्त करने के फैसले के बाद भारत की उच्च शिक्षा और डिग्री कक्षाओं में दाखिले की व्यवस्था पर अनिश्चितता और संकट के बादल छाते दिखते हैं। यह फैसला इतना महत्वपूर्ण था कि प्रधानमंत्री मोदी को भी इस पर होने वाले विमर्श में शामिल होना पड़ा। सीबीएसई बोर्ड की परीक्षाओं में कुल मिलाकर, 35 लाख विद्यार्थी बैठते हैं। देश के राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों की बोर्ड परीक्षाओं में करोड़ों छात्र बैठते हैं। इन सभी माध्यमिक शिक्षा बोर्डों को अब फैसला लेना होगा कि वे परीक्षाएं लेंगे या नहीं और अगर लेंगे, तो कब लेंगे। यह फैसला लेना आसान नहीं होगा। इसे लेने में एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई जैसी स्थिति है। कोरोना की खतरनाक दूसरी लहर ठीक ऐसे वक्त पर आई है, जब 12वीं पास करके करोड़ों विद्यार्थियों को अपने भविष्य का रास्ता चुनना है। देश के तमाम राज्यों के माध्यमिक शिक्षा बोर्ड भी सीबीएसई के फैसले को एक मॉडल मानकर या तो 12वीं की परीक्षाएं स्थगित करेंगे या फिर स्थिति अनुकूल होने की दशा में परीक्षाएं संचालित करने की तिथि घोषित करेंगे। क्या गारंटी है कि 1 जून तक कोरोना की खतरनाक दूसरी लहर थम जाएगी और जून-जुलाई में परीक्षाएं हो पाएंगी? अभी तक हम यह नहीं सोच पाए हैं कि 16 वर्ष और उससे अधिक आयु के युवाओं को वैक्सीन देनी चाहिए या नहीं, जबकि अमेरिका एवं यूरोपीय देशों में स्कूली व विश्वविद्यालय छात्रों को वैक्सीन लगाने पर गंभीर विचार किया जा रहा है। 12वीं की परीक्षाएं जून-जुलाई में आयोजित करने पर यह खतरा सामने आएगा कि कहीं लाखों युवा विद्यार्थी परीक्षा केंद्रों पर कोविड संक्रमण के शिकार न हो जाएं। क्या हम सभी विद्यार्थियों को वैक्सीन नहीं लगा सकते?

अगले दो-तीन महीने में इंजीनिर्यंरग, मेडिकल और लॉ की अखिल भारतीय प्रतियोगी परीक्षाएं भी होनी हैं। देखते हैं, कोरोना की दूसरी लहर इनके आयोजन पर क्या असर डालती है? अगर 12वीं की परीक्षाएं आयोजित नहीं हो पाएंगी, तो पिछले दो वर्षों के आंतरिक मूल्यांकन का सहारा लेकर रिजल्ट बनाए जा सकते हैं। पिछले एक साल से सारी पढ़ाई ऑनलाइन आधार पर हुई। इस पढ़ाई में डिजिटल असमानता का गहरा असर दिखाई दिया था। 12वीं के विद्यार्थियों का बहुत बड़ा वर्ग ऐसा था, जिसके पास घर में कंप्यूटर, लैपटॉप और स्मार्टफोन नहीं थे। जो अन्य बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित थे। पिछले एक साल के आंतरिक मूल्यांकन को आधार बनाने से निम्न मध्यवर्ग और गरीब परिवारों के बच्चे निस्संदेह दाखिले की दौड़ में पीछे रह जाएंगे। बिल गेट्स का कहना है कि यह महामारी वर्ष 2022 के अंत तक हमारा पीछा नहीं छोडे़गी। कोविड इस सदी की आखिरी महामारी नहीं है। क्या हमें अपनी शिक्षा-व्यवस्था में ऐसे बदलाव नहीं करने चाहिए, जो उसे आपदाओं और महामारियों का मुकाबला करने के लिए सक्षम बना सकें? क्या हमारे स्कूलों, कॉलेजों व यूनिवर्सिटियों के शिक्षकों, कर्मचारियों एवं विद्यार्थियों को आपदा-प्रबंधन के लिए प्रशिक्षित नहीं किया जाना चाहिए? क्या शिक्षा परिसरों का ढांचा इस तरह नहीं बनाना चाहिए कि महामारी व प्राकृतिक आपदा की स्थिति में भी पढ़ाई-लिखाई में कोई बाधा न पैदा हो? क्या कॉलेज परिसरों में सामान्य बीमारियों से बचाव की स्वास्थ्य सेवाएं हर समय उपलब्ध नहीं होनी चाहिए? दर्जनों आईआईटी, एनआईटी व आईआईएम संस्थानों में कोविड के बढ़ते प्रकोप से तो यही जाहिर होता है कि हमारे परिसरों में आपदा प्रबंधन न के बराबर है। कोविड-19 की महामारी ने हमारी स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा की एक बड़ी कमजोरी की ओर इशारा किया है, वह है वार्षिक परीक्षाओं पर अत्यधिक निर्भरता। 21वीं सदी के शिक्षा शास्त्र के अनुसार, विद्यार्थियों के मूल्यांकन की यह प्रणाली अपनी अर्थवत्ता खो चुकी है। आधुनिक शिक्षा शास्त्रियों के अनुसार, वर्ष के अंत में खास अवधि के दौरान लाखों विद्यार्थियों की परीक्षा लेना इनके मूल्यांकन का सही तरीका नहीं है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 में जिन परीक्षा सुधारों की सिफारिश की गई है, उनमें वर्ष भर चलने वाले मूल्यांकन पर जोर दिया गया है। इसमें कक्षा-कार्य, गृहकार्य, मासिक टेस्ट, प्रोजेक्ट वर्क आदि शामिल हैं। बोर्ड परीक्षाएं युवा विद्यार्थियों के मूल्यांकन का श्रेष्ठ तरीका नहीं हैं। साल भर की पढ़ाई-लिखाई का तीन घंटे की परीक्षा द्वारा किया गया मूल्यांकन कई जोखिमों से भरा है। बोर्ड की परीक्षाएं हमारे किशोर विद्यार्थियों पर मशीनी ंढंग से रट्टा लगाने, ट्यूशन पढ़ने और किसी भी तरह ज्यादा से ज्यादा माक्र्स लाने का मनोविज्ञानिक दबाव पैदा करती हैं। इसने स्कूलों की पढ़ाई की जगह एक अति-संगठित ट्यूशन उद्योग को जन्म दिया है, जो अभिभावकों पर लगातार बोझ बनता जा रहा है। विश्लेषण क्षमता, रचनात्मकता, नेतृत्वशीलता, नवाचार जैसे गुणों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। युवाओं के मानसिक व शारीरिक विकास केलिए यह घातक है। परीक्षाफल निकलने पर हर साल होने वाली आत्महत्याएं इसका प्रमाण हैं। बोर्ड परीक्षाओं के मौजूदा स्वरूप को बुनियादी ढंग से बदलने का वक्त आ गया है। हमें साल भर चलने वाले सतत मूल्यांकन को अपनाना होगा, जिसमें विद्यार्थियों की प्रतिभा और परिश्रम का बहुआयामी मूल्यांकन हो सके। भविष्य में भी आपदाओं व महामारियों के कारण शिक्षा परिसरों को बंद करना पड़ सकता है। कई कारणों से ऑनलाइन शिक्षण और परीक्षाएं करनी पड़ेंगी। हमें हर शिक्षक, विद्यार्थी को लैपटॉप, पीसी या टैबलेट से लैस करना पडे़गा। हर घर में इंटरनेट की व्यवस्था होनी चाहिए। कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में प्रवेश की मौजूदा प्रक्रिया गरीबों व धनवानों के बच्चों में भेद नहीं करती। क्या हमें साधनहीन, पिछडे़ वर्गों और क्षेत्रों से आने वाले विद्यार्थियों को प्रवेश में अलग से प्राथमिकता नहीं देनी चाहिए? जेएनयू व कुछ केंद्रीय विश्वविद्यालयों में इस प्रगतिशील प्रवेश व्यवस्था के अच्छे परिणाम निकले हैं। यह दुर्भाग्य की बात है कि अभी तक अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा सभी को देना हमारे देश की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं है। कोरोना की मार से जूझते हुए भी दुनिया के कई देश अपने विद्यार्थियों को डिजिटल साधन देने के साथ-साथ एक सुरक्षित शिक्षा परिसर दे पाए हैं। इन देशों में पढ़ाई-लिखाई की व्यवस्थाएं फिर से सामान्य हो चुकी हैं। हमें भी उन देशों से कुछ सीखना चाहिए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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Monday, April 12, 2021

महामारी की रात में कर्फ्यू के मायने (हिन्दुस्तान)

 हरजिंदर, वरिष्ठ पत्रकार 

यह बात पिछले साल 14 अक्तूबर की है। कोरोना वायरस संक्रमण के तेज प्रसार और उसकी वजह से मरने वालों की बढ़ती संख्या को देखते हुए फ्रांस ने तय किया कि वह पेरिस और आस-पास के इलाके में रात का कर्फ्यू लगाएगा। संक्रमण रोकने का काम ढीले-ढाले लॉकडाउन के हवाले था, इसलिए लगा कि रात्रिकालीन कर्फ्यू से शायद कुछ बड़ा हासिल किया जा सकेगा। पेरिस जिस तरह का शहर है और पश्चिमी देशों में जैसी संस्कृति है, उसके चलते यह कर्फ्यू अर्थपूर्ण भी लग रहा था।

वहां लोग दिन भर अपने काम-धंधे में जुटते हैं, जबकि शाम का समय मौज-मस्ती और मनोरंजन का होता है। लोग पार्टी करते हैं, नाइट क्लब, बार, थिएटर वगैरह में जाते हैं। ऐसी जगहों पर भारी भीड़ भी जुटती है और लगातार रिपोर्टें मिल रही थीं कि थोड़ी ही देर बाद वहां न लोगों को मास्क लगाने का ख्याल रहता है और न ही सामाजिक दूरी का कोई अर्थ रह जाता है। कहा जा रहा था कि ये जगहें कभी भी कोरोना संक्रमण की ‘हॉट-स्पॉट’ बन सकती हैं, या शायद बन भी चुकी हैं। ऐसे में, रात का कर्फ्यू दिन भर लगने वाली पाबंदी से ज्यादा बेहतर था। तब तक यह समझ में आ चुका था कि दिन भर की पाबंदियां संक्रमण तो नहीं रोकतीं, अलबत्ता अर्थव्यवस्था को जरूर ध्वस्त कर देती हैं। अर्थव्यवस्था पहले ही बुरी हालत में पहुंच चुकी थी, इसलिए रात के कर्फ्यू में समझदारी दिखाई दे रही थी।

ऐसा भी नहीं है कि रात के कर्फ्यू का यह पहला प्रयोग था। ऐसे कर्फ्यू दुनिया भर में लगते रहे हैं। दूर क्यों जाएं, भारत में ही तनावपूर्ण हालात में कई जगहों पर रात का कर्फ्यू लगाया जाता रहा है। एक समय वह था, जब ऑस्ट्रेलिया में रात को होने वाले अपराधों की वजह से वहां रात्रिकालीन कर्फ्यू लगाया गया था। लेकिन यह पहली बार हुआ, जब किसी महामारी को रोकने के लिए रात के कर्फ्यू का इस्तेमाल हो रहा था। जल्द ही फ्रांस में इसमें एक नई चीज जोड़ दी गई। जब रात की मस्ती को सरकार ने छीन लिया, तो पाया गया कि शाम ढले अपने-अपने घर में बंद हो जाने वाले लोग शनिवार-रविवार की साप्ताहिक छुट्टी के दौरान समुद्र तटों पर भारी संख्या में पहुंच रहे हैं। वहां भी जब संक्रमण के नए हॉट-स्पॉट की आशंका दिखी, तो ‘वीकेंड कर्फ्यू’ लागू कर दिया गया। इस तरह के सारे कर्फ्यू की आलोचना भी हुई और संक्रमण रोकने में वह कितना कारगर है, यह भी विवाद के घेरे में रहा। यह भी कहा गया कि किसी वायरस को आप सरकारी पाबंदियों और प्रशासनिक सख्ती से नहीं रोक सकते। जब पेरिस के बाजार रात नौ बजे बंद होने लगे, तब पाया गया कि शाम सात-आठ बजे के आसपास बाजार में भीड़ अचानक बढ़ने लग जाती है। तब एक साथ महामारी के प्रसार और अर्थव्यवस्था के संकुचन से जूझ रही दुनिया को फ्रांस की इस कोशिश में उम्मीद की एक किरण दिखाई दी। एक के बाद एक कई देशों ने इसे अपनाया। रात का कर्फ्यू जल्द ही इटली, स्पेन, ब्रिटेन और जर्मनी होता हुआ अमेरिका के कई शहरों तक पहुंच गया। 

कोरोना संक्रमण में हम अभी तक यही समझ सके हैं कि इसका ग्राफ तेजी से ऊपर बढ़ता है और एक बुलंदी तक जाने के बाद उतनी ही तेजी से नीचे आने लगता है। इसलिए हम ठीक तरह से या पूरे दावे से यह नहीं कह सकते कि बाद में इस संक्रमण पर जो कथित नियंत्रण हासिल हुआ, वह वास्तव में था क्या? वह ‘ट्रेस, टेस्ट ऐंड आइसोलेट’, यानी जांच, संपर्कों की तलाश और उन्हें अलग-थलग करने की रणनीति का परिणाम था या उस सतर्कता का, जो आतंक के उस दौर में लोगों ने बरतनी शुरू कर दी थी? इसी तरह, यह स्वास्थ्य सेवाओं की सक्रियता का नतीजा था या फिर उस कर्फ्यू का, जिसका मकसद था, जरूरत से ज्यादा लोगों के एक जगह जमा होने पर रोक लगाना? इनका जवाब हम ठीक से नहीं जानते, इसलिए थोड़ा श्रेय कर्फ्यू को भी दिया ही जाना चाहिए, और दिया भी गया। ठीक यहीं हमारे सामने भारत में लागू वह 68 दिनों का लॉकडाउन भी है, जिसे दुनिया का सबसे सख्त लॉकडाउन कहा जाता है, और वह संक्रमण का विस्तार रोकने में नाकाम रहा था। अब जब कोरोना वायरस ने भारत पर पहले से भी बड़ा हमला बोला है, तब रात का कर्फ्यू हमारे देश के दरवाजे भी खटखटा रहा है। इस नए संक्रमण से जब सरकारों की नींद खुली है, तो उन्हें भी रात के कर्फ्यू में ही एकमात्र सहारा दिखाई दे रहा है। लॉकडाउन की तरह से इसमें आर्थिक जोखिम कम हैं, इसलिए अदालतें भी इसी की सिफारिश कर रही हैं। रात के कर्फ्यू के साथ ही ‘वीकेंड लॉकडाउन’ भी भारत पहुंच गया है। निराशा के कर्तव्य की तरह एक-एक करके सारे राज्य इन्हें अपनाते जा रहे हैं। लेकिन समस्या यह है कि जिस ‘नाइट लाइफ’ को नियंत्रित करने के लिए रात के कर्फ्यू की शुरुआत हुई थी, वह जीवनशैली तो भारत में सिरे से गायब है। लोग जहां रात को भारी संख्या में जमा होते हों, ऐसे आयोजन भारत में बहुत कम होते हैं। ऐसा या तो बड़ी शादियों में होता है या फिर देवी जागरण जैसे आयोजनों में, फिलहाल इन दोनों ही तरह के बड़े आयोजन बंद हैं। इसलिए यह बहुत स्पष्ट नहीं हो रहा है कि रात के कर्फ्यू से वायरस पर निशाना कैसे सधेगा? हमारे यहां राजनीतिक रैलियों और मेलों जैसे कई आयोजन ज्यादा बड़े होते हैं, जिनमें भारी भीड़ जुटती है। यह बात अलग है कि अभी तक इनके जरिए संक्रमण फैलने की कोई बात सामने नहीं आई है, लेकिन इनके निरापद होने की भी कोई गारंटी नहीं है। इसलिए संकट से निपटने के हमें अपने तरीके खोजने होंगे। पश्चिम की दवाइयां भले ही काम आ जाएं, लेकिन उसके सामाजिक तरीके शायद हमारे लिए उतने कारगर नहीं होंगे।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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जंगल के लिए दांव पर लगा दी जिंदगी (हिन्दुस्तान)

 नंदादेवी कुंवर वन संरक्षक, नेपाल 

जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां  मुखड़ा शैलेंद्र ने राज कपूर की फिल्म मेरा नाम जोकर  के लिए लिखा था। लेकिन यह पंक्ति कितनों का जीवन दर्शन बन जाएगी, इसका अंदाज शायद न राज साहब को रहा होगा और न शैलेंद्र को। नंदादेवी कुंवर जैसों ने तो इसे सचमुच मानीखेज बना दिया। नेपाल के सुदूरपश्चिम सूबे में अछाम जिले के एक गरीब परिवार में पैदा नंदा महज 13 साल की थीं, जब उनकी शादी लक्ष्मण कुंवर से कर दी गई। उन्होंने इसका कोई विरोध नहीं किया, क्योंकि तब समाज का यही दस्तूर था। लड़कपन ने ठीक से दामन भी न छोड़ा था कि नंदा खुद मां बन गईं। चंद वर्षों के भीतर ही उनकी चार संतानें हुईं। नंदा और लक्ष्मण का अब एकमात्र लक्ष्य परिवार का भरण-पोषण था। दोनों काफी मेहनत करते, लेकिन छह सदस्यों के परिवार का गुजारा बहुत मुश्किल से हो पाता। उस पर सबसे छोटी बेटी लकवाग्रस्त पैदा हुई थी। देखते-देखते बच्चे बडे़ होने लगे। उनकी जरूरतें भी बढ़ रही थीं, मगर कमाई बढ़ने के आसार नहीं नजर आ रहे थे। पति-पत्नी ने जगह बदलने का फैसला किया और साल 1995 में वे रोजगार की तलाश में कैलाली आ गए।

कैलाली नेपाल का एक बड़ा जिला है। उम्मीद थी कि यहां जिंदगी कुछ आसान हो जाएगी। मगर यहां आए भी काफी दिन हो चले थे, हालात जस के तस बने हुए थे। पति जब भी नेपाल से बाहर निकलने की बात करते, नंदा छोटे-छोटे बच्चों का हवाला देकर उन्हें रोक लेतीं। इस तरह तीन साल और बीत गए। आखिरकार बीवी-बच्चों की बढ़ती तकलीफों से आहत होकर एक दिन लक्ष्मण कुंवर ने भारत का रुख कर लिया। पुणे में उन्हें जल्द ही चौकीदारी का काम मिल गया। वह हर महीने नंदा को कुछ पैसे भेजने लगे थे। पति के भारत आ जाने के बाद नंदा के लिए जिंदगी अधिक चुनौती भरी हो गई थी। वह कैलाली में ही मधुमालती सामुदायिक वन के करीब एक झोंपड़ी में परिवार के साथ रहने लगी थीं। वहां पहुंच उन्होंने मन ही मन तय कर लिया था कि अब जगह नहीं बदलेंगे। यहीं पर जिएंगे। धीरे-धीरे वह सामुदायिक वन प्रबंधन समिति की सक्रिय सदस्य बन गईं। दरअसल, वन नंदादेवी जैसे लोगों की जिंदगी में हमेशा उम्मीद बनाए रखते हैं। वनाश्रित परिवार न सिर्फ इन जंगलों से मवेशियों के लिए चारा और जरूरत की लकड़ियां पाते हैं, बल्कि इनसे हासिल मौसमी फल बेचकर घर-परिवार पालते रहे हैं। इसलिए वनों के साथ इनका रिश्ता काफी प्रगाढ़ होता है।

मधुमालती सामुदायिक वन लगभग 17.5 हेक्टेयर में फैला हुआ है, लेकिन समाज के लालची तत्वों की निगाह न सिर्फ इसके अन्य संसाधनों पर, बल्कि इसकी जमीन पर भी थी। वे आहिस्ता-आहिस्ता इसके अतिक्रमण में जुटे हुए थे। नंदादेवी जब मधुमालती वन प्रबंधन समिति की अध्यक्ष बनीं, तब उन्होंने इस वन से जुडे़ कई बड़े काम किए। सबसे पहले उन्होंने खाली जगहों पर खूब सारे पौधे लगवाए। नई-नई प्रजाति के पक्षियों और जानवरों का बसेरा बनवाया। फिर उन्होंने महसूस किया कि चूंकि यह वन संरक्षित नहीं है, इसीलिए जंगली जानवर आस-पास के गांवों में घुस आते हैं। नंदादेवी ने लोहे की बाड़ लगाकर इसे संरक्षित करने का फैसला किया। वन, वनोपज और वन्य-जीवों के हक में यह काफी अहम फैसला था, मगर लकड़ी तस्करों और भू-अतिक्रमणकारियों को यह नागवार गुजरा। एक सुबह जब कुछ लोग जंगल की जमीन अपने खेत में मिलाने की कोशिश कर रहे थे, नंदा ने उनका साहसपूर्वक विरोध किया। अतिक्रमणकारियों ने धारदार हथियारों से उन पर हमला बोल दिया। नंदा के दोनों हाथ बुरी तरह जख्मी हो गए। उनकी चीख-कराह सुन पड़ोसी दौड़कर पहुंचे, तब तक नंदा बेहोश हो चुकी थीं। उन्हें फौरन काठमांडू ले जाया गया। डॉक्टरों ने काफी मशक्कत की। दोनों हाथ के ऑपरेशन हुए, मगर मेडिकल टीम एक हाथ न बचा सकी। इस हमले ने शरीर के साथ-साथ मन को भी घायल कर दिया था। खासकर नंदा के बच्चे बुरी तरह भयभीत हो गए थे। मां पर इस्तीफे के लिए उनका दबाव बढ़ता गया। अंतत: नंदा ने इस्तीफा दे दिया। लेकिन इस बीच वन के प्रति उनकी निष्ठा और उनके साथ हुए हादसे की खबर नेपाल भर में फैल गई थी। सरकार उनके साथ खड़ी हुई, बल्कि ‘ऑर्किड’ की एक दुर्लभ किस्म की खोज करने वाले वनस्पति विज्ञानियों की सिफारिश पर इसका नाम नंदादेवी कुंवर पर ‘ओडोंचिलस नंदेई’ रखा गया। मधुमालती सामुदायिक वनक्षेत्र का नाम भी ‘मधुमालती नंदादेवी सामुदायिक वन’ कर दिया गया। तब अभिभूत नंदादेवी के अल्फाज थे, ‘मेरे प्रति समुदाय के लोगों ने जो विश्वास जताया, इसी के कारण मैं मधुमालती से कभी दूर न जा सकी। मैं इस वन से हमेशा प्यार करती रहूंगी।’ कई सम्मानों से पुरस्कृत नंदा के योगदान को विश्व बैंक ने भी सराहा। आज जब उत्तराखंड में जंगल धधक रहे हैं, तब हमें नंदादेवी सरीखे लोगों की कमी शिद्दत से महसूस होती है।

प्रस्तुति :  चंद्रकांत सिंह

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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