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-Rajeev Kumar (Editor-in-chief)

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Thursday, September 22, 2022

क्या पुतिन ने कोई सबक लिया ( हिन्दुस्तान)

पुरानी कहावत है- पासा न जाने कब पलट जाए? रूस-यूक्रेन युद्ध में यही हो रहा है। महीनों से पराभव झेलते यूक्रेन ने सफल पलटवार शुरू कर दिए हैं। हताश रूसी सेनाएं कई मोर्चों से पीछे हटी हैं। इससे उत्साहित कीव का सत्ता पक्ष अब क्रीमिया वापस लेने का दम भर रहा है। 


पश्चिमी मीडिया और कूटनीति-विशारदों का मानना है कि यदि रूस कुछ मोर्चे और गंवाता है, तो पुतिन की पहले से धुंधलाती छवि रसातल में चली जाएगी। इससे उन्हें सांघातिक झटका लग सकता है। अमेरिका और मित्र देशों द्वारा इस असंतोष को बढ़ावा देकर क्रेमलिन में सत्ता-पलट की कोशिशें भी की जा सकती हैं। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले दिनों पुतिन की कार से धमाके के बाद धुआं उठते देखा गया। इस रपट का दावा है कि यह रूसी राष्ट्रपति की जान लेने के इरादे से किया गया हमला था। अगर यह सच है, तो क्या किसी असंतुष्ट गुट ने ऐसा किया या पश्चिम की एजेंसियां कुछ साजिशें रच रही हैं? असलियत जो हो, पर क्या पुतिन को रास्ते से हटाना आसान है?

पुतिन पर 2017 में भी जानलेवा हमला हुआ था। वह हिंसक-अहिंसक साजिशों से निपटने में कामयाब रहे हैं, पर अधिक दबाव उन्हें अतिवादी प्रतिक्रिया के लिए प्रेरित कर सकता है। यह जगजाहिर है कि यूक्रेन में नाटो सीधे तौर पर भले न लड़ रहा हो, पर कीव की सारी नीतियां उसी के नियंता रच रहे हैं। इस हमले से नाराज स्वीडन और फिनलैंड ने भी नाटो की सदस्यता ग्रहण करने की मंशा जाहिर की है। जिस नाटो का प्रसार रोकने के लिए क्रेमलिन ने इतना खून बहाया, वह प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से रूस की सीमाओं तक जा पहुंचा है। तय है, यूक्रेन पर हमला उल्टा पड़ा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने चौतरफा घिराव और घरेलू मोर्चे पर धराशायी होने के भय से पुतिन कोई ऐसा कदम उठा लें, जिससे तीसरे महायुद्ध का खतरा उत्पन्न हो जाए!

कुछ विद्वानों की अवधारणा है कि परमाणु युग में विश्व-युद्ध संभव नहीं। यही लोग थे, जो कल तक जंग को इसी वजह से अतीत की बात बताते थे। उनकी पहली अवधारणा ध्वस्त हो चुकी है। अब क्या दूसरी की बारी है? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए हमें पिछली सदी में लौटकर देखना होगा कि वे कौन से हालात थे, जिन्होंने दूसरे महायुद्ध को जना? इतिहासकारों ने इसके चार कारण बताए हैं- वर्साय की संधि और उससे जनित जर्मनी का अपमान बोध, समूची दुनिया में आर्थिक उथल-पुथल, जर्मन राष्ट्रवाद के बहाने नाजीवाद का उत्कर्ष और तमाम विचारहीन गठबंधनों का उदय। आज परिस्थितियां कैसी हैं? 

द्वितीय विश्व-युद्ध के पहले जिस तरह अमेरिका आर्थिक रूप से जर्जर था, लगभग उसी तरह के दोहराव का शुब्हा वहां के अर्थशास्त्री जता रहे हैं। कुछ सप्ताह पूर्व अमेरिका में मुद्रास्फीति13 प्रतिशत के मारक स्तर तक पहुंच गई थी। मजबूरन, फेडरल रिजर्व (केंद्रीय बैंक) को ब्याज दर बढ़ानी पड़ रही है। इससे मुद्रास्फीति में लगभग पांच फीसदी की गिरावट आई है, पर अभी भी 8.3 फीसदी का स्तर बना हुआ है। आम आदमी को जब राहत मिलेगी, तब मिलेगी, पर उद्योग-धंधों का नुकसान तय है। इसी तरह, समूचा यूरोप अभूतपूर्व आर्थिक ढलान पर जा खड़ा हुआ है। ऊपर से रूस ने वहां बिजली और ऊर्जा की आपूर्ति सीमित कर दी है। नतीजतन, बिजली और पेट्रो उत्पादों के दाम दोगुने तक बढ़ गए हैं। महंगाई रोज नए कीर्तिमान बना रही है। दूसरे विश्व-युद्ध के बाद यह पहला अवसर है, जब एफिल टावर की लाइटें बुझा दी गई हैं। बार्सिलोना के फव्वारे रात को बिजली के बिना अपनी आभा बिखेरने में असमर्थ हैं। आर्थिक मंदी ने ही अमेरिका को अनेक नीतियों व लक्ष्यों को त्यागकर महायुद्ध में भाग लेने पर मजबूर किया था। इस समय तो समूचा यूरोप और अमेरिका बेहाल है। 

दूसरी तरफ, चीन की आर्थिक और सैन्य शक्ति निरंतर बढ़ती जा रही है। पिछले दशक में वह जापान को पीछे छोड़कर दुनिया की दूसरी आर्थिक शक्ति बन बैठा था। बीजिंग के समर्थक मानते हैं कि यह अमेरिकी प्रभुत्व का आखिरी दशक साबित होने जा रहा है। अभी से यह महादेश उत्पादन, निर्यात और स्वनिर्मित उत्पादों की बिक्री में शीर्ष पर है। इसी  अक्तूबर में शी जिनपिंग अगर अपना तीसरा कार्यकाल पाने में सफल हो जाते हैं, तो चीनी आक्रामकता के साथ अन्य देशों की लामबंदी में यकीनन बढ़ोतरी होगी। तेजी से पनपता नया शीतयुद्ध कब धधकते लावे में तब्दील हो जाए, कोई नहीं जानता। 

इससे हकबकाई दुनिया में तरह-तरह की संधियों की बाढ़ आ गई है। दो उदाहरण देता हूं। भारत और चीन सीमा-विवाद में उलझे हैं, पर ‘शंघाई सहयोग संगठन’ के  जरिये आतंकवाद सहित तमाम मुद्दों पर मिलकर मुकाबला करने की बात करते हैं। जापान ऐतिहासिक रूप से चीन के खिलाफ है, लेकिन उसने तमाम आर्थिक करार बीजिंग की हुकूमत के साथ कर रखे हैं। ऐसी दर्जनों संधियां या समझौते निरंतर आकार ले रहे हैं। आभासी दुनिया के इस दौर में इतनी विरोधाभासी अवधारणाओं का होना भला संकेत नहीं है। 

अब आते हैं राष्ट्रवाद पर। आपने डोनाल्ड ट्रंप के मुंह से सुना होगा- ‘अमेरिका फर्स्ट’। जिनपिंग कहते हैं, ‘चाइना फर्स्ट’। रूस यूक्रेन पर पुराने राष्ट्रीय गौरव की बहाली के लिए हमला करता है। यूके्रन अपने हजार साल पुराने राष्ट्रवाद के नाम पर उससे जूझता है। क्या यह अपशकुनी संकेत नहीं है? अपने राष्ट्र पर अभिमान रखना, उसे आगे बढ़ाना हर नागरिक और नेतृत्व का कर्तव्य है, लेकिन अगर राष्ट्रवाद ‘प्रॉपगैंडा’ का शिकार हो जाए, तो वह पहले देश के अंदरूनी ढांचे को कुतरता है। श्रीलंका और पाकिस्तान की घटनाएं इसकी गवाह हैं। यही नहीं, 6 जनवरी, 2021 को अमेरिका की ‘कैपिटल हिल’ में अराजक तत्वों ने कब्जा कर साबित कर दिया था कि उदंडता अगर सत्ता नीति का हिस्सा बन जाए, तो शानदार परंपराएं भरभरा जाती हैं। इस समय ऐसा बहुत कुछ है, जो 1930 के शुरुआती समय की याद दिलाता है। 


यहां भूलना नहीं चाहिए कि डिजिटल क्रांति ने जहां सूचनाओं का आदान-प्रदान सुगम और तीव्र किया है, वहीं ‘प्रॉपगैंडा’ को भी बढ़ावा दिया है। हम किस सूचना पर भरोसा करें और किसे दरकिनार कर दें, इसके मानक कुम्हलाते जा रहे हैं। ‘उत्तर सत्ययुग’ के दौर में कोई छोटी सी छोटी घटना बड़ी तबाही का आधार बन सकती है। जून 1914 में जब सर्बिया के आतंकवादियों ने ऑस्ट्रिया के राजकुमार आर्कड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड की हत्या की थी, तब उन्होंने सोचा नहीं होगा कि वे समूची दुनिया के अमन-चैन को तीली लगा रहे हैं। ध्यान रहे, तब सोशल मीडिया का प्रकोप भी नहीं था।

ऐसे में, समरकंद में हुई शंघाई सहयोग संगठन की बैठक की ओर दुनिया उम्मीद से देख रही है। यहां 18 राष्ट्र-नेताओं के साथ विश्व के सर्वाधिक महत्वपूर्ण नेताओं में से तीन- नरेंद्र मोदी, व्लादिमीर पुतिन और शी जिनपिंग मौजूद थे। क्या पुतिन ने इस बैठक से कोई सार्थक संदेश ग्रहण किया है? 



सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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संवाद में अपराध नहीं ( हिन्दुस्तान)

आज से करीब बारह साल पहले देश की राजनीति, सत्ता प्रतिष्ठान, उद्योग जगत और मीडिया को झकझोर देने वाला नीरा राडिया प्रकरण अब फिर चर्चा में है। सीबीआई ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट को बताया कि कई राजनेताओं, उद्योगपतियों और सरकारी अधिकारियों के साथ पूर्व कॉरपोरेट लॉबिस्ट नीरा राडिया की रिकॉर्ड की गई बातचीत की जांच में कोई अपराध नहीं पाया गया है। यह भी दिलचस्प है कि जांच रिपोर्ट साल 2015 में ही सौंप दी गई थी। सौंपी गई रिपोर्ट के नतीजे के बारे में अब जाकर पता चला है, तो इसका सीधा मतलब है कि विगत वर्षों में इस ‘हाई प्रोफाइल’ मामले में ज्यादा रुचि नहीं ली गई है। आमतौर पर ऐसे मामलों में कुछ सिद्ध करना कठिन होता है। किसी लाभ के लिए परस्पर संवाद, समन्वय बनाना और अपने हिसाब से फैसले कराने की कोशिश करना किसी अपराध की श्रेणी में तो नहीं कहा जा सकता। हर फैसले में असंख्य लोग शामिल होते हैं, हर फैसला किसी के लिए सही, तो किसी के लिए प्रतिकूल भी हो सकता है। अत: नीरा राडिया मामले में अगर सीबीआई को किसी अपराध के साक्ष्य नहीं मिले हैं, तो अचरज की बात नहीं।

वैसे नीरा राडिया मामले में अदालत में अक्तूबर से सुनवाई शुरू हो जाएगी, तो उसके पहले सीबीआई को शायद एक और स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने की जरूरत पड़ेगी। दरअसल, यह पूरा मामला मशहूर उद्योगपति रतन टाटा द्वारा दायर याचिका के चलते उठा है। साल 2010 में कुछ टेप लीक हुए थे और रतन टाटा ने ऑडियो टेप लीक होने की जांच की मांग की थी, उन्होंने उस लीक को अपनी निजता के अधिकार का उल्लंघन बताया था। इसके अलावा, एक गैर-सरकारी संगठन ‘सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन’ ने भी टेप की जांच के लिए दबाव डाला और मांग की थी कि टेप को सार्वजनिक किया जाए। ध्यान रहे, टेप किए गए संवादों की संख्या 5,800 है। यह भी दिलचस्प है कि ये टेप कर चोरी की निगरानी या जांच के लिए किए जा रहे थे। कर चोरी का मामला तो छोटा पड़ गया, जो प्रभु-वर्गीय लोगों की परस्पर बातचीत थी, वह प्रमुखता से सामने आ गई। यह भी ध्यान रखने की बात है कि इन परस्पर संवादों को अब 13-14 साल से ज्यादा बीत चुके हैं। 


देश में कॉरपोरेट लॉबिस्ट और गणमान्य लोग परस्पर कैसे-क्या बातें करते हैं, इसका अंदाजा तो सर्वोच्च न्यायालय को साल 2013 में ही हो गया था और लोगों के बीच भी वे संवाद सुर्खियों में रहे थे, लेकिन अब उनमें अपराध के सूत्र खोजना आसान नहीं है। मतलब, साक्ष्यों के अभाव में इस प्रकरण को आगे बढ़ाना अदालत पर ही निर्भर है। सर्वोच्च न्यायालय ने साल 2013 में सीबीआई जांच का आदेश देते हुए देश के प्रभु या प्रभावशाली वर्गों की परस्पर दुरभिसंधि की ओर इशारा किया था, लेकिन बाद में गंभीरता खत्म हो गई। वैसे अपने देश में सत्ता वर्ग और उसके आस-पास बहुत कुछ ऐसा होता है, जो नहीं होना चाहिए, लेकिन इन चीजों को रोकने के उपायों-साधनों की बड़ी कमी है। लोग भूले नहीं हैं, लगभग तीस साल पहले वोहरा समिति की रिपोर्ट संसद में पेश हुई थी, जिसमें अपराधी-नेता-अफसर की साठगांठ पर प्रकाश डाला गया था, लेकिन जमीन पर कुछ खास कार्रवाई नहीं दिखी थी। वस्तुत: किसी भी क्षेत्र में सुधार सामूहिक जिम्मेदारी है, तो हमें यह सोच लेना चाहिए कि किसी सुधार के लिए आम लोग स्वयं कितने लालायित हैं।  

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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आचरण की शुचिता ( हिन्दुस्तान)

नोएडा में अवैध रूप से बनी दो गगनचुंबी इमारतों को अदालती आदेश पर गिराए जाने का मंजर अभी जेहन से मिटा भी न था कि मुंबई हाईकोर्ट ने अब केंद्रीय मंत्री नारायण राणे के जुहू स्थित आठ मंजिला बंगले में हुए अवैध निर्माण को दो हफ्ते के भीतर तोड़ने का आदेश दिया है। अदालत ने उन पर 10 लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया है। रसूखदार लोगों के खिलाफ आ रहे ऐसे फैसलों के यकीनन दूरगामी असर होंगे। ऊंची अदालतों का रुख ऐसी अराजक गतिविधियों के खिलाफ कितना सख्त हो चला है, इसका अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने तक मोहलत की राणे की मांग भी नहीं मानी गई। इस फैसले का एक साफ संदेश है कि सत्ता के ऊंचे पदों पर बैठे लोग किसी मुगालते में न रहें कि कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। ऐसे न्यायिक निर्णय कानून के राज में जनता की आस्था मजबूत करते हैं। 

दुर्योग से, जिन लोगों से समाज को दिशा देने की अपेक्षा की जाती है, वे अब अपने विवादों से कहीं अधिक ध्यान खींचने लगे हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान को जर्मनी के फैं्रकफर्ट में कथित तौर पर विमान से उतारे जाने की बात सोशल मीडिया पर चंद मिनटों में वायरल हो गई। हालांकि, आम आदमी पार्टी ने इस पूरे प्रकरण को ‘प्रॉपगैंडा’ करार दिया है और उसकी विरोधी पार्टियां चटकारे ले-लेकर इस खबर को मीडिया में पेश कर रही हैं, मगर यह एक बेहद गंभीर मसला है। इसे राजनीतिक प्रहसन के रूप में कतई नहीं देखा जाना चाहिए। देश के प्रतिष्ठित सांविधानिक पदों पर बैठा हरेक व्यक्ति विदेशी जमीन पर किसी एक पार्टी या समुदाय का प्रतिनिधि नहीं होता, बल्कि वह पूरी भारतीय तहजीब की नुमाइंदगी कर रहा होता है। इसलिए जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को विदेशी सरजमीं पर अपने आचरण के प्रति खास सावधानी बरतने की जरूरत है। यह समूचे राजनीतिक वर्ग के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। 

इन दोनों प्रकरणों में हमारे राजनीतिक वर्ग के लिए बेहद जरूरी सबक हैं। राजनीतिक पार्टियां अक्सर दलील देती हैं कि चूंकि जनता ने चुनकर भेजा है, इसलिए वे मंत्री या मुख्यमंत्री हैं। यह बेहद लचर बचाव है। पार्टियां भूल जाती हैं कि मतदाताओं ने उनको जनादेश दिया था और वे उनसे साफ-सुथरी सरकार की उम्मीद करते हैं। जनता ने किसी को विजयी इसलिए बनाया, क्योंकि उसके सामने उन्होंने अपने प्रतिनिधि के तौर पर उसे ही उतारा था। ऐसे में, किसी भी जन-प्रतिनिधि के आचरण को लेकर संबंधित राजनीतिक दल की जवाबदेही अधिक है। विडंबना यह है कि इस पहलू पर सोचने के लिए कोई पार्टी तैयार नहीं। नतीजतन, विधायी संस्थाओं में दागियों की बढ़ती संख्या समूचे राजनीतिक वर्ग की साख लगातार धूमिल कर रही है। पल-पल बदलती राजनीतिक निष्ठा व प्रतिबद्धता के इस दौर में देश के भीतर पार्टियों को लज्जित होने और विदेश में देश को शर्मसार होने से बचाने के लिए बहुत जरूरी है कि वे अपनी सियासत में नैतिकता की पुनस्र्थापना करें। दागी और अगंभीर उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारने से पहले वे इसके गंभीर निहितार्थों पर विचार करें। भारतीय लोकतंत्र ऐसे उदाहरणों से दुनिया में सुर्खरू कतई नहीं हो सकता। 138 करोड़ की आबादी में से चंद हजार बाशऊर लोग यदि हमारे राजनीतिक दल नहीं ढूंढ़ पा रहे, तो वे देश को महान बनाने के दावे किस आधार पर कर सकेंगे?  



सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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Wednesday, September 14, 2022

चंद्र अभियान में देरी (हिन्दुस्तान)

नासा के चंद्र अभियान में आ रही बाधा से न केवल वैज्ञानिकों की व्यग्रता बढ़ रही है, बल्कि आधुनिक विज्ञान को लेकर सवाल भी उठने लगे हैं। क्या 50 साल पहले इस्तेमाल हुई तकनीक ज्यादा बेहतर थी और अब जिस तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है, वह यथोचित नहीं है? दो बार गैर-मानव अभियान टालने के बाद नासा ने घोषणा की है कि वह अंतरिक्ष में आर्टेमिस को लॉन्च करने का प्रयास करने के लिए दो तारीख, 23 सितंबर या 27 सितंबर पर विचार कर रहा है। आर्टेमिस अभियान की सफलता चंद्रमा और उससे आगे मानव अस्तित्व का विस्तार करने के लिए नासा की प्रतिबद्धता व क्षमता को प्रदर्शित करेगी। नासा को अपना मिशन मून, यानी आर्टेमिस-1 दोबारा टालना पड़ा था, क्योंकि दोबारा फ्यूल लीक की समस्या वैज्ञानिकों के सामने आ गई। कहने की जरूरत नहीं कि आर्टेमिस अभियान के जरिये वैज्ञानिक 50 साल बाद फिर से इंसानों को चांद पर भेजने की तैयारी कर रहे हैं। 2025 में मानव को फिर चांद पर भेजने की योजना है, पर  उससे पहले मानव रहित यान का चांद पर जाना व लौटना जरूरी है।  


आखिर अगली लॉन्चिंग के लिए इंतजार क्यों करना पड़ रहा है? तकनीक की तो अपनी समस्या है ही, इसके अलावा तारों की स्थिति को भी देखना पड़ता है, ताकि प्रक्षेपण के बाद यान सही जगह उतर सके और रास्ते में किसी दुर्घटना का शिकार न हो। अंतरिक्ष में भेजे जाने वाले किसी भी यान का उड़ान पथ धरती और चंद्रमा, दोनों के गुरुत्वाकर्षण पर भी निर्भर करता है। समायोजन ठीक होना चाहिए, तभी यान को टकराने से बचाया जा सकता है। इस हिसाब से अनुकूल स्थिति 19 सितंबर के बाद बनेगी। बहरहाल, बड़ी चुनौती ईंधन लीकेज को रोकना है। यह तो अच्छा है कि उड़ान से पहले ही लीकेज का पता चल जा रहा है और अभियान को टालकर यान व प्रक्षेपण यान की रक्षा की जा रही है। 50 साल पहले वाली तकनीक भले बहुत जटिल थी, पर तब सफलता मिली थी। अब तकनीक अत्याधुनिक है और ईंधन गुणवत्ता में भी परिवर्तन आया है, इसलिए महारत हासिल करने में थोड़ा वक्त लगेगा। वैज्ञानिक मान रहे हैं कि नासा ही नहीं, तमाम वैज्ञानिक बिरादरी को धैर्य रखना होगा।


अमेरिका के अलावा चीन भी अंतरिक्ष मिशन में दिलोजान से लगा है और उसकी हालिया सफलताएं आकर्षित कर रही हैं। चीन अभी नासा से पीछे है, पर गौर करने की बात है कि 2019 में चीन चंद्रमा के सबसे दूर क्षेत्र में एक अंतरिक्ष यान को सुरक्षित रूप से उतारने वाला पहला देश बन गया था। भारत के चंद्रयान-2 को अगर सफलता मिली होती, तो भारत भी होड़ में आगे रहता। गौरतलब है कि चंद्रयान-1 अभियान साल 2008 में सफल रहा था। उस यान के जरिये चांद की परिक्रमा करते हुए भारत ने चांद पर पानी के ठोस साक्ष्य हासिल किए थे। हमारे अभियान चंद्रयान-2 से बहुत उम्मीदें थीं, लेकिन अंत समय में यह चांद के करीब पहुंचकर क्रैश लैंडिंग का शिकार हुआ। बताया जाता है कि चंद्रयान-1 और चंद्रयान-2 के बीच तकनीकी परिवर्तन किया गया था। हमें यह ध्यान रखना होगा कि ऐसे अभियान बहुत महंगे होते हैं और इनकी सफलता पर सबकी निगाह होती। सफल तकनीक में आमूलचूल परिवर्तन के बजाय, उसे ही विकसित करना चाहिए। आज के समय में वैज्ञानिकों के बीच प्रतिस्पद्र्धा से भी ज्यादा जरूरी है एक-दूसरे से सीखना, तभी अंतरिक्ष विज्ञान में जल्दी सफलता मिलेगी और उसका लाभ सभी तक पहुंचेगा।


सौजन्य - हिन्दुस्तान।


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बेंगलुरु की चमक पर फिर गया पानी (हिन्दुस्तान)

पिछले हफ्ते बेंगलुरु वालों के दिन दुखदायी जलभराव के बीच बीते। चारों ओर ट्रैफिक जाम की स्थिति थी, सुरक्षित स्थान पर जाने के लिए संपन्न लोग ट्रैक्टर, बुलडोजर और नाव का सहारा ले रहे थे, फाइव स्टार होटल बुकिंग से भरे पड़े थे, और गरीब हमेशा की तरह अपने हाल पर छोड़ दिए गए।


इस दौरान नेतागण एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप में जुटे रहे। मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने पिछली कांग्रेस सरकार पर इसका ठीकरा फोड़ा और कहा कि बाढ़ की स्थिति ‘उसके कुप्रबंधन’ के कारण पैदा हुई। जवाब में विपक्ष ने भाजपा को निशाने पर लिया और राज्य में ‘राष्ट्रपति शासन’ लगाने की मांग की। यह टीका-टिप्पणी बहुत जल्द निरर्थक जंग में बदल गई। कुछ कांग्रेसी नेताओं ने तेजस्वी सूर्या के खिलाफ ट्विटर पर मोर्चा खोल दिया और आरोप लगाया कि भाजपा सांसद के पास डोसा खाने और उसके बारे में बताने, राहुल गांधी की पदयात्रा की आलोचना करने, हर चीज के लिए पंडित नेहरू को दोष देने का पर्याप्त समय तो है, लेकिन बाढ़ में घिरे लोगों को राहत पहुंचाने का वक्त नहीं है।

कुछ दृश्य वाकई अरुचिकर थे। आप कितनी बार अमीरों (लखपति नहीं, बल्कि करोड़पति) या नामचीनों के लिए यह सुनते हैं कि उन्हें अपने पांव को सूखा रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है? इसीलिए मर्सिडीज और ऑडी की जगह ट्रैक्टर और नाव ने ले ली थी। होसुर-सरजापुर रोड लेआउट (एचएसआर लेआउट) तो सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ, जो अमीरों का आवासीय क्षेत्र  और बेंगलुरु के इलेक्ट्रॉनिक सिटी का प्रवेश-द्वार माना जाता है। एप्सिलॉन व दिव्यश्री जैसे महंगे रिहायशी इलाके भी डूबे रहे। अनएकेडमी के सीईओ गौरव मंुजाल ने कहा कि उन्हें, उनके परिवार और पालतू कुत्ते को टैक्टर से बचाया गया। कई उद्यमियों और सीईओ को पानी में उतरते देखा गया।

इसकी वजह हमारे लिए कोई अबूझ नहीं है। जलवायु परिवर्तन, खराब शहरी नियोजन, खस्ता जल-निकासी व्यवस्था, भ्रष्ट प्रशासन, राजनेता व बिल्डर की जुगलबंदी, अनियोजित शहरी विस्तार, लालच आदि के कारण बेंगलुरु को इस तरह से डूबना-उतराना पड़ा। मानवीय संकट के अलावा, इसमें माल-असबाब का भी खूब नुकसान हुआ। करीब 25,000 कारें पानी में डूबीं, और यह अब तक साफ नहीं है कि उनमें से कितनी ठीक हो सकती हैं। गरीबों का सामान बहना तो और भी कष्टदायक रहा।

जलवायु परिवर्तन और उसका प्रभाव निस्संदेह इसका एक प्रमुख कारण है, हालांकि कई इससे अब भी इनकार करते हैं। आंकड़े बताते हैं कि बारिश की आवृत्ति, यानी बरसने की दर बढ़ी है। विशेषज्ञ मानते हैं कि जो परिघटनाएं पहले 200 साल में एक बार होती थीं, अब उनकी अवधि घटकर 100 साल हो गई है। और, जो घटना 100 साल में एक बार होती थी, अब 50 या 25 साल में होने लगी है। कुछ मौसमी परिघटनाएं तो अब हर साल घटने लगी हैं।

जलवायु परिवर्तन का असर विकसित और विकासशील सहित दुनिया भर के शहरों में देखा जा रहा है। विडंबना है कि अमीर राष्ट्रों ने प्रकृति का सबसे अधिक दोहन किया, जबकि इसका नुकसान विकासशील देशों को सबसे अधिक उठाना पड़ रहा है। ऐसा इसलिए, क्योंकि अमीर देशों ने नुकसान को कम करने का बुनियादी ढांचा तैयार कर लिया है। वहां सड़कें इस कदर बनाई जा चुकी हैं कि जलभराव नहीं होता। वहां राहत-कार्य तुरंत पहुंचाए जाते हैं। आपातकालीन सेवाएं यह सुनिश्चित करती हैं कि किसी की जान न जाए। और, बुजुर्गों एवं गरीबों का विशेष ख्याल रखा जाता है। विकासशील देश इन तमाम सुविधाओं के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं, जिस कारण ज्यादातर प्राकृतिक आपदाओं में लोग खासा प्रभावित होते हैं। संपन्न देशों में शहरी नियोजन को भी गंभीरता से लिया जाता है। वे निर्माण-कार्यों में इलाके के भौगोलिक चरित्र को बनाए रखने का हरसंभव प्रयास करते हैं। इससे पानी बेजा बहता नहीं है, बल्कि वह मिट्टी में अवशोषित हो जाता है।

बेंगलुरु कभी ‘बगीचों और झीलों का शहर’ माना जाता था। अंग्रेज यहां आराम व मनोरंजन करने आया करते थे। मगर अब इसका रूप-रंग बदल गया है। 1.3 करोड़ की आबादी वाले इस शहर में 189 झीलें हैं, जिनमें से अधिकांश का निर्माण 16वीं सदी में हुआ है। चेन्नई और मुंबई जैसे तटीय शहरों के उलट यह ऊंचाई पर है और इसीलिए कहीं अधिक संवेदनशील है। यहां की झीलों को राजकालुवे (नहरों) जोड़ते हैं, जो कभी यह सुनिश्चित करते थे कि बिना बाढ़ लाए पानी एक से दूसरे स्थान की ओर बह जाए। आंकड़े बताते हैं कि 890 किलोमीटर के राजकालुवे का अब बमुश्किल 50 फीसदी हिस्सा काम करता है, क्योंकि उसकी साफ-सफाई न किए जाने के कारण समय के साथ वे बेकार हो गए। यह शहर भारत का ‘सिलिकॉन वैली’ है और यहां नहरों में कई तरह के सेंसर भी लगाए गए हैं, जिनको उचित समय पर (जब नहर की क्षमता का 75 फीसदी पानी जमा हो जाए) पर चेतावनी भेजनी चाहिए। मगर लगता है कि इन सेंसरों ने भी काम नहीं किया।

इसमें भ्रष्ट व्यवस्था का अपना योगदान है। रिपोर्टें बताती हैं कि जमींदारों, कुछ पुराने सामंतों ने अपनी काफी जमीन बिल्डरों को बेच दी, जिनमें झील का डूब क्षेत्र, निचले इलाके आदि भी शामिल थे। इन जमीनों पर बनी चमकदार इमारतों ने जल निकासी और प्राकृतिक जल-मार्गों को अवरुद्ध कर दिया है। कुछ इलाकों में तो स्थानीय निकाय की अनुमति के बिना निर्माण-कार्य किए गए हैं। यहां कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि बेंगलुरु ही नहीं, पूरे भारत की यही सच्चाई है। देश भर में जहां-तहां ऐसा होता है, क्योंकि हमारी आबादी बड़ी है और भूमि पर दबाव है। 

मगर भारतीय विज्ञान संस्थान (बेंगलुरु) में पारिस्थितिक विज्ञान विभाग के प्रमुख टीवी रामचंद्र ने कई अध्ययन करके बताए हैं कि बेंगलुरु में क्यों बार-बार बाढ़ आती है? उन्होंने मुख्यत: यहां की झीलों के कायाकल्प के साथ-साथ शहरी नियोजन में सुधार करने के उपाय सुझाए हैं। इससे न सिर्फ अत्यधिक बारिश में बाढ़ से बचा जा सकेगा, बल्कि गरमी में पानी की किल्लत भी नहीं होगी। साफ है, स्थानीय प्रशासकों को कहीं दूर देखने के बजाय अपने आसपास इस समस्या का समाधान खोजना चाहिए।  

(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

सौजन्य - हिन्दुस्तान।


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Thursday, October 21, 2021

पूर्वी पड़ोस में नफरत की बयार ( हिन्दुस्तान)

सुशांत सरीन, सीनियर फेलो, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन 

 

एक धर्मग्रंथ के कथित अपमान के बाद बांग्लादेश के चटगांव डिविजन के कमिला से शुरू हुई सांप्रदायिक हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही। दुर्गा पूजा के पंडालों के बाद अब हिंदू धर्मावलंबियों के घरों को भी निशाना बनाया जाने लगा है। बांग्लादेश की हुकूमत मामले की जल्द जांच कराने और दोषियों को सख्त सजा देने का वायदा लगातार कर रही है। मगर ऐसी बातें बहुत ज्यादा भरोसा नहीं पैदा कर पा रहीं, क्योंकि बांग्लादेश का मूल चरित्र इसकी मुखालफत करता है।



दरअसल, बांग्लादेश की राजनीति का एक अहम तत्व है, अकलियतों को निशाने पर लेना। 1947 के बाद से वहां (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) अल्पसंख्यकों का एक तरह से धीमे-धीमे कत्लेआम किया गया है। 1951 की जनगणना में पाकिस्तान के इस हिस्से में हिंदुओं की आबादी लगभग 22 फीसदी थी, लेकिन अब बांग्लादेश की कुल आबादी में उनकी हिस्सेदारी घटकर करीब 8.5 प्रतिशत हो गई है। अगर वहां अल्पसंख्यक महफूज होते, तो उनकी आबादी का प्रतिशत या तो बाकी जनसंख्या के साथ बढ़ता या फिर उसमें कमी आती भी, तो वह बहुत मामूली होती। मगर पिछले सात दशकों का दमन ही है कि वहां के अल्पसंख्यक जलावतन को मजबूर हैं। आलम यह है कि अकलियतों को निशाना बनाया जा रहा है, उनकी संपत्ति हथियाई जा रही है और उन पर तमाम तरह के जुल्म ढाए जा रहे हैं। तरक्की और जनसंख्या को काबू में रखने के बांग्लादेश के दावे के पीछे भी यही गणित है। अगर अल्पसंख्यकों की आबादी लगभग 15 फीसदी कम हो जाए, तो कुल जनसंख्या का प्रतिशत खुद-ब-खुद काफी अच्छा हो जाएगा। मगर मुश्किल यह है कि राजनीतिक, कूटनीतिक, या सियासी अवसरवादिता के कारण न तो स्थानीय स्तर पर और न वैश्विक मंचों पर इसके खिलाफ आवाज उठाई जाती है। 

बांग्लादेश जब पाकिस्तान का हिस्सा था, तब वहां के पंजाबी और पठान अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते थे। पिछली सदी के 70 के दशक के मुक्ति युद्ध के बाद जब एक आजाद मुल्क के तौर पर बांग्लादेश उभरा, तब भी यह सिलसिला थमा नहीं और मुस्लिम बहुल बंगाली ऐसी हिमाकत करने लगे। यह स्थिति तब थी, जब भारत ने उसकी आजादी में निर्णायक भूमिका निभाई थी। वहां अक्सर बड़े पैमाने पर दंगे होते हैं। अल्पसंख्यकों को न पुलिस से कोई सुरक्षा मिलती है, न सरकार से और न ही अदालत से। पंजाबी और पठानों की तरह मुस्लिम बहुल बंगाली भी जमात-ए-इस्लामी व अन्य इस्लामी तंजीमों की मदद से अल्पसंख्यकों को नुकसान पहुंचाते रहे हैं। लिहाजा, कमिला तो सिर्फ एक बहाना है। वहां असल मकसद अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाना था। इसीलिए, धर्मग्रंथ की बेअदबी की कथित घटना को प्रचारित किया गया। 

इन्हीं सब वजहों से इस मुल्क ने बार-बार पलायन का सैलाब देखा है। वहां की जम्हूरी हुकूमत तो कभी-कभी अराजक तत्वों के खिलाफ काम करती हुई दिखती भी है, मगर जब वहां सैन्य शासक सत्ता सभालते हैं या इस्लाम-पसंद तंजीमों के हाथों में सत्ता-संचालन का काम आता है, तब हालात और ज्यादा खराब हो जाते हैं। अवामी लीग के साथ अच्छी बात यह रही है कि हिंदुओं के अपने पारंपरिक वोट बैंक को बनाए रखने के लिए यह कभी-कभी धार्मिक कट्टरता ओढ़े गुटों पर कार्रवाई करती दिखती है। हालांकि, खुद पार्टी के अंदर ऐसे तत्व सक्रिय रहे हैं, जो जमकर गुंडागर्दी करते थे, और सियासी मजबूरियों के चलते पार्टी आलाकमान को भी चुप्पी साधनी पड़ती है। आज भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। अपनी बहुसंख्यक आबादी को तुष्ट करने के लिए सरकार कई तरह के काम कर रही है। प्रधानमंत्री शेख हसीना के पास भारत पर उंगली उठाने की वजहें तो हैं, पर वह अपने गिरेबान में झांकना पसंद नहीं कर रहीं। संभवत: इसकी वजह बांग्लादेश का एक इस्लामी राष्ट्र होना है। शेख हसीना ने इस्लामी तंजीमों के खिलाफ कुछ कदम उठाए हैं, तो इसलिए नहीं कि वे अकलियतों को निशाना बनाती हैं, बल्कि इसलिए, क्योंकि इन तंजीमों का उभार उनकी अपनी राजनीति के मुफीद नहीं है। इसका लाभ भी उनको मिला है। न सिर्फ मुल्क के अंदर अमनपसंद लोगों ने, बल्कि भारत जैसे देशों ने भी उन पर भरोसा किया है।

हालांकि, 2019 में जब भारत में नागरिकता संशोधन कानून बना और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की बहस तेज हुई, तब बांग्लादेश का रवैया हौसला बढ़ाने वाला नहीं था। यह कानून पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के उन अल्पसंख्यक शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने की वकालत करता है, जो किसी न किसी कारण से अपनी मूल भूमि से भागकर यहां आए हैं। इसके अलावा, गैर-कानूनी रूप से यहां रहने वाले शरणार्थियों को वापस अपने मुल्क भेजने की जरूरत पर भी बल देता है। जाहिर है, इससे आर्थिक शरणार्थी बनकर आए उन लाखों-करोड़ों मुसलमानों को वापस लौटना होगा, जो रोजगार की तलाश में यहां हैं। बांग्लादेश इसी के खिलाफ है और इसके कारण दोनों देशों के रिश्तों में हाल के समय में खटास भी आई है।

ऐसे में, अच्छा तो यही होगा कि भारत सीएए और एनआरसी पर आगे बढ़े, ताकि बांग्लादेश में निशाना बनाए जा रहे हिंदू, बौद्ध जैसे अल्पसंख्यकों को राहत मिल सके। हालांकि, सीएए में 31 दिसंबर, 2014 तक की समय-सीमा मुकर्रर की गई है, यानी इसमें 2014 की 31 दिसंबर से पहले आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने की व्यवस्था है। तो क्या यह मान लिया जाए कि 2015 के बाद वहां अल्पसंख्यकों का दमन नहीं हुआ है? लिहाजा, सीएए में संशोधन की सख्त दरकार है।

चूंकि हमारी यह नीति है कि हम दूसरे देश के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देते, इसलिए हमारा दूसरा कदम यह हो सकता है कि हम गैर-कानूनी रूप से यहां मौजूद शरणार्थियों को जल्द से जल्द वापस भेज दें। बांग्लादेश से आने वाली आबादी को नियंत्रित करना इसलिए भी आसान है, क्योंकि वे बीच-बीच में सीमा पार जाकर अपने परिजनों से मिलते रहते हैं। हमारी हुकूमत चाहे, तो उनकी पहचान करके उन्हें फिर से भारत की सीमा में दाखिल होने से रोक सकती है। यह काम अविलंब करना होगा, क्योंकि गैर-कानूनी रूप से यहां मौजूद शरणार्थियों का बुरा असर हमारे पूर्वोत्तर के राज्यों पर भी पड़ता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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चुनाव लड़ाने का बड़ा एलान ( हिन्दुस्तान)

सुभाषिनी अली, पूर्व सांसद 

 

उत्तर प्रदेश के आसन्न विधानसभा चुनाव के संदर्भ में, कांग्रेस पार्टी की नेता प्रियंका गांधी ने एलान किया है कि पार्टी 40 प्रतिशत सीटों पर महिलाओं को टिकट देगी। उन्होंने यह भी कहा कि उनका बस चलता, तो वह 50 फीसदी सीटों पर महिला उम्मीदवार उतारतीं। कई लोगों ने कांग्रेस पार्टी के इस फैसले का स्वागत करते हुए कहा है कि इससे सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी। हालांकि, यह बात सही नहीं है, फिर भी यह घोषणा इस मामले में स्वागत-योग्य है कि इसने महिलाओं के चुनाव लड़ने के अधिकार को लेकर होने वाली चर्चा को एक लंबे अंतराल के बाद फिर से शुरू कर दिया है।



किसी भी प्रजातंत्र को प्रभावशाली और अर्थपूर्ण बनाने के लिए यह आवश्यक है कि उसमें समाज के तमाम हिस्सों को प्रतिनिधित्व का अधिकार प्राप्त हो। यही वजह है कि हमारे संविधान ने दलितों और आदिवासियों के लिए लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में उनकी संख्या के अनुपात में सीटों के आरक्षण को अनिवार्य बनाया। अगर ऐसा न किया गया होता, तो सामाजिक विषमता के चलते इन हिस्सों के लोगों को विधायी सदनों में पहुंचने का मौका ही नहीं मिलता। लेकिन हमारे समाज के कई ऐसे हिस्से हैं, जिन्हें अब भी प्रतिनिधित्व के अधिकार से वंचित रखा जा रहा है। हर चुनाव में यह देखने को मिलता है कि मतदान में खड़े होने और जीतने वाले अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों की संख्या घटती जा रही है; अरबपतियों और खरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है और आम मजदूरों व किसान परिवारों के सदस्यों की संख्या बहुत कम या न के बराबर हो गई है। यही नहीं, देश की आबादी का आधा हिस्सा, यानी महिलाएं, लोकसभा और विधानसभाओं में बहुत हद तक अदृश्य हैं। इसका साफ मतलब है कि हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था अनवरत सिकुड़ रही है और उस पर कुछ विशेष तबके के पुरुषों का वर्चस्व बढ़ रहा है। यह हमारी जनवादी प्रणाली के लिए बहुत ही खतरनाक संकेत है। इससे पार पाना बहुत ही जरूरी है।

इसी संदर्भ में महिलाओं के आरक्षण के सवाल को देखा जाना चाहिए। किसी भी विधानसभा और लोकसभा में चुनी हुई महिलाओं की संख्या 15 प्रतिशत से अधिक नहीं रही है। इसका यही अर्थ है कि महिलाओं को उनके प्रजातांत्रिक अधिकार से, प्रतिनिधित्व करने के अधिकार से, वंचित रखा जा रहा है। साल 1996 में, यानी 25 साल पहले, विधानसभाओं और लोकसभा में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए लोकसभा में विधेयक प्रस्तुत किया गया था। लेकिन तब से लेकर आज तक उसे पारित नहीं किया जा सका है। इसके पीछे पुरुष प्रधानता की सोच के अलावा कोई दूसरा कारण नहीं है, और वामपंथी दलों को छोड़कर बाकी तमाम राजनीतिक पार्टियों पर यह सोच किस हद तक हावी है, इसका स्पष्ट एहसास तब होता है, जब महिला आरक्षण विधेयक को लोकसभा के पटल पर रखा जाता है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 40 फीसदी महिला उम्मीदवारों को उतारने की बात कहने वाली प्रियंका गांधी की कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी, दोनों के नेतृत्व वाली सरकारों (क्रमश: संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) ने इस विधेयक को पारित करने से परहेज किया है। निश्चित तौर पर इससे हमने अपने प्रजातंत्र को मजबूत करने का मौका अनेक बार गंवाया है।

फिलहाल, हमारे देश में पंचायतों, नगर पालिकाओं और नगर निगमों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित हैं। इसने समाज को काफी फायदा पहुंचाया है। इससे कई तरह के बड़े परिवर्तन संभव हुए हैं। एक तो, हर तबके की महिलाओं ने बड़ी संख्या में सार्वजनिक जीवन में प्रवेश पाया है। जहां भी उन्हें स्वतंत्र रूप से काम करने का मौका मिला, उन्होंने अपनी योग्यता और निष्ठा का जबरदस्त परिचय दिया है। यही कारण है कि केरल जैसे प्रांत में उनकी संख्या 42 प्रतिशत तक पहुंच गई, क्योंकि सीट के अनारक्षित हो जाने के बाद भी अच्छा काम करने वाली महिला ने चुनाव जीतकर दिखा दिया है। अब तो कई राज्यों ने इन सीटों को 50 फीसदी तक बढ़ा दिया है, इससे निचले स्तर पर महिलाओं को बल मिला है। 

हालांकि, यहां यह याद रखना भी आवश्यक है कि भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा है, जिसे महिलाओं का इस तरह से सार्वजनिक क्षेत्र के एक बड़े हिस्से पर कब्जा करना या आगे बढ़ना रास नहीं आया है। ऐसे लोग लगातार इन चुनी हुई महिलाओं की आलोचना करते हैं। वे वक्त-वक्त पर कहते रहते हैं कि महिलाएं मोहरा होती हैं, वे निक्कमी होती हैं, वे भ्रष्ट होती हैं इत्यादि। ऐसा लगता है कि इन महिलाओं ने ही अपने आप को मोहरा बना दिया है। इसमें पुरुष प्रधानता और प्रशासनिक उदासीनता का कोई हाथ नहीं है और चुने हुए पुरुष तो ईमानदारी व कार्य-निष्ठा के प्रतीक हैं! 

जहां एक तरफ, महिला आरक्षण को बढ़ाया जा रहा है, वहीं इसको सीमित करने की कोशिशें भी खूब चल रही हैं। हरियाणा जैसे राज्य में तो महिला उम्मीदवारों के सामने 10वीं पास होने की शर्त रखी जा रही है, मानो उनके कम पढ़े-लिखे होने की मूल वजह सरकारी नीतियां नहीं, बल्कि उनकी अपनी कमजोरी है। ऐसे प्रयासों को हतोत्साहित किए जाने की जरूरत है। साफ है, हमारे लोकतंत्र को संकीर्ण बनाने और उसे विस्तृत करने वाली ताकतों के बीच लगातार खींचतान चल रही है। आजादी के इस 75वें साल में, जहां चौतरफा जश्न मनाया जा रहा है, इस बात पर चिंता जताने की भी सख्त जरूरत है कि हमारे लोकतंत्र को संकीर्ण और निहित स्वार्थों के अधीन बनाने की कोशिशें आज के दौर में ज्यादा प्रभावी दिख रही हैं। इसकी दिशा को पलटना जनवादी ताकतों के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। इस चुनौती को स्वीकार करने वालों को महिलाओं के प्रतिनिधित्व के सवाल को भी अपने संघर्ष का अहम हिस्सा बनाना होगा।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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Monday, August 9, 2021

चीन-तालिबान की खतरनाक यारी (हिन्दुस्तान)

राजीव डोगरा, पूर्व राजदूत

 

मुल्ला अब्दुल गनी बरादर के नेतृत्व में तालिबानी प्रतिनिधिमंडल से चीन के विदेश मंत्री वांग यी की मुलाकात चिंतित करने वाली है। तालिबानी नेताओं को दिए गए इस सम्मान के कई निहितार्थ हैं। इससे यह तो साफ हो गया है कि अमेरिका की वापसी के बाद चीन अफगानिस्तान में अपनी दखल बढ़ाने को लेकर गंभीर है। इससे उसके कई स्वार्थ पूरे होंगे। जैसे, अफगानिस्तान में मौजूद तांबा, कोयला, गैस, तेल आदि के अप्रयुक्त भंडारों तक वह अपनी पहुंच बना सकेगा। कुछ तेल क्षेत्रों के अलावा तांबे की एक बड़ी खदान वह पहले ही हासिल कर चुका है। फिर, जिन उइगर अलगाववादियों को वह अपना दुश्मन मानता है, उनके संगठन ‘पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट’ (ईटीआईएम) पर भी वह नकेल कस सकेगा। ईटीआईएम का चीन के शिनजियांग प्रांत में खासा असर है। दिक्कत यह है कि चीन का यह स्वार्थ बाकी दुनिया पर भारी पड़ सकता है। इस गठजोड़ का असर कई रूपों में विश्व व्यवस्था पर दिख सकता है।

चीन-तालिबान दोस्ती क्यों खतरनाक है, इसे जानने से पहले हमें चीन की फितरत समझनी होगी। चीन एको अहं, द्वितीयो नास्ति  यानी सिर्फ मैं ही मैं सर्वत्र, दूसरा कोई नहीं की नीति पर चलता है। अपने मकसद को पूरा करना उसकी प्राथमिकता है। अगर कहीं भी उसे अपना हित सधता हुआ दिखे, तो वह न कोई कायदा-कानून मानता है, और ही न कोई व्यवस्था। 1980 के दशक से ऐसा ही होता आया है। मिसाल के तौर पर, पाकिस्तान आज बेशक अपने परमाणु एवं मिसाइल कार्यक्रम या सैटेलाइट तकनीक पर इतराए, लेकिन यह जगजाहिर है कि ये सारी सुविधाएं उसे चीन ने ही मुहैया कराई हैं, जबकि ऐसा करना अंतरराष्ट्रीय कानूनों के खिलाफ है और विश्व बिरादरी इसे गंभीर अपराध मानती है। फिर भी, चीन की सेहत पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ा। उसने खुद तकनीक एवं प्रौद्योगिकी पश्चिमी देशों से चुराईं और आज उन्हीं को आंखें दिखा रहा है। 

दक्षिण चीन सागर पर तो वह पूरी दुनिया से लड़ने-भिड़ने को तैयार है, जबकि श्रीलंका, बांग्लादेश जैसे कई देशों को अपने कर्ज के जाल में फंसाकर उन पर परोक्ष रूप से दबाव बना चुका है। इन्हीं उदाहरणों की अगली कड़ी है, प्रतिबंधित गुट तालिबान के साथ उसकी नजदीकी। चीन इसको अपने लिए फायदे का सौदा मान रहा होगा, मगर इसकी कीमत पूरी दुनिया को चुकानी पड़ सकती है।

तालिबान का चरित्र किसी से छिपा नहीं है। संयुक्त राष्ट्र इसे एक प्रतिबंधित समूह मानता है। तालिबानी प्रवक्ता ने भले ही अफगानिस्तान के विकास-कार्यों के लिए वैश्विक समर्थन जुटाने की बात कही है, लेकिन अभी जिन इलाकों पर इसका कब्जा है, वहां विकास का पहिया फिर से रोक दिया गया है। स्कूलों को बंद कर दिया गया है और मानवाधिकारों का जमकर हनन हो रहा है। वहां विरोध करने वाली आवाजें खामोश की जा रही हैं। हकीकत बयान करने वाले पत्रकारों तक तो नहीं बख्शा जा रहा। खबर यह भी है कि पिछले दिनों जिस भारतीय पत्रकार दानिश सिद्दीकी की हिंसक संघर्ष में फंसने की वजह से मौत की बात कही जा रही थी, तालिबान ने उनकी पहचान करने के बाद बड़ी ‘क्रूरता से हत्या’ कर दी थी। ऐसे बर्बर गुट को चीन यूं ही शह नहीं दे रहा।

साल 2013 में शी जिनपिंग के राष्ट्रपति बनने के बाद से चीन का रवैया खासा आक्रामक हो गया है। घरेलू स्तर पर ‘एक देश, दो व्यवस्था’ नीति को खारिज करते हुए उसने ‘वन चाइना पॉलिसी’ अपनाई और हांगकांग की स्वायत्तता खत्म कर दी, तो ताइवान को वह लगातार आंखें दिखा रहा है। ‘बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव’ से वह करीब 70 देशों और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में निवेश की राह पर है। उसकी मंशा पूरे एशिया क्षेत्र पर प्रभुत्व जमाने और अमेरिका की बराबरी करते हुए वैश्विक नेता बनने की है। चूंकि सैन्य ताकत और औद्योगिक उत्पादन के मामले में वह खासा असरदार है, इसलिए वह पूरी विश्व व्यवस्था को आंखें दिखाता रहता है। लेकिन इसी गुमान में वह कई देशों से विवाद भी मोल ले चुका है। चीन जानता है कि अफगानिस्तान में यदि वह प्रभाव जमा सका, तो उसे आर्थिक फायदा हो सकता है, जिससे ‘सुपर पावर’ बनने की उसकी राह आसान होगी, इसीलिए वह तालिबान को शह दे रहा है।

चीन और तालिबान के बीच बढ़ती नजदीकी किस करवट बैठेगी, यह तो आने वाला वक्त बताएगा, लेकिन यह हमारे लिए खतरा पैदा कर सकती है। चूंकि पाकिस्तान पहले से तालिबानी लड़ाकों का मददगार है, ऐसे में यदि चीन का साथ भी उनको मिल गया, तो ये लड़ाके और बर्बर हो सकते हैं। अभी तक तो अफगानिस्तान के महत्वपूर्ण इलाकों पर अफगान सुरक्षा बलों का नियंत्रण है, लेकिन चीन की शह तालिबानी लड़ाकों को उन इलाकों पर भी कब्जा करने के लिए उत्साहित करेगी। इससे अफगानिस्तान में किए गए भारतीय निवेश प्रभावित हो सकते हैं। फिर, अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट के आतंकी तालिबान की मदद करने के लिए अफगानिस्तान आ रहे हैं। दहशतगर्द समूहों का यह गठजोड़ अफगानिस्तान के पड़ोस के लिए ही नहीं, दुनिया के सभी अमनपसंद देशों के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। ऐसे लड़ाकों को पाकिस्तान और चीन की दुरभिसंधि भारत के खिलाफ हमले के लिए उकसाएगी। यह गठजोड़ हमारी आंतरिक सुरक्षा के लिए काफी खतरनाक साबित होगा। इसे किस तरह रोका जाए? इसका फिलहाल कोई रास्ता नहीं दिख रहा। एक अंधेरी सुरंग है, जिसका दूसरा छोर सामने नहीं है। यदि कोई शक्तिशाली देश अंतरराष्ट्रीय नियमों की अवहेलना करे, तो उस पर बंदिश शायद ही कारगर होती है। कोई डर या खौफ उस देश को सही रास्ते पर नहीं ला सकता। चीन अब इतना मजबूत बन गया है कि उसे डराकर या धमकाकर कोई काम नहीं करवाया जा सकता। ऐसे में, बातचीत ही एकमात्र रास्ता है। मगर कोरोना वायरस की उत्पत्ति की जांच में बीजिंग ने जो बेशर्मी दिखाई है, उससे नहीं लगता कि वह फिलहाल समझने को तैयार है। लिहाजा, जब तक उसे खुद चोट नहीं लगेगी, वह नहीं संभलेगा। वैश्विक ताकत बनने का नशा उस पर इतना हावी हो चुका है कि उसे सही और गलत का बोध नहीं। इसलिए हमें अपनी सुरक्षा के लिए लीक से हटकर सोचना होगा। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

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खुदरा बाजार पर कब्जे की जंग (हिन्दुस्तान)

आलोक जोशी, वरिष्ठ पत्रकार 

खुदरा बाजार पर कब्जे की जंग

सुप्रीम कोर्ट ने एमेजॉन के पक्ष में फैसला सुनाया। अडानी, अंबानी को सुप्रीम कोर्ट से तगड़ा झटका। सुप्रीम कोर्ट ने एमेजॉन की याचिका पर जो फैसला सुनाया, उसके शीर्षक कुछ ऐसे ही बन सकते हैं। बहरहाल, फ्यूचर ग्रुप के प्रोमोटर किशोर बियानी ने अपना पूरा रिटेल और कुछ होलसेल कारोबार रिलायंस रिटेल को बेचने का जो सौदा किया था, सुप्रीम कोर्ट ने उस पर रोक लगा दी है। 

यह मामला जितना दिख रहा है, उससे कहीं ज्यादा पेचीदा है। अदालत में लड़ाई जेफ बेजोस के एमेजॉन और फ्यूचर ग्रुप के प्रोमोटर किशोर बियानी के बीच ही चल रही थी और आज भी चल रही है। लेकिन दरअसल यह मुकाबला दुनिया के सबसे अमीर आदमी जेफ बेजोस और भारत के सबसे अमीर आदमी मुकेश अंबानी या उनकी कंपनियों के बीच है। और दांव पर है भारत का रिटेल या खुदरा बाजार। 

फॉरेस्टर रिसर्च की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2020 में भारत का रिटेल कारोबार करीब 883 अरब डॉलर यानी करीब 65 लाख करोड़ रुपये का था। इसमें से भी सिर्फ किराना या ग्रोसरी का हिस्सा 608 अरब डॉलर या 45 लाख करोड़ रुपये के करीब था। इसी एजेंसी का अनुमान था कि 2024 तक यह कारोबार बढ़कर एक लाख तीस हजार करोड़ डॉलर या 97 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच चुका होगा। यही वह बाजार है, जिस पर कब्जा जमाने की लड़ाई एमेजॉन व रिलायंस रिटेल के बीच चल रही है। वह वक्त गया, जब किशोर बियानी रिटेल किंग कहलाते थे। आज तो वह दो पाटों के बीच फंसे हुए हैं। जीते कोई भी, फ्यूचर ग्रुप की तो जान ही जानी है। किशोर बियानी के कारोबार की कहानी बहुत से लोगों के लिए सबक का काम भी कर सकती है कि कैसे एक जरा सी गलती आपको बहुत बड़ी मुसीबत में फंसा सकती है। उन्होंने एक सौदा किया था, तब शायद यह सोचा था कि भविष्य में यह मास्टरस्ट्रोक साबित होगा, लेकिन अब वही गले की फांस बन चुका है। 



किस्सा थोड़ा लंबा है, लेकिन जरूरी है। किशोर बियानी रिटेल किंग कहलाते थे। ज्यादातर लोग उन्हें पैंटलून स्टोर्स और बिग बाजार के नाम से ही पहचानते हैं। जब से रिटेल में विदेशी निवेश की चर्चा शुरू हुई, तभी से यह सवाल पूछा जा रहा था कि दुनिया के बड़े दिग्गज रिटेलर जब भारत आएंगे, तब उनमें से कौन किशोर बियानी को अपना भागीदार बनाने में कामयाब होगा। रिटेल कारोबार पर भारत की बड़ी कंपनियों की निगाहें भी टिकी थीं। रिलायंस रिटेल धीरे-धीरे चला, लेकिन अब वह देश का सबसे बड़ा रिटेलर बन चुका था। 

इस बीच फ्यूचर ग्रुप कुछ ऐसी जुगत में लगा रहा कि किसी तरह कंपनी में इतना पैसा लाने का इंतजाम हो जाए कि वह बाजार में कमजोर न पड़े। रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश के नियम उसके रास्ते में बाधा खड़ी कर रहे थे। एमेजॉन जैसी कंपनी भी भारत में पैर फैलाना चाहती थी, लेकिन ऑनलाइन कारोबार में लगी कंपनी के लिए इसमें घुसना और मुश्किल था। फिर 2019 में फ्यूचर ग्रुप से एक बयान आया कि उनकी एक कंपनी फ्यूचर कूपन्स लिमिटेड ने एमेजॉन के साथ करार किया है और एमेजॉन ने इस कंपनी में 49 प्रतिशत हिस्सेदारी खरीदी है। दोनों कंपनियों ने यही कहा था कि यह तो लॉयल्टी पॉइंट और गिफ्ट वाउचर जैसा काम करने वाली कंपनी है और इसमें निवेश का ग्रुप के रिटेल कारोबार से कोई रिश्ता नहीं है। 

यह अंदाजा नहीं था कि यह छोटा सा सौदा ही आगे चलकर बहुत बड़ा बवाल खड़ा करने वाला है। शायद किशोर बियानी को या फ्यूचर ग्रुप के लोगों को अंदाजा रहा हो, मगर तब भी वह शायद यह नहीं सोच रहे थे कि एक दिन उन्हें अपना कारोबार रिलायंस को बेचना पड़ेगा। लॉकडाउन शुरू होने के पहले ही कंपनी भारी परेशानी में थी, लेकिन लॉकडाउन बहुत महंगा पड़ा। पिछले साल अगस्त में फ्यूचर ग्रुप ने अपना रिटेल कारोबार रिलायंस को बेचने का समझौता किया। 

यह समझौता होते ही एमेजॉन के साथ उसके पुराने करार का भूत जाग उठा। एमेजॉन ने अब सामने आकर बताया कि जिस फ्यूचर कूपन्स में उसने 49 प्रतिशत हिस्सा खरीदा था, वह फ्यूचर रिटेल में करीब 10 प्रतिशत हिस्सेदारी की मालिक है, इस नाते एमेजॉन भी उस कंपनी में करीब पांच प्रतिशत का हिस्सेदार है। एमेजॉन ने यह भी कहा कि 2019 के करार में एक रिस्ट्रिक्टेड पर्सन्स यानी ऐसे लोगों और कंपनियों की लिस्ट थी, जिनके साथ फ्यूचर ग्रुप को सौदा नहीं करना था। रिलायंस रिटेल इस लिस्ट में शामिल था। 

यह झगड़ा सिंगापुर की अंतरराष्ट्रीय पंचाट में पहुंचा और उसने सौदे पर एक तरह से स्टे दे दिया। एमेजॉन जब यह फैसला लागू करवाने की मांग के साथ दिल्ली हाईकोर्ट गया, तो वहां से पहला आदेश उसके ही पक्ष में आया। लेकिन इसके बाद हाइकोर्ट की ही बड़ी बेंच ने इस फैसले को पलटकर सौदे पर रोक लगाने का आदेश खारिज कर दिया। तब मामला सुप्रीम कोर्ट गया, जहां से पिछले गुरुवार को फैसला आया है। अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले की यह बात समझनी जरूरी है कि कोर्ट ने सिर्फ यह कहा है कि सिंगापुर की पंचाट अगर कोई फैसला सुनाती है, तो वह भारत में भी लागू होगा, इसीलिए फ्यूचर व रिलायंस का सौदा फिलहाल आगे नहीं बढ़ सकता। 

इस बीच भारतीय प्रतिस्पद्र्धा आयोग, यानी सीसीआई ने एमेजॉन को नोटिस दिया है कि वर्ष 2019 में फ्यूचर ग्रुप के साथ समझौता करते वक्त उसने कुछ जरूरी चीजों को परदे में रखा था। तर्क यह है कि तब दोनों कंपनियों ने कहा था कि इस समझौते का फ्यूचर ग्रुप के रिटेल कारोबार से कोई रिश्ता नहीं है, पर अब एमेजॉन इसी समझौते के सहारे रिटेल कारोबार का सौदा रुकवाना चाहता है। सीसीआई के पास यह अख्तियार है कि अगर वह चाहे, तो पुरानी तारीख में भी वह फ्यूचर और एमेजॉन के सौदे को रद्द कर सकता है। 

यह पूरा मामला देश के दूसरे व्यापारियों के लिए सबक है। चादर से बाहर पैर फैलाना तो कारोबार में जरूरी है, लेकिन यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि इस चक्कर में कहीं चादर न फट जाए। कर्ज लेने में भी सावधान रहें और बड़ी कंपनियों से रिश्ते जोड़ने में तो और भी सावधान रहें।  

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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Tuesday, May 25, 2021

आपदा को अवसर नहीं बना पाए हम (हिन्दुस्तान)

हरजिंदर, वरिष्ठ पत्रकार

जब कोविड नहीं था, तब बहुत कुछ बहुत अच्छा था। ऐसा हम बहुत सी चीजों के बारे में या शायद सभी चीजों के बारे में कह सकते हैं। लेकिन निश्चित और निर्विवाद तौर पर वैक्सीन बाजार के बारे में तो यह कहा ही जा सकता है। तब तक इस बाजार में हम सबसे आगे थे। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 2019 के आंकड़ों को देखें, तो दुनिया के वैक्सीन बाजार में 28 फीसदी हिस्सेदारी अकेले भारत की कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की थी। पता नहीं, बात कितनी सच है, लेकिन यह अक्सर सुनाई देती थी कि पूरी दुनिया का 12 साल का कोई भी बच्चा जिसका पूर्ण टीकाकरण हुआ हो, उसे अपने पूरे जीवन में कभी न कभी सीरम इंस्टीट्यूट का एक टीका तो लगा ही होगा। यानी, वैक्सीन के मामले में इस तरह के नैरेटिव हमारे गौरव-बोध को थपथपाने के लिए मौजूद थे। वैसे सीरम इंस्टीट्यूट के अलावा देश की कई और कंपनियां भी वैक्सीन बनाने और निर्यात करने का काम करती हैं। अगर इन सभी को जोड़ दिया जाए, तो दुनिया के वैक्सीन बाजार में भारत की हिस्सेदारी एक तिहाई से कहीं ज्यादा थी।

 

बात सिर्फ 2019 के आंकड़ों की नहीं है। 2020 के अंत तक यही माना जा रहा था कि कोरोना वायरस से लड़ाई में भारत बड़ी भूमिका निभाने जा रहा है। दिसंबर में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने यहां तक कहा था कि वैक्सीन की जो उत्पादन-क्षमता भारत के पास है, वह दुनिया की एक महत्वपूर्ण संपदा साबित होने वाली है। इन्हीं सबसे उत्साहित होकर भारत ने अपने जनसंपर्क को बढ़ाने का फैसला किया और दिसंबर की शुरुआत में सभी देशों के राजदूतों को एक साथ बुलाकर वैक्सीन की प्रयोगशालाओं व उत्पादन इकाइयों का दौरा करवाया। इस दौरे के बाद ऑस्ट्रेलिया समेत कई देशों के राजदूतों ने भारत की वैक्सीन उत्पादन-क्षमता के लिए कई कसीदे भी गढ़े थे। हम इस बात को लेकर खुश थे कि भारत में स्वास्थ्य सुविधाएं लचर हो सकती हैं, अस्पताल, मरीजों के लिए बिस्तर व स्वास्थ्यकर्मी कम पड़ सकते हैं, वेंटिलेटर का अकाल हो सकता है, ऑक्सीजन जरूरत से काफी कम पड़ सकती है, बहुत सी दवाओं की कमी से उनकी कालाबाजारी हो सकती है, पर वैक्सीन के मामले में हम आत्मनिर्भर हैं। और कुछ न हो, मगर कोविड को मात देने वाला असली ब्रह्मास्त्र तो हमारे पास है ही। साल 2021 के शुरुआती हफ्तों तक यही लग रहा था कि भारत नए झंडे गाड़ने जा रहा है। पहले चरण में सिर्फ स्वास्थ्यकर्मियों को टीके लगने थे। जितने टीके लग रहे थे, उससे ज्यादा वैक्सीन उत्पादन की खबरें आ रही थीं। कुछ विश्लेषक तो यह भी कह रहे थे कि भारत के स्वास्थ्य तंत्र के पास टीकाकरण की जो क्षमता है, भारत की वैक्सीन उत्पादन क्षमता से वह कहीं कम है, इसलिए भारत के पास हमेशा वैक्सीन का सरप्लस स्टॉक रहेगा। शायद इसी तर्क के चलते भारत ने टीकों का निर्यात भी किया, जो इन दिनों काफी बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है। विदेश नीति के बहुत से टीकाकारों ने इस निर्यात को ‘वैक्सीन डिप्लोमेसी’ बताते हुए इसकी तारीफों के पुल भी बांधे थे।

लेकिन अप्रैल आते-आते ऐसा क्या हुआ कि सारा शीराजा बिखर गया? एक तो उम्र के हिसाब से टीकाकरण की योग्यता को लगातार विस्तार दिया जाने लगा। फिर इसी बीच कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर आई, जो पहले से कहीं ज्यादा भयावह और संक्रामक थी। लोगों को लगा कि टीकाकरण जल्दी होना चाहिए और वैक्सीनेशन सेंटरों के बाहर भीड़ बढ़ने लगी। सरकारी व निजी अस्पतालों ने टीकाकरण की अपनी क्षमता को बढ़ा दिया, कुछ जगह तो चौबीस घंटे टीकाकरण की सुविधा दे दी गई। जब यह स्थिति आई, तब पता चला कि टीके कम पड़ रहे हैं। सभी राज्यों से टीकों का स्टॉक खत्म होने की खबरें आने लगीं। लेकिन बात क्या सिर्फ इतनी थी? शायद नहीं। तमाम आंकडे़ बता रहे हैं कि वैक्सीन उत्पादन का दुनिया का सबसे अग्रणी देश भारत कोविड वैक्सीन के मामले में मात खा गया। पता चला कि दुनिया की सबसे बड़ी वैक्सीन उत्पादक कंपनी बिल गेट्स फाउंडेशन से 30 करोड़ डॉलर की मदद लेने के बावजूद अभी तक कोविड वैक्सीन की सिर्फ छह करोड़ खुराक बना पाई है। सीरम इंस्टीट्यूट का कहना है कि भारत सरकार ने इतने का ही ऑर्डर दिया था। यह सच है कि इसके पहले सीरम कभी भारत सरकार के ऑर्डर की मोहताज नहीं रही, वह अपनी वैक्सीन पूरी दुनिया को बेचती रही, पर इस बार तमाम बैंड, बाजा, बारात के बावजूद उसने सेहरा अपने माथे पर सजाने का मौका गंवा दिया। इसकी तुलना अगर हम दुनिया की दूसरी कंपनियों से करें, तो तस्वीर कुछ और दिखाई देती है। फाइजर दुनिया की एक महत्वपूर्ण और बहुत बड़ी दवा निर्माता कंपनी है, लेकिन वैक्सीन के बाजार में उसकी कोई बहुत बड़ी हिस्सेदारी हाल-फिलहाल में नहीं रही। उसने अब दुनिया भर के देशों से 52 करोड़ वैक्सीन डोज निर्यात करने का समझौता कर लिया है, जिसे वह जल्द ही अमली जामा पहनाने की बात भी कर रही है। कंपनी का दावा है कि इस साल के आखिर तक वह 1.3 अरब वैक्सीन डोज का उत्पादन कर लेगी। स्पूतनिक-वी नाम की वैक्सीन बनाने वाली रूस की कंपनी के दावे भी ऐसे ही हैं। चीन तो कई बार इससे भी बड़े दावे कर चुका है। अमेरिकी कंपनी मॉडर्ना का दवा व वैक्सीन उद्योग में इसके पहले तक कोई अनुभव नहीं था, पर अब वह अमेरिका की सबसे अग्रणी वैक्सीन उत्पादक कंपनी बन चुकी है, जबकि यहां भारत में सबसे अनुभवी कंपनी बेबस दिखाई दे रही है। जिस समय भारत की कामयाबी के हर तरफ चर्चे होने चाहिए थे, उस समय पूरी दुनिया भारत पर तरस खा रही है। और भारत की राज्य सरकारें झोला उठाकर वैक्सीन की खरीदारी के लिए भटकने को मजबूर हैं। इस संकट ने यह भी बता दिया कि भारत की जिन कंपनियों को हम अभी तक दुनिया में सबसे आगे मानते थे, वे दरअसल ऑर्डर मिलने पर उत्पादन करने वाली फैक्टरियां भर हैं। ऐसे उद्योगों से भला यह उम्मीद कैसे की जाए कि वे आपदा को अवसर में बदल सकेंगी?

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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Thursday, May 20, 2021

कोरोना ने जो हसीन सपने छीन लिए (हिन्दुस्तान)

अनंत मिश्र, चीफ कॉपी एडिटर, हिन्दुस्तान, लखनऊP 

कोविड-19 ने देश-दुनिया का कितना नुकसान किया, इसके सटीक आकलन में तो न जाने कितने साल लगेंगे, क्योंकि अभी तो इस पर जीत पाने के लिए ही जद्दोजहद हो रही है। लेकिन इसने हमारे आस-पास के समाज, उसके सपनों को कितनी बुरी तरह जख्मी किया है, इसकी मुनादी खबरों के ब्योरे कर रहे हैं। खासकर खेल-क्षेत्र को हुआ नुकसान इसलिए अधिक कचोटता है, क्योंकि इस दौर ने कई संभावनाओं को हमेशा-हमेशा के लिए खत्म कर दिया, तो कई प्रतिभाएं अब इससे मुंह मोड़ने लगी हैं। कालीकट के धावक जिन्सन जॉनसन 1,500 मीटर दौड़ के राष्ट्रीय रिकॉर्डधारी हैं। पिछले रियो ओलंपिक और विश्व चैंपियनशिप में हिस्सा ले चुके हैं। साल 2019 के दोहा विश्व चैंपियनशिप के पहले उन्होंने जर्मनी में हुई ऑल स्टार मीट में जब विश्व चैंपियनशिप के लिए क्वालीफाई किया, तभी से उम्मीद बांधी जाने लगी थी कि जॉनसन टोक्यो ओलंपिक में जरूर शानदार प्रदर्शन करेंगे। लेकिन कोरोना-काल में न सिर्फ उनका अभ्यास बाधित हुआ, बल्कि वह खुद कोरोना पॉजिटिव हो गए। अब टोक्यो ओलंपिक खेलने का उनका सपना टूटता हुआ नजर आ रहा है। ऐसे कई खिलाड़ी हैं, जो पहली दफा खेलों के महाकुंभ में भारतीय तिरंगे के नीचे उतरना चाहते थे। कई ऐसे भी थे, जो इस बार का ओलंपिक खेलकर खेल जीवन को अलविदा कहना चाहते थे। इन सबकी उम्मीदों पर महामारी ने पानी फेर दिया है। बुधवार को प्रकाशित विशेष रिपोर्ट में इस अखबार ने कई खिलाड़ियों की दर्द भरी कहानियां प्रकाशित की थीं, जो अपना जौहर दिखाए बिना ही कुम्हलाने लगे हैं। कोरोना-काल ने उनके अभाव को विकराल बना दिया है। 

भारतीय खेल प्राधिकरण और भारतीय ओलंपिक संघ से जुडे़ संगठनों की मानें, तो देश भर में ऐसे खिलाड़ियों की संख्या पांच करोड़ से भी ज्यादा है, जो विभिन्न खेलों में अपना भविष्य बनाने के लिए जान लगाए हुए थे। भारतीय खेल प्राधिकरण के छोटे-बडे़ 250 केंद्रों में लगभग 10 हजार युवा खिलाड़ी प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं। सिर्फ उत्तर प्रदेश की बात करें, तो करीब 2,200 चुनिंदा खिलाड़ी इस समय अलग-अलग स्पोट्र्स कॉलेज और हॉस्टल में ट्रेनिंग ले रहे थे। इनके अलावा, राज्य भर के स्टेडियमों में पांच लाख से ज्यादा खिलाड़ी विभिन्न खेलों में प्रशिक्षण ले रहे थे। पिछले एक साल से भी अधिक समय से इन सबका प्रशिक्षण बुरी तरह प्रभावित हुआ है। एथलेटिक्स, वॉलीबॉल, फुटबॉल, हॉकी जैसे खेलों के ज्यादातर खिलाड़ी गरीब परिवारों से ताल्लुक रखते हैं। चूंकि ग्रामीण इलाकों, कस्बों और छोटे जिलों के युवा महंगी शिक्षा नहीं ग्रहण कर सकते। ऐसे में, पिछले कुछ दशक से खेल इन्हें एक ऐसे क्षेत्र के रूप में दिखता रहा है, जहां अपनी शारीरिक क्षमता, प्रतिभा और हौसले के दम पर वे कुछ कर सकते हैं। ऐसे कई एथलीटों की संघर्ष-गाथा आज हजारों नौजवानों के लिए प्रेरणा-स्रोत हैं। मगर उम्मीदों की यह पौध कोरोना के कारण मुरझाने लगी है। किसी ने अभ्यास छोड़ दिया, तो किसी को कोरोना खा गया। कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि के ज्यादातर खिलाड़ी इसलिए अपने सपनों से मुंह मोड़ने लगे हैं, क्योंकि उनके घरवाले अभ्यास के लिए जरूरी खुराक का भार नहीं उठा सकते। अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक्स कोच जसविंदर सिंह भाटिया के मुताबिक, खिलाड़ी अगर एक दिन अभ्यास न करे, तो उसके प्रदर्शन पर बुरा असर पड़ता है। ऐसे में, पिछले 14 महीने से देश के लाखों खिलाड़ियों का अभ्यास प्रभावित हो रहा है। कुछ प्रशिक्षक ऑनलाइन ट्रेनिंग देने का प्रयास कर रहे हैं, पर खेल ऐसी विधा है, जिसमें कोच जब तक सीटी लेकर मैदान में खड़ा नहीं होता, तब तक ट्रेनिंग ठीक से नहीं हो पाती। अभ्यास बंद होने से ये खिलाड़ी बहुत पीछे चले गए हैं। किसी को नहीं पता कि ये स्थितियां कब तक कायम रहेंगी? जिन खिलाड़ियों ने 2024 ओलंपिक खेलों में हिस्सा लेने का सपना संजोया था, उनका भी बहुत नुकसान हुआ है। उन खिलाड़ियों की ट्रेनिंग भी प्रभावित हो रही है, जिन्होंने ओलंपिक का टिकट हासिल कर लिया था। कई खेल संघों ने अपने खिलाड़ियों को ट्रेनिंग के लिए विदेश भेज दिया है। वहां विशेष स्थिति में उन्हें प्रशिक्षण मिल भी रहा है। मगर जो देश में हैं, उनके लिए प्रशिक्षण एक बड़ी चुनौती बन गया है। उन्हें अकेले ट्रेनिंग करनी पड़ रही है, जबकि ओलंपिक के लिए क्वालीफाई कर चुका हरेक खिलाड़ी चाहता है कि उसे बड़ी प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने का मौका मिले, ताकि वह अपने को आंक सके। पर कोरोना ने खेल गतिविधियों को ठप कर दिया है। ऐसे में, खिलाड़ियों को नहीं पता कि टोक्यो में वे किस पायदान पर खड़े होंगे। बडे़ खिलाड़ियों के लिए विशेषज्ञों-मनोविज्ञानियों के सत्र आयोजित किए जा रहे हैं, ताकि वे अवसाद के शिकार न बनने पाएं। पहली बार ओलंपिक में हिस्सा लेने का सपना पाले ताइक्वांडो खिलाड़ियों पर कोरोना की बिजली गिरी है। संक्रमण का दूसरा दौर न होता, तो उनका शिविर अप्रैल में शुरू हो जाता। दूसरी लहर के चलते उनका कैंप स्थगित करना पड़़ा। अधिकांश क्वालीफायर प्रतियोगिताएं  रद्द कर दी गई हैं। ऐसे में, लंदन ओलंपिक की कांस्य पदक विजेता शटलर साइना नेहवाल, कदांबी श्रीकांत, एथलीट सुधा सिंह, स्टीपलचेजर पारुल चौधरी, पहलवान दिव्या काकरान, रियो ओलंपिक की कांस्य पदक विजेता पहलवान साक्षी मलिक जैसी खिलाड़ियों की ओलंपिक में हिस्सा लेने की उम्मीदें टूट चुकी हैं। जाहिर है, खेल संघों के साथ-साथ केंद्र और राज्य सरकारों को भी कोरोना से उपजी नई परिस्थितियों से अपने खिलाड़ियों को उबारने और टूट चुकी खेल प्रतिभाओं के साथ खड़े होने के लिए आगे होना होगा। जो खिलाड़ी खुराक के अभाव में खेल छोड़ने को मजबूर हुए, उनकी तुरंत मदद की जानी चाहिए। उनकी खुराक का बंदोबस्त किया जाए, ताकि हालात के सामान्य होने तक अपने-अपने घर पर रहते हुए वे अपनी ट्रेनिंग जारी रख सकें। तमाम क्षेत्रों को इस संकट काल में सरकार से आर्थिक मदद मिली है, इन खिलाड़ियों की भी सहायता की जाए। इस काम में देश के संपन्न उद्यमियों और निजी क्षेत्र को भी आगे आना चाहिए। इन खेल प्रतिभाओं को यह भरोसा दिलाना होगा कि उनका भविष्य दांव पर नहीं लगने दिया जाएगा। आने वाले अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में वे इस देश के लिए गौरवशाली पल अर्जित कर सकें, इसके लिए  जरूरी है कि उनके खेल पर विराम न लगे।

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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Tuesday, May 18, 2021

काश! अपने पांव पर खड़े होते गांव (हिन्दुस्तान)

बद्री नारायण, निदेशक, जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान 

कोरोना का घातक प्रसार देश के गांवों में भी पहुंच चुका है। शहर, शहर से लगे कस्बों, बाजारों से होता हुआ यह वायरस अब दूरस्थ गांवों में भी अपने पांव फैलाने लगा है। कोरोना की पहली लहर में उत्तर भारत के गांव बहुत प्रभावित नहीं हुए थे। तब लगा था कि ‘इंडिया’ के प्रभावी उपायों से ग्राम-अंचलों में फैला ‘भारत’ बच जाएगा। पर ऐसा न हो सका। आज गांवों की गलियों में मृत्यु को घूमते-टहलते आप आसानी से देख सकते हैं। भारतीय गांवों की सबसे बड़ी मजबूरी है- शहरों पर उनकी निर्भरता। गांव के लोग प्रवासी मजदूर, कामगार बनकर शहरों, महानगरों में जाने और वहां से लौटने को विवश हैं। शहरों में अन्न, सब्जी, दूध बेचने जाना और वहां से दैनंदिन जीवन की अनेक जरूरी वस्तुओं का गांवों में आना ग्रामीण जीवन की मजबूरी है। इन्हीं लोगों और उत्पादों के साथ संक्रामक बीमारियां गांवों में पहुंचती, पांव पसारती रही हैं। हैजा, चेचक जैसी अनेक संक्रामक बीमारियां और उनके जानलेवा विषाणु औपनिवेशिक काल में भी सैनिकों के साथ परेड करते जिला केंद्रों के सिविल लाइन्स (ब्रिटिश सैनिकों के रहने के लिए विकसित क्षेत्र) से उड़कर शहरी आबादी में पहुंचते थे। फिर शहरी आबादी से गांवों में।

 

महात्मा गांधी पश्चिम-उत्पे्ररित शहरीकरण के इस दुश्चक्र को अच्छी तरह समझ चुके थे। वह कहते थे, भारत का भविष्य भारतीय गांवों से जुड़़ा है। गांव बचेंगे, तो भारत बचेगा। पश्चिम से प्रभावित आधुनिकीकरण और उसके सर्वग्रासी संकट को समझते हुए उन्होंने अपने उपनिवेशवाद विरोधी आजादी के संघर्ष के साथ भारतीय गांवों के पुनर्निर्माण के अभियान को मजबूती से जोड़ा था। वह शहरों पर निर्भरता के दुश्चक्र से मुक्त ‘आत्मनिर्भर गांव’ विकसित करना चाहते थे। सन 1945 में जवाहरलाल नेहरू को लिखे एक पत्र में उन्होंने कहा था, ‘मेरा आदर्श गांव अब भी मेरी कल्पनाओं में ही अवस्थित है। मैं भारत में एक ऐसी ग्राम-व्यवस्था और संस्कृति का विकास चाहता हूं, जो एक जागरूक गांव विकसित कर सके। ये शिथिल चेतना वाले गांव न हों; ये अंधेरे से भरे गांव न हों, ये ऐसे गांव न हों, जहां जानवरों के गोबर चारों तरफ फैले रहते हों। ये ऐसे गांव हों, जहां स्त्री-पुरुष आजादी के साथ रह सकें।’ इसी पत्र में उन्होंने आगे लिखा है कि मैं ऐसे गांव विकसित करना चाहता हूं, जो हैजा, प्लेग जैसी महामारियों से मुक्त रहें। जहां कोई आरामतलब एवं बेकार न हो। जहां सभी श्रमशील रहें और सबके पास काम रहें। ऐसे गांवों के पास से रेल लाइनें भी गुजरें, और इनमें पोस्ट ऑफिस भी हों। गांधी भारतीय गांवों को साफ-सुथरा, महामारियों से मुक्त रिहाइश के रूप में विकसित करना चाहते थे। इसके लिए अपने पड़ोसी शहर पर गांवों की निर्भरता बढ़ाने के चक्र को वह तोड़ देना चाहते थे। वह गांवों से हो रहे पलायन की प्रक्रिया को रोकना चाहते थे। इसके लिए वह कृषि के साथ ही स्थानीय उत्पादों पर आधारित ग्रामीण उद्योगों को विकसित करना चाहते थे। वह चाहते थे कि गांव में आत्मतोष का भाव विकसित हो, और जहां जिसकी जितनी जरूरत हो, उतना वह उपभोग करे और अपने उत्पाद दूसरों से आदान-प्रदान करे। महात्मा गांधी उस बड़ी बचत की चाह को गांवों से खत्म करना चाहते थे, जो पूंजीवाद की खुराक बनकर उसे पोषित करता है। गांधी के गांव में शहरों से ज्यादा कुछ खरीदने की अपेक्षा नहीं थी। वह तो ग्रामीण उद्योगों के लिए कच्चा माल भी दूर से मंगाने के बजाय स्थानीय स्तर पर उगाए जाने की वकालत करते थे। 


भारतीय गांवों की आत्मनिर्भरता और शहरों में जाने-आने की बढ़ती जरूरतों को नियंत्रित करने के लिए गांधी का मानना था कि गांव में प्राथमिक से लेकर विद्यापीठ तक स्थापित करने होंगे। उनका मानना था कि प्रारंभिक शिक्षा के बाद ग्रामीण विद्यार्थियों को शहरों में आकर माध्यमिक व उच्च शिक्षा लेने के लिए मजबूर होना पड़ता है। वह इस मजबूर गतिशीलता पर रोक लगाना चाहते थे। गांधी की परिकल्पना का ‘आत्मनिर्भर गांव’ वस्तुत: उनका मिशन था, जिसे वही नहीं, बल्कि पूरी गांधीवादी सामाजिक राजनीति सच बनाने में लगी थी। विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, जे सी कुमारप्पा जैसे लोग आजादी के बाद बापू के ‘ग्राम-स्वराज’ और आत्मनिर्भर गांव के सपने को सच करने में जीवन-पर्यंत लगे रहे। 

महात्मा गांधी की यह परिकल्पना विकास की संपूर्ण दृष्टि और कार्ययोजना थी। इसमें आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक दृष्टियों का समन्वय भी था। गांधी के कई अनुयायियों ने देश के विभिन्न भागों के गांवों में गांधीवादी संकल्पना से काम भी किया। एपीजे अब्दुल कलाम ने इसी सोच को अपने ढंग से विकसित करके एक रूपरेखा रखी थी, जिसमें गांवों को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश थी। प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता नानाजी देशमुख, अन्ना हजारे भी अपने-अपने ढंग से महात्मा गांधी के इसी सपने को आगे बढ़ाते रहे। अटल बिहारी वाजपेयी ने तो अपने प्रधानमंत्रित्व काल में गांवों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कई महत्वपूर्ण योजनाएं प्रारंभ की थीं। किंतु महात्मा गांधी का सपना साकार न हो सका, क्योंकि भारतीय राज्य आजादी के बाद से संगठित ढंग से जिस आर्थिक नीति पर चलता रहा, वह भारी उद्योगों, पश्चिमी आधुनिकता और शहरीकरण की प्रक्रिया को बल दे रहा था। शायद इसीलिए गांधी के सपने के बिल्कुल उलट विकास की प्रक्रिया चली। परिणाम यह हुआ है कि भारत में शहरीकरण तेज होता जा रहा है और अब तो ग्रामीण अंचलों में भी शहरीकरण का प्रसार होता जा रहा है। अगर आजादी के तुरंत बाद से भारतीय राज्य गांधी के ‘ग्राम-स्वराज’ और ‘आत्मनिर्भर ग्राम’ की अवधारणा पर काम करता, तो भारतीय समाज का विकास उस दिशा में हुआ होता, जहां घातक संक्रमणों से मुक्त भारतीय गांव बन पाता। आज अपनों को खोने का जो रुदन गांवों में सुनाई पड़ रहा है, उसमें कहीं न कहीं महात्मा गांधी की भी पीड़ा शामिल है। उसमें एक आह छिपी है कि काश! भारत में ऐसा ग्राम-स्वराज बन पाता, जो जातिवादी हिंसा, छुआछूत और आधुनिकता की अनेक बुराइयों व संक्रमण से मुक्त आधार क्षेत्र की तरह विकसित हो पाता। आज जब कोरोना गांव-गांव तक फैल रहा है, तब हमें अपने विकास संबंधी आत्ममंथन में महात्मा गांधी के इस महत्वपूर्ण दृष्टिकोण को याद करना ही चाहिए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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Monday, May 17, 2021

खुलेंगी खिड़कियां एक दिन (हिन्दुस्तान)

विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारी 

सन 1947 में भारत का विभाजन एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सहमतियों से अधिक असहमतियों की गुंजाइश हमेशा बची रहती है। बहुत सारे मिथक हैं, जो हमने अपने नायकों, घटनाओं व नतीजों के इर्द-गिर्द बुन रखे हैं, और जैसे ही कोई बौद्धिक इन्हें ‘डीकंस्ट्रक्ट’ करने का प्रयास करता है, उसे बहुत से पूर्वाग्रहों और सरलीकृत स्थापनाओं से जूझना पड़ता है। भारत और पाकिस्तान, दोनों जगहों पर विभाजन को लेकर एक ऐसा विमर्श मौजूद है, जिसके केंद्र में हिंदुओं और मुसलमानों के 1,300 वर्षों से अधिक के संग-साथ की तल्खियां और मिठास दिख ही जाती है। दोनों देशों में पढ़ाए जाने वाले इतिहास की पाठ्य पुस्तकें खुद ही एक गंभीर समाजशास्त्रीय अध्ययन का विषय हो सकती हैं। किसी एक ही शख्सियत या घटना के बारे में दोनों के विवरणों और स्थापनाओं में इतना अंतर दिखता है कि विश्वास नहीं होता, वे एक ही विषय-वस्तु के इर्द-गिर्द अपना ताना-बाना बुन रहे हैं।


इस तरह की विभक्त बौद्धिक दुनिया में पिछले कुछ वर्षों से प्रोफेसर इश्तियाक अहमद एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप कर रहे हैं। लाहौर में जन्मे, पले-बढ़े और शुरुआती शिक्षा प्राप्त पाकिस्तानी मूल के स्वीडिश नागरिक प्रो अहमद वहीं इतिहास और राजनीति शास्त्र पढ़ाते रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में अंग्रेजी में छपी उनकी दो पुस्तकें पंजाब : लहूलुहान, विभाजित और नस्ली सफाई  तथा जिन्ना : सफलताएं, असफलताएं और इतिहास में उनकी भूमिका भारतीय उपमहाद्वीप की सांप्रदायिक राजनीति को समझने का प्रयास करने वाले किसी भी गंभीर अध्येता के लिए अनिवार्य पाठ्य सामग्री बन गई हैं। भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन की गुत्थियों को सुलझाने के लिए 1,300 वर्षों के उस पड़ोस को समझना जरूरी है, जो आठवीं शताब्दी में मोहम्मद बिन कासिम के सिंध विजय के साथ शुरू हुआ था। यह पड़ोस दुनिया की दो बड़ी जीवन पद्धतियों का था। एक तरफ, धर्म की शास्त्रीय समझ से परे हिंदू थे और दूसरी तरफ, आसमानी किताब और आखिरी पैगंबर में यकीन रखने वाले मुसलमान और स्वाभाविक ही इनकी विश्व दृष्टि एक-दूसरे से बहुत भिन्न थी। इस संग-साथ ने रचनात्मकता की दुनिया में बहुत कुछ श्रेष्ठ निर्मित किया। साहित्य, संगीत, स्थापत्य, मूर्तिकला, पाक शास्त्र- हर क्षेत्र में इन्होंने मिल-जुलकर अद्भुत योगदान किया। पर यह कहना सरलीकरण होगा कि दुनिया के दो बडे़ धर्मों के अनुयायी सिर्फ रचनात्मक लेन-देन कर रहे थे, सही बात यह है कि वे हजार साल से अधिक एक-दूसरे से लड़ते भी रहे थे। इसी तरह के दूसरे सरलीकरण हैं कि लड़ते तो सिर्फ शासक थे, प्रजा प्रेम से रहती थी या हिंदुओं और मुसलमानों को ब्रिटिश शासकों ने लड़ाया, अन्यथा वे तो शांति से रहना चाहते थे। विभाजन को लेकर भी सरलीकृत धारणाएं हैं, जो भारतीय समाज के सांप्रदायिक रिश्तों को समझने की कोशिश करने वाले मुझ जैसे जिज्ञासु को उलझन में डालती रही हैं। इन्हीं कुछ गुत्थियों को सुलझाने का मुझे मौका मिला, जब पिछले दिनों मैंने प्रो इश्तियाक से एक लंबी बातचीत की। सभी जानते हैं, विभाजन ने एक करोड़ से भी अधिक परिवारों को प्रभावित किया था। बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हुए या मारे गए। विभाजन में तो मुख्य रूप से पंजाब और बंगाल का बंटवारा हुआ था और प्रो इश्तियाक ने पंजाब पर बहुत महत्वपूर्ण काम किया है। दोनों तरफ के दर्जनों विस्थापितों से इंटरव्यू लेकर उन्होंने मौखिक इतिहास का दुर्लभ व मूल्यवान दस्तावेजीकरण किया है। 

भारत में बहुत से लोग, जिनमें फैजान मुस्तफा जैसे आधुनिक और असदुद्दीन ओवैसी जैसे कट्टरपंथी शरीक हैं, तर्क देते हैं कि हिन्दुस्तान के मुसलमान अपनी मर्जी से भारतीय हैं। उन्हें 1947 में मौका मिला था कि वे पाकिस्तान जा सकते थे, पर वे अपनी धरती से प्यार करते थे, इसलिए उन्होंने भारत नहीं छोड़ा। मुझे इस स्थापना से हमेशा दिक्कत होती है कि क्या पाकिस्तान से आने वाले सिख और हिंदू अपनी धरती से प्यार नहीं करते थे। इस स्थापना से आजाद भारत के गांधी-नेहरू जैसे रोशन ख्याल नेतृत्व के प्रयासों का अपमान होता है, जिनके कारण भारत से उस तरह से मुसलमानों की नस्ली सफाई नहीं हो सकी, जैसे पाकिस्तान से सिखों और हिंदुओं की हुई। उन्होंने अपनी पंजाब वाली किताब का जिक्र किया, जिसमें उन्होंने विस्तार से मार्च 1947 में रावलपिंडी में सिखों पर मुसलमानों के हमलों का जिक्र किया है। इसमें कई हजार सिख मारे गए थे और हजारों परिवार उजड़कर पटियाला पहुंचे थे। यह आजादी के पहले की शुरुआती नस्ली सफाई थी। बाद में शेष पाकिस्तान में इसी पैटर्न की दूसरी कार्रवाइयां हुईं और नतीजतन आज एक प्रतिशत से कम हिंदू, सिख वहां हैं। इसके बरक्स भारत में क्या हुआ? मार्च में जब सिख भागकर आए, तब जरूर नस्ली सफाई का एक दौर आया, जिसमें सिखों ने मुसलमानों को मलेरकोटला छोड़कर पूरे पंजाब से खदेड़ दिया। याद रहे कि तब का पंजाब दिल्ली की सीमा तक था। पर जब तक नस्ली सफाई का सिलसिला दिल्ली तक पहुंचा, देश आजाद हो चुका था और बलवाइयों के लिए गांधी और नेहरू एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आए। गांधी तो सांप्रदायिक हिंसा के विरुद्ध अनशन पर बैठ गए और इसे तोड़ने के लिए उनकी एक शर्त यह भी थी कि हिंदू और सिख बलात कब्जा की गई अन्य संपत्तियों के साथ मस्जिदों को भी मुसलमानों को वापस सौंप दें। इस तरह का कोई प्रयास जिन्ना या लियाकत अली खां द्वारा पाकिस्तान में नहीं किया गया। भारत में आजादी के बाद के रोशन ख्याल नेतृत्व को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि उसने नस्ली सफाई नहीं होने दी और अधिसंख्य मुसलमान देश में रुक सके। इसी तरह, कैबिनेट मिशन को लेकर एक मिथ यह है कि यदि कांग्रेस ने उसे मान लिया होता, तो विभाजन टल सकता था। पर प्रो इश्तियाक से बात करके यह मिथ टूटता है। वह मानते हैं कि कैबिनेट मिशन की असफलता का मुख्य कारण जिन्ना की हठधर्मिता ही अधिक थी। प्रो इश्तियाक भारत-पाकिस्तान के उन बुद्धिजीवियों में हैं, जो विश्वास करते हैं कि यद्यपि सन 1947 के पहले की स्थितियां लौटाई नहीं जा सकतीं, पर यूरोपीय यूनियन जैसी व्यवस्था तो हो ही सकती है, जिसमें वीजा खत्म हो सकता है, व्यापार निर्बाध हो जाए या साहित्य और संस्कृति की खिड़कियां खोलकर ताजी हवा के झोंके आने दिए जाएं। हम दोनों ने इसी उम्मीद के साथ बातचीत खत्म की कि हमारे जीवन में ही यह दिन आएगा जरूर।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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Thursday, May 13, 2021

राष्ट्रीय कार्यबल को मिले अधिकार (हिन्दुस्तान)

यशोवर्द्धन आजाद, पूर्व आईपीएस अधिकारी 

सर्वोच्च अदालत ने पिछले हफ्ते एक राष्ट्रीय कार्यबल (नेशनल टास्क फोर्स- एनटीएफ) का गठन किया, जो एक सप्ताह के भीतर राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों को चिकित्सकीय-ऑक्सीजन के आवंटन की नीति बताएगा, और अगले छह महीनों में एक राष्ट्रीय योजना की व्यापक रूपरेखा पेश करेगा, ताकि अभी और भविष्य में हम कोविड-19 से कारगर जंग लड़ सकें। विशेषज्ञों से भरा यह 12 सदस्यीय कार्यबल भरोसा जगाता है। हालांकि, इसका काम सिर्फ सिफारिश करना है, लिहाजा उसकी अनुशंसाओं पर फैसले लेने का अधिकार केंद्रीय नौकरशाही के पास ही होगा, जिसकी तस्वीर बहुत धवल नहीं है। लोग फैसले लेने वाली कोई पेशेवर और निष्पक्ष इकाई चाहते हैं, जिसके लिए कार्यबल ही उपयुक्त है, फिर चाहे वह मौजूदा स्वरूप में हो या फिर जरूरत के मुताबिक इसमें अन्य विशेषज्ञ भी शामिल किए जाएं। सुप्रीम कोर्ट के लिए आवश्यक है कि वह इस  राष्ट्रीय कार्यबल को इतना मजबूत करे कि वह कोविड-19 से जुड़े फैसले खुद ले सके। इस समय सबसे बड़ी जरूरत यही है कि राष्ट्रीय कार्यबल जैसी किसी इकाई द्वारा त्वरित निर्णय लिए जाएं। यह अभी सबसे बड़ी जरूरत है। एक उदाहरण से इसे समझिए। पिछले साल कोविड-19 के मामलों में उछाल आने के बाद मार्च में भारत सरकार के सचिवों के नेतृत्व में 11 अधिकार प्राप्त समितियों का गठन किया गया। फिर भी, प्रस्तावित 133 नए ऑक्सीजन-प्लांट में से सिर्फ 33 प्लांट स्थापित हो सके, और ये समितियां कुछ नहीं कर सकीं। नवंबर में, संसद की स्थाई समिति ने ऑक्सीजन-आपूर्ति, आईसीयू बेड और अन्य सुविधाओं की कमी को लेकर चिंता जताई थी। मगर जब बीते मार्च में दूसरी लहर ने भारत पर हमला किया, तब हम बिना तैयारी के थे। ऑक्सीजन-कोटे को लेकर दिल्ली और केंद्र के बीच की लड़ाई को ही लीजिए। आखिरकार अदालत ने दिल्ली को प्रतिदिन 700 मीट्रिक टन ऑक्सीजन आवंटित करने का फैसला दिया। क्षमता स्थापित करना और वितरण का निर्धारण करना भी मुद्दे हो सकते हैं। मगर, पिछले साल के अति-संतोष और इस बार की मौजूदा जरूरत में तुलना करें, तो यह साफ हो जाता है कि त्वरित अदालती फैसले और समितियों के आदेश क्या कर सकते हैं?

दूसरी बात, विशेषकर ऑक्सीजन की आपूर्ति को लेकर निजी और स्थानीय स्तर पर सफलताएं देखी गई हैं। केरल, ओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे कुछ राज्य न सिर्फ अपने यहां ऑक्सीजन-रिजर्व को बनाए रखने में सफल हुए, बल्कि उन्होंने अन्य सूबों की भी मदद की। नंदुरबार (महाराष्ट्र) के युवा जिलाधिकारी ने अपने जिले में तीन ऑक्सीजन-प्लांट लगाए, तो बृह्नमुंबई महानगर पालिका आयुक्त को भी अपने कामों के लिए भरपूर सराहना मिली। मगर इस तरह के निजी प्रयास पर्याप्त नहीं होते हैं, और एक केंद्रीय इकाई की जरूरत होती ही है, जो रोजाना के आधार पर चुनौतियों को देखते हुए फैसले ले। जैसे, ऑक्सीजन की आपूर्ति और उसके आवंटन को लेकर अगला पखवाड़ा काफी अहम है, इसलिए राष्ट्रीय कार्यबल के लिए यह महत्वपूर्ण है कि बैठकें करने और नीतियों पर विचार-विमर्श के बजाय रोजाना के आधार पर काम करे। भारत सरकार के सचिव के नेतृत्व में एक समिति पहले से ही ऑक्सीजन-आवंटन पर काम कर रही है। सचिव चाहें, तो प्रतिदिन की अपनी रिपोर्ट राष्ट्रीय कार्यबल को दे सकते हैं और वहां से आदेश ले सकते हैं। इससे राज्य भी संतुष्ट होंगे और केंद्र पर उंगली उठाने के बजाय वे अपने कामकाज पर ध्यान देंगे। तीसरी बात, विशेषज्ञ पैनल भारत की वैक्सीन-नीति को तैयार करने में (याद रखें, यह मामला भी इस समय अदालत के अधीन है) भी अधिक सक्रिय भूमिका निभा सकता है। टीके को लेकर संघीय संबंधों में तनातनी को देखते हुए टीकों के वितरण का फैसला राष्ट्रीय कार्यबल को सौंपा जाना चाहिए। व्यवस्थित टीकाकरण के लिए, रोग की मौजूदा व कथित गंभीरता को देखते हुए विभिन्न जनसांख्यिकी खंडों के लिए विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में रणनीति के आधार पर काम करने की दरकार है। चौथी बात, कोविड-19 प्रोटोकॉल पर काफी ज्यादा भ्रम होने की वजह से राष्ट्रीय कार्यबल को चिकित्सा संबंधी निर्देश जारी करने का अधिकार मिलना चाहिए। एक तरफ डॉक्टरों व विशेषज्ञों के बयान हैं कि नागरिकों को रेमडेसीवर, टोसिलीजुमाब और प्लाज्मा थेरेपी के इस्तेमाल को लेकर सावधान रहना चाहिए और खास परिस्थितियों में ही इनका इस्तेमाल करना चाहिए, जबकि दूसरी तरफ, होम आइसोलेशन में डॉक्टर धड़ाधड़ इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। राष्ट्रीय कार्यबल को इस पर तत्काल गौर करना चाहिए और एक ‘नेशनल एडवाइजरी’ जारी करनी चाहिए। नियमित प्रेस कॉन्फ्रेंस में, कार्यबल जनता से जीनोम-सीक्वेंसिंग की स्थिति और नए वेरिएंट को लेकर सूचनाएं भी साझा कर सकता है। पांचवीं बात, मदद के रूप में विदेश से चिकित्सा सामान की आपूर्ति लगातार हो रही है और भारत सरकार की समिति मानदंडों के अनुसार इनके वितरण का काम देख रही है। ऐसा न हो कि आवंटन में देरी और पूर्वाग्रह के कारण कोई नया विवाद खड़ा हो जाए। दैनिक आधार पर समिति को सुनने के बाद राष्ट्रीय कार्यबल को वितरण का काम अपने हाथ में ले लेना चाहिए। अगले छह महीनों के लिए कोविड-19 से संबंधित फैसले राष्ट्रीय कार्यबल द्वारा ही लिए जाने चाहिए। महत्वपूर्ण लंबित मामलों में त्वरित निर्णय लेने की क्षमता इसके पास है और इसकी छवि भी निष्पक्ष है। कई समितियां पहले से ही राष्ट्रीय कार्यबल की मदद करने के लिए मौजूद हैं। मौजूदा आभासी दौर में एक दिन में दो छोटी-छोटी बैठकों में ही सभी जरूरी मसलों पर फैसला हो सकता है। आलोचक राष्ट्रीय कार्यबल को न्यायिक अतिरेक की मिसाल के रूप में पेश कर सकते हैं और कह सकते हैं कि इससे चुनी गई सरकार के सांविधानिक अधिकारों का हनन होगा। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी सशक्त निकायों की स्थापना की है, जैसे, दिल्ली में अतिक्रमण को हटाने के लिए ऐसा किया गया था। लिहाजा, विपत्ति के समय असाधारण उपाय अपनाना और सुप्रीम कोर्ट का फैसला न सिर्फ केंद्र और राज्यों के बीच जारी संघर्ष को खत्म करेगा, बल्कि उनके प्रयासों की सराहना भी करेगा, क्योंकि राष्ट्रीय कार्यबल निष्पक्ष और पेशेवर फैसले लेने के लिए सरकारी आंकड़ों और संसाधनों पर ही काफी हद तक निर्भर रहेगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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Wednesday, May 12, 2021

संकट के समय में सामाजिक संगठन (हिन्दुस्तान)

हरजिंदर, वरिष्ठ पत्रकार

कहते हैं, इतिहास खुद को दोहराता है। अगर हम एक सदी पहले फैली महामारी स्पेनिश फ्लू की तुलना कोविड-19 से करें, तो कई मामलों में सचमुच ऐसा ही लगता है। बावजूद इसके कि इस बीच विज्ञान और शासन-विज्ञान ने काफी तरक्की कर ली है। निस्संदेह, सन 1918 की स्पेनिश फ्लू की त्रासदी ज्यादा बड़ी थी। वह कितनी भयावह थी, इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि उसके बाद जब 1921 में देश में जनगणना हुई, तो 1911 की जनगणना के मुकाबले आबादी कम हो गई थी। पूरे भारतीय इतिहास में इसके पहले या बाद में ऐसा कभी नहीं हुआ। इसे छोड़ दें, तो उस त्रासदी के कई सबक बहुत महत्वपूर्ण हैं। एक तो सरकार उस त्रासदी की भयावहता का सामना करने में पूरी तरह से अक्षम साबित हुई थी। लेकिन दूसरी चीज ज्यादा महत्वपूर्ण है कि उस दौरान बहुत से सामाजिक संगठन सामने आए थे और उन्होंने तकरीबन पूरे देश में लोगों की वास्तविक मदद की थी। 


इनमें से ज्यादातर के नाम और काम हम नहीं जानते, क्योंकि वे कहीं भी किताबों में दर्ज नहीं हैं। लेकिन कुछ नाम जो सामने आते हैं, वे हमारी सामाजिक चेतना और सेवा-भावना की सही तस्वीर हमारे सामने रखते हैं। फिलहाल हम ऐसे तीन नामों का जिक्र करेंगे, जिनकी कहानी बताती है कि बड़ी त्रासदी के वक्त हमारा समाज उसका मुकाबला कैसे करता है। इनमें से पहले दो नाम दो भाइयों के हैं- कल्याणजी मेहता और कुंवरजी मेहता। और तीसरा नाम है दयालजी देसाई का। ये तीनों नाम गुजरात के हैं, लेकिन जो चीज इन्हें आपस में जोड़ती है, वह है गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा के प्रति समर्पण। इसी वजह से ये तीनों 1918 के खेड़ा सत्याग्रह में भी शामिल हुए थे। तीनों कांग्रेस के सूरत अधिवेशन में भी शामिल हुए थे। मेहता बंधु सरकारी अधिकारी थे और दोनों ने एक साथ नौकरी छोड़कर अपना आश्रम स्थापित किया, जो आज भी मौजूद है। उन्होंने पटीदार युवा मंडल की स्थापना करके युवाओं को संगठित करने की कोशिश की और अपने आश्रम में युवाओं को राष्ट्रवाद की शिक्षा दी। दूसरी तरफ, दयालजी देसाई ने भी इन्हीं कामों को अपने ढंग से शुरू किया और उनके आश्रम में भी युवाओं को राष्ट्रवादी बनाने का काम किया गया। स्पेनिश फ्लू महामारी के फैलते ही ये तीनों अपने-अपने ढंग से सक्रिय हो गए। इन तीनों के पास अच्छी संख्या में समर्पित युवा थे और दरअसल, वही उनकी ताकत बने। दो काम सबसे जरूरी थे, लोगों को महामारी के प्रति जागरूक बनाना और उन तक दवा पहुंचाना। इसके लिए वे घर-घर गए। दयालजी देसाई के बारे में कहा जाता है कि वह साइकिल पर बैठकर खुद गांव-गांव जाते थे। हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि वह लोगों को कौन सी दवा देते थे? स्पेनिश फ्लू की तब तक कोई दवा नहीं थी। ज्यादा संभावना यही है कि उन्होंने कोई आयुर्वेदिक दवा ही लोगों को दी होगी। वह दवा कितनी कारगर थी हम नहीं जानते, लेकिन एक मुश्किल दौर में उन्होंने जिस तरह से समाज को जोड़कर रखने का काम किया, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है। इन तीनों ने जो सबसे महत्वपूर्ण काम किया, वह था महामारी में मारे गए लोगों के अंतिम संस्कार की व्यवस्था करना। तमाम अफवाहों और अज्ञात भय के बीच लोग उस समय अपने परिजनों के पार्थिव शरीर को वैसे ही छोड़कर चले जाते थे। इनकी पहल ने धीरे-धीरे लोगों के भ्रम दूर किए और फिर लोग अपने परिजनों के अंतिम संस्कार के लिए खुद आगे आने लगे। एक सदी बाद आज फिर से इन चीजों को याद करना इसलिए जरूरी है कि इस बार भी देश भर में जिस तरह से विभिन्न सामाजिक संगठन लोगों की मदद के लिए सामने आए, वह बताता है कि कठिन दौर में समाज को जोड़े रखने का हमारा जज्बा अब भी पहले की तरह बरकरार है। जब पूरा देश मरीजों के लिए ऑक्सीजन के संकट से जूझ रहा था, तब जिस तरह से ऑक्सीजन का लंगर चलाया गया, वह बताता है कि सेवा-भावना ही नहीं, बल्कि लोगों तक सेवा पहुंचाने की हमारी रचनात्मकता भी किसी से कम नहीं है।


कोविड-19 के संकट ने यह भी बताया है कि हमारी सरकारें भले त्वरित कार्यबल, त्वरित कार्यवाही जैसी बातें करती हों, लेकिन वे सब आखिर में नौकरशाही के जाल में फंसकर रह जाती हैं। लोगों को त्वरित राहत देने का काम, सीमित संसाधनों के बावजूद जिस तेजी और जिस सटीकता से हमारे सामाजिक संगठन कर सकते हैं, सरकारें उसके बारे में सोच भी नहीं सकतीं। इसलिए इन प्रयासों की जितनी तारीफ की जाए, कम है। लेकिन एक दूसरा सच यह है कि इस तरह के प्रयास चाहे जितने भी हों, वे सरकार की भूमिका के विकल्प नहीं बन सकते। हम 21वीं सदी के जिस दौर में हैं, उसमें उम्मीद की जाती है कि राज्य कल्याणकारी होगा और संकट या किसी भी आम समय में लोगों तक किसी भी तरह की राहत पहुंचाने का काम अंत में सरकारों को ही करना होगा। दुर्भाग्य से, जिस समय हम अपने सामाजिक संगठनों को लेकर गर्व महसूस कर रहे हैं, सरकारों के बारे में हमारी धारणा ऐसी नहीं बन पा रही। यह दुर्भाग्य इसलिए भी बड़ा है कि एक सदी पहले इस देश में जो सरकार थी या जो राज्य था, महामारी आने पर उसके हाथ-पांव फूल गए थे। बेशक, हालात अब उतने बुरे नहीं हैं। तमाम अदालती कोशिशों और लोगों के दबाव के कारण सरकारों को सक्रिय होना पड़ा है, और राहत भी कुछ लोगों तक पहुंचनी शुरू हुई है। लेकिन सच यही है कि समस्या जितनी बड़ी है, उसके मुकाबले सरकार की तैयारियां और उसके संसाधन काफी कम साबित हुए हैं। कम या ज्यादा, कमोबेश यही स्थिति एक सदी पहले भी थी। या हो सकता है कि उस समय तैयारियां व संसाधन और भी भीषण रूप से कम रहे हों। हो सकता है कि एक सदी में यह अनुपात काफी हद तक बदल गया हो; लेकिन जरूरत इस अनुपात को ही नहीं, इसकी गुणवत्ता को बदलने की थी। स्वास्थ्य-सेवा के मामले में एक यही चीज नहीं बदली। अब पहली प्राथमिकता इसे बदलने की ही होनी चाहिए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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टीके पर एक राय तो बनाइए (हिन्दुस्तान)

पार्थ मुखोपाध्याय, सीनियर फेलो, सीपीआर 

एक भीड़-भाड़ वाले चिड़ियाघर में एक मजबूत कद-काठी का इंसान शेरों को देखने की कोशिश में था। तभी एक अन्य शख्स की कोहनी उसे जा लगी, जो खुद शेरों को अच्छी तरह से देखना चाहता था। नाराज होकर पहले व्यक्ति ने दूसरे शख्स को शेर के बाड़े में फेंक दिया, और कहने लगा- अब तुम बहुत करीब से शेर देख सकोगे। 45 साल से कम उम्र के लोगों के लिए टीकाकरण शुरू करके टीके की तरफ रुझान बढ़ाने की नीति भी कुछ इसी तरह की तनातनी बढ़ाती दिख रही है; वह भी उस समय, जब टीके की आपूर्ति कम हो रही है। इससे राज्यों में प्रतिस्पद्र्धा बढे़गी और कंपनियां दाम बढ़ाएंगी। सभी के लिए टीकाकरण को लेकर राज्य उत्सुक नहीं हैं, क्योंकि रोजाना 30 लाख खुराक की आपूर्ति भी नहीं हो रही है। केंद्र उनकी मांग मानने को लेकर लापरवाह है और पिछली नीति को बदलकर एक नई ‘उदारीकृत’ योजना बनाने को लेकर संवेदनहीन। किसी भी वैक्सीन-पॉलिसी में जल्द से जल्द और हरसंभव आपूर्ति बढ़ाने की दरकार होती है। कम कीमत पर टीके की खरीदारी, मध्यम अवधि की योजना और प्रभावी ढंग से टीके का बंटवारा अभी व भविष्य में भी जीवन बचाने में सक्षम है। मगर मौजूदा नीति ऐसा करने में कारगर नहीं है।


हम टीके को उसी तरह से खरीद रहे हैं, जैसे महीने के राशन का सामान। वित्त मंत्री ने कहा था कि सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और भारत बायोटेक को क्रमश: 3,000 करोड़ और 1,567 करोड़ रुपये एडवांस दिए जाएंगे। इसके बजाय, उन्हें लगभग आधा भुगतान किया जा रहा है, जिसके तहत 16 करोड़ खुराक की आपूर्ति 157 रुपये प्रति टीके की दर पर हुई। यदि लक्ष्य 50 लाख खुराक प्रतिदिन है, तो यह सिर्फ एक महीने की आपूर्ति है। इसका अर्थ है कि केंद्र सिर्फ 45 से अधिक उम्र की आबादी के टीकाकरण में मदद करेगा, बाकी की आपूर्ति संभवत: अन्य कंपनियों से पूरी की जाएगी और बाकी का टीकाकरण राज्यों का काम है। ऐसे में, भविष्य की किसी उम्मीद के बिना टीका बनाने वाली कंपनियां क्या आपूर्ति बढ़ाने को लेकर निवेश करेंगी? फिलहाल, स्पूतनिक-वी को मंजूरी मिल गई है और उससे कुछ लाख खुराक का आयात किया जाएगा। कहा जा रहा है कि छह कंपनियां टीके देने को तैयार हैं, लेकिन अभी इस बाबत आदेश का इंतजार है। जॉनसन और नोवावैक्स को अभी तक मंजूरी नहीं मिली है। दोनों ने भारतीय साझीदार खोज लिए हैं और उम्मीद है कि वे मौजूदा जरूरत के मुताबिक केंद्र सरकार के बजाय सूबे की सरकारों से बातचीत करें। कोवैक्सीन की आपूर्ति भी अन्य कंपनियों से आउटसोर्सिंग करके बढ़ाई जा सकती है, खासकर तब, जब बौद्धिक संपदा अधिकार को भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के साथ साझा किया जाएगा। हमें नकली धींगामुश्ती को रोकना होगा। किसी भी अन्य देश में ऐसी प्रांतीय सरकारें नहीं हैं, जो टीका खरीदने के लिए प्रतिस्पद्र्धा कर रही हों। केंद्र सरकार को प्रत्येक टीके के दाम पर बातचीत करनी चाहिए, साथ-साथ उसके आयात की तारीख, अनुमोदन आदि पर भी उसे कदम बढ़ाना चाहिए। अगर राष्ट्रीय स्तर पर आदेश मिलता है, तो टीका निर्माताओं को न सिर्फ आवश्यक आश्वासन मिलेगा, बल्कि डेढ़ अरब टीके की खुराक की मांग की आपूर्ति को लेकर उनमें भरोसा भी पैदा होगा। ऐसा करने से कंपनियां हमारी अन्य अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने को लेकर प्रेरित होंगी, विशेष रूप से कोवैक्स को लेकर, जहां आपूर्ति में हमारी गड़बड़ी के कारण अधिकांश विकासशील राष्ट्र अधर में लटक गए हैं। ऐसे में, चीनी कंपनी को पैठ बनाने का मौका मिल रहा है।

दूसरा मसला कीमत का है। नई वैक्सीन नीति राज्यों को दंडित करने के लिए बनाई गई प्रतीत होती है। अपेक्षाकृत विवेकशील ‘पूर्व-उदारीकरण’ नीति में, वैक्सीन की लागत केंद्र उठा रहा था। इसके लिए उसने 35,000 करोड़ रुपये का बजट रखा। और टीकाकरण की लागत राज्यों द्वारा वहन की जानी थी। राज्यों को नि:शुल्क टीके मुहैया कराने की दैनिक प्रेस विज्ञप्ति मानो खैरात बांटने की जानकारी हो। यह संघीय लागत-साझाकरण की भावना के खिलाफ है। नई वैक्सीन नीति के तहत, केंद्र आपूर्ति का आधा हिस्सा खरीदेगा। एक चौथाई टीके राज्यों के लिए हैं, जो केंद्रीय कोटे के अनुसार साझे किए जाएंगे, और एक चौथाई वैक्सीन निजी क्षेत्र को मिलेगी, जो कोवैक्सीन के मामले में दोगुना से तीगुना कीमत चुका रहा है। अगर सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक सामान्य निजी कंपनियों की तरह व्यवहार करती हैं, तो वे पहले ऊंची कीमत देने वाले निजी क्षेत्र की मांग पूरी करेंगी, और फिर यदि बचेगा, तब राज्यों को आपूर्ति की जाएगी। यानी, नौजवानों को लगाने के लिए राज्यों को अब कम टीके उपलब्ध होंगे और उन्हें कीमत भी ज्यादा चुकानी होगी।


तीसरा, यदि केंद्र टीका बनाने वालों के साथ मूल्य और खुराक को लेकर बातचीत करता है, तो आपूर्ति की मौजूदा नीति के तहत पारदर्शी व्यवस्था बनाई जा सकती है। जो राज्य अधिक टीकाकरण करते हैं, उन्हें अतिरिक्त टीके दिए जा सकते हैं, जबकि जिन राज्यों की जरूरत कम है, उन्हें उसी अनुपात में आपूर्ति की जा सकती है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में भी इसी तरह का लचीला रुख अपनाया गया है। यदि राज्य कर-बंटवारे पर सहमत हो सकते हैं, तो फिर टीके साझा करने पर भी वे एक राय बना ही सकते हैं। बेहतर पूर्वानुमानित आपूर्ति राज्यों को इंतजार करने के बजाय बेहतर योजना बनाने और टीकों की तरफ लोगों की रुझान बढ़ाने और तेज टीकाकरण की तरफ आगे बढ़ने को प्रेरित करेगी। इस तरह की संशोधित नीति से ही साल के अंत तक टीका लेने योग्य पूरी आबादी का टीकाकरण संभव हो सकता है, और यदि कंपनियां जल्द ही उत्पादन के लिए निवेश करती हैं, तो हम निर्यात भी कर सकते हैं। तो क्या केंद्र और राज्य सरकारें अपना-अपना रुख बनाए रखेंगी या एक समझदारी भरी वैक्सीन नीति बनाने के लिए मिलकर फैसले करेंगी? अतीत में इस तरह के मनमुटाव ने अमूमन आजीविका को नुकसान पहुंचाया है। मगर इस बार भारतीयों और दुनिया भर के लोगों का जीवन प्रभावित हो रहा है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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Saturday, May 8, 2021

इबोला से सबक सीखे भारत (हिन्दुस्तान)

निखिल पांधी, शोधकर्ता, चिकित्सा व सांस्कृतिक नृविज्ञान, प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी 

पश्चिमी अफ्रीका में इबोला महामारी ने 28,616 लोगों को संक्रमित किया था और 2014 से 2016 के बीच सिएरा लियोन, लाइबेरिया और गिनी में 11,310 लोगों की मौत हुई थी। इबोला से हुई वह त्रासदी भले ही एक क्षेत्र विशेष की थी, लेकिन कोविड-19 महामारी के समय वह गौरतलब है। आज जब दूसरी लहर भारत को कुचल रही है, तब सूक्ष्म और स्थूल, दोनों स्तरों पर इबोला संकट से हम सबक ले सकते हैं। सबसे पहले, इबोला की तरह ही कोविड-19 को भी देखभालकर्ता को भी होने वाली बीमारी के रूप में माना जाना चाहिए। पश्चिमी अफ्रीका में इबोला के इलाज से जमीनी स्तर पर जुड़े रहे विश्व प्रसिद्ध संक्रामक रोग चिकित्सक और मानव विज्ञानी पॉल फार्मर ने अपनी पुस्तक फेवर्स, फ्यूड्स ऐंड डायमंड्स : इबोला ऐंड द रैवेजेज ऑफ हिस्ट्री  में लिखा है - महत्वपूर्ण बात यह है कि हजारों लोगों को इबोला इसलिए हुआ, क्योंकि वे बीमार लोगों की सेवा व मृतकों के अंतिम संस्कार में लगे थे। कोविड-19 के मामले में भी पहचानना जरूरी है कि यह देखभाल करने वालों, जैसे डॉक्टरों, नर्सों व पैरा-मेडिकल स्टाफ से लेकर घर, अस्पताल, क्लिनिक और श्मशान में काम करने वालों को प्रभावित कर रहा है। आज सेवा में लगे लोगों को अपने छोटे-छोटे प्रयास के स्तर पर कमियों को पहचानने व सुधार करने की जरूरत है।

 

टीकाकरण से परे भारत सरकार को कोरोना के खिलाफ मोर्चा ले रहे अग्रिम पंक्ति के योद्धाओं को जोखिम से बचाने के लिए ठोस योजना विकसित करनी चाहिए। अग्रिम पंक्ति के योद्धाओं की कमी का जोखिम बहुत वास्तविक है। श्मशान, कब्रिस्तान और मोर्चरी में कार्यरत लोग आम तौर पर दलित-दमित वर्ग से आते हैं, क्या उन्हें राज्य मान्यता देता है? क्या ऐसे उपेक्षित श्रमिकों (और उनके परिवारों) के लिए सरकार ने किसी बीमा की व्यवस्था की है? साफ है, इबोला या कोरोना से पीड़ित लोगों के साथ-साथ उनकी तिमारदारी करने वालों को भी उतनी ही गंभीरता से लिया जाए। दूसरा, संक्रमितों की देखभाल-क्षमता का विकास पहले करने के बाद ही कंटेनमेंट बनाकर वायरस से मुकाबले के निर्देश जारी किए जाने चाहिए। लॉकडाउन की घोषणा और सिर्फ जबरदस्ती से रोकथाम के उपाय लागू करना अपने आप में कोई समाधान नहीं है। इबोला के मामले में पॉल फार्मर चर्चा करते हैं, सार्वजनिक स्वास्थ्य और बायो-मेडिसिन राज्य के सामाजिक अनुबंध का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। सुरक्षित और प्रभावी देखभाल सुनिश्चित किए बिना रोकथाम की नीति की अपनी सीमाएं हैं। इबोला के समय भली-भांति देखा गया था कि ऐसा करना न सिर्फ पीड़ितों के जीवन को खतरे में डालता है, बल्कि राज्य के खिलाफ आक्रोश भी पैदा करता है, जो अविश्वास का रूप ले सकता है। अपने हाल पर छोड़ दिए गए लोग कंटेनमेंट, संपर्क-ट्रेसिंग और टीकाकरण का विरोध भी कर सकते हैं।

तीसरा, भारत में मौजूदा संकट इसलिए भी ज्यादा है, क्योंकि अस्पताल जरूरत से ज्यादा दबाव में आ गए हैं, और राज्य बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में नाकाम है, ऑक्सीजन, बिस्तर, उपकरण, दवाएं और टीके का अभाव है। इबोला संकट भी यही दर्शाता है कि बुनियादी कर्मचारियों, सामग्री और देखभाल की व्यवस्था का अभाव था। पश्चिमी अफ्रीका में स्वतंत्र इबोला उपचार इकाइयां सामुदायिक सक्रियता के माध्यम से स्थापित की गई थीं और दूसरे व तीसरे स्तर की चिकित्सा की अनुपस्थिति में दो साल तक कायम थीं। भारत में उन इलाकों में चिकित्सा इकाइयों को तेजी से विकसित करना चाहिए, जिनके आसपास लोग इलाज के अभाव में मर रहे हैं, जहां अस्पताल में जगह नहीं मिल रही। लोग कोरोना से नहीं, बल्कि स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी से जान गंवा रहे हैं। अभी बुनियादी चिकित्सा ढांचे की अनुपस्थिति भारी पड़ रही है। आज जांच और इलाज के लिए तत्काल चिकित्सा इकाइयों और ऑक्सीजन हब बनाने की जरूरत है। चौथा, हम वायरल महामारी में स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारकों की उपेक्षा नहीं कर सकते। भारत में चल रही दूसरी लहर में संक्रमण और चिकित्सा व्यवस्थाओं की विफलता मध्य व उच्च-मध्य वर्गों को प्रभावित कर रही है। यह 2020 की पहली लहर से अलग है, जिसमें सबसे पहले दुर्बल श्रमिक, प्रवासी श्रमिक, गरीब व सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित ज्यादा निशाने पर थे। हमें खुद से पूछना चाहिए, राज्य, मीडिया, नागरिक (नेटिजन सहित) और चिकित्सा व्यवस्थाएं पहली और दूसरी लहर के बीच के समय में पर्याप्त कदम उठाने में नाकाम क्यों रहीं? वर्तमान दौर दर्शाता है कि वर्ग और जाति के आधार पर संकट व देखभाल की हमारी धारणा कैसे तय की जाती है? हम सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति तभी गंभीर होते हैं, जब उच्च वर्ग के लोग शिकार होने लगे।

पांचवां, वायरस हमेशा समाज में कमजोरियों का पीछा करते हैं, और समाज की दरारों व कमियों पर हमला बोलते हैं। जैसा कि पॉल फार्मर ने एक साक्षात्कार में कहा था, महामारी की शुरुआत में एक भ्रम होता है कि यह नया वायरस समाज में सभी वर्गों, लोगों को समान रूप से प्रभावित करेगा, लेकिन ऐसा कभी होता नहीं है। आज वायरस की गति को समझने और उसे काबू करने के लिए हमें अपनी सामाजिक व्यवस्था को अधिक संवेदनशील ढंंग से समझना चाहिए। इबोला के मामले में पॉल फार्मर इतिहास में समस्या की जड़ें तलाशते हैं। उपनिवेशवाद व उत्तर-औपनिवेशिक गृह युद्धों, जातीय संघर्ष और शोषणकारी संरचनात्मक ढांचा इबोला से मची तबाही के लिए जिम्मेदार हैं। भारतीय संदर्भ में देखें, तो स्वास्थ्य के प्रति सरकारों के रवैये का आधार नस्ल, वर्ग, लिंग या जातीयता नहीं रही है। इसी वजह ने सार्वजनिक स्वास्थ्य को सामाजिक या सरकारी प्राथमिकता के रूप में आकार लेने से रोका। ऐसे में, बीमार स्वास्थ्य व्यवस्था की जिम्मेदारी पीड़ितों पर ही डाल देना आम बात है। वैज्ञानिकों और वायरोलॉजिस्टों के साथ, जिनके प्रयास महत्वपूर्ण हैं, भारत सरकार को अपनी आपदा तैयारियों में समाज विज्ञानियों, सामुदायिक स्वयंसेवकों और नियमित रूप से समाज पर नजर रखने वाले लोगों को शामिल करना चाहिए। सिर्फ इबोला ही नहीं, एड्स जैसी वैश्विक महामारियों के रिकॉर्ड से भी इलाज की खास जरूरतों की पूर्ति, कमजोर समूहों की पहचान और मौजूदा देखभाल उपायों का सही पता चलता है। इबोला से सीखते हुए हमें खुद को याद दिलाना चाहिए कि एक अच्छी स्वास्थ्य व्यवस्था ही वायरस जनित खतरों को जवाब दे सकती है। कोई आपातकालीन व्यवस्था नहीं, बल्कि ऐसी रोजमर्रा की व्यवस्था ही आपदा से मुकाबले के लिए खड़ी होती है। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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Friday, May 7, 2021

ताकि दुनिया में सबको मिले टीका (हिन्दुस्तान)

अरविंद गुप्ता, डायरेक्टर, विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन 

कोरोना महामारी के बढ़ते प्रकोप को देखते हुए अमेरिका ने भारत और दक्षिण अफ्रीका के उस प्रस्ताव का समर्थन करने का फैसला किया है, जिसमें इन दोनों देशों ने ‘ट्रिप्स’ समझौते के कुछ प्रावधानों में छूट देने की बात कही थी। ट्रिप्स विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) द्वारा तय एक बहु-राष्ट्रीय समझौता है, जिस पर 1 जनवरी, 1995 को हस्ताक्षर किया गया था। इसमें बौद्धिक संपदा के अधिकारों की रक्षा के न्यूनतम मानक तय किए गए हैं। भारत और दक्षिण अफ्रीका पिछले साल अक्तूबर से ही बढ़-चढ़कर मांग कर रहे हैं कि कोरोना टीके या इसकी दवाइयों को लेकर बौद्धिक संपदा के अधिकारों को कुछ वक्त के लिए टाल दिया जाए, ताकि क्षमतावान देश कोरोना के टीके और दवाइयां बना सकें। इससे न सिर्फ दुनिया के हरेक जरूरतमंद देश तक दवाइयां व टीके पहुंच सकेंगे, बल्कि कोरोना महामारी से बड़े पैमाने पर लोगों की जान भी बचाई जा सकेगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन भारत और दक्षिण अफ्रीका के इस प्रस्ताव पर क्या रुख अपनाता है, यह तो अगले महीने होने वाली इसकी बैठक में ही पता चल सकेगा, मगर इसमें अमेरिका का समर्थन काफी मायने रखता है। उल्लेखनीय है कि दवा-निर्माण के क्षेत्र से जुड़ी ऐसी कई अमेरिकी कंपनियां हैं, जो कच्चा माल, तकनीक आदि उपलब्ध कराती हैं। अमेरिकी सरकार के फैसले का भले ही वहां की कुछ दवा कंपनियों ने विरोध किया है, लेकिन डब्ल्यूटीओ की बैठक में सदस्य देशों की सरकारें फैसला लेती हैं, कंपनियां नहीं। हालांकि, अभी यह नहीं कहा जा सकता कि अमेरिका के राजी होने मात्र से पेटेंट में छूट संबंधी भारत व दक्षिण अफ्रीका के प्रस्ताव डब्ल्यूटीओ से पारित हो जाएंगे। इसकी बैठक में सर्वसम्मति से फैसला होता है और यूरोपीय देशों की कई कंपनियां इस प्रस्ताव के विरोध में हैं। इसलिए यह देखने वाली बात होगी कि वे अपनी-अपनी सरकारों पर कितना दबाव बना पाती हैं, या फिर वहां की सरकारें अपनी-अपनी दवा कंपनियों के दबाव को कितना नजरंदाज कर पाती हैं? वैसे, इस प्रस्ताव का पारित होना मानवता का तकाजा है। अभी पूरी दुनिया कोविड-19 की जंग लड़ रही है। 32 लाख से अधिक लोगों की जान जा चुकी है। बेशक, कई देशों में टीकाकरण अभियान की शुरुआत हो चुकी है, लेकिन करीब 120 राष्ट्र अब भी ऐसे हैं, जहां कोरोना टीके की एक भी खुराक नहीं पहुंच सकी है। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि गिनी-चुनी कंपनियों के पास ही पेटेंट अधिकार हैं और वही टीके का उत्पादन कर रही हैं। चूंकि इन कंपनियों की क्षमता भी सीमित है और इनसे उत्पाद लेने की प्रक्रिया लंबी व जटिल, इसलिए खरीदार देशों तक टीके पहुंचने में भी वक्त लग रहा है। फिर कई देश महंगी कीमत होने के वजह से इन कंपनियों की मांग पूरी नहीं कर पाते हैं। लिहाजा, विश्व व्यापार संगठन यदि भारत और दक्षिण अफ्रीका के सुझाव को मान लेता है, तो भारत जैसे कई देशों में वैक्सीन निर्माण-क्षमता का विस्तार होगा और जरूरतमंदों तक टीके पहुंचाए जा सकेंगे। टीकाकरण अभियान को खासा गति मिल सकेगी। इस छूट के आलोचक तर्क दे रहे हैं कि यदि इस प्रस्ताव को मान लिया गया, तो दवा अथवा टीके के शोध और अनुसंधान पर असर पडे़गा। आपूर्ति शृंखला के कमजोर होने और नकली वैक्सीन या दवा को मान्यता मिलने की आशंका भी वे जता रहे हैं। मगर इसमें पूंजी का खेल भी निहित है। चूंकि ट्रिप्स समझौते के तहत कंपनियां सूचना व तकनीक साझा करने से बचती हैं, इसलिए उनका लाभ बना रहता है। पेटेंट में छूट मिल जाने के बाद उन्हें अपना लाभ भी साझा करना पड़ेगा, जिस कारण भारत और दक्षिण अफ्रीका के प्रस्ताव का विरोध किया जा रहा है। मगर विरोधियों को वह दौर याद करना चाहिए, जब विशेषकर अफ्रीका में एड्स का प्रसार अप्रत्याशित रूप से दिखा था। उस समय एड्स की ‘ट्रिपल कॉम्बिनेशन थेरेपी’ 10,000 डॉलर सालाना प्रति मरीज की दर से विकसित देशों में संभव थी, मगर अब एक भारतीय जेनेरिक कंपनी इसे महज 200 डॉलर में बना रही है। स्थानीय स्तर पर कुछ ऐसा ही प्रयोग ब्राजील, थाइलैंड जैसे देशों में भी हुआ है। यह इसलिए संभव हो पाया, क्योंकि दवा-निर्माण में पेटेंट संबंधी छूट मिली। नतीजतन, व्यापक पैमाने पर एड्स की दवाइयां बननी शुरू हुईं और यह महामारी नियंत्रण में आ गई। आज भी यही किए जाने की जरूरत है। ऐसे वक्त में, जब कोरोना जैसी वैश्विक महामारी से पूरी दुनिया लड़ रही है, विश्व व्यापार संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन अथवा संयुक्त राष्ट्र जैसी वैश्विक संस्थाओं और बड़े देशों को यह सोचना होगा कि ऐसी कोई व्यवस्था बने, जिसमें सभी राष्ट्रों को दवाइयां मिलें, टीके मिलें और कोविड-19 की जंग वे सफलतापूर्वक लड़ सकें। अगर किसी भी एक देश में कोरोना का संक्रमण बना रहता है, तो खतरा पूरे विश्व पर कायम रहेगा। इसलिए इस काम में अमीरी और गरीबी का भेद नहीं होना चाहिए। ऐसा नहीं हो सकता कि विकसित राष्ट्र अपने नागरिको को कोरोना से बचा ले जाने का सपना देखें, और गरीब देश वायरस की कीमत चुकाते रहें।

यहां एक व्यवस्था यह हो सकती है कि जब तक विश्व स्वास्थ्य संगठन इस बाबत कोई ठोस फैसला नहीं ले लेता, तब तक कंपनियां आपस में करार करके कोरोना टीका अथवा दवा-निर्माण के कार्य को तेज गति दें। इसमें यह संभावना बनी रहती है कि कंपनियां सूचना, शोध, अनुसंधान अथवा तकनीक आपस में साझा करती हैं। मगर यह आपसी विश्वास का मामला है। अगर कंपनियों को आपस में भरोसा है और लाभ कमाने की अपनी मानसिकता को वे कुछ वक्त के लिए टालना चाहती हैं, तो वे आपस में हाथ मिला सकती हैं। यह विशुद्ध रूप से कंपनियों के बीच का करार होता है और इसमें सरकारों की कोई दखलंदाजी नहीं होती। मगर आमतौर पर कंपनियां ऐसा शायद ही करना चाहेंगी। बिना फायदे के आखिर वे क्यों काम करेंगी?

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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ताकि दुनिया में सबको मिले टीका (हिन्दुस्तान)

अरविंद गुप्ता, डायरेक्टर, विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन  

कोरोना महामारी के बढ़ते प्रकोप को देखते हुए अमेरिका ने भारत और दक्षिण अफ्रीका के उस प्रस्ताव का समर्थन करने का फैसला किया है, जिसमें इन दोनों देशों ने ‘ट्रिप्स’ समझौते के कुछ प्रावधानों में छूट देने की बात कही थी। ट्रिप्स विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) द्वारा तय एक बहु-राष्ट्रीय समझौता है, जिस पर 1 जनवरी, 1995 को हस्ताक्षर किया गया था। इसमें बौद्धिक संपदा के अधिकारों की रक्षा के न्यूनतम मानक तय किए गए हैं। भारत और दक्षिण अफ्रीका पिछले साल अक्तूबर से ही बढ़-चढ़कर मांग कर रहे हैं कि कोरोना टीके या इसकी दवाइयों को लेकर बौद्धिक संपदा के अधिकारों को कुछ वक्त के लिए टाल दिया जाए, ताकि क्षमतावान देश कोरोना के टीके और दवाइयां बना सकें। इससे न सिर्फ दुनिया के हरेक जरूरतमंद देश तक दवाइयां व टीके पहुंच सकेंगे, बल्कि कोरोना महामारी से बड़े पैमाने पर लोगों की जान भी बचाई जा सकेगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन भारत और दक्षिण अफ्रीका के इस प्रस्ताव पर क्या रुख अपनाता है, यह तो अगले महीने होने वाली इसकी बैठक में ही पता चल सकेगा, मगर इसमें अमेरिका का समर्थन काफी मायने रखता है। उल्लेखनीय है कि दवा-निर्माण के क्षेत्र से जुड़ी ऐसी कई अमेरिकी कंपनियां हैं, जो कच्चा माल, तकनीक आदि उपलब्ध कराती हैं। अमेरिकी सरकार के फैसले का भले ही वहां की कुछ दवा कंपनियों ने विरोध किया है, लेकिन डब्ल्यूटीओ की बैठक में सदस्य देशों की सरकारें फैसला लेती हैं, कंपनियां नहीं। हालांकि, अभी यह नहीं कहा जा सकता कि अमेरिका के राजी होने मात्र से पेटेंट में छूट संबंधी भारत व दक्षिण अफ्रीका के प्रस्ताव डब्ल्यूटीओ से पारित हो जाएंगे। इसकी बैठक में सर्वसम्मति से फैसला होता है और यूरोपीय देशों की कई कंपनियां इस प्रस्ताव के विरोध में हैं। इसलिए यह देखने वाली बात होगी कि वे अपनी-अपनी सरकारों पर कितना दबाव बना पाती हैं, या फिर वहां की सरकारें अपनी-अपनी दवा कंपनियों के दबाव को कितना नजरंदाज कर पाती हैं? वैसे, इस प्रस्ताव का पारित होना मानवता का तकाजा है। अभी पूरी दुनिया कोविड-19 की जंग लड़ रही है। 32 लाख से अधिक लोगों की जान जा चुकी है। बेशक, कई देशों में टीकाकरण अभियान की शुरुआत हो चुकी है, लेकिन करीब 120 राष्ट्र अब भी ऐसे हैं, जहां कोरोना टीके की एक भी खुराक नहीं पहुंच सकी है। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि गिनी-चुनी कंपनियों के पास ही पेटेंट अधिकार हैं और वही टीके का उत्पादन कर रही हैं। चूंकि इन कंपनियों की क्षमता भी सीमित है और इनसे उत्पाद लेने की प्रक्रिया लंबी व जटिल, इसलिए खरीदार देशों तक टीके पहुंचने में भी वक्त लग रहा है। फिर कई देश महंगी कीमत होने के वजह से इन कंपनियों की मांग पूरी नहीं कर पाते हैं। लिहाजा, विश्व व्यापार संगठन यदि भारत और दक्षिण अफ्रीका के सुझाव को मान लेता है, तो भारत जैसे कई देशों में वैक्सीन निर्माण-क्षमता का विस्तार होगा और जरूरतमंदों तक टीके पहुंचाए जा सकेंगे। टीकाकरण अभियान को खासा गति मिल सकेगी। इस छूट के आलोचक तर्क दे रहे हैं कि यदि इस प्रस्ताव को मान लिया गया, तो दवा अथवा टीके के शोध और अनुसंधान पर असर पडे़गा। आपूर्ति शृंखला के कमजोर होने और नकली वैक्सीन या दवा को मान्यता मिलने की आशंका भी वे जता रहे हैं। मगर इसमें पूंजी का खेल भी निहित है। चूंकि ट्रिप्स समझौते के तहत कंपनियां सूचना व तकनीक साझा करने से बचती हैं, इसलिए उनका लाभ बना रहता है। पेटेंट में छूट मिल जाने के बाद उन्हें अपना लाभ भी साझा करना पड़ेगा, जिस कारण भारत और दक्षिण अफ्रीका के प्रस्ताव का विरोध किया जा रहा है। मगर विरोधियों को वह दौर याद करना चाहिए, जब विशेषकर अफ्रीका में एड्स का प्रसार अप्रत्याशित रूप से दिखा था। उस समय एड्स की ‘ट्रिपल कॉम्बिनेशन थेरेपी’ 10,000 डॉलर सालाना प्रति मरीज की दर से विकसित देशों में संभव थी, मगर अब एक भारतीय जेनेरिक कंपनी इसे महज 200 डॉलर में बना रही है। स्थानीय स्तर पर कुछ ऐसा ही प्रयोग ब्राजील, थाइलैंड जैसे देशों में भी हुआ है। यह इसलिए संभव हो पाया, क्योंकि दवा-निर्माण में पेटेंट संबंधी छूट मिली। नतीजतन, व्यापक पैमाने पर एड्स की दवाइयां बननी शुरू हुईं और यह महामारी नियंत्रण में आ गई। आज भी यही किए जाने की जरूरत है। ऐसे वक्त में, जब कोरोना जैसी वैश्विक महामारी से पूरी दुनिया लड़ रही है, विश्व व्यापार संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन अथवा संयुक्त राष्ट्र जैसी वैश्विक संस्थाओं और बड़े देशों को यह सोचना होगा कि ऐसी कोई व्यवस्था बने, जिसमें सभी राष्ट्रों को दवाइयां मिलें, टीके मिलें और कोविड-19 की जंग वे सफलतापूर्वक लड़ सकें। अगर किसी भी एक देश में कोरोना का संक्रमण बना रहता है, तो खतरा पूरे विश्व पर कायम रहेगा। इसलिए इस काम में अमीरी और गरीबी का भेद नहीं होना चाहिए। ऐसा नहीं हो सकता कि विकसित राष्ट्र अपने नागरिको को कोरोना से बचा ले जाने का सपना देखें, और गरीब देश वायरस की कीमत चुकाते रहें।

यहां एक व्यवस्था यह हो सकती है कि जब तक विश्व स्वास्थ्य संगठन इस बाबत कोई ठोस फैसला नहीं ले लेता, तब तक कंपनियां आपस में करार करके कोरोना टीका अथवा दवा-निर्माण के कार्य को तेज गति दें। इसमें यह संभावना बनी रहती है कि कंपनियां सूचना, शोध, अनुसंधान अथवा तकनीक आपस में साझा करती हैं। मगर यह आपसी विश्वास का मामला है। अगर कंपनियों को आपस में भरोसा है और लाभ कमाने की अपनी मानसिकता को वे कुछ वक्त के लिए टालना चाहती हैं, तो वे आपस में हाथ मिला सकती हैं। यह विशुद्ध रूप से कंपनियों के बीच का करार होता है और इसमें सरकारों की कोई दखलंदाजी नहीं होती। मगर आमतौर पर कंपनियां ऐसा शायद ही करना चाहेंगी। बिना फायदे के आखिर वे क्यों काम करेंगी?

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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Thursday, May 6, 2021

संक्रमण थमेगा, तभी कारोबार जमेगा (हिन्दुस्तान)

अरुण कुमार, अर्थशास्त्री


अब सरकार को भी लग गया है कि कोरोना वायरस की जो दूसरी लहर आई है, वह बहुत घातक साबित हो रही है और इसका अर्थव्यवस्था पर बड़ा असर पड़ रहा है। पूरी तरह से लॉकडाउन नहीं लगा है, लेकिन असंगठित क्षेत्र की कंपनियों पर कुछ ज्यादा ही असर पड़ा है। ऑटोमोबाइल व अन्य कुछ क्षेत्रों में अनेक छोटी कंपनियों ने अपने काम बंद कर दिए हैं। असर सभी पर है, लेकिन असंगठित क्षेत्र पर ज्यादा है और इसीलिए पलायन भी दिख रहा है। सबसे पहले तो जो पैकेज भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने दिया है, इसको हमें सरकार का पैकेज नहीं मानना चाहिए। सरकार अलग है और आरबीआई अलग है। भारतीय रिजर्व बैंक ऋण के मोर्चे पर कोशिश कर रहा है कि असंगठित क्षेत्र को कारोबार जारी रखने के लिए पैसा मिले, जिससे असंगठित क्षेत्र की इकाइयों की स्थिति और न बिगडे़। जो छोटे कारोबारी होते हैं, उनके पास पूंजी बहुत कम होती है और वह जल्दी खत्म हो जाती है। जब ऐसी इकाइयों में काम बंद होता है, तब इनके लिए खर्च निकालना भी मुश्किल हो जाता है। ऐसी कंपनियों को फिर शुरू करना भी कठिन होता है। इसीलिए छोटे कारोबारियों को पैकेज दिया गया है कि वे बैंक से ऋण ले सकें, लेकिन इससे स्थिति नहीं सुधरेगी। अभी तो और भी इकाइयां बंद हो रही हैं। जब तक संक्रमण की स्थिति नहीं संभलेगी, तब तक ये इकाइयां खुल भी नहीं पाएंगी। यह पैकेज बंद हो रही इकाइयों को थामने की कोशिश है, लेकिन इससे अभी अर्थव्यवस्था में सुधार नहीं आएगा। हमलोग लॉकडाउन की ओर बढ़ रहे हैं, अभी अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों पर असर पड़ेगा, मैन्युफेक्चरिंग क्षेत्र पर असर पड़ेगा। इस समय में आपूर्ति शृंखला फिर से टूट रही है, जबकि हमने अभी तक पूरा लॉकडाउन नहीं लगाया है। चयनित लॉकडाउन हो रहा है, इससे आपूर्ति में भी समस्या आने लगी है। जगह-जगह उत्पादों की आपूर्ति नहीं हो पा रही है, तो उत्पादकों को उत्पादन भी बंद करना पड़ रहा है। रिजर्व बैंक की भूमिका अभी सीमित है, उसकी कोशिश है कि व्यवसाय अभी लॉकडाउन की वजह से नाकाम न हों। यहां राहत दो तरह से मिल सकती है, या तो अभी काम जारी रखने के लिए ऋण मिल जाए या बैंक अभी ऋण की वसूली न करें। लेकिन इससे अर्थव्यवस्था में मांग तत्काल नहीं बनेगी और आपूर्ति में कोई विशेष सुधार नहीं आएगा। 


तो हमारी क्या रणनीति होनी चाहिए? हम देखते हैं, जहां भी विदेशी सरकारों ने कड़ाई से लॉकडाउन लगाया, वहां स्थितियां तेजी से ठीक होने लगीं। जैसे चीन है, उसने शुरू में ही संभाल लिया और ब्रिटेन ने एक सप्ताह की देरी कर दी, तो लेने के देने पड़ गए। लॉकडाउन लगाने में जहां भी देरी होगी, वहां दूसरी लहर देर तक चल रही है और जहां भी जल्दी लॉकडाउन लगता है, दूसरी लहर भी जल्दी काबू में आ जाती है। संक्रमण को आपने थाम लिया, तो आप अर्थव्यवस्था को जल्दी उबार सकते हैं। इसलिए मार्च से मैं कह रहा हूं, लॉकडाउन कर देना चाहिए। जिससे संक्रमण के मामले बढ़े नहीं। मामले बढ़ते ही इसलिए हैं कि लोग आपस में मिलते-जुलते हैं। जब लॉकडाउन लगा दिया जाता है, तब दो सप्ताह बाद मामले घटने लगते हैं। हमारे यहां फरवरी में दूसरी लहर शुरू हो गई थी, तीन महीने होने जा रहे हैं। लॉकडाउन न लगाने का खामियाजा यह है कि हमारे यहां रिकॉर्ड संख्या में मामले निकल रहे हैं और लोगों की जान भी जा रही है। चूंकि हमने अभी तक लॉकडाउन नहीं लगाया है, इसलिए मामले अभी भी बढ़ने की आशंका है। एक दिक्कत यह भी है कि आंकड़े पूरे आते नहीं हैं या उपलब्ध नहीं कराए जाते। आज चिकित्सा व्यवस्था को बहुत तेजी से सुधारने की जरूरत है। इसके लिए भी रिजर्व बैंक ने एक पैकेज दिया है। मेडिकल ढांचा विकसित करने के लिए विशेष ऋण की जरूरत पड़ेगी, उसे इस विशेष पैकेज के जरिए मुहैया कराया जाएगा। मेरा मानना है, ऐसा चिकित्सा ढांचा विकसित करने में समय लगता है, इसलिए सेना को बुला लेना चाहिए। सेना के पास अस्पताल भी होते हैं और परिवहन के साधन भी। सेना अगर आ जाए, तो राहत मिल सकती है। हमें तत्काल मदद की जरूरत है। अभी विदेश से काफी सहायता आ रही है, जैसे कोई दवा दे रहा है, तो कोई ऑक्सीजन टैंक दे रहा है। आ रही मदद को हमें बढ़ा देना चाहिए। चिकित्सा क्षेत्र में आयात बढ़ाने के लिए हमें अपनी कोशिशों का विस्तार करना चाहिए। रिजर्व बैंक ने जो पैकेज घोषित किया है, वह अच्छा है, लेकिन तत्काल उससे फायदा नहीं होगा। सेना और आयात, दोनों से मदद लेनी पड़ेगी। 


अभी संपूर्ण लॉकडाउन नहीं है। संक्रमण गांव-गांव पहुंच गया है, जहां चिकित्सा ढांचा मजबूत नहीं है। जहां जांच भी आसानी से नहीं हो पा रही है। गांव-गांव तक चिकित्सा ढांचा विकसित करना भी अभी किसी आफत से कम नहीं है। अभी संक्रमण को तत्काल रोकने की जरूरत है। ऐसे में, टीकाकरण भी काम नहीं आएगा। अभी तक नौ प्रतिशत लोगों को ही एक खुराक नसीब हुई है। हम वैक्सीन भी कम उत्पादित कर रहे हैं, क्योंकि हमारे पास उसके लिए पूरी सामग्री भी नहीं है। हम अभी हर महीने पंद्रह करोड़ लोगों को वैक्सीन देने की स्थिति में नहीं हैं। यह साल खतरे से खाली नहीं है। अब सरकार को आगे आकर इसमें जहां-जहां काम रुक गया, बेरोजगारी बढ़ी है, वहां-वहां मदद करनी चाहिए। गरीब लोगों को इस वक्त मदद की बहुत जरूरत है। मुफ्त अनाज, इलाज जरूरी है। गरीब लोग पिछले साल बड़ी मुसीबत में चले गए थे। उस तरह का संकट अगर फिर आया, तो बहुत ज्यादा परेशानी हो जाएगी। अभी लोग संक्रमण से ही परेशान हैं और जब खाने-पीने का अभाव होगा, तो लोगों की परेशानी बहुत बढ़ सकती है। विशेषज्ञ बता रहे हैं, करीब 70-80 लाख लोगों ने रोजगार गंवाया है, पर मेरा मानना है कि इससे दस गुना ज्यादा लोगों ने काम गंवाया है। गांवों से जो खबरें आ रही हैं, वे भयावह हैं। इसका असर कृषि पर भी पडे़गा। सरकार को गांवों तक मदद पहुंचाने के लिए काम करना चाहिए। लोगों की हताशा-निराशा को दूर करने के लिए सरकार को ही कदम उठाने पड़ेंगे। आरबीआई के कदम कुछ दूर तक कारगर होंगे, लेकिन बाकी सब सरकार को ही करना पडे़गा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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