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Monday, August 9, 2021

चीन-तालिबान की खतरनाक यारी (हिन्दुस्तान)

राजीव डोगरा, पूर्व राजदूत

 

मुल्ला अब्दुल गनी बरादर के नेतृत्व में तालिबानी प्रतिनिधिमंडल से चीन के विदेश मंत्री वांग यी की मुलाकात चिंतित करने वाली है। तालिबानी नेताओं को दिए गए इस सम्मान के कई निहितार्थ हैं। इससे यह तो साफ हो गया है कि अमेरिका की वापसी के बाद चीन अफगानिस्तान में अपनी दखल बढ़ाने को लेकर गंभीर है। इससे उसके कई स्वार्थ पूरे होंगे। जैसे, अफगानिस्तान में मौजूद तांबा, कोयला, गैस, तेल आदि के अप्रयुक्त भंडारों तक वह अपनी पहुंच बना सकेगा। कुछ तेल क्षेत्रों के अलावा तांबे की एक बड़ी खदान वह पहले ही हासिल कर चुका है। फिर, जिन उइगर अलगाववादियों को वह अपना दुश्मन मानता है, उनके संगठन ‘पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट’ (ईटीआईएम) पर भी वह नकेल कस सकेगा। ईटीआईएम का चीन के शिनजियांग प्रांत में खासा असर है। दिक्कत यह है कि चीन का यह स्वार्थ बाकी दुनिया पर भारी पड़ सकता है। इस गठजोड़ का असर कई रूपों में विश्व व्यवस्था पर दिख सकता है।

चीन-तालिबान दोस्ती क्यों खतरनाक है, इसे जानने से पहले हमें चीन की फितरत समझनी होगी। चीन एको अहं, द्वितीयो नास्ति  यानी सिर्फ मैं ही मैं सर्वत्र, दूसरा कोई नहीं की नीति पर चलता है। अपने मकसद को पूरा करना उसकी प्राथमिकता है। अगर कहीं भी उसे अपना हित सधता हुआ दिखे, तो वह न कोई कायदा-कानून मानता है, और ही न कोई व्यवस्था। 1980 के दशक से ऐसा ही होता आया है। मिसाल के तौर पर, पाकिस्तान आज बेशक अपने परमाणु एवं मिसाइल कार्यक्रम या सैटेलाइट तकनीक पर इतराए, लेकिन यह जगजाहिर है कि ये सारी सुविधाएं उसे चीन ने ही मुहैया कराई हैं, जबकि ऐसा करना अंतरराष्ट्रीय कानूनों के खिलाफ है और विश्व बिरादरी इसे गंभीर अपराध मानती है। फिर भी, चीन की सेहत पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ा। उसने खुद तकनीक एवं प्रौद्योगिकी पश्चिमी देशों से चुराईं और आज उन्हीं को आंखें दिखा रहा है। 

दक्षिण चीन सागर पर तो वह पूरी दुनिया से लड़ने-भिड़ने को तैयार है, जबकि श्रीलंका, बांग्लादेश जैसे कई देशों को अपने कर्ज के जाल में फंसाकर उन पर परोक्ष रूप से दबाव बना चुका है। इन्हीं उदाहरणों की अगली कड़ी है, प्रतिबंधित गुट तालिबान के साथ उसकी नजदीकी। चीन इसको अपने लिए फायदे का सौदा मान रहा होगा, मगर इसकी कीमत पूरी दुनिया को चुकानी पड़ सकती है।

तालिबान का चरित्र किसी से छिपा नहीं है। संयुक्त राष्ट्र इसे एक प्रतिबंधित समूह मानता है। तालिबानी प्रवक्ता ने भले ही अफगानिस्तान के विकास-कार्यों के लिए वैश्विक समर्थन जुटाने की बात कही है, लेकिन अभी जिन इलाकों पर इसका कब्जा है, वहां विकास का पहिया फिर से रोक दिया गया है। स्कूलों को बंद कर दिया गया है और मानवाधिकारों का जमकर हनन हो रहा है। वहां विरोध करने वाली आवाजें खामोश की जा रही हैं। हकीकत बयान करने वाले पत्रकारों तक तो नहीं बख्शा जा रहा। खबर यह भी है कि पिछले दिनों जिस भारतीय पत्रकार दानिश सिद्दीकी की हिंसक संघर्ष में फंसने की वजह से मौत की बात कही जा रही थी, तालिबान ने उनकी पहचान करने के बाद बड़ी ‘क्रूरता से हत्या’ कर दी थी। ऐसे बर्बर गुट को चीन यूं ही शह नहीं दे रहा।

साल 2013 में शी जिनपिंग के राष्ट्रपति बनने के बाद से चीन का रवैया खासा आक्रामक हो गया है। घरेलू स्तर पर ‘एक देश, दो व्यवस्था’ नीति को खारिज करते हुए उसने ‘वन चाइना पॉलिसी’ अपनाई और हांगकांग की स्वायत्तता खत्म कर दी, तो ताइवान को वह लगातार आंखें दिखा रहा है। ‘बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव’ से वह करीब 70 देशों और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में निवेश की राह पर है। उसकी मंशा पूरे एशिया क्षेत्र पर प्रभुत्व जमाने और अमेरिका की बराबरी करते हुए वैश्विक नेता बनने की है। चूंकि सैन्य ताकत और औद्योगिक उत्पादन के मामले में वह खासा असरदार है, इसलिए वह पूरी विश्व व्यवस्था को आंखें दिखाता रहता है। लेकिन इसी गुमान में वह कई देशों से विवाद भी मोल ले चुका है। चीन जानता है कि अफगानिस्तान में यदि वह प्रभाव जमा सका, तो उसे आर्थिक फायदा हो सकता है, जिससे ‘सुपर पावर’ बनने की उसकी राह आसान होगी, इसीलिए वह तालिबान को शह दे रहा है।

चीन और तालिबान के बीच बढ़ती नजदीकी किस करवट बैठेगी, यह तो आने वाला वक्त बताएगा, लेकिन यह हमारे लिए खतरा पैदा कर सकती है। चूंकि पाकिस्तान पहले से तालिबानी लड़ाकों का मददगार है, ऐसे में यदि चीन का साथ भी उनको मिल गया, तो ये लड़ाके और बर्बर हो सकते हैं। अभी तक तो अफगानिस्तान के महत्वपूर्ण इलाकों पर अफगान सुरक्षा बलों का नियंत्रण है, लेकिन चीन की शह तालिबानी लड़ाकों को उन इलाकों पर भी कब्जा करने के लिए उत्साहित करेगी। इससे अफगानिस्तान में किए गए भारतीय निवेश प्रभावित हो सकते हैं। फिर, अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट के आतंकी तालिबान की मदद करने के लिए अफगानिस्तान आ रहे हैं। दहशतगर्द समूहों का यह गठजोड़ अफगानिस्तान के पड़ोस के लिए ही नहीं, दुनिया के सभी अमनपसंद देशों के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। ऐसे लड़ाकों को पाकिस्तान और चीन की दुरभिसंधि भारत के खिलाफ हमले के लिए उकसाएगी। यह गठजोड़ हमारी आंतरिक सुरक्षा के लिए काफी खतरनाक साबित होगा। इसे किस तरह रोका जाए? इसका फिलहाल कोई रास्ता नहीं दिख रहा। एक अंधेरी सुरंग है, जिसका दूसरा छोर सामने नहीं है। यदि कोई शक्तिशाली देश अंतरराष्ट्रीय नियमों की अवहेलना करे, तो उस पर बंदिश शायद ही कारगर होती है। कोई डर या खौफ उस देश को सही रास्ते पर नहीं ला सकता। चीन अब इतना मजबूत बन गया है कि उसे डराकर या धमकाकर कोई काम नहीं करवाया जा सकता। ऐसे में, बातचीत ही एकमात्र रास्ता है। मगर कोरोना वायरस की उत्पत्ति की जांच में बीजिंग ने जो बेशर्मी दिखाई है, उससे नहीं लगता कि वह फिलहाल समझने को तैयार है। लिहाजा, जब तक उसे खुद चोट नहीं लगेगी, वह नहीं संभलेगा। वैश्विक ताकत बनने का नशा उस पर इतना हावी हो चुका है कि उसे सही और गलत का बोध नहीं। इसलिए हमें अपनी सुरक्षा के लिए लीक से हटकर सोचना होगा। 

(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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खुदरा बाजार पर कब्जे की जंग (हिन्दुस्तान)

आलोक जोशी, वरिष्ठ पत्रकार 

खुदरा बाजार पर कब्जे की जंग

सुप्रीम कोर्ट ने एमेजॉन के पक्ष में फैसला सुनाया। अडानी, अंबानी को सुप्रीम कोर्ट से तगड़ा झटका। सुप्रीम कोर्ट ने एमेजॉन की याचिका पर जो फैसला सुनाया, उसके शीर्षक कुछ ऐसे ही बन सकते हैं। बहरहाल, फ्यूचर ग्रुप के प्रोमोटर किशोर बियानी ने अपना पूरा रिटेल और कुछ होलसेल कारोबार रिलायंस रिटेल को बेचने का जो सौदा किया था, सुप्रीम कोर्ट ने उस पर रोक लगा दी है। 

यह मामला जितना दिख रहा है, उससे कहीं ज्यादा पेचीदा है। अदालत में लड़ाई जेफ बेजोस के एमेजॉन और फ्यूचर ग्रुप के प्रोमोटर किशोर बियानी के बीच ही चल रही थी और आज भी चल रही है। लेकिन दरअसल यह मुकाबला दुनिया के सबसे अमीर आदमी जेफ बेजोस और भारत के सबसे अमीर आदमी मुकेश अंबानी या उनकी कंपनियों के बीच है। और दांव पर है भारत का रिटेल या खुदरा बाजार। 

फॉरेस्टर रिसर्च की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2020 में भारत का रिटेल कारोबार करीब 883 अरब डॉलर यानी करीब 65 लाख करोड़ रुपये का था। इसमें से भी सिर्फ किराना या ग्रोसरी का हिस्सा 608 अरब डॉलर या 45 लाख करोड़ रुपये के करीब था। इसी एजेंसी का अनुमान था कि 2024 तक यह कारोबार बढ़कर एक लाख तीस हजार करोड़ डॉलर या 97 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच चुका होगा। यही वह बाजार है, जिस पर कब्जा जमाने की लड़ाई एमेजॉन व रिलायंस रिटेल के बीच चल रही है। वह वक्त गया, जब किशोर बियानी रिटेल किंग कहलाते थे। आज तो वह दो पाटों के बीच फंसे हुए हैं। जीते कोई भी, फ्यूचर ग्रुप की तो जान ही जानी है। किशोर बियानी के कारोबार की कहानी बहुत से लोगों के लिए सबक का काम भी कर सकती है कि कैसे एक जरा सी गलती आपको बहुत बड़ी मुसीबत में फंसा सकती है। उन्होंने एक सौदा किया था, तब शायद यह सोचा था कि भविष्य में यह मास्टरस्ट्रोक साबित होगा, लेकिन अब वही गले की फांस बन चुका है। 



किस्सा थोड़ा लंबा है, लेकिन जरूरी है। किशोर बियानी रिटेल किंग कहलाते थे। ज्यादातर लोग उन्हें पैंटलून स्टोर्स और बिग बाजार के नाम से ही पहचानते हैं। जब से रिटेल में विदेशी निवेश की चर्चा शुरू हुई, तभी से यह सवाल पूछा जा रहा था कि दुनिया के बड़े दिग्गज रिटेलर जब भारत आएंगे, तब उनमें से कौन किशोर बियानी को अपना भागीदार बनाने में कामयाब होगा। रिटेल कारोबार पर भारत की बड़ी कंपनियों की निगाहें भी टिकी थीं। रिलायंस रिटेल धीरे-धीरे चला, लेकिन अब वह देश का सबसे बड़ा रिटेलर बन चुका था। 

इस बीच फ्यूचर ग्रुप कुछ ऐसी जुगत में लगा रहा कि किसी तरह कंपनी में इतना पैसा लाने का इंतजाम हो जाए कि वह बाजार में कमजोर न पड़े। रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश के नियम उसके रास्ते में बाधा खड़ी कर रहे थे। एमेजॉन जैसी कंपनी भी भारत में पैर फैलाना चाहती थी, लेकिन ऑनलाइन कारोबार में लगी कंपनी के लिए इसमें घुसना और मुश्किल था। फिर 2019 में फ्यूचर ग्रुप से एक बयान आया कि उनकी एक कंपनी फ्यूचर कूपन्स लिमिटेड ने एमेजॉन के साथ करार किया है और एमेजॉन ने इस कंपनी में 49 प्रतिशत हिस्सेदारी खरीदी है। दोनों कंपनियों ने यही कहा था कि यह तो लॉयल्टी पॉइंट और गिफ्ट वाउचर जैसा काम करने वाली कंपनी है और इसमें निवेश का ग्रुप के रिटेल कारोबार से कोई रिश्ता नहीं है। 

यह अंदाजा नहीं था कि यह छोटा सा सौदा ही आगे चलकर बहुत बड़ा बवाल खड़ा करने वाला है। शायद किशोर बियानी को या फ्यूचर ग्रुप के लोगों को अंदाजा रहा हो, मगर तब भी वह शायद यह नहीं सोच रहे थे कि एक दिन उन्हें अपना कारोबार रिलायंस को बेचना पड़ेगा। लॉकडाउन शुरू होने के पहले ही कंपनी भारी परेशानी में थी, लेकिन लॉकडाउन बहुत महंगा पड़ा। पिछले साल अगस्त में फ्यूचर ग्रुप ने अपना रिटेल कारोबार रिलायंस को बेचने का समझौता किया। 

यह समझौता होते ही एमेजॉन के साथ उसके पुराने करार का भूत जाग उठा। एमेजॉन ने अब सामने आकर बताया कि जिस फ्यूचर कूपन्स में उसने 49 प्रतिशत हिस्सा खरीदा था, वह फ्यूचर रिटेल में करीब 10 प्रतिशत हिस्सेदारी की मालिक है, इस नाते एमेजॉन भी उस कंपनी में करीब पांच प्रतिशत का हिस्सेदार है। एमेजॉन ने यह भी कहा कि 2019 के करार में एक रिस्ट्रिक्टेड पर्सन्स यानी ऐसे लोगों और कंपनियों की लिस्ट थी, जिनके साथ फ्यूचर ग्रुप को सौदा नहीं करना था। रिलायंस रिटेल इस लिस्ट में शामिल था। 

यह झगड़ा सिंगापुर की अंतरराष्ट्रीय पंचाट में पहुंचा और उसने सौदे पर एक तरह से स्टे दे दिया। एमेजॉन जब यह फैसला लागू करवाने की मांग के साथ दिल्ली हाईकोर्ट गया, तो वहां से पहला आदेश उसके ही पक्ष में आया। लेकिन इसके बाद हाइकोर्ट की ही बड़ी बेंच ने इस फैसले को पलटकर सौदे पर रोक लगाने का आदेश खारिज कर दिया। तब मामला सुप्रीम कोर्ट गया, जहां से पिछले गुरुवार को फैसला आया है। अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले की यह बात समझनी जरूरी है कि कोर्ट ने सिर्फ यह कहा है कि सिंगापुर की पंचाट अगर कोई फैसला सुनाती है, तो वह भारत में भी लागू होगा, इसीलिए फ्यूचर व रिलायंस का सौदा फिलहाल आगे नहीं बढ़ सकता। 

इस बीच भारतीय प्रतिस्पद्र्धा आयोग, यानी सीसीआई ने एमेजॉन को नोटिस दिया है कि वर्ष 2019 में फ्यूचर ग्रुप के साथ समझौता करते वक्त उसने कुछ जरूरी चीजों को परदे में रखा था। तर्क यह है कि तब दोनों कंपनियों ने कहा था कि इस समझौते का फ्यूचर ग्रुप के रिटेल कारोबार से कोई रिश्ता नहीं है, पर अब एमेजॉन इसी समझौते के सहारे रिटेल कारोबार का सौदा रुकवाना चाहता है। सीसीआई के पास यह अख्तियार है कि अगर वह चाहे, तो पुरानी तारीख में भी वह फ्यूचर और एमेजॉन के सौदे को रद्द कर सकता है। 

यह पूरा मामला देश के दूसरे व्यापारियों के लिए सबक है। चादर से बाहर पैर फैलाना तो कारोबार में जरूरी है, लेकिन यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि इस चक्कर में कहीं चादर न फट जाए। कर्ज लेने में भी सावधान रहें और बड़ी कंपनियों से रिश्ते जोड़ने में तो और भी सावधान रहें।  

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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Tuesday, May 25, 2021

जैव विविधता के विनाश की कीमत, वैश्विक अर्थतंत्र के साथ-साथ सरकारों की आर्थिक रणनीतियों को भी चौपट कर दिया (अमर उजाला)

अफ्रीका के गाबोन देश में इविंडो नदी के किनारे बसा 150 लोगों का मेबॉट-2 गांव 1996 में दुनिया भर में अचानक चर्चा में आया। इस गांव में अन्य अफ्रीकी बस्तियों की तरह मलेरिया, डेंगू, पीला बुखार और नींद के रोगों का प्रकोप होता था, परंतु गांववासी इन रोगों का अच्छा प्रबंध कर लेते थे। जनवरी के महीने में एक दिन गांव के कुछ लड़के कुत्तों के साथ जंगल में गए। कुत्तों ने एक चिम्पैंजी को मार दिया। गांव वालों ने चिम्पैंजी की खाल उतारी और उसे खा गए। चिम्पैंजी की खाल उतारने, मांस पकाने और उसे खाने वाले 31 लोगों को कुछ ही घंटे बाद तेज बुखार आ गया और उनमें से 21 की मौत हो गई।

बुखार और मौत का कारण था इबोला वायरस, जो मारे गए चिम्पैंजी के साथ गांव में आ गया था। जंगल का एक निरापद विषाणु मानव का काल बनकर बस्ती में आया। यह विषाणु, जो 90 प्रतिशत संक्रमितों को मारता है, अब मानव समाज का हिस्सा बन गया था। मेबॉट-2 गांव की यह घटना एक ट्रेलर थी उस महामारी की, जो नवंबर-दिसंबर, 2019 में चीन के वुहान से प्रारंभ हुई और कुछ ही माह में दुनिया भर के करोड़ों लोगों के फेफड़ों को खा गई। इसने लोगों को उन्हीं के घरों में बंद कर दिया। इसने वैश्विक अर्थतंत्र के साथ-साथ सरकारों की आर्थिक रणनीतियों को भी चौपट कर दिया। प्रारब्ध यहां भी वही था-एक वन्यजीव से मांस बाजार के रास्ते अब मानव प्रजाति पर पलने वाला एक और नवीन विषाणु-कोरोना वायरस।

यह केवल एक-दो दशक पहले ही हमारी सोच में आया था कि उष्णकटिबंधीय वनों और प्राकृतिक परिवेशों में रहने वाले वन्यजीवों के संपर्क में आने से मनुष्यों में वायरस और अन्य कई तरह के रोगाणु फैल जाते हैं। इबोला, एचआईवी, सार्स, बर्ड फ्लू और डेंगू के बाद कोविड-19 के विषाणु का मनुष्य तक पहुंचने का यही मार्ग है। अब यह सर्वविदित है कि ये सब रोग पशु-जनित हैं। पशु-जनित इन संक्रामक रोगों का प्रकोप तेजी से बढ़ रहा है। रैबीज और प्लेग जैसे कुछ रोग सदियों पहले जानवरों से पार होकर मनुष्यों तक पहुंच गए थे। चमगादड़ द्वारा प्रेषित मारबर्ग हालांकि अब भी दुर्लभ है।

कोविड-19 और मिडिल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम कोरोना वायरस (मर्स), जो पश्चिम एशिया में ऊंटों से फैला, मनुष्यों के लिए नए रोग हैं, जो विश्व स्तर पर फैल रहे हैं। जानवरों से पार हो मनुष्य तक पहुंचने वाले अन्य रोगों में हैं लासा बुखार, जिसे पहली बार 1969 में नाइजीरिया में पहचाना गया था, मलयेशिया में निपाह और 2002-03 में चीन से 30 देशों में फैलने वाला और सैकड़ों लोगों को मार देने वाला सार्स। जीका और वेस्ट नाइल वायरस जैसी बीमारियां अफ्रीका में उभरीं और उत्परिवर्तित होकर अन्य महाद्वीपों में स्थापित हो गईं। अमेरिकी शोधकर्ताओं के एक दल ने 2008 में 335 रोगों की पहचान की, जो 1960 और 2004 के बीच मानव समाज में उभर कर आए, और जिनमें से कम से कम 60 प्रतिशत जानवरों से आए।

शोधकर्ताओं का कहना है कि ये पशु-जनित (जूनोटिक) रोग पर्यावरण परिवर्तन और मानव व्यवहार से जुड़े हैं। दुर्गम और जैव विविधता से परिपूर्ण क्षेत्रों में सड़कों का जाल, भवन निर्माण, द्रुत गति से बढ़ता शहरीकरण और जनसंख्या विस्फोट के कारण प्राकृतिक वनों का विनाश किया जा रहा है, फलस्वरूप मनुष्य जंगली जानवरों के परिवेश में उनके निकट पहुंच गए हैं। वन्यजीवों से मनुष्यों तक रोगों का संचरण मानव आर्थिक विकास के आधुनिक मॉडल की एक अदृश्य कीमत है। यह कीमत उन समाजों और व्यक्तियों को सर्वाधिक चुकानी पड़ती है, जिनके पास रोगों से बचाव और उनके उपचार के लिए साधन तक नहीं। प्राकृतिक आवास के जंतुओं के रोगाणु से मनुष्य में उत्पन्न रोग के जोखिमों

का परस्पर क्या संबंध है, इसका गहन अध्ययन एमोरी विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान विभाग में सुप्रसिद्ध रोग पारिस्थितिकीविद प्रोफेसर थॉमस गिलेस्पी ने किया है। गिलेस्पी कहते हैं, 'मैं कोरोना वायरस प्रकोप के बारे में बिल्कुल आश्चर्यचकित नहीं हूं।

अधिकांश रोगजनक जीवों की खोज अभी की जानी है। यह (कोरोना वायरस) तो केवल छोटा-सा नमूना है।' बाजार प्राकृतिक जैव विविधता का एक वाणिज्यिक संग्रहालय है, जहां से अनेक प्राणी-जनित (जूनोटिक) रोगों का व्यापार चलता है। दुनिया में द्रुत गति से बढ़ती शहरी आबादी को ताजा मांस चाहिए, जिस कारण ये बाजार फल-फूल रहे हैं। इन बाजारों में चीन सबसे आगे है। जिन बाजारों में जिंदा जानवर, उनके मांस तथा उनके अनेक उत्पाद बेचे जाते हैं, उन्हें गीला बाजार (वेट मार्केट) कहते हैं। चीन के वुहान में ‘गीला बाजार'(वेट मार्केट) में विभिन्न प्रकार के वन्य-जीवों को जिंदा और उनका ताजा मांस बेचा जाता है। वहां भेड़ियों के बच्चे, सैलामैंडर, मगरमच्छ, लोमड़ी, चूहे, गिलहरी, चील, कछुए, बिच्छू और सभी तरह के कीट-पतंगों से लेकर अनेक तरह के समुद्री जीव तक बेचे जाते हैं।

इसी तरह, पश्चिम और मध्य अफ्रीका के शहरी बाजारों में बंदर, चमगादड़, चूहे, और स्तनपाइयों की दर्जनों प्रजातियों की मांस के लिए हत्या की जाती है। जब यह बात सामने आई थी कि कोरोना वायरस वहां के गीले बाजार से फैला है, तो चीन के अधिकारियों ने फरवरी, 2020 में वुहान बाजार में जिंदा जानवरों को बेचने और मछली और समुद्री जीवों को छोड़कर अन्य वन्यजीवों के मांस पर प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन बाद में गीले बाजार में सब पहले जैसा ही होने लगा। अफ्रीका में लेगोस का गीला बाजार बहुत ही कुख्यात है, जहां महामारी का एक और बम कभी भी फट सकता है।

जैव विविधता से शनैः शनैः रीत रही जिस दुनिया को हम अपनी अगली पीढ़ियों के लिए छोड़ेंगे, वह नई-नई घातक बीमारियों की मार झेलने के लिए अभिशप्त होगी। अगर अपनी 'अगली दुनिया' को पूर्णरूपेण स्वस्थ और सकारात्मकता, नई कल्पनाओं एवं प्रफुल्लता से भरी देखना चाहते हैं, तो वह इस पर निर्भर करेगा कि हम अपने ग्रह पर जैव विविधता और प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने में कितना सार्थक प्रयास करते हैं। यदि कोविड-19 महामारी हमारी समकालीन दुनिया को जागरूकता का यह पाठ पढ़ा पाई, तो कोविड के बाद की दुनिया नई उमंगों और संभावनाओं से सराबोर होगी।

-पूर्व प्रोफेसर, जी बी पंत कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय।

सौजन्य - अमर उजाला।

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कोविड से लड़ाई को कमजोर करती अज्ञानता (अमर उजाला)

रामचंद्र गुहा  

इसी महीने आयुष ने विस्तृत सुझाव जारी किया था कि कोविड-19 के संकट के समय प्रतिरोधक क्षमता कैसे बढ़ाई जाए। मंत्रालय ने सुझावों की जो सूची जारी की थी, उसमें सुबह शाम नाक में तिल/नारियल का तेल या घी डालने का सुझाव भी शामिल था। यदि किसी को नाक में तिल या नारियल का तेल डालना पसंद नहीं, तो मंत्रालय ने विकल्प भी सुझाया :  तिल या नारियल का एक चम्मच तेल मुंह में डालें, उसे गटकें नहीं, बल्कि दो-तीन मिनट तक मुंह में डालकर हिलाएं और थूक दें और फिर गरम पानी से कुल्ला करें। खुद को कोविड से बचाने के मंत्रालय द्वारा सुझाए गए अन्य उपायों में च्यवनप्राश खाना, हर्बल चाय पीना, भाप लेना आदि शामिल हैं।



आयुष मंत्रालय की प्रचार सामग्री में बस यह लिखना बाकी रह गया कि उसकी सिफारिशों पर अमल करने वाले किसी भी देशभक्त को कोरोना नहीं होगा। लेकिन इसका आशय स्पष्ट था-यदि आप इन पारंपरिक तरीकों को अपनाते हैं, तो आप में वायरस के संक्रमण की आशंका कम हो जाएगी। सत्तारूढ़ दल के नेता और प्रचारक 21 वीं सदी की इस सबसे घातक बीमारी के पूरी तरह से अप्रमाणित इलाज की सिफारिश करने में संकोच नहीं करते। मेरे अपने राज्य में भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व सांसद विजय संकेश्वर ने ऑक्सीजन के विकल्प के रूप में नींबू का रस सूंघने की सिफारिश की। द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, 'संकेश्वर ने हाल ही में प्रेस मीट में कहा कि नींबू का रस नाक में डालने से ऑक्सीजन का स्तर 80 फीसदी बढ़ जाता है। उन्होंने कहा कि उन्होंने देखा है कि इस घरेलू इलाज से दो सौ लोग ठीक हो गए, जिनमें उनके रिश्तेदार और मित्र शामिल हैं। इसी रिपोर्ट में बताया गया कि राजनेता की सलाह पर अमल करने के बाद उनके कई समर्थकों की मौत हो गई।



इस बीच, भाजपा शासित एक अन्य राज्य मध्य प्रदेश में संस्कृति मंत्री उषा ठाकुर ने कहा कि हवन से महामारी को प्रभावी तरीके से खत्म किया जा सकता है। द टेलीग्राफ ने मंत्री को यह कहते हुए दर्ज किया, 'हम सभी से यज्ञ करने और आहुति देने और पर्यावरण को शुद्ध करने की अपील करते हैं, क्योंकि महामारी को खत्म करने की यह सदियों पुरानी परंपरा है।'


ऐसा लगता है कि मंत्री के 'परिवार' के सदस्यों ने उनकी सलाह को गंभीरता से लिया। व्यापक रूप से प्रसारित एक वीडियो में देखा गया कि काली टोपी और खाकी शार्ट पहने लोग किस तरह से हर घर में नीम की पत्तियां और लकड़ी जलाकर हवन कर रहे थे। एक और बेतुका दावा, महात्मा गांधी के हत्यारे को सच्चा देशभक्त मानने वाली भोपाल की विवादास्पद सांसद ने किया। उन्होंने कहा कि वह कोविड से इसलिए बची हुई हैं, क्योंकि वह रोज गोमूत्र पीती हैं। और भाजपा द्वारा सबसे लंबे समय से शासित गुजरात से खबर आई कि वहां साधुओं का एक समूह नियमित रूप से गोबर का लेप लगाता है, क्योंकि उसे लगता है कि इससे वे वायरस से बचे रहेंगे। सत्तारूढ़ दल के नेताओं द्वारा सुझाए गए संदिग्ध इलाज में एक दवा कोरोनिल भी शामिल है, जिसे पिछले साल सरकारी संत रामदेव ने दो वरिष्ठ केंद्रीय मंत्रियों की मौजूदगी में जारी किया था, जिनमें से एक मंत्री अभी स्वास्थ्य एवं विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी मंत्री हैं।


आगे बढ़ने से पहले स्पष्ट कर दूं कि मैं चिकित्सा के बहुलतावाद में यकीन करता हूं। मैं यह नहीं मानता कि आधुनिक पश्चिमी चिकित्सा के पास मानव जाति की सभी ज्ञात बीमारियों का इलाज है। मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव से जानता हूं कि आयुर्वेद, योग और होम्योपैथी जैसी गैर आधुनिक पद्धतियां अस्थमा, पीठ दर्ज और मौसमी एलर्जी जैसी व्याधियों को कम करने में भूमिका निभा सकती हैं, जिनसे मैं अपने जीवन के विभिन्न कालखंडों में पीड़ित रहा हूं।


कोविड-19 स्पष्ट रूप से 21वीं सदी का वायरस है और इससे वे लोग अनभिज्ञ थे, जिन्होंने आयुर्वेद, योग, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी जैसी पद्धतियां विकसित की थीं। यह सिर्फ एक साल से थोड़े समय पहले की बीमारी है। इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं कि नीम की पत्तियां जलाने से या गोमूत्र पीने से या पौधों से तैयार गोलियां निगलने से या शरीर में गोबर का लेप करने से या नारियल तेल या घी नाक में डालने से बीमारी को दूर करने में कितनी मदद मिलती है या फिर कोविड-19 के संक्रमण का इलाज करने में ये कितने कारगर होते हैं।


दूसरी ओर, हमारे पास यह दिखाने के लिए पर्याप्त सबूत हैं कि दो निवारक उपाय कोविड-19 को दूर करने में बहुत मदद करते हैं। ये हैं सोशल डिस्टेंसिंग और टीकाकरण। और इन दो मामलों में हमारी गर्वित हिंदू सरकार वृहत राजनीतिक और धार्मिक जमावड़ों की मंजूरी देकर, बल्कि प्रोत्साहित कर बुरी तरह नाकाम हुई है। और न ही उसने वैक्सीन का घरेलू उत्पादन बढ़ाने या भारत में इस्तेमाल के लिए नई वैक्सीन के लाइसेंस देने में उत्सुकता दिखाई है, बावजूद इसके कि पिछले कई महीने से इस पर जोर दिया जा रहा है।


मैं वैज्ञानिकों के परिवार से आता हूं। मैंने अपने वैज्ञानिक पिता और वैज्ञानिक दादा से गालियों के रूप में जो शब्द सुने थे, वे थे, मम्बो-जम्बो (बेकार) और सुपर्स्टिशन (अंधविश्वास)। मेरे पिता और दादा अब नहीं हैं; लेकिन मैं यह सोचकर हैरत में पड़ जाता हूं कि मैं जिन विशिष्ट भारतीय वैज्ञानिकों को जानता हूं, वे सत्तारूढ़ दल के राजनेताओं द्वारा कोविड-19 का मुकाबला करने के लिए नीम-हकीमों को बढ़ावा देने के बारे में क्या सोचते होंगे। इन्हें सिर्फ कुछ केंद्रीय मंत्री या कुछ राज्य स्तर के नेता ही प्रोत्साहित नहीं कर रहे हैं। बल्कि संघ परिवार के सदस्य, जिनमें खुद प्रधानमंत्री शामिल हैं, वे भी साझा कर रहे हैं। गौर कीजिए, पिछले साल मार्च के आखिर में उन्होंने क्या किया था, जब महामारी ने पहली बार अपना असर दिखाना शुरू किया था; उन्होंने हमसे ठीक शाम को पांच बजे पांच मिनट तक बर्तन बजाने के लिए कहा; उन्होंने हमसे रात को नौ बजे ठीक नौ मिनट तक मोमबत्ती या टॉर्च से रोशनी करने के लिए कहा। जिस समय पूरे उत्तर अमेरिका और यूरोप में वायरस फैल रहा था, तब उसे दूर करने में इससे कैसे मदद मिलती, यह संभवतः सिर्फ प्रधानमंत्रियों के ज्योतिषियों और/ या अंकशास्त्रियों को पता रहो।


संघ परिवार के लिए तर्क और विज्ञान की जगह आस्था और कट्टरता ने ले ली है। पहली बार प्रधानमंत्री पद पर दावा करते हुए अपने अभियान में उन्होंने रामदेव के भीतर की आग और उनके संकल्प को लेकर उनकी खुलकर तारीफ की। उन्होंने कहा, मैं खुद को उनके एजेंडा के करीब पाता हूं। लिहाजा राज्य के सबसे पसंदीदा संत के रूप में रामदेव का उभार कोई इत्तफाक नहीं है।


अब जब वायरस उत्तर भारतीय ग्रामीण इलाकों में अंदर तक फैल गया है, कोई भी यह देख सकता है कि मेले को मिले केंद्र सरकार तथा भाजपा की राज्य सरकार के भारी समर्थन और नदियों में उतराते या फिर रेत में दबा दिए गए शवों के बीच कैसा सीधा संबंध है। करीब दो साल पहले अप्रैल, 2019 में मैंने अपने कॉलम में मोदी सरकार की विज्ञान के प्रति तिरस्कार की भावना के बारे में लिखा था कि कैसे उसने हमारे श्रेष्ठ वैज्ञानिक शोध संस्थानों का राजनीतिकरण कर दिया। मैंने लिखा, 'ज्ञान और नवाचार पैदा करने वाले हमारे बेहतरीन संस्थानों को व्यवस्थित रूप से कमजोर करके मोदी सरकार ने देश के सामाजिक और आर्थिक भविष्य को बुरी तरह कमतर किया है। मौजूदा भारतीयों के साथ-साथ अजन्मे भारतीय भी बुद्धि पर इस अनथक और बर्बर युद्ध की कीमत चुकाएंगे।'


यह कोविड-19 के आने से कई महीने पहले की बात है। अब वह हमारे बीच है, मोदी सरकार का बुद्धि पर अनथक युद्ध जारी है, मैंने भविष्य की जो पीड़ादायक तस्वीर देखी थी, वह और अधिक पीड़ादायक हो चुकी है। इस महामारी से लड़ते हुए भारत और भारतीयों को कठिन समय का सामना करना ही होता। केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ दल द्वारा तर्क और विज्ञान के प्रति प्रदर्शित की गई अवमानना ने इसे और मुश्किल बना दिया।

सौजन्य - अमर उजाला।

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महामारी के दौर में मीडिया (अमर उजाला)

मरिआना बाबर  

हर सुबह हॉकर स्थानीय दैनिक समाचार पत्रों के साथ द न्यूयॉर्क टाइम्स गेट पर फेंक जाता है। हालांकि मैं इस अमेरिकी अखबार को सबसे अंत में पढ़ती हूं, क्योंकि इसमें कोई ब्रेकिंग न्यूज या हॉट न्यूज नहीं होती है। इस अखबार की शैली ऐसी है कि यह उच्च गुणवत्ता वाले लेखों पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है और यह इसकी विशेषता है। ये लेख अच्छी तरह से विश्लेषित एवं शोधपरक होते हैं। हाल में हर दिन इसके पहले पन्ने पर महामारी की मौजूदा घातक लहर से जूझ रहे भारत की कठिन स्थिति के बारे में व्यापक कवरेज रहता था। लेकिन पिछले कुछ दिनों में न केवल न्यूयॉर्क टाइम्स, बल्कि बीबीसी, सीएनएन और जर्मन डायचे वेले भी अब भारत से दूर हो गए हैं। खबरों में अब सबसे ऊपर गाजा पट्टी की स्थिति है और सभी फलस्तीन और इस्राइल पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

दक्षिण एशिया के कई देशों में संस्थान सिर्फ महामारी के चलते नहीं, बल्कि दशकों से कई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। हमारे कई देशों में एक चीज समान है और वह है एक संस्था के रूप में मीडिया। लंबे अरसे से देखा गया है कि शासकों को वे खबरें पसंद नहीं आतीं, जो जनता की नजरों में उनकी छवि अच्छी नहीं बनातीं और इसलिए वे कई विभाग एवं मंत्रालय बनाते हैं, जिनका काम सरकार की सकारात्मक छवि गढ़ने वाली खबरें तैयार करना है। पत्रकारों को धमकाना, जेल में डालना, गायब कर देना और मार डालने की घटना अब आम बात हो गई है। मगर सोशल मीडिया ने कई सरकारों की समस्याओं को बढ़ा दिया है,  क्योंकि यह एक ऐसी जगह है, जिस पर नियंत्रण करना उनके लिए मुश्किल है। कई बार सरकारों द्वारा ट्विटर, फेसबुक और इंस्टाग्राम को पोस्ट और टिप्पणियों को हटाने के लिए कहा गया है।



वर्तमान महामारी के दौरान यह भी देखा जाता है कि भारत सरकार देश के कोने-कोने से हो रही रिपोर्टिंग के प्रति बहुत संवेदनशील है। मैं भारतीय मीडिया को करीब से देख रही हूं और मेरा मानना है कि ऐसा बहादुर मीडिया अक्सर नहीं देखा जाता है, जो अपने स्वास्थ्य और जीवन की परवाह किए बिना देश भर से ताजा खबरें लाने के लिए हर जगह पहुंचता है। स्वाभाविक रूप से, स्थिति अच्छी नहीं है और सरकार एक बहुत ही कठिन चुनौती को नियंत्रित करने में विफल रही है। लेकिन मीडिया द्वारा उठाए गए मुद्दे को सकारात्मक रूप से लिया जाना चाहिए और पीड़ितों को राहत पहुंचाने के लिए जानकारी का उपयोग करना चाहिए। भारतीय सोशल मीडिया के सकारात्मक काम को भी इतिहास में दर्ज किया जाएगा, क्योंकि इसने लोगों को अस्पतालों में बिस्तर और बहुत बीमार लोगों के लिए ऑक्सीजन तक पहुंचाने में मदद के लिए एक त्वरित और सुरक्षित मंच प्रदान किया। पूरी तरह से अनजान लोगों ने एक-दूसरे की मदद की।


हाल ही में मैंने एक खबर पढ़ी, जिसमें इसका जिक्र था कि अमेरिका कोवेक्स कार्यक्रम में योगदान देगा, लेकिन यह प्रतिबद्धता नहीं जताई गई थी कि वह भारत को कितना दान देगा। जब ग्लोबल कोविड रिस्पॉन्स के अमेरिकी संयोजक से इस बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि अमेरिका कोवेक्स कार्यक्रम के माध्यम से टीकों की आठ करोड़ खुराक देगा, लेकिन अंतिम आवंटन अभी तक नहीं किया गया है। हालांकि दुनिया भर के देशों ने भारत को बहुत सारे चिकित्सा उपकरण दिए हैं, पर वर्तमान और भविष्य की सहायता के लिए टीका महत्वपूर्ण है। अमेरिका को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि भारत ने पहले दुनिया भर में उपहार के रूप में टीके भेजे थे। अब जब देश में पर्याप्त टीके नहीं हैं, यह बहस का विषय है कि क्या टीके विदेश भेजने का फैसला सही था। लेकिन निश्चित रूप से भारत की उदारता को नजर अंदाज नहीं किया जाना चाहिए और अमेरिका को भारत के लिए एक बड़ी संख्या निर्धारित करनी चाहिए। 


यह देखना दिलचस्प है कि अस्तित्व की खातिर सिर्फ टीके आयात करने के लिए नए राजनयिक संबंध बनाए जा रहे हैं। चीन उस स्थिति का फायदा उठा रहा है, जहां यूरोपीय संघ के कई देश, जो भारत से या कोवेक्स कार्यक्रम के माध्यम से टीके

प्राप्त करने में विफल रहे, अब बीजिंग का रुख कर रहे हैं।

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क्रिप्टो करेंसी का बुलबुला? 30 फीसदी की आई गिरावट (अमर उजाला)

अजय बग्गा 

आभासी या क्रिप्टो मुद्रा बिटक्वाइन इन दिनों निवेश की दुनिया में चर्चा में है। पिछले कुछ समय से बिटक्वाइन की कीमत आसमान छू रही थी। लेकिन बुधवार को इसमें करीब 30 फीसदी की गिरावट आई। ऐसे में, यह पूछा जा रहा है कि बिटक्वाइन समेत दूसरी क्रिप्टो करेंसी का बुलबुला क्या फूट गया है? क्रिप्टो करेंसीज को ऑनलाइन खरीदा-बेचा जाता है। चूंकि नोट सरकार छापती है और मुद्रा का मूल्य उठता-गिरता रहता है, इसी को देखते हुए इस डिजिटल मुद्रा की शुरुआत 2009 में की गई, जो किसी सरकार के अधीन नहीं है। बिटक्वाइन की खरीद-फरोख्त की कोई आधिकारिक व्यवस्था भी नहीं है। भारत में लाखों लोग इसमें निवेशक हैं, जिनमें मध्यम आयवर्ग के युवा भी शामिल हैं। देश में कई एक्सचेंज हैं, जिन्हें पैसे देने पर वे बिटक्वाइन का स्वामित्व या इसमें व्यापार की अनुमति देते हैं।

बिटक्वाइन की जब शुरुआत हुई, तो लोगों को इसके बारे में ज्यादा समझ नहीं थी और इसका मूल्य भी कम था। पर पिछले साल जब लॉकडाउन हुआ और सरकारों ने कई तरह के प्रोत्साहन दिए, तब यूरोप, अमेरिका, कोरिया, जापान और चीन में अनेक नए ऑनलाइन निवेशक बाजार में उतरे। चूंकि इन्हें सरकार से आर्थिक मदद मिल रही थी, ऐसे में, लोग इसे उन पैसों से खरीदने लग गए। क्रिप्टो मुद्रा पारदर्शी नहीं है। पता नहीं कि इसके पीछे किसका स्वामित्व है। कई बार ज्यादातर मुद्रा कुछ लोगों द्वारा इकट्ठा कर ली जाती हैं। भारतीय स्टॉक एक्सचेंज में निवेशकों के लिए निवेशक सुरक्षा निधि होती है। यदि निवेशक का पैसा डूब जाता है, तो एक्सचेंज उसकी क्षतिपूर्ति करवाता है, सेबी इसका विनियमन करता है। पर डिजिटल मुद्रा का किसी एक्सचेंज के साथ कोई विनियमन नहीं है। ऐसे में यदि आपका पैसा डूब जाए, तो कोई जवाबदेही नहीं है। 



इसी कारण रिजर्व बैंक ने करीब दो साल पहले एक सर्कुलर जारी कर क्रिप्टो करेंसी कारोबार को प्रतिबंधित कर दिया था। केंद्रीय बैंक ने कहा था कि कोई भी बैंक या गैर-बैंक वित्तीय संस्थान (एनबीएफसी) बिटक्वाइन या क्रिप्टो करेंसी को सहूलियत प्रदान नहीं करेगा। पर तब एक्सचेंज्स ने सर्वोच्च न्यायालय में जाकर स्टे ले लिया। केंद्र सरकार ने इस बार बजट में कहा कि रिजर्व बैंक अपनी डिजिटल मुद्रा निकालेगा, जबकि अन्य तरह की क्रिप्टो करेंसी भारत में प्रतिबंधित रहेंगी। हालांकि वित्तमंत्री ने कहा कि निवेशकों को कुछ समय दिया जाएगा, ताकि वे अपनी क्रिप्टो मुद्राएं निकाल सकें। हाल ही में सरकार ने यह भी कहा कि क्रिप्टो करेंसी पर एक कमेटी संगठित की जाएगी, जो सभी पहलुओं पर विचार करेगी। 


क्रिप्टो करेंसी की चुनौतियां भी कम नहीं हैं। हाल ही में साइबर अपराध से जुड़े गैंग डार्कसाइड ने अमेरिकी ईंधन कंपनी कॉलोनियल पाइपलाइन का सिस्टम हैक कर उसे बंद कर दिया था, जिससे उसकी सेवाएं बाधित हो गईं। अनेक रिपोर्टों में बताया गया कि हैकर्स ने 50 लाख डॉलर की फिरौती वसूल की। इस तरह कई कंपनियों के कंप्यूटर हैक कर उन्होंने करीब नब्बे लाख डॉलर इकट्ठा किए। एफबीआई हैकर्स के पीछे लगा है और उनके वॉलेट से 50 लाख डॉलर पकड़े हैं। हैकर्स, आतंकवादी, ड्रग पैडलर, अंडरवर्ल्ड और मनी लॉन्ड्रिंग करने वालों के  लिए डिजिटल मुद्रा में वसूली करना आसान है। अपने स्मार्टफोन से वे पूरी दुनिया में कहीं भी पैसे ल-दे सकते हैं। कोई भी सरकार इसकी शिनाख्त नहीं कर सकती।


क्रिप्टो करेंसी के साथ एक समस्या है कि इसकी कीमत कैसे तय हो? जैसे सोना है, तो उसके गहने और सिक्के हैं। जबकि क्रिप्टो मुद्रा तो कंप्यूटर में लिखा एक कोड है। यदि उसे आप तोड़ते (बिटक्वाइन माइनिंग) हैं, तो अत्याधिक बिजली की खपत होती है। इसी कारण कुछ वर्ष पहले चीन ने बिटक्वाइन माइनिंग को प्रतिबंधित कर दिया। वर्तमान समस्या बिटक्वाइन ट्रेडिंग की है। लोगों ने इसे जल्दी अमीर बनने की योजना जैसा समझ लिया है, जहां बेहद कम समय में अत्यधिक लाभ मिल जाता है। 


ऐसे में, पहले जिसको लाभ मिल गया, उसका ठीक है, बाद में कोई इसे होल्ड करके बैठ गया, तो लाभ शून्य होगा। कई देशों की सरकारों और राष्ट्रीय बैंक जनता को चेता चुके हैं कि आभासी मुद्रा किसी सरकार के अधिनियम के तहत नहीं है। फिर भी लालचवश लोग इसमें जा रहे हैं और काफी लोग इसका अनुचित लाभ उठा रहे हैं। अभी पिछले सप्ताह सोमवार को इंटरनेट कंप्यूटर के नाम से एक नया क्वाइन ईजाद हुआ। एक दिन दिन वह 45 अरब डॉलर का हो गया। अब किसी को नहीं पता है कि किसने वह क्वाइन ईजाद किया, उसके पीछे क्या है। बस एक फॉर्मूला लिखा कंप्यूटर पर और ट्रेडिंग होने लगी। जिसने ईजाद किया, उसके पैसे बन गए, वह निकालकर भाग जाएगा। और लोग अपनी कमाई डाल रहे हैं, एक सपने के पीछे, वह सपना कब ओझल हो जाए पता नहीं।


बीते फरवरी में बिटक्वाइन लगभग 10 खरब डॉलर के मार्केट कैप का हो गया था। इनके पास कोई कैश फ्लो नहीं है, रिजर्व नहीं है, केवल लालचवश यह चल रहा है। जब भय आ जाएगा, दुकान बंद हो जाएगी, जो अंत में बचेगा, वह सब कुछ गंवाएगा।

पिछले चार महीने में देखें, तो फरवरी में 65 हजार डॉलर के साथ यह शिखर पर पहुंचा, जबकि अब यह करीब 40 हजार डॉलर पर आ गया। इसमें लाखों लोग लालचवश घुसे होंगे, इससे उन्हें चालीस-पचास फीसदी की हानि हुई होगी। अगर बहुत सारे

लोग एक साथ इसे बेचने आ जाते हैं, तो इसका मूल्य खत्म होने लगता है। बुधवार को अमेरिका और भारत में क्रिप्टो एक्सचेंज बंद पड़ गए। एक्सचेंज बोले, बहुत सारे लोग इकट्ठे आ गए। लोगों में भय आ गया कि वे अपने पैसे और क्रिप्टो क्वाइन दोनों एक्सेस नहीं कर पाएंगे।


अनेक प्रतिबंधों और नियमन के बावजूद लोग ये मुद्राएं खरीद बेच-रहे हैं। कुछ बड़ी कंपनियां भी इसमें निवेश कर रही हैं। विगत फरवरी में टेस्ला ने करीब डेढ़ अरब डॉलर की डिजिटल मुद्रा खरीद की। एलन मस्क ने इसके बारे में बहुत बढ़ा-चढ़ा कर बोला। क्रिप्टो करेंसी का कोई विनियमन नहीं है। आपको नहीं पता कि किसके साथ आप डील कर रहे हैं। भारत में आधिकारिक रूप से इसके ट्रेडिंग की अनुमति नहीं है। इस पर टैक्स कैसे लगाया जाए, वह किसी को पता नहीं है। इस बार टैक्स रिटर्न में सरकार पूछ रही है कि यदि आपके पास क्रिप्टो करेंसी है, तो आप इस बारे में बताइए। चीन ने डिजिटल युवान के नाम से आधिकारिक करेंसी निकाली है। यदि भारत से ऐसी ही कोई डिजिटल करेंसी निकलती है, तो यह अच्छा होगा। अभी कोविड की वजह से सरकार क्रिप्टो मुद्रा के लिए अधिनियम नहीं ला पाई है, पर देर-सवेर यह आएगा जरूर।

सौजन्य - अमर उजाला।

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कंपनियों के लिए भविष्य की राह ( बिजनेस स्टैंडर्ड)

अजय शाह  

यह सही है कि हमारे आसपास स्वास्थ्य संबंधी आपदा आई हुई है लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर जो निराशा जताई जा रही है वह अतिरंजित है। टीकाकरण धीमी गति से हो रहा है लेकिन बीमारी का पूर्वानुभव भी लोगों का बचाव कर रहा है। निर्यात में भी सुधार हो रहा है। डॉलर के संदर्भ में वह महामारी के पहले के स्तर से ज्यादा हो चुका है। कंपनियों के निर्णयकर्ताओं की बात करें तो उनके लिए बेहतरी की राह टीकाकरण और निर्यात से निकलती है।

देश इन दिनों जिस त्रासदी से गुजर रहा है उसे लेकर काफी निराशा का माहौल है। इसके अलावा एक विचार यह भी है कि टीकाकरण ही हालात सामान्य करने की दिशा में इकलौता कदम है इसलिए जिन देशों ने टीकाकरण में प्रगति कर ली है वे दूसरे देशों की तुलना में जल्दी बेहतर स्थिति में आएंगे। इसे एक ऐसी स्थिति के रूप में देखा जा रहा है जहां राज्य की क्षमता (अधिक क्षमता यानी अधिक टीकाकरण) और आर्थिक नतीजों (टीकाकरण से हालात सामान्य होते हैं) में सीधा संबंध है।


यह परिदृश्य भारत को लेकर अतिरिक्त निराशा क्यों पैदा करता है इसकी दो वजह हैं। पहली समस्या है बीमारी के नियंत्रण को टीकाकरण के समकक्ष मानना। परंतु बीमारी के अनुभव से बचाव भी उत्पन्न होता है। प्रतिरोधक क्षमता हासिल करने के दो तरीके हैं: टीके या वायरस के माध्यम से। देश में बहुत बड़ी आबादी ऐसी है जो बीमारी के कारण प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर रही है।


हाल के महीनों में बीमारी बहुत तेजी से फैली है। इसके अलावा टीकाकरण का नीतिगत ढांचा भी बेहतर हो रहा है।


आयात किया जा रहा है और कई राज्य सरकारों ने टीके खरीदने के लिए निविदाएं आमंत्रित की हैं। कई स्थानों पर निजी क्षेत्र में भी टीकाकरण आरंभ है। इन सब में केंद्र सरकार की क्षमता के पूरक के रूप में काफी ऊर्जा लगेगी। इसका लाभ प्रति दिन टीकाकृत होने वाले लोगों की तादाद में इजाफे के रूप में भी नजर आएगा।


वर्तमान की बात करें तो वुहान के मूल वायरस और उससे निपटने के लिए बना एस्ट्राजेनेका का टीका फिलहाल भारत में काफी हद तक सफल नजर आ रहा है। संभव है कि यह प्रतिरोधक क्षमता हमेशा नहीं रहे। वायरस के नए स्वरूप इसे भेद सकते हैं। वायरस का दक्षिण अफ्रीकी स्वरूप एस्ट्राजेनेका टीके के खिलाफ अधिक घातक है। भविष्य में ऐसे बदलते स्वरूप वाले वायरस के लिए बूस्टर खुराक की आवश्यकता हो सकती है। जब भी ऐसा होता है तो हर संस्थान, शहर और राज्य की संस्थागत क्षमता बहुत मायने रखेगी।


शक्ति का दूसरा स्रोत निर्यात मांग में निहित है। फिलहाल भारत में बढ़ी हुई मांग के लिए पर्याप्त राजकोषीय गुंजाइश नहीं है। निजी क्षेत्र का निवेश सन 2007 या 2011 (आकलन के आधार पर) की तुलना में न्यूनतम स्तर पर है। आम परिवारों की खपत भी महामारी, आय से जुड़ी अनिश्चितता और ऋण तक आसान पहुंच नहीं होने के कारण प्रभावित हुई है। महामारी का प्रभाव कम होने के बाद इसमें सुधार होगा। परंतु निर्यात मांग के क्षेत्र में अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन पहले ही बेहतर है।


स्वास्थ्य नीति और राजकोषीय नीति के मोर्चे पर अधिकांश विकसित देशों का प्रदर्शन भारत से बेहतर है। बेहतर स्वास्थ्य नीति के कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षमताएं बीमारी को नियंत्रित रखने में कामयाब रही हैं और टीकाकरण की बेहतर व्यवस्था के कारण आबादी के बड़े हिस्से का टीकाकरण किया जा चुका है। परिपक्व बाजार वाले देशों की राजकोषीय नीति दशकों से मजबूत रही है, यानी वहां सरकारों के पास यह अवसर था कि वे जरूरत पडऩे पर घाटे में विस्तार होने दें। इसकी बुनियाद उन देशोंं ने रखी जिन्होंने दशकों तक मजबूत आर्थिक विचार अपनाया यानी वित्तीय दबाव नहीं अपनाया, दुनिया भर से ऋण लिया, बॉन्ड और करेंसी डेरिवेटिव में आकर्षक कीमत निर्धारण होने दिया, सामान्य दिनों में अधिशेष की स्थिति बनाए रखी, वृहद आर्थिक आंकड़ों को मजबूत रखा और सार्वजनिक ऋण प्रबंधन एजेंसियों से काम लिया। यही वजह है कि कई देश राजकोषीय घाटा बढ़ाकर अपनी खपत मजबूत करने में कामयाब रहे। भारत ऐसा करने की स्थिति में नहीं है। अमेरिका में राजकोषीय प्रोत्साहन दूसरे विश्वयुद्ध की तुलना मेंं भी कहीं बड़ा है।


इस वैश्विक सुधार ने भारत के निर्यात को बल दिया है। अमेरिका में दिसंबर 2020 से मार्च 2021 के बीच हुआ वस्तु आयात महामारी के पहले के स्तर से 4.1 फीसदी अधिक था। इन चार महीनोंं में अमेरिका का भारत से होने वाला आयात 9 फीसदी बढ़ा जबकि चीन से होने वाला आयात 8.2 फीसदी बढ़ा। विशुद्ध मूल्य में देखें तो भारतीय वस्तुओं को अमेरिका को होने वाला निर्यात 5.1 अरब डॉलर मासिक हो गया जबकि महामारी के पहले यह 4.7 अरब डॉलर मासिक था।


भारत के कुल गैर पेट्रोलियम निर्यात की बात करेंं तो जनवरी से अप्रैल 2021 तक यह 26.3 अरब डॉलर मासिक रहा जो महामारी के पहले के 23.4 अरब डॉलर प्रति माह डालर से 12.5 फीसदी अधिक था। सेवा निर्यात का प्रदर्शन भी अच्छा रहा। वर्तमान में भारत के लिए निर्यात क्षेत्र काफी विशिष्टता लिए हुए है। आंकड़ों की बात करें तो वे महामारी के पहले की तुलना में काफी बेहतर स्थिति में है। फिलहाल वैश्वीकरण से भारत का संबंध आर्थिक दृष्टि से काफी अहम है और यह घरेलू कठिनाइयों के समक्ष काफी विविधता पैदा करता है।


जब भी निर्यात का ऑर्डर आता है तो कच्चा माल खरीदा जाता है (जो अक्सर आयात किया जाता है) और उत्पादन होता है। इसके बाद विनिर्मित वस्तु का निर्यात किया जाता है। परिणामस्वरूप जब निर्यात में तेजी आती है तो आयात में होने वाली वृद्धि अक्सर निर्यात वृद्धि से अधिक होती है। आज हमें भारत में ऐसा ही देखने को मिल रहा है और आयात महामारी के पहले की तुलना में 21.4 फीसदी अधिक है। सामान्य तौर पर हम यह नहीं पता कर पाएंगे कि आयात में यह तेजी घरेलू मांग के दम पर है या निर्यात से जुड़े कच्चे माल की बदौलत लेकिन मौजूदा हालात में घरेलू मांग काफी कमजोर है।


भारतीय कंपनियों के नीतिगत विचार के लिए इस दलील के दो निहितार्थ हैं: पहला, हर कंपनी को अपने कर्मचारियों और उनके परिजन का टीकाकरण कराने के प्रयास करने चाहिए। उन्हें अपने ग्राहकों के टीकाकरण के लिए भी कोशिश करनी चाहिए और वायरस के उन प्रारूपों पर नजर रखनी चाहिए जिनके लिए बूस्टर डोज की आवश्यकता होगी। दूसरा, अब वक्त आ गया है कि हम निर्यात बाजार को लेकर प्राथमिकता तैयार करें।

(लेखक स्वतंत्र विश्लेषक हैं)

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कोविड महामारी के असर से लड़खड़ाया सिनेमा कारोबार ( बिजनेस स्टैंडर्ड)

वनिता कोहली-खांडेकर 

पिछले पखवाड़े ईद का त्योहार बहुत बुरे समय में आया। देश महामारी से जूझ रहा है और हमारे चारों तरफ इतना दुख और कष्ट फैला हुआ है कि जश्न मनाने जैसा कोई भाव ही नहीं आता। सलमान खान अभिनीत फिल्म राधे ऐसे ही माहौल में रिलीज हुई। महामारी खत्म होने का इंतजार करने के बाद आखिरकार फिल्म को ओटीटी ज़ी 5 पर रिलीज किया गया। आश्चर्य नहीं कि दर्शकों और आलोचकों ने इसकी जमकर आलोचना की। शायद फिल्म बुरी है लेकिन ओटीटी पर रिलीज करने से इसकी हालत और बिगड़ गई। राधे जैसी फिल्म ईद के सप्ताहांत पर रिलीज होकर खूब भीड़ बटोरती है।

यह पुराने जमाने की सिंगल स्क्रीन फिल्मों जैसी है जहां दर्शक खूब शोरशराबा करते हैं। जब आप इसे 249 रुपये में ऐसे दर्शकों को बेचते हैं जिनकी पसंद नेटफ्लिक्स और एमेजॉन प्राइम वीडियो ने बदल दी है तो इसका नाकाम होना तय है। परंतु चूंकि यह सलमान खान की फिल्म है इसलिए इसे बड़ी तादाद में दर्शक मिलेंगे और विदेशों में रिलीज, टेलीविजन अधिकारों तथा ज़ी के साथ हुए सौदे से यह न केवल लागत वसूल करेगी बल्कि पैसे भी कमाएगी। परंतु इसकी कमजोर रिलीज में न केवल देश का मिजाज बल्कि फिल्म उद्योग की कमजोरी भी रेखांकित होती है। गत वर्ष देश के सिनेमा राजस्व का दोतिहाई हिस्सा गंवाना पड़ा। महामारी के कारण सन 2019 के 19,100 करोड़ रुपये से घटकर यह 7,200 करोड़ रुपये रह गया। महामारी के कारण थिएटर सबसे पहले बंद हुए और सबसे बाद में खुले। टिकट बिक्री घटकर 40 करोड़ रुपये रह गई जो 2019 की तुलना में एक तिहाई से भी कम थी। इस आंकड़े में भी ज्यादातर पहली तिमाही से है जब लॉकडाउन नहीं लगा था। सात लाख लोगों को रोजगार देने वाले इस उद्योग के काम करने वाले लाखों दैनिक श्रमिकों का काम छूट गया। फिक्की-ईवाई की रिपोर्ट के अनुसार 1,000 से 1,500 सिंगल स्क्रीन थिएटर बंद हुए। मल्टीप्लेक्स भी अच्छी स्थिति में नहीं हैं। सिनेमाघर खुले ही थे कि दूसरी लहर ने तबाही मचा दी। अमेरिका के रीगल और एएमसी की तरह अगर भारत में भी कुछ मल्टीप्लेक्स शृंखला बंद होती हैं तो आश्चर्य नहीं।


पूरे भारत का टीकाकरण होने में कम से कम एक वर्ष लगेगा। केवल तभी सिनेमाघर पूरी तरह खुल सकेंगे। इस पूरी प्रक्रिया में वे ही सबसे अहम हैं। बिना सिनेमा घरों के भारतीय सिनेमा दोबारा खड़ा नहीं हो सकता। सन 2019 में भारतीय फिल्मों की 19,100 करोड़ रुपये की आय में 60 फीसदी भारतीय थिएटरों से आई।


किसी फिल्म को थिएटर में कैसी शुरुआत मिलती है, इससे ही तय होता है कि टीवी, ओटीटी और विदेशों में उसकी कैसी कमाई होगी। सन 2019 एक अच्छा वर्ष था और उस वर्ष प्रसारकों ने फिल्म अधिकारों के लिए 2,200 करोड़ रुपये खर्च किए जो कुल कारोबार का 12 फीसदी था। प्रसारक नेटवर्क को इससे 7,700 करोड़ रुपये का विज्ञापन राजस्व मिला। परंतु प्रसारक टीवी को यह कमाई तभी होती है जब फिल्म का प्रदर्शन थिएटर में अच्छा हो। ये दोनों माध्यम आम जनता से संबद्घ हैं। अगर थिएटर पूरी तरह नहीं खुले तो यह पूरी व्यवस्था काम नहीं करेगी। डिजिटल या ओटीटी माध्यम 60 फीसदी कारोबार की जगह नहीं ले सकते। ध्यान रहे गत वर्ष फिल्मों का डिजिटल राजस्व दोगुना हो गया लेकिन कारोबार फिर भी 60 फीसदी कम रहा। ऐसा लगता है कि लोग भी थिएटरों में वापस जाना चाहते हैं।  मास्टर (तमिल), ड्रैकुला सर या चीनी (बांग्ला), जाठी रत्नालू (तेलुगू), कर्णन (तमिल), द प्रीस्ट (मलयालम) आदि फिल्मों ने सन 2020 में और 2021 के आरंभ में बॉक्स ऑफिस में अच्छा प्रदर्शन किया। सवाल यह है कि अगर तेलुगू, तमिल या मलयालम फिल्मों का प्रदर्शन अच्छा है तो राधे को पहले क्यों नहीं रिलीज किया गया? क्योंकि हिंदी रिलीज पूरे देश में होती है। यह जरूरी होता है कि कई राज्यों में फिल्म रिलीज हो। कुल राजस्व का 40-50 फीसदी हिस्सा केवल दिल्ली और मुंबई से आता है। विदेशों से भी बहुत राजस्व मिलता है। जबकि तमिल फिल्म केवल तमिलनाडु में और तेलुगू फिल्म तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में रिलीज होती है। प्रोड्यूसर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के अध्यक्ष सिद्धार्थ राय कपूर कहते हैं कि ये फिल्में केवल राज्य विशेष में चलती हैं। ऐसे में हिंदी ही फिल्म राजस्व का सबसे बड़ा हिस्सा लाती है। जब तक महामारी समाप्त नहीं होती बड़े पैमाने पर हिंदी रिलीज मुश्किल है। दुनिया भर में अवेंजर्स, मिशन इंपॉसिबल या बॉन्ड शृंखला की फिल्मों में यह ताकत है कि वे दर्शकों को सिनेमाहॉल में खींच सकें। यह बात भारत के लिए भी सही है। बाहुबली (तेलुगू, तमिल), केजीएफ (कन्नड़), वार (हिंदी) या सोरारी पोत्रु (तमिल) जैसी फिल्मों के लिए दर्शक थिएटर जाएंगे जबकि सीयू सून अथवा जोजी (मलयालम) अथवा रामप्रसाद की तेरहवीं (हिंदी) जैसी फिल्में ओटीटी मंच के लिए हैं।


यानी टीकाकरण के अलावा थिएटरों में बड़ी और शानदार फिल्मों की जरूरत होगी ताकि हालात सामान्य हो सकें। ऐसा होता नहीं दिखता। धर्मा प्रोडक्शन के सीईओ अपूर्व मेहता कहते हैं, 'फिल्म अनुबंध का कारोबार है। इसमें कई लोग लंबे समय तक एक साथ काम करते हैं और सावधानी बरतनी होती है। हम इस माहौल में 200-300 करोड़ रुपये की फिल्म की योजना नहीं बना सकते। यही कारण है कि हम ऐसी फिल्में बना रहे हैं जिनका बजट कम हो।'यानी कारोबारी एक दुष्चक्र में फंस गया है जो तभी समाप्त होगा जब शूटिंग और बाहरी शेड्यूल शुरू हो। ऐसा शायद 2022 के अंत में या 2023 में हो। अभी कुछ कहना मुश्किल है कि तब हालात कैसे होंगे। बात केवल बड़े सितारों की नहीं है। यह हजारों लेखकों, तकनीशियनों, सहायक कलाकारों, स्टूडियो में काम करने वालों की भी बात है। हालांकि औद्योगिक संगठन और व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास जारी हैं लेकिन हिंदी, मलयालम, तमिल, बांग्ला आदि अनेक क्षेत्रों के सिनेमा से जुड़े लोग अपना पेशा बदल चुके हैं। कारोबार शायद समाप्त न हो लेकिन संभव है यह अपने पुराने दिनों की छाया भर रह जाए। शेष भारत की तरह उसे भी पुरानी रंगत पाने में कई वर्ष लगेंगे।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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सार्वजनिक अभियान जरूरी ( बिजनेस स्टैंडर्ड)

देश भर में तेजी से फैल चुकी कोविड-19 की दूसरी लहर को नियंत्रित करने में टीका लगवाने को लेकर हिचकिचाहट और कोविड की रोकथाम के लिए जरूरी व्यवहार की अनुपस्थिति बड़ी समस्या बनकर उभरे हैं। खासतौर पर देश के ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में यह दिक्कत ज्यादा गंभीर है।


विभिन्न जिलों के स्थानीय स्वास्थ्यकर्मी बता रहे हैं कि लोग दुष्प्रभावों की आशंका के चलते टीका लगवाने से बच रहे हैं। ऐसा आंशिक रूप से इसलिए हुआ क्योंकि सरकार ने शुरुआत में टीकों को लेकर पूरी पारदर्शिता नहीं बरती। दूसरी ओर, मास्क लगाने और शारीरिक दूरी को लेकर ग्रामीण इलाकों में कोई सावधानी नहीं बरती गई। इस बात ने भी महामारी के प्रसार में काफी योगदान किया। चूंकि ये सारी बातें जनवरी में टीकाकरण की शुरुआत के पहले से ज्ञात थीं इसलिए अगर समय रहते टीकों की सुरक्षा और अहमियत को लेकर जागरूकता अभियान चलाया जाता तो बेहतर होता।


हालांकि सरकार ने इसे लेकर कुछ पोस्टर जारी किए हैं और टेलीविजन चैनलों पर कुछ संदेश नजर आने लगे हैं लेकिन इसके बजाय गंभीर अभियान की आवश्यकता है। स्वास्थ्य मंत्री ने यह चर्चा भी की कि कैसे व्यापक टीकाकरण कार्यक्रम की मदद से देश ने चेचक (शीतला) और पोलियो का उन्मूलन कर दिया। यह संदर्भ एकदम उचित था क्योंकि दोनों ही अवसरों पर टीकाकरण को लेकर जबरदस्त जागरूकता अभियान चलाये गए और इन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के साथ-साथ देश के कुछ सबसे बड़े उपक्रमों के साथ मिलकर चलाया और इसमें हजारों की तादाद में स्वास्थ्यकर्मी शामिल रहे। चेचक और पोलियो कार्यक्रमों के बचे हुए पोस्टर इस बात की पुष्टि करते हैं कि कैसे चेचक के लिए शीतला माता जैसी अलंकृत भाषा वाले संदेश का इस्तेमाल पोस्टरों पर किया गया और सिगरेट के पैकेट पर छपी चेतावनी जैसे संदेश दिए गए कि टीकाकरण नहीं करवाने के क्या खतरे हो सकते हैं।


विडंबना यह है कि आज हमारे देश के पास सन 1970 के दशक की तुलना में बहुत ज्यादा मीडिया और संसाधन हैं जिनकी मदद से संदेश को सहजता से प्रसारित किया जा सकता है। उन दिनों तो प्रचार का पूरा दायित्व सरकारी रेडियो चैनलों पर था। इसके अलावा संदेश दीवारों पर लगाए जाते तथा पोस्टर चिपकाए जाते। चेचक के किसी मामले की सूचना स्थानीय स्वास्थ्य केंद्र को देने पर 100 रुपये का इनाम था। यह तरीका मामलों की पड़ताल में अत्यंत प्रभावी साबित हुआ। आज दूरदर्शन और सोशल मीडिया की पहुंच बहुत व्यापक है और चार दशक पहले की तुलना में आज देश के दूरदराज इलाकों में संदेश पहुंचाना आसान है। देश में विज्ञापन जगत से जुड़ी प्रतिभाओं की भी कोई कमी नहीं है। ऐसे में विश्वसनीय सेलिब्रिटी मसलन विराट कोहली, अमिताभ बच्चन, रजनीकांत, पीवी सिंधू या आलिया भट्ट आदि की मदद से स्थानीय भाषाओं में देशव्यापी प्रचार अभियान चलाया जा सकता है। यदि चुनाव के समय राजनीतिक संदेश मोबाइल रिंगटोन से दिए जा सकते हैं तो उनका इस्तेमाल लोगों को मास्क पहनने के लिए प्रेरित करने में भी किया जा सकता है जैसा कि शुरुआती दिनों में कुछ राज्य सरकारों ने किया भी। टीकाकरण के प्रचार के लिए भी यह तरीका अपनाया जा सकता है।


उस दौर की तरह अब भी पंचायतों और स्थानीय स्वास्थ्य कर्मियों तथा दूरदराज इलाकों में स्थापित निजी और सार्वजनिक उपक्रमों की मदद से मजबूती से काम किया जा सकता है। ऐसे शिक्षण कार्यक्रमों पर होने वाले व्यय को कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व में शामिल किया जाना चाहिए यह अधिक मददगार साबित होगा। सरकार अगर विदेशों में अपना नजरिया प्रस्तुत करने के लिए टेलीविजन चैनल शुरू करने के बजाय तत्काल संदेश प्रसारित करने के काम में लगे तो उसे अधिक लाभ होगा। देश की अंतरराष्ट्रीय छवि को सशक्त टीकाकरण से अधिक लाभ होगा, बजाय कि टेलीविजन पर होने वाली बहसों के।

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2024 के आम चुनाव में मोदी की चुनौती? ( बिजनेस स्टैंडर्ड)

शेखर गुप्ता 

गत सप्ताह जब यह आलेख लिखा गया तब राजनीतिक महत्त्व वाली दो अहम घटनाओं की वर्षगांठ थी। उनमें से एक है नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल के दो वर्ष पूरा होना और दूसरी है राजीव गांधी की हत्या के 30 वर्ष पूरे होना। यह अच्छा अवसर है कि दो बड़े राजनीतिक दलों भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस के 2024 की गर्मियों तक के भविष्य पर नजर डाली जाए। हम अतीत को परे रखेंगे। म्युचुअल फंड निवेश की तरह राजनीति में भी अतीत हमेशा भविष्य का सबसे बेहतर मार्गदर्शक नहीं होता।


दोनों विरोधी दलों का भविष्य आपस में संबद्ध है। हम जानते हैं कि राजीव गांधी की हत्या के बाद तीसरे दशक में उनकी पार्टी राष्ट्रीय राजनीति में बहुत पीछे छूट गई है। सन 2014 और 2019 दोनों आम चुनावों में उसे भाजपा के सामने 90 फीसदी सीटों पर हार का सामना करना पड़ा। वर्ष 2014 में अनुपात 88:12 और 2019 में 92:8 का था। ऐसे में यह सवाल बनता है कि आखिर भाजपा के भविष्य का आकलन करते हुए कांग्रेस की तकदीर की बात भी क्यों करें? इसलिए क्योंकि 92-8 से पराजित होने के बावजूद कांग्रेस ही भाजपा की सबसे करीबी पार्टी थी। दूसरी बात यह कि मोदी और शाह के अधीन भाजपा को कुल मिलाकर 38 फीसदी मत मिले जबकि कांग्रेस को 20 फीसदी यानी भाजपा के करीब आधे।


देश में कोईअन्य दल दो अंकों में सीट नहीं पा सका। या फिर कहें तो राजग सहयोगियों समेत किन्हीं अन्य तीन दलों ने मिलकर भी दो अंकों में सीट नहीं हासिल कीं। इसके अतिरिक्त यदि आप सभी गैर कांग्रेसी विपक्षी दलों के मत प्रतिशत को मिला दें यानी द्रमुक, राकांपा, राजद जैसे एक फीसदी से अधिक मत प्रतिशत वाले दलों के मत प्रतिशत को तो भी वह 20 तक नहीं पहुंचता। वर्ष 2014 और 2019 के बीच कांग्रेस अपने 20 फीसदी मत बचाने में कामयाब रही। जबकि अन्य सभी गैर भाजपा दलों की हिस्सेदारी घटी।


भले ही कांग्रेस कितनी भी खराब हालत में हो लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के मुकाबले वही है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह को देखिए। वे जानते हैं कि कांग्रेस को हल्के में नहीं ले सकते। यही कारण है कि जिन राज्यों में कांग्रेस मायने नहीं रखती (पश्चिम बंगाल) या जहां भाजपा की स्थिति अच्छी नहीं (केरल और तमिलनाडु), वहां भी वे कांग्रेस और गांधी परिवार पर हमले करते हैं। राहुल गांधी को लगातार पप्पू ठहराने का अभियान चलता है या सोनिया गांधी के विदेशी मूल का प्रश्न उठाया जाता है। यही वजह है कि कांग्रेस के दलबदलुओं को साथ लिया जाता है और असंतुष्टों के साथ दोस्ताना जताया जाता है और उनके लिए आंसू तक बहाए जाते हैं। राज्य सभा में गुलाम नबी आजाद की विदाई याद कीजिए।


मोदी और शाह तीन बातें जानते हैं:


* राष्ट्रीय स्तर पर केवल कांग्रेस उन्हें चुनौती दे सकती है।


* कांग्रेस को अपना मत प्रतिशत भाजपा से अधिक करने की आवश्यकता नहीं है। यदि वह 20 से बढ़कर 25 प्रतिशत हो जाए तो राष्ट्रीय राजनीति बदल जाएगी। भाजपा-राजग की सरकार तब भी रहेगी लेकिन गठबंधन की अहमियत बढ़ेगी। मोदी-शाह के सामने चुनौतियां होंगी। तब संवैधानिक संस्थाएं ऐसी कमजोर न होंगी।


* इसके लिए गांधी परिवार अहम है। केवल वही कांग्रेस को एकजुट रख सकता है इसलिए उस पर जमकर हमले जरूरी हैं।


मेरा कहना यह नहीं है कि गांधी परिवार इसे नहीं समझता। वे शायद मोदी-शाह की भाजपा को हल्के में इसलिए लेते हैं क्योंकि वे उनके प्रति अवमानना का भाव रखते हैं और शायद यह स्वीकारना नहीं चाहते कि वे इतने बड़े अंतर से क्यों जीत रहे हैं। कांग्रेस के इस विचार में तीन कमियां हैं:


* उसे लगता है कि नरेंद्र मोदी का उदय अस्थायी घटना है और मतदाताओं का विवेक जल्दी लौटेगा। वर्ष 2019 में कांग्रेस पुलवामा के कारण चूक गई लेकिन अब महामारी और आर्थिक पराभव भाजपा की पराजय की वजह बनेंगी।


* भाजपा की सबसे कमजोर कड़ी हैं आरएसएस और उसकी विचारधारा। विचारधारा अमूर्त होती है जबकि व्यक्ति वास्तविक होते हैं। कांग्रेस अपने सीमित हथियार आरएसएस, गोमूत्र, सावरकर और गोलवलकर पर खर्च कर रही है। भाजपा खुद को नेहरू-गांधी परिवार तक सीमित रखती है और अक्सर वर्तमान और पुराने कांग्रेसी नेताओं के बारे में अच्छी बातें कहती है।


* कांग्रेस का भविष्य धुर वामपंथ में हैं। यही वजह है कि वह वाम मोर्चे से हाथ मिला रही है। पार्टी को केरल में पराजय मिली। यदि उसने बंगाल में ममता के साथ हाथ मिला लिया होता तो पश्चिम बंगाल में तो उसे कुछ सीटों पर जीत मिलती ही, केरल में वाम मोर्चे के खिलाफ जीत की संभावना बेहतर होती। शून्य से तो कुछ भी बेहतर होता। परंतु यह कांग्रेस युवा वामपंथियों वाली है। सबूत के लिए देखिए कि उनका सोशल मीडिया कौन और कैसे संभालता है।


ममता बनर्जी और उनकी तृणमूल कांग्रेस का समय चल रहा है। वह मोदी-शाह के आलोचकों की नायिका हैं। लेकिन राजनीति में जीत की आयु हार से छोटी होती है। मेरे प्रबुद्घ सहयोगी और द प्रिंट के राजनीतिक संपादक डीके सिंह बताते हैं कि 2024 के आम चुनाव तक 16 राज्यों में चुनाव होंगे। अगले वर्ष सात राज्यों में चुनाव होंगे: उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में फरवरी-मार्च 2022 के बीच चुनाव होंगे। गुजरात और हिमाचल प्रदेश में अक्टूबर-दिसंबर 2022 के बीच चुनाव होंगे। सन 2023 में नौ राज्यों में चुनाव होगा। उस वर्ष फरवरी में मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा में चुनाव होंगे। मई में कर्नाटक में और दिसंबर में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के साथ मिजोरम में चुनाव होगा। उत्तर प्रदेश को छोड़कर इन सभी राज्यों में भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस ही होगी। इन चुनावों में थोड़ी भी कामयाबी पार्टी में नई जान फूंक सकती है और उसे 2024 के लिए नई ऊर्जा दे सकती है। जबकि हार उसे तोड़ सकती है। कहना आसान है कि कांग्रेस अपने समर्थकों को नीचा दिखा रही है। जैसा कि ओम प्रकाश चौटाला ने एनडीटीवी के 'वाक द टॉक' कार्यक्रम में मुझसे कहा था, 'ये धरम-करम या तीर्थयात्रा नहीं है। ये सत्ता के लिए है।'


यह कहना बेमानी है कि काश गांधी परिवार अलग होकर पार्टी को नए नेतृत्व के हवाले कर दे या कम से कम राहुल को जाना चाहिए। परंतु ऐसा नहीं होने वाला।


कांग्रेस के बारे में सच वो है जो मोदी और शाह तो मानते हैं लेकिन कई कांग्रेस समर्थक नहीं मानते। वह यह कि बिना गांधी परिवार के कांग्रेस का अस्तित्व नहीं रहेगा। आज वे 20 फीसदी से अधिक मत नहीं जुटा पा रहे लेकिन उन्होंने पार्टी को एकजुट रखा है। भाजपा को आरएसएस से ताकत मिलती है। आप उसे पसंद करें या नहीं लेकिन वह एक संस्थान है जबकि कांग्रेस एक परिवार पर आधारित है।


राजनीति कभी एक घोड़े वाली घुड़दौड़ नहीं होती। क्या मोदी की तीसरी बार सत्ता पाने की कोशिश अधिक चुनौतियों भरी होगी? यह चुनौती कौन और कैसे देगा?


अतीत में कई तीसरा, चौथा, धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील मोर्चे आजमाए जा चुके हैं। वे नाकाम रहे या भविष्य के लिए गलत नजीर बने। हम सन 1967 के संयुक्त विधायक दल से कई महागठबंधनों और वीपी सिंह के जनमोर्चा और संयुक्त मोर्चा तक इसके उदाहरण देख सकते हैं जहां आए दिन प्रधानमंत्री बदलते थे।


इसके उलट दलील भी दी जा सकती है। क्षेत्रीय नेताओं ने सन 2004 में वाजपेयी जैसे मजबूत नेता को हराने में मदद की थी। वे विपक्ष को अतिरिक्त मत भी दिला सकते हैं। 2019 में राजग के 44 फीसदी की तुलना में संप्रग को 26 फीसदी मत मिले। यदि और साझेदार होते यह बढ़कर 32 से 36 फीसदी हो जाता तो?


कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के पास एक और विकल्प है। एक ऐसी कंपनी के बारे में सोचिए जिसके पासब्रांड और पुराने ग्राहक दोनो हैं लेकिन वह नए प्रतिद्वंद्वियों से मार खा रही है। वह क्या करेगी? शायद बाहर से नया सीईओ लाएगी। कांग्रेस में ऐसा नहीं होगा लेकिन लेकिन कांग्रेस समर्थित बड़े विपक्षी गठबंधन में बाहरी नेता हो सकता है। कांग्रेस अपने 20 फीसदी मतदाताओं की मदद से सहायक सिद्घ हो सकती है।


यदि ऐसा विचार उभरता है तो ममता बनर्जी और उनके जैसे अन्य नेता आगे आ सकते हैं। कांग्रेस को राज करने वाली पार्टी होने का मोह छोडऩा होगा। यह कष्टप्रद होगा लेकिन असंभव नहीं होगा। न ही यह उन लोगों की कल्पना है जो चाहते हैं कि गांधी परिवार दूर रहे।

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जड़ी-बूटियों की पैदावार को प्रोत्साहन देने की जरूरत ( बिजनेस स्टैंडर्ड)

सुरिंदर सूद 

औषधि एवं सुगंध वाले पौधों के साथ ही जड़ी-बूटियों की वाणिज्यिक उपज भी भारतीय कृषि की एक आकर्षक शाखा के तौर पर उभर रही है। पारंपरिक स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र को आपूर्ति के लिए अमूमन जड़ी-बूटियों को जंगलों से इक_ा किया जाता रहा है। फार्मा उद्योग एवं सौंदर्य प्रसाधन क्षेत्र को भी ये जड़ी-बूटियां जंगलों से ही इक_ा कर भेजी जाती रही हैं। लेकिन इन औषधीय पौधों का प्राकृतिक आवास काफी हद तक अतिक्रमण का शिकार हो चुका है। यानी परंपरागत तरीकों से इन जड़ी-बूटियों की आपूर्ति घरेलू एवं निर्यात बाजार की मांग के अनुरूप नहीं की जा सकती है। लिहाजा उनकी वाणिज्यिक खेती का ही तरीका बच जाता है।


खास तरह की यह खेती काफी हद तक मांग पर आधारित है और खुद सरकार भी राष्ट्रीय आयुष मिशन जैसे अभियानों के जरिये इसे प्रोत्साहन दे रही है। आयुष मिशन के तहत आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध एवं होम्योपैथी चिकित्सा पद्धतियों को बढ़ावा देने का लक्ष्य रखा गया है। इन चारों इलाज पद्धतियों को ही संक्षिप्त रूप से 'आयुष' का कूटनाम दिया गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का अनुमान है कि दुनिया की करीब दो-तिहाई आबादी अब भी आंशिक या पूर्ण रूप से इलाज की इन पारंपरिक पद्धतियों पर ही आश्रित है। पारंपरिक दवाओं के साथ आधुनिक दवाओं के लिए भी करीब 80 फीसदी कच्चा माल इन जड़ी-बूटियों से ही आता है। जड़ी-बूटी वाले औषधीय उत्पादों का सालाना कारोबार घरेलू बाजार में करीब 8,000-9,000 करोड़ रुपये और निर्यात बाजार में करीब 1,000 करोड़ रुपये रहने का अनुमान है। इस साल इन आंकड़ों में खासी उछाल आती हुई दिख रही है। इसका कारण यह है कि कोविड-19 महामारी के दौरान प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मददगार बताई जा रही इन  औषधियों की मांग बहुत तेजी से बढ़ी है। देसी काढ़ा जैसे औषधीय मिश्रण में इस्तेमाल होने वाली तुलसी, दालचीनी, सूखी अदरक एवं काली मिर्च की इन दिनों पुरजोर मांग है।


आयुष मंत्रालय ने कोविड से हल्के स्तर पर पीडि़त लोगों के इलाज में मददगार दवा आयुष-64 एवं सिद्ध उत्पाद कबासुर कुडिनीर के वितरण के लिए हाल ही में देशव्यापी अभियान हाल ही में शुरू किया है। मंत्रालय ने भारतीय चिकित्सा एवं अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के साथ मिलकर आयुष-64 दवा के क्लिनिकल परीक्षण कई जगहों पर करवाए हैं। इसी तरह कबासुर कुडिनीर का परीक्षण केंद्रीय सिद्ध अनुसंधान परिषद ने किया है।


हरियाणा सरकार ने आयुर्वेदिक विशेषज्ञों से सलाह की 24 घंटे वाली टेली-कॉन्फ्रेंसिंग सेवा भी शुरू की है ताकि कोविड-19 संक्रमितों को अस्पताल ले जाने की नौबत न आए। कई स्वैच्छिक संगठन भी योग एवं स्वदेशी चिकित्सा पद्धतियों के बारे में ऐसी ही परामर्श सेवाएं मुहैया करा रहे हैं। इनका मकसद यही है कि कोविड-19 संक्रमण को शुरुआती दौर में ही संभाल लिया जाए। कई होम्योपैथी डॉक्टर भी इस जानलेवा बीमारी के लक्षणों के इलाज में सफलता मिलने का दावा कर रहे हैं। कोविड की निरोधक दवाओं के तौर पर आर्सेनिक एल्ब, इन्फ्लुएंजियम एवं कैम्फर जैसी कुछ होम्योपैथी दवाओं की मांग हाल में खूब बढ़ी है। भारत इस लिहाज से खुशकिस्मत है कि यहां चिकित्सकीय गुणों से युक्त एवं सुगंध वाले पौधों की काफी विविधता मौजूद है। इसके 15 कृषि-जलवायु क्षेत्रों में 17,000-18,000 पौधे पाए जाते हैं। इनमें से करीब 7,000 पौधों में बीमारियों का इलाज करने की क्षमता एवं अन्य वाणिज्यिक गुण पाए जाते हैं। लेकिन विडंबना ही है कि फिलहाल 960 से अधिक जड़ी-बूटियों का कारोबार नहीं हो पा रहा है। असल में, सिर्फ 178 पौधे ही साल भर में 100 टन से अधिक मात्रा में इस्तेमाल किए जाते हैं। इन औषधीय पौधों की मांग नहीं बल्कि कम उपलब्धता ही इनमें से कई पौधों के कम उपयोग के लिए आंशिक तौर पर जिम्मेदार है। इस बात को ध्यान में रखते हुए सरकार ने इन जड़ी-बूटियों की आपूर्ति बढ़ाने के लिए उन्हें प्रोत्साहन देना शुरू किया है। इसके लिए आयुष मिशन के तहत करीब 140 औषधीय पौधों को चिह्नित किया गया है। कच्चे माल के तौर पर इन जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल करने वाले उद्योगों को इनकी खेती के प्रायोजन की अनुमति भी दे दी गई है। इसमें उद्योग कंपनियां उत्पादकों के साथ उपज खरीद का करार करती हैं। जड़ी-बूटियों की विशिष्ट खेती हमें राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़, अरुणाचल प्रदेश और समूचे हिमालयी क्षेत्र में देखने को मिल रही है।


कर्नाटक इस लिहाज से खास है कि इसकी व्यापक प्राकृतिक विरासत में 2,500 से भी अधिक चिकित्सकीय एवं सुगंधित पौधे पाए जाते हैं। अश्वगंधा, चंदन, लेमन ग्रास, चमेली, सिट्रोनेला एवं रजनीगंधा के अलावा कर्नाटक की जलवायु तुलसी, एलोवेरा, गुग्गल, श्रीफल (बेल) एवं स्टेविया (मीठी तुलसी) के लिए भी खासी अनुकूल है। भारत का हर्बल सौंदर्य उत्पाद उद्योग वर्ष 2017 से ही करीब 19 फीसदी की दर से वृद्धि कर रहा है और देश में औषधीय गुणों वाले पौधों की उपज बढ़ाने में इसकी भी अहम भूमिका रही है। भारत फूलों एवं दूसरे पादप स्रोतों की मदद से सुगंधित द्रव्य एवं इत्र बनाने में अग्रणी रहा है। सदियों पहले बनाए गए ये इत्र अब भी मांग में हैं और घरेलू एवं वैश्विक परफ्यूम ब्रांडों से मिलने वाली प्रतिस्पद्र्धा के बावजूद इनकी मांग कायम है। विज्ञापन एजेंसियां भी ऑर्गेनिक सौंदर्य एवं त्वचा देखभाल वाले उत्पादों के पक्ष में राय बनाने में मददगार साबित हो रही हैं।


जड़ी-बूटियों की प्राथमिक मार्केटिंग काफी हद तक असंगठित ही होती है जिसमें न कोई नियमन है और न ही वह पारदर्शी होता है। स्थानीय स्तर पर लगने वाले हाट-बाजारों में उनकी खरीद-फरोख्त होती है और वहां बिचौलियों का दबदबा होता है। छोटे उत्पादकों एवं आदिवासी संग्राहकों का शोषण खूब होता है। इन गलत चीजों को दुरुस्त करने की जरूरत है ताकि जड़ी-बूटियों की खेती का तीव्र विकास हो सके। स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र एवं अन्य उद्योग भी एक हद तक इन पर आश्रित हैं।

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तार्किक हों दरें ( बिजनेस स्टैंडर्ड)

कुछ महीनों के मजबूत प्रदर्शन के बाद मई में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के एक बार फिर दबाव में आने की आशंका है। ऐसा अप्रैल महीने में आर्थिक गतिविधियों में आई कमी की वजह से हो सकता है। महामारी की दूसरी लहर ने जो तबाही मचाई है उसे ई-वे बिल में भारी गिरावट में पहले ही महसूस किया जा सकता है। माना जा रहा है कि शुक्रवार को जीएसटी परिषद की बैठक में राजस्व की चुनौतियां ही चर्चा के केंद्र में होंगी। राज्य सरकारें महामारी से निपटने में सबसे अग्रिम पंक्ति में हैं और राहत प्रदान कर रही हैं। अब उन्हें टीकाकरण कार्यक्रम पर भी व्यय करना होगा। कम आधार से राजस्व में गिरावट और व्यय में इजाफा राज्यों के लिए राजकोषीय प्रबंधन को और मुश्किल बना देगा। राज्य संभावित कमी को लेकर चिंता जता रहे हैं और भरपाई के ढांचे का नए सिरे से आकलन करना होगा।

राजस्व से जुड़ी समग्र चिंताओं और संग्रह में कमी की भरपाई के अलावा कई अन्य मसले हैं जिन पर परिषद विचार कर सकती है। उदाहरण के लिए व्युतक्रम शुल्क ढांचे (जहां विनिर्मित वस्तु पर निर्यात शुल्क कच्चे माल से कम हो) का मसला काफी समय से लंबित है और यह राजस्व को प्रभावित कर रहा है। पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाने की मांग भी काफी समय से की जा रही है। इससे उपयोगकर्ताओं को इनपुट क्रेडिट की सुविधा मिलेगी। बहरहाल, फिलहाल पेट्रोल और डीजल को जीएसटी के दायरे में लाना संभव नहीं होगा क्योंकि ऐसा करने से करों में काफी कमी आएगी और राजकोषीय संतुलन प्रभावित होगा। केंद्र और राज्य सरकारें पेट्रोलियम उत्पादों से हासिल होने वाले कर पर बहुत हद तक निर्भर करती हैं। इन्हें जीएसटी के दायरे में लाना और राजस्व क्षति की भरपाई के लिए उपकर लगाना कारगर नहीं होगा क्योंकि इससे कर ढांचा जटिल हो जाएगा। ऐसे में पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी ढांचे में शामिल करने के प्रस्ताव पर विचार करने के पहले इन बातों का आकलन कर लेना चाहिए।


परंतु परिषद को जिस सबसे अहम मसले पर विचार करना चाहिए वह है दरों को तार्किक बनाना। हाल के महीनों में राजस्व में सुधार हुआ क्योंकि अनुपालन बेहतर हुआ है। हालांकि यह एक अच्छा कदम है लेकिन राजनीतिक कारणों के चलते इससे दरों में अनावश्यक कमी की भरपाई नहीं हो सकेगी। जैसा कि पंद्रहवें वित्त आयोग ने अपनी रिपोर्ट में रेखांकित किया है और वह है विशुद्ध क्षतिपूर्ति उपकर। सन 2019-20 में जीएसटी संग्रह सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का बमुश्किल 5.1 फीसदी था। यह जीएसटी में समाहित करों से हासिल होने वाले राजस्व की तुलना में काफी कम था क्योंकि 2016-17 में ही वह जीडीपी के 6.3 फीसदी के बराबर था। ऐसे में मौजूदा दर राजस्व निरपेक्ष नहीं है। भारतीय रिजर्व बैंक ने 2019 में एक अध्ययन में बताया था कि जीएसटी के लिए प्रभावी औसत दर 11.6 थी जबकि क्रियान्वयन के समय वह 14.4 फीसदी थी। यह अपरिपक्वकर समायोजन की वजह से हुआ। राजस्व निरपेक्षता का मसला तत्काल हल किया जाना चाहिए क्योंकि यह जीडीपी के एक फीसदी के बराबर कर संग्रह को प्रभावित कर रही है।


कोविड-19 महामारी ने सरकार की वित्तीय स्थिति को तगड़ा नुकसान पहुंचाया है और देश का सार्वजनिक ऋण जीडीपी के 90 फीसदी तक पहुंच गया है। यदि अर्थव्यवस्था जल्दी पटरी पर नहीं आती तो यह अनुपात और बिगड़ सकता है। कर्ज और घाटे के स्तर को देखते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को राजकोषीय दबाव कम करने के रास्ते तलाशने होंगे। परिषद को राजस्व संग्रह में कमी की भरपाई के लिए ऋण से परे सोचना चाहिए और जीएसटी व्यवस्था की ढांचागत कमियों को दूर करना चाहिए।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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आपदा को अवसर नहीं बना पाए हम (हिन्दुस्तान)

हरजिंदर, वरिष्ठ पत्रकार

जब कोविड नहीं था, तब बहुत कुछ बहुत अच्छा था। ऐसा हम बहुत सी चीजों के बारे में या शायद सभी चीजों के बारे में कह सकते हैं। लेकिन निश्चित और निर्विवाद तौर पर वैक्सीन बाजार के बारे में तो यह कहा ही जा सकता है। तब तक इस बाजार में हम सबसे आगे थे। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 2019 के आंकड़ों को देखें, तो दुनिया के वैक्सीन बाजार में 28 फीसदी हिस्सेदारी अकेले भारत की कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की थी। पता नहीं, बात कितनी सच है, लेकिन यह अक्सर सुनाई देती थी कि पूरी दुनिया का 12 साल का कोई भी बच्चा जिसका पूर्ण टीकाकरण हुआ हो, उसे अपने पूरे जीवन में कभी न कभी सीरम इंस्टीट्यूट का एक टीका तो लगा ही होगा। यानी, वैक्सीन के मामले में इस तरह के नैरेटिव हमारे गौरव-बोध को थपथपाने के लिए मौजूद थे। वैसे सीरम इंस्टीट्यूट के अलावा देश की कई और कंपनियां भी वैक्सीन बनाने और निर्यात करने का काम करती हैं। अगर इन सभी को जोड़ दिया जाए, तो दुनिया के वैक्सीन बाजार में भारत की हिस्सेदारी एक तिहाई से कहीं ज्यादा थी।

 

बात सिर्फ 2019 के आंकड़ों की नहीं है। 2020 के अंत तक यही माना जा रहा था कि कोरोना वायरस से लड़ाई में भारत बड़ी भूमिका निभाने जा रहा है। दिसंबर में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने यहां तक कहा था कि वैक्सीन की जो उत्पादन-क्षमता भारत के पास है, वह दुनिया की एक महत्वपूर्ण संपदा साबित होने वाली है। इन्हीं सबसे उत्साहित होकर भारत ने अपने जनसंपर्क को बढ़ाने का फैसला किया और दिसंबर की शुरुआत में सभी देशों के राजदूतों को एक साथ बुलाकर वैक्सीन की प्रयोगशालाओं व उत्पादन इकाइयों का दौरा करवाया। इस दौरे के बाद ऑस्ट्रेलिया समेत कई देशों के राजदूतों ने भारत की वैक्सीन उत्पादन-क्षमता के लिए कई कसीदे भी गढ़े थे। हम इस बात को लेकर खुश थे कि भारत में स्वास्थ्य सुविधाएं लचर हो सकती हैं, अस्पताल, मरीजों के लिए बिस्तर व स्वास्थ्यकर्मी कम पड़ सकते हैं, वेंटिलेटर का अकाल हो सकता है, ऑक्सीजन जरूरत से काफी कम पड़ सकती है, बहुत सी दवाओं की कमी से उनकी कालाबाजारी हो सकती है, पर वैक्सीन के मामले में हम आत्मनिर्भर हैं। और कुछ न हो, मगर कोविड को मात देने वाला असली ब्रह्मास्त्र तो हमारे पास है ही। साल 2021 के शुरुआती हफ्तों तक यही लग रहा था कि भारत नए झंडे गाड़ने जा रहा है। पहले चरण में सिर्फ स्वास्थ्यकर्मियों को टीके लगने थे। जितने टीके लग रहे थे, उससे ज्यादा वैक्सीन उत्पादन की खबरें आ रही थीं। कुछ विश्लेषक तो यह भी कह रहे थे कि भारत के स्वास्थ्य तंत्र के पास टीकाकरण की जो क्षमता है, भारत की वैक्सीन उत्पादन क्षमता से वह कहीं कम है, इसलिए भारत के पास हमेशा वैक्सीन का सरप्लस स्टॉक रहेगा। शायद इसी तर्क के चलते भारत ने टीकों का निर्यात भी किया, जो इन दिनों काफी बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है। विदेश नीति के बहुत से टीकाकारों ने इस निर्यात को ‘वैक्सीन डिप्लोमेसी’ बताते हुए इसकी तारीफों के पुल भी बांधे थे।

लेकिन अप्रैल आते-आते ऐसा क्या हुआ कि सारा शीराजा बिखर गया? एक तो उम्र के हिसाब से टीकाकरण की योग्यता को लगातार विस्तार दिया जाने लगा। फिर इसी बीच कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर आई, जो पहले से कहीं ज्यादा भयावह और संक्रामक थी। लोगों को लगा कि टीकाकरण जल्दी होना चाहिए और वैक्सीनेशन सेंटरों के बाहर भीड़ बढ़ने लगी। सरकारी व निजी अस्पतालों ने टीकाकरण की अपनी क्षमता को बढ़ा दिया, कुछ जगह तो चौबीस घंटे टीकाकरण की सुविधा दे दी गई। जब यह स्थिति आई, तब पता चला कि टीके कम पड़ रहे हैं। सभी राज्यों से टीकों का स्टॉक खत्म होने की खबरें आने लगीं। लेकिन बात क्या सिर्फ इतनी थी? शायद नहीं। तमाम आंकडे़ बता रहे हैं कि वैक्सीन उत्पादन का दुनिया का सबसे अग्रणी देश भारत कोविड वैक्सीन के मामले में मात खा गया। पता चला कि दुनिया की सबसे बड़ी वैक्सीन उत्पादक कंपनी बिल गेट्स फाउंडेशन से 30 करोड़ डॉलर की मदद लेने के बावजूद अभी तक कोविड वैक्सीन की सिर्फ छह करोड़ खुराक बना पाई है। सीरम इंस्टीट्यूट का कहना है कि भारत सरकार ने इतने का ही ऑर्डर दिया था। यह सच है कि इसके पहले सीरम कभी भारत सरकार के ऑर्डर की मोहताज नहीं रही, वह अपनी वैक्सीन पूरी दुनिया को बेचती रही, पर इस बार तमाम बैंड, बाजा, बारात के बावजूद उसने सेहरा अपने माथे पर सजाने का मौका गंवा दिया। इसकी तुलना अगर हम दुनिया की दूसरी कंपनियों से करें, तो तस्वीर कुछ और दिखाई देती है। फाइजर दुनिया की एक महत्वपूर्ण और बहुत बड़ी दवा निर्माता कंपनी है, लेकिन वैक्सीन के बाजार में उसकी कोई बहुत बड़ी हिस्सेदारी हाल-फिलहाल में नहीं रही। उसने अब दुनिया भर के देशों से 52 करोड़ वैक्सीन डोज निर्यात करने का समझौता कर लिया है, जिसे वह जल्द ही अमली जामा पहनाने की बात भी कर रही है। कंपनी का दावा है कि इस साल के आखिर तक वह 1.3 अरब वैक्सीन डोज का उत्पादन कर लेगी। स्पूतनिक-वी नाम की वैक्सीन बनाने वाली रूस की कंपनी के दावे भी ऐसे ही हैं। चीन तो कई बार इससे भी बड़े दावे कर चुका है। अमेरिकी कंपनी मॉडर्ना का दवा व वैक्सीन उद्योग में इसके पहले तक कोई अनुभव नहीं था, पर अब वह अमेरिका की सबसे अग्रणी वैक्सीन उत्पादक कंपनी बन चुकी है, जबकि यहां भारत में सबसे अनुभवी कंपनी बेबस दिखाई दे रही है। जिस समय भारत की कामयाबी के हर तरफ चर्चे होने चाहिए थे, उस समय पूरी दुनिया भारत पर तरस खा रही है। और भारत की राज्य सरकारें झोला उठाकर वैक्सीन की खरीदारी के लिए भटकने को मजबूर हैं। इस संकट ने यह भी बता दिया कि भारत की जिन कंपनियों को हम अभी तक दुनिया में सबसे आगे मानते थे, वे दरअसल ऑर्डर मिलने पर उत्पादन करने वाली फैक्टरियां भर हैं। ऐसे उद्योगों से भला यह उम्मीद कैसे की जाए कि वे आपदा को अवसर में बदल सकेंगी?

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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आपदा में फायदा (दैनिक ट्रिब्यून)

 पहले ही कोरोना महामारी से हलकान मरीजों को निजी चिकित्सालयों में उलटे उस्तरे से मूंडने की खबरें विचलित करती हैं। खबरें विचलित करती हैं कि क्यों ऐसे लोगों में मानवीय संवेदनाओं व नागरिक बोध का लोप हुआ है। लंबे-चौड़े बिल बनाना और दोहन के बाद बड़े सरकारी अस्पतालों के लिये रैफर कर देना आम है। ऐसे तमाम मामले सामने आये हैं, जिनमें मनमानी फीस उपचार हेतु वसूली गई। चिंता की बात यह है कि इलाज की रेट लिस्ट लगाने के बावजूद मोटी फीस मरीजों से वसूले जाने की खबरें मीडिया में सुर्खियां बनती रही हैं। दरअसल, जनसंख्या के बोझ और तंत्र की अकर्मण्यता से वेंटिलेटर पर गये सरकारी अस्पतालों से निराश लोग निजी अस्पतालों की ओर उन्मुख होते हैं। सरकारी अस्पताल सामान्य दिनों में ही रोगियों को उपचार देने में हांपते रहते हैं तो आपदा में उनसे उम्मीद करना कि वहां पर्याप्त इलाज मिल जायेगा, बेमानी ही है। ऐसे में ऑक्सीजन की आपूर्ति में कमी और कोरोना के गंभीर मरीजों की वेंटिलेटर की जरूरत के चलते निजी अस्पतालों की पौ-बारह हुई। लॉकडाउन और कई तरह की बंदिशों तथा कोरोना संकट से उपजे हालात में तमाम व्यवसायों व रोजगारों में भले ही आय का संकुचन हो, मगर देश का फार्मा उद्योग, जांच करने वाली लैब व निजी अस्पताल दोनों हाथों से कमाई कर रहे हैं। कुछ मामलों में शिकायतकर्ता सामने भी आये हैं और कुछ निजी अस्पतालों के खिलाफ कार्रवाई भी हुई है। लेकिन यह कार्रवाई न के बराबर है। हरियाणा-पंजाब के स्वास्थ्य मंत्री उद्घोष करते रहे हैं कि मरीजों को लूटने वाले अस्पतालों के खिलाफ कार्रवाई होगी। होगी के क्या मायने हैं, होती क्यों नहीं है? कोई सरकार अस्पतालों की मनमानी के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं करती। महज इसलिये कि ये अस्पताल धनाढ्य व राजनेताओं के वरद‍्हस्त प्राप्त लोगों के हैं। कई तरह के इंस्पेक्टर जो इनकी निगरानी के लिये तैनात होते हैं, वे क्यों जिम्मेदारी नहीं निभाते। क्यों स्थानीय प्रशासन स्वत: संज्ञान लेते हुए कार्रवाई नहीं करता। क्यों उनकी नींद भी अदालत की सक्रियता के बाद खुलती है।


यह निजी चिकित्सालयों के मालिकों के लिये भी आत्ममंथन का समय है। चिकित्सा का पेशा कभी कारोबार नहीं हो सकता। आज भी लोग डॉक्टर को भगवान का दूसरा रूप मानते हैं। ऐसे में जब लोग महामारी से टूट चुके हैं, आय के स्रोत संकुचित हुए हैं, लाखों के इलाज का खर्च आम आदमी कहां से उठा पायेगा? इस संकट के दौरान तमाम लोगों द्वारा घर-जमीन व जेवर गिरवी रखने के मामले सामने आते रहे हैं। कई लोग बैंकों से लोन लेकर अपनों को बचाने की जद्दोजहद में जुटे हैं। सर्वे बताते हैं कि देश में करोड़ों लोग कई गंभीर बीमारियों से अपनों का इलाज कराने की कोशिश में हर साल गरीबी की दलदल में डूब जाते हैं। जरूरत इस बात की है कि पूरे देश में विभिन्न रोगों के उपचार, बेड, जांच व टेस्ट के दामों के मानक तय हों। सत्ताधीशों की नाकामी है कि वे जनता का दोहन करने वाले अस्पतालों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करते। उन्हें फलने-फूलने का अवसर देते हैं। जबकि बड़े अस्पतालों को जमीन व अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने में सरकार की भूमिका होती है। अस्पतालों का मुनाफा नियंत्रित होना चाहिए। खासकर आपदा के वक्त। जब निजी अस्पताल नागरिक बोध और मानवीय संवेदनाओं का ध्यान नहीं रखते तो उन्हें कानून की भाषा में समझाया जाना चाहिए। सरकारी अस्पतालों को भी इस लायक बनाने की जरूरत है कि लोग प्राइवेट अस्पतालों की मुनाफाखोरी से बच सकें। निस्संदेह, एक डॉक्टर पढ़ाई से लेकर एक अस्पताल बनाने में बड़ी पूंजी का निवेश करता है, जिसका मुनाफा भी वह चाहता है। लेकिन ये मुनाफा अनियंत्रित न हो। आपदा को लाभ में बदलना मानवीयता का धर्म तो नहीं ही है। इस बाबत देशव्यापी हेल्पलाइन व्यवस्था हो। न्यायालय की परिधि में आने वाले मामलों का निस्तारण भी समय रहते हो ताकि कानून का डर भी बना रहे। वह भी ऐसे दौर में जब मानवता महामारी के संकट में कराह रही हो। इनके लिये एक आचार संहिता भी लागू होनी चाहिए।


सौजन्य- दैनिक ट्रिब्यून।

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नेपाल का गतिरोध (दैनिक ट्रिब्यून)

नेपाल की राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी द्वारा शुक्रवार-शनिवार की मध्यरात्रि में संसद भंग करने तथा नवंबर में चुनाव कराने का फैसला इस हिमालयी राज्य में राजनीतिक अस्थिरता की कहानी कहता है। इससे पहले संसद में प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली दस मई को बहुमत हासिल नहीं कर पाये थे। फिर राष्ट्रपति ने विपक्ष को 24 घंटे में बहुमत साबित करके सरकार बनाने को कहा था, लेकिन विपक्ष भी बहुमत का आंकड़ा जुटाने की कोशिश इतने कम समय में नहीं कर पाया। राजनीतिक पंडित आरोप लगाते रहे हैं कि राष्ट्रपति हर तरह से ओली को फायदा पहुंचाने की कोशिश में लगी रहती हैं। नेपाल की मुख्य विपक्षी पार्टी नेपाली कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति के फैसले को अलोकतांत्रिक बताया है और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की बात कही है। देश में राजशाही के खात्मे और लोकतंत्र की बहाली के बाद उम्मीद जगी थी कि नेपाल को स्थायी सरकार मिल सकेगी, लेकिन राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और निहित स्वार्थों के चलते नेपाल लगातार राजनीतिक अस्थिरता के भंवर में धंसता जा रहा है। वह भी ऐसे समय में जब देश कोरोना की दूसरी लहर से घिरा है और स्वास्थ्य तंत्र का ढांचा धवस्त होने से मानवीय क्षति का सिलसिला जारी है। दरअसल, ताजा संकट की शुरुआत गत वर्ष दिसंबर में हो गई थी जब ओली की सीपीए (यूएमएल) और पुष्प कुमार दहल ‘प्रचंड’ के नेतृत्व वाले सीपीएन (माओइस्ट सेंटर) में अलगाव सामने आया था। इसके बाद ओली ने संसद भंग करके मध्यावधि चुनाव करने की घोषणा कर दी, जिसके खिलाफ विपक्षी दल सुप्रीम कोर्ट गये। शीर्ष अदालत ने फरवरी में सरकार भंग करने को असंवैधानिक करार देते हुए संसद को बहाल करने के आदेश दिये थे।


हालांकि, राष्ट्रपति कार्यालय ने कहा कि कार्यवाहक प्रधानमंत्री व विपक्ष द्वारा सरकार न बना पाने की स्थिति में संसद भंग करने का फैसला लिया गया। मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम ऐसे वक्त में हो रहा है जब देश के स्वास्थ्य विशेषज्ञ राजनेताओं से राजनीतिक तिकड़में छोड़कर लोगों की जिंदगियों को बचाने के लिये प्रयास करने को कह रहे हैं। वहीं विपक्षी नेपाली कांग्रेस ने राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी व प्रधानमंत्री ओली पर अपने संकीर्ण स्वार्थ के लिये पद का दुरुपयोग का आरोप लगाते हुए राजनीतिक व कानूनी पहल करने की बात कही है। विपक्ष शुक्रवार व शनिवार की मध्यरात्रि के बाद कैबिनेट की बैठक के बाद राष्ट्रपति द्वारा संसद भंग करने और चुनाव कराने की घोषणा को लेकर सवाल उठा रहे हैं। इसे अलोकतांत्रिक व असंवैधानिक बता रहे हैं। हालांकि, विपक्षी नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देऊबा ने प्रधानमंत्री पद की दावेदारी जताते हुए 149 सांसदों का समर्थन हासिल होने की बात कही थी। अब देऊबा कह रहे हैं इन्हीं सांसदों के हस्ताक्षर वाले समर्थन पत्र को लेकर वे अदालत जायेंगे। बहरहाल, नेपाल में लागू किये नये संविधान के जरिये भी अस्थिरता का मर्ज ठीक होता नजर नहीं आता। ओली की उच्च राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी मिलकर सरकार चलाने के रास्ते में बाधा बनती रही है।


सौजन्य- दैनिक ट्रिब्यून।

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धूर्त कोरोना (दैनिक ट्रिब्यून)

सवा साल से तबाही मचाने वाले कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया को भय व अवसाद से भर दिया है। पहली लहर, दूसरी का भयावह कहर और तीसरी की आशंकाओं के बीच नित नयी सूचनाएं असमंजस व डर का वातावरण बना रही हैं। यही वजह है कि देश के विभिन्न राज्यों के जिलाधिकारियों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा भी कि नित नये वेरिएंट सामने और घातकता में बदलाव लाने वाला यह वायरस बहुरूपिया है और धूर्त भी है। उन्होंने अब बच्चों और युवाओं को ग्रास बनाने वाले वायरस के खिलाफ नयी रणनीति बनाने और नये समाधान पर बल दिया। इस बीच केंद्र सरकार ने प्रदेश सरकारों को महामारी बनते ब्लैक फंगस को ‘महामारी कानून’ के तहत अधिसूचित करने को कहा है। इसके साथ ही जो नये शोध सामने आये हैं, उसके हिसाब से नयी एडवायजरी जारी की है। इसमें कहा गया है कि खांसने और छींकने से कोविड संक्रमण हवा में दस मीटर की परिधि तक चपेट में ले सकता है। इससे बचाव के लिये जारी दिशा-निर्देशों में डबल मास्क लगाने की सलाह भी दी गई है और कमरों में हवा का प्रवाह तेज करने को कहा गया है ताकि बंद कमरों में वायरस की अधिकता को कम किया जा सके। इसका निष्कर्ष यह है कि अब तक जिस बात पर वैज्ञानिक बल देते रहे थे, उसमें बदलाव की जरूरत है। आरंभ में वैज्ञानिकों का कहना था कि खांसने और छींकने में जो बूंदें सतह पर गिरती हैं, उससे संक्रमण फैलता है और यह हवा से नहीं फैलता। इसी क्रम में दो गज की दूरी और सतह को संक्रमण-रहित बनाने पर जोर दिया गया था। लेकिन नयी एडवायजरी से स्थिति बदलती नजर आ रही है। दरअसल, यह एक नयी महामारी है और इसके खिलाफ व्यापक शोध व अनुसंधान का वक्त नहीं मिल पाया है। संभव है धीरे-धीरे कई दूसरी मान्यताओं में भी समय के साथ बदलाव आये।


बहरहाल, कालांतर वैज्ञानिक शोध से यह ठीक-ठीक कहा जा सकेगा कि कोरोना वायरस वास्तव में हवा के जरिये कितनी दूर तक फैलता है। वह संक्रमण करने में कितने समय तक सक्रिय रह सकता है। लेकिन एक बात तो तय है कि कोरोना वायरस का संक्रमण हवा के जरिये फैलता है। इसके लिये जरूरी है कि कमरों में ताजा हवा की अधिकता हो। कमरे हवादार न होने पर वायरस के देर तक टिके रहने की स्थिति बन सकती है। ऐसे में वातानुकूलित कमरों में ताजा हवा का लगातार प्रवाह जरूरी है, जिससे संक्रमण की आशंका को टाला जा सकता है। दूसरे, देश में ब्लैक व व्हाइट फंगस के प्रकोप से फिर चिंताएं बढ़ गई हैं। इस बाबत एम्स दिल्ली के विशेषज्ञों द्वारा जारी गाइड लाइन में म्यूको माइकोसिस यानी ब्लैक फंगस का समय रहते पता लगाने तथा उसकी रोकथाम के उपाय बताये गये हैं। इसके जरिये डॉक्टरों व मरीज तथा उसके तीमारदारों को सलाह दी गई है कि समय रहते जोखिम वाले मरीजों की पहचान करके ब्लैक फंगस की शुरुआती जांच की जाये। इसमें इसके शुरुआती लक्षणों के बारे में भी बताया गया है। बताया जा रहा है कि म्यूको माइकोसिस के मामले उन रोगियों में देखे जा रहे हैं, जिन्हें स्टेरॉयड दिया गया। विशेषकर उन मरीजों में जो मधुमेह व कैंसर से ग्रस्त रहे हैं। लेकिन एक बात तय है कि मधुमेह और ब्लैक फंगस के बीच मजबूत संबंध हैं। एम्स ने आंखों के डॉक्टरों को ऐसे सभी जोखिम वाले मरीजों की ब्लैक फंगस के लिये बेसिक जांच करने की सलाह दी है। फिर लगातार ऐसे मरीजों की निगरानी कई हफ्तों तक की जानी चाहिए। बहरहाल, नित नये संकट पैदा करते कोरोना वायरस के मुकाबले के लिये जरूरी है कि बचाव की परंपरागत सावधानियों का पालन किया जाये। अब जब पता चला है कि वायरस हवा के जरिये भी फैलता है तो अतिरिक्त सावधानी जरूरी है। टीकाकरण इसका अंतिम समाधान है और वह फिलहाल लक्ष्य हासिल करता नजर नहीं आता तो बचाव ही उपचार है। मास्क के उचित प्रयोग, शारीरिक दूरी तथा खुली हवा की व्यवस्था बचाव के साधन ही हैं।


सौजन्य- दैनिक ट्रिब्यून।

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रक्षकों की रक्षा (दैनिक ट्रिब्यून)

इसमें दो राय नहीं कि सीमित संसाधनों व पर्याप्त चिकित्सा सुविधा के अभाव में भी देश के डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी प्राणपण से कोविड-19 की महामारी से जूझ रहे हैं। पहले से पस्त चिकित्सातंत्र और मरीजों की लगातार बढ़ती संख्या के बीच स्वास्थ्यकर्मियों पर दबाव लगातार बढ़ रह है। इतना ही नहीं, मरीज को न बचा पाने पर उपजी तीमारदारों की हताशा की प्रतिक्रिया भी डॉक्टरों व स्वास्थ्यकर्मियों को झेलनी पड़ती है। जब पहली लहर में पीपीए किट व संक्रमणरोधी मास्क न थे, तब भी फ्रंटलाइन वर्कर सबसे आगे थे। कृतज्ञ राष्ट्र ने तब इनके सम्मान में ताली-थाली भी बजाई। दीये भी जलाये। हवाई-जहाजों व हेलीकॉप्टरों से फूल भी बरसाये। निस्संदेह इन कदमों का प्रतीकात्मक महत्व है। लेकिन इससे कठोर धरातल की हकीकत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। हमारी चिंता का विषय यह भी होना चाहिए कि देश के एक-चौथाई स्वास्थ्यकर्मियों का अभी टीकाकरण नहीं हो पाया है। कोरोना महामारी के खिलाफ कारगर लड़ाई लड़ने वाले उच्च जोखिम समूह को जनवरी से वैक्सीन लगाने में प्राथमिकता मिली थी। लेकिन तब कई तरह की शंकाएं इस बिरादरी में थी। लेकिन दूसरी मारक लहर ने तमाम नकारात्मकता के बीच वैक्सीन लगाने के प्रति देश में जागरूकता जगाने का काम जरूर किया है। अब राज्यों के मुखियाओं से लेकर आम आदमी तक में वैक्सीन लगाने की होड़ लगी है। बहरहाल, इसके बावजूद बकौल इंडियन मेडिकल एसोसिएशन यानी आईएमए, इस साल अब तक 270 डॉक्टरों ने महामारी की दूसरी लहर में दम तोड़ा है, जिसमें अनुभवी व युवा चिकित्सक भी शामिल हैं। इनमें देश में स्वास्थ्य जागरूकता अभियान चलाने वाले व पद्म पुरस्कार विजेता डॉ. के.के अग्रवाल भी शामिल हैं जो कोविड संक्रमित होने के बावजूद रोगियों के साथ टेली-कंसल्टिंग कर रहे थे। ऐसे अग्रिम मोर्चे के नायकों की लंबी सूची है, जिसमें डॉक्टर-स्वास्थ्यकर्मी अपने परिवार को जोखिम में डालकर रोज कोविड मरीजों को बचाने के लिये घर से निकलते हैं।


विडंबना यह है कि देश के नीति-नियंताओं ने सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र को मजबूत करने को कभी भी अपनी प्राथमिकता नहीं बनाया। वहीं जनता के स्तर पर यही कमी रही है कि वे छोटे हितों के जुमले पर तो वोट देते रहे, लेकिन जनप्रतिनिधियों पर इस बात के लिये दबाव नहीं बनाया कि पहले चिकित्सा व्यवस्था को ठीक किया जाये। यह विडंबना है कि देश में डाक्टर व रोगी का अनुपात एक के मुकाबले 1700 है जो विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित एक अनुपात 1100 से बहुत कम है। ऐसे में संकट के इस दौर में अनुभवी डॉक्टरों की मौत हमारा बड़ा नुकसान है, जो पहले से चरमराती स्वास्थ्य प्रणाली के लिये मुश्किल पैदा करने वाला है। निस्संदेह जब तक स्वास्थ्यकर्मियों को हम वायरस के खिलाफ सुरक्षा कवच उपलब्ध न करा पाएंगे, तब तक जीवन रक्षक ठीक तरह से काम नहीं कर पायेंगे। बकौल इंडियन मेडिकल एसोसिएशन इस साल मरने वाले डॉक्टरों में बमुश्किल तीन फीसदी को टीके की दोनों डोज लगी थीं। निस्संदेह अधिकारियों को स्वास्थ्यकर्मियों के टीकाकरण हेतु व्यवस्था सुनिश्चित करनी चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बीते साल कोरोना संक्रमण की पहली लहर के दौरान देश में 748 डॉक्टरों की मौत हुई थी। ऐसे में यदि सब के लिये टीकाकरण का अनुपालन सुनिश्चित नहीं किया जाता तो इस साल यह संख्या बढ़ भी सकती है। इसकी वजह यह है कि दूसरी लहर में संक्रमण दर में गिरावट के बावजूद मृत्युदर बढ़ी हुई है। आशंका जतायी जा रही है कि तीसरी लहर और घातक हो सकती है। इस संकट के दौरान उच्च जोखिम वाले समूह में श्मशान घाट पर काम करने वाले लोग भी शामिल हैं, जिनकी केंद्र-राज्य सरकारों ने अनदेखी की। पीपीए किट के बिना दैनिक वेतन पर काम करने वाले ये लोग कोविड पीड़ितों के शवों का अंतिम संस्कार कर रहे हैं। पिछले दिनों हिसार में तीन सौ से अधिक पीड़ितों का अंतिम संस्कार करने वाले एमसी सफाई कर्मचारी प्रवीण कुमार की मौत इस भयावह खतरे को दर्शाती है। ऐसे लोगों के लिये मुआवजा नीति बननी चाहिए।


सौजन्य- दैनिक ट्रिब्यून।

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टीका रणनीति स्पष्ट हो (दैनिक ट्रिब्यून)

ऐसे वक्त पर जब देश कोरोना संकट की दूसरी भयावह लहर से जूझ रहा है, संकट में उम्मीद की किरण बने टीके को लेकर उठते विवाद परेशान करने वाले हैं। दिल्ली समेत कई राज्यों में टीकाकरण केंद्र बंद करने की बातें, पर्याप्त वैक्सीन न मिलने पर युवाओं के लिये समय से टीकाकरण शुरू न होने की खबरें बता रही हैं कि शायद नया चरण बिना तैयारी के ही शुरू कर दिया गया है। ऐसा लगता है कि अपनी वैक्सीन खोज लेने और कोविशील्ड का भारत में समय रहते उत्पादन शुरू करने के बावजूद हम इस अभियान में अदूरदर्शिता के चलते पिछड़ गये हैं। कोविशील्ड की दूसरी डोज के समय में दूसरी बार बदलाव बता रहा है कि हमारे पास पर्याप्त वैक्सीन का अभाव है। इससे न केवल देश में टीकाकरण अभियान में बाधा पहुंचेगी बल्कि हम विश्व बाजार में पिछड़ जायेंगे। निस्संदेह देश के कई राज्य टीके की कमी से जूझ रहे हैं। दरअसल, 18 से 44 आयु वर्ग की बड़ी तादाद को हम टीका उपलब्ध कराने में सक्षम नहीं हैं। कहीं न कहीं ये कमी हमारी दूसरी लहर के खिलाफ जारी लड़ाई को कमजोर करती है। यह भी हकीकत है कि दूसरी लहर में संक्रमितों की आधी आबादी देश की कर्मशील व युवा आबादी ही है, जिसके लिये टीकाकरण अभियान तेज करना वक्त की जरूरत है। ऐसे में टीके की कमी को पूरा करने के लिये जरूरी है कि स्वदेशी कंपनियों के साथ ही विदेशों से दूसरे टीकों का आयात किया जाए ताकि टीकाकरण अभियान में गति आये। इसके चलते कई राज्य अपने यहां टीका लगाने के लिये ग्लोबल टेंडर दे रहे हैं। किसी राष्ट्र पर आयी ऐसी आपदा के मुकाबले के लिए किसी देश में वैक्सीन अलग-अलग राज्यों द्वारा मंगाये जाने के उदाहरण सामने नहीं आते। जाहिर -सी बात है कि जब राज्य किसी कंपनी से अलग-अलग बातचीत करेंगे तो उन्हें ज्यादा कीमत चुकानी पड़ेगी। वहीं दूसरी ओर यदि एक साथ वैक्सीन खरीदी जायेगी तो बड़ी मात्रा में खरीद से लागत को प्रभावित किया जा सकता है।


कुछ राज्य कह भी रहे हैं कि टीका खरीद केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है। वहीं केंद्र की दलील है कि राज्यों ने वैक्सीन खरीद में स्वायत्तता की बात कही थी। ऐसे वक्त में जब देश बड़े संकट से गुजर रहा है, देशवासियों की सेहत की सुरक्षा को लेकर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। केंद्र सरकार ने हाल में वैक्सीन को लेकर कुछ कदम उठाये हैं और नयी गाइड लाइन भी जारी की है। यदि केंद्र टीका आयात करने का फैसला लेता है तो इससे देश को आर्थिक रूप से भी लाभ होगा। जिसके चलते फिर फिलहाल वैक्सीन की कमी से जो टीकाकरण अभियान प्रभावित हो रहा है, उसमें गति आयेगी। युवा वर्ग हमारा बड़ा वर्ग तो है ही, साथ ही यह देश की कर्मशील आबादी भी है। इसकी सामाजिक सक्रियता भी ज्यादा है जो संक्रमण की दृष्टि से ज्यादा संवेदनशील भी है। इसे सुरक्षा कवच देना पूरे देश को सुरक्षा प्रदान करना है। तभी हम समय रहते टीकाकरण के लक्ष्यों को हासिल कर पायेंगे। केंद्र को भी शीर्ष अदालत को किये गये उस वायदे को पूरा करना चाहिए, जिसमें राज्यों को टीका देने की योजना में विषमता को दूर करने की बात कही गई थी। दरअसल, कोरोना संकट की दूसरी लहर के बाद लोगों को अहसास हो गया है कि कोरोना संक्रमण से बचाव के लिये टीका लगाना जरूरी है। इसलिये पहले चरण में जो लोग टीका लगाने में ना-नुकुर कर रहे थे, वे भी अब टीका लगाने को आगे आ रहे हैं। टीकाकरण अभियान की सफलता के लिये जागरूकता जरूरी है। जब तक हम देश की सत्तर-अस्सी फीसदी आबादी को टीका नहीं लगा लेते तब तक नयी-नयी लहरों का सामना करना हमारी नियति होगी। इस मायने में केंद्र सरकार को व्यावहारिक, उदार व संवेदनशील टीका नीति के साथ आगे आना चाहिए। इसमें टीके का उत्पादन बढ़ाने के लिये भारतीय कंपनियों को प्रोत्साहित करने और राज्य में सकारात्मक प्रतिस्पर्धा बढ़ाने की जरूरत है। 


सौजन्य- दैनिक ट्रिब्यून।

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गारंटी तो गारंटी है ( नवभारत टाइम्स)

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि लोन न चुकाने वाली कंपनियों के मामले में इन्सॉल्वेंसी ऐंड बैंकरप्सी कोड (आईबीसी) की प्रक्रिया शुरू होने का मतलब यह नहीं है कि ये कंपनियां और लोन के पर्सनल गारंटर देनदारी की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि कोर्ट ने ऐसे मामलों में पर्सनल गारंटरों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने का रास्ता भी साफ कर दिया। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले से संबंधित 75 याचिकाएं थीं, जो अलग-अलग हाईकोर्ट में दायर की गई थीं। पिछले साल ये सारे मामले सुप्रीम कोर्ट में हस्तांतरित किए गए थे। यह फैसला इस मायने में भी अहम माना जा रहा है कि इससे 2016 में लाई गई


दीवाला और दिवालियापन संहिता यानी आईबीसी पर ठीक से अमल की राह में आ रही सबसे बड़ी बाधा के हटने की उम्मीद बन गई है। बैंकों के बैड लोन की गंभीर होती समस्या के मद्देनजर डिफॉल्टर कंपनियों से बकाया वसूली के लिए आईबीसी लाया गया था, जो व्यवहार में ज्यादा फायदेमंद साबित नहीं हो रहा था।


दिक्कत यह है कि इससे लोन देने वाली वित्तीय कंपनियों और बैंकों का फंसा हुआ पूरा पैसा वापस नहीं मिल पा रहा था। आईबीसी के तहत लोन पर पर्सनल गारंटी देने वाले प्रमोटरों के खिलाफ कार्रवाई रोकने के लिए संबंधित पक्ष कोर्ट चले गए। उनका कहना था कि बैंकों को ऐसा करने का अधिकार नहीं है। इसी सिलसिले में आईबीसी के संबंधित प्रावधानों को चुनौती मिली थी। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले ने कानून के इस पहलू पर कोई दुविधा नहीं रहने दी, जो एक अच्छी बात है। फैसले का एक संभावित नतीजा तो यह माना जा रहा है कि इसके बाद बैंकों और अन्य देनदार एजेंसियों के लिए अपना पैसा वसूलना आसान हो जाएगा। इस फैसले का एक नतीजा यह भी होगा कि विभिन्न कंपनियों के शीर्ष पदों पर बैठे लोग कंपनी के लिए लोन सुनिश्चित करने के प्रयास करते हुए अपनी भूमिका को लेकर ज्यादा गंभीर होंगे। किसी जोखिम वाले प्रॉजेक्ट के लिए लोन लेने में अब सिर्फ कंपनी की साख और बैंकों का पैसा ही दांव पर नहीं होगा, जोखिम के दायरे में वे खुद भी होंगे।


जाहिर है, इस आधार पर अपने देश में बैंक और इंडस्ट्री के बीच ज्यादा भरोसेमंद रिश्ता बनने की संभावना भी बन रही है। लेकिन ऐसा नहीं कि फैसले में सब कुछ अच्छा ही देखा जा रहा है। एक हलके में यह खटका भी बना हुआ है कि कहीं इस फैसले के बाद कंपनियों के शीर्ष नेतृत्व के लिए फैसला करना ज्यादा मुश्किल न हो जाए। ऐसा हुआ तो रिस्क लेकर आगे बढ़ने का इंडस्ट्री का जज्बा प्रभावित हो सकता है। बहरहाल, कोई भी रास्ता मुश्किलों से खाली नहीं होता। उम्मीद की जाए कि बैंक और इंडस्ट्री दोनों ही इस फैसले की हद को समझते हुए आगे बढ़ेंगे।

सौजन्य -  नवभारत टाइम्स। 

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कोरोना के बीच ब्लैक फंगस ( नवभारत टाइम्स)

कोरोना की दूसरी लहर से अभी हम पार भी नहीं पा सके हैं कि ब्लैक फंगस (म्यूकरमाइकोसिस) के रूप में एक नई चुनौती अपने घातक रूप मे सामने आ गई। हालांकि यह कोई नई बीमारी नहीं है, लेकिन नए हालात में यह इतनी तेजी से और इतने बड़े पैमाने पर फैली कि इसे काबू करना कठिन हो गया। महाराष्ट्र के कुछ जिलों से शुरुआत हुई, और देखते-देखते कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, बिहार, हरियाणा जैसे तमाम प्रांतों से इसके नए-नए मामले सामने आने लगे। चूंकि इसमें मृत्यु दर अधिक है, इसलिए भी इसे लेकर लोगों में खौफ ज्यादा है। शुक्रवार को खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे देश के लिए गंभीर चुनौती बताया। इससे पहले गुरुवार को ही केंद्र सरकार राज्यों से कह चुकी थी कि इसे महामारी घोषित करने में देर न करें। हालात की गंभीरता को देखते हुए राज्यों ने केंद्र की इस सलाह पर अमल भी शुरू कर दिया। दस राज्यों में ब्लैक फंगस महामारी घोषित की जा चुकी है। इससे फायदा यह होता है कि संबंधित राज्य में इसके जितने भी कन्फर्म या संदिग्ध मामले आते हैं उनके बारे में पूरी सूचना नियमित रूप से स्वास्थ्य विभाग और संबंधित एकीकृत कमान तक पहुंचाई जाती रहती है।


दूसरे शब्दों में, इससे निपटने के प्रयासों को समायोजित और समन्वित करना आसान हो जाता है। यह नई महामारी कोरोना की कोख से निकली हुई इसलिए भी लग रही है कि आज की तारीख में इसके तकरीबन सभी मामले कोरोना का इलाज करा रहे या इससे उबर चुके लोगों में ही दिख रहे हैं। हालांकि सचाई यह है कि इसका कोरोना से सीधे तौर पर कोई नाता नहीं है। चूंकि ब्लैक फंगस का शिकार होने में इम्यून सिस्टम का कमजोर होना अक्सर निर्णायक भूमिका निभाता है और कोरोना से संक्रमित लोगों की प्रतिरोधक शक्ति कई कारणों से कमजोर पड़ चुकी होती है, इसलिए वे इसके ज्यादा शिकार हो रहे हैं।


मगर पूरे देश में कोरोना और ब्लैक फंगस के प्रसार का जो खतरा हमारे सामने है, उसके मद्देनजर अच्छा यही होगा कि कम से कम आम लोगों के स्तर पर इन दोनों चुनौतियों को अलग-अलग न माना जाए। दोनों में ही समानता यह है कि इसके उपचार की कठिन प्रक्रिया में पड़ने से कहीं बेहतर और आसान है इससे बचाव के उपाय करना और उसे सतर्कता से जारी रखना। दूरी बरतते हुए और मास्क, सैनिटाइजर वगैरह का समझदारी से इस्तेमाल करते हुए जहां लोग कोरोना से बचे रह सकते हैं, वहीं शुगर लेवल को कंट्रोल रखने, साफ-सफाई पर ज्यादा ध्यान देने और शरीर की प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने वाले उपाय करते रहने जैसी सावधानियों की बदौलत ब्लैक फंगस को भी दूर रख सकते हैं। यह समझना जरूरी है कि इन दोनों ही चुनौतियों से निपटने में सबसे महत्वपूर्ण और कारगर भूमिका सामान्य लोगों की ही रहने वाली है।

सौजन्य -  नवभारत टाइम्स। 

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