पुरानी कहावत है- पासा न जाने कब पलट जाए? रूस-यूक्रेन युद्ध में यही हो रहा है। महीनों से पराभव झेलते यूक्रेन ने सफल पलटवार शुरू कर दिए हैं। हताश रूसी सेनाएं कई मोर्चों से पीछे हटी हैं। इससे उत्साहित कीव का सत्ता पक्ष अब क्रीमिया वापस लेने का दम भर रहा है।
पश्चिमी मीडिया और कूटनीति-विशारदों का मानना है कि यदि रूस कुछ मोर्चे और गंवाता है, तो पुतिन की पहले से धुंधलाती छवि रसातल में चली जाएगी। इससे उन्हें सांघातिक झटका लग सकता है। अमेरिका और मित्र देशों द्वारा इस असंतोष को बढ़ावा देकर क्रेमलिन में सत्ता-पलट की कोशिशें भी की जा सकती हैं। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले दिनों पुतिन की कार से धमाके के बाद धुआं उठते देखा गया। इस रपट का दावा है कि यह रूसी राष्ट्रपति की जान लेने के इरादे से किया गया हमला था। अगर यह सच है, तो क्या किसी असंतुष्ट गुट ने ऐसा किया या पश्चिम की एजेंसियां कुछ साजिशें रच रही हैं? असलियत जो हो, पर क्या पुतिन को रास्ते से हटाना आसान है?
पुतिन पर 2017 में भी जानलेवा हमला हुआ था। वह हिंसक-अहिंसक साजिशों से निपटने में कामयाब रहे हैं, पर अधिक दबाव उन्हें अतिवादी प्रतिक्रिया के लिए प्रेरित कर सकता है। यह जगजाहिर है कि यूक्रेन में नाटो सीधे तौर पर भले न लड़ रहा हो, पर कीव की सारी नीतियां उसी के नियंता रच रहे हैं। इस हमले से नाराज स्वीडन और फिनलैंड ने भी नाटो की सदस्यता ग्रहण करने की मंशा जाहिर की है। जिस नाटो का प्रसार रोकने के लिए क्रेमलिन ने इतना खून बहाया, वह प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से रूस की सीमाओं तक जा पहुंचा है। तय है, यूक्रेन पर हमला उल्टा पड़ा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने चौतरफा घिराव और घरेलू मोर्चे पर धराशायी होने के भय से पुतिन कोई ऐसा कदम उठा लें, जिससे तीसरे महायुद्ध का खतरा उत्पन्न हो जाए!
कुछ विद्वानों की अवधारणा है कि परमाणु युग में विश्व-युद्ध संभव नहीं। यही लोग थे, जो कल तक जंग को इसी वजह से अतीत की बात बताते थे। उनकी पहली अवधारणा ध्वस्त हो चुकी है। अब क्या दूसरी की बारी है? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए हमें पिछली सदी में लौटकर देखना होगा कि वे कौन से हालात थे, जिन्होंने दूसरे महायुद्ध को जना? इतिहासकारों ने इसके चार कारण बताए हैं- वर्साय की संधि और उससे जनित जर्मनी का अपमान बोध, समूची दुनिया में आर्थिक उथल-पुथल, जर्मन राष्ट्रवाद के बहाने नाजीवाद का उत्कर्ष और तमाम विचारहीन गठबंधनों का उदय। आज परिस्थितियां कैसी हैं?
द्वितीय विश्व-युद्ध के पहले जिस तरह अमेरिका आर्थिक रूप से जर्जर था, लगभग उसी तरह के दोहराव का शुब्हा वहां के अर्थशास्त्री जता रहे हैं। कुछ सप्ताह पूर्व अमेरिका में मुद्रास्फीति13 प्रतिशत के मारक स्तर तक पहुंच गई थी। मजबूरन, फेडरल रिजर्व (केंद्रीय बैंक) को ब्याज दर बढ़ानी पड़ रही है। इससे मुद्रास्फीति में लगभग पांच फीसदी की गिरावट आई है, पर अभी भी 8.3 फीसदी का स्तर बना हुआ है। आम आदमी को जब राहत मिलेगी, तब मिलेगी, पर उद्योग-धंधों का नुकसान तय है। इसी तरह, समूचा यूरोप अभूतपूर्व आर्थिक ढलान पर जा खड़ा हुआ है। ऊपर से रूस ने वहां बिजली और ऊर्जा की आपूर्ति सीमित कर दी है। नतीजतन, बिजली और पेट्रो उत्पादों के दाम दोगुने तक बढ़ गए हैं। महंगाई रोज नए कीर्तिमान बना रही है। दूसरे विश्व-युद्ध के बाद यह पहला अवसर है, जब एफिल टावर की लाइटें बुझा दी गई हैं। बार्सिलोना के फव्वारे रात को बिजली के बिना अपनी आभा बिखेरने में असमर्थ हैं। आर्थिक मंदी ने ही अमेरिका को अनेक नीतियों व लक्ष्यों को त्यागकर महायुद्ध में भाग लेने पर मजबूर किया था। इस समय तो समूचा यूरोप और अमेरिका बेहाल है।
दूसरी तरफ, चीन की आर्थिक और सैन्य शक्ति निरंतर बढ़ती जा रही है। पिछले दशक में वह जापान को पीछे छोड़कर दुनिया की दूसरी आर्थिक शक्ति बन बैठा था। बीजिंग के समर्थक मानते हैं कि यह अमेरिकी प्रभुत्व का आखिरी दशक साबित होने जा रहा है। अभी से यह महादेश उत्पादन, निर्यात और स्वनिर्मित उत्पादों की बिक्री में शीर्ष पर है। इसी अक्तूबर में शी जिनपिंग अगर अपना तीसरा कार्यकाल पाने में सफल हो जाते हैं, तो चीनी आक्रामकता के साथ अन्य देशों की लामबंदी में यकीनन बढ़ोतरी होगी। तेजी से पनपता नया शीतयुद्ध कब धधकते लावे में तब्दील हो जाए, कोई नहीं जानता।
इससे हकबकाई दुनिया में तरह-तरह की संधियों की बाढ़ आ गई है। दो उदाहरण देता हूं। भारत और चीन सीमा-विवाद में उलझे हैं, पर ‘शंघाई सहयोग संगठन’ के जरिये आतंकवाद सहित तमाम मुद्दों पर मिलकर मुकाबला करने की बात करते हैं। जापान ऐतिहासिक रूप से चीन के खिलाफ है, लेकिन उसने तमाम आर्थिक करार बीजिंग की हुकूमत के साथ कर रखे हैं। ऐसी दर्जनों संधियां या समझौते निरंतर आकार ले रहे हैं। आभासी दुनिया के इस दौर में इतनी विरोधाभासी अवधारणाओं का होना भला संकेत नहीं है।
अब आते हैं राष्ट्रवाद पर। आपने डोनाल्ड ट्रंप के मुंह से सुना होगा- ‘अमेरिका फर्स्ट’। जिनपिंग कहते हैं, ‘चाइना फर्स्ट’। रूस यूक्रेन पर पुराने राष्ट्रीय गौरव की बहाली के लिए हमला करता है। यूके्रन अपने हजार साल पुराने राष्ट्रवाद के नाम पर उससे जूझता है। क्या यह अपशकुनी संकेत नहीं है? अपने राष्ट्र पर अभिमान रखना, उसे आगे बढ़ाना हर नागरिक और नेतृत्व का कर्तव्य है, लेकिन अगर राष्ट्रवाद ‘प्रॉपगैंडा’ का शिकार हो जाए, तो वह पहले देश के अंदरूनी ढांचे को कुतरता है। श्रीलंका और पाकिस्तान की घटनाएं इसकी गवाह हैं। यही नहीं, 6 जनवरी, 2021 को अमेरिका की ‘कैपिटल हिल’ में अराजक तत्वों ने कब्जा कर साबित कर दिया था कि उदंडता अगर सत्ता नीति का हिस्सा बन जाए, तो शानदार परंपराएं भरभरा जाती हैं। इस समय ऐसा बहुत कुछ है, जो 1930 के शुरुआती समय की याद दिलाता है।
यहां भूलना नहीं चाहिए कि डिजिटल क्रांति ने जहां सूचनाओं का आदान-प्रदान सुगम और तीव्र किया है, वहीं ‘प्रॉपगैंडा’ को भी बढ़ावा दिया है। हम किस सूचना पर भरोसा करें और किसे दरकिनार कर दें, इसके मानक कुम्हलाते जा रहे हैं। ‘उत्तर सत्ययुग’ के दौर में कोई छोटी सी छोटी घटना बड़ी तबाही का आधार बन सकती है। जून 1914 में जब सर्बिया के आतंकवादियों ने ऑस्ट्रिया के राजकुमार आर्कड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड की हत्या की थी, तब उन्होंने सोचा नहीं होगा कि वे समूची दुनिया के अमन-चैन को तीली लगा रहे हैं। ध्यान रहे, तब सोशल मीडिया का प्रकोप भी नहीं था।
ऐसे में, समरकंद में हुई शंघाई सहयोग संगठन की बैठक की ओर दुनिया उम्मीद से देख रही है। यहां 18 राष्ट्र-नेताओं के साथ विश्व के सर्वाधिक महत्वपूर्ण नेताओं में से तीन- नरेंद्र मोदी, व्लादिमीर पुतिन और शी जिनपिंग मौजूद थे। क्या पुतिन ने इस बैठक से कोई सार्थक संदेश ग्रहण किया है?
सौजन्य - हिन्दुस्तान।