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-Rajeev Kumar (Editor-in-chief)

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Thursday, September 22, 2022

क्या पुतिन ने कोई सबक लिया ( हिन्दुस्तान)

पुरानी कहावत है- पासा न जाने कब पलट जाए? रूस-यूक्रेन युद्ध में यही हो रहा है। महीनों से पराभव झेलते यूक्रेन ने सफल पलटवार शुरू कर दिए हैं। हताश रूसी सेनाएं कई मोर्चों से पीछे हटी हैं। इससे उत्साहित कीव का सत्ता पक्ष अब क्रीमिया वापस लेने का दम भर रहा है। 


पश्चिमी मीडिया और कूटनीति-विशारदों का मानना है कि यदि रूस कुछ मोर्चे और गंवाता है, तो पुतिन की पहले से धुंधलाती छवि रसातल में चली जाएगी। इससे उन्हें सांघातिक झटका लग सकता है। अमेरिका और मित्र देशों द्वारा इस असंतोष को बढ़ावा देकर क्रेमलिन में सत्ता-पलट की कोशिशें भी की जा सकती हैं। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले दिनों पुतिन की कार से धमाके के बाद धुआं उठते देखा गया। इस रपट का दावा है कि यह रूसी राष्ट्रपति की जान लेने के इरादे से किया गया हमला था। अगर यह सच है, तो क्या किसी असंतुष्ट गुट ने ऐसा किया या पश्चिम की एजेंसियां कुछ साजिशें रच रही हैं? असलियत जो हो, पर क्या पुतिन को रास्ते से हटाना आसान है?

पुतिन पर 2017 में भी जानलेवा हमला हुआ था। वह हिंसक-अहिंसक साजिशों से निपटने में कामयाब रहे हैं, पर अधिक दबाव उन्हें अतिवादी प्रतिक्रिया के लिए प्रेरित कर सकता है। यह जगजाहिर है कि यूक्रेन में नाटो सीधे तौर पर भले न लड़ रहा हो, पर कीव की सारी नीतियां उसी के नियंता रच रहे हैं। इस हमले से नाराज स्वीडन और फिनलैंड ने भी नाटो की सदस्यता ग्रहण करने की मंशा जाहिर की है। जिस नाटो का प्रसार रोकने के लिए क्रेमलिन ने इतना खून बहाया, वह प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से रूस की सीमाओं तक जा पहुंचा है। तय है, यूक्रेन पर हमला उल्टा पड़ा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने चौतरफा घिराव और घरेलू मोर्चे पर धराशायी होने के भय से पुतिन कोई ऐसा कदम उठा लें, जिससे तीसरे महायुद्ध का खतरा उत्पन्न हो जाए!

कुछ विद्वानों की अवधारणा है कि परमाणु युग में विश्व-युद्ध संभव नहीं। यही लोग थे, जो कल तक जंग को इसी वजह से अतीत की बात बताते थे। उनकी पहली अवधारणा ध्वस्त हो चुकी है। अब क्या दूसरी की बारी है? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए हमें पिछली सदी में लौटकर देखना होगा कि वे कौन से हालात थे, जिन्होंने दूसरे महायुद्ध को जना? इतिहासकारों ने इसके चार कारण बताए हैं- वर्साय की संधि और उससे जनित जर्मनी का अपमान बोध, समूची दुनिया में आर्थिक उथल-पुथल, जर्मन राष्ट्रवाद के बहाने नाजीवाद का उत्कर्ष और तमाम विचारहीन गठबंधनों का उदय। आज परिस्थितियां कैसी हैं? 

द्वितीय विश्व-युद्ध के पहले जिस तरह अमेरिका आर्थिक रूप से जर्जर था, लगभग उसी तरह के दोहराव का शुब्हा वहां के अर्थशास्त्री जता रहे हैं। कुछ सप्ताह पूर्व अमेरिका में मुद्रास्फीति13 प्रतिशत के मारक स्तर तक पहुंच गई थी। मजबूरन, फेडरल रिजर्व (केंद्रीय बैंक) को ब्याज दर बढ़ानी पड़ रही है। इससे मुद्रास्फीति में लगभग पांच फीसदी की गिरावट आई है, पर अभी भी 8.3 फीसदी का स्तर बना हुआ है। आम आदमी को जब राहत मिलेगी, तब मिलेगी, पर उद्योग-धंधों का नुकसान तय है। इसी तरह, समूचा यूरोप अभूतपूर्व आर्थिक ढलान पर जा खड़ा हुआ है। ऊपर से रूस ने वहां बिजली और ऊर्जा की आपूर्ति सीमित कर दी है। नतीजतन, बिजली और पेट्रो उत्पादों के दाम दोगुने तक बढ़ गए हैं। महंगाई रोज नए कीर्तिमान बना रही है। दूसरे विश्व-युद्ध के बाद यह पहला अवसर है, जब एफिल टावर की लाइटें बुझा दी गई हैं। बार्सिलोना के फव्वारे रात को बिजली के बिना अपनी आभा बिखेरने में असमर्थ हैं। आर्थिक मंदी ने ही अमेरिका को अनेक नीतियों व लक्ष्यों को त्यागकर महायुद्ध में भाग लेने पर मजबूर किया था। इस समय तो समूचा यूरोप और अमेरिका बेहाल है। 

दूसरी तरफ, चीन की आर्थिक और सैन्य शक्ति निरंतर बढ़ती जा रही है। पिछले दशक में वह जापान को पीछे छोड़कर दुनिया की दूसरी आर्थिक शक्ति बन बैठा था। बीजिंग के समर्थक मानते हैं कि यह अमेरिकी प्रभुत्व का आखिरी दशक साबित होने जा रहा है। अभी से यह महादेश उत्पादन, निर्यात और स्वनिर्मित उत्पादों की बिक्री में शीर्ष पर है। इसी  अक्तूबर में शी जिनपिंग अगर अपना तीसरा कार्यकाल पाने में सफल हो जाते हैं, तो चीनी आक्रामकता के साथ अन्य देशों की लामबंदी में यकीनन बढ़ोतरी होगी। तेजी से पनपता नया शीतयुद्ध कब धधकते लावे में तब्दील हो जाए, कोई नहीं जानता। 

इससे हकबकाई दुनिया में तरह-तरह की संधियों की बाढ़ आ गई है। दो उदाहरण देता हूं। भारत और चीन सीमा-विवाद में उलझे हैं, पर ‘शंघाई सहयोग संगठन’ के  जरिये आतंकवाद सहित तमाम मुद्दों पर मिलकर मुकाबला करने की बात करते हैं। जापान ऐतिहासिक रूप से चीन के खिलाफ है, लेकिन उसने तमाम आर्थिक करार बीजिंग की हुकूमत के साथ कर रखे हैं। ऐसी दर्जनों संधियां या समझौते निरंतर आकार ले रहे हैं। आभासी दुनिया के इस दौर में इतनी विरोधाभासी अवधारणाओं का होना भला संकेत नहीं है। 

अब आते हैं राष्ट्रवाद पर। आपने डोनाल्ड ट्रंप के मुंह से सुना होगा- ‘अमेरिका फर्स्ट’। जिनपिंग कहते हैं, ‘चाइना फर्स्ट’। रूस यूक्रेन पर पुराने राष्ट्रीय गौरव की बहाली के लिए हमला करता है। यूके्रन अपने हजार साल पुराने राष्ट्रवाद के नाम पर उससे जूझता है। क्या यह अपशकुनी संकेत नहीं है? अपने राष्ट्र पर अभिमान रखना, उसे आगे बढ़ाना हर नागरिक और नेतृत्व का कर्तव्य है, लेकिन अगर राष्ट्रवाद ‘प्रॉपगैंडा’ का शिकार हो जाए, तो वह पहले देश के अंदरूनी ढांचे को कुतरता है। श्रीलंका और पाकिस्तान की घटनाएं इसकी गवाह हैं। यही नहीं, 6 जनवरी, 2021 को अमेरिका की ‘कैपिटल हिल’ में अराजक तत्वों ने कब्जा कर साबित कर दिया था कि उदंडता अगर सत्ता नीति का हिस्सा बन जाए, तो शानदार परंपराएं भरभरा जाती हैं। इस समय ऐसा बहुत कुछ है, जो 1930 के शुरुआती समय की याद दिलाता है। 


यहां भूलना नहीं चाहिए कि डिजिटल क्रांति ने जहां सूचनाओं का आदान-प्रदान सुगम और तीव्र किया है, वहीं ‘प्रॉपगैंडा’ को भी बढ़ावा दिया है। हम किस सूचना पर भरोसा करें और किसे दरकिनार कर दें, इसके मानक कुम्हलाते जा रहे हैं। ‘उत्तर सत्ययुग’ के दौर में कोई छोटी सी छोटी घटना बड़ी तबाही का आधार बन सकती है। जून 1914 में जब सर्बिया के आतंकवादियों ने ऑस्ट्रिया के राजकुमार आर्कड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड की हत्या की थी, तब उन्होंने सोचा नहीं होगा कि वे समूची दुनिया के अमन-चैन को तीली लगा रहे हैं। ध्यान रहे, तब सोशल मीडिया का प्रकोप भी नहीं था।

ऐसे में, समरकंद में हुई शंघाई सहयोग संगठन की बैठक की ओर दुनिया उम्मीद से देख रही है। यहां 18 राष्ट्र-नेताओं के साथ विश्व के सर्वाधिक महत्वपूर्ण नेताओं में से तीन- नरेंद्र मोदी, व्लादिमीर पुतिन और शी जिनपिंग मौजूद थे। क्या पुतिन ने इस बैठक से कोई सार्थक संदेश ग्रहण किया है? 



सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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संवाद में अपराध नहीं ( हिन्दुस्तान)

आज से करीब बारह साल पहले देश की राजनीति, सत्ता प्रतिष्ठान, उद्योग जगत और मीडिया को झकझोर देने वाला नीरा राडिया प्रकरण अब फिर चर्चा में है। सीबीआई ने बुधवार को सुप्रीम कोर्ट को बताया कि कई राजनेताओं, उद्योगपतियों और सरकारी अधिकारियों के साथ पूर्व कॉरपोरेट लॉबिस्ट नीरा राडिया की रिकॉर्ड की गई बातचीत की जांच में कोई अपराध नहीं पाया गया है। यह भी दिलचस्प है कि जांच रिपोर्ट साल 2015 में ही सौंप दी गई थी। सौंपी गई रिपोर्ट के नतीजे के बारे में अब जाकर पता चला है, तो इसका सीधा मतलब है कि विगत वर्षों में इस ‘हाई प्रोफाइल’ मामले में ज्यादा रुचि नहीं ली गई है। आमतौर पर ऐसे मामलों में कुछ सिद्ध करना कठिन होता है। किसी लाभ के लिए परस्पर संवाद, समन्वय बनाना और अपने हिसाब से फैसले कराने की कोशिश करना किसी अपराध की श्रेणी में तो नहीं कहा जा सकता। हर फैसले में असंख्य लोग शामिल होते हैं, हर फैसला किसी के लिए सही, तो किसी के लिए प्रतिकूल भी हो सकता है। अत: नीरा राडिया मामले में अगर सीबीआई को किसी अपराध के साक्ष्य नहीं मिले हैं, तो अचरज की बात नहीं।

वैसे नीरा राडिया मामले में अदालत में अक्तूबर से सुनवाई शुरू हो जाएगी, तो उसके पहले सीबीआई को शायद एक और स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने की जरूरत पड़ेगी। दरअसल, यह पूरा मामला मशहूर उद्योगपति रतन टाटा द्वारा दायर याचिका के चलते उठा है। साल 2010 में कुछ टेप लीक हुए थे और रतन टाटा ने ऑडियो टेप लीक होने की जांच की मांग की थी, उन्होंने उस लीक को अपनी निजता के अधिकार का उल्लंघन बताया था। इसके अलावा, एक गैर-सरकारी संगठन ‘सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन’ ने भी टेप की जांच के लिए दबाव डाला और मांग की थी कि टेप को सार्वजनिक किया जाए। ध्यान रहे, टेप किए गए संवादों की संख्या 5,800 है। यह भी दिलचस्प है कि ये टेप कर चोरी की निगरानी या जांच के लिए किए जा रहे थे। कर चोरी का मामला तो छोटा पड़ गया, जो प्रभु-वर्गीय लोगों की परस्पर बातचीत थी, वह प्रमुखता से सामने आ गई। यह भी ध्यान रखने की बात है कि इन परस्पर संवादों को अब 13-14 साल से ज्यादा बीत चुके हैं। 


देश में कॉरपोरेट लॉबिस्ट और गणमान्य लोग परस्पर कैसे-क्या बातें करते हैं, इसका अंदाजा तो सर्वोच्च न्यायालय को साल 2013 में ही हो गया था और लोगों के बीच भी वे संवाद सुर्खियों में रहे थे, लेकिन अब उनमें अपराध के सूत्र खोजना आसान नहीं है। मतलब, साक्ष्यों के अभाव में इस प्रकरण को आगे बढ़ाना अदालत पर ही निर्भर है। सर्वोच्च न्यायालय ने साल 2013 में सीबीआई जांच का आदेश देते हुए देश के प्रभु या प्रभावशाली वर्गों की परस्पर दुरभिसंधि की ओर इशारा किया था, लेकिन बाद में गंभीरता खत्म हो गई। वैसे अपने देश में सत्ता वर्ग और उसके आस-पास बहुत कुछ ऐसा होता है, जो नहीं होना चाहिए, लेकिन इन चीजों को रोकने के उपायों-साधनों की बड़ी कमी है। लोग भूले नहीं हैं, लगभग तीस साल पहले वोहरा समिति की रिपोर्ट संसद में पेश हुई थी, जिसमें अपराधी-नेता-अफसर की साठगांठ पर प्रकाश डाला गया था, लेकिन जमीन पर कुछ खास कार्रवाई नहीं दिखी थी। वस्तुत: किसी भी क्षेत्र में सुधार सामूहिक जिम्मेदारी है, तो हमें यह सोच लेना चाहिए कि किसी सुधार के लिए आम लोग स्वयं कितने लालायित हैं।  

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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आचरण की शुचिता ( हिन्दुस्तान)

नोएडा में अवैध रूप से बनी दो गगनचुंबी इमारतों को अदालती आदेश पर गिराए जाने का मंजर अभी जेहन से मिटा भी न था कि मुंबई हाईकोर्ट ने अब केंद्रीय मंत्री नारायण राणे के जुहू स्थित आठ मंजिला बंगले में हुए अवैध निर्माण को दो हफ्ते के भीतर तोड़ने का आदेश दिया है। अदालत ने उन पर 10 लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया है। रसूखदार लोगों के खिलाफ आ रहे ऐसे फैसलों के यकीनन दूरगामी असर होंगे। ऊंची अदालतों का रुख ऐसी अराजक गतिविधियों के खिलाफ कितना सख्त हो चला है, इसका अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने तक मोहलत की राणे की मांग भी नहीं मानी गई। इस फैसले का एक साफ संदेश है कि सत्ता के ऊंचे पदों पर बैठे लोग किसी मुगालते में न रहें कि कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। ऐसे न्यायिक निर्णय कानून के राज में जनता की आस्था मजबूत करते हैं। 

दुर्योग से, जिन लोगों से समाज को दिशा देने की अपेक्षा की जाती है, वे अब अपने विवादों से कहीं अधिक ध्यान खींचने लगे हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान को जर्मनी के फैं्रकफर्ट में कथित तौर पर विमान से उतारे जाने की बात सोशल मीडिया पर चंद मिनटों में वायरल हो गई। हालांकि, आम आदमी पार्टी ने इस पूरे प्रकरण को ‘प्रॉपगैंडा’ करार दिया है और उसकी विरोधी पार्टियां चटकारे ले-लेकर इस खबर को मीडिया में पेश कर रही हैं, मगर यह एक बेहद गंभीर मसला है। इसे राजनीतिक प्रहसन के रूप में कतई नहीं देखा जाना चाहिए। देश के प्रतिष्ठित सांविधानिक पदों पर बैठा हरेक व्यक्ति विदेशी जमीन पर किसी एक पार्टी या समुदाय का प्रतिनिधि नहीं होता, बल्कि वह पूरी भारतीय तहजीब की नुमाइंदगी कर रहा होता है। इसलिए जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को विदेशी सरजमीं पर अपने आचरण के प्रति खास सावधानी बरतने की जरूरत है। यह समूचे राजनीतिक वर्ग के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। 

इन दोनों प्रकरणों में हमारे राजनीतिक वर्ग के लिए बेहद जरूरी सबक हैं। राजनीतिक पार्टियां अक्सर दलील देती हैं कि चूंकि जनता ने चुनकर भेजा है, इसलिए वे मंत्री या मुख्यमंत्री हैं। यह बेहद लचर बचाव है। पार्टियां भूल जाती हैं कि मतदाताओं ने उनको जनादेश दिया था और वे उनसे साफ-सुथरी सरकार की उम्मीद करते हैं। जनता ने किसी को विजयी इसलिए बनाया, क्योंकि उसके सामने उन्होंने अपने प्रतिनिधि के तौर पर उसे ही उतारा था। ऐसे में, किसी भी जन-प्रतिनिधि के आचरण को लेकर संबंधित राजनीतिक दल की जवाबदेही अधिक है। विडंबना यह है कि इस पहलू पर सोचने के लिए कोई पार्टी तैयार नहीं। नतीजतन, विधायी संस्थाओं में दागियों की बढ़ती संख्या समूचे राजनीतिक वर्ग की साख लगातार धूमिल कर रही है। पल-पल बदलती राजनीतिक निष्ठा व प्रतिबद्धता के इस दौर में देश के भीतर पार्टियों को लज्जित होने और विदेश में देश को शर्मसार होने से बचाने के लिए बहुत जरूरी है कि वे अपनी सियासत में नैतिकता की पुनस्र्थापना करें। दागी और अगंभीर उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारने से पहले वे इसके गंभीर निहितार्थों पर विचार करें। भारतीय लोकतंत्र ऐसे उदाहरणों से दुनिया में सुर्खरू कतई नहीं हो सकता। 138 करोड़ की आबादी में से चंद हजार बाशऊर लोग यदि हमारे राजनीतिक दल नहीं ढूंढ़ पा रहे, तो वे देश को महान बनाने के दावे किस आधार पर कर सकेंगे?  



सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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Wednesday, September 14, 2022

Hindi Diwas 2022: जोड़ने वाली जुबान बनती हिंदी (अमर उजाला)

उमेश चतुर्वेदी


हिंदी को लेकर संविधान सभा की बहस पर बहुत चर्चा हो चुकी है। संविधान को अंगीकृत करते वक्त सेठ गोविंद दास ने जो कहा था, उसे याद किया जाना बहुत जरूरी है। संविधान सभा में उन्होंने कहा था, 'मुझे एक ही बात खटकती है और वह सदा खटकती रहेगी कि इस प्राचीनतम देश का यह संविधान देश के स्वतंत्र होने के पश्चात विदेशी भाषा में बना है। हमारी गुलामी की समाप्ति के पश्चात, हमारे स्वतंत्र होने के पश्चात जो संविधान हमने विदेशी भाषा में पास किया है, हमारे लिए सदा कलंक की वस्तु रहेगी। यह गुलामी का धब्बा है, यह गुलामी का चिह्न है।' चूंकि सेठ गोविंददास सिर्फ राजनेता नहीं, हिंदी के प्रतिष्ठित रचनाकार भी थे। हिंदी के प्रति अपने सम्मान और अपने प्यार के ही चलते शायद उन्होंने इतनी कठोर बात कहने की हिम्मत की।


सेठ गोविंद दास जैसी भाषा और हिंदीप्रेमियों की भाषा भले ही न हो, लेकिन हिंदी को लेकर उनकी सोच ऐसी ही है। यह सच है कि मूल रूप से अगर संविधान अपनी भाषा में लिखा गया होता, तो उसका भाव दूसरा होता और उसका संदेश भी। चूंकि आजादी मिलने के बाद लोगों के सामने देश को बनाने का उदात्त सपना था, समूचा देश इसके लिए एकमत भी था। तब हिंदी को सही मायने में सांविधानिक दर्जा दिलाया भी जा सकता था। लेकिन जैसे-जैसे इसमें देर हुई, वैचारिक वितंडावाद बढ़ता गया। वोट बैंक की राजनीति भी बढ़ती गई और जैसे-जैसे राजनीति का लक्ष्य सेवा के बजाय सत्ता साधन होता गया, वैसे-वैसे हिंदी ही क्यों, अन्य भाषाओं की राजनीति भी बदलती गई। 


लेकिन किसे पता था कि बीसवीं सदी की शुरुआत में जो दुनिया समाजवाद और मार्क्सवाद के इर्द-गिर्द समाजवादी दर्शन की बुनियाद पर आगे बढ़ने की बात कर रही थी, वह इसी सदी के आखिरी दशक तक आते-आते उस ट्रिकल डाउन सिद्धांत के भरोसे खुद को पूंजीवादी व्यवस्था को सौंप देगी! बाजार ने जैसे-जैसे समाज के विभिन्न क्षेत्रों में पैठ बढ़ानी शुरू की, खुद को अभिव्यक्त करने और खुद की पहुंच बढ़ाने के लिए उसने स्थानीय भाषाओं को माध्यम बनाना शुरू किया। उसे स्थानीय भाषाएं ही साम्राज्यवादी भाषाओं की तुलना में ज्यादा मुफीद नजर आईं। रही-सही कसर तकनीकी क्रांति ने पूरी कर दी। तकनीक और बाजार के विस्तार के साथ स्थानीय भाषाओं का तेजी से विस्तार हुआ और हिंदी भी उसी तरह बढ़ती गई। उसने अपनी पहुंच और पैठ के इतने सोपान तय किए, जिसे परखने के लिए गहरे शोध की जरूरत है। 


कहने को तो हर साल ऑक्सफोर्ड शब्दकोश में हिंदी के कुछ शब्दों को जगह मिल रही है, इससे हम गर्वित भी होते हैं। जिस साम्राज्यवाद ने हमें करीब दो सौ साल तक गुलाम रखा, जिसने हमारी भाषाओं को गुलाम भाषा का दर्जा ही दे दिया, वे अगर हमारे शब्दों को अपने यहां सादर स्वीकार कर रहे हैं, तो उसके लिए गर्वित होना भी चाहिए। तकनीक ने हिंदी का विस्तार सात समंदर पार तक पहुंचा दिया है। अपने वतन और माटी से दूर रहने वाले लोग अपनी पहचान और अपनी एकता के लिए अपनी माटी को ही बुनियाद बनाते हैं। अब इस बुनियाद में भारतीय भाषाएं भी जुड़ गई हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश के लोग भी विदेशी धरती पर खुद की पहचान हिंदी या हिंदुस्तानी जुबान के जरिये बनाने की कोशिश करते हैं। 


भारतीय उपमहाद्वीप की अपनी सरजमीन पर भारत-पाकिस्तान के बीच भले ही विरोधी माहौल हो, लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप से दूर सात समंदर पार अगर हिंदी हमें जोड़ने का साधन और माध्यम बन रही है, तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। हिंदी को इस चुनौती को भी स्वीकार करना होगा, ताकि उसका रूप और विकसित हो तथा वह सीमाओं के आर-पार की मादरी जुबान की तरह विकसित हो सके। वैसे जिस तरह बाजार इस मोर्चे पर हिंदी को आधार दे रहा है, उससे साफ है कि हिंदी यह लक्ष्य भी जल्द हासिल कर लेगी। इसलिए उसे तैयार होना होगा। यह तैयारी शब्द संपदा बढ़ाकर, उसकी बुनियादी पहचान बनाकर, ज्ञान-विज्ञान की भाषा के तौर पर उसका व्यवहार बढ़ाकर की जा सकती है।

सौजन्य - अमर उजाला।

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हिंदी दिवस : सांस्कृतिक व भाषायी मानसिकता की अनुगूंज (अमर उजाला)

- विश्वनाथ त्रिपाठी


अपने देश में हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़ा आजादी मिलने के बाद ही मनाया जाने लगा, इसका उद्देश्य यह स्मरण दिलाना था कि भारतीय गणराज्य की राजकीय भाषा हिंदी है। पहले हिंदी के लिए राष्ट्रभाषा शब्द ज्यादा सुनाई पड़ता था, लेकिन धीरे-धीरे लोगों के दिमाग में यह बात आने लगी कि केवल हिंदी ही राष्ट्रभाषा नहीं है। राष्ट्र की जितनी भी भाषाएं हैं, वे राष्ट्रभाषा हैं। इस पर काफी बहस भी हुई है। इसलिए अब हिंदी को राष्ट्रभाषा से ज्यादा राजकीय भाषा या राजभाषा कहा जाने लगा है। केंद्र या राज्यों के बीच सूचनाओं एवं पत्र-व्यवहार के लिए हिंदी को संपर्क भाषा माना जाता है। इसका व्यावहारिक उपयोग कितना होता है, यह अलग बात है।


आजादी के बाद राजकीय भाषा के रूप में हिंदी की घोषणा स्वाभाविक बात थी, हालांकि इसको लेकर संविधान सभा में काफी बहस भी हुई। हिंदी और इसकी बोलियां भारतवर्ष में विद्रोह, आंदोलन की भाषा रही हैं। इसे आप भक्ति आंदोलन और स्वाधीनता आंदोलन से जोड़ सकते हैं। पहली रचना जो हमारे देश में हिंदी की मिलती है, वह रामानंद की मिलती है, जिनके बारे में कहा जाता है कि वह भक्ति आंदोलन को दक्षिण भारत से उत्तर भारत में ले आए-भक्ति द्रविड़ उपजी लाए रामानंद, प्रकट किया कबीर ने, सात दीप नौ खंड। वह सिर्फ भक्ति आंदोलन ही नहीं लाए, बल्कि यहां की भाषा में उन्होंने अपनी भक्ति का प्रचार किया।



इसी तरह से जब वली दकनी दक्षिण से दिल्ली आए, तो वह अपने साथ अपनी भाषा लेकर आए, जिसे दकनी हिंदी कहा जाता है, जिसे आजकल उर्दू वाले अपनी भाषा मानते हैं, क्योंकि वली दकनी उर्दू के शायर हैं। इसी तरह 1857 का जो स्वतंत्रता आंदोलन था, वह हिंदी और उर्दू में साथ-साथ चला था। बहादुरशाह जफर के नाम से एक शेर प्रसिद्ध है-हिंदियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की, तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की। यह दिलचस्प है कि भाषा के लिए जो हिंदी शब्द है, वह मुसलमानों का दिया हुआ है। पुरुषोत्तम दास टंडन से पहले भाषा-विशेष के रूप में हिंदी शब्द का इस्तेमाल मीर और गालिब ने किया है। मीर की पंक्ति है- आया नहीं ये लफ्ज-ए हिंदी जुबां के बीच और गालिब ने तो अपनी भाषा को हिंदी ही कहा है। इसलिए जब आप हिंदी की बात करते हैं, तो वस्तुतः उसकी एक आधारभूमि है। ऐसा नहीं हुआ कि आजादी के बाद एकदम से हिंदी संपर्क भाषा या राजभाषा के रूप में थोप दी गई। असल में हमारी जो सांस्कृतिक भाव-भूमि थी या आजादी पाने के लिए हमारी जो मानसिकता थी, उसी का परिणाम था हिंदी को संपर्क भाषा या राजभाषा के रूप में बढ़ावा देना। 


जब हमें आजादी मिली, तो वह एक तरह से भारत का गैर-उपनिवेशीकरण था, क्योंकि आजादी अपने-आप में उपनिवेशवाद विरोधी अवधारणा है। हमने जो भारत छोड़ो का नारा दिया था, वह सिर्फ अंग्रेजों के लिए ही नहीं, बल्कि अंग्रेजी और अंग्रेजियत के लिए भी था। और यह काम किस पैमाने पर हुआ था, उसे देखने की जरूरत है। भारतीय गणराज्य का जो प्रतीक वाक्य चुना गया, वह है सत्यमेव जयते। हाउस ऑफ कामन्स के लिए हमारे यहां लोकसभा शब्द बनाया गया, जो ज्यादा स्वाभाविक लगता है। इसी तरह सड़कों-बस्तियों (राजपथ, जनपथ, चाणक्यपुरी, कौटिल्य मार्ग, शांति पथ, सत्य मार्ग, विनय मार्ग) और संस्थाओं के स्वाभाविक से नाम रखे गए थे। यह सब जो हो रहा था, वह केवल भाषायी आंदोलन का परिणाम नहीं था, बल्कि हमारी राजनीतिक और सामाजिक समझ थी। योजनाबद्ध तरीके से देश के विकास का जो सपना था, किसी भी उपनिवेश या साम्राज्यवादी ताकत से अलग रहने की जो हमारी गुटनिरपेक्षता की नीति थी, वह हमारी सांस्कृतिक और भाषायी मानसिकता की अनुगूंज थी। 


एक और बात ज्यादा सावधानी से समझने की जरूरत है कि हिंदी का अपना एक वृहत्तर भाषा-क्षेत्र है, जिसे हिंदी हृदय प्रदेश कहा जाता है। इसमें कई राज्य शामिल हैं। आजादी के बाद इन राज्यों ने बिना दबाव के स्वतः स्वयं को हिंदी राज्य घोषित किया था। हिंदी का अखिल भारतीय होना सिर्फ इन्हीं हिंदी प्रदेशों पर निर्भर नहीं है, बल्कि हिंदीतर भाषी राज्यों और क्षेत्रों पर निर्भर है। हमारी जनतांत्रिक मानसिकता की मांग यही है। आजादी के बाद हिंदी का विश्वविद्यालयों, सरकारी संस्थाओं में प्रचार-प्रसार और उपयोग बढ़ा है, अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हिंदी का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में भी प्रशासनिक हिंदी के शब्द धड़ल्ले से प्रयोग होने लगे हैं, जैसे- पंचायत, पंजीकरण आदि। विदेशों में भी जो हिंदी का प्रचार-प्रसार हुआ है, उसका आधार मजदूर वर्ग है। 


औपनिवेशिक शासन के दौरान हमारे यहां से जो गिरमिटिया मजदूर ले जाए गए थे, वे अपने साथ रामचरित मानस, कबीरदास, रैदास आदि का साहित्य भी ले गए थे। यही वजह है कि आज फिजी, मॉरीशस, सूरीनाम, ट्रिनिडाड, और अन्य कैरिबियाई देशों में हिंदी प्रचलित है। लेकिन दुखद है कि इन सबके बावजूद देश में अंग्रेजी का वर्चस्व अब भी कायम है। अंग्रेजी का प्रभाव इस हद तक बढ़ रहा है कि हमारे बच्चे अब ग्यारह, बारह, छियासठ, सड़सठ नहीं समझते हैं, बल्कि अंग्रेजी के अंकों को ही समझते और बोलते हैं। ऐसा केवल अंकों के मामले में नहीं है, बल्कि जीवन-शैली, पोशाक आदि विभिन्न मामलों में है। इसका मूल कारण है कि अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय बाजार की भाषा है, जो अंग्रेजियत की मानसिकता को बढ़ावा देती है। हमारे यहां यह मानसिकता अपसंस्कृति का कारण बन रही है। 


हालांकि बाजार ने अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में हिंदी को काफी बढ़ावा दिया है, लेकिन भाषा जब अवसरवाद से जुड़ जाती है, विवेकहीन हो जाती है, तो वह भाषा का विकास नहीं करती। यह मत भूलिए कि हिंदी आंदोलनों और विद्रोह के अलावा दरबार की भाषा भी रही है। भाषा का विकास जोखिम उठाकर ही हो सकता है। अन्य भारतीय भाषाओं पर हिंदी का वर्चस्व भी ठीक नहीं है। अंग्रेजियत की मानसिकता हमारी स्वाधीन मनोवृत्ति को क्षति पहुंचा रही है और अपसंस्कृति का प्रसार करती है, जो हिंदी भाषा को भी नुकसान पहुंचा रही है। हिंदी का विकास हमारे देश के आर्थिक विकास और अन्य भारतीय भाषाओं के विकास के साथ ही जुड़ा हुआ है। बेशक अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में हिंदी में रोजगार के अवसर बढ़े हैं, लेकिन अंग्रेजी की तुलना में नहीं। 

सौजन्य - अमर उजाला।

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वैश्विक खाद्य संकट: कृषि जोड़ सकती है दक्षिण एशिया को (अमर उजाला)


पत्रलेखा चटर्जी


हम दक्षिण एशियाई देशों को एकजुट करने के लिए हमेशा क्रिकेट पर भरोसा करने के बारे में सोचते हैं, भले अन्य मुद्दों पर उनके विचार अलग ही क्यों न हों। ऐसे समय में जब वैश्विक खाद्य व्यवस्था तेजी से कमजोर होती जा रही है, क्या कृषि इन देशों को एकजुट कर सकती है? पिछले हफ्ते श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश और भूटान जैसे पड़ोसी देशों के कृषि मंत्रालयों के शीर्ष अधिकारी अपने भारतीय समकक्ष से इस पर विचार-विमर्श करने के लिए दिल्ली पहुंचे थे कि कैसे एक-दूसरे से सहयोग करना और सीखना बेहतर है। इसमें आभासी रूप से पाकिस्तान ने भी हिस्सा लिया था। 


दक्षिण एशिया में 'विकास के लिए कृषि अनुसंधान की मजबूती' विषय पर दिल्ली में यह उच्च स्तरीय बैठक द बोरलॉग इंस्टीट्यूट फॉर साउथ एशिया (बीसा) द्वारा आयोजित इस तरह की पहली बैठक थी। कोविड, यूक्रेन में चल रहे युद्ध और जलवायु परिवर्तन की पृष्ठभूमि में होने के कारण यह बैठक अपने आप में बेहद प्रासंगिक थी। इन तीन कारणों से दुनिया में खाद्य संकट तेजी से गहरा रहा है। ग्लोबल रिपोर्ट ऑन फूड क्राइसिस, 2022 के मुताबिक, 53 देशों या क्षेत्रों के 19.3 करोड़ लोगों ने 2021 में भीषण खाद्य असुरक्षा का अनुभव किया। खाद्य संकट के लिहाज से दक्षिण एशिया बेहद संवेदनशील है। श्रीलंका में अभूतपूर्व आर्थिक संकट के बाद वहां के लाखों लोग को खाद्य संकट का सामना करना पड़ा। अब पाकिस्तान विनाशकारी बाढ़ से जूझ रहा है और उसका एक तिहाई हिस्सा पानी में डूबा हुआ है। जैसा कि हम जानते हैं कि भारत कहीं बेहतर स्थिति में है, लेकिन वैश्विक झटकों से सुरक्षित नहीं है। गेहूं निर्यात प्रतिबंधित करने के बाद भारत ने घरेलू खाद्य महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए टूटे चावल के निर्यात पर भी प्रतिबंध लगा दिया है।



यह साफ है कि सहयोग ही रास्ता है। पिछले हफ्ते दक्षिण एशिया के शीर्ष कृषि अधिकारियों की बैठक आयोजित करने वाला बीसा मैक्सिको स्थित द इंटरनेशनल मेइज ऐंड ह्वीट इंप्रूवमेंट सेंटर (सीआईएमएमवाईटी), जो दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण दो अनाज-मक्का और गेहूं पर केंद्रित अंतरराष्ट्रीय अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान है, और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) का इसी तरह का सहयोगी संगठन है। सीआईएमएमवाईटी और बीसा के महानिदेशक ब्रैम गोवर्ट्स का दिल्ली में दो दिवसीय उच्च स्तरीय सम्मेलन को संबोधित करना कृषि में सहयोग के लिहाज से एक बड़ी बात है।


हरित क्रांति के जनक कहे जाने वाले दिवंगत नोबेल शांति पुरस्कार विजेता नॉर्मन बोरलॉग की विरासत को मान्यता देने के लिए पांच अक्तूबर, 2011 को बीसा का गठन किया गया था। अमेरिकी वैज्ञानिक बोरलॉग ने 1944 से 1963 तक बढ़ते तापमान के अनुकूल अत्यधिक उपज क्षमता वाले गेहूं की कई क्रमिक किस्में विकसित कीं। बोरलॉग और प्रख्यात भारतीय वैज्ञानिक प्रोफेसर एम. एस. स्वामीनाथन के बीच साझेदारी ने 1960 के दशक में भारत में उच्च उपज देने वाले गेहूं और चावल की किस्मों का विकास किया और देश में गंभीर खाद्य संकट दूर करने में मदद की।


बीसा का गठन भारत में अनुसंधान की रणनीति बनाने के लिए किया गया था, जिससे कि कम पानी, भूमि और ऊर्जा का उपयोग करते हुए दक्षिण एशिया में खाद्य उत्पादन दोगुना करने में मदद मिले। अभी इसके लुधियाना (पंजाब), जबलपुर (मध्य प्रदेश) और समस्तीपुर (बिहार) में अनुसंधान और विकास केंद्र हैं। बीसा के प्रबंध निदेशक डॉ. अरुण कुमार जोशी कहते हैं, 'बीसा का उद्देश्य नवीनतम आनुवंशिक, डिजिटल और संसाधन प्रबंधन तकनीकों का उपयोग करना है और इसके संस्थापकों-आईसीएआर और सीआईएमएमवाईटी की इच्छा के अनुसार, क्षेत्र की कृषि और खाद्य प्रणालियों को मजबूत करने के विकासात्मक नजरिये के लिए अनुसंधान का उपयोग करना है, ताकि उत्पादकता, लचीलापन, आजीविका और पोषण सुरक्षा जैसी भविष्य की मांगें पूरी की जा सकें।' 


दक्षिण एशिया में भारत के पड़ोसी देशों तक बीसा की पहुंच पहले ही अच्छे परिणाम दे चुकी है। इसके कुछ उदाहरण-लुधियाना स्थित बीसा फार्म से गेहूं की फसल को प्रभावित करने वाले पीले रतुआ के प्रतिरोध पर डाटा का उपयोग नेपाल, अफगानिस्तान और पाकिस्तान द्वारा किया गया है। सीआईएमएमवाईटी के वैश्विक गेहूं कार्यक्रम की मदद से बीसा में किए गए अनाज की उपज और अन्य लक्षणों के लिए आनुवंशिक भविष्यवाणी मूल्यांकन को 2020 से पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल तक बढ़ा दिया गया है। भारत में छात्रों, वैज्ञानिकों और किसानों के लिए प्रजनन और जलवायु प्रतिरोधी प्रौद्योगिकियों पर नियमित प्रशिक्षण आयोजित किए जाते हैं। बीसा के वैज्ञानिक नेपाल में जलवायु-प्रतिरोधी प्रौद्योगिकियों पर पाठ्यक्रम आयोजित करते हैं।


गोवर्ट्स कहते हैं, 'भारत ने पिछले दशकों में गेहूं के उत्पादन में अच्छा प्रदर्शन किया है और यह क्षमता निर्माण में मदद करने की स्थिति में है। लेकिन आज खाद्यान्न सुरक्षा संकट में है। खाद्य प्रणाली को तीन सी-कोविड, कॉन्फ्लिक्ट और क्लाइमेट चेंज से खतरा है। बीसा का गठन एक दूरदर्शी कदम था। यह कृषि में नए शोध को बढ़ावा देता है और दक्षिण एशियाई देशों को कृषि मुद्दे पर जुड़ने के लिए एक मंच प्रदान करता है।' एक प्रमुख चुनौती उर्वरक की कमी है, जो यूक्रेन और रूस के बीच चल रहे युद्ध के चलते अगले फसल चक्र में सामने आ सकती है। यूक्रेन पर रूस के हमले से पहले से ही उर्वरकों की कीमतें अधिक थीं। यूक्रेन में युद्ध ने स्थिति और बदतर बना दी, क्योंकि रूस दुनिया में नाइट्रोजन उर्वरक का सबसे बड़ा निर्यातक, पोटाशियम उर्वरक का दूसरा सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता और फॉस्फोरस उर्वरक का तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक है।


मौजूदा भू-राजनीतिक दौर दक्षिण एशिया और बीसा जैसी संस्थाओं को एक साथ आने और वैश्विक खाद्य संकट, जलवायु परिवर्तन की नई चुनौतियों और कृषि व्यापार में बदलती गतिशीलता से निपटने का एक अनूठा अवसर प्रदान करता है। समय ही बताएगा कि यह क्षेत्र इस अवसर का लाभ उठाता है या नहीं। 

सौजन्य - अमर उजाला।

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भारतीय ​शिक्षा व्यवस्थाकी बढ़ती जटिलताएं (बिजनेस स्टैंडर्ड)

अजित बालकृष्णन 

 भारतीय ​शिक्षा व्यवस्था वि​भिन्न प्रकार की जटिलताओं से दो-चार है। शैक्ष​णिक संस्थानों में दा​खिले की प्रतिस्पर्धा, ट्यूशन का बढ़ता चलन और कृत्रिम मेधा के इस्तेमाल के बारे में बता रहे हैं अजित बालकृष्णन


अगर आप चाहते हैं कि वरिष्ठ ​शिक्षाविदों का समूह एक दूसरे पर ​चीखे-चिल्लाए तो इसके लिए उनके सामने एक सवाल रख देना काफी है: क्या आप चाहते हैं कि एक 10 वर्ष के बच्चे को साइकिल चलाना सिखाने के पहले उसे भौतिकी में गति के नियमों का पूरा ज्ञान हो? ऐसे सवाल प्रतीकात्मक होते हैं और अक्सर ​शैक्ष​णिक नीति निर्माण के केंद्र में ऐसी ही बहस होती हैं: ‘क्या आपको नहीं लगता कि हमें बच्चों को रचनात्मक कथा लेखन सिखाने के पहले मिल्टन और शेक्सपियर का प्रमुख काम पढ़ाना चाहिए?’ ‘क्या आपको नहीं लगता कि हमें बच्चों को पाइथन प्रोग्रामिंग सिखाने के पहले उन्हें शब्दों के अर्थ निकालना समझाना चाहिए?’


मुझे लगता है कि ऐसी बहसों का होना बहुत जरूरी है। भारत की उच्च ​शिक्षा व्यवस्था मोटे तौर पर ​ब्रिटिश युग में तैयार की गई और इसलिए इसमें बुनियादी रूप से ज्ञान को कौशल से श्रेष्ठ मानने पर ब्रिटिशों का जोर भी हमें विरासत में मिला। ऐसे में सर्वा​धिक बुद्धिमान और योग्य बच्चे जिनमें परीक्षा में अ​धिक अंक पाने की काबिलियत होती है, वे इंजीनियरिंग कॉलेजों तथा ऐसे ही अन्य तकनीकी करियर में शामिल हो जाते हैं और जिन बच्चों को ऐसी परीक्षाओं में कम अंक मिलते हैं लेकिन वे ऐसे ही तकनीकी पाठ्यक्रमों में दा​खिला लेना चाहते हैं वे पॉलिटेक्नीक या व्यावसायिक पाठ्यक्रमों आदि में दा​खिला ले लेते हैं।


ऐेसे में आश्चर्य नहीं कि व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के माध्यम से पढ़ाई करने वाले बच्चों को नियमित विश्वविद्यालयों के स्नातक पाठ्यक्रमों में पढ़ाई करने वालों की तुलना में कमतर माना जाता है। मैंने अक्सर देखा है कि जब भी मैं अपने मित्रों को बताता हूं कि जर्मनी में चीजें एकदम अलग हैं तो उनके चेहरे पर असमंजस के भाव होते हैं। जर्मनी में 19 से 24 आयुवर्ग के 75 प्र​तिशत लोग औपचारिक रूप से व्यावसायिक प्र​शिक्षण लेते हैं जबकि भारत में यह आंकड़ा केवल पांच फीसदी है। भारत में एक और दिलचस्प कारक है जिसे मैं भी समझ नहीं पाया हूं: ट्यूशन क्लासेस की केंद्रीय भूमिका। फिर चाहे यह स्कूल के स्तर पर हो या किसी तरह के पाठ्यक्रम में प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए।


स्कूल के स्तर पर तथा कॉलेज के स्तर पर ट्यूशन पढ़ाने वाले ​शिक्षकों को मनोवांछित संस्थान में दा​खिले की दृ​ष्टि से तथा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने के लिहाज से बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। ऐसी निजी ट्यूशन कक्षाएं लगभग हर जगह होती हैं और शहरी और ग्रामीण स्कूलों तथा सरकारी, सरकारी सहायता प्राप्त तथा निजी स्कूलों में बहुत मामूली अंतर है। यहां तक कि प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चे भी ट्यूशन लेते हैं।


द​क्षिण भारत के राज्यों में इसका प्रतिशत कम है जबकि पूर्वी राज्यों में दोतिहाई या उससे अ​धिक स्कूली बच्चे ट्यूशन पढ़ते हैं। अ​धिकांश मामलों में ये बच्चे रोज ट्यूशन पढ़ते हैं। शोधकर्ताओं ने यह पता लगाने के कई प्रयास किए कि आ​खिर ट्यूशन को लेकर इतना आकर्षण क्यों है तो पता चला कि आमतौर पर खराब ​शिक्षण को इसकी वजह माना जाता है लेकिन इसकी सबसे आम वजह यह है कि चूंकि बाकी बच्चे ट्यूशन पढ़ रहे हैं इसलिए लोग अपने बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना चाहते हैं। भारत में यह आम मान्यता है कि परीक्षाओं में अच्छे अंक पाने के लिए निजी ट्यूशन जरूरी है।


क्या ट्यूशन में आपको कौशल या ज्ञान सिखाया जाता है? जहां तक मैं कह सकता हूं, ट्यूशन आपको पूछे जाने वाले संभावित सवालों के बारे में अनुमान लगाने में मदद करते हैं और आपको उनके उचित जवाब देने का प्र​शिक्षण देते हैं। वास्तविक प्रश्न है: क्या इससे ज्ञान हासिल होता है?


ज्यादा दिक्कतदेह बात यह है कि पिछले दशक में स्टार्टअप और वेंचर कैपिटल निवेश को लेकर बढ़े उत्साह के बीच ऐसे निवेश का बड़ा हिस्सा तथाक​थित एडटेक क्षेत्र में गया। इस क्षेत्र में जहां ज्यादातर कंपनियां ऑनलाइन ​शिक्षा को सरल ढंग से पेश करने की बात करती हैं, वहीं मूलरूप से ये परीक्षाओं की तैयारी कराने पर केंद्रित हैं। ऐसी स्टार्टअप को जो भारी भरकम मूल्यांकन हासिल हो रहा है उसे देखते हुए ऐसा लगता है मानो भारत में बच्चों के माता-पिता रुचि लेकर अपनी मेहनत की बचत को बच्चों के लिए ऐसी स्टार्टअप में लगा रहे हैं।


परंतु भारत में हम राजस्थान के कोटा जैसे संस्थानों पर नजर भी नहीं डालते जहां हर वक्त कम से कम एक लाख बच्चों को आईआईटी की प्रवेश परीक्षा निकालने की तैयारी कराई जाती है। करीब 10 लाख बच्चे इस परीक्षा में उतरते हैं और 10,000 सफल होते हैं। या देश भर में मौजूदा कोचिंग कक्षाएं जहां करीब पांच लाख बच्चे सिविल सेवा परीक्षाओं के 1,000 पदों की तैयारी करते हैं। या​ फिर नैशनल लॉ स्कूल की साझा प्रवेश परीक्षा जिसमें 75,000 से अ​धिक आवेदक 7,500 सीटों के लिए आवेदन करते हैं।


अच्छी हैसियत वाले लोग अपने बच्चों को इस तरह की प्रतिस्पर्धा से बचा लेते हैं और 25 लाख रुपये से अ​धिक शुल्क देकर उन्हें निजी विश्वविद्यालयों में दाखिल कराते हैं या फिर चार साल की पढ़ाई के लिए एक करोड़ रुपये से अ​धिक खर्च करके उन्हें विदेश भेज देते हैं।


हाल ही में चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने निजी और मुनाफा कमाने वाले कारोबारों को केजी से लेकर कक्षा नौ तक ऑनलाइन और ऑफलाइन ट्यूशन पढ़ाने से रोक दिया। इन नए दिशानिर्देशों में साफ कहा गया है कि प्राथमिक से माध्यमिक स्तर तक ऑफलाइन या ऑनलाइन ट्यूशन देने वाली सभी कंपनियों को खुद को गैर लाभकारी संस्था के रूप में पुनर्गठित करना होगा। दिशानिर्देश ऐसे कारोबारों को सप्ताहांत, अवकाश के दिन तथा गर्मियों और सर्दियों की छुट्टी में भी कक्षाएं आयोजित करने से रोकते हैं। यानी सभी तरह की पढ़ाई सप्ताहांत पर या सीमित घंटों के लिए होगी।


ऐसी बहसों के साये में एक संभावित चौंकाने वाली बात शायद कृत्रिम मेधा आधारित अलगोरिद्म की तलाश हो सकती है। दुनिया भर में शोध पर हो रही फंडिंग का करीब 80 फीसदी हिस्सा इसी क्षेत्र में जा रहा है। शुरुआती नतीजों के तौर पर कॉल सेंटरों में सभी इंसानी परिचालकों के स्थान चैटबॉट लेने लगे हैं। आप कल्पना कर सकते हैं कि अगले दो से पांच वर्ष में भारत की विशालकाय कॉल सेंटर अर्थव्यवस्था की क्या ​स्थिति होगी? इसके अलावा इस दिशा में भी काम चल रहा है कि इस समय जो काम अ​धिवक्ताओं, न्यायाधीशों और चिकित्सकों द्वारा किया जा रहा है उसका 90 प्रतिशत हिस्सा चैटबॉट को सौंपा जा सके। ध्यान रहे भारत के मध्य वर्ग में बड़ा हिस्सा ये काम करता है। 


भविष्य में इन सबके एक साथ होने से कैसी तस्वीर बनेगी? ट्यूशन कक्षाओं की बढ़ती अर्थव्यवस्था, देश के शीर्ष पेशेवर विश्वविद्यालयों में दा​खिले के लिए भारी प्रतिस्पर्धा, देश के निजी विश्वविद्यालयों में अनापशनाप शुल्क और कृत्रिम मेधा की बढ़ती भूमिका के जरिये विशेषज्ञ पेशेवरों को बेदखल किए जाने जैसी घटनाएं देखने को मिलेंगी। 


(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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चंद्र अभियान में देरी (हिन्दुस्तान)

नासा के चंद्र अभियान में आ रही बाधा से न केवल वैज्ञानिकों की व्यग्रता बढ़ रही है, बल्कि आधुनिक विज्ञान को लेकर सवाल भी उठने लगे हैं। क्या 50 साल पहले इस्तेमाल हुई तकनीक ज्यादा बेहतर थी और अब जिस तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है, वह यथोचित नहीं है? दो बार गैर-मानव अभियान टालने के बाद नासा ने घोषणा की है कि वह अंतरिक्ष में आर्टेमिस को लॉन्च करने का प्रयास करने के लिए दो तारीख, 23 सितंबर या 27 सितंबर पर विचार कर रहा है। आर्टेमिस अभियान की सफलता चंद्रमा और उससे आगे मानव अस्तित्व का विस्तार करने के लिए नासा की प्रतिबद्धता व क्षमता को प्रदर्शित करेगी। नासा को अपना मिशन मून, यानी आर्टेमिस-1 दोबारा टालना पड़ा था, क्योंकि दोबारा फ्यूल लीक की समस्या वैज्ञानिकों के सामने आ गई। कहने की जरूरत नहीं कि आर्टेमिस अभियान के जरिये वैज्ञानिक 50 साल बाद फिर से इंसानों को चांद पर भेजने की तैयारी कर रहे हैं। 2025 में मानव को फिर चांद पर भेजने की योजना है, पर  उससे पहले मानव रहित यान का चांद पर जाना व लौटना जरूरी है।  


आखिर अगली लॉन्चिंग के लिए इंतजार क्यों करना पड़ रहा है? तकनीक की तो अपनी समस्या है ही, इसके अलावा तारों की स्थिति को भी देखना पड़ता है, ताकि प्रक्षेपण के बाद यान सही जगह उतर सके और रास्ते में किसी दुर्घटना का शिकार न हो। अंतरिक्ष में भेजे जाने वाले किसी भी यान का उड़ान पथ धरती और चंद्रमा, दोनों के गुरुत्वाकर्षण पर भी निर्भर करता है। समायोजन ठीक होना चाहिए, तभी यान को टकराने से बचाया जा सकता है। इस हिसाब से अनुकूल स्थिति 19 सितंबर के बाद बनेगी। बहरहाल, बड़ी चुनौती ईंधन लीकेज को रोकना है। यह तो अच्छा है कि उड़ान से पहले ही लीकेज का पता चल जा रहा है और अभियान को टालकर यान व प्रक्षेपण यान की रक्षा की जा रही है। 50 साल पहले वाली तकनीक भले बहुत जटिल थी, पर तब सफलता मिली थी। अब तकनीक अत्याधुनिक है और ईंधन गुणवत्ता में भी परिवर्तन आया है, इसलिए महारत हासिल करने में थोड़ा वक्त लगेगा। वैज्ञानिक मान रहे हैं कि नासा ही नहीं, तमाम वैज्ञानिक बिरादरी को धैर्य रखना होगा।


अमेरिका के अलावा चीन भी अंतरिक्ष मिशन में दिलोजान से लगा है और उसकी हालिया सफलताएं आकर्षित कर रही हैं। चीन अभी नासा से पीछे है, पर गौर करने की बात है कि 2019 में चीन चंद्रमा के सबसे दूर क्षेत्र में एक अंतरिक्ष यान को सुरक्षित रूप से उतारने वाला पहला देश बन गया था। भारत के चंद्रयान-2 को अगर सफलता मिली होती, तो भारत भी होड़ में आगे रहता। गौरतलब है कि चंद्रयान-1 अभियान साल 2008 में सफल रहा था। उस यान के जरिये चांद की परिक्रमा करते हुए भारत ने चांद पर पानी के ठोस साक्ष्य हासिल किए थे। हमारे अभियान चंद्रयान-2 से बहुत उम्मीदें थीं, लेकिन अंत समय में यह चांद के करीब पहुंचकर क्रैश लैंडिंग का शिकार हुआ। बताया जाता है कि चंद्रयान-1 और चंद्रयान-2 के बीच तकनीकी परिवर्तन किया गया था। हमें यह ध्यान रखना होगा कि ऐसे अभियान बहुत महंगे होते हैं और इनकी सफलता पर सबकी निगाह होती। सफल तकनीक में आमूलचूल परिवर्तन के बजाय, उसे ही विकसित करना चाहिए। आज के समय में वैज्ञानिकों के बीच प्रतिस्पद्र्धा से भी ज्यादा जरूरी है एक-दूसरे से सीखना, तभी अंतरिक्ष विज्ञान में जल्दी सफलता मिलेगी और उसका लाभ सभी तक पहुंचेगा।


सौजन्य - हिन्दुस्तान।


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बेंगलुरु की चमक पर फिर गया पानी (हिन्दुस्तान)

पिछले हफ्ते बेंगलुरु वालों के दिन दुखदायी जलभराव के बीच बीते। चारों ओर ट्रैफिक जाम की स्थिति थी, सुरक्षित स्थान पर जाने के लिए संपन्न लोग ट्रैक्टर, बुलडोजर और नाव का सहारा ले रहे थे, फाइव स्टार होटल बुकिंग से भरे पड़े थे, और गरीब हमेशा की तरह अपने हाल पर छोड़ दिए गए।


इस दौरान नेतागण एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप में जुटे रहे। मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने पिछली कांग्रेस सरकार पर इसका ठीकरा फोड़ा और कहा कि बाढ़ की स्थिति ‘उसके कुप्रबंधन’ के कारण पैदा हुई। जवाब में विपक्ष ने भाजपा को निशाने पर लिया और राज्य में ‘राष्ट्रपति शासन’ लगाने की मांग की। यह टीका-टिप्पणी बहुत जल्द निरर्थक जंग में बदल गई। कुछ कांग्रेसी नेताओं ने तेजस्वी सूर्या के खिलाफ ट्विटर पर मोर्चा खोल दिया और आरोप लगाया कि भाजपा सांसद के पास डोसा खाने और उसके बारे में बताने, राहुल गांधी की पदयात्रा की आलोचना करने, हर चीज के लिए पंडित नेहरू को दोष देने का पर्याप्त समय तो है, लेकिन बाढ़ में घिरे लोगों को राहत पहुंचाने का वक्त नहीं है।

कुछ दृश्य वाकई अरुचिकर थे। आप कितनी बार अमीरों (लखपति नहीं, बल्कि करोड़पति) या नामचीनों के लिए यह सुनते हैं कि उन्हें अपने पांव को सूखा रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है? इसीलिए मर्सिडीज और ऑडी की जगह ट्रैक्टर और नाव ने ले ली थी। होसुर-सरजापुर रोड लेआउट (एचएसआर लेआउट) तो सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ, जो अमीरों का आवासीय क्षेत्र  और बेंगलुरु के इलेक्ट्रॉनिक सिटी का प्रवेश-द्वार माना जाता है। एप्सिलॉन व दिव्यश्री जैसे महंगे रिहायशी इलाके भी डूबे रहे। अनएकेडमी के सीईओ गौरव मंुजाल ने कहा कि उन्हें, उनके परिवार और पालतू कुत्ते को टैक्टर से बचाया गया। कई उद्यमियों और सीईओ को पानी में उतरते देखा गया।

इसकी वजह हमारे लिए कोई अबूझ नहीं है। जलवायु परिवर्तन, खराब शहरी नियोजन, खस्ता जल-निकासी व्यवस्था, भ्रष्ट प्रशासन, राजनेता व बिल्डर की जुगलबंदी, अनियोजित शहरी विस्तार, लालच आदि के कारण बेंगलुरु को इस तरह से डूबना-उतराना पड़ा। मानवीय संकट के अलावा, इसमें माल-असबाब का भी खूब नुकसान हुआ। करीब 25,000 कारें पानी में डूबीं, और यह अब तक साफ नहीं है कि उनमें से कितनी ठीक हो सकती हैं। गरीबों का सामान बहना तो और भी कष्टदायक रहा।

जलवायु परिवर्तन और उसका प्रभाव निस्संदेह इसका एक प्रमुख कारण है, हालांकि कई इससे अब भी इनकार करते हैं। आंकड़े बताते हैं कि बारिश की आवृत्ति, यानी बरसने की दर बढ़ी है। विशेषज्ञ मानते हैं कि जो परिघटनाएं पहले 200 साल में एक बार होती थीं, अब उनकी अवधि घटकर 100 साल हो गई है। और, जो घटना 100 साल में एक बार होती थी, अब 50 या 25 साल में होने लगी है। कुछ मौसमी परिघटनाएं तो अब हर साल घटने लगी हैं।

जलवायु परिवर्तन का असर विकसित और विकासशील सहित दुनिया भर के शहरों में देखा जा रहा है। विडंबना है कि अमीर राष्ट्रों ने प्रकृति का सबसे अधिक दोहन किया, जबकि इसका नुकसान विकासशील देशों को सबसे अधिक उठाना पड़ रहा है। ऐसा इसलिए, क्योंकि अमीर देशों ने नुकसान को कम करने का बुनियादी ढांचा तैयार कर लिया है। वहां सड़कें इस कदर बनाई जा चुकी हैं कि जलभराव नहीं होता। वहां राहत-कार्य तुरंत पहुंचाए जाते हैं। आपातकालीन सेवाएं यह सुनिश्चित करती हैं कि किसी की जान न जाए। और, बुजुर्गों एवं गरीबों का विशेष ख्याल रखा जाता है। विकासशील देश इन तमाम सुविधाओं के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं, जिस कारण ज्यादातर प्राकृतिक आपदाओं में लोग खासा प्रभावित होते हैं। संपन्न देशों में शहरी नियोजन को भी गंभीरता से लिया जाता है। वे निर्माण-कार्यों में इलाके के भौगोलिक चरित्र को बनाए रखने का हरसंभव प्रयास करते हैं। इससे पानी बेजा बहता नहीं है, बल्कि वह मिट्टी में अवशोषित हो जाता है।

बेंगलुरु कभी ‘बगीचों और झीलों का शहर’ माना जाता था। अंग्रेज यहां आराम व मनोरंजन करने आया करते थे। मगर अब इसका रूप-रंग बदल गया है। 1.3 करोड़ की आबादी वाले इस शहर में 189 झीलें हैं, जिनमें से अधिकांश का निर्माण 16वीं सदी में हुआ है। चेन्नई और मुंबई जैसे तटीय शहरों के उलट यह ऊंचाई पर है और इसीलिए कहीं अधिक संवेदनशील है। यहां की झीलों को राजकालुवे (नहरों) जोड़ते हैं, जो कभी यह सुनिश्चित करते थे कि बिना बाढ़ लाए पानी एक से दूसरे स्थान की ओर बह जाए। आंकड़े बताते हैं कि 890 किलोमीटर के राजकालुवे का अब बमुश्किल 50 फीसदी हिस्सा काम करता है, क्योंकि उसकी साफ-सफाई न किए जाने के कारण समय के साथ वे बेकार हो गए। यह शहर भारत का ‘सिलिकॉन वैली’ है और यहां नहरों में कई तरह के सेंसर भी लगाए गए हैं, जिनको उचित समय पर (जब नहर की क्षमता का 75 फीसदी पानी जमा हो जाए) पर चेतावनी भेजनी चाहिए। मगर लगता है कि इन सेंसरों ने भी काम नहीं किया।

इसमें भ्रष्ट व्यवस्था का अपना योगदान है। रिपोर्टें बताती हैं कि जमींदारों, कुछ पुराने सामंतों ने अपनी काफी जमीन बिल्डरों को बेच दी, जिनमें झील का डूब क्षेत्र, निचले इलाके आदि भी शामिल थे। इन जमीनों पर बनी चमकदार इमारतों ने जल निकासी और प्राकृतिक जल-मार्गों को अवरुद्ध कर दिया है। कुछ इलाकों में तो स्थानीय निकाय की अनुमति के बिना निर्माण-कार्य किए गए हैं। यहां कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि बेंगलुरु ही नहीं, पूरे भारत की यही सच्चाई है। देश भर में जहां-तहां ऐसा होता है, क्योंकि हमारी आबादी बड़ी है और भूमि पर दबाव है। 

मगर भारतीय विज्ञान संस्थान (बेंगलुरु) में पारिस्थितिक विज्ञान विभाग के प्रमुख टीवी रामचंद्र ने कई अध्ययन करके बताए हैं कि बेंगलुरु में क्यों बार-बार बाढ़ आती है? उन्होंने मुख्यत: यहां की झीलों के कायाकल्प के साथ-साथ शहरी नियोजन में सुधार करने के उपाय सुझाए हैं। इससे न सिर्फ अत्यधिक बारिश में बाढ़ से बचा जा सकेगा, बल्कि गरमी में पानी की किल्लत भी नहीं होगी। साफ है, स्थानीय प्रशासकों को कहीं दूर देखने के बजाय अपने आसपास इस समस्या का समाधान खोजना चाहिए।  

(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

सौजन्य - हिन्दुस्तान।


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Thursday, October 21, 2021

ईंधन कीमतों में हो सुधार (बिजनेस स्टैंडर्ड)

केंद्र सरकार द्वारा एयर इंडिया के संपूर्ण निजीकरण को मंजूरी दिए जाने से इस बात की आशा काफी बढ़ गई कि भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (बीपीसीएल) का विनिवेश भी प्रभावी ढंग से और योजना के मुताबिक इस वित्त वर्ष के समाप्त होने के पहले हो जाएगा। इसके बावजूद ईंधन अर्थव्यवस्था के प्रबंधन के व्यापक प्रश्न हैं जिन्हें फिलहाल पूछा जाना चाहिए। सबसे बड़ा सवाल पेट्रोल, डीजल और तरल पेट्रोलियम गैस अथवा एलपीजी की कीमतों के प्रबंधन से जुड़ा है। तथ्य यह है कि हाल केे वर्षों में जहां इन कीमतों को तकनीकी तौर पर नियंत्रण मुक्त किया गया है, वहीं इसी अवधि में राजनीतिक तौर पर संवेदनशील मौकों मसलन अहम विधानसभा चुनाव आदि के समय कीमतों में बदलाव को स्थगित भी रखा गया। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि तीन सरकारी तेल विपणन कंपनियों को पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को लेकर केंद्र सरकार से निर्देश मिलते हैं। यद्यपि कीमतों पर नियंत्रण की व्यवस्था पहले ही समाप्त हो चुकी है और कंपनियां पंप पर अपने स्तर पर कीमत तय करती हैं।

एक तथ्य यह भी है कि बीपीसीएल के लिए सफल बोली लगाने वाला बोलीकर्ता अधिकतम मुनाफे के हिसाब से कीमत तय करना चाहेगा और उसका यह सोचना सही होगा कि सरकारी नीतियां ईंधन के व्यापक बाजार को दो सरकारी तेल विपणन कंपनियों की ओर सीमित नहीं करेंगी। फिलहाल कच्चे तेल की कीमतों में वैश्विक तेजी और उच्च घरेलू करों के कारण 'अंडर रिकवरी' (पेट्रोलियम पदार्थों की बिक्री पर होने वाला नुकसान) दोबारा पैदा हो गई है। तेल विपणन कंपनियों को न केवल प्रति लीटर बिकने वाले पेट्रोल और डीजल पर अंडर रिकवरी का प्रबंधन करना पड़ रहा है बल्कि उन्हें खुदरा बाजार में बिकने वाले हर गैस सिलिंडर पर भी 100 रुपये का नुकसान सहन करना पड़ रहा है। यह व्यवस्था बीपीसीएल के विनिवेश के बाद जारी नहीं रहने दी जा सकती। यदि मुनाफे की चाह में बीपीसीएल प्रति लीटर कीमत को वाणिज्यिक हकीकतों के अनुरूप रखती है तो उसे सरकारी कंपनियों के समक्ष मुश्किल का सामना करना होगा क्योंकि वे कीमत के मामले में सरकार से निर्देश लेंगी जिससे जाहिर तौर पर बाजार में अस्थिरता आएगी। एलपीजी का बाजार और भी दिक्कतदेह है क्योंकि सरकार का जोर कीमतों को तयशुदा स्तर पर रखने पर है। सरकार को अभी सरकारी तेल विपणन कंपनियों को वह राशि भी लौटानी है जो उन्होंने प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत गंवाई। यह राशि करीब 3,000-4,000 करोड़ रुपये है।


सच यह है कि एक ओर तो सरकार ने कीमत पर नियंत्रण के कुछ तत्त्व बरकरार रखने का प्रयास किया है तो वहीं दूसरी ओर उसने ईंधन कर के माध्यम से राजस्व की कमी की भरपाई करने का भी प्रयास किया है। इसमें दो राय नहीं कि कार्बन पर उच्च कर लगाना अच्छी बात है लेकिन इसे तार्किक होना चाहिए तथा समूची अर्थव्यवस्था पर प्रभावी होना चाहिए। इसे केवल राजकोषीय वजहों से लगाना उचित नहीं। प्रभावी ढंग से देखें तो सरकार ने केवल उपभोक्ताओं को नहीं बल्कि राजनीतिक वजहों से मध्यवर्ती कंपनियों का भी दोहन किया है। ईंधन कीमतों को तार्किक बनाना काफी समय से लंबित है। यह कैसे होगा इसके बारे में पहले से पर्याप्त जानकारी है: वैश्विक ईंधन कीमतों का उपभोक्ताओं तक सीधा पारेषण होने दिया जाए, तेल विपणन कंपनियां बहुत कम मार्जिन पर प्रतिस्पर्धा करें, एक निरंतरता भरा ईंधन कर हो जिसमें कार्बन की कीमत शामिल हो और जिसे केंद्र और राज्य साझा करें, तथा पेट्रोल, डीजल और एलपीजी की ऊंची कीमतों से सर्वाधिक प्रभावित वर्ग के लिए केंद्रीय बजट से परे प्रत्यक्ष सब्सिडी की व्यवस्था हो। बीपीसीएल का विनिवेश इन दीर्घकाल से लंबित कर और कीमत सुधार को प्रस्तुत करने का सही अवसर है।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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पूर्वी पड़ोस में नफरत की बयार ( हिन्दुस्तान)

सुशांत सरीन, सीनियर फेलो, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन 

 

एक धर्मग्रंथ के कथित अपमान के बाद बांग्लादेश के चटगांव डिविजन के कमिला से शुरू हुई सांप्रदायिक हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही। दुर्गा पूजा के पंडालों के बाद अब हिंदू धर्मावलंबियों के घरों को भी निशाना बनाया जाने लगा है। बांग्लादेश की हुकूमत मामले की जल्द जांच कराने और दोषियों को सख्त सजा देने का वायदा लगातार कर रही है। मगर ऐसी बातें बहुत ज्यादा भरोसा नहीं पैदा कर पा रहीं, क्योंकि बांग्लादेश का मूल चरित्र इसकी मुखालफत करता है।



दरअसल, बांग्लादेश की राजनीति का एक अहम तत्व है, अकलियतों को निशाने पर लेना। 1947 के बाद से वहां (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) अल्पसंख्यकों का एक तरह से धीमे-धीमे कत्लेआम किया गया है। 1951 की जनगणना में पाकिस्तान के इस हिस्से में हिंदुओं की आबादी लगभग 22 फीसदी थी, लेकिन अब बांग्लादेश की कुल आबादी में उनकी हिस्सेदारी घटकर करीब 8.5 प्रतिशत हो गई है। अगर वहां अल्पसंख्यक महफूज होते, तो उनकी आबादी का प्रतिशत या तो बाकी जनसंख्या के साथ बढ़ता या फिर उसमें कमी आती भी, तो वह बहुत मामूली होती। मगर पिछले सात दशकों का दमन ही है कि वहां के अल्पसंख्यक जलावतन को मजबूर हैं। आलम यह है कि अकलियतों को निशाना बनाया जा रहा है, उनकी संपत्ति हथियाई जा रही है और उन पर तमाम तरह के जुल्म ढाए जा रहे हैं। तरक्की और जनसंख्या को काबू में रखने के बांग्लादेश के दावे के पीछे भी यही गणित है। अगर अल्पसंख्यकों की आबादी लगभग 15 फीसदी कम हो जाए, तो कुल जनसंख्या का प्रतिशत खुद-ब-खुद काफी अच्छा हो जाएगा। मगर मुश्किल यह है कि राजनीतिक, कूटनीतिक, या सियासी अवसरवादिता के कारण न तो स्थानीय स्तर पर और न वैश्विक मंचों पर इसके खिलाफ आवाज उठाई जाती है। 

बांग्लादेश जब पाकिस्तान का हिस्सा था, तब वहां के पंजाबी और पठान अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते थे। पिछली सदी के 70 के दशक के मुक्ति युद्ध के बाद जब एक आजाद मुल्क के तौर पर बांग्लादेश उभरा, तब भी यह सिलसिला थमा नहीं और मुस्लिम बहुल बंगाली ऐसी हिमाकत करने लगे। यह स्थिति तब थी, जब भारत ने उसकी आजादी में निर्णायक भूमिका निभाई थी। वहां अक्सर बड़े पैमाने पर दंगे होते हैं। अल्पसंख्यकों को न पुलिस से कोई सुरक्षा मिलती है, न सरकार से और न ही अदालत से। पंजाबी और पठानों की तरह मुस्लिम बहुल बंगाली भी जमात-ए-इस्लामी व अन्य इस्लामी तंजीमों की मदद से अल्पसंख्यकों को नुकसान पहुंचाते रहे हैं। लिहाजा, कमिला तो सिर्फ एक बहाना है। वहां असल मकसद अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाना था। इसीलिए, धर्मग्रंथ की बेअदबी की कथित घटना को प्रचारित किया गया। 

इन्हीं सब वजहों से इस मुल्क ने बार-बार पलायन का सैलाब देखा है। वहां की जम्हूरी हुकूमत तो कभी-कभी अराजक तत्वों के खिलाफ काम करती हुई दिखती भी है, मगर जब वहां सैन्य शासक सत्ता सभालते हैं या इस्लाम-पसंद तंजीमों के हाथों में सत्ता-संचालन का काम आता है, तब हालात और ज्यादा खराब हो जाते हैं। अवामी लीग के साथ अच्छी बात यह रही है कि हिंदुओं के अपने पारंपरिक वोट बैंक को बनाए रखने के लिए यह कभी-कभी धार्मिक कट्टरता ओढ़े गुटों पर कार्रवाई करती दिखती है। हालांकि, खुद पार्टी के अंदर ऐसे तत्व सक्रिय रहे हैं, जो जमकर गुंडागर्दी करते थे, और सियासी मजबूरियों के चलते पार्टी आलाकमान को भी चुप्पी साधनी पड़ती है। आज भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। अपनी बहुसंख्यक आबादी को तुष्ट करने के लिए सरकार कई तरह के काम कर रही है। प्रधानमंत्री शेख हसीना के पास भारत पर उंगली उठाने की वजहें तो हैं, पर वह अपने गिरेबान में झांकना पसंद नहीं कर रहीं। संभवत: इसकी वजह बांग्लादेश का एक इस्लामी राष्ट्र होना है। शेख हसीना ने इस्लामी तंजीमों के खिलाफ कुछ कदम उठाए हैं, तो इसलिए नहीं कि वे अकलियतों को निशाना बनाती हैं, बल्कि इसलिए, क्योंकि इन तंजीमों का उभार उनकी अपनी राजनीति के मुफीद नहीं है। इसका लाभ भी उनको मिला है। न सिर्फ मुल्क के अंदर अमनपसंद लोगों ने, बल्कि भारत जैसे देशों ने भी उन पर भरोसा किया है।

हालांकि, 2019 में जब भारत में नागरिकता संशोधन कानून बना और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की बहस तेज हुई, तब बांग्लादेश का रवैया हौसला बढ़ाने वाला नहीं था। यह कानून पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के उन अल्पसंख्यक शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने की वकालत करता है, जो किसी न किसी कारण से अपनी मूल भूमि से भागकर यहां आए हैं। इसके अलावा, गैर-कानूनी रूप से यहां रहने वाले शरणार्थियों को वापस अपने मुल्क भेजने की जरूरत पर भी बल देता है। जाहिर है, इससे आर्थिक शरणार्थी बनकर आए उन लाखों-करोड़ों मुसलमानों को वापस लौटना होगा, जो रोजगार की तलाश में यहां हैं। बांग्लादेश इसी के खिलाफ है और इसके कारण दोनों देशों के रिश्तों में हाल के समय में खटास भी आई है।

ऐसे में, अच्छा तो यही होगा कि भारत सीएए और एनआरसी पर आगे बढ़े, ताकि बांग्लादेश में निशाना बनाए जा रहे हिंदू, बौद्ध जैसे अल्पसंख्यकों को राहत मिल सके। हालांकि, सीएए में 31 दिसंबर, 2014 तक की समय-सीमा मुकर्रर की गई है, यानी इसमें 2014 की 31 दिसंबर से पहले आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने की व्यवस्था है। तो क्या यह मान लिया जाए कि 2015 के बाद वहां अल्पसंख्यकों का दमन नहीं हुआ है? लिहाजा, सीएए में संशोधन की सख्त दरकार है।

चूंकि हमारी यह नीति है कि हम दूसरे देश के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देते, इसलिए हमारा दूसरा कदम यह हो सकता है कि हम गैर-कानूनी रूप से यहां मौजूद शरणार्थियों को जल्द से जल्द वापस भेज दें। बांग्लादेश से आने वाली आबादी को नियंत्रित करना इसलिए भी आसान है, क्योंकि वे बीच-बीच में सीमा पार जाकर अपने परिजनों से मिलते रहते हैं। हमारी हुकूमत चाहे, तो उनकी पहचान करके उन्हें फिर से भारत की सीमा में दाखिल होने से रोक सकती है। यह काम अविलंब करना होगा, क्योंकि गैर-कानूनी रूप से यहां मौजूद शरणार्थियों का बुरा असर हमारे पूर्वोत्तर के राज्यों पर भी पड़ता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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चुनाव लड़ाने का बड़ा एलान ( हिन्दुस्तान)

सुभाषिनी अली, पूर्व सांसद 

 

उत्तर प्रदेश के आसन्न विधानसभा चुनाव के संदर्भ में, कांग्रेस पार्टी की नेता प्रियंका गांधी ने एलान किया है कि पार्टी 40 प्रतिशत सीटों पर महिलाओं को टिकट देगी। उन्होंने यह भी कहा कि उनका बस चलता, तो वह 50 फीसदी सीटों पर महिला उम्मीदवार उतारतीं। कई लोगों ने कांग्रेस पार्टी के इस फैसले का स्वागत करते हुए कहा है कि इससे सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी। हालांकि, यह बात सही नहीं है, फिर भी यह घोषणा इस मामले में स्वागत-योग्य है कि इसने महिलाओं के चुनाव लड़ने के अधिकार को लेकर होने वाली चर्चा को एक लंबे अंतराल के बाद फिर से शुरू कर दिया है।



किसी भी प्रजातंत्र को प्रभावशाली और अर्थपूर्ण बनाने के लिए यह आवश्यक है कि उसमें समाज के तमाम हिस्सों को प्रतिनिधित्व का अधिकार प्राप्त हो। यही वजह है कि हमारे संविधान ने दलितों और आदिवासियों के लिए लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में उनकी संख्या के अनुपात में सीटों के आरक्षण को अनिवार्य बनाया। अगर ऐसा न किया गया होता, तो सामाजिक विषमता के चलते इन हिस्सों के लोगों को विधायी सदनों में पहुंचने का मौका ही नहीं मिलता। लेकिन हमारे समाज के कई ऐसे हिस्से हैं, जिन्हें अब भी प्रतिनिधित्व के अधिकार से वंचित रखा जा रहा है। हर चुनाव में यह देखने को मिलता है कि मतदान में खड़े होने और जीतने वाले अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों की संख्या घटती जा रही है; अरबपतियों और खरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है और आम मजदूरों व किसान परिवारों के सदस्यों की संख्या बहुत कम या न के बराबर हो गई है। यही नहीं, देश की आबादी का आधा हिस्सा, यानी महिलाएं, लोकसभा और विधानसभाओं में बहुत हद तक अदृश्य हैं। इसका साफ मतलब है कि हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था अनवरत सिकुड़ रही है और उस पर कुछ विशेष तबके के पुरुषों का वर्चस्व बढ़ रहा है। यह हमारी जनवादी प्रणाली के लिए बहुत ही खतरनाक संकेत है। इससे पार पाना बहुत ही जरूरी है।

इसी संदर्भ में महिलाओं के आरक्षण के सवाल को देखा जाना चाहिए। किसी भी विधानसभा और लोकसभा में चुनी हुई महिलाओं की संख्या 15 प्रतिशत से अधिक नहीं रही है। इसका यही अर्थ है कि महिलाओं को उनके प्रजातांत्रिक अधिकार से, प्रतिनिधित्व करने के अधिकार से, वंचित रखा जा रहा है। साल 1996 में, यानी 25 साल पहले, विधानसभाओं और लोकसभा में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए लोकसभा में विधेयक प्रस्तुत किया गया था। लेकिन तब से लेकर आज तक उसे पारित नहीं किया जा सका है। इसके पीछे पुरुष प्रधानता की सोच के अलावा कोई दूसरा कारण नहीं है, और वामपंथी दलों को छोड़कर बाकी तमाम राजनीतिक पार्टियों पर यह सोच किस हद तक हावी है, इसका स्पष्ट एहसास तब होता है, जब महिला आरक्षण विधेयक को लोकसभा के पटल पर रखा जाता है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 40 फीसदी महिला उम्मीदवारों को उतारने की बात कहने वाली प्रियंका गांधी की कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी, दोनों के नेतृत्व वाली सरकारों (क्रमश: संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) ने इस विधेयक को पारित करने से परहेज किया है। निश्चित तौर पर इससे हमने अपने प्रजातंत्र को मजबूत करने का मौका अनेक बार गंवाया है।

फिलहाल, हमारे देश में पंचायतों, नगर पालिकाओं और नगर निगमों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित हैं। इसने समाज को काफी फायदा पहुंचाया है। इससे कई तरह के बड़े परिवर्तन संभव हुए हैं। एक तो, हर तबके की महिलाओं ने बड़ी संख्या में सार्वजनिक जीवन में प्रवेश पाया है। जहां भी उन्हें स्वतंत्र रूप से काम करने का मौका मिला, उन्होंने अपनी योग्यता और निष्ठा का जबरदस्त परिचय दिया है। यही कारण है कि केरल जैसे प्रांत में उनकी संख्या 42 प्रतिशत तक पहुंच गई, क्योंकि सीट के अनारक्षित हो जाने के बाद भी अच्छा काम करने वाली महिला ने चुनाव जीतकर दिखा दिया है। अब तो कई राज्यों ने इन सीटों को 50 फीसदी तक बढ़ा दिया है, इससे निचले स्तर पर महिलाओं को बल मिला है। 

हालांकि, यहां यह याद रखना भी आवश्यक है कि भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा है, जिसे महिलाओं का इस तरह से सार्वजनिक क्षेत्र के एक बड़े हिस्से पर कब्जा करना या आगे बढ़ना रास नहीं आया है। ऐसे लोग लगातार इन चुनी हुई महिलाओं की आलोचना करते हैं। वे वक्त-वक्त पर कहते रहते हैं कि महिलाएं मोहरा होती हैं, वे निक्कमी होती हैं, वे भ्रष्ट होती हैं इत्यादि। ऐसा लगता है कि इन महिलाओं ने ही अपने आप को मोहरा बना दिया है। इसमें पुरुष प्रधानता और प्रशासनिक उदासीनता का कोई हाथ नहीं है और चुने हुए पुरुष तो ईमानदारी व कार्य-निष्ठा के प्रतीक हैं! 

जहां एक तरफ, महिला आरक्षण को बढ़ाया जा रहा है, वहीं इसको सीमित करने की कोशिशें भी खूब चल रही हैं। हरियाणा जैसे राज्य में तो महिला उम्मीदवारों के सामने 10वीं पास होने की शर्त रखी जा रही है, मानो उनके कम पढ़े-लिखे होने की मूल वजह सरकारी नीतियां नहीं, बल्कि उनकी अपनी कमजोरी है। ऐसे प्रयासों को हतोत्साहित किए जाने की जरूरत है। साफ है, हमारे लोकतंत्र को संकीर्ण बनाने और उसे विस्तृत करने वाली ताकतों के बीच लगातार खींचतान चल रही है। आजादी के इस 75वें साल में, जहां चौतरफा जश्न मनाया जा रहा है, इस बात पर चिंता जताने की भी सख्त जरूरत है कि हमारे लोकतंत्र को संकीर्ण और निहित स्वार्थों के अधीन बनाने की कोशिशें आज के दौर में ज्यादा प्रभावी दिख रही हैं। इसकी दिशा को पलटना जनवादी ताकतों के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। इस चुनौती को स्वीकार करने वालों को महिलाओं के प्रतिनिधित्व के सवाल को भी अपने संघर्ष का अहम हिस्सा बनाना होगा।

(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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Monday, August 9, 2021

भारत को विश्वास आधारित शासन प्रणाली की जरूरत (पत्रिका)

(लेखक नीति अनुसंधान एवं पैरवी संस्था 'कट्स' के महामंत्री हैं )

प्रधानमंत्री ने करगिल दिवस पर 'भारत जोड़ो अभियान' Connect India Campaign का आह्वान किया था। इस आह्वान के दो अर्थ समझ में आते हैं , पहला, सबके बीच विश्वास पैदा करना और दूसरा देश में सबके साथ मिलजुल कर काम करना। हम अपने देश में विश्वास आधारित शासन कैसे स्थापित कर सकते हैं? इस सवाल का उत्तर 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' नारे में दिखाई देता है। इस विचारधारा को हर स्तर पर मजबूत करने की जरूरत है। इस सन्दर्भ में हमें कुछ कदम उठाने की आवश्यकता है।

देश में सामाजिक सद््भाव और संतुलन स्थापित करना सबसे जरूरी है, ताकि प्रत्येक नागरिक शांति से अपना जीवनयापन कर सके। एक सक्रिय उपभोक्ता की तरह वह अर्थव्यवस्था में अपना योगदान दे सके। साथ ही डेटा और सांख्यिकीय प्रणाली को सटीक बनाना भी जरूरी है। चूंकि स्वास्थ्य, शिक्षा और कौशल विकास राज्य की सूची से जुड़े विषय हैं। इसलिए केंद्र सरकार राज्यों को उदारतापूर्वक संसाधन को उपलब्ध कराए। सरकार को जीएसटी परिषद को एक राज्य वित्त मंत्री परिषद में परिवर्तित करना होगा, जिसकी अध्यक्षता पुरानी वैट परिषद की तरह एक राज्य के वित्त मंत्री द्वारा की जाए। इस परिषद के क्षेत्राधिकार में जीएसटी से जुड़े व अन्य वित्तीय मामले होने चाहिए। वित्त आयोग को एक प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री की अध्यक्षता में एक स्थाई निकाय में बदलना होगा, जो बजटीय आवंटन, जवाबदेही आदि को आधिकारिक रूप से संभाले।

हमें प्रशासनिक सुधारों की आवश्यकता है। अभी के प्रशासनिक अधिकारी विकास की मानसिकता के साथ शासन करने में अक्षम हैं । इनमें से अधिकतर को जवाबदेही के विपरीत प्रशिक्षित किया जाता है, जिससे सिस्टम में जवाबदेही की कमी रहती है। रंगे हाथों भष्टाचार व दुर्भावना के मामलों को छोड़कर, गलती करने वालों को शायद ही दण्डित किया जाता है। भ्रष्ट अधिकारी प्रभावी जवाबदेही प्रणाली के अभाव में बहाल ही नहीं, पदोन्नत तक हो जाते हैं। जैसा कि हम 'सम्पूर्ण सरकार' के दृष्टिकोण पर जोर देते हंै। इस दृष्टिकोण को शासन प्रणाली में सम्मिलित करने के लिए पीएमओ और सीएमओ में एक नीति समन्वय इकाई की जरूरत है। इसकी अध्यक्षता एक विख्यात विशेषज्ञ द्वारा होनी चाहिए, ताकि नीति समन्वय में मदद मिल सके और निवेशकों की शिकायतों का समाधान हो सके। भ्रष्टाचार और गैर-समावेशी तरीके से तैयार किए गए कानून हमारे व्यवसाय करने व जीवनयापन में प्रमुख बाधाएं हैं। वास्तव में, 1991 के आर्थिक सुधारों ने हमारी अर्थव्यवस्था को लाइसेंस राज से तो मुक्त कर दिया, लेकिन इंस्पेक्टर राज से नहीं बचा पाए। हम जानते हैं कि संकट की स्थिति भारी परिवर्तन की राह पर ले जाती है।

1991 में आर्थिक सुधार गंभीर वित्तीय समस्याओं के कारण शुरू हुए थे। इन सुधारों ने ज्यादातर नागरिकों को लाभ पहुंचाया है, जिसमें तीस करोड़ से अधिक लोगों को गरीबी से बाहर निकालना शामिल है। अदालतों में बड़ी संख्या में मुकदमे लम्बित हैं। अदालतों का बोझ कम करने के लिए व्यापक न्यायिक सुधारों की आवश्यकता है। साथ ही सतत विकास को मापने के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से अधिक समावेशी संकेतकों को आधार बनाने पर ध्यान देना होगा।

सौजन्य - पत्रिका।
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समझौते की सरहद (जनसत्ता)

लद्दाख के गोगरा में पिछले पंद्रह महीनों से तनातनी के माहौल में एक-दूसरे के आमने-सामने खड़ी भारत और चीन की सेनाओं का अब अपनी-अपनी जगहों पर लौट आना एक महत्त्वपूर्ण घटना है। दोनों देशों के उच्च अधिकारियों के बीच बारहवें दौर की हुई बातचीत के बाद इस पर सहमति बनी। यह बातचीत और घटनाक्रम इसलिए अधिक महत्त्वपूर्ण है कि न सिर्फ दोनों देशों ने अपनी सेनाएं वापस बुला ली हैं, बल्कि उस इलाके में बनाए सभी अस्थायी निर्माण भी हटा लिए गए हैं।

दोनों में सहमति बनी है कि वे वास्तविक नियंत्रण रेखा का अतिक्रमण नहीं करेंगे। पिछले छह महीनों में दोनों देशों के बीच यह दूसरा कदम है, जब उन्होंने अपनी सेनाओं को पीछे लौटने को कहा। फरवरी में पैंगोंग त्सो झील के दोनों छोरों पर से इसी तरह तनातनी समाप्त की गई थी। हालांकि अब भी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर कम से कम चार जगहों पर दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने हैं। उनमें देपसांग और हॉट स्प्रिंग को ज्यादा संवेदनशील माना जाता है। चीन ने उन क्षेत्रों से अपनी सेना हटाने से मना कर दिया है। मगर गोगरा से सेना हटाने के ताजा फैसले से उम्मीद बनी है कि उन बिंदुओं पर भी सकारात्मक नतीजे सामने आएंगे।

पिछले साल गलवान घाटी में दोनों देशों के सैनिकों में हिंसक झड़प होने की वजह से तनाव काफी बढ़ गया था। उसमें दोनों तरफ के कई सैनिक मारे भी गए थे, जिसे लेकर स्वाभाविक ही दोनों देशों के बीच रोष बढ़ गया था। खासकर भारत सरकार पर दबाव बनना शुरू हो गया था कि वह अपना नरम रवैया छोड़ कर चीन के साथ कड़ाई से पेश आए। चीन ने भी उस इलाके में अत्याधुनिक हथियारों से लैस अपने सैनिकों की संख्या बढ़ानी शुरू कर दी थी।

वह भारत के हिस्से वाले क्षेत्र में काफी अंदर तक घुस आया था। मगर इस तनातनी को दूर करने के मकसद से दोनों देशों के सैन्य अधिकारियों के बीच बातचीत का सिलसिला बना हुअ था। राजनीतिक स्तर पर भी इसे सुलझाने के प्रयास जारी रहे। उसी का नतीजा था कि फरवरी में लद्दाख क्षेत्र में चीन ने अपने कदम वापस खींचे थे। अभी देपसांग और हॉट स्प्रिंग को लेकर बातचीत का सिलसिला बना हुआ है। उम्मीद की जा रही है कि वहां भी तनाव का वातावरण समाप्त करने में कामयाबी मिलेगी।

दरअसल, आज के समय में देशों की ताकत उनकी अर्थव्यवस्थाओं से आंकी जाती है। अब कोई भी देश युद्ध नहीं चाहता और न उसके लिए किसी भी रूप में ऐसा कदम उठाना लाभकारी साबित हो सकता है। यह बात चीन भी समझता है। मगर वह अपनी विस्तारवादी नीति का लोभ नहीं छोड़ पाता। वह दुनिया के बाजारों पर कब्जा करने के लिए भी उनकी सीमाओं पर तनाव पैदा करके उन्हें अपनी छतरी के नीचे लाने की कोशिश करता है।

भारत के पड़ोसी सार्क देशों में से ज्यादातर के साथ वह ऐसा कर चुका है। पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका उसके चंगुल में फंस चुके हैं। भारत से उसकी खुन्नस इस बात को लेकर भी है कि यह तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था है और इसका झुकाव पिछले कुछ सालों से अमेरिका की तरफ बढ़ा है। यों भी भारत के साथ लगती उसकी लंबी सीमा का बड़ा हिस्सा अस्पष्ट है, इसलिए उसकी सेना अक्सर भारत वाले हिस्से में चली आती है। पर चीन का मकसद इस तरह भारत पर धौंस जमाना भी रहता है। मगर भारत के सामने अब, न तो आर्थिक स्तर पर और न सामरिक स्तर पर, उसकी धौंस बर्दाश्त करने की कोई विवशता नहीं है।

सौजन्य - जनसत्ता।

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हौसले को सलाम (जनसत्ता)

इस बार के ओलंपिक में भारतीय खिलाड़ियों का प्रदर्शन वास्तव में देश के लिए गर्व का विषय है। तीरंदाजी, निशानेबाजी और कुश्ती की एक प्रतिस्पर्धा में पदक चूक जाने के बावजूद इस बार सभी क्षेत्रों में खिलाड़ियों ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। एक स्वर्ण, दो रजत और चार कांस्य के साथ कुल सात पदक उन्होंने देश के नाम किए। एथलेटिक और हॉकी में बरसों का सपना पूरा हुआ। एथलेटिक में सौ से अधिक सालों बाद पदक आया, वह भी स्वर्ण। हॉकी में इकतालीस साल बाद पदक आया। जिन स्पर्धाओं में कोई पदक नहीं आ पाया, उनमें भी खिलाड़ियों ने अपने कौशल का झंडा गाड़ा।

कई खिलाड़ी सेमी फाइनल दौर में पहुंच कर पदक से चूके। महिला हॉकी टीम बेशक कोई पदक नहीं जीत सकी, पर पूरी दुनिया की नजर उस पर लगी रही और वह मजबूत दावेदार मानी जा रही थी। सेमी फाइनल में खेलते हुए उसने अपना बेहतरीन प्रदर्शन किया। इसी तरह गोल्फ में अदिति अशोक और कुश्ती में दीपक पूनिया आखिरी क्षणों में मात खा गए। मगर स्वाभाविक ही सबसे अधिक खुशी लोगों को भाला फेंक स्पर्धा में नीरज चोपड़ा के स्वर्ण पदक जीतने से हुई। एथलेटिक में करीब सौ साल बाद भारत को यह पदक हासिल हुआ है।


एथलेटिक वर्ग में मिल्खा सिंह और पीटी उषा ने कई अंतरराष्ट्रीय कीर्तिमान स्थापित किए थे, पर ओलंपिक में वे पदक से चूक गए थे। मिल्खा सिंह का तो सपना था कि कोई भारतीय खिलाड़ी ओलंपिक पदक लाए। अब जाकर उनका यह सपना पूरा हुआ है। पेरिस ओलंपिक में एथलेटिक वर्ग में भारत को जो दो पदक मिले थे, उसे जीतने वाले खिलाड़ी अंग्रेज थे। इस तरह इस वर्ग में यह स्वतंत्र भारत का पहला पदक है। नीरज चोपड़ा को पिछले तीन सालों से ओलंपिक पदक का दावेदार माना जा रहा था।

1996 में जूनियर विश्व चैंपियनशिप में उन्होंने जिस तरह अपना कौशल दिखाया और स्वर्ण पदक हासिल किया, उसके बाद से ही इतिहास रचने की उम्मीदें उनसे जुड़ गई थीं। उसके बाद लगातार उनका प्रदर्शन बेहतरीन बना रहा। 2018 के एशियाई और राष्ट्रमंडल खेलों में भी उन्होंने स्वर्ण पदक हासिल किए थे। अच्छी बात यह थी कि उनका प्रदर्शन लगातार बेहतर होता रहा। इस तरह ओलंपिक में उनके पदक लाने को लेकर कई लोगों को उम्मीद बनी हुई थी। पर शायद किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि वे स्वर्ण पदक हासिल कर लेंगे। इसे उन्होंने अपने जज्बे और आत्मविश्वास से कर दिखाया। निश्चय ही उनकी जीत से भारत के दूसरे खिलाड़ियों का हौसला और आत्मविश्वास बढ़ा है।

हालांकि ओलंपिक खेलों पर हमेशा लोगों की नजर रहती है, पर इस बार के तोक्यो ओलंपिक को लेकर कुछ अधिक उत्साह दिखा, तो इसीलिए कि इसमें हमारे खिलाड़ियों का प्रदर्शन उम्मीद जगाने वाला था। छोटी-छोटी जगहों पर भी लोग भारतीय खिलाड़ियों की स्पर्धाओं पर नजर गड़ाए हुए थे। इससे निस्संदेह खिलाड़ियों का मनोबल भी बढ़ा है। मगर इन पदकों की चमक में एक बार फिर खिलाड़ियों और खेलों के प्रोत्साहन को लेकर कुछ सवाल गाढ़े हुए हैं। पदक लाने वाले या मामूली अंतर से चूक गए ज्यादातर खिलाड़ी बहुत साधारण परिवारों के हैं। उन्हें इस मुकाम तक पहुंचने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा है। जीत के बाद जिस तरह उन्होंने अपने संघर्ष बयान किए, उससे एक बार फिर जाहिर हो गया कि अगर सरकारी स्तर पर खेलों को उचित समर्थन और प्रोत्साहन मिले, तो इस तरह के और कीर्तिमान बन सकते हैं।

सौजन्य - जनसत्ता।
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1922 चौरी-चौरा कांड: इतिहास में अविस्मरणीय काकोरी (नवभारत टाइम्स)

फरवरी, 1922 में चौरी-चौरा कांड के बाद गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेने के बाद राष्ट्रीय आंदोलन विराम के दौर से गुजर रहा था। सृजनात्मक कार्य तो हो रहे थे, पर भावनाओं का उद्दाम प्रवाह कहीं दबा हुआ था। ऐसे हालात में कुछ क्रांतिकारी संगठन गुप्त रूप से अंग्रेजों से लगातार मोर्चा ले रहे थे। ऐसा ही एक संगठन था, हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन, जिसका गठन 1924 में कानपुर में उत्तर प्रदेश तथा बंगाल के कुछ क्रांतिकारियों द्वारा किया गया। इस संगठन ने अपना घोषणापत्र द रिवोल्यूशनरी के नाम से देश के सभी प्रमुख स्थानों पर वितरित किया। आजादी का आंदोलन चलाने के लिए क्रांतिकारियों को धन की जरूरत पड़ती थी। इसी उद्देश्य से संगठन द्वारा रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में एक-दो राजनीतिक डकैतियां डाली गई। इन डकैतियों से अपेक्षानुरूप धन तो नहीं मिला, अलबत्ता एक-एक व्यक्ति जरूर मारा गया। यह तय किया गया कि अब इस तरह की डकैतियां नहीं डाली जाएंगी, मात्र सरकारी धन ही लूटा जाएगा।



काकोरी सरकारी धन को लूटने की पहली बड़ी वारदात थी। आठ अगस्त, 1925 को शाहजहांपुर में बिस्मिल के घर पर क्रांतिकारियों की एक गुप्त बैठक हुई, जिसमें 08 डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन में डकैती डालने की योजना बनी, क्योंकि इसमें सरकारी खजाना लाया जा रहा था। तय किया गया कि लखनऊ से करीब पच्चीस किलोमीटर पहले पड़ने वाले स्थान काकोरी में ट्रेन डकैती डाली जाए। नेतृत्व बिस्मिल का था और इस योजना को फलीभूत करने के लिए 10 क्रांतिकारियों को शामिल किया गया, जिनमें अशफाक उल्ला खां, मुरारी शर्मा, बनवारी लाल, राजेंद्र लाहिड़ी, शचींद्रनाथ बख्शी, केशव चक्रवर्ती (छद्म नाम), चंद्रशेखर आजाद, मन्मथनाथ गुप्त एवं मुकुंदी लाल शामिल थे।



इन क्रांतिकारियों के पास जर्मनी मेड चार माउजर और कुछ पिस्तौलें थीं। पूर्व योजना के अनुसार नौ अगस्त को ये इस ट्रेन में शाहजहांपुर से सवार हुए। जैसे ही पैसेंजर ट्रेन काकोरी रेलवे स्टेशन पर रुककर आगे बढ़ी, क्रांतिकारियों ने चेन खींचकर ट्रेन रोक दी। गार्ड रूम में सरकारी खजाना रखा था। क्रांतिकारी दल ने गार्ड रूम में पहुंचकर सरकारी खजाने का बक्सा नीचे गिरा दिया। पहले तो इसे खोलने की कोशिश की गई, पर इसमें नाकामी मिलने पर अशफाक उल्ला ने अपना माउजर मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ा दिया और स्वयं हथौड़े से बक्सा तोड़ने में जुट गए। इधर अशफाक हथौड़े से बक्सा तोड़ रहे थे, दूसरी ओर मन्मथनाथ गुप्त ने उत्सुकतावश माउजर का ट्रिगर दबा दिया। इधर बक्से का ताला टूटा, उधर माउजर से गोली चल गई और एक मुसाफिर मारा गया। खजाना लूटकर ये क्रांतिकारी फरार हो गए।


ब्रिटिश हुकूमत ने इस डकैती को बहुत गंभीरता से लिया और स्कॉटलैंड पुलिस को इसकी जांच करने की जिम्मेदारी दी। जांच दल का नेतृत्व सीआईडी इंस्पेक्टर तसद्दुक हुसैन कर रहे थे। पुलिस दल को छान-बीन के दौरान घटना स्थल से एक चादर मिली, जो क्रांतिकारी जल्दबाजी में वहीं छोड़ आए थे। पुलिस ने चादर के निशानों से पता लगा लिया कि यह चादर शाहजहांपुर के किसी व्यक्ति की है। पूछताछ में पता चला कि चादर बनारसी लाल की है, जो बिस्मिल के साझेदार थे। पुलिस ने बनारसी लाल से मिलकर काकोरी कांड की बहुत-सी जानकारियां प्राप्त कर ली, फिर अलग-अलग स्थानों से इस घटना में शामिल चालीस लोगों को शक के आधार पर गिरफ्तार किया। चंद्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा, केशव चक्रवर्ती, अशफाक उल्ला खां व शचींद्रनाथ बख्शी फरार थे।


गिरफ्तारियों ने क्रांतिकारियों को रातोंरात लोकप्रिय बना दिया। इन पर लखनऊ में मुकदमा चला। क्रांतिकारियों ने ट्रायल के दौरान मेरा रंग दे बसंती चोला और सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है समवेत स्वर में गाकर राष्ट्रीय जोश को नया उभार दे दिया। काकोरी कांड का ऐतिहासिक मुकदमा लगभग 10 महीने तक लखनऊ की अदालत रिंग थियेटर में चला। आजकल इस भवन में लखनऊ का प्रधान डाकघर है। छह अप्रैल, 1927 को इस मुकदमे का फैसला हुआ। रामप्रसाद बिस्मिल, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह और अशफाक उल्ला खां को फांसी, योगेश चंद्र चटर्जी, मुकंदीलाल जी, गोविंद चरण कार, राजकुमार सिंह, रामकृष्ण खत्री को 10-10 साल की, विष्णुशरण दुब्लिश और सुरेश चंद्र भट्टाचार्य को सात साल की और भूपेंद्रनाथ, रामदुलारे त्रिवेदी व प्रेमकिशन खन्ना को पांच-पांच साल की सजा हुई। बाद में अशफाक उल्ला खां को दिल्ली से और शचींद्रनाथ बख्शी को भागलपुर से पुलिस ने गिरफ्तार किया। उन दोनों को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।


भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में काकोरी कांड इसलिए अविस्मरणीय रहेगा कि जब देश चौरी चौरा घटना के बाद ‘संघर्ष के बाद विराम' के दौर से गुजर रहा था, देशवासियों की छटपटाहट को बाहर निकालने का रास्ता नहीं दिख रहा था, तब हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़े इन क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी हुकूमत के सामने चुनौती रखी थी। काकोरी कांड ने देश में नई चेतना का संचार किया था।


(-भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी।) 


सौजन्य - नवभारत टाइम्स।

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महामारी: सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था को विकास के पथ पर लाया जा सकता है वापस (नवभारत टाइम्स)

पी. चिदंबरम

 

ऐसा लगता है कि महामारी हमारे साथ कुछ और समय तक रहेगी। स्वास्थ्य सुरक्षा के ढांचे पर दबाव बढ़ेगा, लोग संक्रमित होंगे, मौतें भी होंगी और परिवार तबाह होंगे। एक ही बचाव है और वह है टीका। वयस्क आबादी के टीकाकरण के मामले में जी-20 के अन्य देशों की तुलना में भारत का प्रदर्शन सबसे खराब है। 95-100 करोड़ के लक्ष्य की तुलना में अभी सिर्फ 10,81,27,846 लोगों को ही टीके की दोनों खुराक मिल सकी है।



सांत्वना की बात यही है कि आर्थिक नुकसान की भरपाई हो सकती है। बंद कारोबार फिर से खुल सकते हैं; खो गई नौकरियां वापस आ सकती हैं; घटे वेतन की बहाली हो सकती है; खर्च हो चुकी बचतों का निर्माण फिर से हो सकता है; बढ़ता कर्ज रुक सकता है; कर्ज में लिए गए धन का भुगतान हो सकता है; और कमजोर पड़ गया विश्वास लौट सकता है। सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था को विकास के पथ पर वापस लाया जा सकता है।



सीखने की कमी

जीवन, भौतिक अस्तित्व से कहीं अधिक बड़ा है। जीवन का अर्थ है गरिमा के साथ जीना। ऐसी कई कमियां हैं, जो मनुष्य से उसकी गरिमा छीन सकती हैं। इनमें अधूरी शिक्षा शामिल है। यह सामान्य-सी बात है कि एक स्कूली शिक्षा प्राप्त व्यक्ति के पास एक अनपढ़ व्यक्ति की तुलना में गरिमा के साथ जीवन जीने का बेहतर मौका होगा। और समुचित कॉलेज शिक्षा प्राप्त व्यक्ति के पास उससे भी बेहतर मौका होगा। अच्छी शिक्षा की बुनियाद स्कूल में पड़ती है। साक्षरता और अंक ज्ञान आधारशिलाएं हैं।


भारत में आज स्कूली शिक्षा की दशा कैसी है? सीखने की कमी, एक मान्य सच्चाई है और स्कूली शिक्षा को आंकने का एक महत्वपूर्ण पैमाना भी। जरा पूछकर देखिए कि पांचवीं कक्षा के कितने बच्चे दूसरी कक्षा की किताबें पढ़ सकते हैं? स्कूली शिक्षा से संबंधित वार्षिक सर्वेक्षण (असर), 2018 के मुताबिक सिर्फ 50.3 फीसदी। बच्चे जब सातवीं कक्षा में पहुंचते हैं, तब दूसरी कक्षा की किताबें पढ़ने वालों का हिस्सा बढ़कर 73 फीसदी हो जाता है। सीखने की कमी की यह भयावहता हथौड़े की तरह चोट करेगी। 


गहराई में जाने की जरूरत है। यदि हम सीखने की कमी को लैंगिक, शहरी/ग्रामीण, धर्म, जाति, आर्थिक वर्ग, अभिभावक की शिक्षा और पेशा तथा निजी/सरकारी स्कूल के आधार पर आंकते हैं, तो सामाजिक-आर्थिक सीढ़ी में नीचे की ओर बढ़ने से कमी का आकार और बढ़ जाएगा।


किसी गांव में अनुसूचित जाति (एससी) या अनुसूचित जनजाति (एसटी) या अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के खेती या मजदूरी से जुड़े कम शिक्षित, कम आय वाले अभिभावक के घर जन्म लेने वाला और सरकारी स्कूल में पढ़ने वाला कोई बच्चा किसी शहर के किसी निजी स्कूल में पढ़ने वाले ऐसे किसी बच्चे से काफी पीछे होता है, जिसके अभिभावक उच्च शिक्षित, ऊंची आय वाले हों और किसी 'अगड़ी' जाति से ताल्लुक रखते हों। यह जग जाहिर सच्चाई है, जिसकी पुष्टि अब असर और इसी तरह के अन्य अध्ययनों ने भी कर दी है।


एक क्रूर मजाक

ऊपर बताई गई बातें भारत में महामारी के आने और 25 मार्च, 2020 को लागू किए गए पहले लॉकडाउन से पहले की हैं। उस दिन स्कूल बंद हो गए और सोलह महीने बाद अधिकांश राज्यों में अब तक बंद हैं। इस अवधि के दौरान, हमने बहुप्रचारित ऑनलाइन शिक्षा, आंतरिक मूल्यांकन, अगली कक्षा में स्वतः प्रोन्नति और यहां तक कि दसवीं और बारहवीं कक्षा के बच्चों को बिना परीक्षा के उत्तीर्ण होते देखा। यह मानते हुए कि इनमें से कई कदम अपरिहार्य थे, लेकिन क्या इसका इतना प्रचार आवश्यक था?


आईआईटी, दिल्ली की प्रोफेसर रीतिका खेड़ा ने यूनेस्को और यूनिसेफ के संयुक्त बयान का उद्धरण दिया, 'स्कूल सबसे आखिर में बंद होने चाहिए और सबसे पहले खुलने चाहिए', और भयावह आंकड़े बताए : सिर्फ छह फीसदी ग्रामीण घरों में और सिर्फ 25 फीसदी शहरी घरों में कंप्यूटर हैं; सिर्फ 17 फीसदी ग्रामीण क्षेत्रों और सिर्फ 42 फीसदी शहरी क्षेत्रों में इंटरनेट सुविधाएं हैं; और बड़ी संख्या में परिवारों के पास स्मार्टफोन नहीं हैं।


2020/2021 के भारत में ऑनलाइन लर्निंग को लेकर शेखी बघारना भारत के बच्चों के साथ एक क्रूर मजाक है।


जूरी बनकर आकलन करें

भारत में औसत बच्चा कमियों के साथ शुरुआत करता है। और यदि उसे 16 महीने या उससे अधिक समय तक सीखने को न मिले, तो कल्पना की जा सकती है कि पिछड़ापन किस तेजी से होगा? केंद्र और राज्य, दोनों की सरकारें बेबसी से खड़ी हैं। एक राष्ट्र के रूप में, हमने अपने बच्चों को विफल कर दिया है और आने वाली आपदा को कम करने के लिए रास्ता खोजने का कोई प्रयास नहीं किया है।


स्कूल फिर से खुलने चाहिए। उससे पहले बच्चों का टीकाकरण हो। हर चीज चाहे वह अर्थव्यवस्था हो, शिक्षा हो, सामाजिक व्यवहार या त्योहार को सुचारु करने की बात है, तो उसका एक ही इलाज है और वह टीकाकरण। जब तक हम भारत के सारे लोगों का टीकाकरण नहीं कर देते, हम चालू-बंद होते रहेंगे और कहीं नहीं पहुंचेंगे।


अफसोस की बात है कि टीकाकरण की रफ्तार न केवल निर्धारित कार्यक्रम से पीछे है, बल्कि बेहद पक्षपाती भी है। 17 मई को पांच सौ से अधिक जाने माने विद्वानों, शिक्षकों और चिंतित नागरिकों ने प्रधानमंत्री को टीकाकरण में उभर रहे भेदभाव के बारे में लिखा था : शहर (30.3 फीसदी) और ग्रामीण (13 फीसदी) के बीच; पुरुष (53 फीसदी) और महिलाओं (46 फीसदी) के बीच; और गरीब राज्यों (बिहार में 1.75 फीसदी) और अमीर राज्यों (दिल्ली 7.5 फीसदी) के बीच।


महामारी अप्रत्याशित है और यह किसी भी सरकार को प्रभावित कर सकती है। सरकार जो खुद को राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत खुद को सबकी प्राधिकारी मानती है और जिसने पिछले 16 महीनों में सारे फैसले लिए हैं, उसका आकलन नतीजों के आधार पर किया जाना चाहिए; क्या उसने संक्रमण को फैलने से रोका, क्या उसने मौतों की संख्या कम की और क्या उसने खुद के द्वारा घोषित दिसंबर, 2021 के आखिर तक भारत की सभी वयस्क आबादी के पूर्ण टीकाकरण के लक्ष्य को पूरा किया? इस बीच, क्या उसने भारत के बच्चों के बारे में विचार किया? आप खुद जूरी बनकर आकलन करें।

सौजन्य - नवभारत टाइम्स।

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सामान्य दर व्यवस्था की तरफ लौटने का पहला संकेत! (बिजनेस स्टैंडर्ड)

तमाल बंद्योपाध्याय  

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) की पिछले सप्ताह शुक्रवार को समाप्त हुई तीन दिवसीय बैठक के नतीजे पर किसी को आश्चर्य नहीं हो रहा है। एमपीसी की बैठक के बाद जारी वक्तव्य में कहा गया कि घरेलू एवं वैश्विक आर्थिक हालात और वित्तीय परिस्थितियों सहित भविष्य को ध्यान में रखते हुए नीतिगत दरें सर्वसम्मति से अपरिवर्तित रखने का निर्णय लिया गया है। वक्तव्य में यह भी कहा गया कि केंद्रीय बैंक आर्थिक वृद्धि दर मजबूत होने और आवश्यकता महसूस होने तक उदार रवैया जारी रखेगा। एमपीसी के छह में केवल एक सदस्य ने वक्तव्य में इस्तेमाल की हुई शब्दावली पर आपत्ति जताई। हालांकि तमाम मिलती-जुलती बातों के बावजूद नीतिगत दरों पर हुई यह बैठक जून से थोड़ी अलग नजर आती है।


अब केंद्रीय बैंक देश की वृद्धि दर को लेकर अधिक विश्वास से भरा लग रहा है और बढ़ती महंगाई दर पर भी यह स्पष्टï रूप से पहले से अधिक सतर्क हो गया है। वास्तव में आरबीआई ने चालू वित्त वर्ष के लिए महंगाई दर का अनुमान बढ़ा दिया है। आरबीआई ने 14 दिन की अवधि वाली वैरिएबल रेट रिवर्स रीपो (वीआरआरआर) नीलामी का आकार भी 2 लाख करोड़ रुपये से बढ़ाकर 4 लाख करोड़ रुपये कर दिया है। इस तरह, महंगाई दर को लेकर आरबीआई के रुख और वीआरआरआर के तहत नीलामी का आकार दोगुना करने से कई लोगों को यह लगने लगा है कि केंद्रीय बैंक ने सामान्य नीतिगत दर व्यवस्था की तरफ लौटने का संकेत दे दिया है। इसी वजह से 10 वर्ष की अवधि के बॉन्ड पर प्रतिफल 6.205 प्रतिशत से 4 आधार अंक बढ़कर 6.24 प्रतिशत हो गया। आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास ने जोर देकर कहा कि नीलामी का आकार बढ़ाए जाने को सामान्य नीतिगत दर व्यवस्था की तरफ बढऩे के संकेत के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। दास ने कहा कि यह केवल नकदी प्रबंधन का एक उपाय है। 


वित्तीय प्रणाली में इस समय नकदी 11 लाख करोड़ रुपये के सर्वकालिक स्तर पर पहुंच गई है। सरकारी प्रतिभूति खरीद कार्यक्रम (जी-सैप) और दूसरी तिमाही में अल्प अवधि के ट्रेजरी बिल भुनाए जाने से नकदी की उपलब्धता लगातार बढ़ती रहेगी। कोविड-19 महामारी के दौरान आरबीआई ने वीआरआरआर किनारे कर दिया था मगर जनवरी में दोबारा इसकी शुरुआत हुई थी। अब आरबीआई ने सितंबर के दूसरे पखवाड़े तक चरणबद्ध तरीके से इसका आकार बढ़ाकर 4 लाख करोड़ रुपये करने का निर्णय लिया है। वीआरआरआर नियत दर दैनिक रिवर्स रीपो प्रणाली (फिक्स्ड रेट डेयली रिवर्स रीपो विंडो) के समानांतर है जहां बैंकों को आरबीआई के अपनी अधिशेष रकम रखने पर 3.35 प्रतिशत ब्याज मिलता है। आरबीआई आर्थिक वृद्धि को लेकर पहले से अधिक उत्साहित नजर आ रहा है। उसके वक्तव्य में कहा गया है कि कोविड महामारी की दूसरी लहर कमजोर पडऩे के बाद देश में आर्थिक गतिविधियों में तेजी आनी शुरू हो गई है।


केंद्रीय बैंक ने यह भी कहा कि निवेश की मांग भले नहीं बढ़ी है लेकिन क्षमता इस्तेमाल बढऩे, इस्पात की बढ़ती खपत और पूंजीगत वस्तुओं के पहले से अधिक आयात से सुधार में तेजी आनी चाहिए। आरबीआई ने वित्त वर्ष 2021-22 के लिए आर्थिक वृद्धि दर का अनुमान 9.5 प्रतिशत पर अपरिवर्तित रखा है। वित्त वर्ष 2023 की पहली तिमाही में वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर 17.2 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है। 


केंद्रीय बैंक ने कहा कि आर्थिक गतिविधियां धीरे-धीरे शुरू होने और मॉनसून सक्रिय होने से अर्थव्यवस्था में सुधार आएगा। दास ने कहा कि  सरकार ने जो कदम उठाए हैं उनसे भी अर्थव्यवस्था को मौजूदा संकट से तेजी से बाहर निकलने में मदद मिलेगी। मौद्रिक नीति की घोषणा के बाद दास ने कहा कि आर्थिक वृद्धि दर तेज करने के लिए आरबीआई कोई भी उपाय करने को तैयार है। उन्होंने यह भी कहा कि इस समय नीतिगत मोर्चे पर अधिक हलचल देश की आर्थिक वृद्धि की रफ्तार को सुस्त कर सकती है।


दुनिया के कई केंद्रीय बैंकों के प्रमुखों की तर्ज पर आरबीआई गवर्नर ने भी कहा है कि आपूर्ति संबंधी दिक्कतों के कारण महंगाई तेजी अस्थायी है। मगर बढ़ती महंगाई को देखते हुए आरबीआई ने चालू वित्त वर्ष के लिए महंगाई का अनुमान 5.1 प्रतिशत से बढ़ाकर 5.7 प्रतिशत कर दिया गया है। वित्त वर्ष 2023 की पहली तिमाही में आरबीआई ने महंगाई दर 5.1 प्रतिशत रहने की बात कही है।


एमपीसी महंगाई दर 4 प्रतिशत (2 प्रतिशत कम या अधिक) तक सीमित रखने का प्रयास करती है। इसमें कोई शक नहीं कि एमपीसी महंगाई से उत्पन्न होने वाली चुनौतियों से पूरी तरह अवगत है। दूसरी तरफ एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत भी दिखने लगे हैं। अगर महंगाई बढ़ती रही और आर्थिक रफ्तार तेज होती गई तो आरबीआई के पास समय से पहले उदार रवैया धीरे-धीरे समाप्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा। अगर आरबीआई दिसंबर 2022 से ऐसा नहीं कर सकता तो फरवरी 2023 से उसे ऐसा करना ही पड़ेगा। 


एमपीसी की बैठक के बाद जारी नीतिगत वक्तव्य में कहा गया है कि एमपीसी महंगाई नियंत्रण में रखने की अपनी जिम्मेदारी से पूरी तरह वाकिफ है और आर्थिक वृद्धि मजबूत होने और संभावनाएं बेहतर होते ही यह आवश्यक कदम उठाना शुरू कर देगा। फिलहाल तो आरबीआई ने अपना रख साफ कर दिया है कि अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए वह कोई भी कदम उठाने से पीछे नहीं हटेगा। 


(लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड के सलाहकार संपादक, लेखक और जन स्मॉल फाइनैंस बैंक के वरिष्ठï सलाहकार हैं।)

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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भारतीय हॉकी के सितारे और सामाजिक हकीकत (बिजनेस स्टैंडर्ड)

शेखर गुप्ता  

जिस दिन भारतीय महिला हॉकी टीम टोक्यो ओलिंपिक के सेमीफाइनल में अर्जेंटीना से हारी, दो व्यक्ति सुर्खियों में आए क्योंकि उन्होंने ओलिंपिक की सबसे खतरनाक फॉरवर्ड खिलाडिय़ों में गिनी जा रही वंदना कटारिया के घर के पास 'जश्न' मनाया जो दरअसल एक शर्मिंदा करने वाली हरकत थी। वंदना ने दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ अहम मुकाबले में टीम की ओर से पहली हैट्रिक (एक मैच में तीन गोल) भी लगाई थी। इस जीत के साथ भारत अंतिम चार में पहुंचा था।


यह खराब 'जश्न' किस बात का था? क्योंकि ये व्यक्ति उच्च जाति के थे और वंदना एक दलित परिवार की हैं। स्थानीय मीडिया रिपोर्टों के अनुसार दोनों पुरुषों की समस्या यह थी कि महिला हॉकी टीम में कई दलित हैं। इसे राष्ट्रीय शर्म कहना और दोषी लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग करना उचित है, हालांकि वंदना के भाई के हवाले से कहा गया है कि पुलिस थाने के अधिकारी उनकी शिकायतों पर ध्यान नहीं दे रहे थे। हालांकि मैं इससे प्रेरणा लेकर एक जोखिम भरे क्षेत्र में प्रवेश कर रहा हूं और सवाल करना चाहता हूं कि आखिर क्रिकेट समेत अन्य खेलों से इतर हॉकी में ऐसा क्या है जो भारत की जाति, जातीयता, भौगोलिक और धार्मिकता आधारित विविधता को इतने बेहतर ढंग से पेश करती है।


मैं इसे जोखिम भरा क्षेत्र क्यों कहता हूं? पहली बात, इसलिए क्योंकि उच्च जाति जिसका तमाम बहसों और सोशल मीडिया पर दबदबा है उसे 'जाति' जैसे पिछड़े मुद्दों पर चर्चा करना पसंद नहीं क्योंकि ये भारत को 'पीछे' ले जाती हैं। जब भी कोई व्यक्ति क्रिकेट में पारंपरिक उच्च जातियों के दबदबे की बात करता है तो लोगों की नाराजगी देखते ही बनती है। प्रतिक्रिया इतनी तीव्र होती है कि हम एक साधारण बात कहने में भी घबराते हैं और वह यह कि भारतीय क्रिकेट में समावेशन बढऩे के साथ इसका स्तर भी सुधरा है। या एक सवाल कर सकते हैं कि अगर भारतीय क्रिकेट क्रांति तेज गेंदबाजों की बदौलत उभरी है तो और उसके पास बड़ी तादाद में तेज गेंदबाज हैं तो ये प्रतिभाएं कहां से आई हैं? यदि इससे किसी के सवर्ण गौरव को ठेस पहुंचती है तो मैं क्षमा चाहता हूं लेकिन भारतीय क्रिकेट में समावेशन बढऩे के बाद यह अधिक प्रतिभासंपन्न, आक्रामक, ऊर्जावान और सफल बनी है। इसके लिए टीम और बीसीसीआई नेतृत्व को श्रेय दिया जाना चाहिए कि वहां सही मायनों में प्रतिभा का मान किया गया।


दूसरी ओर हॉकी में कुछ तो है जिसने हमेशा इस खेल को उपेक्षित रखा: अल्पसंख्यक, आदिवासी, गौण समझे जाने वाले वर्ग और जातियां इसमें प्रमुखता से दिखती हैं। हम समाजशास्त्र की बात नहीं कर सकते लेकिन इतिहास और तथ्यों की कर सकते हैं। अतीत में मुस्लिम और सिख, एंग्लो इंडियन, पूर्वी और मध्य भारत के मैदानों के वंचित आदिवासी वर्ग, मणिपुरी, कोदावा आदि दशकों तक हॉकी में अपनी प्रतिभा का हुनर बिखेरते रहे हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह तथा अन्य लोगों की इस बात के लिए आलोचना किउन्होंने याद दिलाया कि ओलिंपिक में कांस्य पदक जीतने वाली भारतीय पुरुष हॉकी टीम के आठ सदस्य उनके राज्य के हैं। उन्होंने सिख नहीं कहा लेकिन हमें याद रखना होगा।


हम तथ्यों और इतिहास पर भरोसा करेंगे। भारत ने पहली बार 1928 में एम्सटर्डम ओलिंपिक में हॉकी में भाग लिया था। ध्यान चंद टीम में थे लेकिन टीम के कप्तान का आधिकारिक नाम था जयपाल सिंह। उनका पूरा नाम है जयपाल सिंह मुंडा। आपको महानायक बिरसा मुंडा याद हैं? देश का पहला ओलिंपिक स्वर्णपदक एक ऐसे व्यक्ति के नेतृत्व में आया जो झारखंड के गरीब आदिवासी परिवार से था। मुझे नहीं लगता कि देश का कोई अन्य बड़ा खेल ऐसा दावा कर सकता है।


यह एक समृद्ध परंपरा की शुरुआत थी जहां पूर्वी-मध्य क्षेत्र का आदिवासी भारत निरंतर हॉकी की प्रतिभाएं देता रहा है। इसमें कुछ बेहतरीन बचाव करने वाले खिलाड़ी शामिल हैं। मौजूदा महिला टीम में दीप ग्रेस एक्का और सलीमा टेटे और पुरुष टीम में वीरेंद्र लाकड़ा और अमित रोहिदास इसका उदाहरण हैं। इनमें सलीमा स्ट्राइकर जबकि बाकी सभी डिफेंडर हैं। यदि ये पर्याप्त नहीं तो अतीत के माइकल किंडो और दिलीप टिर्र्की जैसे डिफेंडरों को याद कीजिए। 


इस परंपरा को आदिवासी क्षेत्रों में बनी कुछ बेहतरीन अकादमियों ने बढ़ावा दिया है। झारखंड के खूंटी और ओडिशा में सुंदरगढ़ और उसके आसपास ऐसी कई अकादमी हैं। जयपाल सिंह ने भारत को पहला ओलिंपिक स्वर्ण दिलाने अलावा अन्य महत्त्वपूर्ण काम किए। बचपन में ही एक ब्रिटिश पादरी परिवार ने उन्हें अपनी छत्रछाया में ले लिया था। उन्हें अध्ययन के लिए ऑक्सफर्ड भेजा गया जहां उन्होंने काफी अच्छा प्रदर्शन किया। परंतु उन्होंने आईसीएस बनकर जीवन बिताने के बजाय भारत के लिए खेलना और काम करना चुना। वह आदिवासियों के प्रतिनिधि के रूप में संविधान सभा में थे और भारतीयों को वैध रूप से शराब पीने पर हर घूंट के साथ उनका शुक्रिया अदा करना चाहिए क्योंकि उन्होंने हमें देशव्यापी शराबबंदी के आसन्न संकट से बचाया था। उस गांधीवादी माहौल में संविधान सभा का मन शराबबंदी का था लेकिन उन्होंने जोर देकर कहा कि शराब पीना हम आदिवासियों की परंपरा है, आप उस पर प्रतिबंध लगाने वाले कौन होते हैं?


हॉकी की बात करें तो पहली टीम में आठ एंग्लो इंडियन थे। गोलकीपर रिचर्ड एलन नागपुर में जन्मे और ओक ग्रोव मसूरी तथा सेंट जोसेफ नैनीताल में पढ़े थे। उन्होंने पूरी प्रतियोगिता में एक गोल नहीं होने दिया। यदि मैं यहां-वहां राह से भटक रहा हूं तो इसलिए कि मैं बताना चाहता हूं कि केवल क्रिकेट नहीं बल्कि सभी खेलों का इतिहास दिलचस्प किस्सों से भरा रहा है। बाकी खिलाडिय़ों की बात करें तो तीन मुस्लिम, एक सिख, युवा ध्यान चंद और झारखंड का एक आदिवासी कप्तान टीम का हिस्सा थे। बाद के ओलिंपिक में मुस्लिमों और सिखों की तादाद में इजाफा हुआ। इसीलिए विभाजन ने देश की हॉकी को झटका दिया। ढेर सारी प्रतिभाएं पाकिस्तान चली गईं और सन 1960 के ओलिंपिक में उसने भारत को स्वर्ण जीतने से रोक दिया।


चूंकि विभाजन के घाव हरे थे इसलिए पाकिस्तान हमारा नया प्रमुख प्रतिद्वंद्वी बन गया, उसके साथ जंग भी होती रहीं। सन 1970 के आरंभ तक देश की राष्ट्रीय टीम में ज्यादा मुसलमान नहीं थे। भोपाल के शानदार स्ट्राइकर इनाम-उर-रहमान का कुख्यात मामला भी हुआ जिन्हें 1968 के मैक्सिको ओलिंपिक में ले जाया गया लेकिन उन पर भरोसा नहीं जताया गया। पाकिस्तान के खिलाफ तो कतई नहीं।


 


बाद में कई मुस्लिम हॉकी सितारे सामने आए। मोहम्मद शाहिद और जफर इकबाल ने भारत की कप्तानी की। सबसे चर्चित नाम है डिफेंडर असलम शेर खान का। भारत ने सन 1975 में कुआलालंपुर में इकलौता विश्व कप जीता था। सेमीफाइनल में मलेशिया के खिलाफ भारत एक गोल से पीछे था और खेल समाप्त होने में चंद मिनट बचे थे। कई पेनल्टी कॉर्नर भी मिल रहे थे लेकिन सुरजीत सिंह और माइकल किंडो उन्हें गोल में नहीं बदल पा रहे थे।


65वें मिनट में एक पेनल्टी कॉर्नर मिला (तब खेल 70 मिनट का होता था) जो आखिरी उम्मीद था। तीन बार (1948, 1952 और 1956) के ओलिंपिक चैंपियन कोच बलबीर सिंह सीनियर ने असलम को जीवन मरण का यह शॉट लेने बेंच से बुलाया। अगर आपको वह फुटेज मिले तो देखिए कैसे युवा असलम मैदान में आते हैं अपने गले से ताबीज निकालकर चूमते हैं और बराबरी का गोल दाग देते हैं। मैच अतिरिक्त समय में गया और स्ट्राइकर हरचरण सिंह जीत दिला दी। हम जानते हैं कि असलम शेर खान बाद में सांसद बने। आजादी के बाद उन्होंने ही मुस्लिमों के लिए भारतीय हॉकी के दरवाजे खोले। आप 1975 के विश्व कप के बाद की राष्ट्रीय हॉकी टीम खोजिए और आप पाएंगे कि यह रुझान मजबूत होता गया। हर भारतीय टीम चाहे महिला हो या पुरुष, उसमें विविधता निखरकर दिखती है। मणिपुर के मैती समुदाय की आबादी बमुश्किल 10 लाख है। टोक्यो में नीलकांत शर्मा और सुशीला चानू के रूप में पुरुष और महिला टीमों में उनकी भागीदारी देखने को मिली। हालिया अतीत को याद करें तो थोइबा सिंह, कोठाजीत चिंगलेनसाना और नीलकमल सिंह याद आते हैं। क्या क्रिकेट टीम में पूर्वोत्तर का कोई खिलाड़ी देखा है आपने?


आखिर सैकड़ों वर्षों से हॉकी वंचितों का खेल क्यों बना हुआ है? मुझसे मत पूछिए। मैं केवल हकीकत बता सकता हूं और याद दिला सकता हूं कि भारतीय क्रिकेट के उभार में समावेशन का योगदान है। यहां जाति और श्रेष्ठता की बेतुकी बहस बंद होनी चाहिए। मेरी बात उच्च जातियों के खिलाफ नहीं है। उनमें काबिलियत है लेकिन देश तो तभी समृद्ध होगा जब हम तमाम सामाजिक हिस्सों की प्रतिभाओं तक पहुंचेंगे। 

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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अनिश्चित प्रदर्शन (बिजनेस स्टैंडर्ड)

वर्ष 2021-22 की अप्रैल-जून तिमाही के कॉर्पोरेट नतीजों को पिछले वर्ष की समान अवधि के कम आधार प्रभाव का लाभ मिला। ऐसे भी संकेत हैं कि वैश्विक स्तर पर औद्योगिक धातुओं में सुधार और तेजी ने भी इन्हें बेहतर बनाने में मदद की है। परंतु ऋण सुधार और खपत भी एकदम स्थिर है। 894 सूचीबद्ध कंपनियों ने सालाना आधार पर 38 फीसदी की वृद्धि हासिल की और इसका आंकड़ा 17 लाख करोड़ रुपये रहा। परिचालन मुनाफा 23.6 फीसदी बढ़कर 5.04 लाख करोड़ रुपये रहा जबकि कर पश्चात लाभ 166.5 फीसदी बढ़कर 1.53 लाख करोड़ रुपये हो गया। अप्रत्याशित वस्तुओं के समायोजन के बाद मुनाफा 120 फीसदी बढ़ा। वित्तीय लागत में 10 फीसदी की कमी आई है। कॉर्पोरेट कर संग्रह 56.7 फीसदी बढ़ा और कर्मचारियों से संबंधित खर्चे 15 फीसदी बढ़े जबकि बिजली/ईंधन की लागत 48 फीसदी बढ़ी।


बैंक, गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों और रिफाइनरी जैसे अस्थिर क्षेत्रों को निकाल दिया जाए तो शेष 775 कंपनियों की परिचालन आय में 49 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। इनका परिचालन मुनाफा 88 फीसदी और अप्रत्याशित वस्तुओं के समायोजन के बाद होने वाला लाभ 292 फीसदी बढ़ा। रिफाइनरों और तेल विपणन कंपनियों के रिफाइनिंग मार्जिन में कमी आई क्योंकि कच्चे तेल के दाम बढ़े हैं। नमूने में शामिल 31 बैंकों की परिचालन आय 2.7 फीसदी कम हुई जबकि कर पश्चात लाभ 39 फीसदी बढ़ा है। ऐसा इसलिए हुआ कि ब्याज लागत 10 फीसदी कम हुई और शुल्क आधारित आय में 24 फीसदी बढ़ोतरी हुई। कृषि अर्थव्यवस्था जो एक वर्ष पहले बहुत अच्छी स्थिति में थी, वह स्थिर है लेकिन शक्कर में चक्रीय गिरावट आ सकती है। कृषि-रसायनों, उर्वरकों और ट्रैक्टरों में वृद्धि हल्की हुई है। दैनिक उपयोग वाली उपभोक्ता वस्तुओं का मुनाफा जो अद्र्ध शहरी खपत पर निर्भर करता है, वह भी राजस्व वृद्धि में 17 फीसदी और कर पश्चात लाभ में 8 फीसदी वृद्धि के साथ स्थिर है।


वाहन और वाहन कलपुर्जा उद्योग की स्थिति सबसे खराब रही। वाहन कलपुर्जा क्षेत्र में समीक्षाधीन 35 कंपनियों के राजस्व में 140 फीसदी इजाफा हुआ जबकि समेकित कर पश्चात लाभ 522 करोड़ रुपये रहा जबकि सालाना आधार पर उसे 804 करोड़ रुपये का घाटा हुआ था। सात में से छह बड़ी वाहन निर्माता कंपनियों ने 129 फीसदी राजस्व विस्तार हासिल किया जबकि कर पश्चात लाभ 2,203 करोड़ रुपये रहा। इन्हें सालाना आधार पर 108 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। सातवीं कंपनी टाटा मोटर्स को 4,451 करोड़ रुपये का घाटा हुआ। कास्टिंग और फोर्जिंग क्षेत्र के राजस्व में 188 फीसदी का विस्तार हुआ और यह क्षेत्र घाटे से मुनाफे में आ गया। पूंजीगत वस्तु क्षेत्र में भी बदलाव आया और इसका राजस्व 51 फीसदी बढ़ा। औद्योगिक रसायन उद्योग का प्रदर्शन भी ऐसा ही रहा। कागज, पैकेजिंग और पेंट उद्योग सभी को आधार प्रभाव का लाभ मिला। सीमेंट, निर्माण, अधोसंरचना और लॉजिस्टिक्स का राजस्व बढ़ा और बेहतर मुनाफे के साथ अनुमान भी बेहतर हुआ। 


निर्यात आधारित क्षेत्रों मसलन आईटी और औषधि क्षेत्र का प्रदर्शन ठीक रहा। आईटी उद्योग के कर पश्चात लाभ में 27 फीसदी सुधार हुआ और उसका राजस्व 18 फीसदी बढ़ा। औषधि क्षेत्र के कर पश्चात लाभ में 48 फीसदी इजाफा हुआ और राजस्व 19 फीसदी बढ़ा। वस्त्र क्षेत्र का राजस्व 134 फीसदी बढ़ा और वह घाटे से मुनाफे में आ गया। धातु और खनिज क्षेत्र में तेजी की खबरें हैं। 35 स्टील कंपनियों का समेकित मुनाफा 11,604 करोड़ रुपये रहा जबकि सालाना आधार पर यह घाटे में था। इनका राजस्व 131 फीसदी बढ़ा। गैर लौह धातुओं का राजस्व 65 फीसदी जबकि कर पश्चात लाभ 680 फीसदी बढ़ा। खनन कंपनियों के राजस्व में 80 फीसदी इजाफा हुआ जबकि कर पश्चात लाभ 325 फीसदी बढ़ा। एक वर्ष पहले के लॉकडाउन के आधार प्रभाव को देखें तो यह प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं है और दूसरी लहर का असर नकारात्मक रहा। यदि एक और लहर आई तो कमजोरी बढ़ेगी।

सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।

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