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-Rajeev Kumar (Editor-in-chief)

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Tuesday, May 25, 2021

आपदा में फायदा (दैनिक ट्रिब्यून)

 पहले ही कोरोना महामारी से हलकान मरीजों को निजी चिकित्सालयों में उलटे उस्तरे से मूंडने की खबरें विचलित करती हैं। खबरें विचलित करती हैं कि क्यों ऐसे लोगों में मानवीय संवेदनाओं व नागरिक बोध का लोप हुआ है। लंबे-चौड़े बिल बनाना और दोहन के बाद बड़े सरकारी अस्पतालों के लिये रैफर कर देना आम है। ऐसे तमाम मामले सामने आये हैं, जिनमें मनमानी फीस उपचार हेतु वसूली गई। चिंता की बात यह है कि इलाज की रेट लिस्ट लगाने के बावजूद मोटी फीस मरीजों से वसूले जाने की खबरें मीडिया में सुर्खियां बनती रही हैं। दरअसल, जनसंख्या के बोझ और तंत्र की अकर्मण्यता से वेंटिलेटर पर गये सरकारी अस्पतालों से निराश लोग निजी अस्पतालों की ओर उन्मुख होते हैं। सरकारी अस्पताल सामान्य दिनों में ही रोगियों को उपचार देने में हांपते रहते हैं तो आपदा में उनसे उम्मीद करना कि वहां पर्याप्त इलाज मिल जायेगा, बेमानी ही है। ऐसे में ऑक्सीजन की आपूर्ति में कमी और कोरोना के गंभीर मरीजों की वेंटिलेटर की जरूरत के चलते निजी अस्पतालों की पौ-बारह हुई। लॉकडाउन और कई तरह की बंदिशों तथा कोरोना संकट से उपजे हालात में तमाम व्यवसायों व रोजगारों में भले ही आय का संकुचन हो, मगर देश का फार्मा उद्योग, जांच करने वाली लैब व निजी अस्पताल दोनों हाथों से कमाई कर रहे हैं। कुछ मामलों में शिकायतकर्ता सामने भी आये हैं और कुछ निजी अस्पतालों के खिलाफ कार्रवाई भी हुई है। लेकिन यह कार्रवाई न के बराबर है। हरियाणा-पंजाब के स्वास्थ्य मंत्री उद्घोष करते रहे हैं कि मरीजों को लूटने वाले अस्पतालों के खिलाफ कार्रवाई होगी। होगी के क्या मायने हैं, होती क्यों नहीं है? कोई सरकार अस्पतालों की मनमानी के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं करती। महज इसलिये कि ये अस्पताल धनाढ्य व राजनेताओं के वरद‍्हस्त प्राप्त लोगों के हैं। कई तरह के इंस्पेक्टर जो इनकी निगरानी के लिये तैनात होते हैं, वे क्यों जिम्मेदारी नहीं निभाते। क्यों स्थानीय प्रशासन स्वत: संज्ञान लेते हुए कार्रवाई नहीं करता। क्यों उनकी नींद भी अदालत की सक्रियता के बाद खुलती है।


यह निजी चिकित्सालयों के मालिकों के लिये भी आत्ममंथन का समय है। चिकित्सा का पेशा कभी कारोबार नहीं हो सकता। आज भी लोग डॉक्टर को भगवान का दूसरा रूप मानते हैं। ऐसे में जब लोग महामारी से टूट चुके हैं, आय के स्रोत संकुचित हुए हैं, लाखों के इलाज का खर्च आम आदमी कहां से उठा पायेगा? इस संकट के दौरान तमाम लोगों द्वारा घर-जमीन व जेवर गिरवी रखने के मामले सामने आते रहे हैं। कई लोग बैंकों से लोन लेकर अपनों को बचाने की जद्दोजहद में जुटे हैं। सर्वे बताते हैं कि देश में करोड़ों लोग कई गंभीर बीमारियों से अपनों का इलाज कराने की कोशिश में हर साल गरीबी की दलदल में डूब जाते हैं। जरूरत इस बात की है कि पूरे देश में विभिन्न रोगों के उपचार, बेड, जांच व टेस्ट के दामों के मानक तय हों। सत्ताधीशों की नाकामी है कि वे जनता का दोहन करने वाले अस्पतालों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करते। उन्हें फलने-फूलने का अवसर देते हैं। जबकि बड़े अस्पतालों को जमीन व अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने में सरकार की भूमिका होती है। अस्पतालों का मुनाफा नियंत्रित होना चाहिए। खासकर आपदा के वक्त। जब निजी अस्पताल नागरिक बोध और मानवीय संवेदनाओं का ध्यान नहीं रखते तो उन्हें कानून की भाषा में समझाया जाना चाहिए। सरकारी अस्पतालों को भी इस लायक बनाने की जरूरत है कि लोग प्राइवेट अस्पतालों की मुनाफाखोरी से बच सकें। निस्संदेह, एक डॉक्टर पढ़ाई से लेकर एक अस्पताल बनाने में बड़ी पूंजी का निवेश करता है, जिसका मुनाफा भी वह चाहता है। लेकिन ये मुनाफा अनियंत्रित न हो। आपदा को लाभ में बदलना मानवीयता का धर्म तो नहीं ही है। इस बाबत देशव्यापी हेल्पलाइन व्यवस्था हो। न्यायालय की परिधि में आने वाले मामलों का निस्तारण भी समय रहते हो ताकि कानून का डर भी बना रहे। वह भी ऐसे दौर में जब मानवता महामारी के संकट में कराह रही हो। इनके लिये एक आचार संहिता भी लागू होनी चाहिए।


सौजन्य- दैनिक ट्रिब्यून।

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नेपाल का गतिरोध (दैनिक ट्रिब्यून)

नेपाल की राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी द्वारा शुक्रवार-शनिवार की मध्यरात्रि में संसद भंग करने तथा नवंबर में चुनाव कराने का फैसला इस हिमालयी राज्य में राजनीतिक अस्थिरता की कहानी कहता है। इससे पहले संसद में प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली दस मई को बहुमत हासिल नहीं कर पाये थे। फिर राष्ट्रपति ने विपक्ष को 24 घंटे में बहुमत साबित करके सरकार बनाने को कहा था, लेकिन विपक्ष भी बहुमत का आंकड़ा जुटाने की कोशिश इतने कम समय में नहीं कर पाया। राजनीतिक पंडित आरोप लगाते रहे हैं कि राष्ट्रपति हर तरह से ओली को फायदा पहुंचाने की कोशिश में लगी रहती हैं। नेपाल की मुख्य विपक्षी पार्टी नेपाली कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति के फैसले को अलोकतांत्रिक बताया है और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की बात कही है। देश में राजशाही के खात्मे और लोकतंत्र की बहाली के बाद उम्मीद जगी थी कि नेपाल को स्थायी सरकार मिल सकेगी, लेकिन राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और निहित स्वार्थों के चलते नेपाल लगातार राजनीतिक अस्थिरता के भंवर में धंसता जा रहा है। वह भी ऐसे समय में जब देश कोरोना की दूसरी लहर से घिरा है और स्वास्थ्य तंत्र का ढांचा धवस्त होने से मानवीय क्षति का सिलसिला जारी है। दरअसल, ताजा संकट की शुरुआत गत वर्ष दिसंबर में हो गई थी जब ओली की सीपीए (यूएमएल) और पुष्प कुमार दहल ‘प्रचंड’ के नेतृत्व वाले सीपीएन (माओइस्ट सेंटर) में अलगाव सामने आया था। इसके बाद ओली ने संसद भंग करके मध्यावधि चुनाव करने की घोषणा कर दी, जिसके खिलाफ विपक्षी दल सुप्रीम कोर्ट गये। शीर्ष अदालत ने फरवरी में सरकार भंग करने को असंवैधानिक करार देते हुए संसद को बहाल करने के आदेश दिये थे।


हालांकि, राष्ट्रपति कार्यालय ने कहा कि कार्यवाहक प्रधानमंत्री व विपक्ष द्वारा सरकार न बना पाने की स्थिति में संसद भंग करने का फैसला लिया गया। मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम ऐसे वक्त में हो रहा है जब देश के स्वास्थ्य विशेषज्ञ राजनेताओं से राजनीतिक तिकड़में छोड़कर लोगों की जिंदगियों को बचाने के लिये प्रयास करने को कह रहे हैं। वहीं विपक्षी नेपाली कांग्रेस ने राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी व प्रधानमंत्री ओली पर अपने संकीर्ण स्वार्थ के लिये पद का दुरुपयोग का आरोप लगाते हुए राजनीतिक व कानूनी पहल करने की बात कही है। विपक्ष शुक्रवार व शनिवार की मध्यरात्रि के बाद कैबिनेट की बैठक के बाद राष्ट्रपति द्वारा संसद भंग करने और चुनाव कराने की घोषणा को लेकर सवाल उठा रहे हैं। इसे अलोकतांत्रिक व असंवैधानिक बता रहे हैं। हालांकि, विपक्षी नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देऊबा ने प्रधानमंत्री पद की दावेदारी जताते हुए 149 सांसदों का समर्थन हासिल होने की बात कही थी। अब देऊबा कह रहे हैं इन्हीं सांसदों के हस्ताक्षर वाले समर्थन पत्र को लेकर वे अदालत जायेंगे। बहरहाल, नेपाल में लागू किये नये संविधान के जरिये भी अस्थिरता का मर्ज ठीक होता नजर नहीं आता। ओली की उच्च राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी मिलकर सरकार चलाने के रास्ते में बाधा बनती रही है।


सौजन्य- दैनिक ट्रिब्यून।

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धूर्त कोरोना (दैनिक ट्रिब्यून)

सवा साल से तबाही मचाने वाले कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया को भय व अवसाद से भर दिया है। पहली लहर, दूसरी का भयावह कहर और तीसरी की आशंकाओं के बीच नित नयी सूचनाएं असमंजस व डर का वातावरण बना रही हैं। यही वजह है कि देश के विभिन्न राज्यों के जिलाधिकारियों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा भी कि नित नये वेरिएंट सामने और घातकता में बदलाव लाने वाला यह वायरस बहुरूपिया है और धूर्त भी है। उन्होंने अब बच्चों और युवाओं को ग्रास बनाने वाले वायरस के खिलाफ नयी रणनीति बनाने और नये समाधान पर बल दिया। इस बीच केंद्र सरकार ने प्रदेश सरकारों को महामारी बनते ब्लैक फंगस को ‘महामारी कानून’ के तहत अधिसूचित करने को कहा है। इसके साथ ही जो नये शोध सामने आये हैं, उसके हिसाब से नयी एडवायजरी जारी की है। इसमें कहा गया है कि खांसने और छींकने से कोविड संक्रमण हवा में दस मीटर की परिधि तक चपेट में ले सकता है। इससे बचाव के लिये जारी दिशा-निर्देशों में डबल मास्क लगाने की सलाह भी दी गई है और कमरों में हवा का प्रवाह तेज करने को कहा गया है ताकि बंद कमरों में वायरस की अधिकता को कम किया जा सके। इसका निष्कर्ष यह है कि अब तक जिस बात पर वैज्ञानिक बल देते रहे थे, उसमें बदलाव की जरूरत है। आरंभ में वैज्ञानिकों का कहना था कि खांसने और छींकने में जो बूंदें सतह पर गिरती हैं, उससे संक्रमण फैलता है और यह हवा से नहीं फैलता। इसी क्रम में दो गज की दूरी और सतह को संक्रमण-रहित बनाने पर जोर दिया गया था। लेकिन नयी एडवायजरी से स्थिति बदलती नजर आ रही है। दरअसल, यह एक नयी महामारी है और इसके खिलाफ व्यापक शोध व अनुसंधान का वक्त नहीं मिल पाया है। संभव है धीरे-धीरे कई दूसरी मान्यताओं में भी समय के साथ बदलाव आये।


बहरहाल, कालांतर वैज्ञानिक शोध से यह ठीक-ठीक कहा जा सकेगा कि कोरोना वायरस वास्तव में हवा के जरिये कितनी दूर तक फैलता है। वह संक्रमण करने में कितने समय तक सक्रिय रह सकता है। लेकिन एक बात तो तय है कि कोरोना वायरस का संक्रमण हवा के जरिये फैलता है। इसके लिये जरूरी है कि कमरों में ताजा हवा की अधिकता हो। कमरे हवादार न होने पर वायरस के देर तक टिके रहने की स्थिति बन सकती है। ऐसे में वातानुकूलित कमरों में ताजा हवा का लगातार प्रवाह जरूरी है, जिससे संक्रमण की आशंका को टाला जा सकता है। दूसरे, देश में ब्लैक व व्हाइट फंगस के प्रकोप से फिर चिंताएं बढ़ गई हैं। इस बाबत एम्स दिल्ली के विशेषज्ञों द्वारा जारी गाइड लाइन में म्यूको माइकोसिस यानी ब्लैक फंगस का समय रहते पता लगाने तथा उसकी रोकथाम के उपाय बताये गये हैं। इसके जरिये डॉक्टरों व मरीज तथा उसके तीमारदारों को सलाह दी गई है कि समय रहते जोखिम वाले मरीजों की पहचान करके ब्लैक फंगस की शुरुआती जांच की जाये। इसमें इसके शुरुआती लक्षणों के बारे में भी बताया गया है। बताया जा रहा है कि म्यूको माइकोसिस के मामले उन रोगियों में देखे जा रहे हैं, जिन्हें स्टेरॉयड दिया गया। विशेषकर उन मरीजों में जो मधुमेह व कैंसर से ग्रस्त रहे हैं। लेकिन एक बात तय है कि मधुमेह और ब्लैक फंगस के बीच मजबूत संबंध हैं। एम्स ने आंखों के डॉक्टरों को ऐसे सभी जोखिम वाले मरीजों की ब्लैक फंगस के लिये बेसिक जांच करने की सलाह दी है। फिर लगातार ऐसे मरीजों की निगरानी कई हफ्तों तक की जानी चाहिए। बहरहाल, नित नये संकट पैदा करते कोरोना वायरस के मुकाबले के लिये जरूरी है कि बचाव की परंपरागत सावधानियों का पालन किया जाये। अब जब पता चला है कि वायरस हवा के जरिये भी फैलता है तो अतिरिक्त सावधानी जरूरी है। टीकाकरण इसका अंतिम समाधान है और वह फिलहाल लक्ष्य हासिल करता नजर नहीं आता तो बचाव ही उपचार है। मास्क के उचित प्रयोग, शारीरिक दूरी तथा खुली हवा की व्यवस्था बचाव के साधन ही हैं।


सौजन्य- दैनिक ट्रिब्यून।

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रक्षकों की रक्षा (दैनिक ट्रिब्यून)

इसमें दो राय नहीं कि सीमित संसाधनों व पर्याप्त चिकित्सा सुविधा के अभाव में भी देश के डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी प्राणपण से कोविड-19 की महामारी से जूझ रहे हैं। पहले से पस्त चिकित्सातंत्र और मरीजों की लगातार बढ़ती संख्या के बीच स्वास्थ्यकर्मियों पर दबाव लगातार बढ़ रह है। इतना ही नहीं, मरीज को न बचा पाने पर उपजी तीमारदारों की हताशा की प्रतिक्रिया भी डॉक्टरों व स्वास्थ्यकर्मियों को झेलनी पड़ती है। जब पहली लहर में पीपीए किट व संक्रमणरोधी मास्क न थे, तब भी फ्रंटलाइन वर्कर सबसे आगे थे। कृतज्ञ राष्ट्र ने तब इनके सम्मान में ताली-थाली भी बजाई। दीये भी जलाये। हवाई-जहाजों व हेलीकॉप्टरों से फूल भी बरसाये। निस्संदेह इन कदमों का प्रतीकात्मक महत्व है। लेकिन इससे कठोर धरातल की हकीकत से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। हमारी चिंता का विषय यह भी होना चाहिए कि देश के एक-चौथाई स्वास्थ्यकर्मियों का अभी टीकाकरण नहीं हो पाया है। कोरोना महामारी के खिलाफ कारगर लड़ाई लड़ने वाले उच्च जोखिम समूह को जनवरी से वैक्सीन लगाने में प्राथमिकता मिली थी। लेकिन तब कई तरह की शंकाएं इस बिरादरी में थी। लेकिन दूसरी मारक लहर ने तमाम नकारात्मकता के बीच वैक्सीन लगाने के प्रति देश में जागरूकता जगाने का काम जरूर किया है। अब राज्यों के मुखियाओं से लेकर आम आदमी तक में वैक्सीन लगाने की होड़ लगी है। बहरहाल, इसके बावजूद बकौल इंडियन मेडिकल एसोसिएशन यानी आईएमए, इस साल अब तक 270 डॉक्टरों ने महामारी की दूसरी लहर में दम तोड़ा है, जिसमें अनुभवी व युवा चिकित्सक भी शामिल हैं। इनमें देश में स्वास्थ्य जागरूकता अभियान चलाने वाले व पद्म पुरस्कार विजेता डॉ. के.के अग्रवाल भी शामिल हैं जो कोविड संक्रमित होने के बावजूद रोगियों के साथ टेली-कंसल्टिंग कर रहे थे। ऐसे अग्रिम मोर्चे के नायकों की लंबी सूची है, जिसमें डॉक्टर-स्वास्थ्यकर्मी अपने परिवार को जोखिम में डालकर रोज कोविड मरीजों को बचाने के लिये घर से निकलते हैं।


विडंबना यह है कि देश के नीति-नियंताओं ने सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र को मजबूत करने को कभी भी अपनी प्राथमिकता नहीं बनाया। वहीं जनता के स्तर पर यही कमी रही है कि वे छोटे हितों के जुमले पर तो वोट देते रहे, लेकिन जनप्रतिनिधियों पर इस बात के लिये दबाव नहीं बनाया कि पहले चिकित्सा व्यवस्था को ठीक किया जाये। यह विडंबना है कि देश में डाक्टर व रोगी का अनुपात एक के मुकाबले 1700 है जो विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित एक अनुपात 1100 से बहुत कम है। ऐसे में संकट के इस दौर में अनुभवी डॉक्टरों की मौत हमारा बड़ा नुकसान है, जो पहले से चरमराती स्वास्थ्य प्रणाली के लिये मुश्किल पैदा करने वाला है। निस्संदेह जब तक स्वास्थ्यकर्मियों को हम वायरस के खिलाफ सुरक्षा कवच उपलब्ध न करा पाएंगे, तब तक जीवन रक्षक ठीक तरह से काम नहीं कर पायेंगे। बकौल इंडियन मेडिकल एसोसिएशन इस साल मरने वाले डॉक्टरों में बमुश्किल तीन फीसदी को टीके की दोनों डोज लगी थीं। निस्संदेह अधिकारियों को स्वास्थ्यकर्मियों के टीकाकरण हेतु व्यवस्था सुनिश्चित करनी चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बीते साल कोरोना संक्रमण की पहली लहर के दौरान देश में 748 डॉक्टरों की मौत हुई थी। ऐसे में यदि सब के लिये टीकाकरण का अनुपालन सुनिश्चित नहीं किया जाता तो इस साल यह संख्या बढ़ भी सकती है। इसकी वजह यह है कि दूसरी लहर में संक्रमण दर में गिरावट के बावजूद मृत्युदर बढ़ी हुई है। आशंका जतायी जा रही है कि तीसरी लहर और घातक हो सकती है। इस संकट के दौरान उच्च जोखिम वाले समूह में श्मशान घाट पर काम करने वाले लोग भी शामिल हैं, जिनकी केंद्र-राज्य सरकारों ने अनदेखी की। पीपीए किट के बिना दैनिक वेतन पर काम करने वाले ये लोग कोविड पीड़ितों के शवों का अंतिम संस्कार कर रहे हैं। पिछले दिनों हिसार में तीन सौ से अधिक पीड़ितों का अंतिम संस्कार करने वाले एमसी सफाई कर्मचारी प्रवीण कुमार की मौत इस भयावह खतरे को दर्शाती है। ऐसे लोगों के लिये मुआवजा नीति बननी चाहिए।


सौजन्य- दैनिक ट्रिब्यून।

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टीका रणनीति स्पष्ट हो (दैनिक ट्रिब्यून)

ऐसे वक्त पर जब देश कोरोना संकट की दूसरी भयावह लहर से जूझ रहा है, संकट में उम्मीद की किरण बने टीके को लेकर उठते विवाद परेशान करने वाले हैं। दिल्ली समेत कई राज्यों में टीकाकरण केंद्र बंद करने की बातें, पर्याप्त वैक्सीन न मिलने पर युवाओं के लिये समय से टीकाकरण शुरू न होने की खबरें बता रही हैं कि शायद नया चरण बिना तैयारी के ही शुरू कर दिया गया है। ऐसा लगता है कि अपनी वैक्सीन खोज लेने और कोविशील्ड का भारत में समय रहते उत्पादन शुरू करने के बावजूद हम इस अभियान में अदूरदर्शिता के चलते पिछड़ गये हैं। कोविशील्ड की दूसरी डोज के समय में दूसरी बार बदलाव बता रहा है कि हमारे पास पर्याप्त वैक्सीन का अभाव है। इससे न केवल देश में टीकाकरण अभियान में बाधा पहुंचेगी बल्कि हम विश्व बाजार में पिछड़ जायेंगे। निस्संदेह देश के कई राज्य टीके की कमी से जूझ रहे हैं। दरअसल, 18 से 44 आयु वर्ग की बड़ी तादाद को हम टीका उपलब्ध कराने में सक्षम नहीं हैं। कहीं न कहीं ये कमी हमारी दूसरी लहर के खिलाफ जारी लड़ाई को कमजोर करती है। यह भी हकीकत है कि दूसरी लहर में संक्रमितों की आधी आबादी देश की कर्मशील व युवा आबादी ही है, जिसके लिये टीकाकरण अभियान तेज करना वक्त की जरूरत है। ऐसे में टीके की कमी को पूरा करने के लिये जरूरी है कि स्वदेशी कंपनियों के साथ ही विदेशों से दूसरे टीकों का आयात किया जाए ताकि टीकाकरण अभियान में गति आये। इसके चलते कई राज्य अपने यहां टीका लगाने के लिये ग्लोबल टेंडर दे रहे हैं। किसी राष्ट्र पर आयी ऐसी आपदा के मुकाबले के लिए किसी देश में वैक्सीन अलग-अलग राज्यों द्वारा मंगाये जाने के उदाहरण सामने नहीं आते। जाहिर -सी बात है कि जब राज्य किसी कंपनी से अलग-अलग बातचीत करेंगे तो उन्हें ज्यादा कीमत चुकानी पड़ेगी। वहीं दूसरी ओर यदि एक साथ वैक्सीन खरीदी जायेगी तो बड़ी मात्रा में खरीद से लागत को प्रभावित किया जा सकता है।


कुछ राज्य कह भी रहे हैं कि टीका खरीद केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है। वहीं केंद्र की दलील है कि राज्यों ने वैक्सीन खरीद में स्वायत्तता की बात कही थी। ऐसे वक्त में जब देश बड़े संकट से गुजर रहा है, देशवासियों की सेहत की सुरक्षा को लेकर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। केंद्र सरकार ने हाल में वैक्सीन को लेकर कुछ कदम उठाये हैं और नयी गाइड लाइन भी जारी की है। यदि केंद्र टीका आयात करने का फैसला लेता है तो इससे देश को आर्थिक रूप से भी लाभ होगा। जिसके चलते फिर फिलहाल वैक्सीन की कमी से जो टीकाकरण अभियान प्रभावित हो रहा है, उसमें गति आयेगी। युवा वर्ग हमारा बड़ा वर्ग तो है ही, साथ ही यह देश की कर्मशील आबादी भी है। इसकी सामाजिक सक्रियता भी ज्यादा है जो संक्रमण की दृष्टि से ज्यादा संवेदनशील भी है। इसे सुरक्षा कवच देना पूरे देश को सुरक्षा प्रदान करना है। तभी हम समय रहते टीकाकरण के लक्ष्यों को हासिल कर पायेंगे। केंद्र को भी शीर्ष अदालत को किये गये उस वायदे को पूरा करना चाहिए, जिसमें राज्यों को टीका देने की योजना में विषमता को दूर करने की बात कही गई थी। दरअसल, कोरोना संकट की दूसरी लहर के बाद लोगों को अहसास हो गया है कि कोरोना संक्रमण से बचाव के लिये टीका लगाना जरूरी है। इसलिये पहले चरण में जो लोग टीका लगाने में ना-नुकुर कर रहे थे, वे भी अब टीका लगाने को आगे आ रहे हैं। टीकाकरण अभियान की सफलता के लिये जागरूकता जरूरी है। जब तक हम देश की सत्तर-अस्सी फीसदी आबादी को टीका नहीं लगा लेते तब तक नयी-नयी लहरों का सामना करना हमारी नियति होगी। इस मायने में केंद्र सरकार को व्यावहारिक, उदार व संवेदनशील टीका नीति के साथ आगे आना चाहिए। इसमें टीके का उत्पादन बढ़ाने के लिये भारतीय कंपनियों को प्रोत्साहित करने और राज्य में सकारात्मक प्रतिस्पर्धा बढ़ाने की जरूरत है। 


सौजन्य- दैनिक ट्रिब्यून।

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Wednesday, May 5, 2021

लॉकडाउन का वक्त ( दैनिक ट्रिब्यून)

देश में कोरोना संक्रमण जिस तेजी से फैल रहा है और देश में ऑक्सीजन संकट व चिकित्सा सुविधाओं का जो हाल है, उसे देखते हुए अदालत, विशेषज्ञ व उद्योग जगत भी लॉकडाउन लगाने पर जोर दे रहा है। निस्संदेह स्थिति नियंत्रण से बाहर है। लॉकडाउन के समय का उपयोग ऑक्सीजन उत्पादन बढ़ाने व आपूर्ति तथा मरीजों के लिये चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने में होना चाहिए। साथ ही इस समय का उपयोग वैक्सीन उत्पादन बढ़ाने व टीकाकरण अभियान में तेजी लाने के लिये भी किया जा सकता है। लेकिन पिछले साल के दो माह के सख्त लॉकडाउन के दुष्प्रभावों से सहमी केंद्र सरकार फूंक-फूंककर कदम बढ़ा रही है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने कहा भी था कि लॉकडाउन को अंतिम विकल्प के रूप में अपनाया जाना चाहिए। लेकिन संसाधनों की कमी और संक्रमण की भयावहता को देखते हुए कुछ राज्य पंद्रह दिन, सप्ताह, तीन दिन या सप्ताहांत का लॉकडाउन लागू कर चुके हैं। महाराष्ट्र में संक्रमण की भयावहता के बीच लगाये गये लॉकडाउन के अच्छे परिणाम देखे गये हैं। ऐसे में साफ है कि लॉकडाउन का वास्तविक फायदा तभी है जब पूरे देश में केंद्र व राज्यों के समन्वय से इस दिशा में कदम उठाया जाये। यही वजह कि पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय बेंच ने ऑक्सीजन, आवश्यक दवाओं तथा वैक्सीनेशन नीति के प्रोटोकॉल की समीक्षा के साथ ही केंद्र व राज्यों को लॉकडाउन लगाने की सलाह दी। हालांकि, इससे पहले जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को राज्य के पांच जिलों में लॉकडाउन लगाने के आदेश दिये तो राज्य सरकार की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले पर रोक लगा दी थी। यद्यपि योगी सरकार ने इसके बाद सप्ताहांत लॉकडाउन की अवधि में वृद्धि की थी। हाल के दिनों में हरियाणा में एक सप्ताह, पंजाब सरकार ने पंद्रह मई तक बंदिशें तथा ओडिशा सरकार ने दो सप्ताह का लॉकडाउन लगाया है। हालांकि, इस बार का लॉकडाउन पिछले साल की तरह सख्त नहीं है।


निस्संदेह देश के विभिन्न राज्यों में कोरोना संक्रमण में जिस तरह तेजी आई है और अस्पतालों में जगह न मिलने व ऑक्सीजन की कमी से जिस तरह से लोग मर रहे हैं, भविष्य की तैयारी के लिये लॉकडाउन अपरिहार्य माना जाने लगा है। भारत ही नहीं, विदेशी विशेषज्ञ भी मौजूदा संकट में लॉकडाउन को उपयोगी मान रहे हैं। अमेरिका में बाइडन प्रशासन के मुख्य चिकित्सा सलाहकार एंथनी फाउची का सुझाव था कि भारत को वायरस के संचरण को रोकने के लिये कुछ सप्ताह का लॉकडाउन लगाना चाहिए। लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा कि इस अवधि का उपयोग चिकित्सा सुविधाओं को जुटाने तथा वैक्सीनेशन कार्यक्रम में तेजी लाने के लिये किया जाना चाहिए। लेकिन एक चिंता उन लोगों की भी है, जिनको पिछले साल सख्त लॉकडाउन लगाने पर सबसे ज्यादा भुगतना पड़ा था। रोज कमाकर खाने वाले वर्ग की चिंता भी इसमें शामिल है। उस वर्ग की भी जो लाखों की संख्या में अपने गांवों को पलायन कर गया था, जिसके चलते गांवों में भी संक्रमण में तेजी आई थी। यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट की बेंच को कहना पड़ा कि हमारी चिंता समाज के वंचित वर्ग के सामाजिक व आर्थिक जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर है। सरकार को पहले इस वर्ग को सहायता पहुंचाने की व्यवस्था सुनिश्चित करनी चाहिए। यही वह वर्ग था जिसे लॉकडाउन शब्द से भय होने लगा था। लेकिन देश के जो हालात हैं उसमें लॉकडाउन को अंतिम विकल्प के रूप में प्रयोग माना जा रहा है। यही वजह है कि उद्योग जगत की प्रतिनिधि संस्था सीआईआई ने देश में संक्रमण के विस्तार को नियंत्रित करने के लिये आर्थिक गतिविधियों में कटौती तथा सख्त कदम उठाये जाने की मांग की है। निश्चिय ही अब केंद्र सरकार को पिछले लॉकडाउन के दुष्प्रभावों से सबक लेकर संक्रमण के चक्र को तोड़ने का प्रयास करना चाहिए। लेकिन सरकार को लॉकडाउन लगाने से पहले कमजोर वर्ग के लोगों को व्यापक राहत देने का कार्यक्रम लागू करना चाहिए। 

सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।

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Tuesday, May 4, 2021

भारतीय राज्य की नाकामी ( दैनिक ट्रिब्यून)

देश में कोविड संकट के बीच अपनों की जान बचाने को रोते-बिलखते और दर-दर की ठोकर खाते लोगों की पीड़ा को देश की अदालतों ने संवेदनशील ढंग से महसूस किया है और सत्ताधीशों को आड़े हाथों लिया है। हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्वास्थ्य सेवाओं की विफलता के बीच लोगों के जीवन रक्षक साधनों के अभाव में होने वाली मौतों को भारतीय राज्य के रूप में विफलता बताया है। अदालत ने कहा कि राज्य का दायित्व है कि वह व्यक्ति के जीवन के मौलिक अधिकार की रक्षा करे। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-12 के अनुसार राज्य के अवयवों के रूप में केंद्र व राज्य सरकारें, संसद, राज्य विधानसभाएं और स्थानीय निकाय आते हैं। लेकिन इस संकट की घड़ी में एक आम आदमी को राहत पहुंचाने में राज्य तंत्र विफल ही साबित हुआ है। हाल ही में दिल्ली व अन्य राज्यों में कोविड मरीजों की मौत की घटनाओं ने इस विफलता की पुष्टि ही की है। न्यायमूर्ति विपिन सांघी और रेखा पल्ली को एक ऐसे मरीज की मौत की पीड़ा ने उद्वेलित किया, जिसने अपने लिये आईसीयू बेड की मांग की थी, लेकिन ऑक्सीजन की प्रतीक्षा में दम तोड़ दिया। विडंबना ही है कि पूरे देश से बड़ी संख्या में कोविड मरीजों की ऑक्सीजन न मिलने से मौत होने की खबरें लगातार आ रही हैं जो तंत्र की आपराधिक लापरवाही को ही उजागर करती है। यह हमारे स्वास्थ्य सिस्टम की ही विफलता नहीं है, राज्य संस्था की भी विफलता है कि मरीज प्राणवायु की तलाश में मारे-मारे घूम रहे हैं और कहीं से उनकी मदद नहीं हो पा रही है। कोरोना उपचार में काम आने वाली दवाओं के वितरण में कोताही और कालाबाजारी का बोलबाला लोगों की मुसीबत बढ़ा रहा है। केंद्र व राज्य सरकारों से पूछा जाए कि पिछले एक साल से अधिक समय से देश को अपनी गिरफ्त में लेने वाले कोरोना संकट से निपटने के लिये समय रहते कदम क्यों नहीं उठाये गये।


हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने भी कोविड संकट के दौर में केंद्र की कोताही पर कई सख्त टिप्पणियां की और इस संकट से राष्ट्रीय कार्यक्रम बनाकर जूझने को कहा। शीर्ष अदालत में न्यायमूर्ति डी.वी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव व ‍ रवींद्र भट की पीठ ने सख्ती दिखाते हुए कहा कि अपनी मुश्किलों को सोशल मीडिया के जरिये व्यक्त करने वाले लोगों पर किसी कार्रवाई के प्रयास को न्यायालय की अवमानना माना जायेगा। उन्होंने कुछ राज्य सरकारों के ऐसे लोगों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत कार्रवाई की मंशा पर सवाल उठाये और कहा कि राज्यों की विफलता से उपजे आक्रोश को इससे हवा मिलेगी। कोर्ट ने चेताया कि सरकार व पुलिस नागरिकों को अपने दुख-दर्द सोशल मीडिया पर साझा करने के लिये दंडित करने का प्रयास न करे। कोर्ट ने सवाल उठाया कि क्यों मरीजों को दवा व ऑक्सीजन के लिये दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं। इसको लेकर शासन-प्रशासन को परिपक्व व्यवहार करने की जरूरत है। सरकार को संक्रमण में काम आने वाली दवाओं के आयात व वितरण को नियंत्रित करना चाहिए। साथ ही चेताया कि सूचना क्रांति के दौर में सोशल मीडिया पर लगाम लगाई तो फिर अफवाहों को ही बल मिलेगा। दूसरी तरफ प्रशासन व पुलिस के निचले स्तर पर ऐसे अधिकारों का दुरुपयोग आम लोगों के उत्पीड़न में भी किया जा सकता है। शासन-प्रशासन सख्ती का उपयोग करके अपनी नाकामी पर पर्दा डालने के बजाय जनता से सूचना हासिल कर व्यवस्था सुधारने का प्रयास करे। अदालत ने माना कि संकट के दौरान सोशल मीडिया के जरिये सहायता व सूचना का समांतर तंत्र विकसित हुआ है जो एक मायने में प्रशासन का सहयोग ही कर रहा है। शासन-प्रशासन को 21वीं सदी के सूचना युग में 19वीं सदी के तौर तरीकों से समस्या से नहीं निपटना चाहिए। दरअसल, जनता को विश्वास में लेने से समस्या का समाधान तलाशने में मदद मिलेगी। विश्वास कायम होने से संकट से निपटने में आसानी होगी। जनता व सरकार का सहयोग ही समाधान निकालेगा। लोग तकलीफ में हैं, जिसे संवेदनशील ढंग से ही दूर किया जाना चाहिए।

सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।

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Monday, May 3, 2021

बंगाल में हुआ खेला, चुनाव परिणामों के गहरे निहितार्थ ( दैनिक ट्रिब्यून)

पश्चिम बंगाल के बहुचर्चित विधानसभा चुनावों में भाजपा द्वारा अपने तमाम संसाधन झोंकने के बाद ‘दो सौ पार’ के नारे को ममता बनर्जी ने लपक लिया। उन्होंने ‘खेला होबा’ यानी खेल होगा का नारा सच में कर दिखाया है। ‘आशोल परिवर्तन’ के नारे को राज्य के मतदाताओं को समझाने में सफल रही। देश के चार राज्यों व एक केंद्रशासित प्रदेश में आये परिणाम हाल के चुनाव सर्वेक्षणों के अनुरूप ही रहे। तमिलनाडु में डीएमके की वापसी की उम्मीद थी। केरल में एलडीएफ का पलड़ा पहले ही भारी था। असम में भाजपा की जीत दोहराने की बात सामने आ रही थी, कमोबेश भाजपा को उम्मीद से ज्यादा ही मिला। पुड्डुचेरी में भाजपा का चुनावी गणित सिरे चढ़ा है। लेकिन विधानसभा चुनावों मे हॉट स्पाट बने पश्चिम बंगाल ने शेष राज्यों के चुनाव परिणामों को पार्श्व में डाल दिया। निस्संदेह पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम भाजपा की महत्वाकांक्षाओं को झटका है। कह सकते हैं कि वर्ष 2016 में तीन सीट जीतने वाली भाजपा का सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में उभरना उसकी उपलब्धि है। भले ही भाजपा पश्चिम बंगाल के किले को हासिल न कर पाई हो, मगर हाल के चुनाव में हर राज्य में उसका कद बढ़ा ही है। वैसे भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने चुनाव अभियान में बंगाल के स्थानीय नेताओं को तरजीह न देकर बड़ी चूक की है। पार्टी राज्य की जमीनी हकीकत समझने में विफल रही।


दरअसल, पश्चिम बंगाल चुनाव में भाजपा भले ही अपने लक्षित वर्ग का ध्रुवीकरण न कर पायी, लेकिन वहीं ममता की रणनीति ने अल्पसंख्यक मतों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण कर दिया। साथ ही भाजपा के ध्रुवीकरण की कोशिशों में सेंध लगा दी। जहां भाजपा का शीर्ष नेतृत्व टीएमसी सुप्रीमो पर हमलावार रहा, वहीं ममता बनर्जी राज्य में निर्णायक महिला मतदाताओं को समझा गयी कि एक महिला मुख्यमंत्री को निशाना बनाया जा रहा है। चोट लगने की सहानुभूति को वोटों में तब्दील करने में भी सफल रही। जहां भाजपा के नेता हवाई जहाज-हेलीकॉप्टरों से चुनावी रैलियों में पहुंच रहे थे, वहीं पूरा चुनाव ममता बनर्जी ने व्हीलचेयर के जरिये करके सहानुभूति बटोरी। सही मायनों में ममता भाजपा के हिंदुत्व के खिलाफ बंगाली उपराष्ट्रवाद भुनाने में कामयाब हुई। हिंदीभाषी भाजपा नेताओं को लगातार वह बाहरी बताती रही। वहीं दूसरी ओर केरल में भी मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने हर पांच साल में बदलाव की परंपरा को किनारा करके फिर सत्ता की चाबी हासिल कर ली। कोरोना संकट में उन्होंने बहुत योजनाबद्ध ढंग से काम किया। जनता को जो विश्वास दिलाया, उसको हकीकत में बदला। कोरोना संक्रमण की जांच, उपचार, राहत और मेडिकल ऑक्सीजन के मुद्दे पर वे अव्वल रहे। वही तमिलनाडु में पहली बार बड़े कद्दावर राजनेताओं की अनुपस्थिति में लड़े गये चुनाव में स्टालिन को करुणानिधि की विरासत का लाभ मिला। एआईएडीएमके में वर्चस्व की लड़ाई मतदाताओं में विश्वास जगाने में विफल रही। असम में भाजपा की प्रभावी जीत में जहां पार्टी संगठन और रणनीति का योगदान मिला, वहीं स्थानीय मजबूत छत्रपों ने उसमें बड़ी भूमिका निभायी।

सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।

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Saturday, May 1, 2021

आपदा से फायदा (दैनिक ट्रिब्यून)

जिस कोरोना संकट को लेकर देश बेफिक्र हो गया था, उसने ज्यादा ताकत से पलटवार करके सारी व्यवस्थाओं को ध्वस्त कर दिया है। पहले से लचर चिकित्सा व्यवस्था चरमरा कर रह गई है। अस्पतालों में बेड, दवाइयां और वेंटिलेटर नहीं हैं। एक तो नई महामारी का कोई कारगर इलाज नहीं है, दूसरा इस बीमारी में काम आने वाली तमाम जरूरी दवाइयां बाजार से गायब हो गई हैं। देश के लाखों लोग कातर निगाहों से शासन-प्रशासन की ओर देख रहे हैं कि कोई तो राह निकले। सरकार का व्यवस्था पर नियंत्रण कमजोर होता दिख रहा है। हमारे पास न तो पर्याप्त मेडिकल ऑक्सीजन की उपलब्धता है और न ही उपलब्ध ऑक्सीजन को अस्पतालों तक पहुंचाने की कारगर व्यवस्था। इस महामारी में किसी हद तक शुरुआती दौर के उपचार में कारगर बताये जा रहे रेमडेसिविर इंजेक्शन के नाम पर भारी कालाबाजारी की जा रही है। जीवन के संकट से जूझ रहे मरीजों से इनके मुंहमांगे दाम वसूले जा रहे हैं। मरीजों से पचास हजार से लेकर एक लाख तक की कीमत वसूले जाने की शिकायतें मिल रही हैं। देश में दवाइयों और इंजेक्शनों के तमाम जमाखोर सक्रिय हो गये हैं। इस जमाखोरी पर रोक लगाने की कोशिशें सफल होती नजर नहीं आ रही हैं। संकट में पड़े अपनों का जीवन बचाने के लिये लोग कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। इसी आतुरता का फायदा उठाने के लिये आपदा में अवसर ढूंढ़ने वाले मनमाने दाम वसूल रहे हैं। हद तो तब हो गई जब कई जगह जीवनरक्षक इंजेक्शनों की जगह नकली इंजेक्शन तैयार करने की खबरें आ रही हैं। इस मामले में कुछ गिरफ्तारियां भी हुई हैं। कालाबाजारी के इस गोरखधंधों में कुछ दवा निर्माताओं और डॉक्टरों तक की गिरफ्तारी हुई हैं। लेकिन इस कालाबाजारी पर पूरी तरह रोक लगाने की कोशिशें सफल होती नजर नहीं आती। ऐसा नहीं हो सकता कि ऐसी कालाबाजारी पर नियंत्रण करने वाले विभागों व पुलिस को इंसानियत के ऐसे दुश्मनों की कारगुजारियों की भनक न हो। मगर, समय रहते ठोस कार्रवाई होती नजर नहीं आती।


विडंबना देखिये कि दिल्ली में ऑक्सीजन सिलेंडर खरीदने गये एक मरीज को कुछ लोगों ने अग्निशमन में काम आने वाले सिलेंडर बेच दिए। महिला की शिकायत के बाद दो युवकों की गिरफ्तारी हुई। कुछ इंसान चंद रुपयों के लालच में किस हद तक गिर जाते हैं कि संकट में फंसे लोगों के जीवन से खिलवाड़ पर उतारू हो जाते हैं। जाहिर-सी बात है कि महामारी का जो विकराल रूप हमारे सामने है, उसमें ऑक्सीजन और दवाओं की किल्लत स्वाभाविक है। यह पहली बार है कि मरीजों को जीवनदायिनी मेडिकल ऑक्सीजन की जरूरत इतनी बड़ी मात्रा पर हुई हो। दरअसल, मांग व आपूर्ति के संतुलन से चीजों की उपलब्धता होती है। बताया जा रहा है कि रेमडेसिविर इंजेक्शन की मांग सितंबर के बाद जनवरी तक न के बराबर हो गई थी, इसलिए कंपनियों ने इसका उत्पादन बंद कर दिया था। अब अचानक महामारी के फैलने के बाद मांग बढ़ने से इसकी पूर्ति नहीं हो पा रही है, जिससे इसकी कालाबाजारी लगातार बढ़ती जा रही है। हालांकि, सरकार ने इसके इंजेक्शन का उत्पादन तेज करने के निर्देश दिये हैं, लेकिन आपूर्ति बढ़ने में कुछ वक्त लग जाता है। दरअसल, एक वजह यह भी कि कोरोना ने गांव-देहात की तरफ जब से पैर पसारने शुरू किये, लोकल डॉक्टर स्थिति समझे बिना ही यह इंजेक्शन मरीजों को लाने के लिये कह रहे हैं, जिससे इसकी मांग अप्रत्याशित रूप से बढ़ गई है। अब विदेशों से भी यह इंजेक्शन देश में पहुंचने वाला है, शायद उससे भी इसकी ब्लैक मार्केंटिंग पर अंकुश लग सकेगा। बहरहाल, भारत में तेजी से महामारी का दायरा बढ़ता जा रहा है, दवाओं व ऑक्सीजन की कालाबाजारी अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता। निस्संदेह यह संकट जल्दी समाप्त होने वाला नहीं है। ऐसे में सरकारों को दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखकर रणनीति बनानी होगी। कालाबाजारी करने वाले तत्वों पर सख्ती की भी जरूरत है। साथ ही संकट को देखते हुए तमाम चिकित्सा संसाधन जुटाने की जरूरत है।

सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।

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आपदा से फायदा ( दैनिक ट्रिब्यून)

जिस कोरोना संकट को लेकर देश बेफिक्र हो गया था, उसने ज्यादा ताकत से पलटवार करके सारी व्यवस्थाओं को ध्वस्त कर दिया है। पहले से लचर चिकित्सा व्यवस्था चरमरा कर रह गई है। अस्पतालों में बेड, दवाइयां और वेंटिलेटर नहीं हैं। एक तो नई महामारी का कोई कारगर इलाज नहीं है, दूसरा इस बीमारी में काम आने वाली तमाम जरूरी दवाइयां बाजार से गायब हो गई हैं। देश के लाखों लोग कातर निगाहों से शासन-प्रशासन की ओर देख रहे हैं कि कोई तो राह निकले। सरकार का व्यवस्था पर नियंत्रण कमजोर होता दिख रहा है। हमारे पास न तो पर्याप्त मेडिकल ऑक्सीजन की उपलब्धता है और न ही उपलब्ध ऑक्सीजन को अस्पतालों तक पहुंचाने की कारगर व्यवस्था। इस महामारी में किसी हद तक शुरुआती दौर के उपचार में कारगर बताये जा रहे रेमडेसिविर इंजेक्शन के नाम पर भारी कालाबाजारी की जा रही है। जीवन के संकट से जूझ रहे मरीजों से इनके मुंहमांगे दाम वसूले जा रहे हैं। मरीजों से पचास हजार से लेकर एक लाख तक की कीमत वसूले जाने की शिकायतें मिल रही हैं। देश में दवाइयों और इंजेक्शनों के तमाम जमाखोर सक्रिय हो गये हैं। इस जमाखोरी पर रोक लगाने की कोशिशें सफल होती नजर नहीं आ रही हैं। संकट में पड़े अपनों का जीवन बचाने के लिये लोग कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। इसी आतुरता का फायदा उठाने के लिये आपदा में अवसर ढूंढ़ने वाले मनमाने दाम वसूल रहे हैं। हद तो तब हो गई जब कई जगह जीवनरक्षक इंजेक्शनों की जगह नकली इंजेक्शन तैयार करने की खबरें आ रही हैं। इस मामले में कुछ गिरफ्तारियां भी हुई हैं। कालाबाजारी के इस गोरखधंधों में कुछ दवा निर्माताओं और डॉक्टरों तक की गिरफ्तारी हुई हैं। लेकिन इस कालाबाजारी पर पूरी तरह रोक लगाने की कोशिशें सफल होती नजर नहीं आती। ऐसा नहीं हो सकता कि ऐसी कालाबाजारी पर नियंत्रण करने वाले विभागों व पुलिस को इंसानियत के ऐसे दुश्मनों की कारगुजारियों की भनक न हो। मगर, समय रहते ठोस कार्रवाई होती नजर नहीं आती।


विडंबना देखिये कि दिल्ली में ऑक्सीजन सिलेंडर खरीदने गये एक मरीज को कुछ लोगों ने अग्निशमन में काम आने वाले सिलेंडर बेच दिए। महिला की शिकायत के बाद दो युवकों की गिरफ्तारी हुई। कुछ इंसान चंद रुपयों के लालच में किस हद तक गिर जाते हैं कि संकट में फंसे लोगों के जीवन से खिलवाड़ पर उतारू हो जाते हैं। जाहिर-सी बात है कि महामारी का जो विकराल रूप हमारे सामने है, उसमें ऑक्सीजन और दवाओं की किल्लत स्वाभाविक है। यह पहली बार है कि मरीजों को जीवनदायिनी मेडिकल ऑक्सीजन की जरूरत इतनी बड़ी मात्रा पर हुई हो। दरअसल, मांग व आपूर्ति के संतुलन से चीजों की उपलब्धता होती है। बताया जा रहा है कि रेमडेसिविर इंजेक्शन की मांग सितंबर के बाद जनवरी तक न के बराबर हो गई थी, इसलिए कंपनियों ने इसका उत्पादन बंद कर दिया था। अब अचानक महामारी के फैलने के बाद मांग बढ़ने से इसकी पूर्ति नहीं हो पा रही है, जिससे इसकी कालाबाजारी लगातार बढ़ती जा रही है। हालांकि, सरकार ने इसके इंजेक्शन का उत्पादन तेज करने के निर्देश दिये हैं, लेकिन आपूर्ति बढ़ने में कुछ वक्त लग जाता है। दरअसल, एक वजह यह भी कि कोरोना ने गांव-देहात की तरफ जब से पैर पसारने शुरू किये, लोकल डॉक्टर स्थिति समझे बिना ही यह इंजेक्शन मरीजों को लाने के लिये कह रहे हैं, जिससे इसकी मांग अप्रत्याशित रूप से बढ़ गई है। अब विदेशों से भी यह इंजेक्शन देश में पहुंचने वाला है, शायद उससे भी इसकी ब्लैक मार्केंटिंग पर अंकुश लग सकेगा। बहरहाल, भारत में तेजी से महामारी का दायरा बढ़ता जा रहा है, दवाओं व ऑक्सीजन की कालाबाजारी अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता। निस्संदेह यह संकट जल्दी समाप्त होने वाला नहीं है। ऐसे में सरकारों को दूरगामी परिणामों को ध्यान में रखकर रणनीति बनानी होगी। कालाबाजारी करने वाले तत्वों पर सख्ती की भी जरूरत है। साथ ही संकट को देखते हुए तमाम चिकित्सा संसाधन जुटाने की जरूरत है।

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Friday, April 30, 2021

अंधेरे में उजास की आस (दैनिक ट्रिब्यून)

जब बृहस्पतिवार को पूरे देश में पौने चार लाख नये संक्रमितों के मामले सामने आए और साढ़े तीन हजार से अधिक लोगों की मौत हुई, देश में कोरोना संकट की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है। तंत्र की संवेदनहीनता देखिये कि इस भयानक होते संकट के बीच पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव जारी था । डरे-सहमे चुनाव कर्मियों के हुजूम के चुनाव सामग्री एकत्र करने के चित्र अखबारों में प्रकाशित हुए। इसी बीच टीकाकरण के तीसरे चरण के लिये ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन में भारी उत्साह बताता है कि देश का जनमानस इस संकट में वैक्सीन को ही अंतिम सुरक्षा उपाय के रूप में देख रहा है। पहले ही दिन सवा करोड़ से अधिक नामांकन होना इसी बात का संकेत है। हालांकि देश में पहले दो चरणों में पंद्रह करोड़ लोगों द्वारा वैक्सीन करवाया जा चुका है लेकिन देश की आबादी के अनुपात में यह काफी नहीं है। यहां सवाल यह भी है कि 18 साल से अधिक उम्र के लोगों को टीका लगाने के लिये क्या वैक्सीन उपलब्ध है? क्या देश की दो वैक्सीन कंपनियां समय से पहले इतने टीके उपलब्ध करा पायेंगी? धीरे-धीरे देश में यह धारणा बलवती होने लगी है कि फिलहाल टीकाकरण ही कोरोना का अंतिम सुरक्षा कवच है। लेकिन तेजी से फैलते संक्रमण के बीच टीकाकरण केंद्रों का सुरक्षित होना भी एक चुनौती है। इस दौरान टीका लगाने की गति में कमी आई है। वहीं महाराष्ट्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ ने कह दिया है कि टीकों की उपलब्धता न होने से वे एक मई से 18 साल से अधिक की उम्र के लोगों को टीका देने में समर्थ नहीं हैं। राजस्थान ने इस वर्ग के लिये सवा तीन करोड़ खुराक की बुकिंग कराई है, लेकिन सीरम इंस्टीट्यूट का कहना है कि वह मई मध्य तक ही ये टीके उपलब्ध करा पायेगा। लॉकडाउन से गुजर रहे महाराष्ट्र ने भी बारह करोड़ खुराक की मांग की है।


सरकार ने पिछले दिनों विदेशी टीकों के लिये भी दरवाजे खोले हैं, लेकिन इससे भी मौजूदा जरूरतें पूरी नहीं होती। जाहिर है ऐसे में देश की दोनों वैक्सीन निर्माता कंपनियों को युद्धस्तर पर टीकों का उत्पादन करना होगा। यह अच्छी बात है कि सीरम इंस्टीट्यूट के टीके के लिये जरूरी कच्चे माल की आपूर्ति पर अमेरिका ने रोक हटा दी है। ऐसे में जरूरी है कि संकट की स्थिति को देखते हुए देश में उपलब्ध टीका निर्माण क्षमता का उपयोग करके अन्य कंपनियों से भी सहयोग किया जाना चाहिए। साथ ही जो अन्य टीके अंतिम चरण में हैं, उन्हें स्वीकृति की जटिल प्रक्रिया से राहत देने का प्रयास करना चाहिए। यह इसीलिये भी जरूरी है कि कुछ राज्यों ने तीसरे चरण के टीकाकरण को टीकों की आपूर्ति में कमी और अनुपलब्धता के चलते टालने का मन बनाया है। इस बीच एक अच्छी खबर यह है कि अमेरिका के शीर्ष संक्रामक रोग विशेषज्ञ डॉ. फाउची ने कहा है कि भारत में बनी कोवैक्सीन भारत में कहर बरपा रहे नये वेरिएंट बी.1.617 के खिलाफ असरदार है। उन्होंने कहा कि भारत में जिन लोगों ने यह वैक्सीन ली है, उनके विश्लेषण में पाया गया है कि कोवैक्सीन ज्यादा असरदार है। इस मुहिम के बावजूद एक दुखद पहलू यह है कि देश में राजनीतिक नेतृत्व इस संकट की घड़ी में एकजुट नहीं है और क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के लिये निर्लज्ज राजनीति का प्रदर्शन कर रहा है जो राजनेताओं की संवेदनहीनता को ही उजागर करता है। यह एक हकीकत है कि देश का स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा चरमरा चुका है। जो बताता है कि संकट की भयावहता को राजनीतिक नेतृत्व ने गंभीरता से नहीं लिया और उनकी प्राथमिकता चुनावों तक ही सीमित रही है। ऐसे वक्त में जब दुनिया के तमाम मुल्क भारत में कोविड संक्रमितों की मदद के लिये आगे आ रहे हैं, भारतीय राजनीति के क्षत्रप राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में लगे हैं। पंजाब में आसन्न चुनाव के लिये सत्तारूढ़ दल के दिग्गजों के बीच टकराव की खबरें हाल ही मीडिया में सुर्खियां बनती रहीं जबकि संकट की घड़ी में उनकी प्राथमिकता महामारी के पीड़ितों के जख्मों पर मरहम लगाने की होनी चाहिए।

सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।

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आयोग की गैर जिम्मेदारी, सत्ता और दलों की भी तय हो जवाबदेही (दैनिक ट्रिब्यून)

मद्रास हाईकोर्ट की इस टिप्पणी ने पूरे देश का ध्यान खींचा है कि कोरोना की दूसरी लहर का विस्फोट चुनाव आयोग की लापरवाही का नतीजा है और उसके अधिकारियों पर आपराधिक मुकदमा चलना चाहिए। अदालत का मानना था कि आयोग अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करने में विफल रहा है, जिसके चलते चुनाव प्रचार के दौरान कोरोना प्रोटोकॉल का जमकर उल्लंघन हुआ है। इस अराजकता को रोकने में आयोग नाकाम रहा है। दरअसल, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश संजीब बनर्जी और जस्टिस कुमार राममूर्ति की पीठ का मानना था कि यह आयोग की संस्थागत विफलता है और वह अपनी जिम्मेदारी को निभाने में विफल रहा है। उसने अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं किया। इसमें दो राय नहीं कि पश्चिम बंगाल के चुनाव अभियान में जिस तरह की भीड़ जुटी और जैसे भारी-भरकम रोड शो किये गये, उसने पूरे देश को हैरान किया। लोग इस तरह के कुतुर्क देने लगे कि जब पश्चिम बंगाल की भीड़ को बिना मास्क व शारीरिक दूरी के कुछ नहीं हो रहा है तो हमें क्या होगा। विडंबना यह रही कि राजनेता और स्टार प्रचारक भी बिना मास्क के नजर आये। कोर्ट ने यहां तक कहा कि यदि आयोग ने कोविड प्रोटोकॉल का कोई ब्लूप्रिंट नहीं बनाया तो दो मई की मतगणना को भी रोका जा सकता है। हालांकि, इसके बाद आयोग ने सक्रियता दिखाते हुए निर्णय लिया है कि मतगणना के बाद विजयी प्रत्याशियों के जुलूस आदि प्रदर्शन पर रोक रहेगी। लेकिन यह कार्रवाई आयोग की साख पर उठे सवालों के बाद ज्यादा प्रभावी नजर नहीं आ रही है। आयोग की यह घोषणा पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, असम व केंद्रशासित प्रदेश पुड्डुचेरी के दो मई को आने वाले चुनाव परिणामों पर लागू रहेगी। मद्रास हाईकोर्ट की टिप्पणी के जवाब में आयोग ने कहा है कि आयोग ने कोरोना संकट के दौरान बिहार के चुनाव को कोविड प्रोटोकॉल के साथ सफलतापूर्वक आयोजित किया। पश्चिम बंगाल में यही प्रोटोकॉल लागू है। विभिन्न राज्यों में हुए चुनावों में सुरक्षा के उपाय किये गये हैं और बाद में चुनाव प्रचार अभियान को नियंत्रित किया गया।


वहीं मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को चेताया कि हम कोरोना संकट को देखते हुए मूकदर्शक नहीं बने रह सकते। अदालत ने केंद्र से पूछा कि इस महासंकट से निपटने का उसका क्या राष्ट्रीय प्लान है। अदालत ने पूछा कि केंद्रीय संसाधनों का कैसे इस्तेमाल किया जा रहा है। मसलन पैरामिलिट्री डॉक्टर्स और सैन्य सुविधाओं का कैसे प्रयोग किया जा रहा है। अदालत का मानना था कि उच्च न्यायालयों को राज्यों के हालात की निगरानी करनी चाहिए, लेकिन शीर्ष अदालत चुप नहीं बैठ सकती। हमारा कार्य राज्यों के बीच समन्वय करना है। सरकार को इस संकट में अन्य बलों का इस्तेमाल करना चाहिए। वहीं सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सरकार की ओर से पक्ष रखा कि सरकार पूरी सतर्कता के साथ स्थिति को संभालने का प्रयास कर रही है। बहरहाल,  इसके बावजूद देश में मंथन जारी है कि क्या वाकई चुनावी रैलियों से संक्रमण की दर बढ़ी है या यह डबल वैरिएंट की देन है। हालांकि, दोनों को लेकर कोई प्रामाणिक अध्ययन सामने नहीं आये, लेकिन यह विचार आम लोगों के जेहन में जरूर तैर रहा है। इसके अलावा बेतहाशा बढ़ते संक्रमण के मूल में लचर भारतीय चिकित्सा तंत्र की भी भूमिका है। वहीं आम धारणा है कि राजनेताओं ने भी जिम्मेदारी का परिचय नहीं दिया और बेझिझक भीड़भाड़ वाली बड़ी रैलियां आयोजित की। दरअसल, सितंबर में संक्रमण दर में जो कमी आई थी, वह फरवरी में फिर ग्राफ उठाने लगी।  फिर रैलियों में तो न तो मास्क नजर आये और न ही शारीरिक दूरी। नेता भी कोविड प्रोटोकॉल का पालन करते नजर नहीं आये। जिसके बाद चुनाव आयोग ने 22 अप्रैल को चुनावी रैलियों पर रोक  भी लगायी। निस्संदेह चुनावी राज्यों में संक्रमण दर में वृद्धि देखी गई  लेकिन वहीं दलील दी जा रही है कि महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक आदि राज्यों में तो चुनाव नहीं थे, वहां रिकॉर्ड संक्रमण की क्या वजह है? 

सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।

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Thursday, April 29, 2021

त्रासदी का आंकड़ा (दैनिक ट्रिब्यून)

यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि देश में कोविड-19 संक्रमण से मरने वालों की संख्या सरकारी आंकड़ों के हिसाब से दो लाख पार कर गई है। किसी भी देश के लिये इतनी बड़ी जनशक्ति का अवसान वाकई पीड़ादायक है। हालांकि सरकारी आंकड़ों को लेकर सवाल उठाने वाले स्वतंत्र पर्यवेक्षक संख्या को इससे ज्यादा बताते हैं, लेकिन आंकड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है और हमारी विवशता को ही जाहिर करता है। यह हमारे नीति-नियंताओं पर सवाल खड़ा करता है। बताता है कि हम ऐसा स्वास्थ्य तंत्र विकसित नहीं कर पाये हैं जो अनमोल जिंदगियां बचाने का काम कर सके। निश्चय ही सदियों की गुलामी और साम्राज्यवादी ताकतों के अन्यायपूर्ण दोहन से मुक्त होकर हम अपनी आजादी की हीरक जयंती मनाने की दहलीज पर जा पहुंचे हैं, लेकिन देश में स्वास्थ्य विषयक आंकड़े विकासशील देशों की सूची में शर्मसार करने वाले हैं। जनमानस के रूप में भी हम समाज में स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता पैदा नहीं कर पाये हैं। न ही जनता को इतना विवेकशील बना पाये हैं कि वे राजनेताओं के घोषणापत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं को प्राथमिक दर्जा दिला सकें। राजनीतिक दलों ने भी कभी स्वास्थ्य सेवाओं को इतना बजट ही नहीं दिया कि देश में मजबूत स्वास्थ्य तंंत्र विकसित हो सके। हमारा चिकित्सा तंत्र सामान्य दिनों में ही पर्याप्त चिकित्सा हर मरीज को देने में विफल रहा है। दवाओं-चिकित्सा सुविधाओं की किल्लत से लेकर डाक्टरों व स्वास्थ्य कर्मियों की कमी से सरकारी अस्पताल जूझते रहे हैं। तो ऐसे में ये उम्मीद करना बेमानी ही था कि एक  अज्ञात संक्रामक रोग के खिलाफ हम मजबूती से लड़ सकें। अस्पतालों के बाहर बेड और ऑक्सीजन पाने के लिये तड़पते मरीज और बदहवास तीमारदार इस बेबसी को ही दर्शाते हैं। निस्संदेह, कोरोना से मरने वालों में बड़ी संख्या उन लोगों की है जो पहले से ही कई घातक रोगों से जूझ रहे थे। लेकिन ऑक्सीजन की कमी से लोगों का मरना हमारी शर्मनाक विफलता को दर्शाता है।


इस हताशा व निराशा के बीच उम्मीद की किरण यह है कि हमने देश में स्वदेशी वैक्सीन कोवैक्सीन तैयार कर ली और कोविशील्ड का उत्पादन देश में कर रहे हैं। इस महामारी में यदि हमें विदेशी वैक्सीन पर निर्भर रहना पड़ता तो सवा अरब के देश के क्या हालात होते, अंदाजा लगाया जा सकता है। अब रूस की स्पूतनिक समेत कई अन्य वैक्सीनों के रास्ते भी खुले हैं। हम अब तक दुनिया में सबसे तेज गति से पंद्रह करोड़ वैक्सीन लगा चुके हैं। ऐसे वक्त में जब इस महामारी का कोई इलाज नहीं है, वैक्सीन ही हमारा उद्धार कर सकती है। दो चरणों का सफल टीकाकरण हुआ, जिसमें पहले स्वास्थ्य कर्मियों और साठ साल से अधिक के लोगों को और दूसरे चरण में 45 साल से अधिक के लोगों का टीकाकरण किया गया। अब एक मई से देश में 18 वर्ष से अधिक के लोगों को टीका लगाने का काम शुरू हो जायेगा। इसके पंजीकरण का काम बुधवार से शुरू हो गया। इस चरण में अब राज्य सरकारें, निजी अस्पताल और टीकाकरण केंद्र वैक्सीन निर्माता कंपनियों से सीधे वैक्सीन खरीद सकेंगे। यहां तक कि कंपनियां अपने स्टॉक का पचास फीसदी केंद्र को व पचास फीसदी बाकी राज्यों व निजी अस्पतालों को दे सकेंगी। कोविशील्ड खुले बाजार में कुछ माह के बाद उपलब्ध  हो सकेगी। सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बॉयोटेक ने केंद्र, राज्यों व निजी अस्पतालों के लिये वैक्सीन की अलग-अलग कीमतें निर्धारित की हैं, जिसको लेकर कहा जा रहा है कि एक देश में अलग-अलग दरें क्यों निर्धारित की जा रही हैं, जबकि वैक्सीन देश के लोगों को ही मिलनी है। सीरम ने कहा है कि मौजूदा ऑर्डर पूरा होने के बाद कंपनी केंद्र को भी राज्यों की दर पर ही वैक्सीन देगी। वहीं भारत बॉयोटेक पहली कीमत पर केंद्र को वैक्सीन उपलब्ध करायेगी। हालांकि, यह राज्यों का अधिकार है कि वे नागरिकों को किस कीमत पर वैक्सीन उपलब्ध कराते हैं। कुछ राज्यों ने मुफ्त वैक्सीन देने की बात कही है। केंद्र ने वैक्सीन निर्माता कंपनियों को साढ़े चार हजार करोड़ रुपये की राशि उपलब्ध कराने की घोषणा की है।

सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।

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Tuesday, April 27, 2021

लाचारी की त्रासद तस्वीर, कार्यशैली बदलें केंद्र व राज्य (दैनिक ट्रिब्यून)

दिल्ली समेत देश के कई अस्पतालों में ऑक्सीजन संकट से कोरोना संक्रमित मरीजों के मौत की खबरें विचलित करने वाली हैं। इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है कि लोग जीवन बचाने अस्पताल में जायें और उन्हें मौत मिले। एक तो हमने कोरोना संकट की आसन्न दूसरी लहर का आकलन करके तैयारी नहीं की, दूसरे केंद्र व राज्यों में ऑक्सीजन की आपूर्ति को लेकर टकराव और भेदभाव की खबरें परेशान करने वाली हैं। देश में ऑक्सीजन सिलेंडरों को लेकर मारे-मारे फिरते मरीजों के तीमारदार तथा टैंपों-टैक्सी और एंबुलेंसों में  ऑक्सीजन लगाये बैठे हताश मरीज लाचारी की त्रासद तस्वीर दर्शाते हैं। ऑक्सीजन संकट के बीच दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल तथा शुक्रवार की रात दिल्ली स्थित जयपुर गोल्डन अस्पताल में दर्जनों मरीजों की मौत ने देश को स्तब्ध किया। मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और पंजाब से भी ऐसी खबरें सामने आईं। शायद ऑक्सीजन की आपूर्ति में बाधा को देखते हुए ही दिल्ली हाईकोर्ट को सरकारों को फटकार लगानी पड़ी। कोर्ट ने तल्ख शब्दों में कहा कि दिल्ली के लिये बढ़ाये ऑक्सीजन के कोटे की निर्बाध आपूर्ति में यदि कोई बाधा डालेगा तो अधिकारियों को सख्त दंड दिया जायेगा। हालात बड़े परेशान करने वाले हैं, अस्पताल में मरीजों को इसलिये भर्ती नहीं किया जा रहा है कि ऑक्सीजन का संकट बना हुआ।


इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने भी कई राज्यों के उच्च न्यायालयों में ऑक्सीजन संकट पर जारी सुनवाई पर स्वत: संज्ञान लेते हुए इसे राष्ट्रीय आपातकाल कहा और ऑक्सीजन आपूर्ति और दवाओं के वितरण की राष्ट्रीय योजना मांगी। जाहिरा बात है कि समय रहते ऑक्सीजन संकट के समाधान की कोशिश नहीं हुई। जनता की बेबसी का फायदा उठाते हुए अगर दवाओं की कालाबाजारी हो रही है और शासन-प्रशासन कुछ नहीं कर पा रहा है तो इसे तंत्र की नाकामी ही माना जायेगा। जब सरकारें दायित्व निभाने में विफल रहती हैं तो अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ता है। बाद में गृह मंत्रालय को राज्यों को निर्देश देने पड़े कि यदि ऑक्सीजन आपूर्ति में राज्यों के बीच आवाजाही में किसी तरह की बाधा उत्पन्न होती है तो इसके लिये डीएम और एसपी जिम्मेदार होंगे। बहरहाल, देश ने ऑक्सीजन का ऐसा भयावह संकट पहले कभी नहीं देखा। अस्पतालों में कोहराम मचा है। बताया जा रहा है कि बीते वर्ष अप्रैल में जब देश में कोरोना के गिने-चुने मामले थे, अधिकारियों के एक एम्पावर्ड समूह की बैठक में देश में मेडिकल ऑक्सीजन की कमी का मुद्दा उठाया गया था। स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों की स्थायी संसदीय समिति ने भी इस आसन्न संकट की ओर ध्यान खींचा था। समिति ने अक्तूबर, 2020 में राज्यसभा सभापति को इस बाबत रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। जाहिर बात है कि हम इस आसन्न संकट को लेकर तैयारी करने में चूके हैं। यह ठीक है कि सामान्य दिनों में मेडिकल ऑक्सीजन की मांग कम होती है, लेकिन संक्रमण संकट को महसूस करते हुए विषम परिस्थितियों के लिये तैयार रहना चाहिए था।

सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।

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Sunday, April 25, 2021

वैक्सीन ही भरोसा (दैनिक ट्रिब्यून)

ऐसे समय में जब देश में कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर कहर बरपा रही है और उपचार के तमाम संसाधन सिकुड़ गये हों, वैक्सीन ही एकमात्र ब्रह्मास्त्र साबित हो सकती है। ऐसे हालात में हम एक बड़ी आबादी को टीका लगाकर ही इस महामारी पर किसी तरह से अंकुश लगा सकते हैं। हालांकि देश में दुनिया के सबसे तेज टीकाकरण का दावा किया जा रहा है, लेकिन टीकाकरण सवा अरब की जनसंख्या के मुकाबले काफी कम है। विकसित देश अपनी बड़ी आबादी को टीका लगाकर कोरोना संक्रमण को पछाड़ने की दिशा में आगे बढ़ चुके हैं। वहां संक्रमण के नये मामलों में बड़ी गिरावट देखी गई है। ऐसे में भले ही भारत टीका लगाने वालों की संख्या में तेरह करोड़ के करीब पहुंच चुका है, लेकिन अभी भी हमारी मंजिल बहुत दूर है। हालांकि, भारत दुनिया में सबसे बड़ा टीका उत्पादक देश है लेकिन संसाधनों का संकट हमारे सामने बड़ी बाधा बना हुआ है। इसके चलते मौजूदा संकट में केंद्र सरकार ने पुणे स्थित सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया को बड़ी आर्थिक सहायता देने की घोषणा की है। हालांकि, अमेरिका व यूरोपीय देशों ने टीका बनाने में इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल के निर्यात पर रोक लगा रखी है, लेकिन उम्मीद है कि भारतीय कंपनियां कुछ वैकल्पिक रास्ते जरूर निकाल लेंगी। बहरहाल, इसी बीच केंद्र सरकार ने तीसरे चरण के टीकाकरण के लिये कार्यक्रम की  घोषणा करते हुए अब अठारह साल से अधिक उम्र के हर व्यक्ति को टीका लगाने की अनुमति दे दी है। निश्चित रूप से इससे देश की बड़ी जनसंख्या को टीकाकरण के दायरे में लाया जा सकेगा।  भारत युवाओं का देश है और इस कर्मशील आबादी को टीका लगाना आर्थिक उन्नति की दृष्टि से हमारी प्राथमिकताओं में होना ही चाहिए। केंद्र सरकार ने टीकाकरण के एक मई से शुरू होने वाले कार्यक्रम की रूपरेखा घोषित कर दी है। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई महत्वपूर्ण बैठक में सोमवार को फैसला लिया गया कि तीसरे चरण के वैक्सीनेशन कार्यक्रम में अब तेजी लायी जा सकेगी। इसका दायरा बढ़ाया गया है क्योंकि अब तक 45 साल से ऊपर उम्र वालों को ही वैक्सीन दी जा रही थी। 


दरअसल, जहां 16 जनवरी से शुरू हुए पहले टीकाकरण अभियान में केवल हेल्थ वर्कर्स एवं अग्रिम मोर्चे के जांबाजों को वैक्सीन दी गई थी, वहीं एक मार्च से शुरू हुए दूसरे चरण में 45 साल से अधिक उम्र के लोगों के लिये टीकाकरण का प्रावधान किया गया था। देश में अब तक टीकाकरण कार्यक्रम भारत बायोटेक तथा सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा निर्मित दो वैक्सीनों के जरिये चलाया जा रहा था। वहीं अब मई से  हाल ही में आपातकालीन उपयोग के लिये रूस में निर्मित स्पुतनिक वैक्सीन को भी अनुमति दी गई है। इसके साथ ही हालिया बैठक में सरकार ने फैसला लिया है कि टीके की कीमत निर्धारण और इसका दायरा बढ़ाया जायेगा। सरकार के निर्णय के अनुसार वैक्सीन निर्माता कंपनियां अब अपने कुल उत्पादन का आधा भारत सरकार को उपलब्ध करायेंगी तथा शेष वैक्सीन राज्य सरकारों व खुले बाजार में आपूर्ति कर सकेंगी। सरकार आने वाले दिनों में खुले बाजार में बेची जाने वाली वैक्सीन की कीमत की घोषणा करेगी, ताकि निजी अस्पतालों में लोगों से मनमाने दाम न वसूले जा सकें। दरअसल, इसी कीमत पर राज्य सरकारें, प्राइवेट अस्पताल तथा अन्य संस्थान वैक्सीन की खरीद कर सकेंगे। सरकार का मकसद वैक्सीन की कीमत में पारदर्शिता कायम करना भी है। देश के युवा इस माध्यम से वैक्सीन लगवा सकेंगे। इसके अलावा लक्षित आयु वर्ग तथा स्वास्थ्य कर्मियों व फ्रंट लाइन वर्कर्स को मुफ्त में वैक्सीन दी जाती रहेगी। लेकिन भविष्य में भी टीकाकरण के लिये निर्धारित नियमों का पालन नेशनल वैक्सीनेशन कार्यक्रम के तरह पहले ही की तरह करना होगा। निस्संदेह, कोरोना संक्रमण की दूसरी घातक लहर में हम टीकाकरण के जरिये ही चुनौती का मुकाबला कर सकते हैं। हाल के दिनों में कुछ राज्यों ने टीके की कमी की शिकायत की थी, कोशिश हो कि ऐसी कोई दिक्कत टीकाकरण अभियान में न आये। 

सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।

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Saturday, April 24, 2021

सलाह का सहारा (दैनिक ट्रिब्यून)

 महामारी संक्रमण की दूसरी लहर के बीच सरकारी अस्पतालों की हालत किसी से छिपी नहीं है। बेड और ऑक्सीजन की किल्लत के बीच दम तोड़ते लोगों की खबरें हमें विचलित करती हैं। निस्संदेह तंत्र की चूक और समय रहते संकट का आकलन न कर पाना इस महामारी को भयावह बना गया। जो अस्पताल सामान्य दिनों में ही मरीजों को पर्याप्त इलाज नहीं दे पा रहे थे, उनसे महामारी में उपचार की उम्मीद करना ही बेमानी है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और विशेषज्ञों के स्तर पर भी यह बताने की चूक हुई है कि इस नयी और अनजान बीमारी से संक्रमित होने पर उपलब्ध संसाधनों के आधार पर जीवन कैसेे बचे। गाहे-बगाहे रोग को लेकर तमाम बेसिर-पैर की खबरें आती हैं। लोग उन्हें सच मानकर जरूरी दवाओं को जमा करना शुरू कर देते हैं। दूसरे गंभीर रोगों की दवाइयां और इंजेक्शन कोरोना उपचार में वैकल्पिक रूप से इस्तेमाल करने मात्र से उनकी कीमतें आसमान छूने लगती हैं। रेमडेसिविर की कालाबाजारी की भी यही वजह थी। आखिर भय-असुरक्षा के माहौल में जनता किस दिशा में चले, यह प्रामाणिक जानकारी देने वाला कोई नहीं था। कायदे से तो रोज चिकित्सा मामलों के विशेषज्ञों द्वारा देश की जनता को भ्रम-भय से बाहर निकालने की प्रामाणिक जानकारी दी जानी चाहिए थी। अब जब देश में रोज संक्रमितों का आंकड़ा सवा तीन लाख पार कर रहा है, कोरोना के उपचार को लेकर एम्स, आईसीएमआर, कोविड-19 टास्क फोर्स, ज्वाइंट मॉनिटरिंग ग्रुप की नयी गाइड लाइन्स सामने आई हैं, जिसमें कोरोना के वयस्क मरीजों के लिये दिशा-निर्देश जारी किये गये हैं। जिसमें रोगियों को माइल्ड, मॉडरेट और गंभीर श्रेणी में बांटा गया है। माइल्ड श्रेणी में वे रोगी आएंगे जो हल्के संक्रमण में तो हैं, मगर उन्हें सांस लेने में दिक्कत नहीं होती। मॉडरेट श्रेणी में वे आएंगे, जिनके कमरे की हवा में ऑक्सीजन का स्तर 93 से 90 के बीच है। वहीं गंभीर श्रेणी में वे आएंगे, जिनका ऑक्सीजन स्तर नब्बे प्रतिशत से कम है।


दरअसल, हल्के संक्रमण वाले रोगियों को घर पर एकांतवास में रहने, बचाव के उपाय अपनाने तथा चिकित्सीय परामर्श लेने की सलाह दी गई। मध्यम श्रेणी को ऑक्सीजन सपोर्ट के लिये वार्ड में भर्ती होने की सलाह दी गई है। मरीज के गंभीर होने पर चेस्ट सीटी स्केन और एक्सरे की सलाह भी दी गई है। वहीं गंभीर श्रेणी के मरीजों को आईसीयू में भर्ती करने तथा रेस्पिरेटरी सपोर्ट देने का परामर्श है। दरअसल, हाल के दिनों में साठ साल से अधिक उम्र के जीवनशैली के रोगों से पीडि़त रोगी संक्रमण से गंभीर रूप से पीड़ित हुए। कमोबेश इसी वर्ग में मृत्यु दर अधिक पायी गई है। तभी गंभीर और मध्यम श्रेणी के उन रोगियों को रेमडेसिविर के इस्तेमाल की सलाह दी गई, जिन्हें ऑक्सीजन पर रखने की जरूरत नहीं है। वहीं स्वास्थ्य मंत्रालय ने ऑक्सीजन की कमी महसूस कर रहे रोगियों को प्रोनिंग विधि के इस्तेमाल की सलाह दी है, जिससे वे घर अथवा अस्पताल में भर्ती होते हुए भी चिकित्सीय दृष्टि से सम्मत विधि से ऑक्सीजन लेवल दुरुस्त कर सकते हैं जो ऑक्सीजन किल्लत के बीच राहतकारी हो सकता है। जिन मरीजों को सांस लेने में दिक्कत हो रही है, उन्हें प्रोनिंग के जरिये ऑक्सीजन लेवल सुधारने की सलाह दी गई है। गाइडलाइन में बताया गया है कि पेट के बल लेटकर गहरी सांस लेने की प्रोनिंग प्रक्रिया उन लोगों के लिये उपयोगी है जो घर पर ही एकांतवास में सांस लेने में दिक्कत महसूस कर रहे हैं और ऑक्सीजन का स्तर 94 से नीचे चला गया हो। यह विधि 80 फीसदी तक कारगर है। इससे सांस लेने और ऑक्सीजन का स्तर सुधरता है। इतना ही नहीं, आईसीयू में भर्ती मरीजों में भी इसके अच्छे परिणाम देखने को मिले हैं  जो वेंटिलेटर न मिलने की स्थिति में भी कारगर हैै। इस विधि में पेट के बल लेटकर तकिया इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है। जिन्हें गर्दन, सीने के नीचे से लेकर जांघ तक तथा पैर के नीचे रखने की सलाह दी जाती है। बीच-बीच में स्थिति बदलते रहना चाहिए और किसी भी अवस्था में तीस मिनट से अधिक नहीं रहना चाहिए। साथ ही दिल के रोगों तथा गर्भावस्था में इससे बचना चाहिए। यह प्रक्रिया 24 घंटे में से 16 घंटे तक करके सांसों की गति को सुधारा जा सकता है। 

सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।

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Friday, April 23, 2021

जीवन की आस में मौत (दैनिक ट्रिब्यून)

 महाराष्ट्र के नासिक स्थित एक अस्पताल में ऑक्सीजन टैंकर से ऑक्सीजन रिसाव होने से हुए हादसे में 24 कोरोना संक्रमित मरीजों की मौत विचलित करने वाली है। जीवन बचाने की उम्मीद में अस्पताल में भर्ती मरीजों को लापरवाही के चलते मौत बांटना शर्मनाक ही कहा जायेगा। जांच व मुआवजे की रस्म अदायगी के इतर सबसे बड़ा सवाल यह है कि इतने गंभीर रोगियों की देखरेख में ऐसी लापरवाही क्यों हुई। हादसा चाहे तकनीकी कारणों से हो या मानवीय चूक से, इसकी जवाबदेही तय होनी चाहिए। आखिर ऑक्सीजन टैंकर के रिसाव को नियंत्रित करने के लिये जिम्मेदार कर्मचारी व अधिकारी वहां मौजूद क्यों नहीं थे। जाहिर है यह डॉक्टरों का काम नहीं है, वैसे भी इस समय अस्पतालों पर महामारी के चलते भारी दबाव है। आखिर रिसाव नियंत्रित करने के क्रम में ऑक्सीजन की आपूर्ति दो घंटे तक क्यों बंद की गई, यह जानते हुए कि साठ से अधिक मरीज आक्सीजन पर जीवन के लिये संघर्ष कर रहे थे, जिसमें 24 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा और कई अन्य मरीज अभी भी गंभीर स्थिति में पहुंच गये हैं। यह पहली घटना नहीं है, पिछले एक साल के भीतर महाराष्ट्र, गुजरात आदि राज्यों में कोविड अस्पतालों में आग लगने व अन्य हादसों में कई रोगियों की जान गई है। कई अस्पतालों में ऑक्सीजन आपूर्ति न मिलने के कारण मरीजों के मरने के आरोप लगे हैं। आखिर इन मरीजों की मौत की जवाबदेही तय क्यों नहीं की जाती? क्यों ऐसे संवेदनशील मरीजों के उपचार वाले अस्पतालों में सुरक्षा के उच्च मानकों का पालन नहीं किया जाता। क्यों हम दुर्घटनाओं से रहित चिकित्सा व्यवस्था नहीं दे पाते। ये दुर्घटनाएं मानवीय चूक की ही ओर इशारा करती हैं। वैसे देश के डॉक्टर व चिकित्साकर्मी अपनी जान की बाजी लगाकर लोगों को बचाने में लगे हैं, लेकिन प्रबंधतंत्र को ऐसे हादसों को टालने के गंभीर प्रयास करने चाहिए।


निस्संदेह देश इस समय एक भयंकर दौर से गुजर रहा है। अस्पतालों में बेड, दवाओं और आक्सीजन की भारी कमी है। यह आपदा न केवल आम लोगों बल्कि हमारे चिकित्सातंत्र की भी बड़ी परीक्षा है। हमारे सत्ताधीश इस महामारी की दूसरी लहर का समय रहते आकलन नहीं कर पाये। कोरोना संकट के पहले दौर में गिरावट के समय को इन संसाधनों को समृद्ध बनाने में नहीं कर पाये, जिस कारण ऐसी शर्मनाक स्थिति बन गई है कि दुनिया के देश भारत यात्रा पर आने के लिये अपने नागरिकों पर प्रतिबंध लगा रहे हैं। तमाम देशों को वैक्सीन आपूर्ति करके हमने जो साख बनायी थी उस पर बट्टा लग रहा है। एक नागरिक के तौर पर कोरोना से बचाव के उपायों का पालन करने में तो हम असफल हुए हैं, मगर यह तंत्र की भी बड़ी विफलता है। जिस संवेदनशीलता के साथ इस दिशा में बचाव की रणनीति बनायी जानी चाहिए थी उसमें हम चूके हैं। आज कई देश वैक्सीनेशन कार्यक्रम को सुनियोजित ढंग से चलाकर कोरोना को हरा चुके हैं और उनके नागरिक खुली हवा में सांस लेने लगे हैं। इस्राइल, न्यूजीलैंड, दक्षिण कोरिया व ताइवान जैसे देश कामयाबी की इबारत लिख रहे हैं। हम जीती हुई लड़ाई हारते नजर आ रहे हैं। निस्संदेह हम विकासशील देश हैं, हमारे साधन सीमित हैं और हम दुनिया की बड़ी आबादी वाला देश हैं। जनसंख्या का घनत्व अधिक होना भी हमारी चुनौती है। लेकिन उसके बावजूद हम सुनियोजित तरीके से इस युद्ध को नियंत्रित कर सकते थे। केंद्र व राज्य इस दिशा में युद्धस्तर पर काम कर रहे हैं लेकिन अभी भी बेहतर तालमेल से स्थितियों को काबू करने की जरूरत है। यही वजह है कि इसे राष्ट्रीय आपातकाल जैसी स्थिति बताते हुए देश की शीर्ष अदालत ने स्वत: संज्ञान लेते हुए केंद्र सरकार से ऑक्सीजन व दवा की कमी पर जवाब मांगा है। साथ ही पूछा है कि इस संकट से निपटने के लिये उसकी राष्ट्रीय स्तर पर क्या योजना है। दरअसल, देश के छह हाईकोर्टों में कोरोना संकट से जुड़े मामलों की सुनवाई चल रही है, जिससे भ्रम की स्थिति बन रही है।

सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।

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Thursday, April 22, 2021

फिर वही त्रासदी (दैनिक ट्रिब्यून)

कोरोना महामारी का दूसरा दौर शुरू होते ही बीते साल का वही मंजर दिखना शुरू हो गया है, जिसमें बस व रेलवे स्टेशनों पर कामगारों का हुजूम उमड़ा था। हताश और बेबस लोग अपनी जरूरत का सामान लादे और अपने बच्चों को संभाले अपने गांव व पैतृक निवास लौटने को आतुर थे। वे दोहरे संकट में हैं। एक तो जिस रोजगार की तलाश में वे शहरों में आये थे, वह छूटता नजर आ रहा है, वहीं संक्रमण का खतरा बढ़ रहा है। मजबूरी में अपने छोटे बच्चों को इस असुरक्षित वातावरण में लेकर जा रहे हैं। कमोबेश कोरोना संकट के दूसरे दौर में भी वही सब कुछ दोहराया जाता दिख रहा है। चिंता इस बात की है कि राजनेताओं के आग्रह के बावजूद वे रुकने को तैयार नहीं हैं, उन्हें डर सता रहा है कि यदि लॉकडाउन लंबा खिंचा तो फिर वे कहीं पिछले साल की तरह दाने-दाने के लिये मोहताज न हो जायें। उन्होंने दिल्ली में छह दिन के लॉकडाउन लगाने पर मुख्यमंत्री की उस अपील पर भी ध्यान नहीं दिया, जिसमें सरकार ने उनके खाने, रहने, टीकाकरण और सुरक्षा की व्यवस्था करने का वादा किया। समाज में राजनेताओं के प्रति अविश्वास इतना गहरा है कि लोग उन पर विश्वास करने को तैयार नहीं होते। अच्छी बात यह है कि इस बार बसें व ट्रेनें चल रही हैं। इसके बावजूद श्रमिकों से वाहन चालकों द्वारा ज्यादा किराया वसूलने की शिकायतें सामने आ रही हैं। जान जोखिम में डालकर बसों की छतों पर सवार कामगार किसी तरह बस अपने घर पहुंचने को आतुर हैं। यह जानते हुए भी कि उनके गांव पहुंचने पर संक्रमण को लेकर उन्हें संदिग्ध दृष्टि से देखा जायेगा और पहले कुछ दिनों के लिये क्वारंटाइन किया जायेगा। कहा जा रहा है कि यदि उन्हें रोका न गया तो वे सुपर स्प्रेडर साबित हो सकते हैं। अत: उन्हें शहरों में उनके स्थानों पर ही रहने को प्रेरित किया जाये।


दरअसल, एक तो बीते साल की तमाम घोषणाओं पर अमल नहीं हुआ और दूसरे पिछले साल के कटु अनुभवों के बीच सख्त लॉकडाउन की आशंका बनी हुई है। रोज कमाकर खाने वाला वर्ग लॉकडाउन की मार ज्यादा समय तक बर्दाश्त नहीं कर सकता। इस बार भी कोई भरोसेमंद उपाय राज्य सरकारों और औद्योगिक इकाइयों की तरफ से नहीं किये गये हैं। बीते लॉकडाउन में काम देने वाले सेवायोजकों और ठेकेदारों द्वारा फोन बंद कर दिये जाने से श्रमिक दर-दर की ठोकरें खाते रहे थे। सरकारों ने श्रमिकों को यह भरोसा नहीं दिलाया कि यदि लॉकडाउन लंबा चलता है तो वे किन आपातकालीन उपायों को अमल में लायेंगे। केंद्र सरकार की तरफ से भी कोई उत्साह जगाने वाली घोषणाएं सामने नहीं आई। नई पीढ़ी को पिछले लॉकडाउन के बाद हुए पलायन ने देश के विभाजन के क्षणों की याद ताजा करा दी थी। यह एक बड़ी मानवीय त्रासदी थी जब करीब एक करोड़ कामगार बेबसी में अपने राज्यों की ओर लौटते नजर आये। पैदल, साइकिल व ट्रकों के जरिये लाखों लोगों के हुजूम सड़कों पर नजर आये। कितने ही लोग बीमारी से और सड़क व ट्रेन दुर्घटनाओं में मारे गये। उनका जीवन व जीविका दोनों संकट में पड़ गये थे। राज्य सरकारों ने भी इन कामगारों को राज्यों में रोकने के लिये बड़ी-बड़ी घोषणाएं कीं, लेकिन वे सिर्फ घोषणाएं ही साबित हुईं। कामगार फिर महानगरों की ओर लौटे थे, लेकिन दूसरी कोरोना लहर ने उनके अरमानों पर फिर पानी फेर दिया। इस बार पुनः राज्य सरकारों को लौट रहे इन कामगारों की कोरोना जांच, खाने-पीने और पुनर्वास पर गंभीरता से विचार करना होगा ताकि कामगारों का दुख-दर्द और न बढ़े। सामाजिक रूप से भी यह विडंबना है कि जिन शहरों का जीवन संवारने के लिये ये कामगार घर-बार छोड़कर आते हैं, उस शहर का समाज भी इनके प्रति संवेदनशील नहीं होता। प्रधानमंत्री ने बीते साल लोगों से मकानों के किराये को टालने और सेवायोजकों से वेतन न काटने की अपील की थी। लेकिन न तो समाज इनकी मदद के लिये आगे आया, न मकान मालिक ने रहमदिली दिखाई और न ही सेवायोजक ने वेतन काटने में कोई संवेदनशीलता दिखायी।

सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।

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Tuesday, April 20, 2021

प्राणवायु का संकट (दैनिक ट्रिब्यून)

कोरोना संकट की दूसरी मारक लहर के बीच मरीजों की लाचारगी, अस्पतालों में बेड व ऑक्सीजन तथा चिकित्साकर्मियों की कमी बताती है कि हम आपदा की आहट को महसूस नहीं कर पाये। यह  भी कि पिछले सात दशकों में राजनीतिक नेतृत्व देश की जनसंख्या के अनुपात में कारगर चिकित्सा तंत्र विकसित नहीं कर पाया है। निस्संदेह पहली लहर के बाद हमने पर्याप्त तैयारी कर ली होती तो मरीजों को अस्पताल में भर्ती होने के लिये दर-दर न भटकना पड़ता। हालांकि, केंद्र सरकार ने देशव्यापी ऑक्सीजन संकट के बाद कुछ कदम उठाये हैं लेकिन कहना कठिन है कि इनका लाभ मरीजों को कब तक मिल पायेगा। पूरे देश में 162 ऑक्सीजन प्लांट लगाने की मंजूरी दी गयी है। लेकिन बेहद जटिल प्रक्रिया से बनायी जाने वाली मेडिकल ऑक्सीजन का उत्पादन, उसकी ज्वलनशीलता के चलते उसका भंडारण और परिवहन  अपने आप में बेहद चुनौतीपूर्ण है, जिसके लिये कुशल तकनीशियनों और ज्वलनशीलता के चलते विशेष प्रकार के टैंकरों की देश में उपलब्धता सीमित मात्रा में है। ऐसे में युद्धस्तर पर नये प्लांटों को स्थापित करने और उत्पादन में तेजी लाने के लिये केंद्र व राज्य सरकारों को विशेष भूमिका निभानी होगी। शनिवार व रविवार की रात्रि में मध्य प्रदेश के शहडोल स्थित मेडिकल कालेज के अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी से आईसीयू में भर्ती बारह लोगों की मौत की खबरें आई हैं। हालांकि, प्रशासन इस बात से इनकार कर रहा है और उसकी दलील है कि मरीज पहले से ही गंभीर अवस्था में थे। इससे पहले देश में कोरोना संक्रमण से सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य महाराष्ट्र ने सबसे पहले ऑक्सीजन की कमी का मुद्दा उठाया था और प्रधानमंत्री से वायुसेना के जरिये ऑक्सीजन की आपूर्ति की मांग की थी। ऐसी ही मांग दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी की थी। कुछ भाजपा शासित राज्यों में भी ऑक्सीजन संकट की बात कही जा रही थी। निश्चित रूप से देश के कई भागों में ऑक्सीजन की कमी महसूस की जा रही है।


यही वजह है कि केंद्र सरकार ने ऑक्सीजन की आपूर्ति में तेजी लाने के लिये 162 संयंत्रों को लगाने की मंजूरी दी है। इतना ही नहीं, मौजूदा संकट से निपटने के लिये देश में उद्योगों के लिये  इस्तेमाल होने वाली ऑक्सीजन के उपयोग पर रोक लगायी है। हालांकि दवा, फार्मास्यूटिकल्स, परमाणु ऊर्जा, ऑक्सीजन सिलेंडर निर्माताओं, खाद्य व जल शुद्धिकरण उद्योग को इससे छूट दी गई है। इस कार्य में टाटा स्टील समेत कई उद्योगों ने मेडिकल ऑक्सीजन की आपूर्ति की घोषणा की है। देश में ऑक्सीजन संकट को देखते हुए रेलवे ने भी ऑक्सीजन एक्सप्रेस चलाने का निर्णय लिया है। जिसके जरिये तरल ऑक्सीजन व ऑक्सीजन सिलेंडरों का परिवहन किया जा सकेगा। इसकी गति में कोई अवरोध पैदा ना हो, इसलिये ग्रीन कॉरिडोर तैयार किया जा रहा है। निस्संदेह उखड़ती सांसों को थामने के लिये मेडिकल ऑक्सीजन का रुख अस्पतालों की ओर करना वक्त की जरूरत है। लेकिन यह तैयारी दूरगामी चुनौतियों को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए। आने वाले समय में भी हमें एेसे नये संक्रमणों का सामना करने के लिये तैयार रहना पड़ सकता है। जाहिरा तौर पर आग लगने पर कुआं खोदने की तदर्थवादी नीतियों से बचने की जरूरत है। ऐसे ही सरकार द्वारा कोरोना मरीजों के लिये उपयोगी इंजेक्शन रेमडेसिविर की कालाबाजारी रोकने तथा इसकी कीमत घटाकर उत्पादन दुगना करने का प्रयास सराहनीय कदम हैं। इसके अलावा कोरोना संक्रमण में काम आने वाली अन्य दवाओं व साधनों के दुरुपयोग पर भी रोक लगाने की जरूरत है।  इसके लिये देश के स्वास्थ्य ढांचे में भी आमूलचूल परिवर्तन करने की जरूरत है। देश की जनता को भी चाहिए कि वह स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार को अपनी प्राथमिकता बनाये और राजनेताओं पर इसके क्रियान्वयन के लिये दबाव बनाए। ऐसे वक्त में जब देश एक अभूतपूर्व संकट गुजर रहा है, इस मुद्दे पर अप्रिय राजनीति से भी बचा जाना चाहिए। यदि हम समय पर न चेते तो प्रतिदिन तीन लाख के करीब पहुंच रहे संक्रमण के आंकड़े हमें दुनिया में संक्रमितों के मामले में नंबर वन बना देंगे, जिससे निपटना हमारे तंत्र के बूते की बात नहीं होगी।

सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।

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Monday, April 19, 2021

आपदा में धर्म (दैनिक ट्रिब्यून)

प्रधानमंत्री द्वारा हरिद्वार कुंभ को प्रतीकात्मक बनाने की अपील पर साधु-संतों का सकारात्मक प्रतिसाद स्वागतयोग्य है। इसके बाद नागा संन्यासियों के सबसे बड़े पंचदशनाम जूना अखाड़ा ने शनिवार को कुंभ विसर्जन की घोषणा कर दी। साथ ही जूना अखाड़े के सहयोगी अग्नि, आह्वान व किन्नर अखाड़ा भी इसमें शामिल हुए। इससे पहले श्री निरंजनी अखाड़ा और श्री आनन्द अखाड़ा भी कुंभ विसर्जन की घोषणा कर चुके हैं। हालांकि, आधिकारिक रूप से एक अप्रैल को शुरू हुआ कुंभ मेले का आयोजन तीस अप्रैल तक होना था, लेकिन कोरोना की दूसरी भयावह लहर के चलते यह निर्णय निश्चित रूप से स्वागतयोग्य कदम है। बेहतर होता कि देश में संक्रमण की स्थिति को देखते हुए 14 अप्रैल के मुख्य स्नान के बाद ही ऐसी रचनात्मक पहल की गई होती। मुख्य स्नान पर आई खबर ने पूरे देश को चौंकाया था कि चौदह लाख लोगों ने कंुभ में डुबकी लगायी। निस्संदेह कुंभ सदियों से करोड़ों भारतीयों की आस्था का पर्व रहा है। यह समाज की आस्था का पर्व है, अत: समाज की सुरक्षा हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। समाज से ही आस्था है और कुंभ भी है। आस्था ही वजह है कि देश के कोने-कोने से करोड़ों लोग बिना किसी बुलावे के गंगा के तट पर डुबकी लगाने पहुंच जाते हैं। निस्संदेह मनुष्य से ही धर्म और संत समाज का अस्तित्व है।


सही मायनों में आपदा के वक्त धर्म के निहितार्थ बदल जाते हैं। यही धर्म का सार भी है; जिसका लक्ष्य लोक का कल्याण है, जिसकी फिक्र संत समाज को भी करनी चाहिए। यही वजह है कि कुंभ को टालने और मानवता धर्म का पालन करने का आग्रह राजसत्ता की तरफ से किया गया। देश में बड़ी विकट स्थिति है। हमारा चिकित्सातंत्र पहले ही सांसें गिन रहा है। अस्पतालों में बिस्तर, चिकित्सा सुविधाओं, आक्सीजन की कमी देखी जा रही है। ऐसे में इस संकट को विस्तार देने वाले हर कार्य से बचना हमारा धर्म ही है, जिसका सरल व सहज उपाय शारीरिक दूरी को बनाये रखना है। ऐसा करके भी हम कुंभ की सनातन परंपरा का ही निर्वहन कर सकते हैं। इसे अब भी प्रतीकात्मक रूप से मनाकर संत समाज आपातकाल के धर्म का पालन कर सकता है। इस समय लाखों लोगों का जीवन बचाना ही सच्चा धर्म है। जब देश दुखी है तो कोई भी धार्मिक आयोजन अपनी प्रासंगिकता खो देगा। अतीत में भी मानवता की रक्षा के लिये कुंभ के आयोजन का स्थगन हुआ है। वर्ष 1891 में हरिद्वार कुंभ में हैजा-कॉलरा फैलने के बाद मेला स्थगित किया गया। वर्ष 1897 में अर्धकुंभ के दौरान प्लेग फैलने पर मेला स्थगित किया गया था। यही आपातकाल का धर्म ही है कि मानवता की रक्षा की जाये। वक्त का धर्म है कि कुंभ को टाला जाये अथवा प्रतीकात्मक रूप में आगे के पर्वों का निर्वाह किया जाये। यह मुश्किल समय विवेकपूर्ण फैसले लेने की मांग करता है।

सौजन्य - दैनिक ट्रिब्यून।

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