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-Rajeev Kumar (Editor-in-chief)

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Tuesday, May 25, 2021

सचेत रहने का समय: कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर अब उतार पर, लेकिन खतरा टला नहीं, सतर्कता बरतना अनिवार्य (दैनिक जागरण)

तीसरी लहर का सामना करने के लिए जो तैयारियां की जा रही हैं उनमें संक्रमण से बचे रहने में मददगार उपायों की गिनती अवश्य की जानी चाहिए। यह गिनती सही तरह तभी हो सकेगी जब लोग सचेत रहेंगे और कोविड रोधी टीका लगवाने को लेकर तत्परता भी दिखाएंगे।


कोरोना से संक्रमित होने वालों की संख्या में गिरावट और संक्रमण के नए मामलों की तुलना में स्वस्थ होने वालों की ज्यादा तादाद यह बताती है कि संक्रमण की दूसरी लहर अब उतार पर है। इसे लेकर इसलिए निश्चिंत हुआ जा सकता है, क्योंकि हर दिन कोरोना टेस्ट बढ़ाए जा रहे हैं। अब इसके भी आसार नजर आ रहे हैं कि जिन राज्यों में लॉकडाउन अथवा कोरोना कर्फ्यू लागू है, वहां 1 जून से रियायत देने का सिलसिला कायम हो सकता है। ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि लोगों की जान बचाने के साथ आजीविका के साधनों को भी सहारा देने की जरूरत है। राज्य सरकारों को लॉकडाउन और कोरोना कर्फ्यू में ढील देने के साथ ही इसकी भी चिंता करनी चाहिए कि आर्थिक-व्यापारिक गतिविधियां तेजी के साथ आगे कैसे बढ़ें? इसकी चिंता करते समय इस पर भी ध्यान देना होगा कि हर तरह का कामकाज पहले जैसी गति कैसे पकड़े और इसकी भी कि लोग संक्रमण से बचे रहने के लिए आवश्यक सावधानी का परिचय देते रहें। कार्यालयों से लेकर कारखानों तक में भीड़ कम करने के लिए जिसे संभव हो, उसे वर्क फ्राम होम की सुविधा देने में उत्साह दिखाया जाना चाहिए। इसके साथ लोगों को यह संदेश बार-बार देना होगा कि मास्क का इस्तेमाल, शारीरिक दूरी का पालन और अपनी सेहत को लेकर अतिरिक्त सतर्कता बरतना अनिवार्य है।


हर किसी को इससे अवगत होना चाहिए कि कोरोना अब भी खतरनाक बना हुआ है। संक्रमण दर में गिरावट के आधार पर किसी को इस नतीजे पर नहीं पहुंचना चाहिए कि खतरा टल गया है, क्योंकि यह एक तथ्य है कि अभी भी प्रतिदिन करीब चार हजार लोग कोरोना से जान गंवा रहे हैं। नि:संदेह कोरोना से डरना नहीं है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि जरूरी सावधानी का परिचय नहीं देना है। सरकारों, उनके प्रशासन और साथ ही आम जनता को यह याद रखना चाहिए कि कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर इसीलिए इतने प्रचंड रूप में आई, क्योंकि खास के साथ आम लोगों ने भी अपेक्षित सतर्कता का परिचय देना बंद कर दिया था। शादी-ब्याह, मेले-ठेले के साथ राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक आयोजन इस तरह होने लगे थे, मानों कोरोना की विदाई हो गई हो। कम से कम अब तो पुरानी भूल दोहराने से हर हाल में बचा जाना चाहिए। इसलिए और भी कि संक्रमण की तीसरी लहर की आशंका बनी हुई है। इस तीसरी लहर का सामना करने के लिए जो तैयारियां की जा रही हैं, उनमें संक्रमण से बचे रहने में मददगार उपायों की गिनती अवश्य की जानी चाहिए। यह गिनती सही तरह तभी हो सकेगी, जब लोग सचेत रहेंगे और कोविड रोधी टीका लगवाने को लेकर तत्परता भी दिखाएंगे।

सौजन्य - दैनिक जागरण।

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Wednesday, May 5, 2021

बंगाल को बचाओ: शर्मिंदा करने वाली बंगाल की बेलगाम राजनीतिक हिंसा, तृणमूल राजनीतिक विरोधियों के दमन पर आमादा (दैनिक जागरण)

लोग मारे जा रहे पीटे जा रहे घर और दुकानें जलाई जा रही हैं लेकिन तृणमूल कांग्रेस ऐसे व्यवहार कर रही है जैसे कहीं कुछ हुआ ही न हो। यह तो वह रवैया है जो बंगाल को बर्बादी की ओर ही ले जाएगा।


यह देखना बेहद शर्मनाक भी है और चिंताजनक भी कि पश्चिम बंगाल में लगातार तीसरी बार जीत हासिल करने के बाद जब तृणमूल कांग्रेस को शासन संचालन के मामले में एक नई इबारत लिखने का काम करना चाहिए था, तब वह राजनीतिक विरोधियों के दमन पर आमादा है। बंगाल की बेलगाम राजनीतिक हिंसा राज्य के साथ राष्ट्र को भी शर्मिंदा करने वाली है। यह हिंसा कितनी भीषण है, इसका पता इससे चलता है कि जहां प्रधानमंत्री को राज्यपाल से बात करनी पड़ी और भाजपा अध्यक्ष को आनन-फानन कोलकाता रवाना होना पड़ा, वहीं राज्य के हालात से चिंतित कुछ लोगों को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा। बंगाल की राजनीतिक हिंसा से चुनाव आयोग का वह फैसला सही साबित हुआ, जिसके तहत उसने राज्य में आठ चरणों में मतदान कराया। चुनाव बाद बंगाल में जो कुछ हो रहा है, वह घोर अलोकतांत्रिक और सभ्य समाज को लज्जित करने वाला है, लेकिन शायद ममता बनर्जी के नेतृत्व में बंगाल अपनी पुरानी राजनीतिक कुसंस्कृति का परित्याग करने को तैयार नहीं। अपने राजनीतिक विरोधियों को डराने-धमकाने और खत्म करने का जो काम एक समय वामदल किया करते थे, वही, बल्कि उससे भी ज्यादा घृणित तरीके से तृणमूल कांग्रेस कर रही है।


इससे बडी विडंबना और कोई नहीं कि ममता बनर्जी राजनीतिक हिंसा की जिस कुसंस्कृति के खिलाफ आवाज बुलंद कर सत्ता में आई थीं, उसे अब वही पोषित करती दिख रही हैं। इस बार की हिंसा तो सारे रिकॉर्ड ध्वस्त करती दिख रही है। चुनाव नतीजे आने के बाद से ही तृणमूल कांग्रेस नेता और कार्यकर्ता जिस तरह भाजपा के साथ-साथ वामदलों और कांग्रेसी कार्यकर्ताओं पर हमले करने में लगे हुए हैं, उससे ममता बनर्जी की चौतरफा बदनामी ही हो रही है, लेकिन ऐसा लगता है कि उन्हें अपने राज्य की खूनी राजनीतिक हिंसा की कोई परवाह ही नहीं। क्या जो लोग मारे जा रहे हैं, वे बंगाल की माटी के मानुष नहीं? बंगाल पुलिस और प्रशासन जिस प्रकार हाथ पर हाथ धरे बैठा है, उससे तो यही प्रतीति होती है कि उसे तृणमूल कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी के खिलाफ कुछ न करने को कहा गया है। इसका संकेत इससे भी मिलता है कि ममता और उनके साथी हिंसा की घटनाओं को खारिज करने और उसे विपक्ष का दुष्प्रचार बताने में लगे हुए हैं। यह और कुछ नहीं, सच से जानबूझकर मुंह मोड़ने की भोंडी कोशिश है। लोग मारे जा रहे, पीटे जा रहे, घर और दुकानें जलाई जा रही हैं, लेकिन तृणमूल कांग्रेस ऐसे व्यवहार कर रही है, जैसे कहीं कुछ हुआ ही न हो। यह तो वह रवैया है, जो बंगाल को बर्बादी की ओर ही ले जाएगा।


सौजन्य - दैनिक जागरण।

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अस्पतालों की आपराधिक लापरवाही: ऑक्सीजन की किल्लत से कोरोना मरीजों के दम तोड़ने का सिलसिला कायम रहना शर्मनाक है (दैनिक जागरण)

यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अस्पताल ऑक्सीजन जैसी जरूरी चीज से भली तरह लैस हों क्योंकि इसका भरोसा नहीं कि संक्रमण की तीसरी लहर कब दस्तक दे दे। अस्पतालों के नाकारापन के लिए जांच-परख की जिम्मेदारी वाला तंत्र भी दोषी है।


ऑक्सीजन की किल्लत से कोरोना मरीजों के दम तोड़ने का सिलसिला कायम रहना अव्यवस्था के अराजकता की हद तक पहुंचने की कहानी कह रहा है। यह शर्मनाक है कि 10-12 दिन बीत जाने के बाद भी ऑक्सीजन की किल्लत खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। गत दिवस कर्नाटक के एक अस्पताल में ऑक्सीजन के अभाव में 25 मरीजों ने दम तोड़ दिया। इसके पहले इसी तरह की घटनाएं देश के विभिन्न अस्पतालों में घट चुकी हैं, जिनमें तमाम कोरोना मरीजों की जानें गई हैं। इनमें देश की राजधानी दिल्ली के भी अस्पताल हैं। जिन कोरोना मरीजों को घर पर ऑक्सीजन नहीं मिली और उनकी मौत हो गई, उनकी तो गिनती करना ही मुश्किल है। ऑक्सीजन संकट के मामले में यह देखना हैरान-परेशान करता है कि तमाम बड़े अस्पतालों ने भी न तो ऑक्सीजन प्लांट लगा रखे हैं और न ही उसके भंडारण की कोई ठोस व्यवस्था कर रखी है। वे चंद ऑक्सीजन सिलेंडर रखते हैं, जो संकट के इस दौर में जल्द ही खत्म होने लगते हैं। यही कारण है कि वे रह-रह कर ऑक्सीजन की कमी की गुहार लगाते दिखते हैं। यह और कुछ नहीं, अस्पतालों की आपराधिक लापरवाही ही है। सवाल है कि ऐसा कोई तंत्र क्यों नहीं, जो इसकी निगरानी करता हो कि अस्पताल जरूरी संसाधनों से लैस हैं या नहीं?


अस्पतालों के नाकारापन के लिए कहीं न कहीं वह तंत्र भी दोषी है, जिस पर उनके संसाधनों की गुणवत्ता की जांच-परख की जिम्मेदारी है। कम से कम अब तो उसे चेतना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अस्पताल ऑक्सीजन जैसी जरूरी चीज से भली तरह लैस हों, क्योंकि इसका भरोसा नहीं कि संक्रमण की तीसरी लहर कब दस्तक दे दे। ऑक्सीजन की किल्लत के पीछे केंद्र और राज्य सरकारों तथा उनके प्रशासन के बीच तालमेल का अभाव भी दिख रहा है। भले ही पिछले कई दिनों से ऑक्सीजन की तंगी दूर करने के लिए तमाम उपाय किए जा रहे हों, लेकिन यह समझना कठिन है कि रेलवे की ओर से आक्सीजन एक्सप्रेस चलाने, उद्योगों में इस्तेमाल होने वाली ऑक्सीजन का उपयोग रोकने, नए ऑक्सीजन प्लांट लगाने, ऑक्सीजन कंटेनरों से लेकर सिलेंडरों तक की उपलब्धता बढ़ाने की खबरों के बीच जमीन पर हालात जस के तस क्यों नजर आ रहे हैं? इसकी तो यही वजह नजर आती है कि ऑक्सीजन की आपूर्ति और वितरण का कोई सुव्यवस्थित तंत्र नहीं विकसित किया जा सका है। नि:संदेह यह भी एक नाकामी ही है। जब हजारों लोगों का जीवन संकट में हो, तब तो किसी को खास तौर पर यह देखना चाहिए कि राहत-बचाव का काम अपेक्षा के अनुरूप हो रहा है या नहीं?


सौजन्य - दैनिक जागरण।

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Saturday, May 1, 2021

क्या टीकों की उपलब्धता का अनुमान लगाए बगैर अगले चरण के टीकाकरण की घोषणा कर दी गई? (दैनिक जागरण)

माना जा रहा है कि संक्रमण की तीसरी लहर आने में 40-50 दिन का ही समय शेष है। जो भी हो यह सुनिश्चित करना बहुत आवश्यक है कि संक्रमण की तीसरी लहर आने के पहले कम से कम 50-60 करोड़ लोगों को टीके अवश्य लग जाएं।


मध्य प्रदेश, बिहार, झारखंड, पंजाब समेत कई राज्यों ने तीसरे चरण के टीकाकरण अभियान को शुरू कर पाने में जिस तरह हाथ खड़े कर दिए, वह निराशाजनक भी है और चिंताजनक भी। कुछ राज्यों ने तो पहले ही कह दिया था कि वे 1 मई से 18 से 44 साल के लोगों के टीकाकरण का काम शुरू नहीं कर पाएंगे। इन सभी की मानें तो उनके पास पर्याप्त टीके नहीं हैं, लेकिन केंद्र सरकार का यह कहना है कि राज्यों के पास अभी एक करोड़ टीके हैं। आखिर समस्या कहां है और क्यों है? यह बिल्कुल भी ठीक नहीं कि जिस अभियान को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए, वह बाधित होता दिख रहा है। क्या इसके पीछे तैयारियों की कमी जिम्मेदार है या फिर राज्यों ने समय से टीके नहीं खरीदे अथवा टीकों के उत्पादन और उनकी आपूर्ति में कोई समस्या खड़ी हो गई है? क्या टीकों की उपलब्धता का अनुमान लगाए बगैर अगले चरण के टीकाकरण की घोषणा कर दी गई? इन सभी सवालों के जवाब सामने आने ही चाहिए, ताकि टीकाकरण केंद्रों और आम जनता का असमंजस खत्म हो। जहां केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि पर्याप्त मात्रा में टीके उपलब्ध हों, वहीं राज्यों को यह देखना होगा कि टीकाकरण द्रुत गति से हो।


यदि टीकों का पर्याप्त उत्पादन नहीं हो पा रहा है तो एक तो टीका बनाने वाली कंपनियों की हरसंभव मदद की जाए और दूसरे, स्पुतनिक सरीखे टीकों का अधिकाधिक आयात प्राथमिकता के आधार पर किया जाए। आखिर वे भारतीय फार्मा कंपनियां टीके का उत्पादन क्यों नहीं कर सकतीं, जो ऐसा करने में सक्षम हैं, लेकिन फिलहाल किसी कारण टीके नहीं बना रही हैं? टीकों की उपलब्धता बढ़ाने का काम इसलिए सचमुच युद्धस्तर पर किया जाना चाहिए, क्योंकि कम समय में ज्यादा से ज्यादा लोगों का टीकाकरण करके ही कोरोना के कहर से बचा जा सकता है। टीकाकरण अभियान को आगे बढ़ाने और उसकी गति तेज करते हुए यह भी देखना होगा कि पहले किन राज्यों को प्राथमिकता दी जाए-जहां संक्रमण ज्यादा तेज है अथवा जहां अभी कम है? टीकाकरण अभियान की रफ्तार हर दिन बढ़ानी इसलिए जरूरी है, क्योंकि कोरोना संक्रमण की तीसरी लहर की जबरदस्त आशंका है। इस आशंका के बीच प्रतिदिन 30-32 लाख लोगों के टीकाकरण से बात बनने वाली नहीं है, क्योंकि भारत एक बड़ी आबादी वाला देश है। माना जा रहा है कि संक्रमण की तीसरी लहर आने में 40-50 दिन का ही समय शेष है। जो भी हो, यह सुनिश्चित करना बहुत आवश्यक है कि संक्रमण की तीसरी लहर आने के पहले कम से कम 50-60 करोड़ लोगों को टीके अवश्य लग जाएं।

सौजन्य - दैनिक जागरण।

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Friday, April 30, 2021

मदद को बढ़े हाथ: कोरोना संक्रमण से जूझ रहे भारत की ओर अमेरिका, रूस समेत 40 देशों ने मदद करने को बढ़ाए हाथ (दैनिक जागरण)

कम समय में अधिक से अधिक लोगों का टीकाकरण करके ही मौजूदा संकट से उबरने के साथ ही संक्रमण की तीसरी लहर की आशंका को भी कम किया जा सकता है। जब सरकार और समाज एकजुट होंगे तभी संकट से आसानी से पार पाया जा सकेगा।


कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर से जूझ रहे भारत की ओर अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब समेत करीब 40 देशों ने मदद का जो हाथ बढ़ाया, वह संकट की गंभीरता को बयान करने के साथ ही विश्व समुदाय की चिंता को भी प्रकट कर रहा है। इस मदद से यह भी रेखांकित होता है कि विश्व समुदाय इसी कोरोना काल में भारत की उस सहायता को भूला नहीं है, जो उसने दुनिया के तमाम देशों को दी थी-पहले कुछ दवाओं की आपूर्ति करके और फिर वैक्सीन भेजकर। भारत ने 90 से अधिक देशों को वैक्सीन भेजी। इनमें से कुछ देशों को तो मुफ्त अथवा रियायती दरों पर दी। इसके अलावा भी भारत समय-समय पर संकट में फंसे देशों की मदद करता रहा है। एक तरह से अब जो मदद मिल रही है, उसके पीछे भारत की साख भी काम कर रही है। इस सबके अतिरिक्त दुनिया के बड़े देश यह भी जान रहे हैं कि भारत विश्व अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और यदि वह संकट में फंसा रहा तो इससे उनके आर्थिक हितों को भी चोट पहुंचेगी। भारत एक अर्से से विश्व अर्थव्यवस्था को बल देने में न केवल महती योगदान दे रहा है, बल्कि तमाम मुश्किलों के बाद भी इस संभावना से लैस है कि उसकी अर्थव्यवस्था सबसे तेजी से बढ़ेगी। संक्रमण की दूसरी लहर के बीच ही एशियाई विकास बैंक ने यह कहा है कि चालू वित्त वर्ष में भारत की अर्थव्यवस्था 11 प्रतिशत बढ़ने की संभावना है।


यह सही है कि भारत को लंबे समय बाद विदेश से सहायता न लेने की अपनी नीति बदलनी पड़ी है, लेकिन हालात के हिसाब से फैसले लेना ही नीतिसंगत होता है। अब जब विदेश से चिकित्सा उपकरणों और दवाओं के रूप में मदद मिलनी शुरू हो गई है तब फिर यह देखा जाना चाहिए कि वह समय रहते प्रभावित क्षेत्रों और लोगों तक सही तरह पहुंचे। इसके लिए उपयुक्त तंत्र बनाकर उसकी निगरानी भी की जानी चाहिए। चूंकि एक मई से 18 से 44 साल के आयु वर्ग के लोगों का टीकाकरण भी शुरू हो रहा है, इसलिए भारत की प्राथमिकता विदेश से ज्यादा से ज्यादा टीके हासिल करनी की भी होनी चाहिए, क्योंकि कम समय में अधिक से अधिक लोगों का टीकाकरण करके ही मौजूदा संकट से उबरने के साथ ही संक्रमण की तीसरी लहर की आशंका को भी कम किया जा सकता है। यह समय टीकाकरण अभियान की हर बाधा को दूर करने और साथ ही यह समझने का भी है कि जब सरकार और समाज एकजुट होंगे, तभी संकट से आसानी से पार पाया जा सकेगा।

सौजन्य - दैनिक जागरण।

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युद्धस्तर पर लगें टीके: टीकाकरण केंद्र बढ़ाए जाएं, रोजाना एक करोड़ लोगों के टीकाकरण का रखना होगा लक्ष्य (दैनिक जागरण)

अगले चरण के टीकाकरण के लिए पंजीकरण शुरू होते ही जैसी दिलचस्पी दिखाई गई उससे पता चलता है कि लोग टीका लगवाने को उत्सुक हैं। सभी बालिग टीका लगवाने के लिए उत्सुक बने रहें इसके लिए आवश्यक है कि पंजीकरण से लेकर टीकाकरण की प्रक्रिया को सुगम बनाए रखा जाए।


अगले चरण के टीकाकरण के लिए पंजीकरण शुरू होते ही जैसी दिलचस्पी दिखाई गई, उससे पता चलता है कि लोग टीका लगवाने को उत्सुक हैं। सभी बालिग टीका लगवाने के लिए उत्सुक बने रहें, इसके लिए यह आवश्यक है कि पंजीकरण से लेकर टीकाकरण की प्रक्रिया को सुगम बनाए रखा जाए। पंजीकरण के पहले ही दिन जिस तरह बाधाएं खड़ी हुईं, उनका संज्ञान लेते हुए इस पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या बिना पूर्व पंजीकरण के लोग टीकाकरण केंद्रों में जाकर टीका लगवा सकते हैं? यदि अभी यह सुविधा दी जा रही है तो 1 मई से शुरू होने वाले अभियान के दौरान क्यों नहीं दी जा सकती? जो तकनीकी रूप से दक्ष नहीं हैं, उन्हें मोबाइल फोन के जरिये पंजीकरण में परेशानी आ सकती है। टीकाकरण के प्रति लोगों की दिलचस्पी को देखते हुए उचित यह भी होगा कि टीकाकरण केंद्र बढ़ाए जाएं, ताकि प्रतिदिन अधिकाधिक संख्या में टीके लगाए जा सकें। अभी तक प्रतिदिन 30-32 लाख ही टीके लगाए जा सके हैं। कायदे से यह संख्या 50 लाख प्रतिदिन होनी चाहिए थी। अच्छा हो कि अगले चरण में रोजाना करीब एक करोड़ लोगों के टीकाकरण का बड़ा लक्ष्य रखा जाए और कुछ दिनों बाद उसे हासिल करने के भी प्रबंध किए जाएं। वास्तव में यही वह उपाय है, जिससे कोरोना कहर पर लगाम लगाने में सफलता मिल सकती है। टीकाकरण युद्धस्तर पर न केवल शुरू किया जाना चाहिए, बल्कि वह इसी रूप में होता हुआ दिखना भी चाहिए। इस मामले में मिसाल कायम किए जाने और दुनिया को यह साबित करने की जरूरत है कि भारत अपने लोगों की जीवन रक्षा के लिए बड़े से बड़े लक्ष्य को हासिल कर सकता है।


यह अच्छा नहीं कि जब टीकाकरण अभियान को रफ्तार देने की कोशिश की जा रही है, तब कुछ राज्य 1 मई से इस अभियान को शुरू करने में आनाकानी कर रहे हैं। यह आनाकानी संकीर्ण राजनीति से प्रेरित नजर आ रही है। टीकाकरण के अगले चरण को शुरू करने में हीलाहवाली कर रहे राज्यों की ओर से जो तर्क दिए जा रहे हैं वे बहानेबाजी ही अधिक हैं। यह सही है कि फिलहाल वांछित संख्या में टीके उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन यह तो तय है कि कुछ दिनों में उनकी उपलब्धता बढ़ने वाली है। देश में उनका उत्पादन बढ़ने के साथ ही विदेश और खासकर रूस से स्पुतनिक टीके की खेप आने वाली है। यदि अमेरिका अपने एस्ट्राजेनेका टीकों के आयात में कोई अनुचित शर्त नहीं लगा रहा तो फिर उन्हें हासिल करने में भी कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। वैसे भी यही टीके भारत में कोविशील्ड नाम से उपयोग में लाए जा रहे हैं।

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Saturday, April 24, 2021

कोरोना संक्रमण को गांवों तक पहुंचने से रोकना होगा, यदि कोरोना वायरस ने पैर पसारे तो मुश्किल होगा हालात संभालना (दैनिक जागरण)

गांवों के समीप कस्बों और छोटे शहरों में स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर स्थिति में नहीं हैं और बड़े शहरों के अस्पताल पहले से ही गहन दबाव में हैं। उचित यह होगा कि ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना संक्रमण से बचे रहने के उपायों का पालन कराने वाले सक्रिय हों।


राष्ट्रीय पंचायत राज दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री ने यह कहकर समय रहते लोगों को आगाह किया कि कोरोना संक्रमण को गांवों तक पहुंचने से रोकना होगा। उनकी इस अपील पर न केवल ग्रामीण जनता, बल्कि संबंधित प्रशासन के लोगों को भी गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। यह सही है कि पिछले साल कोरोना संक्रमण की लहर को गांवों तक पहुंचने से रोक दिया गया था, लेकिन इस बार इसका खतरा इसलिए अधिक बढ़ गया है, क्योंकि एक तो संक्रमण की दूसरी लहर बहुत तेज है और दूसरे, बड़े शहरों से तमाम कामगार अपने गांव लौट चुके हैं या फिर लौट रहे हैं। चूंकि इनके जरिये ग्रामीण आबादी के बीच कोरोना आसानी से फैल सकता है, इसलिए उन्हेंं गांवों से बाहर स्कूलों, पंचायत भवनों आदि में क्वारंटाइन करने और उनके स्वास्थ्य की निगरानी करने का काम तत्काल प्रभाव से होना चाहिए। ये दोनों काम प्राथमिकता के आधार पर सही तरह से हों, इसकी चिंता खुद गांव वालों को भी करनी होगी। कई गांवों ने इस मामले में अनुकरणीय उदाहरण पेश किया है, लेकिन यह भी सही है कि देश के कुछ ग्रामीण इलाकों में कोरोना संक्रमण सिर उठाता दिख रहा है। यह शुभ संकेत नहीं। हालांकि ग्रामीण इलाकों में आबादी का घनत्व कम है और वहां का रहन-सहन भी शहरों से अलग है, लेकिन यदि गांवों में कोरोना ने अपने पैर पसारे तो हालात संभालने मुश्किल होंगे।


इस तथ्य से हर किसी को परिचित होना चाहिए कि गांवों के समीप कस्बों और छोटे शहरों में स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर स्थिति में नहीं हैं और बड़े शहरों के अस्पताल पहले से ही गहन दबाव में हैं। उचित यह होगा कि ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना संक्रमण से बचे रहने के उपायों का पालन कराने वाले सक्रिय हों। इसके लिए राज्य सरकारों और उनके प्रशासन को भी सजगता दिखानी होगी। वास्तव में सक्रियता और सजगता न केवल संक्रमण से बचे रहने के लिए दिखानी होगी, बल्कि इसके लिए भी कि सभी पात्र लोग जल्द से जल्द टीका लगवाएं। टीकाकरण के मौजूदा चरण और एक मई से शुरू होने वाले अगले चरण में ग्रामीण जनता की बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी उतनी ही जरूरी है, जितनी शहरी जनता की। टीकाकरण अभियान को गति देने और उसकी पहुंच को प्रभावी बनाने के लिए टीके की महत्ता से परिचित कराने का काम भी जोर-शोर से शुरू कर दिया जाना चाहिए। इसमें योगदान देने के लिए ग्रामीण क्षेत्र की जनता का प्रतिनिधित्व करने वालों को आगे आना चाहिए। यह इसलिए जरूरी है, क्योंकि टीके को लेकर अभी भी हिचक दिख रही है। इस हिचक को तोड़ने के लिए हर संभव कोशिश न केवल होनी चाहिए, बल्कि होते हुए दिखनी भी चाहिए।

सौजन्य - दैनिक जागरण।

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कोरोना संकट का सामना: यदि केंद्र और राज्य एकजुट होकर काम करेंगे तो आड़े नहीं आएगी संसाधनों की कमी (दैनिक जागरण)

इस समय स्वास्थ्य संसाधन बेहद दबाव में हैं। इसके चलते ही अफरातफरी का माहौल है। कोरोना मरीज अस्पतालों में बेड की कमी से लेकर ऑक्सीजन तक की किल्लत का सामना कर रहे हैं। उन्हें कुछ दवाओं की तंगी से भी दो-चार होना पड़ रहा है।


कोरोना की दूसरी लहर से उपजे संकट का सामना करने के लिए मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक में प्रधानमंत्री ने यह सही कहा कि यदि हम सब एकजुट होकर काम करेंगे तो संसाधनों की कमी आड़े नहीं आएगी, लेकिन इसकी अनदेखी भी नहीं की जा सकती कि इस समय स्वास्थ्य संसाधन बेहद दबाव में हैं। इसके चलते ही अफरातफरी का माहौल है। कोरोना मरीज अस्पतालों में बेड की कमी से लेकर ऑक्सीजन तक की किल्लत का सामना कर रहे हैं। उन्हें कुछ दवाओं की तंगी से भी दो-चार होना पड़ रहा है। इस विकट स्थिति का निवारण करने के लिए न केवल युद्धस्तर पर जुटना होगा, बल्कि केंद्र और राज्यों से लेकर नागरिक प्रशासन और स्वास्थ्य सेवाओं के बीच उचित समन्वय भी कायम करना होगा। नि:संदेह संकट इसलिए और बढ़ गया है कि एक तो आवश्यक समन्वय का अभाव दूर नहीं हो पा रहा और दूसरे, चुनौतियों से पार पाने के लिए समय रहते किसी कारगर रणनीति का निर्माण नहीं किया जा सका। कम से कम अब तो ऐसा किया ही जाना चाहिए।


इन दिनों सबसे अधिक चीख-पुकार वाली स्थिति ऑक्सीजन की कमी को लेकर है। हालांकि सभी जरूरतमंद अस्पतालों को ऑक्सीजन उपलब्ध कराने के लिए हरसंभव प्रयास हो रहे हैं, लेकिन अस्पतालों की अपनी सीमित क्षमता और ऑक्सीजन की मांग में बेहिसाब वृद्धि के कारण समस्याएं सिर उठाए हुए हैं। चूंकि देश के ज्यादातर अस्पताल सीमित मात्रा में ऑक्सीजन भंडारण क्षमता रखते हैं और आजकल उसकी खपत उम्मीद से कहीं अधिक बढ़ गई है, इसलिए चारों ओर उसकी कमी का शोर है। यह शोर इसलिए और बढ़ गया है, क्योंकि कई अस्पताल प्रबंधन ऑक्सीजन की कमी की गुहार अग्रिम रूप से करने लगे हैं। उनकी चिंता जायज है, लेकिन इससे कोरोना मरीजों और उनके स्वजन में दहशत कायम हो जाती है और फिर वह जंगल में आग की तरह फैलती है। अस्पतालों में ऑक्सीजन की खपत यकायक बहुत बढ़ जाने के बाद भी इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि जैसे-तैसे उसकी आर्पूित हो जा रही है। अस्पतालों के प्रबंधन और केंद्र एवं राज्य सरकारों को यह देखना चाहिए कि आपाधापी की यह स्थिति कैसे जल्द खत्म हो, क्योंकि जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक संकट के बादल छंटने नहीं दिखेंगे। संकट को नियंत्रित करने के लिए यह भी आवश्यक है कि स्वास्थ्य संसाधनों पर दबाव कम हो। ऐसा तब होगा, जब कोरोना मरीजों की बढ़ती संख्या पर लगाम लगेगी। इसके लिए आम लोगों को संक्रमण से बचे रहने के लिए अपनी सावधानी का स्तर और अधिक बढ़ाना होगा। यह सबको समझना ही होगा कि जब संक्रमित होने वालों की संख्या में कमी आएगी, तभी वास्तविक राहत मिलेगी।

सौजन्य - दैनिक जागरण।

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मनमानी और अंधेरगर्दी सरकारों के प्रति आम आदमी के भरोसे पर चोट (दैनिक जागरण)

सरकारों को हालात संभालने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंकते हुए दिखना चाहिए। जो कोरोना मरीज अस्पताल में भर्ती नहीं हो पा रहे हैं उनमें से कई ऑक्सीजन को भी तरस रहे हैं। इसके चलते कई मरीज दम तोड़ दे रहे हैं। यह स्थिति सर्वथा अस्वीकार्य है।


खतरनाक ढंग से बढ़ते कोरोना संक्रमण के बीच ऑक्सीजन से लेकर दवाओं और अस्पतालों में बेड की तंगी का स्वत: संज्ञान लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सही कदम उठाया। उसके इस आकलन से असहमत होना कठिन है कि इस समय स्वास्थ्य के मोर्चे पर आपातकाल जैसे हालात हैं। चूंकि चारों ओर से शिकायतें आ रही हैं, इसलिए सरकार से यह सवाल पूछना बनता था कि आखिर उसके पास कोरोना से निपटने के लिए क्या व्यवस्था है? सरकार को इस सवाल का जवाब ही नहीं देना होगा, बल्कि उन समस्याओं के समाधान की कोई ठोस रूपरेखा भी रखनी होगी, जिनसे देश दो-चार है।


सुप्रीम कोर्ट ने अपनी सहायता के लिए जाने-माने वकील हरीश साल्वे को न्याय मित्र नियुक्त किया है। उम्मीद है कि उनकी मदद से वह ऐसे दिशा-निर्देश जारी करने में समर्थ होगा, जो हाहाकार वाले हालात को ठीक करने के साथ केंद्र और राज्यों में समन्वय कायम करने में भी सहायक बनेंगे। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि फिलहाल समन्वय के बजाय खींचतान और यहां तक कि आरोप-प्रत्यारोप देखने को मिल रहे हैं। एक समस्या यह भी है कि अलग-अलग उच्च न्यायालय कोरोना संकट से निपटने के मामले में अपने-अपने हिसाब से केंद्र और राज्यों को निर्देश दे रहे हैं।


इन दिनों कम से कम छह उच्च न्यायालय कोविड प्रबंधन से जुड़े मामलों की सुनवाई कर रहे हैं। यह स्वाभाविक है, लेकिन इसमें संदेह है कि उनकी ओर से सरकारों को डांटने-फटकारने से हालात सुधारने में मदद मिलेगी। सुप्रीम कोर्ट को यह देखना होगा कि इस डांट-फटकार से न तो भ्रम फैलने पाए और न ही शासन-प्रशासन के साथ चिकित्सकों एवं स्वास्थ्य र्किमयों का मनोबल प्रभावित होने पाए। यह तथ्य ओझल नहीं होना चाहिए कि विपरीत हालात से जूझते तमाम मददगार अपनी-अपनी सामथ्र्य भर सक्रिय हैं।


इससे इन्कार नहीं कि स्वास्थ्य ढांचा चरमराता दिख रहा है, लेकिन यह ध्यान रहे कि ये मददगार ही बिगड़ी को बनाने में सहायक बनेंगे। इनके मनोबल को बनाए रखने के साथ सरकारों को अराजकता को छूती अव्यवस्था दूर करने के लिए जी-जान से जुटना होगा, क्योंकि यह अक्षम्य है कि एक ओर अस्पतालों में भर्ती होना मुश्किल है तो दूसरी ओर ऑक्सीजन से लेकर कुछ दवाओं की कालाबाजारी भी हो रही है। यह मनमानी और अंधेरगर्दी सरकारों के प्रति आम आदमी के भरोसे पर चोट करने वाली है। सरकारों को हालात संभालने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंकते हुए दिखना चाहिए। वे इससे अनजान नहीं हो सकतीं कि जो कोरोना मरीज अस्पताल में भर्ती नहीं हो पा रहे हैं, उनमें से कई ऑक्सीजन को भी तरस रहे हैं। इसके चलते कई मरीज दम तोड़ दे रहे हैं। यह स्थिति सर्वथा अस्वीकार्य है।

सौजन्य - दैनिक जागरण।

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Monday, April 19, 2021

कोरोना संक्रमण के बेलगाम होने के चलते कई राज्यों में लॉकडाउन की हुई वापसी, नहीं थमेगा उद्योगों का पहिया (दैनिक जागरण)

कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर की आशंका के बाद भी धार्मिक सांस्कृतिक एवं राजनीतिक कार्यक्रम और खासकर रैलियां करने की क्या जरूरत थी? कम से कम अब तो आम लोगों और नीति-नियंताओं को जरूरी सबक सीख ही लेने चाहिए।


दिल्ली में एक सप्ताह और राजस्थान में 15 दिन के लिए लॉकडाउन की घोषणा के साथ इलाहाबाद उच्च न्यायालय की ओर से उत्तर प्रदेश के पांच शहरों में 26 अप्रैल तक लॉकडाउन लगाने के आदेश के बाद यह तय है कि कुछ और राज्य इसी दिशा में आगे बढ़ेंगे। महाराष्ट्र पहले ही लॉकडाउन लगा चुका है। यदि लॉकडाउन की वापसी हो रही है तो इसीलिए कि और कोई उपाय नहीं रह गया था। लॉकडाउन की मजबूरी यह बताती है कि रात के कर्फ्यू बेअसर थे। यह अच्छा हुआ कि इस बार केंद्र सरकार ने अपने स्तर पर देशव्यापी लॉकडाउन लगाने के बजाय राज्यों पर यह छोड़ दिया कि वे अपने यहां के हालात के हिसाब से फैसला लें। राज्यों को यह ध्यान रहे कि लॉकडाउन में न तो जरूरी सेवाएं बाधित होने पाएं और न ही औद्योगिक उत्पादन थमने पाए। उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आवश्यक वस्तुओं के साथ-साथ औद्योगिक उत्पाद एवं कच्चे माल की आवाजाही का तंत्र बिना किसी बाधा के काम करता रहे। यह ठीक नहीं कि महाराष्ट्र और दिल्ली से कामगारों की वापसी होती दिख रही है। इन कामगारों में कारखाना मजदूर भी हैं। जब औद्योगिक प्रतिष्ठान बंद नहीं किए जा रहे तो फिर कारखाना मजदूर क्यों पलायन कर रहे हैं?


यदि लॉकडाउन के कारण उद्योगों का पहिया थमा तो फिर से एक नई समस्या खड़ी हो जाएगी। ऐसे में यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि राज्य सरकारों की ओर से जनता को यह संदेश दिया जाए कि अबकी बार अलग तरह का लॉकडाउन है, जिसमें जरूरी सतर्कता यानी कोविड प्रोटोकॉल के साथ काफी कुछ चलता और खुला रहेगा, जैसे ई-कामर्स डिलीवरी और कुछ पाबंदियों के साथ सार्वजनिक परिवहन। वास्तव में इस आशय का केवल संदेश ही नहीं दिया जाना चाहिए, बल्कि ऐसे जतन भी किए जाने चाहिए कि लॉकडाउन का अर्थव्यवस्था पर न्यूनतम असर हो। लॉकडाउन की अवधि में जिन आर्थिक-व्यापारिक गतिविधियों के लिए अनुमति दी गई है, वहां संक्रमण से बचे रहने की पूरी सावधानी बरती जाए। इसके लिए जितनी कोशिश शासन-प्रशासन को करनी होगी, उतनी ही आम लोगों को भी। यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि यदि न चाहते हुए लॉकडाउन लगाना पड़ रहा है तो कोरोना संक्रमण के बेलगाम होने के साथ-साथ कुछ भूलों के कारण भी। जैसे जनवरी-फरवरी के बाद आम जनता ने बेफिक्री दिखाई, वैसे ही उन्हें दिशा देने या उनका नेतृत्व करने वालों ने भी। समझना कठिन है कि संक्रमण की दूसरी लहर की आशंका के बाद भी धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक कार्यक्रम और खासकर रैलियां करने की क्या जरूरत थी? कम से कम अब तो आम लोगों और नीति-नियंताओं को जरूरी सबक सीख ही लेने चाहिए।

सौजन्य - दैनिक जागरण।

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देश की चरमराती स्वास्थ्य व्यवस्था, कई शहरों में ऑक्सीजन की कमी, कोरोना मरीजों को अस्पतालों में भर्ती होने के लाले पड़े (दैनिक जागरण)

हमारा स्वास्थ्य ढांचा देश की जरूरतों के अनुरूप नहीं है। देश में चिकित्सकों स्वास्थ्य कर्मियों एवं अस्पतालों की संख्या आबादी के अनुपात में बहुत कम है। यदि कोरोना संक्रमण की पहली लहर के समय ही सरकारें चेत जातीं तो शायद जो स्थिति बनी उससे बचा जा सकता था।


देश भर में 162 ऑक्सीजन प्लांट लगाने की मंजूरी के बाद अब यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि ये प्लांट यथाशीघ्र कार्य करना प्रारंभ कर दें। बेहतर हो कि केंद्र के साथ राज्य सरकारें भी इस पर निगाह रखें कि ये प्लांट समय रहते कार्य शुरू करते हैं या नहीं? यह काम प्राथमिकता के आधार पर इसलिए किया जाना चाहिए, क्योंकि देश के विभिन्न शहरों में ऑक्सीजन की कमी वास्तव में महसूस की जा रही है। इसके चलते कोरोना के मरीजों और उनके परिवार वालों में चिंता व्याप्त है। चिंता पैदा करने का काम कोरोना मरीजों के उपचार में उपयोगी इंजेक्शन रेमडेसिविर की अनुपलब्धता भी कर रहा है। यह ठीक है कि फार्मा कंपनियों ने इसके दाम कम कर दिए हैं, लेकिन इसका लाभ तो तब मिलेगा, जब यह इंजेक्शन आसानी से उपलब्ध भी हो। स्पष्ट है कि इस इंजेक्शन की उपलब्धता बढ़ाने के लिए भी युद्धस्तर पर कार्य करने की जरूरत है। चिकित्सा संसाधन बढ़ाने के उपाय युद्धस्तर पर होने भी चाहिए और होते हुए दिखने भी चाहिए, क्योंकि तभी जनता को यह संदेश जाएगा कि केंद्र एवं राज्य सरकारें अपने सारे मतभेद भुलाकर आम लोगों को राहत देने के काम में जुट गई हैं। यह समय दलगत राजनीति करने अथवा आरोप-प्रत्यारोप लगाने का नहीं, बल्कि संकट का मिलजुलकर मुकाबला करने का है। यह खेद की बात है कि कुछ राजनीतिक दल अपने हिस्से की जिम्मेदारी का निर्वाह करने के बजाय सस्ती राजनीति करने का समय निकाल ले रहे हैं। उन्हें अपनी ऊर्जा उन कारणों का निवारण करने में लगानी चाहिए, जिनके चलते मरीजों को अस्पतालों में भर्ती होने के लाले पड़े हैं।


स्वास्थ्य ढांचे के समक्ष आज जो विषम स्थिति है, इसका एक कारण तो कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर का ज्यादा तेज होना है और दूसरा, इस लहर का सामना करने के लिए पूरी तैयारी न किया जाना। आखिर जब कोरोना संक्रमण की पहली लहर के वक्त ही यह स्पष्ट हो गया था कि हमारा स्वास्थ्य ढांचा देश की जरूरतों के अनुरूप नहीं है, तब फिर उसे मजबूत बनाने के प्रयास उसी समय क्यों नहीं शुरू किए गए? इस सवाल का जवाब इसलिए मिलना चाहिए, ताकि कम से कम अब तो किसी स्तर पर ढिलाई न बरती जाए। देश और प्रांत स्तर पर स्वास्थ्य तंत्र पर निगाह रखने वाले हमारे नीति-नियंता इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकते कि अपने देश में चिकित्सकों, स्वास्थ्य कर्मियों एवं अस्पतालों की संख्या आबादी के अनुपात में बहुत कम है। यदि कोरोना संक्रमण की पहली लहर के समय ही केंद्र एवं राज्य सरकारें चेत जातीं तो शायद जो स्थिति बनी, उससे बचा जा सकता था। कम से कम अब तो सही सबक सीखा जाए।

सौजन्य - दैनिक जागरण।

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Friday, April 16, 2021

Night Curfew: आखिर रात का कर्फ्यू कितना प्रभावी साबित हो रहा है? (दैनिक जागरण)

कोरोना से घबराने की जरूरत नहीं लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सावधानी बरतने की भी आवश्यकता नहीं है। रात के कर्फ्यू संबंधी फैसले इसी आवश्यकता को ही रेखांकित कर रहे हैं। हर वक्त यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मास्क से अच्छी तरह लैस रहना।


विभिन्न राज्य सरकारों की ओर से रात के कर्फ्यू का सहारा लिया जाना यह बताता है कि उन्हें कोरोना संक्रमण की लहर थामने के अन्य कोई ठोस उपाय समझ नहीं आ रहे हैं। गत दिवस दिल्ली सरकार ने सप्ताहांत कर्फ्यू लगाने की घोषणा की तो उत्तर प्रदेश सरकार ने दो हजार से अधिक कोरोना मरीजों वाले जिलों में रात आठ से सुबह सात बजे तक कर्फ्यू लगाना तय किया। इसके पहले गुजरात, मध्य प्रदेश, पंजाब आदि राज्य भी प्रमुख शहरों में रात का कर्फ्यू लगाने की घोषणा कर चुके हैं। गनीमत है कि राज्य लॉकडाउन का सहारा लेने से बच रहे हैं और यदि महाराष्ट्र की तरह ले भी रहे हैं तो पहले जैसी सख्ती नहीं दिखा रहे हैं। इस सबके बावजूद उन्हें इस पर विचार करना चाहिए कि आखिर रात का कर्फ्यू कितना प्रभावी साबित हो रहा है?


यह सवाल इसलिए, क्योंकि रात को तो वैसे भी सार्वजनिक स्थलों में चहल-पहल खत्म हो जाती है और ज्यादातर लोग या तो अपने घरों पर होते हैं या फिर घर पहुंच रहे होते हैं। यदि एक क्षण के लिए यह मान भी लिया जाए कि रात के कर्फ्यू के जरिये सार्वजनिक स्थलों में होने वाली भीड़-भाड़ को रोका जा सकेगा, तो भी सवाल यह उठेगा कि क्या इसकी जरूरत दिन में भी नहीं है? नि:संदेह इस सवाल का जवाब दिन का कफ्यरू नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा कोई कदम रोजी-रोजगार के लिए घातक साबित होगा और वैसी ही स्थिति पैदा करेगा, जैसी लॉकडाउन के समय देखने को मिली थी।


बेहतर होगा कि राज्य सरकारों की ओर से रात के कर्फ्यू जैसे जो कदम उठाए जा रहे हैं, उनके पीछे के कारणों को लोग सही तरह से समङों। ऐसे कदम यही संदेश देने के लिए उठाने पड़ रहे हैं कि कोरोना संक्रमण बेलगाम हो रहा है और लोगों को सार्वजनिक स्थलों पर शारीरिक दूरी का पालन करने और यथासंभव भीड़-भाड़ से बचने की सख्त जरूरत है। लोगों को इस जरूरत की पूíत में सहायक बनना चाहिए और हर वक्त यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मास्क से अच्छी तरह लैस रहना कोरोना संक्रमण से बचाव का एक कारगर उपाय है।


जहां आम जनता के लिए यह आत्मसात करना आवश्यक है कि उसे शासन-प्रशासन को सहयोग करना चाहिए, वहीं राज्य सरकारों को भी यह समझने की जरूरत है कि सार्वजनिक स्थलों में ऐसे उपाय किए जाएं, जिससे दो गज की दूरी और मास्क है जरूरी के नियम का पालन होते हुए दिखे। हालांकि कोरोना से घबराने की जरूरत नहीं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सावधानी बरतने की भी आवश्यकता नहीं है। रात के कर्फ्यू संबंधी फैसले इसी आवश्यकता को ही रेखांकित कर रहे हैं।

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स्वास्थ्य ढांचे का संकट: कोरोना की दूसरी लहर पहले से अधिक घातक, स्वास्थ्य तंत्र को नए सिरे से कमर कसनी चाहिए (दैनिक जागरण)

कोरोना की दूसरी लहर वह चुनौती है जिसका सामना करना ही होगा। निसंदेह चुनौती कठिन है लेकिन आज की जरूरत उसे परास्त करने के संकल्प से लैस होना है। इसमें हर किसी का सहयोग आवश्यक है। स्वास्थ्य तंत्र को नए सिरे से कमर कसनी ही चाहिए।


एक दिन में एक हजार से अधिक कोरोना मरीजों की मौत यही बयान कर रही है कि संक्रमण की दूसरी लहर अपने चरम पर है। इसका पता इससे भी चलता है कि प्रतिदिन होने वाली मौतों का आंकड़ा पिछले आंकड़े को पार करता दिख रहा है। चिंता की बात केवल यही नहीं कि कोरोना से संक्रमित होने और दम तोड़ने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, बल्कि यह भी है कि स्वास्थ्य ढांचा फिर से चरमराता दिख रहा है। कोरोना मरीजों को अस्पतालों में केवल बेड और वेंटीलेटर मिलने में ही परेशानी नहीं हो रही है, बल्कि जरूरी दवाओं और ऑक्सीजन की कमी भी साफ दिख रही है। यह उस ढिलाई का नतीजा है, जो जनवरी-फरवरी के बाद तब बरती गई, जब रोजाना कोरोना मरीजों की संख्या दस हजार के करीब आ गई थी। इसके चलते यह मान लिया गया कि कोरोना तो अब जाने ही वाला है। इसी सोच ने संकट खड़ा करने का काम किया। अब स्थिति यह है कि प्रतिदिन कोरोना मरीजों की संख्या दो लाख के आंकड़े से ऊपर जाती दिख रही है और अभी संक्रमण की दूसरी लहर के कमजोर पड़ने के कोई आसार भी नहीं। स्पष्ट है कि आने वाला समय और अधिक कठिनाई भरा हो सकता है।


फिलहाल इसकी तह तक जाने का समय नहीं कि कहां क्या गलती हुई, लेकिन नेताओं और नौकरशाहों न सही, स्वास्थ्य क्षेत्र के विशेषज्ञों को तो समय रहते इसके लिए आगाह करना ही चाहिए था कि कोरोना की दूसरी लहर आ सकती है और वह पहले से अधिक घातक हो सकती है। जब वे यह देख रहे थे कि दुनिया के कई देश संक्रमण की दूसरी-तीसरी लहर से दो-चार हो रहे हैं तो फिर उन्हें सरकार के साथ स्वास्थ्य तंत्र के लोगों को कोरोना की एक और लहर का सामना करने के लिए तैयार रहने और उसके अनुरूप व्यवस्था करने को कहना चाहिए था। यदि दूसरी लहर का सामना करने के लिए समय रहते पर्याप्त कदम उठाए गए होते तो जो गंभीर स्थिति बनी, उससे बचा जा सकता था। कम से कम अब तो सरकारी एवं गैर सरकारी क्षेत्र के स्वास्थ्य तंत्र को नए सिरे से कमर कसनी ही चाहिए। चूंकि इसके अलावा और कोई उपाय नहीं, इसलिए तमाम विपरीत स्थितियों के बाद भी अस्पतालों की क्षमता बढ़ाने, खाली इमारतों में अस्थायी अस्पताल बनाने और दवाओं एवं उपकरणों की उपलब्धता बढ़ाने के हरसंभव जतन युद्ध स्तर पर किए जाने चाहिए। कोरोना की दूसरी लहर वह चुनौती है, जिसका सामना करना ही होगा। नि:संदेह चुनौती कठिन है, लेकिन आज की जरूरत उसे परास्त करने के संकल्प से लैस होना है। इसमें हर किसी का सहयोग आवश्यक है।

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Saturday, April 10, 2021

लक्ष्य को हासिल करने के लिए टीकाकरण और उत्पादन युद्धस्तर पर हो, राज्यों को मिले पर्याप्त मात्रा में टीकों की आपूर्ति (दैनिक जागरण)

अभी जिस रफ्तार से टीके लग रहे हैं वह संतोषजनक नहीं। युद्धस्तर पर टीकाकरण तभी संभव है जब उनका उत्पादन भी युद्धस्तर पर हो। टीका उत्पादन बढ़ाने को प्राथमिकता इसलिए भी देनी चाहिए क्योंकि कोरोना संक्रमण की एक और लहर आ सकती है।


एक ऐसे समय जब केंद्र सरकार यह चाह रही है कि टीकाकरण अभियान युद्धस्तर पर चले, तब कुछ राज्यों की ओर से टीकों की कमी का सवाल खड़ा किया जाना असमंजस पैदा करता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि टीकाकरण पर संकीर्ण राजनीति होने लगी है या फिर उनकी आपूर्ति में वांछित तेजी न आ पा रही हो? सच जो भी हो, टीकाकरण अभियान को गति देना तभी संभव होगा, जब टीकों की कमी का कोई मसला सामने न आए। हालांकि केंद्र सरकार ने ऐसे आंकड़े जारी कर दिए कि कितने टीकों की आपूर्ति की जा चुकी है और अभी तक कितनों का उपयोग हुआ है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि आपूर्ति किए गए और इस्तेमाल में लाए गए टीकों की संख्या में कोई बहुत अंतर नहीं है। इन स्थितियों में एक तो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि राज्यों को पर्याप्त मात्रा में टीकों की आपूर्ति होती रहे और दूसरे यह कि प्रतिदिन कम से कम 50 लाख लोगों के टीकाकरण का लक्ष्य अवश्य हासिल हो। इस सबके बीच टीकों के खराब होने के कारणों का भी निवारण किया जाना चाहिए। इसका कोई मतलब नहीं कि कुछ राज्यों में टीकों के खराब होने की दर 15-16 प्रतिशत से भी अधिक बनी रहे।


अभी जिस रफ्तार से टीके लग रहे हैं, वह संतोषजनक नहीं, क्योंकि भारत एक बड़ी आबादी वाला देश है और यह मांग भी बढ़ती जा रही है कि 45 साल से कम आयु वालों का भी टीकाकरण हो। इस मांग के पीछे प्रमुख कारण यह है कि कोरोना संक्रमण की मौजूदा लहर अपेक्षाकृत कम आयु वालों को भी अपनी चपेट में ले रही है। इसकी वजह कोरोना वायरस के बदले हुए रूप भी हो सकते हैं और लोगों की ओर से अपेक्षित सतर्कता न बरतना भी। यदि टीकाकरण की गति को बढ़ाया नहीं गया तो पर्याप्त संख्या में लोगों के टीके लगने में लंबा समय लग सकता है। यह ध्यान रहे कि अभी दस प्रतिशत आबादी का भी टीकाकरण नहीं हो सका है। ऐसे में यह आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है कि टीकों की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के ठोस कदम जल्द उठाए जाएं। इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि अन्य टीकों के उत्पादन की प्रक्रिया को यथाशीघ्र मंजूरी दी जाए। जो भी कंपनियां टीके का उत्पादन करने में सक्षम हैं, लेकिन फिलहाल किन्हीं कारणों से उनका उत्पादन नहीं कर रही हैं, उन्हेंं भी इस काम में लगाया जाना चाहिए। युद्धस्तर पर टीकाकरण तभी संभव है, जब उनका उत्पादन भी युद्धस्तर पर हो। टीका उत्पादन बढ़ाने को प्राथमिकता इसलिए भी देनी चाहिए, क्योंकि कोरोना संक्रमण की एक और लहर आ सकती है।


सौजन्य - दैनिक जागरण।

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Tuesday, April 6, 2021

नक्सलियों को जल्द उखाड़ फेंकने की बातें एक लंबे अरसे से की जा रही हैं फिर भी आतंक के इस नासूर से अब तक नहीं मिली मुक्ति (दैनिक जागरण)

नक्सलियों के प्रति किसी भी किस्म की नरमी नहीं दिखाई जानी चाहिए क्योंकि वे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बने हुए हैं। इनसे निपटने के लिए हरसंभव उपाय किए जाने चाहिए और वह भी पूरी ताकत के साथ।


छत्तीसगढ़ में नक्सलियों से मुठभेड़ में 20 से अधिक जवानों के बलिदान के बाद केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की ओर से यह जो घोषणा की गई कि नक्सली संगठनों के खिलाफ जल्द ही निर्णायक लड़ाई छेड़ी जाएगी, वह वक्त की जरूरत के अनुरूप है। इसके बावजूद इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि नक्सलियों को जल्द उखाड़ फेंकने की बातें एक लंबे अरसे से की जा रही हैं और फिर भी आज कोई यह कहने की स्थिति में नहीं कि आतंक के इस नासूर से मुक्ति कब मिलेगी? यदि नक्सलियों के समूल नाश का कोई अभियान छेड़ना है तो सबसे पहले अर्बन नक्सल कहे जाने वाले उनके हितैषियों की परवाह करना छोड़ना होगा। ये अर्बन नक्सल मानवाधिकार की आड़ में नक्सलियों की पैरवी करने वाले बेहद शातिर तत्व हैं। वास्तव में ये उतने ही खतरनाक हैं, जितने खुद नक्सली। नक्सली संगठन इनसे ही खुराक पाते हैं। इनकी नकेल कसने के साथ ही इसकी तह तक भी जाना होगा कि नक्सली संगठन उगाही और लूट करने के साथ आधुनिक हथियार हासिल करने में कैसे समर्थ हैं? निश्चित रूप से नक्सलियों को स्थानीय स्तर पर समर्थन और संरक्षण मिल रहा है। इसी के बलबूते उन्होंने खुद को जंगल माफिया में तब्दील कर लिया है। यह मानने के भी अच्छे-भले कारण हैं कि वन संपदा का दोहन करने वालों की भी नक्सलियों से मिलीभगत है। हैरत नहीं कि उन्हें बाहरी ताकतों से भी सहयोग मिल रहा हो।


नक्सलियों का नाश तब तक संभव नहीं, जब तक उन्हें अपने लोग अथवा भटके हुए नौजवान माना जाता रहेगा। शायद व्यर्थ की इसी धारणा के चलते नक्सलियों के खिलाफ आर-पार की कोई लड़ाई नहीं छेड़ी जा पा रही है। समझना कठिन है कि यदि कश्मीर के आतंकियों और पूर्वोत्तर क्षेत्र के उग्रवादियों के खिलाफ सेना का इस्तेमाल हो सकता है तो खूंखार नक्सलियों के खिलाफ क्यों नहीं? आखिर यह क्या बात हुई कि नक्सलियों से लोहा लेते समय अपना बलिदान देने वाले जवानों के शव लाने के लिए तो सेना के संसाधनों का इस्तेमाल किया जाए, लेकिन नक्सली संगठनों के खिलाफ उनका उपयोग करने में संकोच किया जाए? यह संकोच बहुत भारी पड़ रहा है। इसी संकोच के कारण नक्सली बार-बार सिर उठाने में समर्थ हो जाते हैं। देश अपने जवानों के और अधिक बलिदान को सहन करने के लिए तैयार नहीं। नक्सलियों के प्रति किसी भी किस्म की नरमी नहीं दिखाई जानी चाहिए, क्योंकि यह पहले की तरह आज भी एक तथ्य है कि वे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बने हुए हैं। इस सबसे बड़े खतरे से निपटने के लिए हरसंभव उपाय किए जाने चाहिए और वह भी पूरी ताकत के साथ।


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टीकाकरण में सुस्ती: कोरोना संक्रमित मरीजों की बढ़ती संख्या के चलते टीकाकरण की रफ्तार तेज करने की जरूरत (दैनिक जागरण)

जब कोरोना संक्रमण ने फिर से सिर उठा लिया है तब फिर पात्र होते हुए भी टीका लगवाने में देरी नहीं करनी चाहिए। कोरोना संक्रमण से बचे रहने के उपायों को लेकर सावधानी बरतें वहीं दूसरी ओर टीकाकरण की रफ्तार तेज की जाए।


कोरोना संक्रमित मरीजों की बढ़ती संख्या देखकर यह स्पष्ट है कि संक्रमण की दूसरी लहर पहली लहर को पार करने वाली ही है। जल्द ही प्रतिदिन एक लाख से अधिक कोरोना संक्रमित लोग सामने आ सकते हैं। नि:संदेह यह चिंताजनक स्थिति होगी। इस स्थिति से तभी बचा जा सकता है, जब एक ओर जहां आम लोग कोरोना संक्रमण से बचे रहने के उपायों को लेकर सावधानी बरतें, वहीं दूसरी ओर टीकाकरण की रफ्तार तेज की जाए। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि अभी तक सात करोड़ से अधिक लोगों को टीके लगाए जा चुके हैं। टीकाकरण अभियान जनवरी मध्य से शुरू हुआ था और कायदे से अब तक 10-15 करोड़ से अधिक लोगों को टीके लग जाने चाहिए थे। यह ठीक है कि जब से 45 वर्ष से ऊपर के लोगों को टीका लगवाने की सुविधा प्रदान की गई है, तब से टीकाकरण की रफ्तार कुछ बढ़ी है, लेकिन यह अब भी लक्ष्य से पीछे है। केंद्र और राज्य सरकारों को यह देखना चाहिए कि आखिर प्रतिदिन 50 लाख लोगों के टीकाकरण का लक्ष्य क्यों नहीं हासिल हो पा रहा है? यह लक्ष्य तभी हासिल किया जा सकता है, जब टीकाकरण केंद्रों की संख्या बढ़ाई जाए और पात्र लोग टीका लगवाने में तत्परता का परिचय दें।


यह समझना कठिन है कि जब टीकाकरण का लक्ष्य प्राप्त करने में कठिनाई आ रही है, तब फिर सभी आयु वर्ग के लोगों को टीका लगवाने की सुविधा देने से क्यों बचा जा रहा है? इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि टीकों के खराब होने का एक कारण वांछित संख्या में लोगों का टीकाकरण केंद्रों में न पहुंचना है। यदि पर्याप्त संख्या में टीके उपलब्ध हैं तो फिर घर-घर टीके लगाने का भी कोई अभियान शुरू करने पर विचार किया जाना चाहिए। कम से कम यह तो होना ही चाहिए कि जो लोग अपने काम-धंधे के सिलसिले में घरों से बाहर निकलते हैं और भीड़-भाड़ वाले इलाकों में जाते हैं, उन्हें प्राथमिकता के आधार पर टीका लगे भले ही उनकी उम्र 45 वर्ष से कम क्यों न हो। ऐसे कोई उपाय इसलिए आवश्यक हो गए हैं, क्योंकि यह देखने में आ रहा है कि अब अपेक्षाकृत कम आयु वाले लोग भी कोरोना संक्रमण की चपेट में आ रहे हैं। अब जब कोरोना संक्रमण के खतरे ने फिर से सिर उठा लिया है, तब फिर पात्र होते हुए भी टीका लगवाने में देरी करने का कोई औचित्य नहीं। जो लोग किसी न किसी कारण टीका लगवाने से बच रहे हैं, उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि हाल-फिलहाल कोविड महामारी से छुटकारा मिलता नहीं दिख रहा और वह अभी भी घातक बनी हुई है।


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फिर बेलगाम होते नक्सली: नक्सलियों की कमर तोड़ने के लिए सबसे पहले सप्लाई लाइन को करना होगा ध्वस्त (दैनिक जागरण)

बीते कुछ वर्षों में नक्सलियों की ताकत कम हुई है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे हथियार डालने की स्थिति में आ गए हैं। नक्सलियों की सप्लाई लाइन को ध्वस्त करने के साथ यह भी जरूरी है कि उनके खुले-छिपे समर्थकों से भी सख्ती से निपटा जाए।


छत्तीसगढ़ के बीजापुर में नक्सलियों से मुठभेड़ में पांच जवानों का बलिदान इसलिए कहीं अधिक चिंताजनक है, क्योंकि बीते दस दिनों में यह दूसरी बार है, जब सुरक्षा बलों को निशाना बनाया गया। इसके पहले छत्तीसगढ़ में ही नारायणपुर में नक्सलियों ने सुरक्षा बलों की एक बस को विस्फोट से उड़ा दिया था। इस हमले में भी पांच जवानों की जान गई थी। नक्सलियों के ये हमले यही बता रहे हैं कि उनका दुस्साहस फिर सिर उठा रहा है और उनकी ओर से हिंसा का परित्याग करने के जो कथित संकेत दिए जा रहे, वे सुरक्षा बलों की आंखों में धूल झोंकने के लिए ही हैं। नक्सलियों पर भरोसा करने का कोई मतलब नहीं। उनके मुंह में खून लग चुका है। वे लूट, उगाही के साथ हिंसा से बाज आने वाले नहीं हैं। यह भी साफ है कि वे जब हिंसक गतिविधियों को अंजाम नहीं दे रहे होते, तब अपनी ताकत बटोरने के साथ सुरक्षा बलों को निशाने पर लेने की साजिश रच रहे होते हैं। चूंकि वे इस सनक से ग्रस्त हैं कि बंदूक के बल पर भारतीय शासन को झुकाने में सफल हो जाएंगे, इसलिए उनके प्रति नरमी बरतने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।


यह सही है कि बीते कुछ वर्षों में नक्सलियों की ताकत कम हुई है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे हथियार डालने की स्थिति में आ गए हैं। नक्सली अब भी जिस तरह नासूर बने हुए हैं, उससे उन्हेंं जल्द उखाड़ फेंकने के दावों पर प्रश्नचिन्ह ही लगता है। ध्यान रहे कि इस तरह के दावे पिछले करीब एक दशक से किए जा रहे हैं। इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि नक्सली संगठन अब भी देश के नौ राज्यों के 50 से अधिक जिलों में सक्रिय हैं। यदि सुरक्षा बलों की तमाम सक्रियता के बाद भी नक्सली गिरोह इतने अधिक जिलों में अपना असर बनाए हुए हैं तो इसका अर्थ है कि उन्हेंं सहयोग, समर्थन और संरक्षण देने वालों की कमी नहीं। नि:संदेह इसका एक मतलब यह भी है कि वे हथियार और विस्फोटक हासिल करने में समर्थ हैं। यदि नक्सलियों की कमर तोड़नी है तो सबसे पहले इस सवाल का जवाब खोजना होगा कि आखिर उन्हेंं आधुनिक हथियारों की आपूर्ति कहां से हो रही है? नक्सलियों की सप्लाई लाइन को ध्वस्त करने के साथ यह भी जरूरी है कि उनके खुले-छिपे समर्थकों से भी सख्ती से निपटा जाए। केंद्र के साथ राज्यों को ऐसा करते समय अर्बन नक्सल कहे जाने वाले उन तत्वों पर भी निगाह रखनी होगी, जो नक्सलियों के पक्ष में माहौल बनाने या फिर उनकी हिंसा को जायज ठहराने का काम करते हैं।


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Saturday, April 3, 2021

पाक अपनी आदत से नहीं आएगा बाज, यू-टर्न लेकर इमरान ने भारत से चीनी और कपास मंगाने के कैबिनेट के फैसले पर लगाई रोक (दैनिक जागरण)

पाकिस्तानी विदेश मंत्री की मानें तो भारत से तब तक कारोबार नहीं किया जाएगा जब तक अनुच्छेद 370 को बहाल नहीं किया जाता। यह तो कभी नहीं होने वाला। दुनिया की कोई ताकत इस अनुच्छेद की वापसी नहीं करा सकती।


पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने भारत से चीनी और कपास मंगाने के अपनी ही कैबिनेट के फैसले पर रोक लगाकर केवल यही नहीं साबित किया कि वह यू-टर्न लेने में माहिर हैं, बल्कि यह भी जता दिया कि भारत को अपने इस पड़ोसी देश पर भरोसा करने के पहले सौ बार सोचना चाहिए। इमरान ने अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने वाला यह फैसला करके उन उम्मीदों को ध्वस्त करने का ही काम किया है, जो संघर्ष विराम पर नए सिरे से सहमति बनने और फिर भारतीय प्रधानमंत्री की ओर से पाकिस्तान दिवस पर भेजे गए शुभकामना संदेश के जवाब में सामने आई चिट्ठी से उपजी थीं। हालांकि इमरान खान ने इस चिट्ठी में जिस तरह जम्मू-कश्मीर का जिक्र किया, उससे यही संकेत मिला था कि पाकिस्तान अपनी आदत से बाज नहीं आएगा, फिर भी भारत से चीनी और कपास आयात करने के उसके फैसले से यह प्रतीति हुई थी कि मजबूरी में ही सही, उसे अक्ल आ गई है। खुद का भला करने वाले फैसले को पलटकर पाकिस्तान ने यही जाहिर किया कि उसे भारत से नफरत के चलते कुछ सही सूझता ही नहीं। यह फैसला करके पाकिस्तान ने एक ओर जहां अपने टेक्सटाइल उद्योग पर एक और चोट की, वहीं दूसरी ओर किसी अन्य देश से चीनी खरीदने में अतिरिक्त विदेशी मुद्रा खर्च होने की चिंता भी नहीं की। इसे ही कहते हैं विनाशकाले विपरीत बुद्धि।


यह अच्छा हुआ कि भारत ने पाकिस्तान के मूर्खतापूर्ण फैसले की कोई परवाह नहीं की। उसे करनी भी नहीं चाहिए, क्योंकि पाकिस्तान से व्यापार करना उसकी प्राथमिकता में नहीं। सच तो यह है कि भारत को यह मानकर चलना चाहिए कि उसे पाकिस्तान के बगैर ही काम चलाना होगा। पाकिस्तान की अनदेखी और उपेक्षा ही उसके होश ठिकाने लगाने का काम करेगी, लेकिन ऐसा करते हुए भारत को अपनी सुरक्षा के लिए सदैव सतर्क रहना होगा। पाकिस्तान न पहले भरोसे काबिल था और न अब है। पाकिस्तानी विदेश मंत्री की मानें तो भारत से तब तक कारोबार नहीं किया जाएगा, जब तक अनुच्छेद 370 को बहाल नहीं किया जाता। यह तो कभी नहीं होने वाला। दुनिया की कोई ताकत इस अनुच्छेद की वापसी नहीं करा सकती। यदि बिगड़ैल पाकिस्तान यह सोच रहा है कि भारत उससे व्यापार करने के लोभ में उसे जम्मू-कश्मीर में कोई रियायत दे देगा तो यह उसका दिवास्वप्न ही है। इस दिवास्वप्न के पीछे कश्मीर हड़पने और भारत से बदला लेने की फितरत है। वास्तव में इसी कारण पाकिस्तानी सेना उन आतंकी संगठनों को पालती-पोसती है, जो भारत के लिए खतरा बने हुए हैं। हैरत नहीं कि उसी ने इमरान खान को यू-टर्न लेने को बाध्य किया हो।

सौजन्य - दैनिक जागरण।

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Friday, April 2, 2021

उच्चतम न्यायालय के साथ-साथ केंद्र और राज्य सरकारों को भी मतांतरण पर रोक लगाने के लिए होना चाहिए सक्रिय (दैनिक जागरण)

इसमें संदेह नहीं कि मतांतरण में लिप्त संगठनों से सबसे अधिक त्रस्त हिंदू समाज है क्योंकि वह न तो मतांतरण पर यकीन रखता है और न ही ऐसी किसी धारणा से ग्रस्त है कि अन्य उपासना पद्धतियों के अनुयायी गलत राह पर हैं।


छल-कपट, लालच और जोर-जबरदस्ती से होने वाले मतांतरण को रोकने के लिए कानून बनाने की मांग करने वाली याचिका पर उच्चतम न्यायालय का निर्णय कुछ भी हो, इस सच से कोई भी मुंह नहीं मोड़ सकता कि देश में कुछ समूह और संगठन यह काम बिना किसी रोक-टोक करने में लगे हुए हैं। इन संगठनों के निशाने पर आम तौर पर गरीब-अशिक्षित जनता और खासकर दलित-आदिवासी हैं। मतांतरण में लिप्त संगठनों ने पहले पूर्वोत्तर राज्यों को अपने निशाने पर लिया और फिर झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा सरीखे आदिवासी बहुल राज्यों को।


अब तो वे पंजाब और दक्षिण भारत के राज्यों में भी सक्रिय हो गए हैं। इनकी सक्रियता के नतीजे अच्छे नहीं होंगे। ऐसे संगठन केवल इस धार्मिक विश्वास से ही लैस नहीं हैं कि दुनिया का भला तभी हो सकता है, जब वह उपासना पद्धति विशेष की शरण में आएगी, बल्कि इस मानसिकता से भी ग्रस्त हैं कि अन्य मत-पंथ वालों को तथाकथित सही राह पर लाना उनकी जिम्मेदारी है। इसी सनक के चलते कुछ समय पहले एक अमेरिकी ईसाई मिशनरी आधुनिक सभ्यता से पूरी तरह कटे हुए अंडमान-निकोबार के आदिवासियों को ईसाइयत का पाठ पढ़ाने पहुंच गया था। इस घटना ने पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया था, लेकिन कोई नहीं जानता कि ऐसे लोगों पर लगाम लगाने के ठोस उपाय क्यों नहीं किए गए? कम से कम अब तो कुछ किया जाना चाहिए।


इसमें संदेह नहीं कि मतांतरण में लिप्त संगठनों से सबसे अधिक त्रस्त हिंदू समाज है, क्योंकि वह न तो मतांतरण पर यकीन रखता है और न ही ऐसी किसी धारणा से ग्रस्त है कि अन्य उपासना पद्धतियों के अनुयायी गलत राह पर हैं। लोगों की गरीबी अथवा अन्य किसी मजबूरी का लाभ उठाकर या फिर प्रलोभन का सहारा लेकर उन्हें मतांतरित करने वालों ने देश के कई हिस्सों में आबादी के संतुलन को गड़बड़ा दिया है। इससे कई समस्याएं पनप रही हैं। आखिर क्या कारण है कि आम तौर पर गरीब लोग ही मतांतरण कर रहे हैं? चूंकि मतांतरण कराने वाले इस कोशिश में भी रहते हैं कि मतांतरित लोग अपनी उपासना पद्धति का परित्याग करने के साथ ही अपनी संस्कृति से भी दूर हो जाएं, इसलिए समस्याएं अधिक गंभीर रूप ले रही हैं।


पिछले कुछ समय से दलितों और आदिवासियों को गैर हिंदू बताने का जो अभियान छिड़ा है, उसके पीछे भी मतांतरण में लिप्त संगठनों की सोची-समझी साजिश ही नजर आती है। उच्चतम न्यायालय के साथ-साथ केंद्र और राज्य सरकारों को भी छल-कपट से होने वाले मतांतरण पर रोक लगाने के लिए सक्रिय होना चाहिए, क्योंकि ऐसे मतांतरण देश के मूल चरित्र को बदलने की मंशा से भी हो रहे हैं।

सौजन्य - दैनिक जागरण।

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Thursday, April 1, 2021

45 पार के लोगों का टीकाकरण: महामारी का मुकाबला करने के लिए टीकाकरण के तीसरे चरण को युद्ध स्तर पर आगे बढ़ाना होगा (दैनिक जागरण)

देश के जिन इलाकों में संक्रमण की दर खतरनाक स्तर तक पहुंच चुकी है वहां सभी आयु वर्ग के लोगों को टीकाकरण के दायरे में लाने पर भी विचार किया जाना चाहिए। यह कठिन काम इसलिए नहीं क्योंकि जल्द ही कुछ और टीके उपलब्ध होने वाले हैं।


कोविड महामारी का मुकाबला करने के लिए आज से शुरू हो रहे 45 साल से अधिक आयु के सभी लोगों के टीकाकरण का अभियान सफल हो और कम समय में ज्यादा से ज्यादा लोगों को टीका लग सके, इसकी जितनी चिंता केंद्र और राज्य सरकारों को करनी होगी, उतनी ही उन्हें भी जो टीका लगवाने के पात्र हैं। यह आवश्यक है कि 45 साल से ऊपर के सभी लोग टीका लगवाने में तत्परता का परिचय दें। यह ठीक नहीं कि कुछ लोग टीका लगवाने के मामले में देखो और इंतजार करो की नीति पर चलते दिख रहे हैं। इसका कोई औचित्य इसलिए नहीं, क्योंकि टीकाकरण शुरू हुए तीन माह हो चुके हैं और अभी तक छह करोड़ से अधिक लोगों ने टीका लगवा भी लिया है। एक अनुमान है कि देश में 45 से 60 साल की आयु वालों की संख्या करीब 34 करोड़ है। यदि केंद्र सरकार की अपेक्षा यह है कि राज्य सरकारें अपने यहां के सभी पात्र लोगों को दो सप्ताह के अंदर टीका लगा दें तो फिर उसे उन्हें टीकाकरण केंद्र बढ़ाने के लिए कहना चाहिए। खुद राज्य सरकारों को भी यह देखना चाहिए कि क्या निजी क्षेत्र के और अस्पतालों को टीकाकरण की सुविधा दी जा सकती है? कम से कम महाराष्ट्र, पंजाब, तमिलनाडु जैसे जिन राज्यों में कोरोना संक्रमण के मामले अधिक संख्या में मिल रहे हैं, वहां 45 से कम आयु वालों के टीकाकरण की भी संभावनाएं टटोली जानी चाहिए।


जब यह माना जा रहा है कि कुछ राज्यों में कोरोना संक्रमण की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है, तब फिर टीकाकरण के तीसरे चरण को युद्ध स्तर पर आगे बढ़ाया जाना चाहिए। यह भी समय की मांग है कि जितनी जल्दी हो सके, 45 से कम आयु के लोगों के टीकाकरण का भी प्रबंध किया जाए। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर तेज होती जा रही है और यह अंदेशा उभर आया है कि वह पहली लहर जितनी घातक साबित हो सकती है। आम जनता को भी स्थिति की गंभीरता को समझना चाहिए। उसे न केवल टीका लगवाने के लिए तैयार रहना चाहिए, बल्कि कोरोना संक्रमण से बचे रहने के लिए जरूरी सतर्कता का परिचय भी देना चाहिए, क्योंकि दूसरी लहर में यह भी दिख रहा है कि अपेक्षाकृत कम आयु वाले भी कोरोना संक्रमण से ग्रस्त हो रहे हैं। देश के जिन इलाकों में संक्रमण की दर खतरनाक स्तर तक पहुंच चुकी है, वहां सभी आयु वर्ग के लोगों को टीकाकरण के दायरे में लाने पर भी विचार किया जाना चाहिए। यह कठिन काम इसलिए नहीं, क्योंकि जल्द ही कुछ और टीके उपलब्ध होने वाले हैं।

सौजन्य - दैनिक जागरण।

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