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Wednesday, September 14, 2022

हिंदी दिवस : सांस्कृतिक व भाषायी मानसिकता की अनुगूंज (अमर उजाला)

- विश्वनाथ त्रिपाठी


अपने देश में हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह और हिंदी पखवाड़ा आजादी मिलने के बाद ही मनाया जाने लगा, इसका उद्देश्य यह स्मरण दिलाना था कि भारतीय गणराज्य की राजकीय भाषा हिंदी है। पहले हिंदी के लिए राष्ट्रभाषा शब्द ज्यादा सुनाई पड़ता था, लेकिन धीरे-धीरे लोगों के दिमाग में यह बात आने लगी कि केवल हिंदी ही राष्ट्रभाषा नहीं है। राष्ट्र की जितनी भी भाषाएं हैं, वे राष्ट्रभाषा हैं। इस पर काफी बहस भी हुई है। इसलिए अब हिंदी को राष्ट्रभाषा से ज्यादा राजकीय भाषा या राजभाषा कहा जाने लगा है। केंद्र या राज्यों के बीच सूचनाओं एवं पत्र-व्यवहार के लिए हिंदी को संपर्क भाषा माना जाता है। इसका व्यावहारिक उपयोग कितना होता है, यह अलग बात है।


आजादी के बाद राजकीय भाषा के रूप में हिंदी की घोषणा स्वाभाविक बात थी, हालांकि इसको लेकर संविधान सभा में काफी बहस भी हुई। हिंदी और इसकी बोलियां भारतवर्ष में विद्रोह, आंदोलन की भाषा रही हैं। इसे आप भक्ति आंदोलन और स्वाधीनता आंदोलन से जोड़ सकते हैं। पहली रचना जो हमारे देश में हिंदी की मिलती है, वह रामानंद की मिलती है, जिनके बारे में कहा जाता है कि वह भक्ति आंदोलन को दक्षिण भारत से उत्तर भारत में ले आए-भक्ति द्रविड़ उपजी लाए रामानंद, प्रकट किया कबीर ने, सात दीप नौ खंड। वह सिर्फ भक्ति आंदोलन ही नहीं लाए, बल्कि यहां की भाषा में उन्होंने अपनी भक्ति का प्रचार किया।



इसी तरह से जब वली दकनी दक्षिण से दिल्ली आए, तो वह अपने साथ अपनी भाषा लेकर आए, जिसे दकनी हिंदी कहा जाता है, जिसे आजकल उर्दू वाले अपनी भाषा मानते हैं, क्योंकि वली दकनी उर्दू के शायर हैं। इसी तरह 1857 का जो स्वतंत्रता आंदोलन था, वह हिंदी और उर्दू में साथ-साथ चला था। बहादुरशाह जफर के नाम से एक शेर प्रसिद्ध है-हिंदियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की, तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की। यह दिलचस्प है कि भाषा के लिए जो हिंदी शब्द है, वह मुसलमानों का दिया हुआ है। पुरुषोत्तम दास टंडन से पहले भाषा-विशेष के रूप में हिंदी शब्द का इस्तेमाल मीर और गालिब ने किया है। मीर की पंक्ति है- आया नहीं ये लफ्ज-ए हिंदी जुबां के बीच और गालिब ने तो अपनी भाषा को हिंदी ही कहा है। इसलिए जब आप हिंदी की बात करते हैं, तो वस्तुतः उसकी एक आधारभूमि है। ऐसा नहीं हुआ कि आजादी के बाद एकदम से हिंदी संपर्क भाषा या राजभाषा के रूप में थोप दी गई। असल में हमारी जो सांस्कृतिक भाव-भूमि थी या आजादी पाने के लिए हमारी जो मानसिकता थी, उसी का परिणाम था हिंदी को संपर्क भाषा या राजभाषा के रूप में बढ़ावा देना। 


जब हमें आजादी मिली, तो वह एक तरह से भारत का गैर-उपनिवेशीकरण था, क्योंकि आजादी अपने-आप में उपनिवेशवाद विरोधी अवधारणा है। हमने जो भारत छोड़ो का नारा दिया था, वह सिर्फ अंग्रेजों के लिए ही नहीं, बल्कि अंग्रेजी और अंग्रेजियत के लिए भी था। और यह काम किस पैमाने पर हुआ था, उसे देखने की जरूरत है। भारतीय गणराज्य का जो प्रतीक वाक्य चुना गया, वह है सत्यमेव जयते। हाउस ऑफ कामन्स के लिए हमारे यहां लोकसभा शब्द बनाया गया, जो ज्यादा स्वाभाविक लगता है। इसी तरह सड़कों-बस्तियों (राजपथ, जनपथ, चाणक्यपुरी, कौटिल्य मार्ग, शांति पथ, सत्य मार्ग, विनय मार्ग) और संस्थाओं के स्वाभाविक से नाम रखे गए थे। यह सब जो हो रहा था, वह केवल भाषायी आंदोलन का परिणाम नहीं था, बल्कि हमारी राजनीतिक और सामाजिक समझ थी। योजनाबद्ध तरीके से देश के विकास का जो सपना था, किसी भी उपनिवेश या साम्राज्यवादी ताकत से अलग रहने की जो हमारी गुटनिरपेक्षता की नीति थी, वह हमारी सांस्कृतिक और भाषायी मानसिकता की अनुगूंज थी। 


एक और बात ज्यादा सावधानी से समझने की जरूरत है कि हिंदी का अपना एक वृहत्तर भाषा-क्षेत्र है, जिसे हिंदी हृदय प्रदेश कहा जाता है। इसमें कई राज्य शामिल हैं। आजादी के बाद इन राज्यों ने बिना दबाव के स्वतः स्वयं को हिंदी राज्य घोषित किया था। हिंदी का अखिल भारतीय होना सिर्फ इन्हीं हिंदी प्रदेशों पर निर्भर नहीं है, बल्कि हिंदीतर भाषी राज्यों और क्षेत्रों पर निर्भर है। हमारी जनतांत्रिक मानसिकता की मांग यही है। आजादी के बाद हिंदी का विश्वविद्यालयों, सरकारी संस्थाओं में प्रचार-प्रसार और उपयोग बढ़ा है, अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हिंदी का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में भी प्रशासनिक हिंदी के शब्द धड़ल्ले से प्रयोग होने लगे हैं, जैसे- पंचायत, पंजीकरण आदि। विदेशों में भी जो हिंदी का प्रचार-प्रसार हुआ है, उसका आधार मजदूर वर्ग है। 


औपनिवेशिक शासन के दौरान हमारे यहां से जो गिरमिटिया मजदूर ले जाए गए थे, वे अपने साथ रामचरित मानस, कबीरदास, रैदास आदि का साहित्य भी ले गए थे। यही वजह है कि आज फिजी, मॉरीशस, सूरीनाम, ट्रिनिडाड, और अन्य कैरिबियाई देशों में हिंदी प्रचलित है। लेकिन दुखद है कि इन सबके बावजूद देश में अंग्रेजी का वर्चस्व अब भी कायम है। अंग्रेजी का प्रभाव इस हद तक बढ़ रहा है कि हमारे बच्चे अब ग्यारह, बारह, छियासठ, सड़सठ नहीं समझते हैं, बल्कि अंग्रेजी के अंकों को ही समझते और बोलते हैं। ऐसा केवल अंकों के मामले में नहीं है, बल्कि जीवन-शैली, पोशाक आदि विभिन्न मामलों में है। इसका मूल कारण है कि अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय बाजार की भाषा है, जो अंग्रेजियत की मानसिकता को बढ़ावा देती है। हमारे यहां यह मानसिकता अपसंस्कृति का कारण बन रही है। 


हालांकि बाजार ने अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में हिंदी को काफी बढ़ावा दिया है, लेकिन भाषा जब अवसरवाद से जुड़ जाती है, विवेकहीन हो जाती है, तो वह भाषा का विकास नहीं करती। यह मत भूलिए कि हिंदी आंदोलनों और विद्रोह के अलावा दरबार की भाषा भी रही है। भाषा का विकास जोखिम उठाकर ही हो सकता है। अन्य भारतीय भाषाओं पर हिंदी का वर्चस्व भी ठीक नहीं है। अंग्रेजियत की मानसिकता हमारी स्वाधीन मनोवृत्ति को क्षति पहुंचा रही है और अपसंस्कृति का प्रसार करती है, जो हिंदी भाषा को भी नुकसान पहुंचा रही है। हिंदी का विकास हमारे देश के आर्थिक विकास और अन्य भारतीय भाषाओं के विकास के साथ ही जुड़ा हुआ है। बेशक अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में हिंदी में रोजगार के अवसर बढ़े हैं, लेकिन अंग्रेजी की तुलना में नहीं। 

सौजन्य - अमर उजाला।

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