नासा के चंद्र अभियान में आ रही बाधा से न केवल वैज्ञानिकों की व्यग्रता बढ़ रही है, बल्कि आधुनिक विज्ञान को लेकर सवाल भी उठने लगे हैं। क्या 50 साल पहले इस्तेमाल हुई तकनीक ज्यादा बेहतर थी और अब जिस तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है, वह यथोचित नहीं है? दो बार गैर-मानव अभियान टालने के बाद नासा ने घोषणा की है कि वह अंतरिक्ष में आर्टेमिस को लॉन्च करने का प्रयास करने के लिए दो तारीख, 23 सितंबर या 27 सितंबर पर विचार कर रहा है। आर्टेमिस अभियान की सफलता चंद्रमा और उससे आगे मानव अस्तित्व का विस्तार करने के लिए नासा की प्रतिबद्धता व क्षमता को प्रदर्शित करेगी। नासा को अपना मिशन मून, यानी आर्टेमिस-1 दोबारा टालना पड़ा था, क्योंकि दोबारा फ्यूल लीक की समस्या वैज्ञानिकों के सामने आ गई। कहने की जरूरत नहीं कि आर्टेमिस अभियान के जरिये वैज्ञानिक 50 साल बाद फिर से इंसानों को चांद पर भेजने की तैयारी कर रहे हैं। 2025 में मानव को फिर चांद पर भेजने की योजना है, पर उससे पहले मानव रहित यान का चांद पर जाना व लौटना जरूरी है।
आखिर अगली लॉन्चिंग के लिए इंतजार क्यों करना पड़ रहा है? तकनीक की तो अपनी समस्या है ही, इसके अलावा तारों की स्थिति को भी देखना पड़ता है, ताकि प्रक्षेपण के बाद यान सही जगह उतर सके और रास्ते में किसी दुर्घटना का शिकार न हो। अंतरिक्ष में भेजे जाने वाले किसी भी यान का उड़ान पथ धरती और चंद्रमा, दोनों के गुरुत्वाकर्षण पर भी निर्भर करता है। समायोजन ठीक होना चाहिए, तभी यान को टकराने से बचाया जा सकता है। इस हिसाब से अनुकूल स्थिति 19 सितंबर के बाद बनेगी। बहरहाल, बड़ी चुनौती ईंधन लीकेज को रोकना है। यह तो अच्छा है कि उड़ान से पहले ही लीकेज का पता चल जा रहा है और अभियान को टालकर यान व प्रक्षेपण यान की रक्षा की जा रही है। 50 साल पहले वाली तकनीक भले बहुत जटिल थी, पर तब सफलता मिली थी। अब तकनीक अत्याधुनिक है और ईंधन गुणवत्ता में भी परिवर्तन आया है, इसलिए महारत हासिल करने में थोड़ा वक्त लगेगा। वैज्ञानिक मान रहे हैं कि नासा ही नहीं, तमाम वैज्ञानिक बिरादरी को धैर्य रखना होगा।
अमेरिका के अलावा चीन भी अंतरिक्ष मिशन में दिलोजान से लगा है और उसकी हालिया सफलताएं आकर्षित कर रही हैं। चीन अभी नासा से पीछे है, पर गौर करने की बात है कि 2019 में चीन चंद्रमा के सबसे दूर क्षेत्र में एक अंतरिक्ष यान को सुरक्षित रूप से उतारने वाला पहला देश बन गया था। भारत के चंद्रयान-2 को अगर सफलता मिली होती, तो भारत भी होड़ में आगे रहता। गौरतलब है कि चंद्रयान-1 अभियान साल 2008 में सफल रहा था। उस यान के जरिये चांद की परिक्रमा करते हुए भारत ने चांद पर पानी के ठोस साक्ष्य हासिल किए थे। हमारे अभियान चंद्रयान-2 से बहुत उम्मीदें थीं, लेकिन अंत समय में यह चांद के करीब पहुंचकर क्रैश लैंडिंग का शिकार हुआ। बताया जाता है कि चंद्रयान-1 और चंद्रयान-2 के बीच तकनीकी परिवर्तन किया गया था। हमें यह ध्यान रखना होगा कि ऐसे अभियान बहुत महंगे होते हैं और इनकी सफलता पर सबकी निगाह होती। सफल तकनीक में आमूलचूल परिवर्तन के बजाय, उसे ही विकसित करना चाहिए। आज के समय में वैज्ञानिकों के बीच प्रतिस्पद्र्धा से भी ज्यादा जरूरी है एक-दूसरे से सीखना, तभी अंतरिक्ष विज्ञान में जल्दी सफलता मिलेगी और उसका लाभ सभी तक पहुंचेगा।
सौजन्य - हिन्दुस्तान।
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