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Tuesday, May 25, 2021

आपदा को अवसर नहीं बना पाए हम (हिन्दुस्तान)

हरजिंदर, वरिष्ठ पत्रकार

जब कोविड नहीं था, तब बहुत कुछ बहुत अच्छा था। ऐसा हम बहुत सी चीजों के बारे में या शायद सभी चीजों के बारे में कह सकते हैं। लेकिन निश्चित और निर्विवाद तौर पर वैक्सीन बाजार के बारे में तो यह कहा ही जा सकता है। तब तक इस बाजार में हम सबसे आगे थे। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 2019 के आंकड़ों को देखें, तो दुनिया के वैक्सीन बाजार में 28 फीसदी हिस्सेदारी अकेले भारत की कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की थी। पता नहीं, बात कितनी सच है, लेकिन यह अक्सर सुनाई देती थी कि पूरी दुनिया का 12 साल का कोई भी बच्चा जिसका पूर्ण टीकाकरण हुआ हो, उसे अपने पूरे जीवन में कभी न कभी सीरम इंस्टीट्यूट का एक टीका तो लगा ही होगा। यानी, वैक्सीन के मामले में इस तरह के नैरेटिव हमारे गौरव-बोध को थपथपाने के लिए मौजूद थे। वैसे सीरम इंस्टीट्यूट के अलावा देश की कई और कंपनियां भी वैक्सीन बनाने और निर्यात करने का काम करती हैं। अगर इन सभी को जोड़ दिया जाए, तो दुनिया के वैक्सीन बाजार में भारत की हिस्सेदारी एक तिहाई से कहीं ज्यादा थी।

 

बात सिर्फ 2019 के आंकड़ों की नहीं है। 2020 के अंत तक यही माना जा रहा था कि कोरोना वायरस से लड़ाई में भारत बड़ी भूमिका निभाने जा रहा है। दिसंबर में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने यहां तक कहा था कि वैक्सीन की जो उत्पादन-क्षमता भारत के पास है, वह दुनिया की एक महत्वपूर्ण संपदा साबित होने वाली है। इन्हीं सबसे उत्साहित होकर भारत ने अपने जनसंपर्क को बढ़ाने का फैसला किया और दिसंबर की शुरुआत में सभी देशों के राजदूतों को एक साथ बुलाकर वैक्सीन की प्रयोगशालाओं व उत्पादन इकाइयों का दौरा करवाया। इस दौरे के बाद ऑस्ट्रेलिया समेत कई देशों के राजदूतों ने भारत की वैक्सीन उत्पादन-क्षमता के लिए कई कसीदे भी गढ़े थे। हम इस बात को लेकर खुश थे कि भारत में स्वास्थ्य सुविधाएं लचर हो सकती हैं, अस्पताल, मरीजों के लिए बिस्तर व स्वास्थ्यकर्मी कम पड़ सकते हैं, वेंटिलेटर का अकाल हो सकता है, ऑक्सीजन जरूरत से काफी कम पड़ सकती है, बहुत सी दवाओं की कमी से उनकी कालाबाजारी हो सकती है, पर वैक्सीन के मामले में हम आत्मनिर्भर हैं। और कुछ न हो, मगर कोविड को मात देने वाला असली ब्रह्मास्त्र तो हमारे पास है ही। साल 2021 के शुरुआती हफ्तों तक यही लग रहा था कि भारत नए झंडे गाड़ने जा रहा है। पहले चरण में सिर्फ स्वास्थ्यकर्मियों को टीके लगने थे। जितने टीके लग रहे थे, उससे ज्यादा वैक्सीन उत्पादन की खबरें आ रही थीं। कुछ विश्लेषक तो यह भी कह रहे थे कि भारत के स्वास्थ्य तंत्र के पास टीकाकरण की जो क्षमता है, भारत की वैक्सीन उत्पादन क्षमता से वह कहीं कम है, इसलिए भारत के पास हमेशा वैक्सीन का सरप्लस स्टॉक रहेगा। शायद इसी तर्क के चलते भारत ने टीकों का निर्यात भी किया, जो इन दिनों काफी बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है। विदेश नीति के बहुत से टीकाकारों ने इस निर्यात को ‘वैक्सीन डिप्लोमेसी’ बताते हुए इसकी तारीफों के पुल भी बांधे थे।

लेकिन अप्रैल आते-आते ऐसा क्या हुआ कि सारा शीराजा बिखर गया? एक तो उम्र के हिसाब से टीकाकरण की योग्यता को लगातार विस्तार दिया जाने लगा। फिर इसी बीच कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर आई, जो पहले से कहीं ज्यादा भयावह और संक्रामक थी। लोगों को लगा कि टीकाकरण जल्दी होना चाहिए और वैक्सीनेशन सेंटरों के बाहर भीड़ बढ़ने लगी। सरकारी व निजी अस्पतालों ने टीकाकरण की अपनी क्षमता को बढ़ा दिया, कुछ जगह तो चौबीस घंटे टीकाकरण की सुविधा दे दी गई। जब यह स्थिति आई, तब पता चला कि टीके कम पड़ रहे हैं। सभी राज्यों से टीकों का स्टॉक खत्म होने की खबरें आने लगीं। लेकिन बात क्या सिर्फ इतनी थी? शायद नहीं। तमाम आंकडे़ बता रहे हैं कि वैक्सीन उत्पादन का दुनिया का सबसे अग्रणी देश भारत कोविड वैक्सीन के मामले में मात खा गया। पता चला कि दुनिया की सबसे बड़ी वैक्सीन उत्पादक कंपनी बिल गेट्स फाउंडेशन से 30 करोड़ डॉलर की मदद लेने के बावजूद अभी तक कोविड वैक्सीन की सिर्फ छह करोड़ खुराक बना पाई है। सीरम इंस्टीट्यूट का कहना है कि भारत सरकार ने इतने का ही ऑर्डर दिया था। यह सच है कि इसके पहले सीरम कभी भारत सरकार के ऑर्डर की मोहताज नहीं रही, वह अपनी वैक्सीन पूरी दुनिया को बेचती रही, पर इस बार तमाम बैंड, बाजा, बारात के बावजूद उसने सेहरा अपने माथे पर सजाने का मौका गंवा दिया। इसकी तुलना अगर हम दुनिया की दूसरी कंपनियों से करें, तो तस्वीर कुछ और दिखाई देती है। फाइजर दुनिया की एक महत्वपूर्ण और बहुत बड़ी दवा निर्माता कंपनी है, लेकिन वैक्सीन के बाजार में उसकी कोई बहुत बड़ी हिस्सेदारी हाल-फिलहाल में नहीं रही। उसने अब दुनिया भर के देशों से 52 करोड़ वैक्सीन डोज निर्यात करने का समझौता कर लिया है, जिसे वह जल्द ही अमली जामा पहनाने की बात भी कर रही है। कंपनी का दावा है कि इस साल के आखिर तक वह 1.3 अरब वैक्सीन डोज का उत्पादन कर लेगी। स्पूतनिक-वी नाम की वैक्सीन बनाने वाली रूस की कंपनी के दावे भी ऐसे ही हैं। चीन तो कई बार इससे भी बड़े दावे कर चुका है। अमेरिकी कंपनी मॉडर्ना का दवा व वैक्सीन उद्योग में इसके पहले तक कोई अनुभव नहीं था, पर अब वह अमेरिका की सबसे अग्रणी वैक्सीन उत्पादक कंपनी बन चुकी है, जबकि यहां भारत में सबसे अनुभवी कंपनी बेबस दिखाई दे रही है। जिस समय भारत की कामयाबी के हर तरफ चर्चे होने चाहिए थे, उस समय पूरी दुनिया भारत पर तरस खा रही है। और भारत की राज्य सरकारें झोला उठाकर वैक्सीन की खरीदारी के लिए भटकने को मजबूर हैं। इस संकट ने यह भी बता दिया कि भारत की जिन कंपनियों को हम अभी तक दुनिया में सबसे आगे मानते थे, वे दरअसल ऑर्डर मिलने पर उत्पादन करने वाली फैक्टरियां भर हैं। ऐसे उद्योगों से भला यह उम्मीद कैसे की जाए कि वे आपदा को अवसर में बदल सकेंगी?

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य - हिन्दुस्तान।

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