रथिन रॉय
इस वर्ष अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री बजट के बुनियादी काम पर लौट आईं और उन्होंने वृहद-राजकोषीय स्थिति का स्पष्ट उल्लेख किया। यह बात बहुत अहम है क्योंकि बजट भाषण एक ऐसा दस्तावेज है जिसका रिकॉर्ड रहता है और आंकड़ों का उल्लेख सरकार को संसद के प्रति और आगे चलकर इतिहास के प्रति जवाबदेह बनाता है। सकारात्मक बात यह भी थी कि वित्त मंत्री ने बजट से इतर लेनदेन को बजट में शामिल करने की प्रतिबद्धता जताई और व्यय कार्यक्रम को लेकर पंचवर्षीय परिदृश्य में सोचने की शुरुआत की। यह देखना राहत की बात थी कि पंद्रहवें वित्त आयोग में राज्यों को किए जाने वाले हस्तांतरण की राशि अपरिवर्तित रखी गई और अतिरिक्त हस्तांतरण का प्रस्ताव रखा गया तथा स्वीकार किया गया।
वित्त वर्ष 2020-21 की शुरुआत कमजोर रही क्योंकि राजस्व प्राप्तियां कम रहीं। राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को भी संशोधित करना पड़ा। महामारी के असर ने सरकार पर और अधिक दबाव बनाया कि वह संसाधनों का समुचित इस्तेमाल करने और अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाए रखने के लिए व्यय में इजाफा करे। ऐसे में मैं राजकोषीय घाटे के लक्ष्य में इजाफे को लेकर चिंतित नहीं था बल्कि मेरी चिंता यह थी कि उधार ली गई धनराशि का क्या किया गया।
राजकोषीय घाटा बढ़कर जीडीपी के 6 फीसदी तक पहुंच चुका है। इसमेंं से एक फीसदी का इजाफा तो राजस्व में कमी के कारण आया है। बहरहाल, ऐसा व्यापक तौर पर गैर कर राजस्व में कमी के कारण हुआ। यह कमी इसलिए आई क्योंकि सरकारी उपक्रमों के लाभांश में भारी कमी दर्ज की गई। कर राजस्व में कमी अपेक्षाकृत कम रही। यह जीडीपी का बमुश्किल 0.43 फीसदी रही। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि केंद्रीय उत्पाद शुल्क में हुए इजाफे, यानी पेट्रोलियम उत्पाद प्राप्तियों के कारण हुई बढ़ोतरी ने प्रत्यक्ष कर और जीएसटी संग्रह में कमी की काफी हद तक भरपाई कर दी। परंतु संसाधन जुटाने की प्रक्रिया को सबसे बड़ा झटका कोविड के कारण नहीं लगा। विनिवेश प्राप्तियों के लिए जहां 2.1 लाख करोड़ रुपये का लक्ष्य तय किया गया था, वहीं केवल 32 हजार करोड़ रुपये का विनिवेश हो सका। ऐसा तब हुआ जब शेयर बाजार और पूंजी बाजार में पर्याप्त तेजी थी। राजस्व के मोर्चे पर कमजोर प्रदर्शन के साथ यह विफलता वित्त मंत्रालय की खराब क्रियान्वयन क्षमता का भी प्रदर्शन करती है।
वित्त मंत्री ने दावा किया कि पूंजीगत व्यय में भारी इजाफा किया गया है लेकिन आंकड़ों में यह नजर नहीं आया। राजस्व घाटा इस बात का आकलन पेश करता है कि सरकार अपने राजस्व व्यय की भरपाई के लिए किस हद तक उधारी लेती है। सन 2020-21 के बजट अनुमान में कहा गया था कि ऐसी उधारी राजकोषीय घाटे का 77 फीसदी होगी और केवल 23 फीसदी पूंजीगत व्यय के लिए शेष रह जाएगी। संशोधित अनुमान में यह घटकर 21 फीसदी रहा। अगले वर्ष के लिए सरकार का प्रस्ताव है कि यह बढ़कर 24 प्रतिशत हो जाएगा। सार्वजनिक व्यय को देखते हुए यह किसी भी तरह अधिक नहीं है। राजकोषीय गणित के समक्ष बड़े आंकड़े कुछ खास नहीं करते। इस वर्ष व्यय की प्रतिबद्धता काफी अलग है। देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि व्यय प्रतिबद्धता में काफी कमी आई है। बहरहाल, यह गिरावट काफी हद तक इसलिए आई क्योंकि जीएसटी क्षतिपूर्ति उपकर के संग्रह में नाकामी हाथ लगी। इस प्रकार राज्यों को मिलने वाली राशि में 26,400 करोड़ रुपये की कमी आई और वित्त आयोग के अनुदान में हुए 32,427 करोड़ रुपये के इजाफे को इसने प्राय: निष्प्रभावी कर दिया।
कुल व्यय में 4 लाख करोड़ रुपये का इजाफा हुआ। बहरहाल, इसका अधिकांश हिस्सा आय समर्थन या स्वास्थ्य व्यय में नहीं है। कम से कम 40 प्रतिशत वृद्धिकारी व्यय खाद्य और उर्वरक से जुड़ी सब्सिडी के क्षेत्र में हुआ जबकि अन्य 12 प्रतिशत मनरेगा आवंटन में इजाफे में। ऐसे में बहुप्रचारित राजकोषीय प्रोत्साहन अनिवार्य तौर पर राहत से संबंधित रहा है। यह भले ही बेहतर है लेकिन इससे यह संकेत नहीं मिलता कि राजकोषीय संसाधनों का इस्तेमाल आर्थिक सुधार को अंजाम देने की मंशा से किया गया।
ऐसे में राजकोषीय घाटे में छह फीसदी की बढ़ोतरी का एक तिहाई हिस्सा संसाधन जुटाने में कमी से संबंधित है और शेष का बड़ा हिस्सा राहत और सब्सिडी से ताल्लुक रखता है। निवेश की इस पूरी कहानी में कोई खास हिस्सेदारी नहीं है। न ही स्वास्थ्य पर व्यय बढ़ाया गया है। राजस्व व्यय अभी भी राजकोषीय घाटे में वृद्धि का प्राथमिक स्रोत है। दुख की बात है कि महामारी ने बजट में ढांचागत बदलाव को इस हद तक गति नहीं प्रदान की है जिसके आधार पर कहा जा सके कि सक्रिय राजकोषीय नीति ने आर्थिक सुधार को जन्म दिया है। यही कारण है कि वित्त वर्ष 2021-22 का जीडीपी अनुमान अभी भी 2019-21 से कम है।
बजट ने यह लक्ष्य तय किया है कि अगले वर्ष राजस्व व्यय में वृद्धि को कम करके राजकोषीय घाटे को कम किया जाएगा। राजस्व प्राप्तियों में इजाफा करने की कोई इच्छा नहीं जताई गई है। यह काबिले तारीफ है खासकर यह देखते हुए कि बीते चार वर्ष में प्रदर्शन बहुत खराब रहा। बहरहाल, विनिवेश के मोर्चे पर यह नजर नहीं आता और वहां आंकड़ों में मामूली बदलाव है। यह राजकोषीय नियोजन की शाश्वत समस्या है। परिसंपत्तियों की बिक्री और विनिवेश की बातें तो काफी होती हैं लेकिन यह सरकार इस दिशा में ठोस कदम कम ही उठा सकी है। यही कारण है कि यह एक आम सा बजट है जो बताता है कि सरकार ने कैसे लोगों को महामारी के असर से बचाने के लिए धन खर्च किया। हालांकि इस बीच समाज का अमीर तबका लगातार मुनाफा कमाता रहा।
देश के समक्ष तमाम आर्थिक चुनौतियां होने के बावजूद अरुण जेटली का 2016 का बजट इस प्रशासन के लिए एक स्वर्णिम मानक बना हुआ है। इसमें किसी आर्थिक नीति का कोई संकेत नहीं है। न ही मध्यम अवधि के व्यय की कोई योजना है जो महामारी के कारण हुए घावों को भरने में मदद करे। मांग के घटक में बदलाव की भी कोई नीति नहीं है। निर्यात आधारित वृद्धि को बढ़ाने वाली कोई बात भी इसमें नजर नहीं आती। कई एकबारगी सुधार जरूर हैं जो जरूरी हैं लेकिन इनसे ऐसी सुसंगत नीति नहीं बनेगी जो 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था तैयार करे या आत्मनिर्भरता को सुरक्षित करे। नए एफआरबीएम लक्ष्यों को लेकर कोई विशिष्ट दलील नहीं दी गई है। मुझे वित्त आयोग की रिपोर्ट का विश्लेषण करना होगा ताकि यह देख सकूं कि क्या ऐसी कोई दलील है? बहरहाल बढ़ी हुई पारदर्शिता, कर प्रशासन को सहज बनाने के लिए की गई सकारात्मक पहल और बजट से इतर चीजों को राजकोषीय लेखा के अधीन लाने के रूप में कुछ सकारात्मक कदम भी उठाए गए हैं जो अच्छी बात है।
(लेखक ओडीआई लंदन के प्रबंध निदेशक हैं। लेख में विचार व्यक्तिगत हैं)
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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