एक और केंद्रीय बजट ने कुछ साल पहले शुरू हुए संरक्षणवाद को मजबूती दी है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट भाषण में कहा कि सीमा शुल्क नीति में 'घरेलू विनिर्माण को प्रोत्साहन एवं वैश्विक मूल्य शृंखला में भारत को जगह दिलाने में मदद का जुड़वां उद्देश्य होना चाहिए।' लेकिन ये जुड़वां उद्देश्य परस्पर एक-दूसरे की विपरीत दिशा में हैं। व्यापार नीति के जरिये घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देना अपरिहार्य रूप से आखिरी पलों में विनिर्माण की आधुनिक व्यवस्था से दूर ले जाता है जिसके लिए लचीलेपन एवं पहुंच की दरकार है। इन दोनों उद्देश्यों को एक साथ हासिल नहीं कर पाने से संबंधित सबूत होने के बावजूद वित्त मंत्रालय सीमा शुल्क में इस तरह छेड़छाड़ की कोशिश कर रहा है जो घरेलू उत्पादकता को हतोत्साहित करता है। इससे हित समूहों की गिरोहबंदी बढ़ जाती है, उपभोक्ताओं को नुकसान होता है और निवेश के लिए समग्र अनिश्चितता पैदा होती है।
सरकार के बचाव में दलीलें रखने वाले अफसरों समेत कुछ लोगों का कहना है कि कुछ उत्पादों पर सीमा शुल्क कम कर दिए गए हैं जबकि कुछ पर शुल्क बढ़ाया गया है। लेकिन करीबी निगाह डालने से पता चलता है कि उनकी दलील में अधिक दम नहीं है। मसलन, कुछ स्टील उत्पादों पर सीमा शुल्क घटा दिया गया है। वित्त मंत्री ने भाषण में कहा है कि एमएसएमई एवं दूसरे उपयोगकर्ता उद्योगों से आई मांग को देखते हुए यह कदम उठाया गया है। लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कुछ समय पहले ही घरेलू लौह एवं इस्पात निर्माताओं की मांगों के अनुरूप स्टील पर शुल्क बढ़ाए भी गए थे। गिरोहबंदी करने एवं नीति समायोजन का सिलसिला शुल्क बाधाओं के जरिये विनिर्माण को प्रोत्साहन देने वाली नीति का ही अपरिहार्य परिणाम है। जब आयात की कीमतें बढ़ जाती हैं तो कुछ समूहों को फायदा होता है जबकि कुछ को नुकसान होता है। अंतिम विजेता वही होगा जो सबसे आखिर में और सबसे असरदार ढंग से लॉबी करेगा। निस्संदेह शुल्क में कटौती से लाभान्वित होने वाले एमएसएमई एवं कलपुर्जा उद्योगों को भविष्य में आगे चलकर उन उपभोक्ताओं से ही आयातित स्टील से बने उत्पादों पर शुल्क में कटौती के लिए लॉबी का सामना करना पड़ेगा।
भारत क्षेत्रीय समग्र आर्थिक भागीदारी (आर-सेप) समझौते का हिस्सा बनने से पहले ही मना कर चुका है। इसने यूरोपीय संघ एवं दूसरे संभावित कारोबारी साझेदारों के साथ वार्ताओं को भी रोक दिया है। अमेरिका ने अपने बाजार तक वरीय पहुंच वाले देशों की सूची से भारत को बाहर किया तो वह किनारे खड़ा रहा। लिहाजा यह यकीन कर पाना मुश्किल है कि भारतीय अधिकारी वास्तव में वैश्विक मूल्य शृंखला का हिस्सा बनना चाहते हैं। इसके बजाय यही लगता है कि वे घरेलू हित समूहों की गुहारों के आगे झुक गए हैं और यह तय कर लिया है कि केवल सीमा शुल्क बाधाओं के जरिये घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देकर आउटपुट वृद्धि हो सकती है। भारत का पांच दशकों का इतिहास यह दिखाता है कि ऐसे कदमों से असल में उत्पादकता में ठहराव आता है और उपभोक्ता कल्याण में तीव्र गिरावट आती है। इसके अलावा, वित्त मंत्री ने सैकड़ों तरह की शुल्क रियायतों पर विमर्श शुरू करने की भी घोषणा की है। नीतिगत अनिश्चितता के लिए यह सिर्फ एक बड़ा संकेत ही नहीं है बल्कि इसने सरकार की लॉबीइंग करने से जुड़े दावों को भी ऊंचा कर दिया है। हालांकि इस सरकार ने किसी भी तरह की घरेलू लॉबी के आगे झुकने के संकेत नहीं दिए हैं लेकिन रियायतों की व्यापक समीक्षा से उलटी छवि ही बनेगी, लिहाजा इसे चुपचाप तिलांजलि दे देनी चाहिए। महामारी के बाद की वैश्विक मूल्य शृंखला में शामिल होने के लिए भारत को सीमा शुल्क में छेड़छाड़ रोक देनी चाहिए और सबके लिए एक टिकाऊ एवं निम्न शुल्क वाली व्यवस्था लागू करने का वादा करना चाहिए। इससे नीतिगत निश्चितता आएगी जो आने वाले वर्षों में लाभांश देगी।
सौजन्य - बिजनेस स्टैंडर्ड।
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