शिशिर कुमार बोस
(नेताजी सुभाष चंद्र बोस का आज 125वां जन्मदिन है। उनके रहस्यमय ढंग से गायब होने के बारे में कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं। उनके भतीजे शिशिर कुमार बोस ने अपनी पुस्तक 'सुभाष ऐंड शरत' में उन्हें याद किया है। पेश है, उसी पुस्तक के अंश- )
विस्तार
सुभाष चाचा के लापता होने की खबर उसी तरह फैलाई गई, जैसी हमने योजना बनाई थी। हमारी तरकीब प्रभावकारी थी और सरकार व पुलिस पूरी तरह भ्रम में थी। हमने सुना कि अधिकारियों ने 19 जनवरी (1941) को कलकत्ता से रवाना हुए एक जापानी जहाज का पता लगाया और उसकी तलाशी लेने के लिए उसे एक चीनी बंदरगाह की तरफ मोड़ दिया है! हालांकि, हमने यह भी सुना कि दिल्ली में केंद्रीय खुफिया ब्यूरो के आकाओं ने उन अफवाहों पर विश्वास नहीं किया, कि सुभाष चाचा ने सांसारिक जीवन को त्याग दिया था और कहीं संन्यासी बन गए थे। सुभाष बोस का पता लगाने और उन्हें पकड़ने के लिए सभी सीमाओं और बंदरगाहों पर एक एहतियात संदेश भेजा गया। लेकिन जब तक पुलिस को लापता होने के बारे में पता चला, तब तक चाचा भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा पार कर काबुल जाने वाले आदिवासी इलाकों में घुस चुके थे।
कुछ समय बाद, आनंदबाजार पत्रिका के सुरेश मजूमदार ने पिता को एक जानकारी के बारे में बताया, जो उन्होंने दिल्ली के किसी स्रोत से सुनी थी। जाहिर है, कुछ दिनों बाद अखबारों में एक सनसनीखेज खुलासा हुआ कि ईस्ट इंडियन रेलवे के एक टिकट चेकर ने सुभाष चंद्र बोस की तरह दिखने वाले किसी व्यक्ति को देखा था। पुलिस ने उससे पूछताछ की। और श्री मजूमदार की जानकारी के अनुसार, उस व्यक्ति ने यात्री की पोशाक और भेष का जो विवरण दिया था, वह चाचा के मोहम्मद जियाउद्दीन के रूप वाले छद्म भेष से मिलता-जुलता था। एक शाम पिताजी ने मुझे बुलाकर मजूमदार के संदेश के बारे में कहा कि विवरण वास्तविकता के इतने करीब है कि लगता है, टिकट चेकर ने शायद सुभाष चाचा को देखा था। मैं उनकी बात से सहमत था और मुझे चिंता हुई।
इस बीच घर और बाहर, सुभाष चाचा के गायब होने के बारे में अटकलों की कोई सीमा नहीं थी। परिवार के कई सदस्य चुप थे, खासकर वे लोग, जो मानते थे कि चाचा का कोई राजनीतिक उद्देश्य था। मैं अपनी दादी का दिमाग कभी पढ़ नहीं पाया। मुझे लगता है कि वह गंभीर रूप से चिंतित थीं, लेकिन बाह्य तौर पर वह शांत थीं। हमारे डॉक्टर चाचा सुनील व्यावहारिक ढंग से सोचते थे। उन्हें डर था कि राजनीतिक रूप से पूरी तरह से अलग-थलग रहने के बाद, सुभाष ने हताशा से बाहर आने के लिए कुछ किया होगा। वह भारत में खुद को कैसे छिपाते? यहां तक कि छोटा बच्चा भी उन्हें जानता था। वहीं कुछ लोगों ने उनके संन्यास लेने की बात मान ली।
मेरी नानी धार्मिक महिला थीं। उन्होंने हमें बड़े यकीन के साथ बताया कि सुभाष एक दिन साधु के भेष में लौटेगा। यह सच है कि किशोर उम्र में सुभाष चाचा एक बार आध्यात्मिक गुरु की तलाश में घर से भाग गए थे। आजादी के दशकों बाद अनेक तरह की अफवाहें फैलीं कि सुभाष चाचा को साधुओं के भेष में देखा गया। हमारे पारिवारिक मित्र नृपेंद्र चंद्र मित्र ने सुना कि एक शाम दो सिख व्यक्ति सुभाष चाचा से मिलने आए और बाद में तीन पगड़ीधारी व्यक्ति एल्गिन रोड के घर से बाहर गए। मेरे चचेरे भाई गणेश ने एक बहुत रंगीन कहानी सुनाई, जो उसने सुनी थी। एक दिन देर रात एक लंबा, खूबसूरत आदमी गंगा के तट पर आया और नाविक से नदी के बीच में ले जाने के लिए कहा। उसने नाविक को काफी पैसे देने की बात कही, तो नाविक तैयार हो गया। जैसे ही नाव गहरे पानी में पहुंची, एक तेज आवाज सुनाई दी और एक पनडुब्बी सामने आई। उस लंबे व्यक्ति ने नाविक को पैसे थमाए और कूदकर पनडुब्बी में सवार हो गया।
पनडुब्बी ने एक बार फिर तेज आवाज की और पानी में समा गई। एल्गिन रोड के घर को संग्रहालय में तब्दील करने के बाद पूरे भारत से लोग इसे तीर्थस्थान की तरह देखने आने लगे। एक बार मैंने सुना कि एक बूढ़ी महिला अपने छोटे पोते को बता रही थी कि कैसे सुभाष चाचा ने खुद को शरीरविहीन जीव में बदल लिया और कमरे की खिड़की के लोहे की सलाखों से निकलकर भागने के लिए सड़क पर उतर गए। सुभाष चाचा का दुस्साहसिक और उल्लेखनीय कारनामा यह था कि वह एक वास्तविक और प्रतिबद्ध क्रांतिकारी थे, जो कई परी कथाओं का विषय बन गए।
सौजन्य - अमर उजाला।
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